नोट बंदी और जीएसटी लागू होने के कारण भारत की अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आर्थिक सलाहकर परिषद का गठन किया है। इस परिषद में जाने-माने अर्थशास्त्रियों को शामिल किया गया है जिनका काम प्रधानमंत्री को आर्थिक मामलों पर सलाह देना होगा।
पिछली आर्थिक सलाहकार परिषद का कार्यकाल पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल के साथ ही ख़त्म हो गया था। नई सरकार बनने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस परिषद का गठन नहीं किया था।
मगर अब लगभग साढ़े तीन साल बाद उन्होंने अर्थशास्त्रियों के एक समूह को अपना परामर्शदाता बनाया है।
सवाल उठता है कि क्या वजह हो सकती है कि शुरू में इसका गठन नहीं किया गया। अब मोदी ने इस परिषद को क्यों बनाया गया?
इस पर पटना स्थित एन एन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज़ में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर डीएम दिवाकर ने बीबीसी से कहा, ''जब नोटबंदी का ऐलान हुआ था, देश-दुनिया में अर्थशास्त्र की समझ रखने वालों ने इसे नकारा था।
उसी वक्त लग रहा था कि प्रधानमंत्री मोदी के पास अच्छे आर्थिक सलाहकर होते तो ऐसी ग़लती नहीं होती।
आज जब अर्थव्यवस्था लुढ़कती जा रही है, उस दौर में बिना किसी तैयारी के जिस तरह से जीएसटी लागू किया गया, आशंका है कि इसके कारण अर्थव्यवस्था और लुढ़केगी।
चारों तरफ इसका आकलन हो रहा है। ऐसे में अब अगर अर्थशास्त्रियों का दल तैयार किया गया है तो बहुत देर हो चुकी है।
दूसरी बात यह है कि 2019 में चुनाव होने वाले हैं। डेढ़ साल के वक़्त में अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना चुनौती भरा काम होगा।
आज इनफॉर्मल सेक्टर के पूरे कारोबार क़रीब-क़रीब बैठ गए हैं। इसके बावजूद अगर अर्थशास्त्री अपनी बात कहना शुरू करें तो हमें दूसरी आशंका है।
रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया के गवर्नर रघुराम राजन और नीति आयोग के वाईस चेयरमैन अरविंद पनगढ़िया जिस तरह से गए हैं, सबने देखा है।
प्रधानमंत्री मोदी के काम करने का जो तरीका है, उसके आधार पर उम्मीद नहीं है कि अर्थशास्त्रियों के सुझावों पर कुछ अमल किया जाएगा।
अच्छा लगेगा, अगर सुविचारित मतों के साथ नई नीतियां बनें और कोई इकनॉमिक पॉलिसी तैयार हो।
उसमें अगर इकनॉमिक्स के बुनियादी सिद्धांतों को ध्यान में रखा जाए तो अर्थव्यवस्था और ख़राब नहीं होगी।
इस परिषद के प्रमुख बिबेक देबरॉय होंगे जो नीति आयोग के सदस्य भी हैं। उन्होंने नीतिगत्र पत्र तैयार किया था।
कृषि पर आधारित उस पत्र से नहीं लगता कि वह अर्थव्यवस्था के भारतीय मौलिक चिंतन को साथ लेकर चलते हैं।
आज जिस तरह से बिबेक देबरॉय चल रहे हैं, बिबेक देबरॉय कॉरपोरेट गवर्नेंस के पक्ष में चलने वाले लोग हैं और बड़े उद्योगों की बात करेंगे।
मगर भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़, असंगठित क्षेत्र के कारोबार और उद्योगों की दिशा में बिबेक देबरॉय का चिंतन अभी की अर्थव्यवस्था को सूट नहीं करेगा।
अध्यक्ष (बिबेक देबरॉय) के नाते अगर उनकी ही बात को समझने के लिए बाकी लोगों को रखा गया है तो इस परिषद से कोई उम्मीद नहीं है।
मगर लोकतांत्रिक प्रक्रिया से बाकी लोगों की बात भी सुनी जाएगी तो शायद कुछ होगा।
अगर अर्थशास्त्र के बुनियादी सिद्धांतों की बात होगी तो अभी तक हुए नुकसान से अलग हटकर निराकरण का रास्ता ढूंढा जा सकता है।
ज़रूरत इस बात की है कि भारत में अर्थशास्त्रियों के समूह के बीच बहस तेज़ करवाई जाए।
मोदी सरकार ने यह धारणा बनाई कि 70 साल में कुछ नहीं हुआ। इसके आधार पर आनन-फ़ानन में योजना आयोग खत्म किया गया।
योजना आयोग में कम से कम इतनी बात तो थी कि विचारों की असहमति की इज्ज़त होती थी। सरकार अपने विरोध में खड़े लोगों की बात भी इस मंच पर सुनती थी।
योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे मोंटेक सिंह अहलूवालिया के अपनी ही सरकार की पॉलिसी के ख़िलाफ़ आर्टिकल छपते थे।
नीति आयोग बनने के बाद योजना आयोग का यह पहलू ख़त्म हो गया। शायद सोचा होगा कि योजना आयोग किसी काम का नहीं है। हम लोग सब कुछ समझते हैं या हमारे लोग सब जानते हैं या फिर हमारा राजनीतिक एजेंडा ही फ़ाइनल है।
वजह जो भी रही हो, इसके बारे में वही बेहतर बता सकते हैं।
मगर योजना आयोग और आर्थिक सलाहकार परिषद का कार्यकाल ख़त्म होने के बाद जिस तरह का स्वरूप बना, वह सुविचारित प्रयास था। अपने हिसाब से चलाने का और वह देश के हित में नहीं था।
योजना आयोग की तरह या आर्थिक सलाहकर समिति की तरह इनके पास थिंक टैंक होता तो नोटबंदी की कतई सलाह नहीं देता।
आज दुनिया के देश भी आश्चर्य से देख रहे हैं कि जो देश वैश्विक मंदी के बाद अपने सर्वाधिक ग्रोथ रेट के साथ चल रहा था, नोटबंदी के बाद ऐसे लुढ़का दिया गया और उसके बाद जैसे आनन-फ़ानन में जीएसटी लागू हो गया, इसके परिणाम भयावह आने वाले हैं।
मोदी सरकार ने समीक्षा तो की है और ख़ासकर नौजवानों को लेकर। चिंता इस बात की भी है कि ग्रोथ रेट तेज़ी से नीचे जा रहा है तो सरकार की ज़रूरत के खर्चे कहां से निकलेंगे?
हालांकि इसके लिए इन्होंने प्लान और नॉन प्लान के खर्च को एकसाथ कर दिया है, जिससे पता नहीं चलता कि डिवेलपमेंट पर क्या खर्च होना है और मेनटेंनेंस पर क्या?''