सऊदी अरब के प्रिंस तुर्की अल-फ़ैसल ने 06 दिसंबर 2020 को हुई बहरीन सिक्यॉरिटी समिट में इसराइल की कड़ी आलोचना की है।
इसराइल के विदेश मंत्री गाबी अशकेनाज़ी इसमें ऑनलाइन शामिल हुए। इस घटनाक्रम से अरब देशों और इसराइल के बीच आगे किसी बातचीत की राह में चुनौतियां सामने आई हैं।
समाचार एजेंसी एपी के मुताबिक़, मनामा डायलॉग में प्रिंस तुर्की अल-फ़ैसल की कड़ी टिप्पणियों की वजह से इसराइल को हैरानी हुई है क्योंकि इसराइल के विदेश मंत्री को ऐसा होने की उम्मीद नहीं थी।
ख़ासतौर पर तब जबकि संबंधों को सामान्य बनाने वाले समझौतों के बाद बहरीन और संयुक्त अरब अमीरात के अधिकारियों ने इसराइलियों का गर्मजोशी से स्वागत किया था।
इसराइल और फ़लस्तीनियों में दशकों से विवाद और संघर्ष रहा है। फ़लस्तीनियों का विचार है कि ये समझौते उनके साथ धोखा है और इस तरह हैं जैसे उनके अरब साथियों ने पीठ में छुरा घोंप दिया हो।
प्रिंस तुर्की अल-फ़ैसल ने अपनी बात शुरू करते हुए 'इसराइल की शांति-प्रेमी और उच्च नैतिक मूल्य वाले देश' की धारणा को 'पश्चिमी औपनिवेशिक ताक़त' के तहत कहीं ज़्यादा स्याह फ़लस्तीनी हकीक़त बताया।
प्रिंस तुर्की अल-फ़ैसल ने कहा कि ''इसराइल ने सुरक्षा कारणों का हवाला देते हुए फ़लस्तीनियों को क़ैद में रखा जहां बुज़ुर्ग, आदमी-औरतें बिना किसी इंसाफ़ के एक तरह से सड़ रहे हैं। वो घरों को गिरा रहे हैं और चाहे जिसकी हत्या कर रहे हैं।''
प्रिंस तुर्की अल-फ़ैसल ने ''इसराइल के परमाणु हथियारों के अघोषित ज़ख़ीरे और इसराइली सरकार की सऊदी अरब को कमज़ोर करने की कोशिशों'' की भी भर्त्सना की।
प्रिंस तुर्की अल-फ़ैसल ने सऊदी अरब का आधिकारिक रुख़ दोहराया कि समस्या का समाधान 'अरब पीस इनिशिएटिव' को लागू करने में निहित है।
साल 2002 में सऊदी अरब प्रायोजित 'अरब पीस इनिशिएटिव' समझौते में इसराइल के अरब देशों के साथ हर तरह के रिश्तों के बदले साल 1967 में इसराइली क़ब्ज़े वाले इलाक़े को फ़लस्तीनी देश का दर्जा देने की मांग की गई थी।
उन्होंने कहा, ''आप खुले ज़ख़्म को दर्द निवारक दवाओं से ठीक नहीं कर सकते हैं।''
प्रिंस तुर्की अल-फ़ैसल के बात के फ़ौरन बाद इसराइली विदेश मंत्री गाबी अशकेनाज़ी ने कहा, ''सऊदी प्रतिनिधियों की टिप्पणियों पर मैं अपना खेद प्रकट करना चाहता हूं। मुझे नहीं लगता कि उनकी बातों में वो मर्म और बदलाव नज़र आते हैं जो मिडिल ईस्ट में हो रहे हैं।''
इसराइली विदेश मंत्री गाबी अशकेनाज़ी ने इसराइली रुख़ दोहराते हुए कहा कि ''शांति समझौता ना होने के लिए फ़लस्तीनी ज़िम्मेदार हैं। फ़लस्तीनियों को लेकर हमारे पास विकल्प है कि हम इसका समाधान करें या ना करें या यूं ही आरोप-प्रत्यारोप करते रहें।''
बहरीन सिक्योरिटी समिट को देख-सुन रहे संयुक्त राष्ट्र में पूर्व राजदूत और नेतन्याहू के क़रीबी डोर गोल्ड ने प्रिंस तुर्की अल-फ़ैसल की टिप्पणियों पर कहा कि अतीत में भी कई झूठे आरोप लगाए गए हैं।
इस पर प्रिंस तुर्की अल-फ़ैसल ने उन्हें भी आड़े हाथों लिया।
सऊदी बनाम इसराइल
सऊदी अरब ऐतिहासिक रूप से इसराइल और इसके फ़लस्तीनी लोगों के साथ होने वाले बर्ताव का आलोचक रहा है और अरब मीडिया इसराइल को एक 'यहूदी देश' के तौर पर खारिज करते रहे हैं।
सऊदी अरब के दूर-दराज और देहाती इलाकों में लोग न सिर्फ इसराइल को बल्कि सभी यहूदी लोगों को अपने दुश्मन के तौर पर देखते आए हैं।
हालांकि, यहूदियों को लेकर कई तरह की भ्रामक थिअरीज़ अब नहीं दिखाई देतीं। इसकी एक वजह यह भी है कि सऊदी लोग काफी वक्त इंटरनेट पर बिताते हैं और इस वजह से दुनिया में चल रही चीजों के बारे में काफी जागरूक हैं।
इसके बावजूद सऊदी आबादी के एक तबके में बाहरी लोगों को लेकर एक शक अभी भी कायम है। सऊदी अरब और खाड़ी देशों के फलस्तीन के साथ रिश्तों का एक विचित्र इतिहास रहा है।
खाड़ी देश आमतौर पर फलस्तीनी मुद्दे के समर्थक रहे हैं। दशकों से वे राजनीतिक और वित्तीय रूप से फलस्तीन की मदद कर रहे हैं। लेकिन, जब फलस्तीनी नेता यासिर अराफात ने 1990 में इराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के कुवैत पर हमले और कब्जे का समर्थन किया तो उन्हें यह एक बड़ा धोखा जान पड़ा।
अमरीका की अगुवाई में ऑपरेशन डेजर्ट स्टॉर्म के बाद और 1991 में स्वतंत्र होने पर कुवैत ने अपने यहां मौजूद फलस्तीनियों की पूरी आबादी को बाहर निकाल दिया और उनकी जगह मिस्र के हजारों लोग बसा दिए गए।
इस इलाके के पुराने शासकों को अराफात के धोखे को भुलाने में लंबा वक्त लगा है।
ईरान की संसद में एक नया कानून पारित किया गया है जिसके तहत देश के परमाणु केंद्रों पर संयुक्त राष्ट्र की ओर से किए जाने वाले निरीक्षण पर रोक लगा दी गई है और साथ ही ईरान अब यूरेनियम संवर्धन को भी आगे बढ़ाएगा।
इस नए क़ानून के आने के बाद ईरान सरकार 20 फ़ीसदी तक यूरोनियम संवर्धन दोबारा शुरू कर सकेगी जिसे साल 2015 के परमाणु समझौते में 3.67% तक सीमित कर दिया गया था।
2015 के समझौते के अनुसार, ईरान अपनी संवेदनशील परमाणु गतिविधियों को सीमित करने और अंतरराष्ट्रीय निरीक्षकों को आने की अनुमति दी थी। इसके बदले में ईरान पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों को ख़त्म किया गया था।
हालाँकि, ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी ने इस क़ानून को मंज़ूरी मिलने से पहले कहा कि वह इस नए कानून से असहमत हैं क्योंकि इससे कूटनीति को नुक़सान पहुँचेगा।
ईरानी सांसदों ने ये नया क़ानून ईरान के मुख्य परमाणु वैज्ञानिक मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह की बीते 27 नवंबर 2020 को हुई हत्या के बाद बनाया है।
ईरान का मानना है कि इज़राइल और एक निर्वासित विपक्ष ने मिलकर एक रिमोट-कंट्रोल हथियार से फ़ख़रीज़ादेह पर हमला किया। फ़ख़रीज़ादेह को ईरान के परमाणु कार्यक्रम का मुख्य कर्ताधर्ता माना जाता था।
ईरान सरकार बार-बार इस बात पर ज़ोर देती रही है कि उसकी सभी परमाणु गतिविधियां शांतिपूर्ण ही रही हैं। पश्चिमी देशों ने कड़े प्रतिबंध के ज़रिए ईरान को परमाणु हथियारों को विकसित करने से रोका।
ईरान का नया क़ानून क्या कहता है?
ईरान के गार्डियन काउंसिल के पारित नए क़ानून के मुताबिक़ 2015 के समझौते में शामिल ब्रिटेन, फ़्रांस, जर्मनी जैसे यूरोपीय देशों को ईरान के तेल पर लगे प्रतिबंध और आर्थिक प्रतिबंधों में ढील देने के लिए दो महीने का वक़्त दिया गया है।
ये प्रतिबंध 2018 में ट्रंप प्रशासन के परमाणु समझौते से बाहर निकलने के बाद लगाए गए थे।
अगर दो महीने के भीतर इस दिशा में काम शुरू नहीं किया गया तो ईरान सरकार अपना यूरेनियम संवर्धन 20 फ़ीसदी तक बढ़ा देगी और अपने नतांज़ और फोरदो परमाणु केंद्र पर नई तकनीक से लैस अपकेंद्रण यंत्र बनाएगी जहां यूरोनियम का संवर्धन किया जाएगा।
इस कानून के तहत संयुक्त राष्ट्र, ईरान के परमाणु केंद्रों का निरीक्षण भी नहीं कर सकेगा।
ईरानी समाचार एजेंसी फ़ार्स के मुताबिक़ 02 दिसंबर 2020 को एक चिट्ठी के ज़रिए ईरान की संसद के प्रवक्ता ने औपचारिक तौर पर राष्ट्रपति रूहानी से इस नए कानून को लागू करने की अपील की है।
इस कानून को मंज़ूरी मिलने के पहले ही ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी ने कहा था कि उनकी सरकार इस नए कानून से सहमत नहीं हैं। उन्होंने इस कानून को देश की ''कूटनीति के लिए नुक़सानदेह'' बताया था।
परमाणु डील पर डोनाल्ड ट्रंप और जो बाइडन की अलग राय
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने 2018 में परमाणु समझौते को रद्द कर दिया था। उन्होंने कहा था कि वो ईरान से नया समझौता करना चाहते हैं जो उसके परमाणु कार्यक्रम और बैलिस्टिक मिसाइल के विकास पर अनिश्चितकालीन रोक लगाएगा। इसके बदले अमेरिका ने ईरान पर कड़े प्रतिबंध लगाए।
वहीं दूसरी ओर अमेरिका के नव-निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडन ने कहा है कि वह ओबामा सरकार के समय हुए परमाणु समझौते को दोबारा लागू करेंगे और अगर ईरान 'परमाणु समझौते का कड़ाई से पालन करता है' तो ईरान पर लगाए प्रतिबंध हटाए जाएंगे।
बाइडन 20 जनवरी, 2021 को अमेरिका के राष्ट्रपति की शपथ लेंगे।
जुलाई, 2019 में ही ईरान ने परमाणु हथियार बनाने के लिए 3.67 प्रतिशत संवर्धित यूरेनियम की सीमा बढ़ाकर 4.5% कर दी थी।
कम संवर्धित तीन से पाँच प्रतिशत घनत्व वाले यूरेनियम के आइसोटोप U-235 को ईंधन की तरह इस्तेमाल करके बिजली बनाई जा सकती है।
हथियार बनाने के लिए जो यूरेनियम इस्तेमाल होता है वह 90 प्रतिशत या इससे अधिक संवर्धित होता है।
साल 2015 की परमाणु डील ईरान के परमाणु कार्यक्रम को रोकने के लिए किया गया था और इसके बदले ईरान पर लगे प्रतिबंधों को ख़त्म किया गया था। इस परमाणु समझौते पर ईरान के साथ अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, जर्मनी, फ़्रांस और चीन ने भी दस्तख़त किये थे।
ईरान का मानना है कि इसराइल और निर्वासित विपक्षी समूह ने उसके शीर्ष के परमाणु वैज्ञानिक मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह को 27 नवंबर 2020 को मारने के लिए एक रिमोट नियंत्रित हथियार का इस्तेमाल किया था।
तेहरान में फ़ख़रीज़ादेह की अंत्येष्टि के दौरान ईरान के सुरक्षा प्रमुख अली शामख़ानी ने कहा कि हमलावरों ने इलेक्ट्रॉनिक उपकरण का इस्तेमाल किया और वे वारदात स्थल पर मौजूद नहीं थे।
हालांकि उन्होंने इसे लेकर और जानकारी नहीं दी। शुरुआत में ईरानी रक्षा मंत्रालय ने कहा था कि फ़ख़रीज़ादेह की कार को कुछ बंदूकधारियों ने निशाना बनाया था और उसी दौरान उन्हें गोली मारी गई थी।
इसराइल ने ईरान के इन दावों पर अभी कोई टिप्पणी नहीं की है। 2000 के दशक की शुरुआत में फ़ख़रीज़ादेह ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम में अहम भूमिका अदा की थी।
सबसे अहम बात यह है कि हाल ही में इसराइल ने फ़ख़रीज़ादेह को लेकर कहा था कि वो ईरान के गोपनीय परमाणु हथियार को विकसित करने में लगे हुए हैं।
ईरान हमेशा से कहता रहा है कि उसका परमाणु कार्यक्रम हथियार विकसित करने के लिए नहीं है। फ़ख़रीज़ादेह की अंत्येष्टि का कार्यक्रम तेहरान स्थित ईरान के रक्षा मंत्रालय के कैंपस में हुआ। अंत्येष्टि के कुछ अवशेष उत्तरी तेहरान में स्थित एक क़ब्रिस्तान को सौंपा गया।
ईरान के सरकारी टीवी में दिखा कि ईरानी राष्ट्रध्वज में लिपटे फ़ख़रीज़ादेह के ताबूत को सैनिकों और सीनियर अधिकारी उठाए आगे बढ़ रहे थे। इनमें ख़ुफ़िया मंत्री महमूद अलावी, रिवॉल्युशनरी कोर कमांडर जनरल हुसैन सलामी और परमाणु प्रोग्राम के प्रमुख अली अकबर सालेही ने फ़ख़रीज़ादेह की श्रद्धांजलि में नमाज़ अदा की।
ईरान के सुप्रीम नेशनल सिक्यॉरिटी काउंसिल के सचिव एडमिरल शामख़ानी ने फ़ख़रीज़ादेह की अंत्येष्टि कार्यक्रम में कहा कि ईरानी ख़ुफ़िया और सुरक्षा सेवाओं को फ़ख़रीज़ादेह की हत्या की साज़िश का अंदेशा पहले से ही था।
शामख़ानी ने कहा, ''उनकी सुरक्षा को लेकर ज़रूरी उपाय किए गए थे लेकिन दुश्मनों ने बिल्कुल नया तरीक़ा इस्तेमाल किया। इस हत्या को अंजाम पेशेवर और ख़ास तरीक़े से दिया गया है। दुर्भाग्य से हमारे दुश्मन इसमें सफल रहे। यह बहुत ही जटिल मिशन था क्योंकि इसमें इलेक्ट्रॉनिक उपकरण का इस्तेमाल किया गया है। वारदात स्थल पर कोई भी मौजूद नहीं था।''
एडमिरल शामख़ानी ने कहा कि इस हत्या को अंजाम देने वालों का कुछ सुराग़ मिला है। उन्होंने कहा, ''इसमें यहूदी शासन और मोसाद के साथ निर्वासित ईरानी विपक्षी समूह मुजाहिदीन-ए-ख़ाल्क़ (एमकेओ) निश्चित तौर पर शामिल रहा है।''
मोसाद इसराइल की ख़ुफ़िया एजेंसी है और यहूदी शासन इसराइल के लिए इस्तेमाल किया गया है। एमकेओ ईरान का निर्वासित विपक्षी धड़ा है जो मुल्क में वर्तमान सरकार के ढाँचे का विरोध करता है। ईरान की ओर से यह बयान तब आया है जब वहां की फार्स न्यूज़ एजेंसी ने फ़ख़रीज़ादेह की हत्या में रीमोट-कंट्रोल मशीन गन के इस्तेमाल की बात कही है।
अरबी भाषा के अल-अलाम टीवी की रिपोर्ट के अनुसार इस तरह के हथियार का इस्तेमाल सैटेलाइलट कंट्रोल के ज़रिए किया जाता है। 27 नवंबर 2020 को जब ईरानी परमाणु वैज्ञानिक की हत्या हुई तो रक्षा मंत्रालय ने कहा था कि पूर्वी तेहरान में हथियारबंद आतंकवादियों ने फ़ख़रीज़ादेह की कार को निशाना बनाकर हमला किया था।
मंत्रालय ने कहा था कि फ़ख़रीज़ादेह को उनके सुरक्षा गार्ड और हमलावरों के बीच की गोलाबारी में गोली लगी थी और इसी दौरान उनकी मौत हो गई। सोशल मीडिया पर जो तस्वीरें पोस्ट की गई हैं उनमें दिख रहा है कि गोलियों से छलनी हुई कार के साथ मलबे और ख़ून बिखरे पड़े हैं।
30 नवंबर 2020 को फ़ख़रीज़ादेह की अंत्येष्टि में ईरान के रक्षा मंत्री जनरल आमिर हतामी ने संकल्प दोहराया कि इस हत्या का बदला लिया जाएगा।
आमिर ने कहा, ''दुश्मनों को पता है और एक सैनिक के तौर पर मैं उन्हें कह रहा हूं ईरान के लोग हर एक का जवाब देंगे।''
ईरानी रक्षा मंत्री ने कहा कि ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ डिफेंसिव इनोवेशन एंड रिसर्च में फ़ख़रीज़ादेह अहम काम कर रहे थे। यहां परमाणु सुरक्षा को लेकर ईरान काम कर रहा है।
फ़ारसी में इस ऑर्गेनाइज़ेशन को SPND कहा जाता है। ईरानी रक्षा मंत्री ने कहा कि SPND का बजट दोगुना किया जाएगा ताकि 'शहीद डॉक्टर' की राह को और तेज़ी से हासिल किया जा सके।
ईरान के मीडिया का दो चीज़ों पर ज़ोर है। पहला ईरानी वैज्ञानिक की हत्या का बदला लेना और दूसरा ये कि ईरान को इसराइल के झाँसे में नहीं फँसना चाहिए क्योंकि वो तनाव बढ़ाकर ईरान के परमाणु कार्यक्रम को चौपट करना चाहता है।
भारत ने इस्लामिक देशों के संगठन ऑर्गेनाइजेशन ऑफ़ इस्लामिक कोऑपरेशन (ओआईसी) के सदस्य देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक में पास किए गए प्रस्ताव को ख़ारिज कर दिया है। इस प्रस्ताव में कश्मीर का भी ज़िक्र किया गया है।
भारतीय विदेश मंत्रालय ने कहा कि ओआईसी में पास किए गए प्रस्ताव में भारत का संदर्भ तथ्यात्मक रूप से ग़लत, अकारण और अनुचित है।
नाइजर की राजधानी नियामे में 27 और 28 नवंबर 2020 को ओआईसी के काउंसिल ऑफ फॉरन मिनिस्टर्स (सीएफ़एम) की बैठक थी और इसी बैठक में जो प्रस्ताव पास किया गया है उसमें कश्मीर का भी ज़िक्र है।
पाकिस्तान भी ओआईसी का सदस्य है। इस बैठक में पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी शामिल हुए और उन्होंने कश्मीर का मुद्दा ज़ोर-शोर से उठाया था।
पाकिस्तान ओआईसी के विदेश मंत्रियों की बैठक में पास किए गए प्रस्ताव में कश्मीर के ज़िक्र से ख़ुश है। इस प्रस्ताव को नियामे डेक्लरेशन कहा जा रहा है और पाकिस्तान ने इसका स्वागत किया है।
भारत ने पाँच अगस्त 2019 को कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म कर दिया था। तब से पाकिस्तान अंतराराष्ट्रीय मंच पर इस मुद्दे को उठा रहा है लेकिन अब तक कोई ठोस सफलता नहीं मिली है। ओआईसी भी इसे लेकर अब तक बहुत सक्रिय नहीं रहा है।
ओआईसी के सीएफ़एम में पास किए गए प्रस्ताव को लेकर भारत के विदेश मंत्रालय ने अपने बयान ने कहा है, ''हम नाइजर की राजधानी नियामे में ओआईसी के 47वें सीएफ़एम में तथ्यात्मक रूप से ग़लत, अनुचित और अकारण रूप से पास किए गए प्रस्ताव में भारत के ज़िक्र को ख़ारिज करते हैं। हमने हमेशा से कहा है कि ओआईसी को भारत के आंतरिक मामलों पर बोलने का कोई हक़ नहीं है। जम्मू-कश्मीर भी भारत का अभिन्न अंग है और ओआईसी को इस पर बोलने का कोई अधिकार नहीं है।''
भारत ने अपने बयान में कहा है, ''यह खेदजनक है कि ओआईसी किसी एक देश को अपने मंच का दुरुपयोग करने की अनुमति दे रहा है। जिस देश को ओआईसी ऐसा करने दे रहा है, उसका धार्मिक सहिष्णुता, अतिवाद और अल्पसंख्यकों के साथ नाइंसाफ़ी का घिनौना रिकॉर्ड है। वो देश हमेशा भारत विरोधी प्रॉपेगैंडा में लगा रहा है। हम ओआईसी को गंभीरता से सलाह दे रहे हैं कि वो भविष्य में भारत को लेकर ऐसी बात कहने से बचे।''
नियामे में ओआईसी के सदस्य देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक में पास किए गए प्रस्ताव में कश्मीर को भी शामिल किया गया है।
हालांकि कश्मीर ओआईसी के सीएफ़म के एजेंडे में शामिल नहीं था। कहा जा रहा है कि पाकिस्तान की ज़िद के कारण इसमें महज़ शामिल किया गया है। प्रस्ताव में कहा गया है कि कश्मीर विवाद पर ओआईसी का रुख़ हमेशा से यही रहा है कि इसका शांतिपूर्ण समाधान संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव के अनुसार होना चाहिए।
हालांकि ये बात भी कही जा रही है कि ओआईसी के प्रस्ताव में कश्मीर का ज़िक्र रस्मअदायगी भर है और ये भारत के लिए हैरान करने वाला नहीं है। पाकिस्तान के भारी दबाव के बावजूद इस बैठक में कश्मीर को एक अलग एजेंडे के तौर पर शामिल नहीं किया गया।
ओआईसी में सऊदी अरब और यूएई का दबदबा है। पाकिस्तान के इन दोनों देशों से रिश्ते ख़राब चल रहे हैं। सऊदी अरब चाहता है कि पाकिस्तान उसके क़र्ज़ों का भुगतान जल्दी करे। ख़ास करके तब से जब पाकिस्तानी पीएम इमरान ख़ान ने ओआईसी के समानांतर तुर्की, ईरान और मलेशिया के साथ मिलकर एक संगठन खड़ा करने की कोशिश की थी। पिछले हफ़्ते यूएई ने पाकिस्तानी नागिरकों के लिए नया वीज़ा जारी करने पर अस्थायी रूप से प्रतिबंध लगा दिया था।
पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी ने इस मुद्दे को भी ओआईसी की बैठक में अलग से यूएई के विदेश मंत्री के सामने उठाया लेकिन अभी तक कोई ठोस आश्वासन नहीं मिला है।
नियामे डेक्लरेशन में कश्मीर का ज़िक्र क्या पाकिस्तान की जीत है?
मार्च 2019 में अबू धाबी में यह बैठक हुई थी। इस बैठक में भारत की तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को भी यूएई ने बुलाया था।
पाकिस्तान ने सुषमा स्वराज के बुलाए जाने का विरोध किया था और उसने उद्घाटन समारोह का बहिष्कार किया था। सुषमा स्वराज ने तब ओआईसी के सीएफएम की बैठक को संबोधित किया था।
इस बैठक में जो प्रस्ताव पास किया गया था उसमें कश्मीर का कोई ज़िक्र नहीं था। इसमें पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के उस फ़ैसले का स्वागत किया गया था जिसमें उन्होंने भारत के विंग कमांडर अभिनंदन को वापस भेजा था।
ओआईसी के विदेश मंत्रियों की बैठक के बाद आने वाले प्रस्ताव में कश्मीर का ज़िक्र कोई नई बात नहीं है। इसे पहले भी ज़िक्र होता रहा है। इस बार के प्रस्ताव को नियामे डेक्लेरेशन कहा जा रहा है। इसके ऑपरेटिव पैराग्राफ़ आठ में कहा गया है कि ओआईसी जम्मू-कश्मीर विवाद का समाधान यूएन सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव के हिसाब से शांतिपूर्ण चाहता है और उसका यही रुख़ हमेशा से रहा है।
पाँच अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म किए जाने के बाद ओआईसी के विदेश मंत्रियों की यह पहली बैठक थी। पाकिस्तान को उम्मीद थी कि इस बार भारत के ख़िलाफ़ कश्मीर को लेकर कोई कड़ा बयान जारी किया जाएगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
भारत में पाकिस्तान के राजदूत रहे अब्दुल बासित ने ट्विटर पर एक वीडियो पोस्ट किया है और उन्होंने इसमें नियामे डेक्लरेशन को लेकर कई बातें कही हैं।
बासित ने कहा है, ''पाँच अगस्त के बाद ओआईसी के विदेश मंत्रियों की यह पहली बैठक थी और हमें उम्मीद थी कि भारत को लेकर कुछ कड़ा बयान जारी किया जाएगा। हमें लगा था कि भारत के फ़ैसले की निंदा की जाएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। डेक्लरेशन में पाकिस्तान के लिए बहुत ख़ुश करने वाली बात नहीं है।''
उन्होंने कहा, ''जिस तरह से इस डेक्लरेशन में फ़लस्तीन, अज़रबैजान और आतंकवाद को लेकर ज़िक्र है वैसा कश्मीर का नहीं है। पिछले साल की तुलना में इस बात से ख़ुश हो सकते हैं कि चलो इस बार कम से कम ज़िक्र तो हुआ। पाँच अगस्त को भारत ने जो किया उसकी निंदा होनी चाहिए थी लेकिन ये ऐसा नहीं हुआ। नाइजर के भारत के साथ अच्छे ताल्लुकात हैं और जिस कन्वेंशन सेंटर में यह कॉन्फ़्रेंस हुई है वो भारत की मदद से ही बना है।''
मालदीव भी ओआईसी का सदस्य है। इस बैठक में मालदीव के विदेश मंत्री अब्दुल्ला शाहिद शामिल हुए। अब्दुल्ला ने 27 नंवबर 2020 को एक ट्वीट किया था जिसमें नियामे के उस कॉन्फ़्रेंस सेंटर की तस्वीरें पोस्ट की थीं। इन तस्वीरों के साथ अब्दुल्ला ने अपने ट्वीट में लिखा है, ''ओआईसी की 47वीं सीएफ़एम की बैठक नियामे के ख़ूबसूरत महात्मा गाँधी इंटरनेशनल कॉन्फ़्रेंस सेंटर में हो रही है। जब दुनिया कई चुनौतियों और संकट से जूझ रही है ऐसे में साथ मिलकर ही इनका सामना किया जा सकता है।''
हालांकि पाकिस्तान कश्मीर का ज़िक्र भर होने से अपनी जीत के तौर पर देख रहा है। पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने ट्वीट कर कहा है, ''नियामे डेक्लरेशन में जम्मू-कश्मीर विवाद को शामिल किया जाना बताता है कि ओआईसी कश्मीर मुद्दे पर हमेशा से साथ खड़ा है।''
भारत ने कश्मीर का विशेष दर्जा जब से ख़त्म किया है तब से पाकिस्तान ओआईसी के सदस्य देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक बुलाने की मांग कर रहा था लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ था।
पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी ने अगस्त 2020 में ओआईसी से अलग होकर कश्मीर का मुद्दा उठाने की धमकी दे डाली थी। इससे सऊदी अरब नाराज़ हो गया था और पाकिस्तान को स्पष्टीकरण जारी करना पड़ा था। लेकिन तब तक बात बिगड़ गई थी और इसे संभालने के लिए पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा को सऊदी का दौरा करना पड़ा था।
ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी ने कहा है कि देश के वरिष्ठ परमाणु वैज्ञानिक की हत्या से देश के परमाणु कार्यक्रम की रफ्तार धीमी नहीं पड़ेगी।
शीर्ष परमाणु वैज्ञानिक मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह की हत्या के लिए हसन रूहानी ने इसराइल पर आरोप लगाया और कहा कि ये कदम बताता है कि वो कितना परेशान हैं और हमसे कितनी घृणा करते हैं।
इससे पहले ईरान ने संयुक्त राष्ट्र के महासचिव और सुरक्षा परिषद से अपने शीर्ष परमाणु वैज्ञानिक मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह की हत्या की निंदा करने की अपील की थी।
अब तक मिली जानकारी के मुताबिक़ फ़ख़रीज़ादेह पर राजधानी तेहरान से सटे शहर अबसार्ड में बंदूकधारियों ने घात लगाकर हमला किया। हालांकि अब तक किसी हमलावर के पकड़े जाने की कोई ख़बर नहीं मिली है।
ईरान के संयुक्त राष्ट्र के लिए राजदूत माजिद तख्त रवांची ने कहा कि मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह की हत्या अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों का स्पष्ट उल्लंघन है, जिसे क्षेत्र में अशांति फैलाने के मक़सद से अंजाम दिया गया।
वहीं संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेश ने इस मामले में संयम बरतने की अपील की है।
रॉयटर्स के मुताबिक़, गुटेरेश के प्रवक्ता फरहान हक ने 27 नवंबर 2020 को कहा, ''हमने आज तेहरान के पास हुई एक ईरानी परमाणु वैज्ञानिक की हत्या की ख़बरों को नोट किया है। हम संयम बरतने और ऐसी किसी भी कार्रवाई से बचने का आग्रह करते हैं जिससे क्षेत्र में तनाव बढ़ सकता है।''
अन्य ईरानी अधिकारियों ने इसराइल पर हत्या के आरोप लगाए हैं और बदला लेने की चेतावनी दी है।
इसराइल ने अब तक इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है, लेकिन वो पहले मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह पर एक गुप्त परमाणु हथियार कार्यक्रम का मास्टरमाइंड होने का आरोप लगा चुका है।
पूरा मामला क्या है?
ईरान के रक्षा मंत्रालय ने जानकारी दी थी कि उसके एक शीर्ष परमाणु वैज्ञानिक मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह की हत्या कर दी गई है। हमले के बाद फ़ख़रीज़ादेह को स्थानीय अस्पताल में ले जाया गया लेकिन उनकी जान नहीं बचाई जा सकी।
ईरान के विदेश मंत्री मोहम्मद जवाद ज़रीफ़ ने फ़ख़रीज़ादेह की हत्या की निंदा करते हुए इसे 'राज्य प्रायोजित आतंक की घटना क़रार दिया'।
पश्चिमी देशों की ख़ुफ़िया एजेंसियों का मानना है कि ईरान के ख़ुफ़िया परमाणु हथियार कार्यक्रम के पीछे मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह का ही हाथ था।
विदेशी राजनयिक उन्हें 'ईरानी परमाणु बम के पिता' कहते थे। ईरान कहता रहा है कि उसका परमाणु कार्यक्रम शांतिपूर्ण मक़सद के लिए है।
साल 2010 और 2012 के बीच ईरान के चार परमाणु वैज्ञानिकों की हत्या की गई थी और ईरान ने इसके लिए इसराइल को ज़िम्मेदार ठहराया था।
मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह की हत्या कैसे हुई?
ईरान के रक्षा मंत्रालय ने 27 नवंबर 2020 को एक बयान जारी कर कहा, ''हथियारबंद आतंकवादियों ने रक्षा मंत्रालय के शोध और नवोत्पाद विभाग के प्रमुख मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह को ले जा रही कार को निशाना बनाया।''
मंत्रालय के मुताबिक़, ''आतंकवादियों और फ़ख़रीज़ादेह के अंगरक्षकों के बीच हुई झड़प में वो बुरी तरह घायल हो गए और उन्हें स्थानीय अस्पताल ले जाया गया लेकिन दुर्भाग्य से उनको बचाने की मेडिकल टीम की तमाम कोशिशें नाकाम रहीं।''
ईरान की समाचार एजेंसी फ़ारस के अनुसार चश्मदीदों ने पहले धमाके और फिर मशीनगन से फ़ायरिंग की आवाज़ सुनी थी।
एजेंसी के अनुसार चश्मदीदों ने तीन-चार चरमपंथियों के भी मारे जाने की बात कही है।
क्या इस हत्या में इसराइल का हाथ है?
ईरान के विदेश मंत्री जवाद ज़रीफ़ ने ट्वीट कर कहा, ''आतंकवादियों ने आज ईरान के एक प्रमुख वैज्ञानिक की हत्या कर दी है। ये बुज़दिल कार्रवाई, जिसमें इसराइल के हाथ होने के गंभीर संकेत हैं, हत्यारों की जंग करने के इरादे को दर्शाता है।''
ज़रीफ़ ने कहा, ''ईरान अंतरराष्ट्रीय समुदायों, ख़ासकर यूरोपीय संघ से गुज़ारिश करता है कि वो अपने शर्मनाक दोहरे रवैये को ख़त्म करके इस आतंकी कदम की निंदा करें।''
उन्होंने एक अन्य ट्वीट में कहा, ''ईरान एक बार फिर आतंकवाद का शिकार हुआ है। आतंकवादियों ने ईरान के एक महान विद्वान की बर्बरतापूर्वक हत्या कर दी है। हमारे नायकों ने दुनिया और हमारे इलाके में स्थिरता और सुरक्षा के लिए हमेशा आतंकवाद का सामना किया है। ग़लत काम करने वालों की सज़ा अल्लाह का क़ानून है।''
ईरानी सेना के इस्लामिक रेवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (आईआरजीसी) ने कहा है कि ईरान अपने वैज्ञानिक की हत्या का बदला ज़रूर लेगा।
इस्लामिक रेवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स के मेजर जनरल हुसैन सलामी ने कहा, ''परमाणु वैज्ञानिकों की हत्या करके हमें आधुनिक विज्ञान तक पहुँचने से रोकने की स्पष्ट कोशिश की जा रही है।''
मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह कौन थे?
मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह ईरान के सबसे प्रमुख परमाणु वैज्ञानिक थे और आईआरजीसी के वरिष्ठ अधिकारी थे। पश्चिमी देशों के सुरक्षा विशेषज्ञों के अनुसार वो ईरान में बहुत ही ताक़तवर थे और ईरान के परमाणु हथियार कार्यक्रम में उनकी प्रमुख भूमिका थी।
इसराइल ने साल 2018 में कुछ ख़ुफ़िया दस्तावेज़ हासिल करने का दावा किया था जिनके अनुसार मोहसिन ने ही ईरान के परमाणु हथियार कार्यक्रम की शुरुआत की थी।
उस समय नेतन्याहू ने प्रेसवार्ता में मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह को ईरान के परमाणु कार्यक्रम का प्रमुख वैज्ञानिक क़रार देते हए कहा था, ''उस नाम को याद रखें।''
साल 2015 में न्यूयॉर्क टाइम्स ने मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह की तुलना जे रॉबर्ट ओपनहाइमर से की थी। ओपनहाइमर वो वैज्ञानिक थे जिन्होंने मैनहट्टन परियोजना की अगुवाई की थी जिसने दूसरे विश्व युद्ध के दौरान पहला परमाणु बम बनाया था।
इसराइल ने फ़ख़रीज़ादेह की हत्या पर अब तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है।
मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह को निशाना क्यों बनाया गया?
ईरानी रक्षा मंत्रालय में रिसर्च ऐंड इनोवेंशन विभाग के प्रमुख के तौर पर मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह निश्चित तौर पर एक अहम शख़्सियत थे। यही वजह है कि इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू ने दो साल पहले चेतावनी भरे लहजे में कहा था 'उनका नाम याद रखिए'।
जबसे अमेरिका 2015 के ईरान परमाणु समझौते से अलग हुआ है, ईरान तेज़ी से आगे बढ़ा है। ईरान ने कम संवर्धन वाले यूरेनियम का भंडार इकट्ठा किया है और समझौते में तय हुए स्तर से ज़्यादा यूरेनियम का संवर्धन किया है।
ईरानी अधिकारी शुरू से ये कहते आए हैं कि संवर्धित यूरेनियम को नष्ट किया जा सकता है लेकिन शोध और विकास की दिशा में हुए कामों को मिटाना बेहद मुश्किल है।
इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी (आईएईए) में ईरान के पूर्व राजदूत अली असग़र सुत्लानिया ने हाल ही में कहा था, ''हम वापस पीछे नहीं लौट सकते।''
अगर मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह वाक़ई ईरान के परमाणु कार्यक्रम के लिए वाक़ई उतने महत्वपूर्ण थे जितना कि इसराइल अपने आरोपों में बताया आया है, तो उनकी हत्या शायद ये बताती है कि कोई ईरान के आगे बढ़ने की गति पर लगाम लगाने की कोशिश कर रहा है।
अमरीका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडन ने कहा था कि सत्ता में आने के बाद वो ईरान परमाणु समझौते में वापसी करेंगे। मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह की हत्या ऐसी किसी संभावना को मुश्किल बनाने की एक कोशिश भी हो सकती है।
रूस ने कहा है कि उसके समुद्री इलाके में घुसने वाले अमेरिकी जहाज़ को वो तबाह कर देगा।
उसका कहना है कि उसके युद्धपोत ने जापान सागर के उसके इलाक़े में घुस आए अमेरिकी नौसेना के विध्वंसक जहाज़ का पीछा किया।
अमेरिकी नौसेना के इस विध्वंसक जहाज़ का नाम यूएसएस जॉन एस मैकेन है।
यूएसएस जॉन एस मैकेन उसकी समुद्री सीमा के पीटर द ग्रेट गल्फ़ के क्षेत्र में दो किलोमीटर भीतर तक चला आया था।
रूस का कहना है कि उसने इस जहाज़ को नष्ट करने की चेतावनी दी थी जिसके बाद ये जहाज़ उसके इलाक़े से चला गया।
हालाँकि अमेरिकी नौसेना ने किसी तरह की ग़लती करने से इनकार किया है और ये भी कहा है कि उसके जहाज़ को कहीं से जाने के लिए नहीं कहा गया था।
24 नवंबर 2020 को ये घटना जापान सागर में हुई। इस क्षेत्र को पूर्वी सागर के नाम से भी जानते हैं।
रूस के रक्षा मंत्रालय ने बताया कि उसके प्रशांत क्षेत्र के बेड़े के विध्वंसक जहाज़ एडमिरल विनोग्रादोव ने इंटरनेशनल कम्युनिकेशन चैनल के ज़रिये अमेरिकी जहाज़ को चेतावनी दी।
धमकी में ये कहा गया था कि ''उसके समुद्री क्षेत्र में आने वाले घुसपैठिये को बाहर करने के लिए ताक़त का इस्तेमाल किया जा सकता है।''
हालाँकि अमेरिकी नौसेना के सातवें बेड़े के प्रवक्ता लेफ़्टिनेंट जोए केली ने इस दावे के जवाब में कहा कि ''रूस ग़लतबयानी कर रहा है। यूएसएस जॉन एस मैकेन को किसी भी देश ने अपने क्षेत्र से जाने के लिए नहीं कहा था।''
उन्होंने कहा, ''समुद्री सीमाओं को लेकर किए गए अवैध दावों को अमेरिका कभी भी स्वीकार नहीं करेगा जैसा कि इस मामले में रूस ने किया था।''
समुद्र में ऐसी घटनाएं कभी-कभार ही होती हैं। हालाँकि एडमिरल विनोग्रादोव पूर्वी चीन सागर में एक अमेरिकी जहाज से लगभग उलझ ही गया था।
उस वक़्त भी रूस और अमेरिका ने एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाए थे।
दोनों देशों के बीच समुद्र और वायु क्षेत्र में एक-दूसरे से संघर्ष की स्थिति समय-समय पर बनती रहती है।
साल 1988 में तत्कालीन सोवियत संघ के युद्धपोत बेज़्ज़ावेंटी ने अमेरिकी जहाज़ यॉर्कटाउन को ब्लैक सी में टक्कर मार दी थी।
तब भी सोवियत संघ ने अमेरिकी जहाज़ पर उसके समुद्री सीमा में घुसपैठ करने का आरोप लगाया था। रूस और अमेरिका के बीच संबंध उतार-चढ़ाव से गुज़रते रहे हैं।
रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने अभी तक अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडन को उनकी जीत के लिए शुभकामनाएं नहीं दी हैं।
दोनों देशों के बीच परमाणु हथियारों के मुद्दे पर आख़िरी बचे हुए समझौते को अभी तक अंतिम रूपरेखा नहीं दी जा सकी है। इसकी डेडलाइन फरवरी तक है।
न्यू स्टार्ट ट्रीटी पर दोनों देशों ने 2010 में दस्तखत किए थे जिसके तहत दोनों देशों ने ये तय किया था कि वे लंबी दूरी तक मार करने में सक्षम परमाणु हथियारों की संख्या को एक निश्चित सीमा तक कम करेंगे।
साल 2017 में यूएसएस जॉन एस मैकेन की सिंगापुर के पास मुठभेड़ हो गई थी जिसमें दस नाविक मारे गए थे।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने 19 नवंबर 2020 को अफ़ग़ानिस्तान का अपना पहला दौरा पूरा कर लिया जहाँ उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी से मुलाक़ात की और ख़ुफ़िया मामलों के तबादले और नज़दीकी सहयोग बढ़ाने के लिए प्रयास तेज़ करने पर सहमति जताई।
पाकिस्तान की सरकारी समाचार सेवा रेडियो पाकिस्तान के मुताबिक इमरान ख़ान और अशरफ़ ग़नी ने काबुल में प्रेस कांफ्रेंस में अफ़ग़ानिस्तान में शांति स्थापित करने के लिए तत्काल क़दम उठाने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराई।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के पड़ोसी देश अफ़ग़ानिस्तान के दौरे पर विश्लेषकों का कहना है कि दोनों देशों के बीच विश्वास की बहाली और मतभेदों को ख़त्म करने में समय तो लगेगा लेकिन ये दोनों देशों के संबंधों में सुधार के लिए ज़रूरी है।
सरकारी बयान के मुताबिक प्रधानमंत्री इमरान ख़ान, जो पहली बार अफ़ग़ानिस्तान के दौरे पर काबुल गए, ने द्विपक्षीय संबंधों, वैश्विक शांति और क्षेत्रीय विकास की बात कही है।
इस पर पाकिस्तान के कई टिप्पणीकारों का कहना है कि पाकिस्तान ने अपनी तरफ़ से अफ़ग़ानिस्तान में शांति स्थापित करने के लिए बहुत कुछ किया है और अब अफ़ग़ानिस्तान को भी ऐसा ही कुछ करना चाहिए।
विश्लेषक इम्तियाज़ गुल का कहना है कि पाकिस्तान की कोशिशों से ही अमेरिका और तालिबान के बीच दोहा में कामयाब बातचीत होने के बाद शांति समझौते पर हस्ताक्षर हुए।
उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री इमरान ख़ान की तरफ़ से हालिया अफ़ग़ानिस्तान दौरा इसी सिलसिले की एक कड़ी है।
उन्होंने कहा कि पाकिस्तान पहले दिन से ही अफ़ग़ानिस्तान में हिंसा ख़त्म करने का हामी है और प्रधानमंत्री इमरान खान की अफ़गानिस्तान यात्रा से तालिबान को ये संदेश भी दिया गया है कि हिंसा का रास्ता छोड़ दें।
इम्तियाज़ गुल का कहना है कि भरोसे की कमी को एक ही झटके में समाप्त या कम नहीं किया जा सकता है, लेकिन आपसी विश्वास को बहाल करने के लिए दोनों ही पक्षों को क़दम उठाने की ज़रूरत है।
उन्होंने कहा कि पाकिस्तान ने बीते कुछ दिनों में पाक-अफ़ग़ान सीमा पर फंसे हुए हज़ारों कंटेनरों को आगे जाने दिया है। पाकिस्तानी सरकार ने अफ़ग़ानिस्तानी नागरिकों के लिए छह महीने के मल्टीपल वीज़ा की शुरुआत भी की है।
दोनों देशों के बीच व्यापार समझौता करने के लिए भी सात राउंड की वार्ता हो चुकी है।
इम्तियाज़ गुल कहते हैं, ''अफ़ग़ानिस्तान का भारत की ओर ज़्यादा झुकाव है इसलिए क्षेत्र में स्थिर शांति के लिए सभी देशों को अपना किरदार अदा करना चाहिए।''
19 नवंबर 2020 को प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने कहा है कि हम भरोसा क़ायम करने के लिए अफ़ग़ानिस्तान सरकार की उम्मीदों को पूरा करने में मदद देंगे।
दूसरी तरफ़ अफ़ग़ान राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी ने इमरान ख़ान के दौरे का स्वागत करते इसे भरोसे और सहयोग को बढ़ाने के लिए अहम क़रार दिया है।
वरिष्ठ पत्रकार रहीमुल्लाह यूसुफ़ज़ई का कहना है कि दोनों देशों के बीच बहुत से मामलों में मतभेद हैं और जब तक ये ख़त्म नहीं होंगे तब तक संबंधों में सुधार नहीं होगा।
उन्होंने कहा, ''पाकिस्तान सरकार की तरफ़ से हालिया ये बयान दिया गया कि पाकिस्तान में हिंसा की वारदातों के लिए अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन इस्तेमाल हो रही है, लेकिन अफ़ग़ान सरकार ने इन बयानों का खंडन किया है।''
इससे पहले भी पाकिस्तान भारत पर ये इल्ज़ाम लगाता रहा है कि वो पाकिस्तान में हिंसा की वारदातों के लिए अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन का इस्तेमाल करता है।
अफ़ग़ान सरकार से भी कहा गया है कि वो भारत को अपनी ज़मीन इस्तेमाल करने से रोके। हालांकि भारत और अफ़ग़ानिस्तान दोनों ही आरोपों को खारिज करते रहे हैं।
रहीमुल्लाह यूसुफ़ज़ई कहते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान ने आज तक पाकिस्तान के साथ लगने वाली सीमा को स्वीकार नहीं किया है।
वो कहते हैं, ''अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी और चीफ़ एग्जीक्यूटिव अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह ने भी पाकिस्तान का दौरा किया लेकिन इसके बावजूद दोनों देशों का एक दूसरे पर भरोसा क़ायम नहीं हो सका है।''
उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र में स्थिर शांति और हिंसा के खात्मे के लिए दोनों देशों को अपनी कोशिशों में तेज़ी लानी होगी।
अमेरिका फ़रवरी 2021 तक अपने दो हज़ार फ़ौजी अफ़ग़ानिस्तान से निकाल लेगा और ऐसे हालात में शांति की ख़ातिर दोनों पड़ोसी देशों के बीच नज़दीकी सहयोग ज़रूरी है।
रहीमुल्लाह यूसुफ़ज़ई कहते हैं कि दोनों देशों के बीच कारोबार बढ़ने से पाकिस्तान को ही ज़्यादा फ़ायदा होगा। दोनों देशों के बीच कारोबार जितना ज़्यादा बढ़ेगा, आम नागरिकों को उतना ही फ़ायदा होगा।
उन्होंने कहा कि दोनों देशों के बीच व्यापार से खाद्य कीमतों में कमी आ सकती है जिससे लोगों को थोड़ी राहत मिलेगी।
युसुफ़ज़ई कहते हैं, ''अफ़ग़ानिस्तान वाघा बार्डर के ज़रिए भारत के साथ व्यापार करना चाहता है, लेकिन पाकिस्तान ऐसा करने के लिए तैयार नहीं है।''
चीन समेत एशिया-प्रशांत महासागर क्षेत्र के 15 देशों ने 15 नवंबर 2020 को दुनिया की सबसे बड़ी व्यापार संधि पर वियतनाम के हनोई में हस्ताक्षर किये हैं।
जो देश इस व्यापारिक संधि में शामिल हुए हैं, वो वैश्विक अर्थव्यवस्था में क़रीब एक-तिहाई के हिस्सेदार हैं।
'द रीजनल कॉम्प्रीहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप' यानी आरसीईपी में दस दक्षिण-पूर्व एशिया के देश हैं। इनके अलावा दक्षिण कोरिया, चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड भी इसमें शामिल हुए हैं।
इस व्यापारिक-संधि में अमेरिका शामिल नहीं है और चीन इसका नेतृत्व कर रहा है, इस लिहाज़ से अधिकांश आर्थिक विश्लेषक इसे क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव के तौर पर देख रहे हैं।
यह संधि यूरोपीय संघ और अमेरिका-मैक्सिको-कनाडा व्यापार समझौते से भी बड़ी बताई जा रही है।
पहले, ट्रांस-पैसिफ़िक पार्टनरशिप (टीपीपी) नाम की एक व्यापारिक संधि में अमेरिका भी शामिल था, लेकिन 2017 में, राष्ट्रपति बनने के कुछ समय बाद ही, डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका को इस संधि से बाहर ले गये थे।
तब उस डील में इस क्षेत्र के 12 देश शामिल थे जिसे पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का भी समर्थन प्राप्त था क्योंकि वे उस व्यापारिक संधि को चीनी-वर्चस्व के जवाब के तौर पर देखते थे।
आरसीईपी को लेकर भी बीते आठ वर्षों से सौदेबाज़ी चल रही थी, जिस पर अंतत: 15 नवंबर 2020 को हस्ताक्षर हुए।
इस संधि में शामिल हुए देशों को यह विश्वास है कि कोरोना वायरस महामारी की वजह से बने महामंदी जैसे हालात को सुधारने में इससे मदद मिलेगी।
इस मौक़े पर वियतनाम के प्रधानमंत्री न्यून-शुअन-फ़ूक ने इसे भविष्य की नींव बतलाते हुए कहा, ''आज आरसीईपी समझौते पर हस्ताक्षर हुए, यह गर्व की बात है, यह बहुत बड़ा क़दम है कि आसियान देश इसमें केंद्रीय भूमिका निभा रहे हैं, और सहयोगी मुल्कों के साथ मिलकर उन्होंने एक नए संबंध की स्थापना की है जो भविष्य में और भी मज़बूत होगा। जैसे-जैसे ये मुल्क तरक़्क़ी की तरफ़ बढ़ेंगे, वैसे-वैसे इसका प्रभाव क्षेत्र के सभी देशों पर होगा।''
इस नई व्यापार संधि के मुताबिक़, आरसीईपी अगले बीस सालों के भीतर कई तरह के सामानों पर सीमा-शुल्क ख़त्म करेगा। इसमें बौद्धिक संपदा, दूरसंचार, वित्तीय सेवाएं, ई-कॉमर्स और व्यावसायिक सेवाएं शामिल होंगी। हालांकि, किसी प्रोडक्ट की उत्पत्ति किस देश में हुई है जैसे नियम कुछ प्रभाव डाल सकते हैं लेकिन जो देश संधि का हिस्सा हैं, उनमें कई देशों के बीच मुक्त-व्यापार को लेकर पहले से ही समझौता मौजूद है।
समझा जाता है कि इस व्यापार संधि के साथ ही क्षेत्र में चीन का प्रभाव और गहरा गया है।
भारत आरसीईपी में शामिल नहीं
भारत इस संधि का हिस्सा नहीं है। सौदेबाज़ी के समय भारत भी आरसीईपी में शामिल था, मगर पिछले साल ही भारत इससे अलग हो गया था। तब भारत सरकार ने कहा था कि इससे देश में सस्ते चीनी माल की बाढ़ आ जायेगी और भारत में छोटे स्तर पर निर्माण करने वाले व्यापारियों के लिए उस क़ीमत पर सामान दे पाना मुश्किल होगा, जिससे उनकी परेशानियाँ बढ़ेंगी।
लेकिन 15 नवंबर 2020 को इस संधि में शामिल हुए आसियान देशों ने कहा कि 'भारत के लिए दरवाज़े खुले रहेंगे, अगर भविष्य में भारत चाहे तो आरसीईपी में शामिल हो सकता है'।
सवाल उठता है कि इस व्यापार समूह का हिस्सा ना रहने का भारत पर क्या असर पड़ सकता है? इसे समझने के लिए बीबीसी संवाददाता फ़ैसल मोहम्मद अली ने भारत-चीन व्यापार मामलों के जानकार संतोष पाई से बात की।
उन्होंने कहा, ''आरसीईपी में 15 देशों की सदस्यता है। दुनिया का जो निर्माण-उद्योग है, उसमें क़रीब 30 प्रतिशत की हिस्सेदारी इन्हीं देशों की है। ऐसे में भारत के लिए इस तरह के फ़्री-ट्रेड एग्रीमेंट बहुत ही महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि भारत इनके ज़रिये व्यापार की बहुत सी नई संभावनाएं तलाश सकता है।''
''जैसे भारत बहुत से देशों को आमंत्रित कर रहा है अपने यहाँ आकर निर्माण-उद्योग में निवेश करने के लिए, तो उन्हें भी ऐसे एग्रीमेंट आकर्षित करते हैं, पर अगर भारत इसमें ना हो, तो यह सवाल बनता है कि उन्हें भारत आने का बढ़ावा कैसे दिया जायेगा?"
"दूसरी बात ये है कि भारत में उपभोक्ताओं के ख़रीदने की क्षमता बढ़ रही है, पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तुलना करें, तो यह अब भी काफ़ी कम है। अगर किसी विदेशी कंपनी को भारत में आकर निर्माण करना है, तो उसे निर्यात करने का भी काफ़ी ध्यान रखना होगा क्योंकि भारत के घरेलू बाज़ार में ही उसकी खपत हो जाये, यह थोड़ा मुश्किल लगता है।"
एक समय भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के साथ मिलकर चीन पर निर्भरता कम करना चाह रहा था। पर अब वो देश इसमें शामिल हैं और भारत इससे अलग है। इसकी क्या वजह समझी जाये?
इस पर संतोष पाई ने कहा, "भारत 'चीन पर निर्भरता' को कितना कम कर पाता है, यह छह-सात महीने में दिखाई नहीं देगा, बल्कि पाँच साल में जाकर इसका पूरा प्रभाव दिखेगा। तभी सही से पता चलेगा कि भारत ने कितनी गंभीरता से ऐसा किया। बाक़ी जो देश हैं, वो कई सालों से चीन पर अपनी निर्भरता को कम करने के प्रयास करते रहे हैं, और यही वजह है कि ये देश आरसीईपी से बाहर नहीं रहना चाहते क्योंकि उन्हें पता है कि वो इसके अंदर रहकर ही 'चीन पर निर्भरता' बेहतर ढंग से कम कर सकते हैं।''
उन्होंने कहा, "आरसीईपी में चीन के अलावा भी कई मज़बूत देश हैं जिनका कई क्षेत्रों (जैसे इलेक्ट्रॉनिक और ऑटोमोबाइल) में बेहतरीन काम है। पर भारत की यह समस्या है कि भारत पिछले साल तक बहुत कोशिश कर रहा था कि चीनी ट्रेड को ज़्यादा से ज़्यादा कैसे बढ़ाया जाये और चीनी निवेश को कैसे ज़्यादा से ज़्यादा आकर्षित किया जाये?"
''चीन के साथ ट्रेड के मामले में भारत का 100 बिलियन डॉलर का लक्ष्य था। मगर पिछले छह महीने में राजनीतिक कारणों से स्थिति पूरी तरह बदल गई। अब भारत सरकार ने आत्म-निर्भर अभियान शुरू कर दिया है जिसका लक्ष्य है कि चीन के साथ व्यापार कम हो और चीनी निवेश भी सीमित रखा जाये।''
अंत में पाई ने कहा, ''अगर 'आत्म-निर्भर अभियान' को गंभीरता से चलाया गया, तब भी इसका असर आने में सालों लग जायेंगे। इसलिए अभी कुछ भी कह पाना बहुत जल्दबाज़ी होगी।''
आर्मीनिया, अज़रबैजान और रूस ने 9 नवंबर 2020 को देर रात नागोर्नो-काराबाख़ के विवादित हिस्से पर सैन्य संघर्ष को समाप्त करने के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किया है।
आर्मीनिया के प्रधानमंत्री निकोल पाशिन्यान ने इस समझौते को 'अपने और अपने देशवासियों के लिए दर्दनाक बताया है'।
छह सप्ताह से अज़रबैजान और जातीय अर्मीनियाई लोगों के बीच जारी इस युद्ध के बाद अब ये समझौता किया गया है।
नागोर्नो-काराबाख़ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अज़रबैजान का हिस्सा है मगर 1994 से नागोर्नो-काराबाख़ पर अर्मीनिया और वहाँ रहने वाले जातीय अर्मीनियाई लोगों का कब्ज़ा है।
1994 में दोनों देशों के बीच शांति समझौता ना कर युद्ध विराम पर समझौता किया गया था।
27 सितंबर 2020 में फिर से युद्ध शुरू होने के बाद कई संघर्ष विराम समझौते हुए, लेकिन उनमें से सभी विफल रहे हैं।
इस समझौते में क्या है?
9 नवंबर 2020 को देर रात हुए इस समझौते के तहत, अज़रबैजान नागोर्नो-काराबाख़ के उन क्षेत्रों को अपने पास ही रखेगा जो उसने संघर्ष के दौरान अपने कब्ज़े में लिया है।
अगले कुछ हफ़्तों में आस पास के कई इलाकों से आर्मीनिया भी पीछे हटने को तैयार हो गया है।
टेलीविजन के माध्यम से संबोधन में रूसी राष्ट्रपति व्लादमीर पुतिन ने कहा है कि 1960 रूसी शांति सैनिक इलाके में भेजे जा चुके हैं।
अज़रबैजान के राष्ट्रपति इलहाम अलीयेव ने कहा है कि इस शांति स्थापित करने की प्रक्रिया में तुर्की भी भाग लेगा।
इसके अलावा समझौते के मुताबिक़ युद्ध बंदियों को भी एक-दूसरे को सौंपा जाएगा।
राष्ट्रपति अलीयेव ने कहा कि इस समझौते का ऐतिहासिक महत्व है। जिस पर आर्मीनिया भी ना चाहते हुए ही सही लेकिन राज़ी हो गया है।
वहीं आर्मीनिया के प्रधानमंत्री पाशिन्यान ने कहा है कि ये समझौता हालात को देखते हुए इस इलाके के जानकारों से बात करके और गहन विश्लेषण के बाद लिया गया है।
उन्होंने कहा, ये जीत नहीं है लेकिन जब तक आप अपने आपको हारा हुआ नहीं मान लें तब तक ये हार भी नहीं है।
आर्मीनिया की राजधानी येरेवान में बड़ी संख्या में लोग जुटे हैं और इस समझौते का विरोध कर रहे हैं।
लोकप्रिय मोबाइल गेम 'पबजी' को बनाने वाली कंपनी पबजी कॉरपोरेशन ने भारत में चीनी कंपनी टेनसेंट गेम्स की फ़्रैंचाइज़ी निलंबित करने का निर्णय लिया है जिसके बाद यह संभावना बनी है कि यह मोबाइल गेम अब एक बार फिर भारतीय यूज़र्स के मोबाइल में लौट आये।
बिज़नेस स्टैंडर्ड अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार, दक्षिण कोरियाई कंपनी पबजी कॉरपोरेशन ने मंगलवार को एक ब्लॉग में लिखा कि ''पबजी खेलने वालों के डेटा की सुरक्षा और उनकी प्राइवेसी को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने जो निर्णय लिया, हम उसका सम्मान करते हैं।''
''कंपनी के लिए भी यह महत्वपूर्ण है कि प्लेयर्स का डेटा पूरी तरह सुरक्षित रहे। इसके लिए कंपनी इस गेम से जुड़ी सारी ज़िम्मेदारी अपने हाथ में ले रही है। साथ ही निकट भविष्य में कंपनी भारतीय प्लेयर्स को बेहतर गेमिंग एक्सपीरियंस मुहैया कराने पर काम करेगी।''
अख़बार की रिपोर्ट के मुताबिक़, इस निर्णय के बाद भारत में पबजी गेम को संचालित करने का क़ानूनी हक़ चीनी कंपनी टेनसेंट गेम्स के पास नहीं रह जायेगा जिसके पास इस गेम के मोबाइल वर्जन की ग्लोबल फ़्रैंचाइज़ी है।
अब इस ऐप को बनाने वाली दक्षिण कोरिया कंपनी पबजी कॉरपोरेशन ही भारत में पबजी मोबाइल की पब्लिशर कंपनी होगी।
पिछले सप्ताह ही भारत सरकार ने डेटा सुरक्षा और प्राइवेसी को आधार बताते हुए पबजी समेत 118 चीनी मोबाइल ऐप्स पर बैन लगा दिया था।
अख़बार ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि चीनी कंपनी टेनसेंट की ब्लूहोल स्टूडियो नाम की कंपनी में क़रीब 10 फ़ीसद की हिस्सेदारी है और ब्लूहोल स्टूडियो दक्षिण कोरिया के सिओल शहर में स्थित पबजी कॉरपोरेशन की पैरेंट कंपनी है।
कंपनी के अनुसार, दुनिया भर में 600 मिलियन से ज़्यादा लोगों ने पबजी डाउनलोड किया है और 50 मिलियन से ज़्यादा लोग इसके ऐक्टिव प्लेयर हैं। कंपनी के लिए भारत एक महत्वपूर्ण बाज़ार है क्योंकि भारत में क़रीब 33 मिलियन लोग इस गेम को खेलते रहे हैं।
अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार, इस बदलाव के बाद दक्षिण कोरियाई कंपनी पबजी कॉरपोरेशन की यह दलील तो मज़बूत हुई है कि 'इस गेम का अब चीनी कंपनी से कोई वास्ता नहीं', लेकिन जानकारों की राय है कि इस निर्णय के बाद भी पबजी की राह पूरी तरह आसान नहीं हो जाएगी क्योंकि पबजी कॉरपोरेशन को पहले भारत सरकार को संतुष्ट करना होगा कि टेनसेंट गेम्स से संबंधित उनके इस निर्णय से फ़र्क क्या पड़ने वाला है।