बिहार / झारखण्ड

नीतीश कुमार ने आठवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, तेजस्वी यादव ने भी शपथ ली

नीतीश कुमार ने बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले ली है। उनके साथ तेजस्वी यादव ने भी शपथ ली है। बिहार के राज्यपाल फागू चौहान ने राजभवन में हुए एक कार्यक्रम में उन्हें पद और गोपनीयता की शपथ दिलाई।

एक दिन पहले ही नीतीश कुमार ने एनडीए गठबंधन से नाता तोड़ते हुए मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया था। इसके बाद उन्होंने राष्ट्रीय जनता दल के साथ नई सरकार बनाने का दावा पेश किया था।

नीतीश कुमार ने 165 विधायकों के समर्थन का दावा पेश किया है। वर्ष 2020 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था। लेकिन पिछले कुछ दिनों से दोनों पार्टियों के बीच मतभेद खुलकर सामने आने लगे थे।

भारत के पूर्व केंद्रीय मंत्री आरसीपी सिंह को लेकर विवाद और बढ़ गया। मंगलवार, 9 अगस्त, 2022 को नीतीश कुमार ने जनता दल यूनाइटेड के विधायकों और सांसदों की बैठक बुलाई थी, जिसमें बीजेपी से अलग होने का फ़ैसला किया गया। नीतीश कुमार ने आठवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली है।

पहली बार उन्होंने तीन मार्च 2000 में मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। उस समय उनके पास बहुमत नहीं था और सात दिन बाद ही उन्हें पद छोड़ना पड़ा था। 2005 में नीतीश कुमार ने दूसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इस बार उन्होंने बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाई।

वर्ष 2010 में एक बार फिर बीजेपी के साथ मिलकर उन्होंने सरकार बनाई और तीसरी बार सीएम पद की शपथ ली। लेकिन 2013 में उन्होंने बीजेपी का साथ छोड़ दिया। 2014 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया और जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया।

लेकिन 2015 में एक बार फिर उन्होंने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और कहा कि इस्तीफ़ा देना उनकी भूल थी। इसके बाद 2015 के विधानसभा चुनाव से पहले उन्होंने राष्ट्रीय जनता दल के साथ मिलकर महागठबंधन बनाई। चुनाव में महागठबंधन को बड़ी सफलता मिली और नीतीश कुमार ने पाँचवीं बार सीएम पद की शपथ ली।

लेकिन 2017 में उन्होंने आरजेडी से रिश्ता तोड़ लिया। उन्होंने बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाई और छठी बार सीएम पद की शपथ ली। 2020 के विधानसभा चुनाव में वे बीजेपी के साथ लड़े और फिर सातवीं बार सीएम पद की शपथ ली। लेकिन अब वे एक बार फिर बीजेपी से अलग हो गए हैं और आरजेडी के साथ मिलकर उन्होंने सरकार बनाई है और आठवीं बार सीएम पद की शपथ ली है।

बिहार चुनाव: एनडीए को पूर्ण बहुमत, आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी

बिहार चुनाव 2020 में एनडीए को पूर्ण बहुमत मिल गया है। इस चुनाव में आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी है। महागठबंधन अच्छी शुरुआत के बाद भी बहुमत से दूर रह गया।

बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे आ चुके हैं और 243 विधानसभा सीटों वाले इस राज्य में एक बार फिर एनडीए को सरकार बनाने का जनादेश मिला है।

बिहार में सरकार बनाने के लिए 122 सीटों के बहुमत की ज़रूरत है और एनडीए ने 125 सीटें जीतकर यह अहम आंकड़ा पार कर लिया है।

एनडीए को कांटे की टक्कर देने वाला महागठबंधन बहुमत के आंकड़े से थोड़ा पीछा रह गया। महागठबंधन को 110 सीटें हासिल हुई हैं।

जेडीयू को 43 सीटें मिली हैं।

वहीं सांसद असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन ने अच्छा प्रदर्शन करते हुए पांच सीटों पर जीत दर्ज की है। बहुजन समाज पार्टी ने भी एक सीट पर जीत दर्ज की है।

जेडीयू का विरोध करते हुए बिहार विधानसभा चुनाव में अकेले दम पर मैदान में उतरी चिराग़ पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) को सिर्फ़ एक सीट ही हासिल हुई है।

एक सीट निर्दलीय के हिस्से आयी है।

महागठबंधन की अगुवाई करने वाली पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) 75 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने भी अपनी सीटों में इजाफ़ा किया है और वो 74 सीटों के साथ दूसरे नंबर पर है।

साल 2015 में आरजेडी ने 80 और बीजेपी ने 53 सीटें जीती थीं।

बीजेपी और अन्य सहयोगी दलों के बेहतर प्रदर्शन के कारण एनडीए को बहुमत मिल गया है लेकिन इन चुनावों में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) का प्रदर्शन बहुत अधिक उत्साहित करने वाला नहीं रहा। साल 2015 में 71 सीटें जीतने वाली जेडीयू को इस बार 43 सीटें ही हासिल हुई हैं।

वहीं साल 2015 के चुनाव में 27 सीटें हासिल करने वाली कांग्रेस को इस चुनाव में सिर्फ़ 19 सीटें ही मिली हैं।

एनडीए में जेडीयू और बीजेपी के अलावा हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) और विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) हैं।

महागठबंधन में आरजेडी, कांग्रेस और तीन वामपंथी पार्टियाँ कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई), कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) यानी सीपीएम और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया मार्क्सवादी लेनिनवादी (लिबरेशन) हैं।

लोक जनशक्ति पार्टी केंद्र में एनडीए का हिस्सा है पर बिहार में इस पार्टी ने अकेले चुनाव लड़ा।

एनडीए ने मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर मौजूदा सीएम नीतीश कुमार को ही पेश किया तो महागठबंधन की ओर से 31 साल के तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार थे।

बिहार विधानसभा चुनाव की मतगणना 10 नवंबर 2020 की सुबह आठ बजे शुरू हुई जो देर रात क़रीब दो बजे तक चली।

तीन चरणों में संपन्न हुआ बिहार विधानसभा चुनाव कोविड-19 महामारी के बीच भारत का पहला चुनाव है। चुनाव आयोग के मुताबिक कोविड-19 की वजह से ही मतगणना में ज़्यादा समय लगा। सुबह आठ बजे शुरू हुई वोटों की गिनती रात ढाई बजे तक चली।

चुनाव आयोग के मुताबिक़ इस बार 57.05 फ़ीसदी लोगों ने मतदान किया जो कि 2015 से ज़्यादा है। पांच साल पहले 56.66 फ़ीसदी मतदान हुआ था।

आरजेडी और कांग्रेस ने बिहार विधानसभा चुनावों की मतगणना में गड़बड़ी का आरोप लगाया है और ये दोनों पार्टियां इसे लेकर चुनाव आयोग के पास भी गईं। हालांकि बाद में चुनाव आयोग के सेक्रेटरी जनरल उमेश सिन्हा ने प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान कहा कि चुनाव आयोग किसी भी तरह के दवाब में आकर काम नहीं करता है।

बिहार विधान सभा चुनाव 2020 - दलवार परिणाम की स्थिति
243 निर्वाचन क्षेत्रों में से 243 की ज्ञात स्थिति

ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन - 5  
बहुजन समाज पार्टी - 1
भारतीय जनता पार्टी - 74
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया - 2
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) - 2
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया मार्क्सवादी लेनिनवादी (लिबरेशन) - 12
हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (सेक्युलर) - 4
निर्दलीय - 1
इंडियन नेशनल कांग्रेस - 19
जनता दल यूनाइटेड - 43
लोक जनशक्ति पार्टी - 1
राष्ट्रीय जनता दल - 75
विकासशील इंसान पार्टी - 4

बिहार में सम्पूर्ण विपक्ष के निर्माण से ही सत्ता परिवर्तन संभव

सत्ता के विरूद्ध उठने वाली सभी छोटी-बड़ी आवाज़ों को साथ लेकर सम्पूर्ण विपक्ष के निर्माण से ही सत्ता परिवर्तन संभव होगा।

सत्ता पक्ष की नीतियों से असहमति जताने वाले छोटे-बड़े सभी समूहों, संस्थाओं, राजनीतिक दलों और गैर राजनीतिक संगठनों को सामूहिक रूप से विपक्ष कहते हैं।

जब सरकार की नीतियां जन सरोकार पर केन्द्रित ना होकर सिर्फ जुमले बाजी, बयानबाज़ी और ड्रामेबाजी के इर्द-गिर्द चक्कर लगाती दिखाई पड़ती हैं तो सरकार के विरुद्ध उठने वाली सभी आवाजों को मिलकर विपक्ष का नाम दिया जाता है।

मतलब सत्ता के विरूद्ध उठने वाली सभी छोटी-बडी आवाज़ों को निसंदेह विपक्ष कहा जाएगा।

बिहार की सत्ता पर विराजमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं जिनकी सरकार के सहयोगी भाजपा और लोजपा हैं। अर्थात जदयू, भाजपा और लोजपा की संयुक्त सरकार सत्तापक्ष और बाकी सभी विपक्षी हैं।

बिहार सरकार की नीतियों से असहमति जताने वाले राजनीतिक दलों में मुख्य रूप से शामिल हैं: राजद, कांग्रेस, रालोसपा, हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा, विकासशील इंसान पार्टी, भारतीय सब लोग पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन, जन अधिकार पार्टी (लोकतांत्रिक), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), एम आई एम और बसपा।

साथ ही बड़ी संख्या में सामाजिक और गैर राजनीतिक संगठन भी सरकार की नीतियों से आहत होकर विरोध के स्वर बुलन्द कर रहे हैं।

इसके अतिरिक्त दर्जन भर ऐसे राजनीतिक दल भी विपक्षी ही कहलाएंगे जिनका वजूद बहुत नहीं है लेकिन उक्त पार्टी की अगुवाई पूर्व विधायक या पूर्व सांसद कर रहे हैं।

कई युवा पीढ़ी के लोगों ने राजनीतिक दलों में युवाओं की अनदेखी होता देखकर अपनी अलग राजनीतिक पार्टी बनाई है और वो सरकार के विरूद्ध युवाओं की अनदेखी के सवाल पर बिगुल फूंके हुए हैं। ऐसे लोग भी विपक्षी ही कहे जाएंगे।

लेकिन विपक्ष की इतनी बड़ी संख्या और सत्ता के विरूद्ध नाराजगी के बावजूद विपक्षी कमजोर दिखाई दे रहे हैं।

इसका कारण ये है कि विपक्ष एक उद्देश्य के लिए सरकार के विरुद्ध उठने वाली सभी छोटी-बड़ी आवाज़ों को मिलाकर सम्पूर्ण विपक्ष बनना नहीं चाहता।

मुख्य विपक्षी दल राजद और कांग्रेस एक-दूसरे को साथ लेकर चलना तो चाहते हैं लेकिन रालोसपा और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के द्वारा लीडरशिप के सवाल पर उनसे किनारे रहने या किनारे कर देने में ही अपनी बेहतरी समझते हैं। रालोसपा और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के बयानों से विपक्षी एकता के बनते-बिगड़ते रिश्ते को गलत दिशा मिल जाती है।

जन अधिकार पार्टी (लोकतांत्रिक) एक उभरता हुआ दल है जो लगातार सत्ता के विरूद्ध मुखर होकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराए हुए है लेकिन समय-समय पर मुख्य विपक्षी दलों की कार्य शैली पर प्रश्न चिन्ह लगाकर विपक्षी खेमे से अपने-आपको दूर कर लेता है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) जैसे वाम दल जो बिहार के किसी खास क्षेत्र में ही थोड़ा असर रखते हैं वो भी अपने-आपको विपक्षी खेमे में उचित भागीदारी नहीं मिलने  के संकेत से चिंतित हैं।

वहीं पूर्व सांसद और पूर्व मंत्री द्वारा नव गठित भारतीय सब लोग पार्टी वर्तमान सत्ता के मुखिया की कार्य शैली से आहत होकर जन सरोकार के मुद्दे पर सरकार को कटघरे में खड़ा करते दिखाया दे रहे हैं जबकि वे एकला चलो की राह के लिए नए विकल्प पर अड़े हैं लेकिन विपक्ष की एकजुटता में उनकी भी बड़ी उपयोगिता हो सकती है।

उधर जाति, बिरादरी और धर्म के आधार पर निर्मित राजनीतिक दलों की विपक्षी एकता और भागीदारी में अल्पसंख्यक समाज अपने को ठगा महसूस कर रहा है।

ये समूह भी अपने राजनीतिक दलों को भी विपक्षी खेमे में सम्मिलित कर अपनी उचित भागीदारी की मांग कर रहा है। बिहार में अल्पसंख्यक समाज के नाम से जुड़े दलों में एम आई एम, जनता दल राष्ट्रवादी, भारतीय इंसान पार्टी, पीस पार्टी, आई एन एल शामिल हैं जो लगातार वर्तमान सरकार की जन विरोधी नीतियों की कटु आलोचना करते दिखाई देते हैं।

इनमें एम आई एम की स्थिति बेहतर है लेकिन सत्ता (बीजेपी) का भय दिखाकर अल्पसंख्यक समाज का थोक में वोट पाती रहीं पार्टियां धर्म का सहारा लेकर इनको भागीदारी देने के पक्ष में बिल्कुल नहीं है जिससे तंग आकर इस बार अलग-थलग पड़ा अल्पसंख्यक वर्ग का बड़ा हिस्सा विपक्षी एकता की गुहार लगाने वाले दलों से नाराज़ बताया जा रहा है।

इसके साथ ही समाजवादी-अंबेडकरवादी विचारधारा के प्रचारक और समर्थक भी  वैकल्पिक व्यवस्था परिवर्तन की मंशा से सत्ता विरोधी खेमे में ही हैं।

कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनकी अपनी बिरादरी और खासकर युवा पीढ़ी में अच्छी पैठ है और वे राजनीति का शिकार होकर या तो जेल में बंद हैं या फिर टकटकी लगाए विपक्षी एकता और वैकल्पिक व्यवस्था की राह देख रहे हैं। इतना ही नहीं, देश और प्रदेश के बड़े सियासी योद्धाओं के नाम पर बने राजनीतिक दल भी विपक्ष के हिस्से हैं जो जेपी, लोहिया, चन्द्रशेखर, चौधरी चरण सिंह, अम्बेडकर, कर्पूरी, जार्ज फर्नांडिस, लोक बंधु राज नारायण, राम कृष्ण हेगड़े और देवगौड़ा के नाम को अपने दल का संस्थापक बताते हैं।

बसपा की भी अपनी हैसियत है। लगभग सभी क्षेत्रों में बसपा का असर है और  लगातार सत्ता के विरूद्ध अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रही है बसपा भी। साथ ही भीम आर्मी जैसे संगठन भी तेज़ी से बिहार में आगे बढकर सरकार की नीतियों से असहमति व्यक्त कर रहे हैं।

ऐसे में सत्ता की नीतियों, कार्यशैली, विफलताओं, जन सरोकार की अनदेखी, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे पर मुखर रूप से कम या ज्यादा विरोध करने वाले सभी लोगों, समूहों, पार्टियों और संगठनों को सामूहिक रूप से विपक्ष कहा जाएगा जो लगातार सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए संघर्ष कर रहे हैं चाहे उनका असर पड़े या न पड़े।

सत्ता के विरूद्ध उठने वाली इन सभी आवाज़ों को मिलकर सत्ता परिवर्तन करने और नए संकल्प के साथ नए विकल्प प्रस्तुत करने हेतु सम्पूर्ण विपक्ष का स्वरूप दिया जाना बेहद जरूरी है।

बिहार के कई लेखक, साहित्यकार, किसान नेता तथा सामाजिक चेतना के लिए ज़मीन पर काम करने वाले ज़िम्मेदार लोगों का प्रवासी मज़दूरों की स्थिति को देखने के बाद ये मानना है कि उक्त सभी विरोधी स्वरों से संवाद कर और सबकी मंशा से सहयोग, सहमति और समन्वय के आधार पर सम्पूर्ण विपक्ष का निर्माण करने की पहल किए बिना साधन-संसाधन से लैस सत्ता की जन विरोधी नीतियों से छुटकारा नहीं पाया जा सकता है।

अभी वर्तमान स्थिति ये है कि जातीय समीकरण के जोड़-तोड़ और गुणा-भाग के आधार पर दो या तीन दलों का गठजोड़ करके सम्पूर्ण विपक्ष की सोच को नुक़सान पहुंचाया जा रहा है और सत्ता के विरूद्ध फूंके गए सभी बिगुलों को खंडित कर तीसरे विकल्प जैसा संकट खड़ा किया जा रहा है जिससे सत्ता पक्ष को पुन:जीवन दान मिल जायेगा जिसके कारण सभी विपक्षी दलों की विफलता और नेक नियति पर प्रश्न चिन्ह लगना तय है। जिससे आगामी विधान सभा चुनाव में नुक़सान तय है।

ऐसी स्थिति में जेपी के रोल को निभाने हेतु किसी बुज़ुर्ग नेता की जरूरत है जो सत्ता की चाहत से मुक्त होकर सम्पूर्ण विपक्ष का निर्माण कर सके जिसमें सबको उचित अवसर और भागीदारी देकर वैकल्पिक व्यवस्था की रूप रेखा तय हो।

सर्व समाज की अपेक्षाओं और बिहार के चौमुखी विकास के मॉडल के साथ सम्पूर्ण विपक्ष शंखनाद करे तो सत्ता परिवर्तन निश्चित है वरना सम्पूर्ण विपक्ष को गोल बन्द नहीं करके जातीय समीकरण के आधार पर अपनी-अपनी डफ़ली अपना-अपना राग की राह सत्ता पक्ष को वाक ओवर देने जैसा होगा।

सम्पूर्ण विपक्ष के संदर्भ में ये बताना ज़रूरी है कि सभी दलों को चुनावी भागीदारी दिए बिना भी सबको उचित अवसर दिया जा सकता है। अर्थात जो दल, समूह या संगठन चुनाव लड़ने में सक्षम नहीं हैं। मतलब जिनके पास धन और कार्यकर्ताओं का अभाव है उन सभी को सरकारी निगमों में सहभागी बनाकर भी सबको उचित अवसर की बात को पूर्ण किया जा सकता है। शर्त है कि सबकी नियत सत्ता परिवर्तन कर जनहितकारी विकल्प सम्पूर्ण विपक्ष की एकता के साथ प्रस्तुत करने की हो।

संपादन: परवेज़ अनवर
न्यूज़ डायरेक्टर और एडिटर- इन-चीफ, आई बी टी एन मीडिया नेटवर्क ग्रुप, नई दिल्ली  
लेखक: सादात अनवर
चन्द्रशेखर स्कूल आफ पॉलिटिक्स, नई दिल्ली

क्या फिर से बिहार राजनीति की प्रयोगशाला बनेगा?

आजकल वैकल्पिक राजनीति की बहुत चर्चा है। राजनीति में जनसरोकार, समन्वय और शुचिता को प्राथमिकता देने पर बहस चल रही है। भारत का एक बड़ा वर्ग जाति, बिरादरी और धर्म के इर्द गिर्द चक्कर लगा रही भारतीय राजनीति से ऊब गया है और नए अन्दाज़ में सियासत के मानी मतलब लगा रहा है।

ऐसे लोगों का मानना है कि बिहार राजनीति की प्रयोगशाला रहा है तो क्या  बेहतर होता कि मुद्दों पर आधारित वैकल्पिक राजनीति की शुरुआत आगामी बिहार विधान सभा चुनाव से किया जाए।

इस  मत के समर्थन में जे पी, लोहिया के नाम की रट लगाने वाले और  जार्ज फर्नांडिस, चन्द्रशेखर, मधुलिमय, राजनारायण, किशन पटनायक, कर्पूरी ठाकुर सरीखे समाजवादी योद्धाओं के शिष्य राष्ट्रीय रजधानी दिल्ली और पटना समेत कई स्थानों पर सक्रिय हैं।

पत्रकार, लेखक, प्रोफेसर और लाल फीताशाही से मुक्त होकर कुछ प्रशासनिक अधिकारी भी इस मुहिम में चिंतन करते पाये जा रहे हैं और सबकी पीडा एक ही है कि कैसे राजनीति में शुचिता आये ताकि भारतीय राजनीति को नया आयाम मिल सके।

इस संदर्भ में कई प्रकार की कोशिशें हो रही है। कोई छोटे-छोटे दलों का गठबंधन बनाकर आगामी बिहार विधान सभा चुनाव में सत्ता और विपक्ष  दोनों से बेहतर विकल्प देने की बात कह रहा है तो दूसरा, बुद्धिजीवी वर्ग एक नए दल का गठन कर जनसरोकार के मुद्दे पर सरकार की विफलताओं को गिनाकर एक नया विकल्प देने की तैयारी कर रहा है। लेकिन एक सोच ऐसी भी है जिसका दावा है कि कुछ प्रसिद्ध नेताओं का समूह मिलकर अपने में से एक प्रसिद्ध नाम तय कर उसकी अगुवाई में चुनाव  में जाए और एक नया विकल्प पेश करें।

इसी कड़ी में नेताओं के अलावा इसी मत के ज़मीनी कार्यकर्ताओं का मत उक्त सभी की राय से बिल्कुल भिन्न है। जो ये मानते है कि समाज के सभी  वर्गों को उचित भागीदारी और अवसर देकर जनता की मूल समस्याओं के समाधान के लिए ठोस योजना बनाकर जनमानस का समर्थन प्राप्त किया सकता है लेकिन शर्त ये है कि सब लोगों की सत्ता और शासन में भागीदारी सुनिश्चित हो।

ऐसे लोग ये मानते हैं कि समाज के अगड़े, पिछडे, अनुसूचित जाति एवं जनजाति और अल्पसंख्यक को संगठन, सत्ता और शासन में भगीदार बनाकर ही कोई बड़ी लाईन बनाई जा सकती है जिसमें कोई किसी के साथ नाइंसाफी नही कर सके। साथ ही किसी वर्ग विशेष का सत्ता पर वर्चस्व स्थापित न हो सके।

अब सवाल ये उठता है कि क्या उक्त सभी बिन्दु से साफ सुथरी राजनीति की शुरुआत हो सकेगी जो जन मानस की भलाई के लिए ठोस साबित हो सके?

क्या ऐसी किसी पहल से जातिवाद, परिवारवाद और उन्माद की बीमारी से निजात पाया जा सकता है?

युवा वर्ग जो नेताओं के दिशाहीन बयानों से और सत्ता पक्ष और विपक्ष के वार-पलटवार से तंग आ चुका है। क्या युवा वर्ग ऐसी किसी वैचारिक राजनीति के नाम पर गोलबन्द हो रहे नेताओं पर विश्वास कर पायेगा? या फिर युवा शक्ति ही नई मशाल लेकर राजनीति को बदलने पर विचार करेगी!

संपादन: परवेज़ अनवर
न्यूज़ डायरेक्टर और एडिटर- इन-चीफ, आई बी टी एन मीडिया नेटवर्क ग्रुप, नई दिल्ली  
लेखक: सादात अनवर
चन्द्रशेखर स्कूल आफ पॉलिटिक्स, नई दिल्ली

बिहार में बच्चों की मौत एक राष्ट्रीय त्रासदी है: कांग्रेस

बिहार में बच्चों की मौत एक राष्ट्रीय त्रासदी है: कांग्रेस मुख्यालय में गौरव गोगोई द्वारा एआईसीसी प्रेस वार्ता

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पटना, बिहार में जनसभा को संबोधित किया

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लाइव : कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने समस्तीपुर, बिहार में जनसभा को संबोधित किया

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