नागरिकता संशोधन क़ानून: ममता बनर्जी सरकार ने एनपीआर का अपडेशन रोका
नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध के बीच पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार ने एनपीआर (राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर) के अपडेशन का काम रोक दिया है।
इस बाबत ममता सरकार ने सभी ज़िलाधिकारियों को निर्देश भेज दिए हैं।
सोमवार को जारी इस आदेश को जनहित में लिया गया फ़ैसला बताया गया है।
ममता पहले यह लगातार कहती रही हैं कि वो अपने राज्य में एनआरसी और नागरिकता संशोधन क़ानून लागू नहीं होने देंगी, लेकिन एनपीआर को लेकर उहापोह की स्थिति में थी।
एनआरसी का विरोध और एनपीआर का समर्थन करने के कारण बीजेपी को छोड़कर विपक्षी पार्टियां ममता बनर्जी की खिंचाई करती रही हैं।
अब ममता के नए फ़ैसले का सीपीएम ने स्वागत किया है।
वहीं बीजेपी का कहना है कि एनपीआर का काम राष्ट्रीय जनगणना अधिनियम के तहत हो रहा था लिहाजा ममता बनर्जी का फ़ैसला असंवैधानिक है।
एनपीआर पर अस्थायी रोक की वजह क्या है? ममता बनर्जी एनआरसी के ख़िलाफ़ हैं। बंगाल में अल्पसंख्यक बड़ा वोट बैंक है और वे निर्णायक स्थिति में हैं। तीन दशकों से भी अधिक समय तक ये वोट बैंक वामदल के साथ था। 2011 में जब ममता सत्ता में आईं तो ज़मीन अधिग्रहण विरोधी आंदोलनों के साथ उन्हें अल्पसंख्यक वोट बैंक का भी समर्थन मिला और बंगाल में ये लगभग 30 फ़ीसदी हैं।
असम में एनआरसी की लिस्ट जब आई और उसमें क़रीब 19 लाख लोग बाहर रहे तो उसका असर बंगाल पर भी पड़ा। ममता तब से एनआरसी का मुखर विरोध करती रही हैं।
घुसपैठ की समस्या असम से ज़्यादा बंगाल में है। इसकी लंबी सीमा बांग्लादेश के साथ सटी हुई है। विभाजन के बाद से ही हिन्दू बंगाली यहां आते रहे हैं। 1971 में बांग्लादेश के गठन के साथ ही वहां से बड़ी संख्या में हिन्दू बंगाली यहां आए।
सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस पार्टी ने कहा कि राज्य में विरोध प्रदर्शन और हिंसा हो रही है उसको देखते हुए सरकार ने अस्थायी तौर पर यह फ़ैसला किया है ताकि लोगों में और डर न फैले।
बंगाल सरकार के इस फ़ैसले से उपजी स्थिति के मद्देनज़र चलिए जानते हैं कि क्या है एनपीआर, एनआरसी और जनगणना और ये एक-दूसरे से कैसे अलग हैं?
आखिर जनगणना क्यों करवाई जाती है? दरअसल, देश के प्रत्येक नागरिक की सामाजिक, आर्थिक स्थिति का आकलन करने और इसके आधार पर किसी क्षेत्र विशेष में विकास कार्यों को लेकर सरकारी नीतियों का निर्धारण करने के लिए लोगों की गिनती (जनगणना) हर 10 साल में की जाती है।
इसमें गांव, शहर में रहने वालों की गिनती के साथ साथ उनके रोज़गार, जीवन स्तर, आर्थिक स्थिति, शैक्षणिक स्थिति, उम्र, लिंग, व्यवसाय इत्यादि से जुड़े आंकड़े इकट्ठे किए जाते हैं। इन आंकड़ों का इस्तेमाल केंद्र और राज्य सरकारें नीतियां बनाने के लिए करती हैं।
जनगणना कराने की ज़िम्मेदारी केंद्रीय गृह मंत्रालय के तहत आने वाले भारत के रजिस्ट्रार जनरल और जनगणना आयुक्त के दफ़्तर की होती है।
इसे वैधानिक दर्जा देने के लिए 1948 में जनगणना अधिनियम पारित किया गया था।
भारत के गृह मंत्रालय के मुताबिक अंग्रेजों ने ब्रिटिश इंडिया में पहली बार 1872 में जनगणना की थी। तब से लेकर 1941 की जनगणना तक इसमें नागरिकों की जाति पूछी जाती थी लेकिन 1947 में भारत की आज़ादी के बाद 1951 की जनगणना से जाति को हटा दिया गया।
वैसे जनगणना में यह सवाल ज़रूर पूछा जाता रहा है कि क्या आप किसी अनुसूचित जाति से संबंधित हैं और इसमें आपकी जाति क्या है? हालांकि, इसके पक्ष में तर्क यह दिया जाता है कि अनुसूचित जाति को आबादी के अनुपात में राजनीतिक आरक्षण दिया जाएगा, यह संविधान में प्रावधान है। इसलिए उनकी आबादी को जानना एक संवैधानिक ज़रूरत है।
आज़ादी के बाद 1951 में पहली जनगणना करवाई गई। प्रत्येक 10 साल में होने वाली जनगणना आज़ादी के बाद अब तक कुल 7 बार करवाई जा चुकी है।
अभी 2011 में की गई जनगणना के डेटा उपलब्ध हैं और 2021 की जनगणना का काम चल रहा है।
इसे तैयार करने में क़रीब तीन साल का समय लगता है। सबसे पहले जनगणना के लिए अधिकारी निर्धारित किए जाते हैं जो घर-घर जाकर निजी आंकड़े जमा करते हैं और लोगों से सवाल पूछकर जनगणना फॉर्म भरते हैं।
इसमें आयु, लिंग, शैक्षिक और आर्थिक स्थिति, धर्म, व्यवसाय आदि से जुड़े सवाल होते हैं। 2011 की जनगणना में ऐसे कुल 29 सवाल पूछे गए।
इन आंकड़ों से ही पता चलता है कि देश में जनसंख्या क्या है, इनमें कितनी महिलाएं और कितने पुरुष हैं, ये किस आयु वर्ग के हैं, कौन सी भाषाएं बोलते हैं, किस धर्म का पालन करते हैं, उनके शिक्षा का स्तर क्या है, कितने लोग शादीशुदा हैं, बीते 10 सालों में कितने बच्चों को जन्म हुआ, कितने लोग रोज़गार में हैं, कितने लोगों ने बीते 10 सालों में अपने रहने का स्थान बदल लिया है, इत्यादि। नियमानुसार, लोगों की इन निजी सूचनाओं को सरकार गोपनीय रखती है।
इन आंकड़ों से देश के नागरिकों की वास्तविक स्थिति सरकारों तक पहुंचती है और वो इसके आधार पर वो अपनी नीतियां तैयार करती हैं।
अब सरकार ने जनगणना का डिजिटलीकरण करने का फ़ैसला किया है। भारत के केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 18 नवंबर को बताया कि इस बार जनगणना में मोबाइल ऐप का इस्तेमाल किया जाएगा। इसमें डिजिटल तरीके से डेटा एकत्र किए जाएंगे। यानी यह कागजों से डिजिटल फॉर्मेट की तरफ बढ़ने की शुरुआत होगी।
एनआरसी से अलग कैसे है एनपीआर? केंद्र सरकार भारत के नागरिकों की बायोमेट्रिक और वंशावली डेटा तैयार करना चाहती है और इसकी अंतिम सूची जारी करने के लिए सितंबर 2020 का समय तय किया गया है।
यह प्रक्रिया किसी भी तरह से जनगणना (Census) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) से नहीं जुड़ी है।
एनआरसी की तरह एनपीआर नागरिकों की गणना नहीं है। इसमें वो विदेशी भी जोड़ लिया जाएगा जो देश के किसी हिस्से में 6 महीने से रह रहा हो।
एनपीआर का लक्ष्य देश के प्रत्येक नागरिक की पहचान का डेटा तैयार करना है।
एनपीआर क्या है? एनपीआर देश के सामान्य नागरिकों की सूची है। 2010 से सरकार ने देश के नागरिकों के पहचान का डेटाबेस जमा करने के लिए राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर की शुरुआत की।
गृह मंत्रालय के अनुसार सामान्य नागरिक वो है जो देश के किसी भी हिस्से में कम से कम 6 महीने से स्थायी निवासी हो या किसी जगह पर उसका अगले 6 महीने रहने की योजना हो।
गृह मंत्रालय के सूत्रों के मुताबिक एनपीआर को सभी के लिए अनिवार्य किया जाएगा। इसमें पंचायत, ज़िला, राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर गणना की जा रही है।
डेमोग्राफिक डेटा में 15 कैटेगरी हैं जिनमें नाम से लेकर जन्म स्थान, शैक्षिक योग्यता और व्यवसाय आदि शामिल हैं।
इसके लिए डेमोग्राफिक और बायोमेट्रिक दोनों तरह का डेटा एकत्र किए जाएंगे।
बायोमेट्रिक डेटा में आधार को शामिल किया गया है जिससे जुड़ी हर जानकारी सरकार के पास पहुंचेगी।
विवाद भी इसी बात पर है कि इससे आधार का डेटा सुरक्षित नहीं रह जाएगा।
2011 में जब एक व्यापक डेटाबेस तैयार किया गया तो उसमें आधार, मोबाइल नंबर और राशन कार्ड की जानकारी इकट्ठा की गई थी।
लेकिन 2015 में इसे अपडेट किया गया और नागरिकों को अब इसमें अपना नाम दर्ज करवाने के लिए पैन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, वोटर आईडी और पासपोर्ट की जानकारी भी देनी होगी।
नागरिकता अधिनियम 1955 की धारा 14(ए) के तहत वैध नागरिक बनने के लिए इसमें नाम दर्ज करना अनिवार्य है।
इसमें असम को शामिल नहीं किया जाएगा क्योंकि वहां एनआरसी लागू कर दिया गया है।
एनआरसी क्या है? नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजन्स (एनआरसी) से पता चलेगा कि कौन भारत का नागरिक है और कौन नहीं।
पूर्वोत्तर राज्य असम में बांग्लादेश से आने वाले अवैध लोगों के मुद्दे पर वहां कई हिंसक आंदोलन हुए हैं।
1985 में तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने असम गण परिषद से समझौता किया जिसे असम समझौता कहते हैं जिसके तहत 25 मार्च 1971 के पहले जो बांग्लादेशी असम में आए हैं केवल उन्हें ही नागरिकता दी जाएगी।
लेकिन लंबे वक्त तक इसे ठंडे बस्ते में रखा गया। फिर 2005 में तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार ने इस पर काम शुरू किया।
2015 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद इस काम में तेज़ी आई और एनआरसी को तैयार किया गया।
यानी मूल रूप से एनआरसी को सुप्रीम कोर्ट की तरफ से असम के लिए लागू किया गया है।
अगस्त 2019 में एनआरसी प्रकाशित की गई। लेकिन क़रीब 19 लाख लोगों के पास उचित दस्तावेज़ नहीं पाए जाने की वजह से उन्हें प्रकाशित रजिस्टर से बाहर रखा गया।
जिन्हें इस सूची से बाहर रखा गया उन्हें वैध प्रमाण पत्र के साथ अपनी नागरिकता साबित करने के लिए वक्त दिया गया।
हालांकि इसे लेकर सड़क से संसद तक हड़कंप मच गया।