समीक्षा : 1971 और अन्य कहानियां

समीक्षा : 1971 और अन्य कहानियां
लेखक: राशिद आसकारी
समीक्षक: डा. मोहम्मद अलीम

कहानियां सदैव ही मानव मन को उद्वेलित एवं संचालित करती रही हैं। कुछ कहानियां तो ऐसी होती हैं जिसका प्रभाव काफी देर तक मन और मस्तिष्क पर बना रहता है और वह जिंदगी की दशा एवं दिशा को बदलने की योग्यता रखती हैं। मगर कुछ कहानियां ऐसी भी होती हैं जो आपको आक्रोशित एवं परेशान करती हैं। कई बार आप सोचते हैं कि लेखक के लिखने का तात्पर्य ही क्या था? और अगर यह न लिखी जातीं तो इससे क्या अंतर पड़ जाता। कुछ कहानियां तो ऐसी होती हैं जिसे पढ़कर यह लगता है कि व्यर्थ ही समय बर्बाद किया।

लेकिन राशिद आकसारी जो कि बंग्लादेश के एक प्रसिद्ध लेखक एवं विद्वान हैं, उनकी कहानियां पढ़कर एक सुखद अनुभूति का एहसास हुआ। कम से कम यह तो नहीं लगा कि मैंने बेकार ही अपना अमूल्य समय इन कहानियों को पढ़ने में लगाया। कारण स्पष्ट है। यह कहानियां शुरू से अंत तक बांधे रखने की अपने अंदर ग़ज़ब की सलाहियत रखती हैं। सच पूछिए तो पहली कहानी पढ़कर ही मुझे एक ताज़ा हवा के झोंके का एहसास हुआ जो लगा कि एक ऐसी जगह से आ रही है जिसके वातावरण और परिवेश से भले ही मैं ज्यादा परिचित नहीं हूं, मगर उसकी ताज़गी आपको काफी देर तक ताज़ादम रखने और सोचने पर मजबूर करने की सलाहियत रखती हैं। मैं बिना लाग लपेट के साथ कह सकता हूं कि बहुत दिनों बाद मुझे ऐसी कहानियां पढ़ने का मौक़ा मिला जो मुझे बार-बार समय की क़िल्लत के बावजूद पढ़वाने पर मजबूर करती रही और अपनी ओर मेरा ध्यान आकर्षित करती रही जो कि किसी भी रचना और रचनाकार के लिए आज के इस मारा-मारी और भागम-भाग और अत्यधिक छपाऊ दुनिया में किसी उपलब्धि से कम नहीं है।

हम सब जानते हैं कि बांग्लादेश हमारा एक पड़ोसी देश है जो सुदूर पूर्व में बसा है। कभी यह भारत का अभिन्न अंग हुआ करता था। मगर बदक़िस्मती से 1947 के विभाजन के समय यह पाकिस्तान नाम के एक विचित्र देश का हिस्सा बना। विचित्र इन मानों में कि न तो इस देश को स्थापित करने की ठीक ठीक मंशा मुझे आज तक समझ में आई और न ही इसका कोई औचित्य दिखाई दिया। यह विचित्र देश आज तक अपनी असली पहचान स्थापित नहीं कर पाया कि यह किस दिशा में जाना चाहता है।

बहरकैफ़, बंग्लादेश भी कभी इसी पाकिस्तान का हिस्सा हुआ करता था जिसकी भाषा अलग, संस्कृति अलग, सोच और संवेदना अलग। फिर भी बंगालियों को जबरदस्ती पश्चिमी पाकिस्तान के साथ बांध दिया गया जो अपने अस्तित्व के पहले दिन से ही वह बंगालियों के साथ इस प्रकार का व्यवहार करने लगा मानों यह उसका एक उपनिवेश हो और जिन अंग्रेजों की गुलामी और बर्बरता से यह स्वयं निकल कर बाहर आया था,  उसी बर्बर सोच और ताक़त के साथ जमीन के इस भाग पर अपना क़ब्ज़ा बनाए रखेगा। चूंकि यह सोच ही ग़लत थी और मंशा भी ठीक नहीं थी,  तो एक न एक दिन विद्रोह का स्वर उठना तो लाज़मी था। और अपने अस्तित्व में आने के ठीक 20-21 वर्षों बाद ही एक पुरज़ोर और ताक़तवर आंदोलन वहां पाकिस्तानियों के ख़िलाफ़ छिड़ गया। जो उन्हें समान धर्म के आधार पर भी अपने साथ जोड़े रखने में विफल रहा ।

1971 का युद्ध इस उपनिवेशिक भाग और सताए हुए लोगों के लिए एक वरदान साबित हुआ। भारत के प्रत्यक्ष मदद से यह युद्ध पाकिस्तानियों से जीत लिया गया। एक नया स्वतंत्र देश वजूद में आया। हालांकि यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि बंग्लादेश ने सही मायनों में उस स्वतंत्रता की लाज रखी या नहीं। कहां तक तरक्की की सीढ़ियां चढ़ीं?  या फिर आजादी भी वहां के लोगों के लिए एक छलावा ही साबित हुआ?

प्रस्तुत कहानी संग्रह को पढ़कर तो ऐसा ही महसूस हुआ कि जिस गुलामी के दर्द से छुटकारा पाकर वहां के लोग एक नई जिंदगी का अनुभव करना चाहते थे, वहां के करोड़ों लोगों के लिए एक छलावा ही साबित हुआ। भूखमरी, ग़रीबी, और बेराजगारी जैसे जिंदगी के अहम मुद्दे आज भी वहां के लोगों का पीछा नहीं छोड़ सके।

दुर्भाग्य से यही स्थिति इन तीनों पड़ोसी देशों की एक सी है यानि भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश। भले ही अपने-अपने स्वतंत्र वजूद के साथ दुनिया के नक़्शे पर खड़े हैं. मगर दुर्भाग्य से आज भी इन तीनों देशों के बहुसंख्यक लोग दो वक़्त की इज्जत की रोटी जुटाने से महरूम हैं।

इस संग्रह में कुल बारह कहानियां हैं। ''1971'' के नाम से पहली कहानी निस्संदेह बंग्लादेश युद्ध पर केंद्रित है कि किस प्रकार पाकिस्तानी सैनिकों ने बंग्लादेशियों पर जुल्म की सारी हदें पार कर दी थीं। उनके लिए उनका हममज़हब होना और एक ही पैगंबर और अल्लाह का मानने वाला होना किसी भी रूप में उनके जुल्म से बचने के लिए काफी नहीं था। वह महज़ एक गुलाम देश के गुलाम लोग थे जिनके साथ कुछ भी किया जा सकता था। उनकी हत्याएं की जा सकती थीं,  उनकी औरतों से धड़ल्ले से बलात्कार किया जा सकता था। उनको बिना सोचे-समझे अपंग और अपाहिज बनाया जा सकता था।

बाकी कहानियां वहां की सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का बेहद सुंदर एवं अद्भुत चित्रण हैं जैसे कि ''गाभिन गाय'', ''एक लंबा ट्रैफिक जाम'', ''मल्कियत की व्यथा'', ''लाटरी'', ''कवि'' और अन्य कहानियां।

इन कहानियों में वहां के साधारण एवं हाशिये पर मौजूद लोगों की अंतर्व्यथा एवं संवेदना को बड़े सुंदर ढ़ंग से सामने रखने का प्रयास किया गया है।

इस संग्रह की अंतिम कहानी ''जिहाद'' है जो इस धर्म युद्ध के बेजा उपयोग एवं परिभाषा को बड़ी खूबसूरती एवं मार्मिकता के साथ बयान करती है। हम इस धर्म युद्ध की तबाही को दुनिया के अन्य देशों में देख ही रहे हैं जैसे कि इराक, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, लीबिया, सीरिया एवं अन्य देशों में।

मैं लेखक राशिद आसकारी को दिल से मुबारकबाद देता हूं कि उन्होंने बहुत ही संवेदनशील मुद्दों को अपनी कहानियों में जगह दी और गहरी मार्मिकता के साथ उन्हें शब्दों का जामा पहनाया।

इस पुस्तक को दिल्ली स्थित प्रकाशन 'भाषक' ने प्रकाशित किया जो कि रबरिक पब्लिशिंग की एक इंप्रिंट है।

इस प्रकाशन संस्थान की मालकिन वीणा विश्वास हैं जो कि स्वयं एक प्रसिद्ध अंग्रेजी की लेखिका हैं। और इन कहानियों को हिंदी में बेहद सरल एवं सुंदर ढ़ंग से ढ़ाला है डा. उषा वंदे ने। दोनों ही इस काम के लिए मुबारकबाद के हक़दार हैं।

मोहम्मद अलीम संस्कृति पुरस्कार से सम्मानित उपन्यासकार, नाटककार और पटकथा लेखक हैं।

(इस साहित्यिक लेख में व्यक्त विचार लेखक और समीक्षक के निजी हैं, इससे संपादक का सहमत होना जरूरी नही है।)