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डब्ल्यूएचओ विशेषज्ञ ने एमपॉक्स की कोविड से तुलना पर क्या कहा?

डब्ल्यूएचओ विशेषज्ञ ने एमपॉक्स की कोविड से तुलना पर क्या कहा?

मंगलवार, 20 अगस्त 2024

वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइेजशन (डब्ल्यूएचओ) के एक प्रमुख विशेषज्ञ ने कहा है कि एमपॉक्स 'नया कोविड' नहीं है क्योंकि इसे नियंत्रित करने के तरीके के बारे में पता है।

डब्ल्यूएचओ के यूरोप डायरेक्टर डॉक्टर हेन्स क्लुगे ने पत्रकारों से कहा कि एमपॉक्स वायरस के नए वैरिएंट को लेकर चिंताएं हैं और इस बारे में ग्लोबल अलर्ट जारी कर दिया गया है। लेकिन मिलजुल कर एमपॉक्स को नियंत्रित किया जा सकता है।

डॉक्टर हेन्स क्लुगे ने कहा कि सबसे जरूरी चीज तो ये है कि इसके टीके सबसे जरूरतमंद इलाकों तक पहुंचे ताकि घबराहट और उपेक्षा के एक और चक्र को तोड़ा जा सके।

पिछले सप्ताह स्वीडन में मंकीपॉक्स का न्यू वैरिएंट क्लैड आईबी मिला था। इसे अफ्रीका में इसके बढ़ते प्रकोप से जोड़ कर देखा जा रहा है।

मध्य और पूर्वी अफ़्रीका में संक्रामक मंकी पॉक्स (एमपॉक्स) के मामले तेज़ी से बढ़ रहे हैं।

इसे देखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी घोषित कर दिया है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक टेड्रॉस एडोनम गेब्रीयेसुस ने कहा था, "एमपॉक्स के एक नए वैरिएंट का उभरना और इसका तेज़ी से फैलना काफी चिंताजनक है।''

इससे पहले अफ़्रीका सेंटर फॉर डिज़ीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) ने इसे पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी घोषित कर दिया था।

अफ़्रीका सेंटर फॉर डिज़ीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन ने कहा था कि मंकी पॉक्स पिछली बार से ज़्यादा चिंताजनक है। ऐसा इसलिए क्योंकि नया वैरिएंट ज़्यादा घातक है।

एचआईवी को लेकर वैज्ञानिकों का दावा, संक्रमित जीन कोशिका से निकाला जा सकता है

एचआईवी को लेकर वैज्ञानिकों का दावा, संक्रमित जीन कोशिका से निकाला जा सकता है

बुधवार, 20 मार्च 2024

वैज्ञानिकों ने कहा है कि उन्होंने जीन एडिटिंग तकनीक का इस्तेमाल करते हुए सफलतापूर्वक कोशिका से एचआईवी को निकाल कर अलग किया है।

वैज्ञानिकों के अनुसार, उन्होंने नोबेल प्राइज़ जीतने वाली क्रिस्पर जीन एडिटिंग तकनीक का इस्तेमाल कर संक्रमित कोशिका से एचआईवी को काटकर अलग किया है।

उन्होंने इस तकनीक का इस्तेमाल कर मॉलिक्यूलर स्तर पर कैंची की तरह डीएनए से काट कर संक्रमित हिस्सों को अलग किया है।

यूनिवर्सिटी ऑफ़ एमस्टरडैम की टीम का कहना है कि उन्हें उम्मीद है कि इस तरीक़े से शरीर से एचआईवी संक्रमण को निकाला जा सकता है।

हालांकि इसी सप्ताह एक मेडिकल कॉन्फ्रेंस में इससे संबंधित शोध के बारे में और जानकारी देते हुए टीम ने कहा कि मौजूदा शोध इस ''कॉन्सेप्ट'' को साबित करता है कि इस तरह से कोशिका के डीएनए से संक्रमित हिस्सा निकाला जा सकता है लेकिन इस तरीके से जल्द एचआईवी का इलाज हो सकेगा ऐसा नहीं है।

एचआईवी को लेकर अब तक जो दवाएं मौजूद हैं वो इसे फैलने से रोककर इसका इलाज करती हैं, लेकिन वो इसे पूरी तरह से शरीर से ख़त्म नहीं कर सकतीं।

वैज्ञानिकों ने कैंसर के बेहतर इलाज के लिए अध्ययन में क्या पाया?

वैज्ञानिकों ने कैंसर के बेहतर इलाज के लिए अध्ययन में क्या पाया?

गुरुवार, 11 जनवरी 2024

इंग्लैंड में वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन में पता लगाया है कि किसी मरीज के पूर्ण जेनेटिक मेकअप से कैंसर के बेहतर इलाज में सकारात्मक बदलाव हो सकते हैं।

ये अध्ययन नेचर मेडिसिन में प्रकाशित हुआ है। इसमें 13 हजार से ज़्यादा मरीजों की जानकारियों का विश्लेषण किया गया है।

इसमें ट्यूमर के विकास के पीछे म्यूटेशन का विश्लेषण और डीएनए का अध्ययन ये देखने के लिए किया गया है कि मरीज कहीं इस तरह के जीन के साथ पैदा तो नहीं हुआ जिसकी वजह से इस बीमारी का ख़तरा बढ़ गया।

अनुसंधानकर्ताओं ने पाया कि 90 फ़ीसदी से ज़्यादा मस्तिष्क ट्यूमर, 50 फ़ीसदी आंत और फेफड़े के कैंसर में जेनेटिक बदलाव होते हैं जिससे मरीज के इलाज जैसे कि सर्जरी और खास तरह के इलाज पर असर पड़ता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दुनिया की दूसरी मलेरिया वैक्सीन को मंज़ूरी दी: एसआईआई

सीरम इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया (एसआईआई) ने कहा है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने दुनिया की दूसरी मलेरिया वैक्सीन को मंज़ूरी दे दी है।

डब्ल्यूएचओ ने वैक्सीन के प्री-क्लिनिकल और क्लिनिकल ट्रायल के डेटा के आधार पर ये मंज़ूरी दी है। परीक्षणों में ये टीका चार देशों में काफ़ी असरदार पाया गया।

समाचार एजेंसी पीटीआई की ख़बर के अनुसार एसआईआई ने एक बयान में कहा है कि यह बच्चों को मलेरिया से बचाने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन की मंज़ूरी पाने वाला दुनिया का दूसरा टीका बन गया है।

इस आर21/मैट्रिक्स-एम मलेरिया वैक्सीन को एसआईआई ने ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के साथ मिलकर बनाया है।

एसआईआई ने कहा है कि उसने हर साल टीके की 10 करोड़ खुराक के उत्पादन की व्यवस्था कर ली है और अगले दो सालों में ये उत्पादन दोगुना हो जाएगा।

फिलहाल ये वैक्सीन घाना, नाइजीरिया और बुर्किना फासो में इस्तेमाल की जा रही है। लेकिन अब विश्व स्वास्थ्य संगठन की मंज़ूरी के बाद इसे पूरी दुनिया में इस्तेमाल किया जा सके।

एमआरएनए कोविड वैक्सीन की तकनीक ईजाद करने वाले वैज्ञानिकों को मेडिसिन का नोबेल पुरस्कार

मेडिसिन का नोबेल पुरस्कार वैज्ञानिकों की उस जोड़ी को देने का ऐलान किया गया है जिसने एमआरएनए कोविड वैक्सीन की तकनीक ईजाद की।

ये दो वैज्ञानिक डॉ. कैटालिन कारिको और डॉ. ड्रियू वाइसमैन हैं।

इस तकनीक के प्रयोग कोविड महामारी से पहले किए गए थे लेकिन बाद में इसे दुनिया भर के लाखों लोगों को दिया गया।

कैंसर समेत अन्य रोगों को लेकर इसी एमआरएनए तकनीक पर आगे और शोध किए जा रहे हैं।

एमआरएनए यानी मैसेंजर रायबोन्यूक्लिक एसिड शरीर को प्रोटीन बनाने का तरीक़ा बताती है।

वियतनाम में मिला कोरोना वायरस वैरिएंट हवा के ज़रिए तेज़ी से फैलता है

वियतनाम में कोरोना वायरस का एक ऐसा वैरिएंट पाया गया है जो भारत और ब्रिटेन में पहले पाए गए वैरिएंट्स का मिलाजुला रूप है। अधिकारियों का कहना है कि यह हवा के ज़रिए तेज़ी से फैलता है।

वियतनाम के स्वास्थ्य मंत्री गुयेन थान्ह लॉन्ग ने शनिवार, 29 मई 2021 को कहा कि कोरोना का ये नया वैरिएंट बहुत ही ख़तरनाक है।

वायरस हमेशा अपना रूप बदलता है, यानी म्यूटेट करता है। ज़्यादातर वैरिएंट्स बहुत प्रभावी नहीं होते हैं लेकिन कुछ वायरस म्युटेशन के बाद ज़्यादा संक्रामक हो जाते हैं।

जनवरी 2020 में सीओवीआईडी-19 के वायरस की पहचान के बाद से अब तक इसके कई म्यूटेशन्स सामने आ चुके हैं।

समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार वियतनाम के स्वास्थ्य मंत्री ने सरकार की एक बैठक में कहा, ''वियतनाम में कोरोना वायरस का एक नया वैरिएंट मिला है, जो ब्रिटेन और भारत में सबसे पहले मिले वायरस वैरिएंट का मिलाजुला रूप है।''

उन्होंने कहा, ''नया वैरिएंट पहले वाले की तुलना में ज़्यादा संक्रामक है। यह हवा में तेज़ी से फैलता है। नए मरीज़ों की जाँच के बाद यह वैरिएंट सामने आया है। इस वायरस का जेनेटिक कोड जल्द उपलब्ध होगा।''

भारत में अक्टूबर 2020 में कोरोना वायरस एक वैरिएंट मिला था। इस वैरिएंट को B.1.617 कहा जा रहा है। इसे यूके में मिले कोरोना वैरिएंट B.1.1.7 से ज़्यादा ख़तरनाक बताया जा रहा है।

रिसर्च के अनुसार फ़ाइज़र और एस्ट्राज़ेनेका वैक्सीन की दो डोज भारत में मिले वायरस वैरिएंट के ख़िलाफ़ सबसे ज़्यादा प्रभावी हैं। लेकिन इन वैक्सीन की एक डोज़ इसके ख़िलाफ़ अधिक प्रभावी नहीं है।

अभी तक इसके कोई सबूत नहीं मिले हैं कि कोरोना वायरस के किसी म्यूटेशन के कारण बड़ी आबादी में गंभीर बीमारी फैली हो।

कोरोना वायरस के मूल वर्जन को ही ज़्यादा उम्र वालों और पहले से बीमार लोगों के लिए अधिक ख़तरनाक बताया गया है। लेकिन बिना वैक्सीन के वायरस ज़्यादा संक्रामक हो रहा है और इसके कारण ज़्यादा मौतें हो रही हैं।

वियतनाम में हाल के हफ़्तों में कोरोना के नए मामले तेज़ी से बढ़े हैं।  वियतनाम में महामारी शुरू होने के बाद से अब तक 6,700 से ज़्यादा मामले दर्ज किए गए हैं। लेकिन इनमें से आधा से ज़्यादा मामले अप्रैल 2021 के बाद दर्ज किए गए हैं। कोरोना से अब तक यहां 47 लोगों की मौत हुई है।

वैक्सीन राष्ट्रवाद: भारत में दो कोरोना वैक्सीन को मिली मंज़ूरी पर सवाल क्यों उठ रहे हैं?

भारत में ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ़ इंडिया (डीसीजीआई) ने 03 जनवरी 2021 को सीओवीआईडी- 19 के इलाज के लिए दो वैक्सीन के आपातकालीन इस्तेमाल की अनुमति दे दी।

ये दो वैक्सीन हैं- कोविशील्ड और कोवैक्सीन। कोविशील्ड जहां असल में ऑक्सफ़ोर्ड-एस्ट्राज़ेनेका का भारतीय संस्करण है वहीं कोवैक्सीन पूरी तरह भारत की अपनी वैक्सीन है जिसे स्वदेशी वैक्सीन भी कहा जा रहा है।

कोविशील्ड को भारत में सीरम इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया कंपनी बना रही है। वहीं, कोवैक्सीन को भारत बायोटेक कंपनी इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के साथ मिलकर बना रही है।

ऑक्सफ़ोर्ड-एस्ट्राज़ेनेका की वैक्सीन कोविशील्ड को आपातकालीन इस्तेमाल की मंज़ूरी ब्रिटेन में मिलने के बाद ऐसी पूरी संभावना थी कि कोविशील्ड को भारत में मंज़ूरी मिल जाएगी और आख़िर में यह अनुमति मिल गई।

लेकिन इसके साथ ही और इतनी जल्दी कोवैक्सीन को भी भारत में अनुमति मिल जाएगी इसकी उम्मीद किसी को नहीं थी।

कोवैक्सीन को इतनी जल्दी अनुमति दिए जाने के बाद कांग्रेस पार्टी समेत कुछ स्वास्थ्यकर्मियों ने इस पर सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं।

03 जनवरी 2021 को कोविशील्ड और कोवैक्सीन को अनुमति दिए जाने के बाद कई लोगों ने सवाल उठाए कि दोनों वैक्सीन के तीसरे ट्रायल के आँकड़े जारी किए बिना अनुमति कैसे दे दी गई?

तीसरे चरण के ट्रायल में बड़ी संख्या में लोगों पर उस दवा को टेस्ट किया जाता है और फिर उससे आए परिणामों के आधार पर पता लगाया जाता है कि वो दवा कितने प्रतिशत लोगों पर असर कर रही है।

पूरी दुनिया में जिन तीन वैक्सीन फ़ाइज़र बायोएनटेक, ऑक्सफ़ोर्ड-एस्ट्राजे़नेका और मोडेर्ना की चर्चा है, उनके फ़ेस-3 ट्रायल के आँकड़े अलग-अलग हैं। ऑक्सफ़ोर्ड की वैक्सीन को 70 फ़ीसदी तक कारगर बताया गया है।

भारत में कोवैक्सीन के अलावा कोविशील्ड कितने लोगों पर कारगर है इस पर भी सवाल उठे हैं लेकिन ऑक्सफ़ोर्ड की वैक्सीन होने के कारण इसको उस शक की नज़र से नहीं दे खा जा रहा है जितना कोवैक्सीन को देखा जा रहा है।

कोविशील्ड के भारत में 1,600 वॉलंटियर्स पर हुए फ़ेस-3 के ट्रायल के आँकड़ों को भी जारी नहीं किया गया है। वहीं, कोवैक्सीन के फ़ेस एक और दो के ट्रायल में 800 वॉलंटियर्स पर इसका ट्रायल हुआ था जबकि तीसरे चरण के ट्रायल में 22,500 लोगों पर इसको आज़माने की बात कही गई है। लेकिन इनके आँकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए हैं।

कोवैक्सीन के आपातकालीन इस्तेमाल की अनुमति दिए जाने के बाद कांग्रेस नेता शशि थरूर ने ट्वीट करते हुए कहा कि कोवैक्सीन का अभी तक तीसरे चरण का ट्रायल नहीं हुआ है, बिना सोच-समझे अनुमति दी गई है जो कि ख़तरनाक हो सकती है।

उन्होंने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री को टैग करते हुए लिखा, ''डॉक्टर हर्षवर्धन कृपया इस बात को साफ़ कीजिए। सभी परीक्षण होने तक इसके इस्तेमाल से बचा जाना चाहिए। तब तक भारत एस्ट्राज़ेनेका की वैक्सीन के साथ शुरुआत कर सकता है।''

कांग्रेस नेता का यह ट्वीट करना ही था कि भारत में वैक्सीन पर सवाल उठने शुरू हो गए। कांग्रेस नेता जयराम रमेश और समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने भी कोवैक्सीन और लोगों के स्वास्थ्य को लेकर चिंताएं जताईं।

मुंबई में संक्रामक रोगों के शोधकर्ता डॉक्टर स्वप्निल पारिख कहते हैं कि डॉक्टर इस समय मुश्किल स्थिति में हैं।

उन्होंने कहा, ''मैं समझता हूं कि यह समय नियामक बाधाओं को दूर कर प्रक्रिया जल्द से जल्द पूरी करने का है।''

डॉक्टर पारिख ने कहा, ''सरकार और नियामकों को डेटा को लेकर पारदर्शी होने की ज़िम्मेदारी है, जिसकी उन्होंने वैक्सीन को अनुमति देने से पहले समीक्षा की, क्योंकि अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो ये लोगों के भरोसे को प्रभावित करेगा।''

विपक्ष और कई स्वास्थ्यकर्मियों के सवालों के बाद भारत के केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन सामने आए और उन्होंने लगातार कई ट्वीट करते हुए कोवैक्सीन के असरदार होने पर तर्क दिए।

सबसे पहले ट्वीट में उन्होंने लिखा, ''शशि थरूर, अखिलेश यादव और जयराम रमेश सीओवीआईडी-19 वैक्सीन को अनुमति देने के लिए विज्ञान समर्थित प्रोटोकॉल का पालन किया गया है।''

इसके बाद केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने कोवैक्सीन के समर्थन में कई तर्क देते हुए कई ट्वीट किए हालांकि उन्होंने तीसरे चरण के ट्रायल के आँकड़ों का ज़िक्र इन ट्वीट में नहीं किया।

उन्होंने लिखा कि पूरी दुनिया में वैक्सीन को जिन एनकोडिंग स्पाइक प्रोटीन के आधार पर अनुमति दी जा रही है जिसका असर 90 फ़ीसदी तक है वहीं कोवैक्सीन में निष्क्रिय वायरस के आधार पर स्पाइक प्रोटीन के अलावा अन्य एंटीजेनिक एपिसोड होते हैं तो यह सुरक्षित होते हुए उतनी ही असरदार है जितना बाक़ियों ने बताया।

इसके साथ ही हर्षवर्धन ने बताया कि कोवैक्सीन कोरोना वायरस के नए वैरिएंट पर भी असरदार है।

हर्षवर्धन ने ट्वीट करके यह भी बताया कि कोवैक्सीन के आपातकालीन इस्तेमाल की मंज़ूरी (ईयूए) शर्तिया आधार पर दी गई है।

उन्होंने ट्वीट में लिखा, ''क्लीनिकल ट्रायल मोड में कोवैक्सीन के लिए ईयूए सशर्त दिया गया है। कोवैक्सीन को मिली ईयूए कोविशील्ड से बिलकुल अलग है क्योंकि यह क्लीनिकल ट्रायल मोड में इस्तेमाल होगी। कोवैक्सीन लेने वाले सभी लोगों को ट्रैक किया जाएगा उनकी मॉनिटरिंग होगी अगर वे ट्रायल में हैं।''

कोवैक्सीन बनाने वाली कंपनी भारत बायोटैक के चेयरमैन कृष्ण इल्ला ने बयान जारी किया है, ''हमारा लक्ष्य उन आबादी तक वैश्विक पहुंच प्रदान करना है, जिन्हें इसकी सबसे अधिक आवश्यकता है।''

उन्होंने बयान में कहा, ''कोवैक्सीन ने अद्भुत सुरक्षा आँकड़े दिए हैं जिसमें कई वायरल प्रोटीन ने मज़बूत प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया दी है।''

हालांकि, कंपनी और डीसीजीआई ने भी कोई ऐसे आंकड़े नहीं दिए हैं जो बता पाएं कि वैक्सीन कितनी असरदार और सुरक्षित है लेकिन समाचार एजेंसी रॉयटर्स से एक सूत्र ने बताया कि इस वैक्सीन की दो ख़ुराक का असर 60 फ़ीसदी से अधिक है।

दिल्ली एम्स के प्रमुख डॉक्टर रणदीप गुलेरिया ने एक समाचार चैनल से बातचीत में कहा है कि वो आपातकालीन स्थिति में कोवैक्सीन को एक बैकअप के रूप में देखते हैं और फ़िलहाल कोविशील्ड मुख्य वैक्सीन के रूप में इस्तेमाल होगी।

दिल्ली एम्स के निदेशक डॉ रणदीप गुलेरिया के बयान को न्यूज़ एजेंसी एएनआई ने ट्वीट किया, ''आपातकालीन स्थिति में जब मामलों में अचानक वृद्धि होती है और हमें टीकाकरण करने की आवश्यकता होती है, तो भारत बायोटेक वैक्सीन का उपयोग किया जाएगा। इसका उपयोग एक बैकअप के रूप में भी किया जा सकता है, जब हम यह सुनिश्चित नहीं करते हैं कि सीरम इंस्टीट्यूट का वैक्सीन कितना प्रभावी हो रहा है।''

गुलेरिया के इस बयान पर पत्रकार तवलीन सिंह ने रीट्वीट करते हुए लिखा है, ''इसका क्या मतलब है? अगर टीकाकरण को बैकअप की ज़रूरत है तो फिर वैक्सीन का क्या मतलब है।''

उन्होंने कहा कि तब तक कोवैक्सीन की और दवाएं तैयार होंगी और वो फ़ेज-3 के मज़बूत डेटा इस्तेमाल करेंगे जो बताएगा कि यह कितनी सुरक्षित और असरदार है लेकिन शुरुआती कुछ सप्ताह के लिए कोविशील्ड इस्तेमाल की जाएगी जिसकी पाँच करोड़ ख़ुराक मौजूद है।

कोवैक्सीन भारत की वैक्सीन है। जबकि कोविशील्ड भी भारत में बन रही है लेकिन वो मूल रूप से ऑक्सफ़ोर्ड-एस्ट्राज़ेनेका की वैक्सीन है।

दोनों वैक्सीन को अनुमति मिलने के बाद भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट में लिखा कि जिन दो वैक्सीन के इमर्जेंसी इस्तेमाल को मंज़ूरी दी गई है, वे दोनों मेड इन इंडिया हैं, यह आत्मनिर्भर भारत के सपने को पूरा करने के लिए हमारे वैज्ञानिक समुदाय की इच्छाशक्ति को दर्शाता है।

पत्रकार शेखर गुप्ता ने भी वैक्सीन राष्ट्रवाद को लेकर कहा है, ''जब चीन और रूस ने लाखों लोगों को तीसरे चरण के ट्रायल का डेटा सार्वजनिक किए बिना वैक्सीन लगाई और अब भारत ने भी तीसरे चरण के ट्रायल की समीक्षा किए बिना इस्तेमाल की अनुमति दे दी है। यह खतरनाक कदम है। एक ग़लती से वैक्सीन के भरोसे को भारी नुक़सान हो सकता है।''

अब इन दोनों वैक्सीन के आपातकालीन इस्तेमाल की मंज़ूरी मिलने के बाद इसे सबसे पहले स्वास्थ्यकर्मियों और फ़्रंटलाइन कर्मचारियों को दिया जाएगा।

भारत का लक्ष्य जुलाई 2021 तक 30 करोड़ लोगों को कोरोना का टीका लगाने का है।

कोविड 19 वैक्सीन: क्या दवा कंपनियां बंपर मुनाफ़ा कमाएंगी?

कोरोना महामारी की शुरुआत के समय ये कहा गया था कि किसी भी बीमारी के लिए टीका विकसित करने में कई साल लगते हैं। इसलिए टीके को लेकर बहुत अधिक उम्मीद ना करें।

लेकिन अब दस महीने बीतते-बीतते ही कोरोना वायरस महामारी के टीके दिए जाने लगे हैं और इन टीकों को अविष्कार करने में जो कंपनियां आगे हैं, उनमें से कई के पीछे घरेलू कंपनियां हैं।

नतीजतन, निवेश विश्लेषकों का अनुमान है कि इनमें से कम से कम दो कंपनियां (अमेरिकी बायोटेक कंपनी मॉडर्ना और जर्मनी की बायो-एन-टेक) अपनी साझेदार कंपनी, अमेरिका की फ़ाइज़र के साथ मिलकर अगले साल अरबों डॉलर का व्यापार करेंगी।

लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि असल में वैक्सीन बनाने वाले इसके अलावा कितने रुपये का व्यापार करने वाले हैं?

जिस तरह से इन टीकों को बनाने के लिए फ़ंड किया गया है और जिस तरह से बड़ी संख्या में कंपनियां वैक्सीन निर्माण के लिए सामने आई हैं, उससे तो यही लगता है कि बड़ा मुनाफ़ा बनाने का कोई भी अवसर लंबे समय तक नहीं रहेगा।

किन लोगों ने पैसा लगाया है?

कोरोना महामारी के दौर में वैक्सीन की ज़रूरत को देखते हुए सरकार और फ़ंड देने वालों ने वैक्सीन बनाने की योजना और परीक्षण के लिए अरबों पाउंड की राशि दी। गेट्स फ़ाउंडेशन जैसे संगठनों ने खुले दिल से इन योजनाओं का समर्थन किया। इसके अलावा कई लोगों ने ख़ुद भी आगे आकर इन योजनाओं का समर्थन किया। अलीबाबा के फ़ाउंडर जैक मा और म्यूज़िक स्टार डॉली पार्टन ने भी आगे आकर इन योजनाओं के लिए फ़ंड दिया।

साइंस डेटा एनालिटिक्स कंपनी एयरफ़िनिटी के अनुसार, कोविड 19 का टीका बनाने और परीक्षण के लिए सरकारों की ओर से 6.5 बिलियन पाउंड दिये गए हैं। वहीं गैर-लाभार्थी संगठनों की ओर से 1.5 बिलियन पाउंड दिया गया।

कंपनियों के अपने ख़ुद के निवेश से सिर्फ़ 2.6 बिलियन पाउंड ही आए। इनमें से कई कंपनियां बाहरी फ़ंडिंग पर बहुत अधिक निर्भर करती हैं।

ये एक बहुत बड़ा कारण रहा कि बड़ी कंपनियों ने वैक्सीन परियोजनाओं को फ़ंड देने में बहुत जल्दबाज़ी नहीं दिखाई।

अतीत में इस तरह की आपातस्थिति में टीके का निर्माण करना बहुत अधिक लाभदायक साबित नहीं हुआ है। वैक्सीन खोजने की प्रक्रिया में समय लगता है। ग़रीब देशों को वैक्सीन की बहुत बड़ी खेप की ज़रूरत होती है लेकिन अधिक क़ीमत के कारण वे इसे ले नहीं सकते। धनी देशों में दैनिक तौर पर ली जाने वाली दवाओं से अधिक मुनाफ़ा कमाया जाता है।

ज़ीका और सार्स जैसी बीमारियों के लिए टीके बनाने वाली कंपनियों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। वहीं दूसरी ओर फ़्लू जैसी बीमारियों के लिए बनी वैक्सीन का बाज़ार अरबों का है। ऐसे में अगर कोविड-19 फ़्लू की तरह ही बना रहा और इसके लिए सालाना तौर पर टीका लगाने की ज़रूरत पड़ती रही तो यह वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों के लिए लाभदायक हो सकता है। लेकिन उन कंपनियों के लिए ही जो सबसे अधिक असरदार रहेंगी, साथ ही बजट में भी होंगी।

वे क्या क़ीमत लगा रहे हैं?

कुछ कंपनियां वैश्विक संकट के इस समय में लाभ बनाती हुई नहीं दिखना चाहती हैं, ख़ासतौर पर बाहर से इतनी अधिक फ़ंडिंग मिलने के बाद। अमेरिका की बड़ी दवा निर्माता कंपनियां जैसे जॉनसन एंड जॉनसन और ब्रिटेन की एस्ट्राज़ेनेका ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी स्थित बायोटेक कंपनी के साथ मिलकर काम रही हैं।

इन कंपनियों ने अपनी ओर से यह वादा किया है कि वे अपनी वैक्सीन की क़ीमत उतनी ही रखेंगी जिससे सिर्फ़ उनकी लागत निकल आए। अभी की बात करें तो एस्ट्राज़ेनेका के संदर्भ में माना जा रहा है कि यह सबसे सस्ती कीमत (4 डॉलर यानी क़रीब 300 रुपये प्रति डोज़) में उपलब्ध होगी।

मॉडर्ना एक छोटी बायोटेक्नॉलजी कंपनी है। जोकि सालों से आरएनए वैक्सीन के पीछे की तकनीक पर काम कर रही है। उनके प्रति डोज़ की क़ीमत क़रीब 37 डॉलर यानी दो हज़ार सात रुपये से कुछ अधिक है। उनका उद्देश्य कंपनी के शेयरधारकों के लिए लाभ कमाना है।

हालांकि इसका यह मतलब नहीं कि ये क़ीमतें तय कर दी गई हैं।

आमतौर पर दवा कंपनियां अलग-अलग देशों में अलग-अलग तरह से शुल्क देती हैं। यह सरकारों पर निर्भर करता है। एस्ट्राज़ेनेका ने सिर्फ़ महामारी तक के लिए क़ीमतें कम रखने का वादा किया है। हो सकता है कि वो अगले साल से इसकी तुलनात्मक रूप से अधिक क़ीमत वसूलने लगें। यह पूरी तरह महामारी के स्वरूप पर निर्भर करता है।

बार्कलेज़ में यूरोपियन फ़ार्मास्यूटिकल की प्रमुख एमिली फ़ील्ड कहती हैं, ''अभी अमीर देशों की सरकारें अधिक क़ीमत देंगी। वे वैक्सीन या डोज़ को लेकर इतने उतावले हैं कि बस कैसे भी महामारी का अंत कर सकें।''

वे आगे कहती हैं, ''संभवत: अगले साल जैसे-जैसे बाज़ार में और अधिक वैक्सीन आने लगेंगी, प्रतिस्पर्धा के कारण हो सकता है वैक्सीन के दाम भी कम हो जाएं।''

एयरफ़िनिटी के चीफ़ एक्ज़ीक्यूटिव रासमस बेक हैनसेन कहते हैं, ''इसी बीच, हमें निजी कंपनियों से भी उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। विशेष तौर पर ऐसी कंपनियां जो छोटी हैं और जो कोई दूसरा उत्पाद भी नहीं बेचतीं। ऐसे में उनसे यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि वे बिना मुनाफ़े के बारे में सोचे वैक्सीन बेचेंगी।''

वो कहते हैं, ''इस बात को दिमाग़ में रखना होगा कि इन कंपनियों ने एक बड़ा जोखिम उठाया है और वे वास्तव में तेज़ी से आगे बढ़ी हैं।''

वो आगे कहते हैं, ''और अगर आप चाहते हैं कि ये छोटी कंपनियां भविष्य में भी कामयाब हों तो उन्हें उस लिहाज़ से पुरस्कृत किये जाने की ज़रूरत है।''

लेकिन कुछ मानवतावादी संकट की स्थिति और सार्वजनिक वित्त पोषण को लेकर भिन्न मत रखते है। उनके मुताबिक़, यह हमेशा की तरह व्यापार का समय नहीं है।

क्या उन्हें अपनी तकनीक साझा करनी चाहिए?

अभी जबकि इतना कुछ दांव पर लगा हुआ है तो इस तरह की मांग उठ रही है कि इन वैक्सीन के पीछे की पूरी तकनीकी और जानकारी साझा की जाए ताकि दूसरे देश कंपनियां वैक्सीन की डोज़ेज़ को बना सकें। उदाहरण के तौर पर जो कंपनियां भारत और दक्षिण अफ्रीका में हैं।

मेडिसीन्स लॉ एंड पॉलिसी की एलेन टी होएन कहती हैं, ''पब्लिक फ़ंडिंग प्राप्त करने के लिए यह एक शर्त होनी चाहिए।''

वो कहती हैं, ''जब महामारी की शुरुआत हुई थी तब बड़ी फ़ार्मा कंपनियों ने वैक्सीन को लेकर बहुत उत्साह नहीं दिखाया था। लेकिन जब सरकार और एजेंसियां फ़ंड के साथ आगे आईं तो उन्हें इस पर काम करना पड़ा।''

होएन कहती हैं, ''उन्हें नहीं समझ आता है कि क्यों उन्हीं के पास परिणाम से लाभ पाने का विशेषाधिकार हो।''

वो कहती है, ''ये नई खोज़ें आगे चलकर इन वाणिज्यिक संगठनों की निजी संपत्ति बन जाती हैं।''

हालांकि बौद्धिक स्तर पर लोग एक-दूसरे के संग कुछ चीज़ें साझा कर रहे हैं, लेकिन यह किसी भी सूरत में पर्याप्त नहीं हैं।

तो क्या फ़ार्मा कंपनियां बंपर मुनाफ़ा कमाएंगी?

सरकारों और बहुपक्षीय संगठनों ने पहले ही निर्धारित मूल्य पर अरबों ख़ुराकें ख़रीदने का संकल्प लिया है। ऐसे में अगले कुछ महीनों तक तो कंपनियां उन ऑर्डर्स को जितनी जल्दी हो सकेगा उतनी जल्दी पूरा करने में व्यस्त रहेंगी।

जो कंपनियां वैक्सीन की डोज़ेज़ अमीर देशों को बेच रहे हैं वे अपने निवेश पर रिटर्न की भी उम्मीद करने लगे हैं। हालांकि एस्ट्राज़ेनेका को सबसे अधिक ख़ुराक की आपूर्ति करनी है बावजूद इसके वो अभी सिर्फ़ लागत को ही पूरा करने पर ध्यान देगा।

पहली मांग की आपूर्ति हो जाने के बाद अभी यह अनुमान लगा पाना थोड़ा कठिन है कि वैक्सीन को लेकर आगे स्थिति कैसी होगी? क्योंकि यह कई चीज़ों पर निर्भर करता है। मसलन, जिन्हें वैक्सीन का डोज़ दिया गया उनमें कोरोना के प्रति प्रतिरक्षा कब तक रहती है? कितनी वैक्सीन्स सफल हो पाती हैं? और वैक्सीन का निर्माण और फिर वितरण कितने सुचारू तरीक़े से हो पाता है?

बार्कलेज की एमिली फ़ील्ड के मुताबिक़, ''मुनाफ़ा कमाने के अवसर बहुत अस्थायी होगें।''

भले ही जो लोग अभी वैक्सीन बनाने की रेस में आगे हैं और अपनी बौद्धिक संपदा को दूसरे से साझा नहीं कर रहे हैं बावजूद इसके दुनिया भर में 50 ऐसी वैक्सीन्स बनायी जा रही हैं जो क्लिनिकल ट्रायल के दौर में हैं।

एमिली फ़ील्ड के मुताबिक़, ''आने वाले दो सालों में हो सकता है कि बाज़ार में 20 वैक्सीन हों। ऐसे में वैक्सीन के लिए बहुत अधिक क़ीमत वसूल पाना मुश्किल होता जा रहा है।''

वो मानती हैं कि लंबे वक्त में इसका असर कंपनी की साख पर पड़ सकता है। अगर कोई वैक्सीन सफल हो जाती है तो यह कोविड 19 उपचार या इससे जुड़े अन्य उत्पादों को बिक्री के द्वार खोलने में मददगार साबित हो सकती है।

एयरफ़िनिटी के हैनसैन कहते हैं कि अगर ऐसा होता है तो यह महामारी के कठिन दौर से निकली एक राहत देने वाली बात हो सकती है।

वह सरकारों से उम्मीद करते हुए कहते हैं कि सरकारों को महामारी के संदर्भ में रणनीति बनाने में निवेश करना चाहिए। ठीक उसी तरह जैसे सरकारें अभी सुरक्षा और बचाव के लिए कर रही हैं।

इन सबमें जो सबसे अधिक ग़ौर करने वाली और प्रभावित करने वाली बात है वो ये कि आख़िर बायो-एन-टेक और मॉडर्ना की बाज़ार क़ीमत अचानक से ऊपर कैसे पहुंच गई? ऐसा इसलिए क्योंकि उनके टीके उनकी आरएनए टेक्नोलॉजी की अवधारणा का प्रमाण देते हैं।

कोरोना महामारी से पहले तक बायो-एन-टेक त्वचा कैंसर के लिए एक टीके पर काम कर रहा थी। जबकि मॉडर्ना ओवैरियन कैंसर के लिए एक आरएनए आधारित वैक्सीन पर काम कर रही थी। अगर इसमें से कोई भी सफ़ल होता है तो यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि होगी।

क्या Covaxin कोरोना वायरस से बचाव करने में सक्षम है?

भारत में Covaxin नाम की कोरोना की वैक्सीन बना रही कंपनी भारत बायोटेक ने कहा है कि इस वैक्सीन के क्लिनिकल ट्रायल के दौरान व्यक्ति को दो डोज़ दिए जाते हैं जो 28 दिनों बाद यानी लगभग एक महीने के अंतराल पर दिए जाते हैं।

समाचार एजेंसी एएनआई के अनुसार कंपनी ने कहा है कि दूसरा डोज़ दिए जाने के 14 दिनों के बाद ही वैक्सीन के असर के बारे में पता लगाया जा सकता है। इस वैक्सीन को इस तरह से बनाया गया है कि ये उन लोगों पर प्रभावी होती है जो इसकी दो डोज़ लेते हैं।

वैक्सीन के तीसरे चरण के क्लिनिकल ट्रायल के बारे में कंपनी ने कहा है कि तीसरे चरण के ट्रायल में 50 फीसदी लोगों को वैक्सीन दी जाती है जबकि अन्य 50 फीसदी को प्लेसबो दिया जाता है।

प्लेसबो ख़ास तरह की दवा होती है जो शरीर पर किसी तरह का प्रभाव नहीं डालती। डॉक्टर इसका इस्तेमाल ये जानने के लिए करते हैं कि व्यक्ति पर दवा लेने का कितना और कैसा मानसिक असर पड़ता है।

इससे पहले हरियाणा सरकार में कैबिनेट मंत्री अनिल विज ने अपना कोरोना टेस्ट पॉज़ीटिव आने की जानकारी दी थी।

20 नवंबर 2020 को उन्होंने Covaxin का टीका लगवाकर वैक्सीन के तीसरे चरण के ट्रायल की शुरुआत की थी।

भारत के प्रान्त हरियाणा के स्वास्थ्य मंत्री ने 20 नवंबर 2020 को कोरोना वायरस से बचाव के लिए टीका लगवाया था। स्वास्थ्य मंत्री टीका लगवाने के बावजूद कोरोना वायरस से संक्रमित हो गए है।

हरियाणा सरकार में कैबिनेट स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज का कोरोना टेस्ट पॉज़ीटिव आया है। अनिल विज ने ट्विटर पर यह जानकारी दी।

उन्होंने ट्वीटर लिखा है, ''मेरा कोरोना टेस्ट पॉज़ीटिव आया है। मैं अंबाला कैंट के सिविल अस्पताल में भर्ती हूं। बीते दिनों जो भी लोग मेरे संपर्क में आए, उन्हें सलाह है कि वे भी अपनी कोरोना जांच करा लें।''

इससे पहले 20 नवंबर 2020 को उन्होंने अंबाला के एक अस्पताल में Covaxin का टीका लगवाकर वैक्सीन के तीसरे चरण के ट्रायल की शुरुआत की थी।

कोरोना वायरस चीन से फैलना शुरू नहीं हुआ: अमेरिकी शोध

आज (04 दिसंबर 2020) से क़रीब एक साल पहले वैज्ञानिकों को कोविड-19 बीमारी फ़ैलाने वाले Sars-CoV-2 कोरोना वायरस के बारे में तब पता चला जब चीन के वुहान में कुछ लोगों के इससे संक्रमित होने की ख़बर आई।

लेकिन एक नए शोध के अनुसार महामारी का कारण बना ये वायरस इससे कई सप्ताह पहले लोगों को संक्रमित कर चुका था।

अमेरिका के सेंटर्स फ़ॉर डीज़ीज़ कंट्रोल एंड प्रीवेन्शन (सीडीसी) के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए इस शोध के नतीजों को क्लिनिकल इन्फ़ेक्शियस डीज़ीज़ नाम की पत्रिका में प्रकाशित किया गया है।

अब तक मौजूद जानकारी के अनुसार आधिकारिक तौर पर वैज्ञानिकों को कोरोना वायरस के बारे में 31 दिसंबर 2019 को तब जानकारी मिली जब चीन के वुहान के हुबेई प्रांत के स्वास्थ्य अधिकारियों ने एक चेतावनी जारी कर कहा कि यहां कई ऐसे मामले दर्ज किए जा रहे हैं जिनमें निमोनिया के गंभीर लक्षण हैं। उन्होंने इसे अजीब तरह की सांस लेने से संबंधित बीमारी कहा।

लेकिन महामारी के शुरू होने के ग्यारह महीनों बाद अब शोधकर्ताओं का कहना है कि अमेरिका के तीन राज्यों में 39 ऐसे लोग हैं जिनके शरीर में कोरोना वायरस के एंटीबॉडीज़ मिले हैं। ये एंटीबॉडीज़ चीन के कोरोना वायरस से जुड़ी चेतावनी देने के दो सप्ताह पहले उनके शरीर में मौजूद थे।

हालांकि अमेरिका में Sars-Cov-2 का पहला मामला 21 जनवरी 2020 को ही दर्ज किया गया था।

शोध के नतीजे क्या कहते हैं?

इस शोध के अनुसार अमेरिका में 13 दिसंबर 2019 से लेकर 17 जनवरी 2020 के हुए ब्लड डोनेशन में कुल 7,389 लोगों ने ख़ून दिया था। इनमें से 106 लोगों के ख़ून के नमूनों में कोरोना वायरस की एंटीबॉडीज़ मिली हैं।

किसी व्यक्ति के शरीर में एंटीबॉडीज़ मिलने का मतलब है कि वो व्यक्ति वायरस से संक्रमित हुआ है और उसके रोग प्रतिरोधक तंत्र ने उस वायरस से निपटने के लिए एंटीबॉडीज़ बनाई हैं।

कैलिफ़ोर्निया, ओरेगॉन और वॉशिंगटन में 13 से 16 दिसंबर 2019 के बीच लिए गए ख़ून के नमूनों में से 39 में कोरोना वायरस की एंटीबॉडीज़ हैं।

शोध के अनुसार 67 नमूने जनवरी 2020 में मैसेचुसैट्स, मिशिगन, रोड आइलैंड और विस्कॉन्सिन में जमा किए गए थे। ये इन राज्यों में महामारी का प्रकोप बढ़ने से कहीं पहले था।

अधिकतर लोग जो इस वायरस के संपर्क में आए थे वो पुरुष थे और उनकी औसत उम्र 52 साल थी।

शोधकर्ताओं का मानना है कि हो सकता है कि इन लोगों के शरीर में पहले से ही मौजूद किसी कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ एंटीबॉडीज़ बन गई हों।  हालांकि उनका कहना है कि शोध के अनुसार अधिकतर लोग जिनमें एंटीबॉडीज़ मिले हैं उनमें से कई लोगों में उस वक्त कोविड-19 के लक्षण भी मौजूद थे।

हालांकि शोधकर्ता कहते हैं कि अमेरिका में बड़े पैमाने पर वायरस का संक्रमण फ़रवरी 2020 के आख़िरी सप्ताह में ही फैलना शुरू हुआ। लेकिन अब तक वायरस की उत्पत्ति को लेकर जो जानकारी है क्या इस शोध से उसमें कोई बदलाव आएगा?

आख़िर वायरस सबसे पहले कहां पाया गया?

Sars-Cov-2 वायरस सबसे पहले कहां पाया गया? इस सवाल का उत्तर देना शायद कभी संभव न हो सके।

इस तरह के कई संकेत मिले हैं कि ये वायरस 31 दिसंबर 2019 में चीन के वुहान में पाए जाने से कई सप्ताह पहले से ही दुनिया में मौजूद था।

लेकिन सीडीसी के शोधकर्ताओं का कहना है कि वो इस बारे में निश्चित तौर पर कुछ कह नहीं सकते कि ये लोग अपने देश में ही संक्रमित हुए थे या फिर यात्रा के दौरान वो वायरस की चपेट में आए थे।

ब्लड डोनेशन कार्यक्रम का आयोजन करने वाली संस्था रेड क्रॉस का कहना है कि जिन लोगों के नमूने इकट्ठा किए गए थे उनमें से केवल तीन फ़ीसद ने कहा था कि उन्होंने हाल में विदेश यात्रा की है। इसमें से पाँच फ़ीसद का कहना था कि वो एशियाई देश के दौरे से लौटे हैं।

इससे पहले हुए कुछ और शोध में भी चीन की चेतावनी देने से पहले दूसरे देशों के लोगों में कोरोना वायरस होने के सबूत मिले थे।

मई 2020 में फ्रांसीसी वैज्ञानिकों ने कहा कि 27 दिसंबर 2019 को पेरिस के नज़दीक एक व्यक्ति का इलाज संदिग्ध निमोनिया मरीज़ के तौर पर किया गया था। ये व्यक्ति वास्तव में कोरोना वायरस से संक्रमित थे।

कई देशों में शोधकर्ताओं ने सीवर के पानी के नमूनों में कोरोना वायरस पाए जाने की बात की थी। ये नमूने महामारी की घोषणा से कई सप्ताह पहले लिए गए थे।

जून 2020 में इटली के वैज्ञानिकों ने कहा था कि मिलान शहर के सीवर के पानी में 18 दिसंबर 2019 को कोरोनो वायरस के निशान मिले थे। हालांकि यहां कोरोना वायरस के पहले मामले की पुष्टि काफी बाद में हुई थी।

स्पेन में हुए एक शोध के अनुसार बार्सिलोना में जनवरी 2020 के मध्य में सीवर के पानी के जो नमूने लिए गए थे, उनमें कोरोनो वायरस के निशान मिले।  लेकिन यहां चालीस दिन बाद कोरोना के पहले मामले की पुष्टि हुई थी।

ये वायरस ब्राज़ील कैसे पहुंचा? इसे लेकर भी कई तरह के सवाल उठाए गए हैं।

ब्राज़ील में कोरोना संक्रमण का पहला मामला 26 फरवरी 2020 को पाया गया था। साओ पाउलो के 61 साल के एक व्यापारी कोरोना के पहले मरीज़ जो कुछ दिनों पहले इटली की यात्रा से लौटे थे। उस वक्त तक इटली महामारी का दूसरा केंद्र बन चुका था।

हालांकि ब्राज़ील के फ़ेडरल यूनिवर्सिटी ऑफ़ सैंटा कैटरीना (यूएफ़एससी) के शोधकर्ताओं के एक दल ने इससे कुछ महीने पहले 27 नवंबर 2019 को सीवर के पानी में वायरस पाए जाने की बात की थी।

ओस्वाल्डो क्रूज़ फ़ाउंडेशन द्वारा किए गए एक और शोध के अनुसार ब्राज़ील में आधिकारिक तौर पर कोरोना संक्रमण के पहले मरीज़ की पुष्टि होने से क़रीब एक महीने पहले 19 से 25 जनवरी 2020 के बीच यहां Sars-Cov-2 संक्रमण का पहला मामला मिला था। हालांकि अब तक ये नहीं पता है कि इस व्यक्ति ने विदेशी दौरा किया था या नहीं।

तो क्या वुहान पशु बाज़ार से वायरस नहीं फैला?

Sars-CoV-2 के बारे में जो एक बात अब तक पता नहीं चल पाई है वो ये नहीं है कि ये जानवरों से इंसानों में कब आया, बल्कि ये है कि इस वायरस ने लोगों को संक्रमित करना कब शुरू किया?

जानकारों का कहना है कि अब तक महामारी का केंद्र वुहान के जानवरों के बाज़ार को माना जा रहा है जहां जीवित और मृत जंगली जानवरों का व्यवसाय होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि शुरुआती दौर में संक्रमण के जो मामले दर्ज किए गए उनमें से बड़ी संख्या में मामले इस बाज़ार से जुड़े थे।  लेकिन इस बात को लेकर शोधकर्ता अनिश्चित हैं कि ये वायरस वहां से एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के शरीर में फैलना शुरू हुआ।

हॉन्ग कॉन्ग यूनिवर्सिटी में माइक्रोबायोलॉजिस्ट युएन क्वॉक-युंग ने बीबीसी को बताया, ''अगर आप मुझसे पूछेंगे तो मेरी राय है कि इस बात की संभावना है कि वायरस उन बाज़ारों से फैलना शुरू हुआ जहां जंगली जानवरों की खरीद-बिक्री होती है।''

कोरोना वायरस को लेकर चीन ने भी अपनी टाइमलाइन को थोड़ा पीछे किया है। तेज़ी से पैर फैला रहे किसी वायरस की शुरुआत से जुड़ी जांच के दौरान ऐसा करना कोई बड़ी बात नहीं है।

चीन के वुहान में डॉक्टरों द्वारा की गई एक स्टडी के अनुसार यहां कोरोना के पहले मामले की पहचान 01 दिसंबर 2019 को हुई थी और इसका नाता जानवरों के बाज़ार से नहीं था। ये स्टडी मेडिकल जर्नल लैंसेट में प्रकाशित की गई थी।

कुछ जानकार कहते हैं कि महामारी फैलाने की क्षमता रखने वाला वायरस, बिना पहचान में आए महीनों तक दुनिया भर में मौजूद रहे, ऐसा संभव नहीं है।

लेकिन ये संभव है कि उत्तर गोलार्ध में विशेषकर सर्दियों के दौरान ये वायरस पहचान में आया हो और पहले से मौजूद रहा हो।