भारत सरकार ने चीन में विकसित 118 मोबाइल ऐप्स को बैन कर दिया है जिनमें गेमिंग ऐप पबजी भी शामिल है।
इलेक्ट्रॉनिक्स और इन्फ़ॉर्मेशन टेक्नोलॉजी मंत्रालय की ओर से जारी एक बयान में कहा गया है कि इन ऐप्स को इसलिए बैन किया गया है, क्योंकि वे भारत की संप्रभुता और अखंडता, देश की रक्षा और लोक व्यवस्था के विरूद्ध गतिविधियों में लिप्त थे।
मंत्रालय की ओर से जारी बयान में कहा गया, ''इस क़दम से भारत के करोड़ों मोबाइल और इंटरनेट यूज़र्स के हितों की रक्षा होगी। ये फ़ैसला भारत के साइबर स्पेस की सुरक्षा और संप्रभुता को सुनिश्चित करने के इरादे से लिया गया है।''
बयान के अनुसार भारत सरकार को इन ऐप्स के बारे में विभिन्न स्रोतों से शिकायतें मिल रही थीं, जिनमें ऐसी रिपोर्टें भी थीं कि एंड्रॉयड और आइओएस पर उपलब्ध कुछ मोबाइल ऐप्स से यूज़र्स के डेटा अनाधिकृत तौर पर चोरी कर भारत से बाहर स्थित सर्वर में भेजे जा रहे थे।
चीन के 118 ऐप्स को बैन करने का फ़ैसला ऐसे समय लिया गया है जब भारत और चीन के बीच एक बार फिर से लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा या एलएसी पर दोनों देशों के बीच तनाव की ख़बरें आ रही हैं।
भारत सरकार ने इससे पहले जून में भी चीन से जुड़े 59 ऐप्स को बैन किया था। इनमें टिकटॉक भी शामिल था।
पिछली बार 59 चीनी ऐप्स को बैन करने का फ़ैसला गलवान घाटी में 15 जुलाई को भारत-चीन के सैनिकों के बीच हुई हिंसक झड़प के कुछ दिनों बाद लिया गया था।
मानवाधिकारों पर काम करने वाला अंतरराष्ट्रीय ग़ैर-सरकारी संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल ने उत्तर-पूर्वी दिल्ली में इस साल फ़रवरी में हुए दंगों पर अपनी स्वतंत्र जाँच रिपोर्ट जारी की है।
रिपोर्ट में दिल्ली पुलिस पर दंगे ना रोकने, उनमें शामिल होने, फ़ोन पर मदद मांगने पर मना करने, पीड़ित लोगों को अस्पताल तक पहुंचने से रोकने, ख़ास तौर पर मुसलमान समुदाय के साथ मारपीट करने जैसे संगीन आरोप लगाए गए हैं।
दंगों के बाद के छह महीनों में दंगा पीड़ितों और शांतिप्रिय आंदोलनकारियों को डराने-धमकाने, जेल में मारपीट और उन्हीं के ख़िलाफ़ मामले दर्ज किए जाने का हवाला देते हुए रिपोर्ट यह भी रेखांकित करती है कि दिल्ली पुलिस पर मानवाधिकार उल्लंघनों के आरोप के एक भी मामले में अब तक एफ़आईआर दर्ज नहीं हुई है। दिल्ली पुलिस गृह मंत्रालय के तहत काम करती है।
एमनेस्टी इंटरनेशनल के कार्यकारी निदेशक अविनाश कुमार के मुताबिक, ''सत्ता की तरफ़ से मिल रहे इस संरक्षण से तो यही संदेश जाता है कि क़ानून लागू करने वाले अधिकारी बिना जवाबदेही के मानवाधिकारों का उल्लंघन कर सकते हैं। यानी वो ख़ुद ही अपना क़ानून चला सकते हैं।''
रिपोर्ट जारी करने से पहले एमनेस्टी इंटरनेशनल ने दिल्ली पुलिस का पक्ष जानने के लिए उनसे संपर्क किया पर एक सप्ताह तक कोई जवाब नहीं मिला।
मार्च में दिल्ली पुलिस के संयुक्त पुलिस आयुक्त आलोक कुमार ने बीबीसी हिंदी संवाददाता सलमान रावी से एक साक्षात्कार में दंगों के दौरान पुलिस के मूक दर्शक बने रहने के आरोप से इनकार किया था और कहा था कि, ''पुलिस कर्मियों के ख़िलाफ़ अगर कोई आरोप सामने आए तो उनकी जांच की जाएगी''।
इससे पहले दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग ने भी दिल्ली दंगों पर एक फ़ैक्ट-फ़ाइंडिंग रिपोर्ट जुलाई में जारी की थी।
इसमें भी कई पीड़ितों ने पुलिस के एफ़आईआर दर्ज ना करने, समझौता करने के लिए धमकाने और उन्हीं पर हिंसा का आरोप लगाकर दूसरे मामलों में अभियुक्त बनाने की शिकायत की थी।
साथ ही दिल्ली पुलिस पर दंगे को मुसलमान समुदाय को निशाना बनाने की साज़िश की जगह ग़लत तरीक़े से दो समुदाय के बीच का झगड़ा बनाकर पेश करने का आरोप लगाया गया था। दिल्ली पुलिस ने आयोग के किसी सवाल का भी जवाब नहीं दिया था।
दंगों से पहले दिल्ली पुलिस की भूमिका
एमनेस्टी इंटरनेशनल की यह रिपोर्ट 50 दंगा पीड़ित, चश्मदीद, वकील, डॉक्टर, मानवाधिकार आंदोलनकारी, रिटायर हो चुके पुलिस अफ़सर से बातचीत और लोगों के बनाए गए वीडियो के अध्ययन पर आधारित है।
इसमें सबसे पहले 15 दिसंबर 2019 के जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में दिल्ली पुलिस के नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे छात्रों से मारपीट और यौन उत्पीड़न के आरोपों का ज़िक्र है।
इस वारदात की जांच के लिए स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम बनाए जाने की जनहित याचिकाओं का दिल्ली हाई कोर्ट में दिल्ली पुलिस ने विरोध किया है।
इसके बाद पाँच जनवरी 2020 को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में रॉड्स के साथ तोड़फोड़ और क़रीब दो दर्जन छात्रों और अध्यापकों के साथ मारपीट का ब्यौरा है।
इस मामले में जेएनयू के छात्रों और अध्यापकों की तरफ़ से 40 से ज़्यादा शिकायतें दर्ज किए जाने के बाद भी दिल्ली पुलिस ने एक भी एफ़आईआर दर्ज नहीं की है।
हालांकि जेएनयू छात्र संघ की आइशी घोष समेत मारपीट में चोटिल हुए कुछ सीएए-विरोधी प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर तभी दर्ज कर ली गई थी। रिपोर्ट दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले जनवरी के महीने में हुई कई चुनावी रैलियों में बीजेपी नेताओं के भड़काऊ भाषणों की जानकारी भी देती है।
26 फ़रवरी 2020 को दिल्ली हाई कोर्ट दिल्ली पुलिस को एक 'कॉन्शियस डिसिज़न' (सोचा समझा फ़ैसला) के तहत बीजेपी सांसदों और नेताओं, कपिल मिश्रा, परवेश वर्मा, अनुराग ठाकुर के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज करने का आदेश देती है। इनमें से एक के भी ख़िलाफ़ अब तक कोई एफ़आईआर दर्ज नहीं की गई है।
जुलाई में बीबीसी संवाददाता दिव्या आर्य को दिए एक साक्षात्कार में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री मुख़्तार अब्बास नक़वी ने माना था कि भड़काऊ भाषण ग़लत थे, हम उन सभी तरह के बयानों के ख़िलाफ़ हैं जो उकसाने वाले हैं, देश को बदनाम करने वाले हैं और सेक्युलर कैरेक्टर को डैमेज करने वाले हैं। हम इन सबके ख़िलाफ़ हैं। जो किया, ग़लत किया। मैं उसकी मुख़ालफ़त कर रहा हूँ। इस तरह के ज़हरीले बयानों को हमने किसी तरह जस्टीफ़ाई नहीं किया है और न करना चाहिए।
दंगों के दौरान दिल्ली पुलिस की भूमिका
एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट में कई दंगा पीड़ितों ने अपने बयानों में ये दावा किया है कि जब उन्होंने दिल्ली पुलिस के आपात 100 नंबर पर फ़ोन किया तो या तो किसी ने उठाया नहीं या फिर पलटकर कहा, ''आज़ादी चाहिए थी ना, अब ले लो आज़ादी।''
'हम क्या चाहते? आज़ादी' का नारा सीएए-विरोधी प्रदर्शनों में इस्तेमाल हुआ था और आंदोलनकारियों के मुताबिक़ यहां भेदभाव और अत्याचार से आज़ादी की बात की जा रही थी।
रिपोर्ट में पुलिस के पाँच नौजवानों को जूतों से मारने के वीडियो और उनमें से एक की मां से बातचीत शामिल है जो दावा करती हैं कि उनके बेटे को 36 घंटे जेल में रखा गया, जहां से छुड़ाए जाने के बाद उसकी मौत हो गई।
मां के मुताबिक़ उन्हें बेटे की हिरासत का कोई दस्तावेज़ नहीं दिया गया और ना ही क़ानून के मुताबिक़ बेटे को हिरासत में लिए जाने के 24 घंटों के अंदर मैजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया।
रिपोर्ट में दंगों के दौरान पुलिस के मूकदर्शक बने रहने और कुछ मामलों में पत्थरबाज़ी में शामिल होने और पीड़ितों को अस्पतालों तक पहुंचने से रोकने के मामलों का भी ब्यौरा है।
दंगों में मारे जाने वाले 53 लोगों में से ज़्यादातर मुसलमान हैं और हिंदू समुदाय के मुक़ाबले उनके घर-दुकानों और सामान को ज़्यादा नुक़सान हुआ है।
रिपोर्ट के मुताबिक़ जब उन्होंने एक स्कूल के हिंदू केयरटेकर से बात की तो उन्होंने पुलिस को बार-बार फ़ोन करने पर भी मदद ना मिलने की बात तो की पर साथ ही पुलिस के प्रति संवेदनशील रवैया अपनाते हुए कहा कि उनके मदद के लिए ना आ पाने की वजह रास्ता रोक खड़े दंगाई थे।
दंगों को हिंदू-विरोधी बताने वाली, गृह मंत्री अमित शाह को सौंपी गई, 'सेंटर फॉर जस्टिस' (सीएफ़जे) नाम के एक ट्रस्ट की रिपोर्ट 'डेली रायट्स: कॉन्सपिरेसी अनरैवल्ड' में भी दिल्ली पुलिस को लेकर यही उदारवादी रवैया दिखाई देता है।
दंगों के बाद पुलिस की भूमिका
दंगों पर पहले आईं रिपोर्ट्स से अलग, एमनेस्टी इंटरनेशनल की तहक़ीक़ात दंगों के बाद हुई पुलिस की जांच पर भी नज़र डालती है और उस पर दंगों के बाद मुसलमानों को ज़्यादा तादाद में गिरफ़्तार करने और उन पर कार्रवाई करने का आरोप लगाती है।
मानवाधिकार कार्यकर्ता ख़ालिद सैफ़ी की फ़रवरी में प्रदर्शन के लिए हुई गिरफ़्तारी का उल्लेख देकर ये दावा किया गया है कि पुलिस हिरासत में उनके साथ जो सलूक हुआ उस वजह से वो मार्च में अपनी पेशी के लिए व्हीलचेयर पर आए।
सैफ़ी छह महीने से जेल में हैं। उन्हें यूएपीए क़ानून के तहत गिरफ़्तार किया गया है।
रिपोर्ट में कई दंगा-पीड़ितों के बयान हैं जिनमें वो पुलिस के हाथों प्रताड़ना और जबरन झूठे बयान दिलवाने, दबाव बनाने, कोरे कागज़ पर हस्ताक्षर करवाने के आरोप हैं।
एक ग़ैर-सरकारी संगठन, 'ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क' के व़कील का बयान भी है जो अपने क्लाइंट से बातचीत करने से रोके जाने, पुलिस के बुरे बर्ताव और लाठीचार्ज का आरोप लगाता है।
आठ जुलाई के दिल्ली पुलिस के एक ऑर्डर, जिसमें लिखा था कि दिल्ली दंगों से जुड़ी गिरफ़्तारियों में ''ख़ास ख़याल रखने की ज़रूरत है'' कि इससे ''हिंदू भावनाएं आहत'' ना हों, पर दिल्ली हाई कोर्ट ने पुलिस को लताड़ा था।
कोर्ट ने ऑर्डर तो रद्द नहीं किया था पर ताक़ीद की थी कि, ''जांच एजंसियों को ये ध्यान रखना होगा कि वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा दी गई हिदायतों से ऐसा कोई भेदभाव ना हो जो क़ानून के तहत ग़लत है''।
एमनेस्टी इंटरनेशनल ने पिछले छह महीने के इस ब्यौरे के साथ ये मांग की है कि दिल्ली पुलिस की कार्रवाई की जांच और जवाबदेही तय हो और पुलिस विभाग को सांप्रदायिक तनाव और हिंसा के व़क्त काम करने के बारे में प्रशिक्षण दिया जाए।
इस रिपोर्ट में लगाए गए आरोपों पर दिल्ली पुलिस की प्रतिक्रिया का इंतज़ार है। पुलिस की ओर से बयान मिलने पर रिपोर्ट अपडेट कर दी जाएगी।
अमरीका की शीर्ष दो यूनिवर्सिटीज ने अमरीकी सरकार के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई का रास्ता चुना है। सरकार ने इमिग्रेशन संबंधी नया नियम बनाया है जिसके तहत दूसरे देशों के छात्रों के सामने देश छोड़ने की नौबत आ गई है।
डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन ने एक नया नियम लागू किया है जिसके तहत उन छात्रों को देश में रहने की अनुमति नहीं होगी जिनके शैक्षणिक संस्थानों में क्लास रूम क्लासेज नहीं होगी। हालांकि कोरोना वायरस महामारी के चलते अधिकांश यूनिवर्सिटी ऑनलाइन टीचिंग करा रहे हैं।
दुनिया के दो टॉप इंस्टीट्यूट हार्वर्ड यूनिवर्सिटी और मैसाच्यूटएस इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नॉलॉजी ने नए इमिग्रेशन क़ानून पर रोक लगाने के लिए फ़ेडरल कोर्ट से अपील की है।
हार्वर्ड के प्रेसीडेंट लॉरेंस बाकाउ ने हार्वर्ड कम्यूनिटी को भेजे ईमेल में कहा है कि हम इस मामले को मज़बूती से लड़ेंगे ताकि हमारे अंतरराष्ट्रीय छात्र और देश के दूसरे शैक्षणिक संस्थानों के अंतरराष्ट्रीय छात्र, देश से निकाले जाने के डर से मुक्त होकर अपनी पढ़ाई पूरी कर सकें।
भारत में कोरोना संक्रमण को देखते हुए सीबीएसई ने छात्रों को राहत देते हुए नौवीं से 12वीं कक्षा तक के सिलेबस कम करने का एलान किया है।
सीबीएसई की ओर से जारी प्रेस बयान में कहा गया है कि कोरोना संक्रमण से उपजी स्थितियों को देखते हुए यह फ़ैसला लिया गया है क्योंकि स्कूलों के बंद होने से क्लास रूम क्लासेज नहीं हो पा रही हैं।
इसके चलते बोर्ड ने 2020-21 के सत्र में नौवीं से 12वीं तक के सिलेबस को 30 फीसदी कम करने का फ़ैसला लिया है।
सिलेबस में से जो हिस्से कम किए जाएंगे उनसे इंटर्नल एस्सेमेंट और बोर्ड परीक्षा में सवाल नहीं पूछे जाएंगे।
क्या बहिष्कार फ़ेसबुक को नुक़सान पहुंचा सकता है? इसका जवाब 'हां' है।
18वीं शताब्दी में हुए 'उन्मूलनवादी आंदोलन' (एबोलिशनिस्ट मूवमेंट) ने ब्रिटेन के लोगों को ग़ुलामों की बनाई हुई वस्तुओं को ख़रीदने से रोका।
इस आंदोलन का बड़ा असर हुआ। लगभग तीन लाख लोगों ने चीनी ख़रीदनी बंद कर दी, जिससे ग़ुलामी प्रथा को ख़त्म किए जाने का दबाव बढ़ा।
'स्टॉप हेट फ़ॉर प्रॉफ़िट' वो ताज़ा अभियान है जिसमें 'बहिष्कार' को राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है। इस मुहिम का दावा है कि फ़ेसबुक अपने प्लेटफ़ॉर्म पर नफ़रत से भरी और नस्लवादी सामग्री (कॉन्टेंट) हटाने की पर्याप्त कोशिश नहीं करता।
'स्टॉप हेट फ़ॉर प्रॉफ़िट' मुहिम ने कई बड़ी कंपनियों को फ़ेसबुक और कुछ अन्य सोशल मीडिया प्लैटफ़ॉर्म्स से अपने विज्ञापन हटाने के लिए राज़ी कर लिया है।
फ़ेसबुक से अपने विज्ञापन हटाने वालों में कोका-कोला, यूनीलीवर और स्टारबक्स के बाद अब फ़ोर्ड, एडिडास और एचपी जैसी नामी कंपनियां भी शामिल हो गई हैं।
समाचार वेबसाइट 'एक्सियस' के अनुसार माइक्रोसॉफ़्ट ने भी फ़ेसबुक और इंस्टाग्राम पर मई में ही विज्ञापन देना बंद कर दिया था। माइक्रोसॉफ़्ट ने अज्ञात 'अनुचित सामग्री' की वजह से फ़ेसबुक पर विज्ञापन देने बंद किए हैं।
इस बीच रेडिट और ट्विच जैसे अन्य ऑनलाइन प्लंटफ़ॉर्म्स ने भी अपने-अपने स्तर पर नफ़रत-विरोधी क़दम उठाए हैं और फ़ेसबुक पर दबाव बढ़ा दिया है।
तो क्या इस तरह के बहिष्कार से फ़ेसबुक को भारी नुक़सान हो सकता है?
इस सवाल का छोटा सा जवाब है - हां। क्योंकि फ़ेसबुक के रेवेन्यू का एक बड़ा हिस्सा विज्ञापनों से ही आता है।
अवीवा इन्वेस्टर्स के डेविड कमिंग ने बीबीसी से कहा कि फ़ेसबुक से लोगों का भरोसा उठ गया है और यूज़र्स को फ़ेसबुक के रवैये में नैतिक मूल्यों की कमी नज़र आई है। डेविम कमिंग का मानना है कि ये धारणाएं फ़ेसबुक के कारोबार को बुरी तरह नुक़सान पहुंचा सकती हैं।
शुक्रवार को फ़ेसबुक के शेयर की कीमतों में आठ फ़ीसदी गिरावट दर्ज की गई थी। नतीजन, कंपनी के सीईओ मार्क ज़करबर्ग को कम से कम साढ़े पांच खरब रुपयों का नुक़सान हुआ।
लेकिन क्या ये नुक़सान और बड़ा हो सकता है? क्या इससे आने वाले दिनों में फ़ेसबुक के अस्तित्व को ख़तरा पैदा हो सकता है? इन सवालों के स्पष्ट जवाब मिलने अभी बाकी हैं।
पहली बात तो ये है कि फ़ेसबुक बहिष्कार का सामना करने वाली पहली सोशल मीडिया कंपनी नहीं है।
साल 2017 में कई बड़े ब्रैंड्स ने ऐलान किया कि वो यूट्यूब पर विज्ञापन नहीं देंगे। ऐसा इसलिए हुआ था क्योंकि एक ख़ास ब्रैंड का विज्ञापन किसी नस्लभेदी और होमोफ़ोबिक (समलैंगिकता के प्रति नफ़रत भरा) वीडियो के बाद दिखाया गया था।
इस ब्रैंड के बहिष्कार को अब लगभग पूरी तरह भुला दिया गया है। यूट्यूब ने अपनी विज्ञापन नीतियों में बदलाव किया और अब यूट्यूब की पेरेंट कंपनी गूगल भी इस सम्बन्ध में ठीक काम कर रही है।
हो सकता है कि इस बहिष्कार का फ़ेसबुक को बहुत ज़्यादा नुक़सान न हो। इसके कुछ और कारण भी हैं।
पहली बात तो ये कि कई कंपनियों ने सिर्फ़ जुलाई महीने के लिए फ़ेसबुक का बहिष्कार करने की बात कही है। दूसरी बात ये कि फ़ेसबुक के रेवेन्यू का एक बड़ा हिस्सा छोटे और मध्यम कंपनियों के विज्ञापन से भी आता है।
सीएनएन की रिपोर्ट के अनुसार पिछले साल सबसे ज़्यादा ख़र्च करने वाले 100 ब्रैंड्स से फ़ेसबुक को तकरीबन तीन खरब रुपये की कमाई हुई थी और यह विज्ञापन से होने वाली कुल कमाई का महज़ छह फ़ीसदी था।
एडवर्टाइज़िंग एजेंसी डिजिटल ह्विस्की के प्रमुख मैट मॉरिसन ने बीबीसी को बताया कि बहुत-सी छोटी कंपनियों के लिए 'विज्ञापन न देना संभव नहीं है।'
मॉरिसन कहते हैं, "जो कंपनियां टीवी पर विज्ञापन के लिए भारी-भरकम राशि नहीं चुका सकतीं, उनके लिए फ़ेसबुक एक ज़रूरी माध्यम है। कारोबार तभी सफल हो सकता है जब कंपनियां अपने संभावित ग्राहकों तक पहुंच पाएं। इसलिए वो विज्ञापन देना जारी रखेंगी।''
इसके अलावा, फ़ेसबुक का ढांचा ऐसा है कि ये मार्क ज़करबर्ग को किसी भी तरह के बदलाव करने की ताक़त देता है। अगर वो कोई नीति बदलना चाहते हैं तो बदल सकते हैं। इसके लिए सिर्फ़ उनके विचारों को बदला जाना ज़रूरी है। अगर ज़करबर्ग कार्रवाई न करना चाहें तो नहीं करेंगे।
हालांकि पिछले कुछ दिनों में मार्क ज़करबर्ग ने बदलाव के संकेत दिए हैं। फ़ेसबुक ने शुक्रवार को ऐलान किया कि वो नफ़रत भरे कमेंट्स को टैग करना शुरू करेगा।
दूसरी तरफ़, बाकी कंपनियां ख़ुद से अपने स्तर पर कार्रवाई कर रही हैं।
सोमवार को सोशल न्यूज़ वेबसाइट रेडिट ने ऐलान किया कि वो 'द डोनाल्ड ट्रंप फ़ोरम' नाम के एक समूह पर प्रतिबंध लगा रहा है। इस समूह के सदस्यों पर नफ़रत और धमकी भरे कमेंट करने का आरोप है। ये समूह सीधे तौर पर राष्ट्रपति ट्रंप से नहीं जुड़ा था लेकिन इसके सदस्य उनके समर्थन वाले मीम्स शेयर करते थे।
इसके अलावा ऐमेज़न के स्वामित्व वाले वीडियो स्ट्रीमिंग प्लेटफ़ॉर्म ट्विच ने भी 'ट्रंप कैंपेन' द्वारा चलाए जाने वाले एक अकाउंट पर अस्थायी रूप से पाबंदी लगा दी है। ट्विच ने कहा है कि राष्ट्रपति ट्रंप की रैलियों के दो वीडियो में कही गई बातें नफ़रत को बढ़ावा देने वाली थीं।
इसमें से एक वीडियो साल 2015 (ट्रंप के राष्ट्रपति चुने जाने से पहले) का था। इस वीडियो में ट्रंप ने कहा था कि मेक्सिको बलात्कारियों को अमरीका में भेज रहा है।
ट्विच ने अपने बयान में कहा, "अगर किसी राजनीतिक टिप्पणी या ख़बर में भी नफ़रत भरी भावना है तो हम उसे अपवाद नहीं मानते। हम उसे रोकते हैं।''
ये साल सभी सोशल मीडिया कंपनियों के लिए चुनौती भरा होने वाला है और फ़ेसबुक भी इन चुनौतियों के दायरे से बाहर नहीं है। हालांकि कंपनियां हमेशा अपनी बैलेंस शीट को ध्यान में रखकर फ़ैसले लेती हैं। इसलिए अगर ये बहिष्कार लंबा खिंचता है और ज़्यादा कंपनियां इसमें शामिल हो जाती हैं तो ये साल फ़ेसबुक के लिए काफ़ी कुछ बदल देगा।
कोरोना वायरस से जुड़ी अफ़वाहों को रोकने के लिए मैसेजिंग ऐप व्हाट्सऐप ने 'बार-बार' संदेश फॉर्वर्ड करने को लेकर पाबंदियां लगा दी हैं।
व्हाट्सऐप के अनुसार जो मैसेज 'बार-बार फॉर्वर्ड' किए जा रहे हैं उन्हें अब यूज़र एक बार में एक ही चैट को फ़ॉर्वर्ड कर सकेंगे।
ये बदलाव आज से लागू हो गए हैं।
जिन मैसेज को पहले पांच बार फॉर्वर्ड किया जा चुका है उन मैसेज को व्हाट्सऐप 'फ्रीक्वेंट फॉर्वर्ड' यानी 'बार-बार फॉर्वर्ड' किए जा रहे मैसेज की सूची में रखेगा।
इस तरह के मैसेज को व्हाट्सऐप पर दो एरो के साथ दिखाया जाएगा जिसका मतलब होगा कि ये मूल मैसेज नहीं हैं।
इन मैसेज को व्हाट्सऐप निजी मैसेज नहीं मानेगा। ये पहली बार नहीं है जब व्हाट्सऐप ने फॉर्वड किए जाने वाले मैसेज पर रोक लगाने के लिए कदम उठाए हैं।
साल 2018 में व्हाट्सऐप ने फॉर्वर्ड मैसेज पर सीमित रोक लगाते हुए ये सुविधा एक साथ केवल पांच लोगों के मैसेज भेज सकने तक सीमित कर दिया था।
उस वक्त भारत में व्हाट्सऐप पर कई तरह की ग़लत जानकारियां साझा की जा रही थीं और इन्हीं को आधार मान कई जगहों पर लोगों की पीट-पीट कर हत्या कर दी गई थी।
छह महीने बाद जनवरी 2019 में ये सीमित रोक दुनिया भर में लागू कर दी गई थी।
47 दिनों की यात्रा के बाद चंद्रयान-2 का चन्द्रमा की सतह से महज दो किलोमीटर दूर इसरो से संपर्क टूट गया।
चन्द्रयान-2 का लैंडर विक्रम आख़िरी दो किलोमीटर में ख़ामोश हो गया। इसी लैंडर के ज़रिए चन्द्रयान-2 को चन्द्रमा की सतह तक पहुंचना था।
इसरो के चेयरमैन के सिवन ने कहा कि शुरुआत में सब कुछ सामान्य था लेकिन चन्द्रमा की सतह से आख़िरी के 2.1 किलोमीटर पहले संपर्क टूट गया।
इसरो प्रमुख ने कहा कि इससे जुड़े डेटा का विश्लेषण किया जा रहा है। अब तक अमरीका, रूस और चीन ही चन्द्रमा पर अपने अंतरिक्षयान की सॉफ़्ट लैन्डिंग करवा पाए हैं और भारत ये उपलब्धि हासिल करने से दो क़दम पीछे रह गया।
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस ऐतिहासिक पल का गवाह बनने के लिए शुक्रवार की रात बेंगलुरु स्थित इसरो केंद्र में थे।
संपर्क टूटने के बाद मोदी ने वैज्ञानिकों ढाढस बंधवाया और कहा कि किसी भी बड़े मिशन में उतार-चढ़ाव लगा रहता है। इससे पहले सिवन ने कहा था कि आख़िर के 15 मिनट सबसे अहम हैं और इस 15 मिनट में संपर्क टूटा।
भारत में इसकी सफलता को लेकर काफ़ी उत्साह का माहौल था और लोगों की नज़रें देर रात भी इसरो के मिशन पर थी।
जब इसरो से संपर्क टूटने की बात सामने आई तो लोगों को निराशा हुई लेकिन इसरो के वैज्ञानिकों का सबने हौसला बढ़ाया। दूसरी तरफ़ पड़ोसी देश पाकिस्तान से इस पर तंज और व्यंग्य भरी प्रतिक्रिया आई।
पाकिस्तान के विज्ञान और तकनीक मंत्री फ़वाद हुसैन चौधरी ने चंद्रयान-2 से संपर्क टूटने पर पीएम मोदी की प्रतिक्रिया के वीडियो को रीट्वीट करते कहा, ''मोदी जी सैटेलाइट कम्युनिकेशन पर भाषण दे रहे हैं। दरअसल, ये नेता नहीं बल्कि एक अंतरिक्षयात्री हैं। लोकसभा को मोदी से एक ग़रीब मुल्क के 900 करोड़ रुपए बर्बाद करने के लिए सवाल पूछने चाहिए।''
अपने दूसरे ट्वीट में फ़वाद चौधरी ने लिखा है, ''मैं हैरान हूं कि भारतीय ट्रोल्स मुझे गालियां दे रहे हैं, मानो उनके मून मिशन को मैंने नाकाम किया हो। भाई हमने कहा था कि 900 करोड़ लगाओ इन नालायक़ों पर? अब सब्र करो और सोने की कोशिश करो।
पाकिस्तान के एक ट्विटर यज़र ने लिखा कि आपने पीएम मोदी को कंट्रोल रूम से जाते हुए देखा? इस पर फ़वाद चौधरी ने लिखा, ''उफ़ मैं अहम पल को नहीं देख सका।''
अभय कश्यप नाम के एक भारतीय ने फ़वाद चौधरी से नाराज़गी जताई तो इस पर उन्होंने प्रतिक्रिया में कहा, ''सो जा भाई, मून के बदले मुंबई में उतर गया खिलौना। जो काम आता नहीं पंगा नहीं लेते ना।
पाकिस्तानी सेना के प्रवक्ता आसिफ़ ग़फ़ूर ने ट्वीट कर कहा है, ''बहुत बढ़िया इसरो। किसकी ग़लती है? पहला- बेगुनाह कश्मीरियों जिन्हें क़ैद कर रखा गया है? दूसरा- मुस्लिम और अल्पसंख्यक की? तीसरा- भारत के भीतर हिन्दुत्व विरोधी आवाज़? चौथा- आईएसआई? आपको हिन्दुत्व कहीं नहीं ले जाएगा।''
पाकिस्तान में सोशल मीडिया पर भारत के इस मिशन का मज़ाक उड़ाया जा रहा है। कई लोग तो इसे विंग कमांडर अभिनंदन से जोड़ रहे हैं।
प्रो-गर्भपात अधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि गर्भपात-विरोधी अधिकार नीतियों से लाखों महिलाओं को खतरा है। इस कड़ी में, द स्ट्रीम दुनिया भर की तीन अलग-अलग बहसों पर नज़र डालती है।
गग शासन
अंतर्राष्ट्रीय महिला स्वास्थ्य गठबंधन (IWHC) की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि अमेरिकी सरकार द्वारा दशकों से चली आ रही एक पुरानी नीति की पुनर्स्थापना, जो कि सरकार द्वारा वित्त पोषित सहायता समूहों को गर्भपात पर चर्चा करने से रोकती है, "अंततः महिलाओं की हत्या" है। रिपोर्ट के अनुसार, जो केन्या, नेपाल, नाइजीरिया और दक्षिण अफ्रीका पर केंद्रित है, तथाकथित वैश्विक गैग नियम - या मैक्सिको सिटी नीति - "गर्भ निरोधकों और गर्भपात देखभाल तक पहुंच को कम करता है, जिससे अवांछित गर्भधारण, असुरक्षित गर्भपात और रोके जाने वाली मौतें होती हैं।" । "
हम अधिक जानने के लिए IWHC के शोधकर्ताओं के साथ बात करेंगे।
होंडुरास प्रतिबंध
न्यूयॉर्क स्थित ह्यूमन राइट्स वॉच (HRW) ने कहा है कि होंडुरास के गर्भपात पर प्रतिबंध से महिलाओं और लड़कियों को खतरा है। हाल ही की एक रिपोर्ट में, "होंडुरास के गर्भपात प्रतिबंध के तहत महिलाओं के जीवन यापन के लिए जीवन या मृत्यु के विकल्प", होंडुराण की महिलाएँ गर्भावस्था को समाप्त करने की कोशिश करते समय आने वाली कठिनाइयों पर चर्चा करती हैं।
एचआरडब्लू के अनुसार, होंडुरान कानून महिलाओं, लड़कियों और गर्भपात के लिए प्रेरित करने वाले चिकित्सा पेशेवरों पर छह साल तक की जेल की सजा सुनाता है। सरकार आपातकालीन गर्भनिरोधक पर भी प्रतिबंध लगाती है - और होंडुरास में लगभग 4 में से 1 महिला एक साथी द्वारा शारीरिक या यौन शोषण का शिकार होती है, कई लोग गुप्त रूप से गर्भधारण को समाप्त करने के लिए मजबूर होते हैं। हालांकि शोधकर्ताओं को यह नहीं पता है कि कितने बैकडोर प्रक्रियाएं की जाती हैं, उनका अनुमान है कि हर साल 50,000 से 80,000 गर्भपात होते हैं। इसके अलावा, होंडुरन स्वास्थ्य सचिव के आंकड़ों से पता चलता है कि 2017 में कम से कम 8,600 महिलाओं को गर्भपात या गर्भपात से जटिलताओं के कारण अस्पताल में भर्ती कराया गया था।
हम ह्यूमन राइट्स वॉच के शोधकर्ताओं से बात करते हैं।
उत्तरी आयरलैंड
अमेरिकी राज्य अलबामा ने उस समय दुनिया भर में सुर्खियां बटोरीं जब उसके गवर्नर ने संयुक्त राज्य अमेरिका में सबसे अधिक प्रतिबंधात्मक गर्भपात विरोधी उपायों में से एक पर हस्ताक्षर किए। जबकि कई समर्थक गर्भपात अधिकारों के प्रचारकों ने इस कदम पर झटका व्यक्त किया, उत्तरी आयरलैंड में कार्यकर्ता यह देखने के लिए व्यग्र थे कि उत्तरी आयरिश महिलाएं अभी भी 1861 में तैयार किए गए गर्भपात विरोधी कानूनों के तहत रह रही थीं। उत्तरी आयरलैंड में महिलाओं और चिकित्सा पेशेवरों दोनों के लिए मुकदमा चलाया जा सकता है। यह प्रक्रिया, कई लोगों को अन्यत्र यात्रा करने के लिए मजबूर करती है।
अभी भी, पिछले साल आयरलैंड के पड़ोसी जनमत संग्रह में, जिसने गर्भपात को वैध किया था, ने बेलफ़ास्ट फेमिनिस्ट नेटवर्क होप के एलिजाबेथ नेल्सन जैसे गर्भपात के अधिकार कार्यकर्ताओं को उम्मीद है कि बदलाव संभव है। गार्जियन में लिखते हुए, नेल्सन ने कहा, “हमें उस पल की धैर्य और जादू की जरूरत है जो पहले से कहीं अधिक है। हम जितना सोचते हैं उससे कहीं अधिक शक्तिशाली हैं। ”
इस सेगमेंट में, हम उत्तरी आयरलैंड में गर्भपात के अधिकार प्रचारकों के साथ बात करेंगे कि यह सुनने के लिए कि कार्यकर्ता मरीजों की देखभाल और जुर्माना से बचने में कैसे मदद कर रहे हैं।
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