ई-फ़ार्मेसी प्लेटफ़ॉर्म से खतरा: क्या ई-फ़ार्मेसी कंपनियां रिटेलर्स और फ़ार्मासिस्ट के रोजगार छीन रहे हैं?
भारत में रिलायंस इंडस्ट्रीज़ ने हाल ही में चेन्नई आधारित ऑनलाइन फ़ार्मेसी कंपनी नेटमेड्स में 620 करोड़ रुपये का निवेश किया है।
रिलायंस रिटेल वेंचर्स ने विटालिक हेल्थ और इसकी सहयोगियों में ये निवेश किया है। इस समूह की कंपनियों को नेटमेड्स के तौर पर जाना जाता है।
रिलायंस इंडस्ट्रीज़ के ऑनलाइन फ़ार्मा कंपनी में इतने बड़े निवेश के साथ ही भारत में ऑनलाइन फ़ार्मेसी या ई-फ़ार्मेसी में ज़बरदस्त प्रतिस्पर्धा शुरू होने का अनुमान लगाया जा रहा है।
इसमें अमेज़न पहले ही प्रवेश कर चुका है। बेंगलुरु में इसकी फ़ार्मा सर्विस का पायलट प्रोजेक्ट शुरू हो चुका है। वहीं, फ्लिपकार्ट भी इस क्षेत्र में आने की तैयारी में है।
नेटमेड्स एक ई-फ़ार्मा पोर्टल है जिस पर प्रिस्क्रिप्शन आधारित दवाओं और अन्य स्वास्थ्य उत्पादों की बिक्री की जाती है। ये कंपनी दवाओं की घर पर डिलवरी कराती है।
इसी तरह ई-फ़ार्मेसी के क्षेत्र में पहले से ही कई स्टार्टअप्स मौजूद हैं। जैसे 1mg, PharamaEasy, Medlife आदि।
इन बड़े प्लेयर्स के आने से पहले से विवादों में रहे ई-फ़ार्मेसी प्लेटफॉर्म को लेकर अब फिर से बहस छिड़ गई है।
रिटेलर्स और फ़ार्मासिस्ट का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्थाओं ने इससे लाखों लोगों का रोज़गार छिनने को लेकर चिंता जताई है। लेकिन, ई-फ़ार्मा कंपनियां इससे इनकार करती हैं।
मुकेश अंबानी को लिखा पत्र
ऑल इंडिया ऑर्गेनाइजेशन ऑफ़ केमिस्ट एंड ड्रगिस्ट एसोसिएशन (एआईओसीडी) ने रिलायंस इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड के चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर मुकेश अंबानी को पत्र लिखकर उनके नेटमेड्स में निवेश को लेकर आपत्ति जताई है।
इस पत्र में लिखा है, ''रिलायंस इंडस्ट्री के स्तर की कंपनी को एक अवैध उद्योग में निवेश करते देखना बेहद दुखद है।'' पत्र कहता है कि ई-फ़ार्मेसी उद्योग औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम (ड्रग्स एंड कॉस्मैटिक्स एक्ट) के तहत नहीं आता, जो दवाइयों के आयात, निर्माण, बिक्री और वितरण को विनियमित करता है।
एआईओसीडी ने ऐसा ही एक पत्र अमेज़न को लिखा है। ये पत्र भारत के पीएम नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, केंद्रीय वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री पीयूष गोयल और अन्य मंत्रालयों को भी भेजा गया है।
वर्किंग मॉडल से नौकरियों पर ख़तरा
बड़ी-बड़ी कंपनियों के ई-फ़ार्मेसी उद्योग में क़दम रखने के साथ ही रिटेलर्स और फ़ार्मासिस्ट की चिंताएं बढ़ गई हैं। उनका प्रतिनिधित्व करने वाले संस्थान ई-फ़ार्मेसी को लेकर दो तरह से आपत्ति जता रहे हैं।
पहला, उनका मानना है कि ई-फ़ार्मेसी प्लेटफ़ॉर्म्स के वर्किंग मॉडल से लाखों रिटेलर्स और फ़ार्मासिस्ट की नौकरियां जा सकती हैं। उनका कारोबार बंद पड़ सकता है।
दूसरा, वो ई-फ़ार्मा कंपनियों के संचालन के क़ानूनी पक्ष को लेकर सवाल उठाते हैं।
इंडियन फ़ार्मासिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष अभय कुमार कहते हैं कि ई-फ़ार्मा प्लेटफ़ॉर्म का जो वर्किंग मॉडल है वो फ़ार्मासिस्ट की नौकरियों को धीरे-धीरे ख़त्म कर देगा।
अभय कुमार कहते हैं, ''ई-फ़ार्मा प्लेटफॉर्म्स अपने स्टोर, वेयरहाउस या इनवेंट्री बनाएंगे, जहां वो सीधे कंपनियों या वितरक से दवाएं लेकर स्टोर करेंगे और फिर ख़ुद वहां से दवाइयां सप्लाई करेंगे। ऐसे में जो स्थानीय केमिस्ट की दुकान है उसकी भूमिका ख़त्म हो जाएगी।''
''फ़ार्मासिस्ट की नौकरियों पर तो पहले ही संकट है। अस्पतालों में फ़ार्मासिस्ट के जो ख़ाली पद हैं वो भरे नहीं जाते। तीन साल की पढ़ाई के बाद युवा ख़ुद को बेरोज़गार पाते हैं। ऐसे में केमिस्ट के तौर पर जो उनके पास कमाई का ज़रिया है क्या आप उसे भी छीन लेना चाहते हैं?"
ई-फ़ार्मा कंपनियों का बहुत ज़्यादा डिस्काउंट देना भी रिटेलर्स के लिए चिंता का कारण बना हुआ है। एआईओसीडी के अध्यक्ष जे.एस. शिंदे कहते हैं कि ई-फ़ार्मा कंपनियां जिस तरह ज़्यादा डिस्काउंट देती हैं एक छोटा रिटेलर उनसे मुक़ाबला नहीं कर पाएगा।
जे.एस. शिंदे ने बताया, ''रिटेलर को 20 प्रतिशत और होलसेलर को 10 प्रतिशत मार्जिन मिलता है। लेकिन, ई-फ़ार्मेसी में आए नए प्लेयर्स 30 से 35 प्रतिशत तक डिस्काउंट दे रहे हैं। ये डीप डिस्काउंट दे सकते हैं, कुछ नुक़सान भी उठा सकते हैं लेकिन, सामान्य रिटेलर के पास इतनी पूंजी नहीं है। इससे ग्राहकों को भी समस्या होगी क्योंकि जब रिटेलर्स बाज़ार से हट जाएंगे तो इनका एकाधिकार हो जाएगा और क़ीमतों पर नियंत्रण मुश्किल होगा।''
वह बताते हैं कि पूरे देश में क़रीब साढ़े आठ लाख रिटेलर्स हैं और डेढ़ लाख स्टॉकिस्ट और सबस्टॉकिस्ट हैं, जिनकी रोज़ी-रोटी छीनने वाली है। इसमें काम करने वाले लोग और उनका परिवार मिलाकर क़रीब 1.9 करोड़ लोग बेसहारा हो जाएंगे। कोरोना वायरस के चलते मंदी की मार झेल रहे लोगों पर ये दोहरी मार होगी।
क्या कहती हैं ई-फ़ार्मा कंपनियां
लेकिन, ई-फ़ार्मा कंपनियां इन सभी आरोपों से पूरी तरह इनकार करती हैं। उनका कहना है कि उनके वर्किंग मॉडल को लेकर लोगों में भ्रांतियां हैं। उनका काम करने का तरीक़ा नौकरियां लेने की बजाय ग्राहकों के लिए सुविधा बढ़ाएगा, दवाइयों तक पहुंच आसान बनाएगा और फ़ार्मासिस्ट के लिए मांग बढ़ाएगा।
दवाओं की ऑनलाइन सेलिंग में दो तरह के बिज़नस मॉडस काम करते हैं। एक मार्केटप्लेस और दूसरा इनवेंट्री लेड हाइब्रिड (ऑनलाइन/ऑफलाइन) मॉडल।
मार्केटप्लेस मॉडल में ई-फ़ार्मेसी प्लेटफॉर्म ग्राहक से ऑनलाइन प्रेसक्रिप्शन लेते हैं। ये प्रेसक्रिप्शन सीधे वेबसाइट या ऐप पर अपलोड करके, व्हाट्सऐपस, ई-मेल या फैक्स के ज़रिए दे सकते हैं। फिर उस प्रेसक्रिप्शन को स्थानीय लाइसेंस प्राप्त फ़ार्मासिस्ट (केमिस्ट) के पास पहुंचाया जाता है, वहां से दवाई लेकर ग्राहक को डिलीवरी की जाती है।
वहीं, इनवेंट्री मॉडल में ई-फ़ार्मेसी प्लटेफॉर्म चलाने वाली कंपनी ख़ुद दवाइयों का स्टॉक रखती हैं और प्रेसक्रिप्शन के आधार पर दवाएं डिलिवर करती हैं। वो ऑनलाइन प्लेटफॉर्म ही एक तरह से केमिस्ट का काम करता है।
कुछ कंपनियां हाइब्रिड मॉडल पर काम कर रही हैं। वो दवाओं के वेयरहाउस या स्टोर भी रखती हैं और स्थानीय केमिस्ट से संपर्क के ज़रिए भी दवाएं पहुंचाती हैं। उनके पास दवाओं का वेयरहाउस या स्टोर बनाने का लाइसेंस होता है।
अब रिटेलर्स और फ़ार्मासिस्ट की चिंताएं इनवेंट्री या हाइब्रिड मॉडल को लेकर है क्योंकि इसमें केमिस्ट की दुकानों की भूमिका ख़त्म हो जाएगी।
लेकिन, प्रमुख ई-फ़ार्मेसी कंपनियों के एसोसिएशन डिजिटल हेल्थ प्लेटफॉर्म का कहना है कि ई-फ़ार्मा प्लेटफॉर्म पूरी तरह मार्केटप्लेस मॉडल पर काम करेंगे।
डिजिटल हेल्थ प्लेटफॉर्म के संयोजक डॉक्टर वरुण गुप्ता ने बताया, ''ई-फार्मेसी मॉडल को लेकर कई तरह की भ्रांतियां हैं। ई-फार्मेसी मार्केटप्लेस मॉडल मौजूदा फार्मेसी को ऑनलाइन सेवाएं देने में मदद करेगा। यह अलग-अलग फार्मेसी को एक प्लेटफॉर्म पर जोड़कर एक नेटवर्क तैयार करेगा। इससे, इंवेंट्री प्रबंधन बेहतर होगा, पहुंच बढ़ेगी, क़ीमतें कम होंगी और ग्राहकों को बेहतर सेवाएं मिलेंगी।''
डॉक्टर वरुण कहते हैं कि कोविड-19 महामारी ने दिखाया है कि कैसे दवाओं की बिक्री में दोनों माध्यम एक साथ काम कर सकते हैं। किसी भी शुरुआत को लेकर लोगों में असुरक्षा और चिंता होती है। नई तकनीक आने पर ऐसा ही विरोध पहले भी देखने को मिला है।
ऑनलाइन फ़ार्मेसी उद्योग से जुड़े एक विशेषज्ञ का ये भी कहना है कि वो बहुत ज़्यादा डिस्काउंट नहीं देते। अगर कोई लगातार इतना डिस्काउंट देगा तो वो बाज़ार में नहीं टिक पाएगा। ई-फ़ार्मेसी प्लेटफॉर्म अपना मार्जिन स्थानीय फार्मासिस्ट के साथ तय करते हैं।
अभय कुमार का कहना है कि अगर कंपनियां मार्केटप्लेस मॉडल अपनाती हैं और फ़ार्मासिस्ट के लिए अवसर पैदा करती हैं तो उन्हें इससे कोई आपत्ति नहीं लेकिन ऐसा होने की संभावना बहुत कम है। अब भी कुछ प्लेटफॉर्म हाइब्रिड मॉडल पर काम कर रहे हैं। इसमें उन्हें ज़्यादा फ़ायदा है। इसलिए हम इसका विरोध करते हैं।
ई-फ़ार्मेसी प्लेटफ़ॉर्म और मौजूदा क़ानून
ई-फ़ार्मा कंपनियां कई सालों से भारतीय बाज़ार में काम कर रही हैं लेकिन अभी बहुत छोटे स्तर पर हैं। कोरोना वायरस के चलते हुए लॉकडाउन में ई-फ़ार्मा प्लेटफ़ॉर्म का इस्तेमाल भी बढ़ा है। ज़्यादातर क्रॉनिक दवाएं यानी लंबे समय से चली आ रही बीमारियों की दवाओं के लिए इनका उपयोग किया जाता है।
आंकड़ों की बात करें तो इकोनॉमिक्स टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में साल 2023 तक ई-फ़ार्मेसीज के लिए दवाओं का बाज़ार 18.1 अरब डॉलर तक पहुँच सकता है। 2019 में ये 9.3 अरब डॉलर था।
लेकिन, ई-फ़ार्मेसी प्लेटफॉर्म की वैधता को लेकर लंबे समय से सवाल उठते रहे हैं। यहां तक कि ये मामला कोर्ट भी पहुँच चुका है।
जे.एस. शिंदे कहते हैं, ''ई-फ़ार्मेसी फ़िलहाल औषधि एवं सौंदर्य प्रसाधन अधिनियम के तहत कवर नहीं होती है इसलिए इन्हें चलाना गैर-क़ानूनी है। इस अधिनियम में दवाओं की ऑनलाइन बिक्री का ज़िक्र नहीं है। इसलिए इन पर निगरानी रखना और नियंत्रित करना मुश्किल है।''
वहीं, ई-फार्मा कंपनियां ये दावा करती आई हैं कि वो क़ानूनी दायरे में काम कर रहे हैं। डॉक्टर वरुण गुप्ता बताते हैं कि ई-फ़ार्मा का बिज़नस मॉडल इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट, 2000 में बिचौलिए की अवधारणा के तहत आता है और लाइसेंस प्राप्त फ़ार्मासिस्ट (जो प्रेसक्रिप्शन से दवाएं देते हैं) ड्रग्स एंड कॉस्मैटिक एक्ट के तहत आते हैं। ई-फ़ार्मा कंपनियां इस मॉडल के तहत ही काम कर रही हैं।
ई-फ़ार्मेसी को लेकर बना ड्राफ़्ट
कई पक्षों के आपत्ति जताने के बाद 28 अगस्त 2018 में दवाओं की ऑनलाइन बिक्री के नियमन यानी उन्हें क़ानून के तहत लाने के लिए नियमों का एक ड्राफ़्ट तैयार किया गया था। इसके आधार पर ड्रग्स एंड कॉस्मैटिक रूल्स, 1945 में संशोधन किया जाना था। इस ड्राफ़्ट पर आम जनता/ हितधारकों से राय माँगी गई थी।
इस ड्राफ़्ट में ई-फ़ार्मा कंपनियों के रिजस्ट्रेशन, ई-फ़ार्मेसी के निरीक्षण, ई-फ़ार्मेसी के माध्यम से दवाओं के वितरण या बिक्री के लिए प्रक्रिया, ई-फ़ार्मेसी के माध्यम से दवाओं के विज्ञापन पर रोक, शिकायत निवारण तंत्र, ई-फ़ार्मेसी की निगरानी, आदि से जुड़े प्रावधान थे। लेकिन, आगे इस पर कुछ ख़ास नहीं हो पाया है।
दिसंबर 2018 में ये मामला दिल्ली हाई कोर्ट पहुँचा तो कोर्ट ने बिना लाइसेंस के दवाओं की ऑनलाइन बिक्री पर रोक लगाने का आदेश दिया। इसके बाद मद्रास की सिंगल बेंच ने ड्राफ़्ट के नियम अधिसूचित होने तक दवाओं का ऑनलाइन कारोबार ना करने के निर्देश दिए। लेकिन, जनवरी 2019 में मद्रास की डिविजन बेंच ने इस निर्देश पर रोक लगा दी।
चर्चा है कि सरकार औषधि एवं सौदर्य प्रसाधन अधिनियम में संशोधन करने पर विचार कर रही है ताकि दवाओं की ऑनलाइन बिक्री को भी उसके दायरे में लाया जा सके।
लेकिन, फ़ार्मासिस्ट और रिटेलर्स एसोसिएशन इसे लेकर सभी पक्षों पर विचार करके इससे जुड़े नियम-क़ानून बनाने की माँग कर रहे हैं।
जे.एस. शिंदे कहते हैं कि जिन देशों में ई-फ़ार्मेसी उद्योग चल रहा है वहां इसके क्या प्रभाव पड़े हैं और उनसे बचने के लिए भारत में क्या किया जाए इसका अध्ययन किया जाना चाहिए। सभी पक्षों पर गौर किए बिना इसकी अनुमति ना दी जाए।
उन्होंने बताया कि हम सरकार को 21 दिनों का नोटिस देंगे कि वो हमारी चिंताएं सुने और कोई क़दम उठाए। अगर सरकार की तरफ़ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आती है तो सभी दवा विक्रेता हड़ताल पर जाएंगे।