रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने यूक्रेन छोड़कर आने वाले लोगों को वित्तीय लाभ देने के लिए एक योजना शुरू की है।
इस योजना के मुताबिक 18 फरवरी, 2022 के बाद से जिन लोगों को यूक्रेन छोड़ने के लिए मजबूर किया गया, उन्हें 10 हजार रूबल यानी 170 डॉलर प्रति महीना पेंशन दी जाएगी।
डिसेबल लोगों को भी इस पेंशन का हिस्सा बनाया गया है। इसके अलावा गर्भवती महिलाओं को एकमुश्त मदद की जाएगी।
योजना के मुताबिक इसका लाभ यूक्रेन, डोनेत्स्क और लोहांस्क के लोगों को दिया जाएगा। डोनेत्स्क और लोहांस्क को रूस ने फरवरी 2022 में स्वतंत्र राज्य के रूप में मान्यता दी थी।
रूस के इस कदम की यूक्रेन और पश्चिमी देशों ने निंदा करते हुए इसे अवैध बताया है।
18 फरवरी, 2022 को राष्ट्रपति पुतिन ने डोनेत्स्क और लोहांस्क से रूस में आने वाले लोगों को 10 हजार रूबल देने के आदेश दिए थे।
परमाणु निरस्त्रीकरण पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन किसी भी समझौते पर नहीं पहुंच पाया है। रूस ने सम्मेलन के ड्राफ्ट डॉक्यूमेंट पर सवाल उठाते हुए संयुक्त घोषणा को अपनाने से रोक दिया है।
हर पांच साल बाद परमाणु अप्रसार संधि की समीक्षा की जाती है। इसका मकसद परमाणु हथियारों के प्रसार को रोकना है। इस संधि पर 191 देशों ने हस्ताक्षर किए हुए हैं।
परमाणु अप्रसार संधि के तहत इसमें शामिल देशों को अपना परमाणु भंडार कम करने और दूसरे परमाणु हथियार को खरीदने से रोकती है।
रूस ने यूक्रेन के न्यूक्लियर प्लांट, खासकर जपोरिजिया के आसपास सैन्य गतिविधियों पर गंभीर चिंता का हवाला देते हुए ड्राफ्ट डॉक्यूमेंट पर आपत्ति जताई है।
साल 2015 में भी समीक्षा बैठक हुई थी। इसमें भाग लेने वाले भी किसी समझौते पर नहीं पहुंच पाए थे।
परमाणु निरस्त्रीकरण पर संयुक्त राष्ट्र कॉन्फ्रेंस 2015 के बाद साल 2020 में होनी थी, लेकिन कोरोना के चलते इसे 2022 में किया गया।
न्यूयॉर्क में चार हफ्ते चली सम्मेलन में सहमति नहीं बन पाई। ऑस्ट्रेलियाई विदेश मंत्री पेनी वोंग ने समझौता ना होने पर दुख जाहिर किया है।
यूक्रेन के जपोरिजिया न्यूक्लियर प्लांट पर युद्ध शुरू होने के कुछ दिन बाद ही रूस ने कब्जा कर लिया था। सम्मेलन में शामिल सभी देशों की सहमति के बाद ही ड्राफ्ट डॉक्यूमेंट को फाइनल किया जाता है और दस्तावेज का रूप दिया जाता है।
सम्मेलन में सभी देशों के अनुमोदन की आवश्यकता थी। नीदरलैंड और चीन सहित कई देशों ने इस बात पर निराशा व्यक्त की कि कोई सहमति नहीं बन पाई है।
आर्थिक संकट से जूझ रहे पाकिस्तान की मदद के लिए सऊदी अरब ने एकबार फिर हाथ बढ़ाया है। सऊदी अरब पाकिस्तान में एक अरब डॉलर का निवेश करेगा।
सऊदी अरब के विदेश मंत्रालय की ओर से ट्वीट करके इस बात की जानकारी दी गई है।
सऊदी अरब के विदेश मंत्रालय की ओर से जारी विज्ञप्ति के मुताबिक़, ''सऊदी अरब के किंग सलमान ने पाकिस्तान में एक अरब डॉलर के निवेश के लिए निर्देश दिए हैं। उन्होंने पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति को सहारा देने के लिए और वहां के लोगों के लिए यह मदद देने का निर्देश दिया है।''
विज्ञप्ति के मुताबिक़, इस बात की जानकारी सऊदी अरब के विदेश मंत्री ने गुरुवार, 25 अगस्त, 2022 को पाकिस्तान के विदेश मंत्री के साथ फ़ोन पर हुई बातचीत के दौरान दी।
सऊदी अरब के विदेश मंत्री प्रिंस फ़ैसल बिन फ़रहान ने गुरुवार, 25 अगस्त, 2022 को पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो से फ़ोन पर बातचीत की।
इस बातचीत के दौरान उन्होंने पाकिस्तान के विदेश मंत्री को किंग सलमान के निर्देश की जानकारी दी। साथ ही दोनों नेताओं ने द्विपक्षीय संबंधों को बढ़ावा देने पर भी चर्चा की। दोनों नेताओं के बीच साझा लाभ के क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर भी चर्चा हुई।
पहले भी मदद कर चुका है सऊदी अरब
पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच पाकिस्तान की स्थापना के समय से ही मज़बूत संबंध हैं। 1970 के दशक के बाद से ये संबंध और भी मज़बूत हुए हैं।
पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था जब-जब संकट में आती है, सऊदी अरब उसकी मदद के लिए आगे आता है।
पाकिस्तान में इमरान ख़ान की सरकार गिरने के बाद प्रधानमंत्री बने शहबाज़ शरीफ़ ने अपना पहला विदेशी दौरा सऊदी अरब का ही किया था। इस दौरे के दौरान प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ ने सऊदी से आठ अरब डॉलर का राहत पैकेज लेने में कामयाबी हासिल की थी।
सऊदी अरब ने पिछले क़र्ज़ समझौते के तहत दिसंबर 2021 में भी पाकिस्तान स्टेट बैंक में तीन अरब डॉलर जमा कराए थे।
इसके अलावा साल 2021 में जब पाकिस्तान मुश्किल आर्थिक संकट में फंसा था, डॉलर के मुक़ाबले उसका रुपया टूट रहा था और विदेशी मुद्रा भंडार ख़त्म हो रहा था तब भी सऊदी अरब ने ही आगे बढ़कर उसकी मदद की थी।
अक्टूबर, 2021 में सऊदी अरब ने पाकिस्तान को 4.2 अरब डॉलर की आर्थिक मदद दी थी। पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के सऊदी दौरे के दौरान इस मदद की घोषणा की गई थी। ये मदद सस्ते क़र्ज़ और उधार तेल के रूप में थी।
तालिबान ने कहा है कि उसे अभी तक अल क़ायदा के पूर्व प्रमुख अल ज़वाहिरी का शव नहीं मिला है। हालाँकि उनकी पड़ताल जारी है।
तालिबान के प्रवक्ता ज़बीहुल्लाह मुजाहिद ने गुरुवार, 25 अगस्त, 2022 को कहा कि तालिबान को अभी तक अल ज़वाहिरी का शव नहीं मिला है।
उन्होंने पत्रकारों से कहा, ''इस मामले में जाँच चल रही है और अभी भी पूरी नहीं हुई है। इस बारे में जो भी जानकारी है वो जाँच पूरी होने के बाद ही सामने आ पाएगी।''
तालिबान के आधिकारिक प्रवक्ता ने कहा, ''जहाँ हमला हुआ था, वहाँ सब कुछ बर्बाद हो चुका था, कोई शव भी नहीं मिला था।''
अमेरिकी ने किया था दावा
अमेरिका ने 31 जुलाई, 2022 को अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल में एक ड्रोन हमले में अल-ज़वाहिरी को मारने का दावा किया था।
अमेरिका की सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी ने आतंकवाद विरोधी ऑपरेशन चलाया था। ज़वाहिरी के मारे जाने की पुष्टि ख़ुद अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने की थी।
बाइडन ने कहा था, "ज़वाहिरी के हाथ अमेरिकी नागरिकों की हत्या से रंगे थे। अब लोगों को इंसाफ़ मिल गया है और यह आतंकवादी नेता अब जीवित नहीं है।''
अधिकारियों का कहना है कि ज़वाहिरी एक सुरक्षित घर की बालकनी में थे तभी ड्रोन के ज़रिए दो मिसाइल दागी गई।
तालिबान के अधिकारियों ने अमेरिका के दावे के बाद कहा था कि ड्रोन हमला तो हुआ था लेकिन जिस समय हमला हुआ घर ख़ाली था। तालिबान अधिकारियों ने कहा था कि ड्रोन हमला एक ख़ाली घर पर हुआ।
तालिबान के एक नेता ने न्यूज़ एजेंसी रॉयटर्स से कहा था कि वे हमले के समय ज़वाहिरी की मौजूदगी के अमेरिकी दावे की पुष्टि नहीं करते हैं।
श्रीलंका में भारतीयों की सुरक्षा के सवाल पर भारत ने कहा है कि वहां मौजूद सभी भारतीयों की सुरक्षा सरकार की प्राथमिकता है। सरकार ने कहा कि वह श्रीलंका के घटनाक्रम पर नज़र रखे हुए है।
भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने गुरुवार, 25 अगस्त 2022 को कहा कि भारत के बाहर और श्रीलंका गए सभी भारतीयों की सुरक्षा सबसे ज़रूरी है।
नई दिल्ली में आयोजित एक संवाददाता सम्मेलन में उन्होंने श्रीलंका गए सभी भारतीयों को सावधानी बरतने की सलाह दी है।
उन्होंने यह भी सलाह दी है कि भारतीय यात्री वहां मुद्रा कन्वर्जन और ईंधन के हालात जैसी सभी ज़रूरी बातों की पड़ताल कर लें।
''हमारे उच्चायुक्त श्रीलंका के स्थानीय प्रशासन के संपर्क में हैं। मुझे नहीं लगता कि श्रीलंका में किसी पर हमला हुआ है। हमने इस बारे में भारतीय नागरिकों को दिशानिर्देश जारी किए हैं।''
पाकिस्तान में असहिष्णुता का हाल चौंकाने वाला
पाकिस्तान में एक सिख महिला के अपहरण की घटना को विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने चिंताजनक क़रार देते हुए कहा है कि पाकिस्तान में धार्मिक असहिष्णुता का स्तर चौंकाने वाला है।
उन्होंने कहा कि वे इस घटना को पाकिस्तान में अल्पसंख्यक समुदाय के खि़लाफ़ होने वाले धार्मिक उत्पीड़न का एक और उदाहरण मानते हैं।
वहीं पाकिस्तान के साथ बातचीत के बारे में भारत ने अपना पुराना रुख़ दोहराते हुए कहा है कि पाकिस्तान के साथ बात के लिए आतंकवाद रहित वातावरण का होना ज़रूरी है।
पैगंबर मोहम्मद पर विवादास्पद टिप्पणी करके विवादों में आईं बीजेपी की पूर्व नेता नूपुर शर्मा को मारने के लिए रूस में कथित रूप से गिरफ़्तार किए गए आत्मघाती हमलावर के बारे में अरिंदम बागची ने कहा है कि भारत इस मसले को लेकर रूस के संपर्क में है।
हालांकि सुरक्षा मामलों का हवाला देते हुए उन्होंने इस बारे में और ब्योरा देने से इनकार कर दिया है।
ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी ने कुछ अरब देशों और इसराइल के बीच संबंधों के समान्य होने की आलोचना की है और साथ ही इसे लेकर इसराइल को कड़ी चेतावनी दी है।
इब्राहिम रईसी ने ईरान के नेशनल आर्मी डे पर तेहरान में एक सैन्य परेड के दौरान अरब और इसराइल देशों के संबंधों का ज़िक्र किया।
उन्होंने वहाँ इसराइल को चेतावनी देते हुए कहा, ''इसराइल अगर कुछ देशों के साथ संबंध सामान्य करना चाहता है तो उसे मालूम है कि उसकी छोटी-से-छोटी हरकत हमसे छिपी नहीं है।''
''अगर वे कोई ग़लती करते हैं, तो हम सीधे यहूदी शासन के दिल पर चोट करेंगे और हमारी सेना की शक्ति उन्हें शांति से बैठने नहीं देगी।''
ईरानी मीडिया के अनुसार कोरोना महामारी की वजह से दो साल के अंतराल के बाद सैन्य परेड हुई जो ईरान के वरिष्ठ नेताओं और सैन्य अधिकारियों की मौजूदगी में परेड आयोजित की गई।
इसमें सेना के नए हथियारों और उपकरणों का भी प्रदर्शन किया गया। इस दौरान इब्राहिम रईसी ने ईरान के रिवोल्यूशनरी गार्ड्स की भी जमकर तारीफ़ की।
ईरान और इसराइल की दुश्मनी जगजाहिर
ईरान इसराइल को मान्यता नहीं देता है। जबकि इसराइल भी कई बार कह चुका है कि वो परमाणु शक्ति संपन्न ईरान को बर्दाश्त नहीं करेगा। ईरान और पश्चिमी देशों के बीच हुआ परमाणु समझौता डोनाल्ड ट्रंप ने ख़त्म कर दिया था। लेकिन जो बाइडन के राष्ट्रपति बनने के बाद से नए सिरे से परमाणु समझौते को लागू करने की क़वायद चल रही थी।
मार्च 2022 में ही ये बातचीत भी रद्द हो गई क्योंकि ईरान चाह रहा था कि अमेरिका अपने विदेशी आतंकी संगठन की लिस्ट से रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प को हटा दे लेकिन ये मुद्दा सुलझ नहीं सका और बातचीत भी बंद पड़ गई।
ईरान कई बार ये आरोप लगा चुका है कि इसराइल ने उसके परमाणु ठिकानों पर हमला किया है और ईरान के न्यूक्लियर वैज्ञानिकों की हत्या कराई है। इसराइल इन आरोपों को न तो नकारता है और न ही इसकी पुष्टि करता है।
साथ ही इसराइल और ईरान के बीच समुद्र में अघोषित टकराव भी सामने आता रहता है, जिसमें जहाजों पर रहस्यमय हमले होते हैं।
इसराइल ईरान के परमाणु कार्यक्रमों को लेकर अपनी चिंताएं जताता रहा है। इसराइल को शक है कि ईरान परमाणु हथियारों का निर्माण कर रहा है, जिससे ईरान इनकार करता रहा है।
इसराइल और खाड़ी देशों की क़रीबी पर ईरान की नज़र
हाल के कुछ सालों में खाड़ी के कई देश इसराइल के क़रीब आए हैं। अभी मार्च 2022 में ही इसराइल में चार अरब देशों का बड़ा सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें शामिल होने के लिए अमेरिका के विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन भी पहुंचे।
इस सम्मेलन में संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, मोरक्को और मिस्र के विदेश मंत्रियों ने हिस्सा लिया। ये पहली बार था जब इसराइल ने इतने सारे अरब देशों के वरिष्ठ अधिकारियों की बैठक आयोजित की है।
ऐसी बैठक और क़रीबी को मध्य-पूर्व में ईरान के ख़िलाफ़ एक नए क्षेत्रीय गठजोड़ के तौर पर भी देखा जा रहा है। ये भी कहा जा रहा है कि मुलाक़ात ने ये भी साफ़ कर दिया है कि अब अरब देश फ़लस्तीन विवाद के मुद्दे का हल निकाले बिना ही इसराइल के साथ संबंध बढ़ाने के लिए तैयार हैं।
इसराइली मीडिया में आई ख़बरों के मुताबिक, बैठक के आख़िर में इसराइली विदेश मंत्री याएर लैपिड ने बताया कि सम्मेलन में शामिल होने वाले सभी देशों के बीच ड्रोन और मिसाइल हमलों, समुद्री हमलों से सुरक्षा के लिए एक ''क्षेत्रीय व्यवस्था'' बनाए जाने को लेकर चर्चा हुई। याएर लैपिड का इशारा ईरान या उसके सहयोगी देशों की ओर था।
दरअसल, ये सभी देश ईरान की गतिविधियों को लेकर सवाल उठाते रहे हैं।
सऊदी अरब, बहरीन और यूएई, ईरान और उसके इस्लामिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड कोर (आईआरजीसी) को लेकर भी हमेशा संदेह में रहे हैं। बीबीसी के सुरक्षा संवाददाता फ्रैंक गार्डनर ने अपनी रिपोर्ट में इसके एक कारण का ज़िक्र करते हुए लिखा है, ''वो ईरान को लेकर सतर्क रहते हैं क्योंकि ईरान ने अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों का उल्लंघन करते हुए मध्य पूर्व में ताक़तवर छद्म मिलिशिया गुटों का नेटवर्क तैयार किया है।''
ऐसे में ईरान, इसराइल के साथ अपने दुश्मनी के संबंधों को खुलकर जाहिर कर ही रहा है साथ ही इसराइल पर निशाना साध अरब देशों को अपने रुख के बारे में संकेत भी दे रहा है।
हालांकि, नेशनल आर्मी डे पर इब्राहिम रईसी ने कहा, "हमारी रणनीति हमला करने की नहीं बल्कि बचाव की है।''
उन्होंने आगे कहा, ''ईरान की सेना ने ख़ुद को और मजबूत बनाने के लिए प्रतिबंधों के मौके का अच्छा इस्तेमाल किया है और हमारा सैन्य उद्योग सबसे अच्छे आकार में है।''
इसराइल और फ़लस्तीनी लड़ाकों के बीच एक बार फिर संघर्ष शुरू हो गया है। जिस स्तर की गोलाबारी इस बार देखी जा रही है, वो पिछले कई सालों में नहीं हुई थी।
फ़लस्तीनी चरमपंथियों ने ग़ज़ा पट्टी से इसराइल के इलाक़े में कई सौ रॉकेट दागे हैं और इसराइल ने इसका जवाब बर्बाद कर देने वाले अपने हवाई हमलों से दिया है।
फ़लस्तीन की ओर से दागे जाने वाले रॉकेटों का निशाना तेल अवीव, मोडिन, बीरशेबा जैसे इसराइली शहर हैं। इसराइल की मिसाइल प्रतिरक्षा प्रणाली आयरन डोम फ़लस्तीनी पक्ष के हमलों का जवाब दे रही है। लेकिन ख़तरे के सायरनों का बजना अभी रुका नहीं है।
इसराइल ने ग़ज़ा के कई ठिकानों पर हवाई हमले किए हैं। दोनों पक्षों की ओर जान और माल का नुक़सान हुआ है। दर्जनों फ़लस्तीनी मारे गए हैं जबकि दूसरी तरफ़ कम से कम 10 इसराइली लोगों की जान गई है।
यरूशलम में इसराइल की पुलिस और फ़लस्तीनी प्रदर्शनकारियों के बीच हफ़्तों से चले आ रहे तनाव के बाद ये सशस्त्र संघर्ष शुरू हुआ है। यरूशलम वो जगह है, जो दुनिया भर के यहूदियों और मुसलमानों के लिए पवित्र माना जाता है।
अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने दोनों ही पक्षों से शांति बनाए रखने की अपील की है। मध्य पूर्व में संयुक्त राष्ट्र के शांति दूत टोर वेन्नेसलैंड ने कहा है कि वहाँ बड़े पैमाने पर लड़ाई छिड़ने का ख़तरा है।
लेकिन इसराइल और फ़लस्तीनी लोगों का संघर्ष सालों पुराना है और इसे उसी नज़रिए से देखा जाना चाहिए। इसराइलियों और फ़लस्तीनियों के बीच का विवाद इतना जटिल क्यों है और इसे लेकर दुनिया बँटी हुई क्यों है? इसे समझने के लिए हमें इसराइल और फ़लस्तीन का इतिहास जानना होगा।
संघर्ष कैसे शुरू हुआ?
बीसवीं सदी की शुरुआत में यूरोप में यहूदियों को निशाना बनाया जा रहा था। इन हालात में यहूदी लोगों के लिए एक अलग देश की मांग ज़ोर पकड़ने लगी। भूमध्य सागर और जॉर्डन नदी के बीच पड़ने वाला फ़लस्तीन का इलाक़ा मुसलमानों, यहूदियों और ईसाई धर्म, तीनों के लिए पवित्र माना जाता था। फ़लस्तीन पर ऑटोमन साम्राज्य का नियंत्रण था और ये ज़्यादातर अरबों और दूसरे मुस्लिम समुदायों के क़ब्ज़े में रहा।
इस सब के बीच फ़लस्तीन में यहूदी लोग बड़ी संख्या में आकर बसने लगे और फ़लस्तीन के लोगों में उन्हें लेकर विरोध शुरू हो गया।
प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के बाद ऑटोमन साम्राज्य (उस्मानिया साम्राज्य) का विघटन हो गया और ब्रिटेन को राष्ट्र संघ की ओर से फ़लस्तीन का प्रशासन अपने नियंत्रण में लेने की मंज़ूरी मिल गई।
लेकिन प्रथम विश्व युद्ध के पहले और लड़ाई के दौरान अंग्रेज़ों ने फ़लस्तीन में अरबों और यहूदी लोगों से कई वायदे किए थे जिसका वे थोड़ा सा हिस्सा भी पूरा नहीं कर पाए। ब्रिटेन ने फ्रांस के साथ पहले ही मध्य पूर्व का बँटवारा कर लिया था। इस वजह से फ़लस्तीन में अरब लोगों और यहूदियों के बीच तनाव की स्थिति पैदा हो गई और दोनों ही पक्षों के सशस्त्र गुटों के बीच हिंसक झड़पों की शुरुआत हो गई।
द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) और जर्मनी में हिटलर और नाज़ियों के हाथों यहूदियों के व्यापक जनसंहार के बाद यहूदियों के लिए अलग देश की मांग को लेकर दबाव बढ़ने लगा। उस वक्त ये योजना बनी कि ब्रिटेन के नियंत्रण वाले इलाक़े फ़लस्तीन को फ़लस्तीनियों और यहूदियों के बीच बाँट दिया जाएगा।
आख़िरकार 14 मई, 1948 को ब्रिटेन की मदद से फ़लस्तीन में जबरदस्ती इसराइल की स्थापना हो गई। और यहूदियों द्वारा फ़लस्तीन को ख़त्म कर दिया गया। इसराइल के गठन के साथ ही एक स्थानीय तनाव क्षेत्रीय विवाद में बदल गया। अगले ही दिन मिस्र, जॉर्डन, सीरिया और इराक़ ने इस इलाक़े पर हमला कर दिया। ये पहला अरब-इसराइल संघर्ष था। इसे ही यहूदियों का कथित स्वतंत्रता संग्राम भी कहा गया था। इस लड़ाई के ख़त्म होने के बाद संयुक्त राष्ट्र ने एक अरब राज्य के लिए आधी ज़मीन मुकर्रर की।
फ़लस्तीनियों के लिए वहीं से त्रासदी का दौर शुरू हो गया। साढ़े सात लाख फलस्तीनियों को भागकर पड़ोसी देशों में पनाह लेनी पड़ी या फिर यहूदी सशस्त्र बलों ने उन्हें खदेड़ कर बेदखल कर दिया।
लेकिन साल 1948 यहूदियों और अरबों के बीच कोई आख़िरी संघर्ष नहीं था। साल 1956 में स्वेज़ नहर को लेकर विवाद हुआ और इसराइल और मिस्र फिर एक दूसरे के सामने खड़े हो गए। लेकिन ये मामला युद्ध के बिना सुलझा लिया गया।
लेकिन साल 1967 में छह दिनों तक चला अरब-इसराइल संघर्ष एक तरह से आखिरी बड़ी लड़ाई थी। पाँच जून 1967 से दस जून 1967 के बीच जो युद्ध हुआ, उसका दीर्घकालीन प्रभाव कई स्तरों पर देखा गया।
अरब देशों के सैनिक गठबंधन पर इसराइल को जीत मिली। ग़ज़ा पट्टी, मिस्र का सिनाई प्रायद्वीप, जॉर्डन से वेस्ट बैंक (पूर्वी यरूशलम सहित) और सीरिया से गोलन पहाड़ी इसराइल के नियंत्रण में आ गए। पाँच लाख फ़लस्तीनी लोग विस्थापित हो गए।
आख़िरी अरब-इसराइल संघर्ष साल 1973 का योम किप्पुर युद्ध था। मिस्र और सीरिया ने इसराइल के खिलाफ़ ये जंग लड़ी। मिस्र को सिनाई प्रायद्वीप फिर से हासिल हो गया। साल 1982 में इसराइल ने सिनाई प्रायद्वीप पर अपना दावा छोड़ दिया लेकिन ग़ज़ा पर नहीं। छह साल बाद मिस्र इसराइल के साथ शांति समझौता करने वाला पहला अरब देश बना। जॉर्डन ने आगे चलकर इसका अनुसरण किया।
इसराइल की स्थापना मध्य पूर्व में क्यों हुई?
यहूदियों का मानना है कि आज जहाँ इसराइल बसा हुआ है, ये वही इलाक़ा है, जो ईश्वर ने उनके पहले पूर्वज अब्राहम और उनके वंशजों को देने का वादा किया था।
पुराने समय में इस इलाक़े पर असीरियों (आज के इराक़, ईरान, तुर्की और सीरिया में रहने वाले क़बायली लोग), बेबीलोन, पर्सिया, मकदूनिया और रोमन लोगों का हमला होता रहा था। रोमन साम्राज्य में ही इस इलाक़े को फ़लस्तीन नाम दिया गया था और ईसा के सात दशकों बाद यहूदी लोग इस इलाक़े से बेदखल कर दिए गए।
इस्लाम के अभ्युदय के साथ सातवीं सदी में फ़लस्तीन अरबों के नियंत्रण में आ गया और फिर यूरोपीय हमलावरों ने इस पर जीत हासिल की। साल 1516 में फ़लस्तीन ऑटोमन साम्राज्य (उस्मानिया साम्राज्य) के नियंत्रण में चला गया और फिर प्रथम विश्व युद्ध के बाद 29 सितम्बर 1923 को ब्रिटेन का फ़लस्तीन पर कब्ज़ा हो गया। जो 14 मई, 1948 को इसराइल की स्थापना के एक दिन बाद 15 मई, 1948 तक रहा।
15 मई 1948 के बाद सत्ता के सुचारु परिवर्तन की अनुमति देने के लिए, अनिवार्य शक्ति के रूप में ब्रिटेन को फिलिस्तीन की अनंतिम सरकार के रूप में संयुक्त राष्ट्र फिलिस्तीन आयोग को सौंपना था।
फ़लस्तीन पर संयुक्त राष्ट्र की एक स्पेशल कमेटी ने तीन सितंबर, 1947 को जेनरल असेंबली को अपनी रिपोर्ट सौंपी। इस रिपोर्ट में कमेटी ने मध्य पूर्व में यहूदी राष्ट्र की स्थापना के लिए धार्मिक और ऐतिहासिक दलीलों को स्वीकार कर लिया।
साल 1917 के बालफोर घोषणापत्र में ब्रिटिश सरकार ने यहूदियों को फ़लस्तीन में 'राष्ट्रीय घर' देने की बात मान ली थी। इस घोषणापत्र में यहूदी लोगों के फ़लस्तीन के साथ ऐतिहासिक संबंध को मान्यता दी गई थी और इसी के आधार पर फ़लस्तीन के इलाक़े में यहूदी राज्य की नींव पड़ी।
यूरोप में नाज़ियों के हाथों लाखों यहूदियों के जनसंहार के बाद और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान एक अलग यहूदी राष्ट्र को मान्यता देने के लिए अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ने लगा था।
अरब लोगों और यहूदियों के बीच बढ़ते तनाव को सुलझाने में नाकाम होने के बाद ब्रिटेन ने ये मुद्दा संयुक्त राष्ट्र के विचार के लिए रखा।
29 नवंबर, 1947 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने फ़लस्तीन के बँटवारे की योजना को मंज़ूरी दे दी। इसमें एक अरब देश और यहूदी राज्य के गठन की सिफ़ारिश की गई और साथ ही यरूशलम के लिए एक विशेष व्यवस्था का प्रावधान किया गया।
इस योजना को यहूदियों ने स्वीकार कर लिया लेकिन अरब लोगों ने ख़ारिज कर दिया। वे इसे अपनी ज़मीन खोने के तौर पर देख रहे थे। यही वजह थी कि संयुक्त राष्ट्र की योजना को कभी लागू नहीं किया जा सका।
फ़लस्तीन पर ब्रिटेन का नियंत्रण समाप्त होने के एक दिन पहले 14 मई, 1948 को स्वतंत्र इसराइल के गठन की घोषणा कर दी गई। इसके अगले दिन इसराइल ने संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता के लिए आवेदन किया और एक साल बाद उसे इसकी मंज़ूरी मिल गई। संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों में 83 फ़ीसदी देश इसराइल को मान्यता दे चुके हैं। दिसंबर, 2019 तक 193 देशों में 162 ने इसराइल को मान्यता दे दी थी।
दो फलस्तीनी क्षेत्र क्यों हैं?
फ़लस्तीन पर संयुक्त राष्ट्र की स्पेशल कमेटी ने 1947 में जनरल असेंबली को रिपोर्ट सौंपी थी, उसमें ये सिफ़ारिश की गई थी कि अरब राष्ट्र में वेस्टर्न गैली (समारिया और ज्युडिया का पहाड़ी इलाका) शामिल किया जाए।
कमेटी ने यरूशलम और मिस्र की सीमा से लगने वाले इस्दुद के तटीय मैदान को इससे बाहर रखने की सिफ़ारिश की थी।
लेकिन इस क्षेत्र के बँटवारे को साल 1949 में खींची गई आर्मीस्टाइस रेखा से परिभाषित किया गया। ये रेखा इसराइल के गठन और पहले अरब-इसराइल युद्ध के बाद खींची गई थी।
फ़लस्तीन के ये दो क्षेत्र हैं वेस्ट बैंक (जिसमें पूर्वी यरूशलम शामिल है) और ग़ज़ा पट्टी। ये दोनों क्षेत्र एक दूसरे से 45 किलोमीटर की दूरी पर हैं। वेस्ट बैंक का क्षेत्रफल 5970 वर्ग किलोमीटर है तो ग़ज़ा पट्टी का क्षेत्रफल 365 वर्ग किलोमीटर।
वेस्ट बैंक यरूशलम और जॉर्डन के पूर्वी इलाक़े के बीच पड़ता है। यरूशलम को फ़लस्तीनी पक्ष और इसराइल दोनों ही अपनी राजधानी बताते हैं।
ग़ज़ा पट्टी 41 किलोमीटर लंबा इलाक़ा है, जिसकी चौड़ाई 6 से 12 किलोमीटर के बीच पड़ती है।
ग़ज़ा की 51 किलोमीटर लंबी सीमा इसराइल से लगती है, सात किलोमीटर मिस्र के साथ और 40 किलोमीटर भूमध्य सागर का तटवर्ती इलाक़ा है।
ग़ज़ा पट्टी को इसराइल ने साल 1967 की लड़ाई में अपने नियंत्रण में ले लिया था। साल 2005 में इसराइल ने इस पर अपना क़ब्ज़ा छोड़ दिया। हालांकि इसराइल गज़ा पट्टी से लोगों, सामानों और सेवाओं की आमदरफ्त को हवा, ज़मीन और समंदर हर तरह से नियंत्रित करता है।
फ़िलहाल गज़ा पट्टी हमास के नियंत्रण वाला इलाक़ा है। हमास इसराइल का सशस्त्र गुट है जो फ़लस्तीन के अन्य धड़ों के साथ इसराइल के समझौते को मान्यता नहीं देता है।
इसके उलट, वेस्ट बैंक पर फ़लस्तीनी नेशनल अथॉरिटी का शासन है। फ़लस्तीनी नेशनल अथॉरिटी को अंतरराष्ट्रीय समुदाय फ़लस्तीनियों की सरकार के रूप में मान्यता देता है।
फलस्तीनियों और इसराइलियों के बीच क्या कभी कोई समझौता हुआ है?
इसराइल के गठन और हज़ारों फ़लस्तीनियों के विस्थापित होने के बाद वेस्ट बैंक, गज़ा और अरब देशों के यहाँ बने शरणार्थी शिविरों में फ़लस्तीनी आंदोलन अपनी जड़ें जमाने लगा।
इस आंदोलन को जॉर्डन और मिस्र का समर्थन हासिल था।
साल 1967 की लड़ाई के बाद यासिर अराफात की अगुवाई वाले 'फतह' जैसे फ़लस्तीनी संगठनों ने 'फ़लस्तीनी लिबरेशन ऑर्गनाइज़ेशन' बनाया।
पीएलओ ने इसराइल के ख़िलाफ़ पहले जॉर्डन से और फिर लेबनान से कार्रवाई की शुरुआत की।
लेकिन इन हमलों में इसराइल के भीतर और बाहर के सभी ठिकानों को निशाना बनाया गया। इसराइल के दूतावासों, खिलाड़ियों, उसके हवाई जहाज़ों में कोई भेदभाव नहीं किया गया।
इसराइली टारगेट्स पर फ़लस्तीनियों के सालों तक हमले होते रहे और आख़िर में साल 1993 में ओस्लो शांति समझौता हुआ जिस पर पीएलओ और इसराइल ने दस्तखत किए।
फलस्तीनी लिबरेशन ऑर्गनाइज़ेशन ने 'हिंसा और चरमपंथ' का रास्ता छोड़ने का वादा किया और इसराइल के शांति और सुरक्षा के साथ जीने के अधिकार को मान लिया। हालाँकि हमास इस समझौते को स्वीकार नहीं करता है।
इस समझौते के बाद फ़लस्तीनी नेशनल अथॉरिटी का गठन हुआ और इस संगठन को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर फ़लस्तीनी लोगों की नुमाइंदगी का हक़ मिल गया।
इस संगठन के अध्यक्ष का चुनाव सीधे मतदान के द्वारा होता है। अध्यक्ष एक प्रधानमंत्री और उसकी कैबिनेट की नियुक्ति करता है। इसके पास शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों की नागरिक सुविधाओं के प्रबंधन का अधिकार है।
पूर्वी यरूशलम जिसे ऐतिहासिक तौर पर फ़लस्तीनियों की राजधानी माना जाता है, को ओस्लो शांति समझौता में शामिल नहीं किया गया था।
यरूशलम को लेकर दोनों पक्षों में गहरा विवाद है।
फ़लस्तीनियों और इसराइलियों के बीच विवाद के मुख्य बिंदु क्या हैं?
एक स्वतंत्र फ़लस्तीनी राष्ट्र के गठन में देरी, वेस्ट बैंक में यहूदी बस्तियाँ बसाने का काम और फ़लस्तीनी क्षेत्र के आस-पास सुरक्षा घेरा, ये वो वजहें हैं जिससे शांति प्रक्रिया में बाधा पहुँचती है।
हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने फ़लस्तीनी क्षेत्र के आस-पास इसराइल के सुरक्षा घेरे की आलोचना भी की है।
साल 2000 में अमेरिका के कैंप डेविड में जब राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की मौजूदगी में दोनों पक्षों के बीच सुलह कराने की आख़िरी बार गंभीर कोशिश हुई थी, तभी ये साफ़ हो गया था कि फ़लस्तीनियों और इसराइलियों के बीच शांति की राह में केवल यही बाधाएँ नहीं है।
उस वक्त इसराइल के प्रधानमंत्री एहुद बराक और यासिर अराफात के बीच बिल क्लिंटन समझौता कराने में नाकाम रहे थे। जिन मुद्दों पर दोनों पक्षों के बीच असहमति थी, वे थीं - यरूशलम, सीमा और ज़मीन, यहूदी बस्तियाँ और फ़लस्तीनी शरणार्थियों का मुद्दा।
इसराइल का दावा है कि यरूशलम उसका इलाक़ा है। उसका कहना है कि साल 1967 में पूर्वी यरूशलम पर कब्जे के बाद से ही यरूशलम उसकी राजधानी रही है लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे मान्यता नहीं मिली हुई है। फ़लस्तीनी पक्ष पूर्वी यरूशलम को अपनी राजधानी बनाना चाहता है।
फ़लस्तीनियों की मांग है कि छह दिन तक चले अरब-इसराइल युद्ध यानी चार जून, 1967 से पहले की स्थिति के मुताबिक़ उसकी सीमाओं का निर्धारण किया जाए जिसे इसराइल मानने से इनकार करता है।
यहूदी बस्तियाँ इसराइल ने क़ब्ज़े वाली ज़मीन पर बसाई हैं। अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के तहत ये अवैध हैं। वेस्ट बैंक और पूर्वी यरूशलम में इन बस्तियों में पाँच लाख से ज़्यादा यहूदी रहते हैं।
फ़लस्तीनी शरणार्थियों की संख्या वास्तव में कितनी है, ये इस बात पर निर्भर करता है कि कौन इसे गिन रहा है। पीएलओ का कहना है कि इनकी संख्या एक करोड़ से अधिक है। इनमें आधे लोग संयुक्त राष्ट्र के पास रजिस्टर्ड हैं। फ़लस्तीनियों का कहना है कि इन शरणार्थियों को अपनी ज़मीन पर लौटने का हक़ है। लेकिन वो जिस ज़मीन की बात कर रहे हैं, वो आज का इसराइल है और अगर ऐसा हुआ तो यहूदी राष्ट्र के तौर पर उसकी पहचान का क्या होगा।
क्या फ़लस्तीन एक देश है?
संयुक्त राष्ट्र फ़लस्तीन को एक 'गैर सदस्य-ऑब्ज़र्वर स्टेट' के तौर पर मान्यता देता है।
फ़लस्तीनियों को जनरल असेंबली की बैठक और बहस में हिस्सा लेने का अधिकार है ताकि संयुक्त राष्ट्र के संगठनों की सदस्यता लेने की उनकी संभावना बेहतर हो सके।
साल 2011 में फ़लस्तीन ने पूर्ण सदस्यता के लिए आवेदन किया था लेकिन ये हो नहीं पाया।
संयुक्त राष्ट्र महासभा के 70 फ़ीसदी से ज़यादा सदस्य फ़लस्तीन को एक राज्य के तौर पर मान्यता देते हैं।
अमेरिका इसराइल का मुख्य साथी क्यों हैं? फ़लस्तीन को किनका समर्थन हासिल है?
इसके लिए अमेरिका में मौजूद इसराइल समर्थक ताक़तवर लॉबी की अहमियत समझनी होगी। अमेरिका में जनमत भी इसराइल के रुख़ का समर्थन करता है।
इसलिए किसी अमेरिकी राष्ट्रपति का इसराइल से समर्थन वापस लेना हकीकत में नामुमकिन है।
इसके अलावा दोनों देश सैन्य सहयोगी भी हैं। इसराइल को अमेरिका की सबसे ज्यादा मदद मिली है। ये मदद हथियारों की ख़रीद और पैसे के रूप में मिलती है।
हालाँकि साल 2016 में जब सुरक्षा परिषद में इसराइल की यहूदी बस्तियाँ बसाने की नीति की आलोचना पर वोटिंग हो रहे थे, तो ओबामा प्रशासन ने अपने वीटो पावर का इस्तेमाल नहीं किया था।
लेकिन व्हाइट हाउस में डोनाल्ड ट्रंप के आने के बाद दोनों देशों के रिश्तों को नईं ज़िंदगी मिली। अमेरिका ने अपना दूतावास तेल अवीव से हटाकर यरूशलम स्थानांतरित कर लिया। इसके साथ ही अमेरिका दुनिया का पहला ऐसा देश बन गया जिसने यरूशलम को इसराइल की राजधानी के रूप में मान्यता दी।
अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों में राष्ट्रपति ट्रंप धनी अरब देशों से इसराइल के रिश्ते सामान्य करने की दिशा में कामयाब रहे थे।
हालांकि बाइडन प्रशासन ने सत्ता संभालने के बाद से ही इसराइल फ़लस्तीन के जोखिम भरे संघर्ष से दूरी बनाने की रणनीति अपनाई है। जानकारों का कहना है कि बाइडन प्रशासन इसे ऐसी समस्या के तौर पर देखता है जिसमें बड़ी राजनीतिक पूंजी की ज़रूरत है और जो हासिल होगा, वो पक्का नहीं है।
इसराइल को अमेरिकी समर्थन जारी है लेकिन बाइडन प्रशासन की कूटनीति में एहतियात दिखता है। हालांकि मौजूदा हिंसा के बाद बाइडन को अपनी पार्टी के वामपंथी धड़े की आलोचनाओं का सामना करना पड़ सकता है जो इसराइल के आलोचक रहे हैं।
दूसरी तरफ़ तुर्की, पाकिस्तान, चीन, भारत, मलेशिया, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, मिस्र, सीरिया, ईरान और कई अरब देश फ़लस्तीन के मुद्दे पर फ़लस्तीनी लोगों के साथ हैं। अरब देशों में फ़लस्तीनियों के लिए सहानुभूति की भावना है।
शांति का रास्ता क्या बचता है और इसके लिए क्या करना होगा?
विशेषज्ञों का कहना है कि स्थाई शांति के लिए इसराइल को फ़लस्तीनियों की संप्रभुता स्वीकार कर लेनी चाहिए जिसमें हमास भी शामिल हो। उसे ग़ज़ा से नाकाबंदी ख़त्म कर लेनी चाहिए और वेस्ट बैंक और पूर्वी यरूशलम में पाबंदियाँ भी उठा लेनी चाहिए।
दूसरी तरफ़ फ़लस्तीनी गुटों को स्थाई शांति के लिए हिंसा का रास्ता छोड़ना होगा और इसराइल को स्वीकार करना होगा।
सीमाओं, यहूदी बस्तियों और फलस्तीनी शरणार्थियों की वापसी के मुद्दे पर दोनों पक्षों को स्वीकार्य समझौते तक पहुँचना होगा।
चीन और ईरान के बीच 25 साल के लिए 400 अरब डॉलर की व्यापक आर्थिक सहयोग योजना पर अमरीका की ओर से अभी तक कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है।
लेकिन विश्लेषकों का कहना है कि यह क़दम सिर्फ़ क्षेत्र के लिए ही नहीं, बल्कि वैश्विक आर्थिक प्रणाली में एक महत्वपूर्ण 'गेम चेंजर' साबित होगा।
पाकिस्तान में इस बात को लेकर बेचैनी है कि अब चीन ईरान का रुख़ कर रहा है। लेकिन इस मुद्दे पर गहरी नज़र रखने वाले पाकिस्तान के राजनयिकों और विश्लेषकों ने स्पष्ट रूप से इस संदेह को ख़ारिज कर दिया है।
उनका कहना है कि हालिया चीन और ईरान का आर्थिक सहयोग समझौता, चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) का विकल्प नहीं बनेगा, बल्कि इसे मज़बूत करेगा।
ईरान की मजबूरी और चीन की ज़रूरत
विशेषज्ञों के अनुसार, तेहरान ने चीन के साथ दीर्घकालिक आर्थिक, इंफ्रास्ट्रक्चर के निर्माण और सुरक्षा के मुद्दों पर सहयोग करके ख़ुद को नई वैश्विक स्थिति के लिए एक शक्तिशाली देश बनाने की कोशिश की है।
लेकिन ऐसा करने पर, जहां एक तरफ़ ईरान को अमरीका के नए प्रतिबंधों का सामना करना पड़ सकता है, वहीं दूसरी तरफ़ यह समझौता उसे अमरीका के निरंतर प्रतिबंधों से बचा भी सकता है।
ईरान पर लंबे समय से चल रहे अमरीकी प्रतिबंधों ने ही उसे चीन के इतने क़रीब पहुंचा दिया है। यही वजह है कि ईरान वैश्विक दरों के मुक़ाबले कम क़ीमत पर चीन को तेल बेचने के लिए तैयार हो गया है। ताकि उसके तेल की बिक्री बिना किसी रुकावट के जारी रह सके और राष्ट्रीय ख़ज़ाने को एक विश्वसनीय आय का स्रोत मिल सके।
विशेषज्ञों का कहना है कि समझौते के दस्तावेज़ तो अभी सामने नहीं आये हैं। लेकिन जो सूचनाएं मिली हैं, उनसे पता चलता है कि ईरान की नाज़ुक अर्थव्यवस्था में अगले 25 वर्षों में 400 अरब डॉलर की परियोजनाएँ आर्थिक स्थिरता लाने में मदद कर सकती हैं।
इसके बदले में, चीन रियायती दरों पर ईरान से तेल, गैस और पेट्रो-कैमिकल उत्पाद ख़रीद सकेगा। इसके अलावा, चीन, ईरान के वित्तीय, परिवहन और दूरसंचार क्षेत्रों में भी निवेश करेगा।
इस समझौते के तहत, ईरान के इतिहास में पहली बार, दोनों देश संयुक्त प्रशिक्षण अभ्यास, हथियारों का आधुनिकीकरण और संयुक्त इंटेलिजेंस से राज्य, सुरक्षा और सैन्य मामलों में सहयोग करेंगे।
दोनों देशों के बीच हुए समझौते के अनुसार, चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के पाँच हज़ार सैनिकों को भी ईरान में तैनात किया जाएगा। लेकिन ध्यान रहे कि ईरान में इसे लेकर विरोध भी हो रहा है, जिसमें ईरान के पूर्व राष्ट्रपति अहमदीनेजाद सबसे आगे हैं।
यह भी अनुमान लगाया जा रहा है कि शायद ईरान, चीन की नई डिजिटल मुद्रा, ई-आरएमबी को अपनाने के लिए आदर्श उम्मीदवार साबित हो सकता है, जिसने डॉलर को नज़रअंदाज़ करने और इसे मंज़ूरी देने वाली ताक़त को कमज़ोर किया है।
याद रहे कि ईरान वर्तमान में वैश्विक वित्तीय और बैंकिंग प्रणाली स्विफ्ट (SWIFT) से नहीं जुड़ा है और ईरान के साथ कोई लेनदेन नहीं कर रहा है।
सीपीईसी - प्लस
पाकिस्तान-चीन संस्थान के अध्यक्ष सीनेटर मुशाहिद हुसैन सैयद के अनुसार, ईरान-चीन रणनीतिक समझौता क्षेत्र के लिए एक अच्छा क़दम है और पाकिस्तान के हितों के लिए सकारात्मक भी है, क्योंकि यह पाकिस्तान पर केंद्रित, क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग को मजबूत करेगा।
मुशाहिद हुसैन ने उम्मीद जताई है कि बलूचिस्तान में स्थिरता लाने और चीन, अफगानिस्तान, ईरान तथा मध्य एशियाई देशों के साथ क्षेत्रीय सहयोग को बढ़ावा देने में, ग्वादर पोर्ट की भूमिका को मजबूत करने में मदद मिलेगी।
उन्होंने आगे कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण था कि अमरीकी दबाव के कारण (जब 25 जनवरी, 2006 को डेविड मलफोर्ड भारत में अमेरिकी राजदूत थे) भारत ने आईपीआई (ईरान-पाकिस्तान-इंडिया पाइपलाइन) का नवीनीकरण नहीं किया। इसके बजाय अमरीका के साथ परमाणु समझौते का चुनाव किया। भारत ने तत्कालीन मंत्री मणिशंकर अय्यर को हटा दिया था जो आईपीआई के समर्थक थे।
पाकिस्तान में सीपीईसी के बारे में बेचैनी को खारिज करते हुए, मुशाहिद हुसैन ने कहा कि ईरान-चीन समझौता सीपीईसी को और अधिक सार्थक बना देगा। क्योंकि ये दोनों समझौते प्रतिस्पर्धा या प्रतिद्वंद्विता के लिए नहीं हैं, बल्कि दोनों का मक़सद चीन के साथ रणनीतिक सहयोग है।
'विश्व शक्ति से मुक़ाबला करने की तैयारी'
भारत के मशहूर रक्षा विश्लेषक प्रवीण साहनी कहते हैं, ''मुझे लगता है कि इस समझौते को फारस की खाड़ी में क्षेत्रीय तनाव के संदर्भ में देखना गलत होगा। चीन ने हमेशा ईरान-सऊदी प्रतिद्वंद्विता में किसी का भी समर्थन या विरोध करने से परहेज किया है। फारस की खाड़ी में चीन की बढ़ती उपस्थिति का मुख्य कारण उसके आर्थिक मामले हैं।''
वह कहते हैं कि चीन और सऊदी अरब ने भी एक साल पहले बड़े आर्थिक सौदों पर हस्ताक्षर किए थे। लेकिन ईरान के साथ चीन के इस नए समझौते से एक और महत्वपूर्ण बात पता चलती है। वो यह है कि अमरीकी प्रतिबंधों ने तेहरान को अकेला करने के बजाय, इसे चीन के कैम्प में और भी मज़बूती से आगे बढ़ाया है। इसलिए इस समझौते का महत्व न केवल क्षेत्र के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि यह विश्व शक्ति से मुक़ाबले की भी तैयारी दिखाई देती है।
प्रवीण साहनी कहते हैं, ''समझौते का ज़्यादा विवरण फिलहाल उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए इसकी तुलना सीपीईसी से नहीं की जा सकती है। फिर भी, बड़ा अंतर यह है कि इसमें दोनों पक्षों के बुनियादी हित जुड़े हुए हैं। चीन को तेल की ज़रूरत है, जो उसे ईरान से सस्ती दरों पर मिलेगा।''
प्रवीण साहनी कहते हैं, ''बदले में, ईरान अपने आर्थिक, तेल के उत्पादन, बुनियादी ढांचे और व्यापार में निवेश कराना चाहता है, जो चीन मुहैया करेगा। चीन-ईरान संबंधों में आर्थिक सहयोग है, जो चीन और पाकिस्तान के मामले में नहीं है। यह फ़र्क़ किस तरह की भूमिका निभाएगा, फिलहाल इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता।''
उनके अनुसार, ''ईरान के पास ऐसे संसाधन हैं जिनकी चीन को सख्त जरूरत है, यानी हाइड्रोकार्बन। पाकिस्तान के पास ऐसी कोई दौलत नहीं है। इसलिए, आर्थिक मामलों के लिहाज़ से, पाकिस्तान और चीन के संबंध चीन और ईरान के संबंधों से बहुत अलग हैं।''
प्रवीण साहनी के मुताबिक, हालांकि इस बात पर बहुत चर्चा हुई है कि पाकिस्तान, ईरान, मध्य एशिया पर आधारित गलियारे से क्षेत्र में आर्थिक विकास और सुधार होगा या नही।
प्रवीण साहनी कहते हैं, ''यह एक दीर्घकालिक योजना तो हो सकती है, लेकिन छोटी अवधि में इसके फायदे की कोई संभावना नहीं है। ईरान और पाकिस्तान उन औद्योगिक उत्पादों का निर्माण नहीं करते हैं, जिन्हे मध्य एशियाई देश आयात करते हैं और न ही पाकिस्तान और ईरान मध्य एशियाई निर्यात के लिए प्रमुख बाजार हैं।''
उन्होंने कहा कि चीन से लेकर मध्य एशिया के साथ-साथ यूरोप तक ऐसा इंफ्रास्ट्रक्चर है जिसकी वजह से वहां सड़कों और रेलवे का नेटवर्क बिछा हुआ है। वो कहते हैं कि ''यह देखना मुश्किल है कि चीन के नए रास्ते पाकिस्तान और ईरान, इन पुराने रास्तों का विकल्प कैसे बन सकेंगे।''
प्रवीण ने आगे कहा कि ईरान के चाबहार बंदरगाह के निर्माण की परियोजना भारत ने शुरू की थी क्योंकि भारत को अफ़ग़ानिस्तान के खनिज संसाधनों का उपयोग करना था और उन्हें ईरान की औद्योगिक क्षमता के उपयोग से अधिक बेहतर बनाना था।
जाहिर है यह सब अफ़ग़ानिस्तान में ज़मीनी हालात को देखते हुए, 'दूर के ढोल सुहावने' की तरह था। अफ़ग़ानिस्तान की अर्थव्यवस्था इतनी बड़ी नहीं है कि भारत, ईरान के माध्यम से भारत-अफ़ग़ानिस्तान व्यापार गलियारे के लिए एक बड़ी सड़क या रेलवे इंफ्रास्ट्रक्चर का निर्माण करे।
उन्होंने आगे कहा कि पाकिस्तान ने फारस की खाड़ी में ईरान-सऊदी टकराव से दूर रहने की भरसक कोशिश की है और ऐसा ही भारत ने भी किया है।
प्रवीण कहते हैं, ''इस टकराव में दोनों पक्षों के आर्थिक हित हैं, लेकिन साथ ही, इस टकराव से संबंधित आंतरिक मुद्दे भी हैं। इसलिए समय के साथ-साथ सभी पक्षों के बीच संतुलन बनाए रखना अधिक कठिन होता जा रहा है। खासतौर पर तब, जब अमरीका अगले कुछ वर्षों में यह तय करेगा कि उसे ईरान पर और दबाव बढ़ाने की जरूरत है। मुझे नहीं लगता कि यथार्थवादी संतुलन बनाए रखने के अलावा कोई और विकल्प है।''
'अमरीका ने पाकिस्तान और ईरान को चीन की तरफ़ धकेल दिया'
पाकिस्तान के पूर्व राजदूत और लाहौर यूनिवर्सिटी ऑफ मैनेजमेंट साइंसेज में कूटनीति और अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रोफेसर इक़बाल अहमद ख़ान का कहना है, कि ईरान के साथ चीन की निवेश योजना उसकी आठ खरब डॉलर की बीआरआई परियोजनाओं का हिस्सा है, जिनमें से एक सीपीईसी भी है।
पूर्व राजदूत इक़बाल अहमद ख़ान के अनुसार, ईरान में चीन के निवेश की, सीपीईसी से तुलना करना सही नहीं है। क्योंकि ये दोनों चीन के ही निवेश हैं और दोनों एक-दूसरे के लिए सहायक होंगे और इसका फायदा तीनों देशों को होगा।
वो कहते हैं, ''चीन और ईरान दोनों पाकिस्तान के दोस्त हैं, इसलिए पाकिस्तान चाहता है कि परियोजना सफल हो।''
इक़बाल अहमद ख़ान ने आगे कहा कि ईरान में चीन का निवेश पाकिस्तान की कीमत पर नहीं है, इसलिए इसे ''शून्य-सम गेम'' नहीं समझना चाहिए।
इस सवाल पर कि क्या पाकिस्तान और चीन, ईरान पर अमरीकी प्रतिबंधों का बोझ उठा पाएंगे। इक़बाल अहमद ख़ान ने कहा कि वास्तव में पाकिस्तान और ईरान में चीन के निवेश का मुख्य कारण, अमरीका द्वारा लगाए गए प्रतिबंध या इन देशों को नज़रअंदाज़ करने की कोशिशें हैं।
वो कहते हैं, ''पाकिस्तान और ईरान दोनों को ही अमरीका ने दरकिनार कर दिया है, जिससे हमें दूसरा रास्ता देखना पड़ा। पाकिस्तान ने अपनी राजनीतिक और भौगोलिक स्थिति का अधिकतम लाभ उठाने का फैसला किया। एक तरफ चीन है और दूसरी तरफ ईरान है। हालांकि, अगर पाकिस्तान चीन का दोस्त है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि पाकिस्तान अमरीका का विरोधी है, बल्कि चीन तो पाकिस्तान से कई बार अमरीका और भारत दोनों से अपने संबंधों को सुधारने के लिए कह चुका है। हालांकि अमरीका को भी इसका एहसास होना चाहिए।''
इक़बाल अहमद ख़ान ने कहा कि पाकिस्तान ख़ुशी से ईरान के साथ सहयोग करेगा, बल्कि पाकिस्तान ईरान को भी उसकी तरह शंघाई सहयोग परिषद का सदस्य बनाने की कोशिश करेगा।
वो कहते हैं, ''ईरान के साथ चीन के सहयोग से पाकिस्तान को सीधे लाभ होगा। ईरान से तेल, जो वर्तमान में 13 हज़ार मील की दूरी तय करने के बाद चीन पहुंचता है। वह पाकिस्तान के रास्ते 15 सौ मील के सुरक्षित मार्ग से चीन पहुंचेगा।''
उन्होंने कहा कि पाकिस्तान, ईरान, तुर्की और अन्य एशियाई देशों में चीन के निवेश और आर्थिक व व्यापारिक इंफ्रास्ट्रक्चर में, इसके निवेश अटलांटिक महासागर से हिंद महासागर और प्रशांत महासागर के क्षेत्रों में, दुनिया की शक्ति को स्थानांतरित करने के ठोस संकेत हैं।
वैश्विक परिवर्तन की इस प्रक्रिया में पाकिस्तान और ईरान की महत्वपूर्ण भूमिका हैं। बदलाव की इस प्रक्रिया में अमरीकी प्रतिबंध की भी भूमिका है, जो इन देशों को दूसरी तरफ धकेल रही हैं।''
'ईरान समझौता और सीपीईसी स्वाभाविक साझेदार हैं'
इंस्टीट्यूट ऑफ स्ट्रेटेजिक स्टडीज़ इस्लामाबाद में वैश्विक मामलों की विशेषज्ञ फातिमा रज़ा का कहना है, कि हालांकि दोनों परियोजनाओं में ऊर्जा और बुनियादी ढांचे की विशेषताएं समान हैं, लेकिन इसमें शामिल पक्षों के हित कई मायनों में अलग हैं।
हालांकि फातिमा रज़ा ने कहा कि चीन-ईरान समझौता दोनों देशों के बीच एक स्वाभाविक साझेदारी का समझौता है, जो सीपीईसी की संभावनाओं को भी आगे बढ़ा सकता है।
फातिमा रज़ा ने आगे कहा कि प्रत्येक पार्टी के लिए, दोनों की तुलना करना एक अलग तस्वीर प्रस्तुत करता है। ''ये दोनों परियोजनाएं पाकिस्तान को सफल होने के लिए असाधारण अवसर प्रदान करती हैं, क्योंकि यह ईरानी तेल को चीन पहुंचाने के लिए प्राकृतिक मार्ग बन जाता है।''
फातिमा रज़ा ने कहा, ''चीन के लिए, इसका मतलब सीपीईसी जैसी परियोजना है, जो क्षेत्र में अपने विस्तार के प्रभाव को मजबूत करना चाहता है, जो इस क्षेत्र में अमरीकी हितों के लिए परेशानी खड़ी करेगा।''
फातिमा रज़ा का कहना है कि यह समझौता ईरान को उसकी वित्तीय जरूरतों को पूरा करने में मदद करेगा, जिसकी उसे बहुत अधिक ज़रुरत है।
फातिमा रज़ा ने कहा, ''दोनों सौदे प्रतिस्पर्धी होने के बजाय अपनी प्रकृति में एक दूसरे को मजबूत करते हैं, लेकिन इसकी सफलता अपनी पूरी क्षमता का उपयोग करने वाले दलों पर निर्भर करती है।''
'खाड़ी और क्षेत्र के समग्र भौगोलिक-राजनीतिक संतुलन पर प्रभाव'
अरब न्यूज़ के एक विश्लेषक, ओसामा अल-शरीफ ने लिखा है, कि चीन और ईरान के बीच 25 साल के व्यापक रणनीतिक साझेदारी के समझौते का, खाड़ी और क्षेत्र के समग्र भोगौलिक-राजनीतिक संतुलन पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ेगा।
इस समझौते पर ऐसे समय में हस्ताक्षर किए गए हैं, जब बीजिंग और वाशिंगटन के बीच संबंध बहुत तनावपूर्ण हैं।
इस समझौते ने ईरान के परमाणु समझौते पर पश्चिम की तरफ से, इस पर दोबारा बातचीत और इसके विस्तार के प्रयासों पर तेहरान को एक मजबूत स्थिति प्रदान की है।
ओसामा अल-शरीफ के अनुसार, ये समझौता चीन को ईरानी धरती पर 5 हज़ार सुरक्षा और सैन्य कर्मियों को तैनात करने का अवसर प्रदान करेगा, जो क्षेत्रीय गेम चेंजर साबित होगा।
चीन से पहले, तेहरान ने 2001 में मास्को के साथ विशेष रूप से परमाणु क्षेत्र में, 10 साल के सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर किए, जो तब से दो बार बढ़ाया जा चुका है।
उन्होंने लिखा कि दो साल पहले ईरान, रूस और चीन के साथ नौसेना अभ्यास में शामिल हुआ था। इस नए समझौते से चीन को खाड़ी क्षेत्र में और साथ ही मध्य एशिया में भी अपने अड्डे स्थापित करने का मौक़ा मिलेगा।
बदले में, ईरान को चीन की टेक्नोलॉजी मिलेगी और उसके खराब बुनियादी ढांचे में निवेश होगा।
चीनी सरकार वर्षों से अन्य खाड़ी देशों के साथ अपने आर्थिक संबंधों को मजबूत कर रही है।
बीजिंग ने संयुक्त अरब अमीरात और कुवैत के साथ सहयोग समझौतों पर हस्ताक्षर किए हैं और उनके सऊदी अरब के साथ अच्छे संबंध हैं।
ओसामा अल-शरीफ ने लिखा, ''नए समझौते से खाड़ी के अरब देशों की राजधानियों में खतरे की भावना बढ़ जाएगी। क्योंकि ये देश ईरान को अस्थिरता के एक प्रमुख स्रोत के रूप में देखते हैं और बीजिंग के साथ इसका गठबंधन तेहरान और क्यूम के बीच की रेखा को और मजबूत करेगा।''
ओसामा अल-शरीफ के अनुसार, इसके अलावा इस्राइल भी चीन के कदम को लेकर असहज महसूस करेगा। ईरान के परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले रूस और चीन दोनों ने, तेहरान के पक्ष को सपोर्ट किया और अमरीकी प्रतिबंधों का खुले तौर पर उल्लंघन किया है।
अमरीका और चीन के बीच तनाव बढ़ा
विश्व समाजवादी संगठन के एक विश्लेषक एलेक्स लांटियर लिखते हैं कि ईरान-चीन समझौते की शर्तों का खुलासा नहीं किया गया है। लेकिन ये हस्ताक्षर ऐसे समय में हुए, जब अमरीका ने पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को उठाने से इनकार कर दिया। साथ ही साथ चीन और अमरीका के अलास्का में होने वाले सम्मेलन में चीन और अमरीका के मतभेद खुलकर सामने आए।
इस शिखर सम्मेलन के शुरू होने से पहले प्रेस से बात करते हुए, अमरीकी विदेश मंत्री एंथनी ब्लिंकन ने कहा कि चीन को वाशिंगटन के ''नियम पर आधारित अंतर्राष्ट्रीय आदेश'' को स्वीकार करना चाहिए वरना उसे ''इससे कहीं अधिक कठोर और अस्थिर दुनिया का सामना करना पड़ेगा।''
तेहरान में, चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने एक सवाल के जवाब में कहा कि ''हमारे दोनों देशों के बीच संबंध अब रणनीतिक स्तर पर पहुंच गए हैं और चीन इस्लामी गणतंत्र ईरान के साथ व्यापक संबंधों को बढ़ावा देने की कोशिश कर रहा है।''
दोनों देशों के बीच रणनीतिक सहयोग के लिए रोडमैप पर हस्ताक्षर से ज़ाहिर होता है कि बीजिंग संबंधों को उच्चतम स्तर तक बढ़ाएगा।
चीन का प्रतिरोध
चीन की सरकारी न्यूज़ एजेंसी ग्लोबल टाइम्स के अनुसार, चीनी विदेश मंत्री ने ईरानी अधिकारियों से कहा कि ''चीन प्रभुत्व और गुंडागर्दी का विरोध, अंतरराष्ट्रीय न्याय की सुरक्षा के साथ-साथ ईरान और अन्य देशों के लोगों के साथ अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों को भी मानेगा।''
इस समझौते पर पहली बार 2016 में ईरान के सुप्रीम लीडर सैयद अली खामेनी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच चर्चा हुई थी।
मध्य पूर्व के साथ आर्थिक संबंधों को गहरा करने के लिए, चीन ने ईरान को अपने बीआरआई कार्यक्रम के साथ विकास में सहयोग करने की भी पेशकश की थी।
तेहरान टाइम्स ने चीन में ईरान के राजदूत मोहम्मद केशवरज़ ज़ादेह के हवाले से बताया कि यह समझौता ''ईरान और चीन के बीच, विशेष रूप से प्रौद्योगिकी, उद्योग, परिवहन और ऊर्जा के क्षेत्र में सहयोग की क्षमता को स्पष्ट करता है।'' चीनी फर्मों ने ईरान में मास ट्रांजिट सिस्टम, रेलवे और अन्य महत्वपूर्ण इंफ्रास्ट्रक्चर का निर्माण किया है।
दिसंबर 2020 में, इस समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने की अटकलों के बीच, अमरीकी विदेश विभाग के पॉलिसी प्लानिंग स्टाफ के डायरेक्टर, पीटर बर्कोवित्ज़ ने इसकी निंदा की।
उन्होंने समाचार पत्र अल अरेबिया को बताया था कि यदि ये समझौता होता है, तो यह ''स्वतंत्र दुनिया'' के लिए बुरी ख़बर होगी। ईरान पूरे क्षेत्र में आतंकवाद, मौत और विनाश के बीज बोता है। पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना का इस देश को सशक्त बनाना ख़तरे को और बढ़ा देगा।
पाकिस्तान दिवस की मुबारकबाद देते हुए पीएम इमरान ख़ान को लिखी गई पीएम नरेंद्र मोदी की चिट्ठी का जवाबी खत पाकिस्तान से आ गया है।
पाकिस्तान के पीएम इमरान ख़ान ने इस जवाबी खत में 29 मार्च 2021 को लिखा है, ''पाकिस्तान दिवस की शुभकामनाओं के साथ भेजी गई चिट्ठी के लिए मैं आपको शुक्रिया अदा करता हूं।''
पीएम इमरान ख़ान ने आगे लिखा है, ''पाकिस्तान के लोग अपने संस्थापकों की दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता को श्रद्धांजलि देने के लिए ये दिवस मनाते हैं जिन्होंने एक स्वतंत्र, संप्रभु राज्य की परिकल्पना की थी और जहां लोग आज़ादी से रह सकें और अपनी पूरी क्षमता को हासिल कर सकें।''
पीएम इमरान ख़ान ने लिखा, ''पाकिस्तान के लोग भी भारत समेत अपने सभी पड़ोसी देशों के साथ शांतिपूर्ण और सहयोगपूर्ण रिश्ते चाहते हैं। हम इस बात को लेकर निश्चिंत हैं कि दक्षिण एशिया में स्थाई शांति और स्थिरता भारत और पाकिस्तान के बीच सभी मुद्दों, जिनमें ख़ासतौर पर जम्मू और कश्मीर का विवाद शामिल है, के सुलझ जाने से जुड़ी है।''
इमरान ख़ान ने लिखा, ''एक सकारात्मक और नतीजा देने वाली बातचीत के लिए अनुकूल माहौल बनाना ज़रूरी है। मैं इस मौके पर भारत के लोगों को सीओवीआईडी-19 की महामारी के ख़िलाफ़ लड़ाई में शुभकामनाएं भी देना चाहता हूं।''
इमरान के नाम मोदी की चिट्ठी में क्या लिखा था
इससे पहले भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान को पाकिस्तान दिवस की मुबारकबाद देते हुए लिखा था कि एक पड़ोसी देश के तौर पर भारत, पाकिस्तान के लोगों के साथ ख़ुशगवार रिश्ते चाहता है।
22 मार्च 2021 को लिखी गई इस चिट्ठी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लिखा, ''ऐसा संभव बनाने के लिए आतंकवाद और शत्रुता से मुक्त एवं विश्वास और भरोसे से भरे माहौल की ज़रूरत है।''
वहीं भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी पाकिस्तान के राष्ट्रपति आरिफ़ अल्वी के नाम लिखे पत्र में पाकिस्तान दिवस की मुबारकबाद पेश की थी।
नरेंद्र मोदी ने इमरान ख़ान को ये ख़त ऐसे वक़्त में लिखा था जब दोनों देशों के बीच लाइन ऑफ़ कंट्रोल पर नए सिरे से संघर्ष-विराम लागू किया गया है।
भारत-पाकिस्तान के बीच संघर्ष विराम
फरवरी 2021 में दोनों देशों के मिलिट्री ऑपरेशन के डायरेक्टर जनरल (डीजीएमओ) ने एक साझा बयान जारी करते हुए नियंत्रण रेखा पर अचानक संघर्ष-विराम की घोषणा की थी।
तब से सीमा पर पहले के मुक़ाबले शांति है और दोनों तरफ़ से संघर्ष विराम का पूर्ण पालन किया जा रहा है।
वहीं सिंधु नदी जल वार्ता के लिए पाकिस्तान का आठ सदस्यीय एक दल इंडस वॉटर कमिश्नर सैयद मेहर-ए-आलम के नेतृत्व में भारत में अपने समकक्षों के साथ नई दिल्ली में वार्ता कर रहा है। ये बातचीत दो साल बाद हो रही है।
हाल ही में पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा ने भी अपने एक बयान में कहा था कि दोनों देशों को पुरानी बातें भुलाकर आगे बढ़ना चाहिए।
शुभकामनाओं का सिलसिला
नरेंद्र मोदी ने अपने ख़त में लिखा था कि पाकिस्तान दिवस के मौके पर वो पाकिस्तान के लोगों को अपनी मुबारकबाद देना चाहते हैं।
मोदी ने इमरान ख़ान को संबोधित करते हुए लिखा कि इस मुश्किल वक़्त में वो उन्हें और पाकिस्तान के लोगों को सीओवीआईडी-19 की चुनौतियों से निबटने के लिए शुभकामनाएं देते हैं।
कुछ दिन पहले इमरान ख़ान जब कोरोना वायरस से संक्रमित पाए गए थे, तब भी भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके लिए शुभकामनाएं भेजी थीं।
भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में हाल के महीनों में अचानक आई गर्माहट के पीछे किसी तीसरे देश के होने के क़यास भी लगाए जा रहे हैं।
सऊदी अरब के उप-विदेश मंत्री आदिल अल जुबैर ने कुछ दिन पहले स्वीकार किया था कि सऊदी अरब भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव को कम करने की कोशिशें कर रहा है।
संयुक्त अरब अमीरात का दावा
अरब न्यूज़ को दिए एक इंटरव्यू में आदिल अल जुबैर ने कहा था कि सऊदी अरब पूरे इलाके में अमन चाहता है और इसके लिए कोशिशें कर रहा है।
वहीं मीडिया रिपोर्टों में भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत में संयुक्त अरब अमीरात के मध्यस्थता करने का दावा भी किया गया है।
द हिंदू की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि संयुक्त अरब अमीरात की मध्यस्थता में भारत और पाकिस्तान के बीच पर्दे के पीछे बातचीत हुई है।
हालांकि भारत या पाकिस्तान ने इसकी पुष्टि नहीं की है। विश्लेषक ये भी मान रहे हैं कि हाल की घटनाएं पर्दे के पीछे चल रहीं गतिविधियों का नतीजा हैं।
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बांग्लादेश दौरे के ख़िलाफ़ प्रदर्शनों में हुई हिंसा पर बांग्लादेश के गृह मंत्री असदुज़्ज़मां ख़ान ने नाराज़गी जताई है और कहा है कि ''कुछ समूह धार्मिक उन्माद फैला रहे हैं और सरकारी संपत्ति और लोगों की जान का नुक़सान कर रहे हैं।''
उन्होंने रविवार, 28 मार्च 2021 को कहा कि हिंसा तुरंत रोकी जाए नहीं तो सरकार को कड़े क़दम उठाने होंगे।
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौरे के ख़िलाफ़ ब्राह्मणबरिया में रविवार, 28 मार्च 2021 को लगातार तीसरे दिन झड़पें हुईं।
हिंसक प्रदर्शनों में अब तक कम से कम 12 लोगों की मौत हुई है।
बांग्लादेश के गृह मंत्री ने कहा, ''पिछले तीन दिनों से कुछ उपद्रवी लोग और समूह धार्मिक उन्माद के चलते कुछ इलाक़ों में सरकारी संपत्ति को नुक़सान पहुंचा रहे हैं।''
प्रदर्शनों में शामिल लोगों ने कथित तौर पर उपज़िला परिषद, थाना भवन, सरकारी भूमि कार्यालय, पुलिस चौकी, रेलवे स्टेशन, राजनीतिक हस्तियों के घर और प्रेस क्लब को नुक़सान पहुंचाया है।
उन्होंने कहा, ''हम सबंधित लोगों से इस तरह के नुक़सान और किसी भी तरह की अव्यवस्था को रोकने के लिए कह रहे हैं। नहीं तो सरकार लोगों की ज़िंदगियों और संपत्ति को बचाने के लिए कड़े क़दम उठाएगी।''
कट्टरपंथी इस्लामी संगठन 'हिफ़ाज़त-ए-इस्लाम' भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौरे के ख़िलाफ़ हुए कई प्रदर्शनों के बाद रविवार, 28 मार्च 2021 को हड़ताल पर चला गया।
हड़ताल की वजह से कई जगहों पर नाकेबंदी और झड़पें हुईं, लेकिन सबसे ज़्यादा हिंसा ब्राह्मणबरिया में हुई।
बांग्लादेश के गृह मंत्री ने कहा, ''कुछ स्वार्थी लोग अनाथ बच्चों को सड़कों पर ला रहे हैं, और उन्हें परेशान कर रहे हैं।''
उन्होंने साथ ही कहा कि सोशल मीडिया पर अफ़वाहें और फ़र्ज़ी ख़बरें फैलाकर तनाव का माहौल बनाया जा रहा है।
बांग्लादेश के गृह मंत्री ने कहा, ''हमें लगता है कि ये देश के ख़िलाफ़ जा रहा है। हम आपसे इसे रोकने के लिए कह रहे हैं, नहीं तो हम क़ानून के मुताबिक़ कार्रवाई करेंगे।''
उन्होंने कहा कि सरकार ये सुनिश्चित करने के लिए क़दम उठाएगी कि जो इस सब से प्रभावित हुए हैं उन्हें और परेशानी ना हो।
उन्होंने कहा कि तीन दिन तक क़ानूनी एजेंसियों ने बहुत संयम दिखाया।
हिफ़ाज़त-ए-इस्लाम ने हिंसा की ज़िम्मेदारी से इनकार किया
कट्टरपंथी इस्लामी संगठन 'हिफ़ाज़त-ए-इस्लाम' ने हाल की हिंसा में उसके समर्थकों पर लगाए गए आरोपों का खंडन किया है।
हिफ़ाज़त-ए-इस्लाम ने एक बयान में कहा कि प्रदर्शनकारियों पर सरकार के लोगों और पुलिस ने हमला किया था।
हिफ़ाज़त-ए-इस्लाम के संयुक्त महासचिव, नसीरुद्दीन मुनीर ने बीबीसी से कहा कि सरकारी इमारतों पर हमले के लिए उनके समर्थकों पर आरोप लगाना सही नहीं है।
उन्होंने कहा, ''बैतूल मुकर्रम में शुक्रवार, 26 मार्च 2021 को हिंसा हुई थी। ख़बर ऑनलाइन फैलने के बाद हमारे मदरसे के कई छात्रों में गुस्सा था।''
उन्होंने कहा, ''जुमे की नमाज़ के एक घंटे बाद छात्रों ने शांतिपूर्ण मार्च शुरू किया। जब पुलिस स्टेशन के नज़दीक से निकले तो, कुछ लड़के, जो मदरसे के छात्र नहीं थे, वो उपद्रवी लोग मार्च में शामिल हो गए। वो पुलिस स्टेशन पर ईंटें फेंक रहे थे। पुलिस की तरफ से गोलियां बरसा दी गईं।''
हिफ़ाज़त-ए-इस्लाम के संयुक्त महासचिव, नसीरुद्दीन मुनीर ने बीबीसी से कहा, ''हमारे छात्रों ने पुलिस स्टेशन के अंदर हमला नहीं किया। मैं आपको इसके लिए 100 प्रतिशत आश्वासन दे सकता हूं।''
सरकार ने अतीत में कई बार हिफ़ाज़त-ए-इस्लाम की मांगों को माना है, जिसमें किताबों में बदलाव करना और बांग्लादेश में मूर्तियों को हटाना शामिल है।