एमिरेट्स एयरलाइंस के अध्यक्ष सर टिम क्लार्क ने कहा है कि एमिरेट्स एयरलाइंस आने वाले दिनों में कोरोना वायरस संकट की वजह से कम से कम 9000 नौकरियों में कमी लाने जा रही है।
ये पहला मौका है जब दुनिया की सबसे बड़ी अंतरराष्ट्रीय विमानन कंपनी ने ये बताया है कि वह कितने लोगों को नौकरी से निकालने जा रही है।
ये संकट सामने आने से पहले एमिरेट्स एयरलाइंस में 60 हज़ार लोग काम करते थे।
सर टिम क्लार्क ने कहा है कि एयरलाइंस ने पहले ही अपने दस प्रतिशत कर्मचारियों को बाहर निकाल दिया है। लेकिन हमें शायद अपने कुछ और कर्मचारियों को बाहर निकालना पड़े, शायद कुल 15 फीसदी कर्मचारियों को।
वैश्विक उड्डयन उद्योग कोरोना वायरस की वजह से बुरी तरह प्रभावित हुआ है क्योंकि बीते कई महीनों तक काम बिलकुल ठप्प रहा है।
बीबीसी के साथ एक इंटरव्यू में सर टिम क्लार्क ने कहा था कि उनकी एयरलाइंस पर दूसरी एयरलाइंस कंपनियों जितना बुरा असर नहीं पड़ा है।
टिम क्लार्क ने कहा था कि एमिरेट्स के लिए ये साल सबसे अच्छे सालों में से एक होने जा रहा था लेकिन एमिरेट्स की वर्तमान स्थिति बताती है कि एमिरेट्स को होने वाली कमाई में भारी गिरावट आई है।
विमानन क्षेत्र में कम होती नौकरियों की वजह से एमिरेट्स कंपनी के कर्मचारी भी आने वाले दिनों को लेकर चिंता में हैं।
कर्मचारियों के मुताबिक़, एयरलाइंस की ओर से पारदर्शिता और संवाद में कमी ने निराशा को जन्म दिया है।
इस हफ़्ते एयरलाइंस के 4500 में से 700 पायलटों को रिडन्डेंसी नोटिस दिया गया है। इसका मतलब ये हुआ कि कोरोना वायरस संकट के बाद कम से कम 12 लोगों को बोल दिया गया है कि उनकी नौकरी जा रही है।
इस संकट के चलते उन लोगों की नौकरियां जा रही हैं जो एयरबस विमानों को उड़ाते हैं।
जब बोइंग विमान उड़ाने वालों पर इसका ख़ास असर पड़ता नहीं दिख रहा है।
एमिरेट्स अपनी विमानन सेवाओं के लिए सुपरजंबो एयरबस A380 का इस्तेमाल करती है जिसमें 500 लोग एक बार में सवारी कर सकते हैं।
वहीं, बोइंग 777 विमान में कम लोग यात्रा करते हैं और उन्हें इस, वैश्विक संकट के दौरान भी जब इंटरनेशनल फ़्लाइट्स कम चल रही हैं, भरना आसान होता है।
इसके साथ ही हज़ारों केबिन क्रू कर्मचारियों को भी सूचित कर दिया गया है कि फिलहाल कंपनी को उनकी आवश्यकता नहीं है।
ईरान की मुद्रा रियाल में भारी गिरावट का सिलसिला जारी है। Bonbast.com के अनुसार सोमवार को एक डॉलर की क़ीमत 2,15,000 रियाल थी। ये रियाल की आधिकारिक दर 42,000 रियाल से क़रीब पांच गुना अधिक है।
समाचार एजेंसी रॉयटर्स के मुताबिक पिछले कुछ हफ़्तों से जारी गिरावट के कारण सेंट्रल बैंक को क़दम उठाने पड़े। बैंक ने लाखों डॉलर बाज़ार में डाले ताकि थोड़ी स्थिरता आए। सेंट्रल बैंक के गवर्नर अब्दुलननसीर हेमत्ती ने इस क़दम को बुद्धिमानी और सही दिशा वाला बताया है।
उन्होंने बिना रक़म की जानकारी दिए बताया कि बैंक के पास पर्याप्त विदेशी मुद्रा का भंडार था। अर्थशास्त्रियों के मुताबिक़ कोरोना वायरस से उपजे आर्थिक संकट के दौर में चालू खाता और राजकोषीय घाटे पर हो रहे असर के कारण उन भंडारों का इस्तेमाल ज़रूरी हो गया है।
इस्टिट्यूट ऑफ़ इंटरनेशनल फाइनैंस में मिडिल ईस्ट एंड नॉर्थ अफ्रीका के मुख़्य आर्थिक सलाहकार गैब्रिस इरैडियन के मुताबिक़, ''बाज़ार में निवेश के लिए उनके पास सीमित विदेशी मुद्रा का भंडार है और अमरीका के प्रतिबंधों के अलावा अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से अलग-थलग पड़ने के कारण अब आगे होने वाले किसी तरह की गिरावट को रोक पाना मुमकिन नहीं होगा।''
साल 2015 में ईरान ने अमरीका समेत 6 देशों के साथ एक न्यूक्लियर डील साइन की थी, लेकिन साल 2018 में अमरीका ने डील रद्द कर दी और ईरान पर फिर से प्रतिबंध लगा दिए। इसके कारण ईरान की मुद्रा का मूल्य लगभग 70 प्रतिशत कम हो गया।
सरकार ने आयातकों के वित्तीय बोझ को कम करने के लिए कई एक्सचेंज दर तय करने की कोशिश की। लेकिन फ्री मार्केट में सेंट्रल बैंक के दख़ल के बाद भी रियाल की गिरावट जारी रही।
संयुक्त राष्ट्र वॉचडॉग ने ईरान को कहा है कि वो दो संदिग्ध पुराने परमाणु ठिकानों पर जाने की इज़ाजत दे। इसके अलावा कोरोना माहामारी के कारण व्यापक आर्थिक गिरावट से पैदा हुई नकारात्मकता के कारण हाल की गिरावट दर्ज की गई है। लेकिन ये भी बड़े बदलाव की ओर ले जा सकते हैं।
क्या बहिष्कार फ़ेसबुक को नुक़सान पहुंचा सकता है? इसका जवाब 'हां' है।
18वीं शताब्दी में हुए 'उन्मूलनवादी आंदोलन' (एबोलिशनिस्ट मूवमेंट) ने ब्रिटेन के लोगों को ग़ुलामों की बनाई हुई वस्तुओं को ख़रीदने से रोका।
इस आंदोलन का बड़ा असर हुआ। लगभग तीन लाख लोगों ने चीनी ख़रीदनी बंद कर दी, जिससे ग़ुलामी प्रथा को ख़त्म किए जाने का दबाव बढ़ा।
'स्टॉप हेट फ़ॉर प्रॉफ़िट' वो ताज़ा अभियान है जिसमें 'बहिष्कार' को राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है। इस मुहिम का दावा है कि फ़ेसबुक अपने प्लेटफ़ॉर्म पर नफ़रत से भरी और नस्लवादी सामग्री (कॉन्टेंट) हटाने की पर्याप्त कोशिश नहीं करता।
'स्टॉप हेट फ़ॉर प्रॉफ़िट' मुहिम ने कई बड़ी कंपनियों को फ़ेसबुक और कुछ अन्य सोशल मीडिया प्लैटफ़ॉर्म्स से अपने विज्ञापन हटाने के लिए राज़ी कर लिया है।
फ़ेसबुक से अपने विज्ञापन हटाने वालों में कोका-कोला, यूनीलीवर और स्टारबक्स के बाद अब फ़ोर्ड, एडिडास और एचपी जैसी नामी कंपनियां भी शामिल हो गई हैं।
समाचार वेबसाइट 'एक्सियस' के अनुसार माइक्रोसॉफ़्ट ने भी फ़ेसबुक और इंस्टाग्राम पर मई में ही विज्ञापन देना बंद कर दिया था। माइक्रोसॉफ़्ट ने अज्ञात 'अनुचित सामग्री' की वजह से फ़ेसबुक पर विज्ञापन देने बंद किए हैं।
इस बीच रेडिट और ट्विच जैसे अन्य ऑनलाइन प्लंटफ़ॉर्म्स ने भी अपने-अपने स्तर पर नफ़रत-विरोधी क़दम उठाए हैं और फ़ेसबुक पर दबाव बढ़ा दिया है।
तो क्या इस तरह के बहिष्कार से फ़ेसबुक को भारी नुक़सान हो सकता है?
इस सवाल का छोटा सा जवाब है - हां। क्योंकि फ़ेसबुक के रेवेन्यू का एक बड़ा हिस्सा विज्ञापनों से ही आता है।
अवीवा इन्वेस्टर्स के डेविड कमिंग ने बीबीसी से कहा कि फ़ेसबुक से लोगों का भरोसा उठ गया है और यूज़र्स को फ़ेसबुक के रवैये में नैतिक मूल्यों की कमी नज़र आई है। डेविम कमिंग का मानना है कि ये धारणाएं फ़ेसबुक के कारोबार को बुरी तरह नुक़सान पहुंचा सकती हैं।
शुक्रवार को फ़ेसबुक के शेयर की कीमतों में आठ फ़ीसदी गिरावट दर्ज की गई थी। नतीजन, कंपनी के सीईओ मार्क ज़करबर्ग को कम से कम साढ़े पांच खरब रुपयों का नुक़सान हुआ।
लेकिन क्या ये नुक़सान और बड़ा हो सकता है? क्या इससे आने वाले दिनों में फ़ेसबुक के अस्तित्व को ख़तरा पैदा हो सकता है? इन सवालों के स्पष्ट जवाब मिलने अभी बाकी हैं।
पहली बात तो ये है कि फ़ेसबुक बहिष्कार का सामना करने वाली पहली सोशल मीडिया कंपनी नहीं है।
साल 2017 में कई बड़े ब्रैंड्स ने ऐलान किया कि वो यूट्यूब पर विज्ञापन नहीं देंगे। ऐसा इसलिए हुआ था क्योंकि एक ख़ास ब्रैंड का विज्ञापन किसी नस्लभेदी और होमोफ़ोबिक (समलैंगिकता के प्रति नफ़रत भरा) वीडियो के बाद दिखाया गया था।
इस ब्रैंड के बहिष्कार को अब लगभग पूरी तरह भुला दिया गया है। यूट्यूब ने अपनी विज्ञापन नीतियों में बदलाव किया और अब यूट्यूब की पेरेंट कंपनी गूगल भी इस सम्बन्ध में ठीक काम कर रही है।
हो सकता है कि इस बहिष्कार का फ़ेसबुक को बहुत ज़्यादा नुक़सान न हो। इसके कुछ और कारण भी हैं।
पहली बात तो ये कि कई कंपनियों ने सिर्फ़ जुलाई महीने के लिए फ़ेसबुक का बहिष्कार करने की बात कही है। दूसरी बात ये कि फ़ेसबुक के रेवेन्यू का एक बड़ा हिस्सा छोटे और मध्यम कंपनियों के विज्ञापन से भी आता है।
सीएनएन की रिपोर्ट के अनुसार पिछले साल सबसे ज़्यादा ख़र्च करने वाले 100 ब्रैंड्स से फ़ेसबुक को तकरीबन तीन खरब रुपये की कमाई हुई थी और यह विज्ञापन से होने वाली कुल कमाई का महज़ छह फ़ीसदी था।
एडवर्टाइज़िंग एजेंसी डिजिटल ह्विस्की के प्रमुख मैट मॉरिसन ने बीबीसी को बताया कि बहुत-सी छोटी कंपनियों के लिए 'विज्ञापन न देना संभव नहीं है।'
मॉरिसन कहते हैं, "जो कंपनियां टीवी पर विज्ञापन के लिए भारी-भरकम राशि नहीं चुका सकतीं, उनके लिए फ़ेसबुक एक ज़रूरी माध्यम है। कारोबार तभी सफल हो सकता है जब कंपनियां अपने संभावित ग्राहकों तक पहुंच पाएं। इसलिए वो विज्ञापन देना जारी रखेंगी।''
इसके अलावा, फ़ेसबुक का ढांचा ऐसा है कि ये मार्क ज़करबर्ग को किसी भी तरह के बदलाव करने की ताक़त देता है। अगर वो कोई नीति बदलना चाहते हैं तो बदल सकते हैं। इसके लिए सिर्फ़ उनके विचारों को बदला जाना ज़रूरी है। अगर ज़करबर्ग कार्रवाई न करना चाहें तो नहीं करेंगे।
हालांकि पिछले कुछ दिनों में मार्क ज़करबर्ग ने बदलाव के संकेत दिए हैं। फ़ेसबुक ने शुक्रवार को ऐलान किया कि वो नफ़रत भरे कमेंट्स को टैग करना शुरू करेगा।
दूसरी तरफ़, बाकी कंपनियां ख़ुद से अपने स्तर पर कार्रवाई कर रही हैं।
सोमवार को सोशल न्यूज़ वेबसाइट रेडिट ने ऐलान किया कि वो 'द डोनाल्ड ट्रंप फ़ोरम' नाम के एक समूह पर प्रतिबंध लगा रहा है। इस समूह के सदस्यों पर नफ़रत और धमकी भरे कमेंट करने का आरोप है। ये समूह सीधे तौर पर राष्ट्रपति ट्रंप से नहीं जुड़ा था लेकिन इसके सदस्य उनके समर्थन वाले मीम्स शेयर करते थे।
इसके अलावा ऐमेज़न के स्वामित्व वाले वीडियो स्ट्रीमिंग प्लेटफ़ॉर्म ट्विच ने भी 'ट्रंप कैंपेन' द्वारा चलाए जाने वाले एक अकाउंट पर अस्थायी रूप से पाबंदी लगा दी है। ट्विच ने कहा है कि राष्ट्रपति ट्रंप की रैलियों के दो वीडियो में कही गई बातें नफ़रत को बढ़ावा देने वाली थीं।
इसमें से एक वीडियो साल 2015 (ट्रंप के राष्ट्रपति चुने जाने से पहले) का था। इस वीडियो में ट्रंप ने कहा था कि मेक्सिको बलात्कारियों को अमरीका में भेज रहा है।
ट्विच ने अपने बयान में कहा, "अगर किसी राजनीतिक टिप्पणी या ख़बर में भी नफ़रत भरी भावना है तो हम उसे अपवाद नहीं मानते। हम उसे रोकते हैं।''
ये साल सभी सोशल मीडिया कंपनियों के लिए चुनौती भरा होने वाला है और फ़ेसबुक भी इन चुनौतियों के दायरे से बाहर नहीं है। हालांकि कंपनियां हमेशा अपनी बैलेंस शीट को ध्यान में रखकर फ़ैसले लेती हैं। इसलिए अगर ये बहिष्कार लंबा खिंचता है और ज़्यादा कंपनियां इसमें शामिल हो जाती हैं तो ये साल फ़ेसबुक के लिए काफ़ी कुछ बदल देगा।
कोरोना वायरस महामारी के दौर में एक ओर जहां दुनिया की अर्थव्यवस्था चरमराई हुई है और नौकरियों पर संकट मंडरा रहा है, वहीं दूसरी ओर सोने और चांदी के दाम दिन-ब-दिन आसमान छू रहे हैं।
महामारी के बाद पहले से ख़स्ताहाल भारत की अर्थव्यवस्था और बुरी स्थिति में पहुंच चुकी है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) ने इस साल में भारत की विकास दर को लेकरअनुमान लगाया है कि यह 4.5 फ़ीसदी रह सकती है।
भारत ही नहीं आईएमएफ़ ने दुनिया की अर्थव्यवस्था के लिए इस विकास दर का आकलन 4.9 फ़ीसदी किया है।
इन सबके बीच एक ख़बर ज़रूर सबका ध्यान खींचती है, वो है सोने के दाम।
सोने की कीमत भारत में जून महीने की शुरुआत में 46,600 प्रति 10 ग्राम के आसपास थी जो अब 48,000 रुपये प्रति 10 ग्राम के पार पहुंच चुकी है।
वहीं, जून महीने में दुनिया में सोने के दामों में बीते आठ सालों में सबसे अधिक रिकॉर्ड बढ़ोतरी दर्ज की गई थी।
शुक्रवार को सोने के दामों में गिरावट ज़रूर दर्ज की गई लेकिन यह सिर्फ़ 400 रुपये के आसपास थी। विशेषज्ञों का मानना है कि सोने के दामों में अभी और तेज़ी देखने को मिलेगी।
भारत के प्रमुख मोटरसाइकिल निर्माताओं में से एक बजाज ऑटो के कर्मचारियों ने 250 कर्मचारियों के कोरोना वायरस से संक्रमित पाए जाने और दो की मौत के बाद प्रबंधन से पश्चिमी महाराष्ट्र के एक प्लांट को बंद करने के लिए कहा है।
महाराष्ट्र राज्य के यूनियन नेताओं का कहना है कि लोग काम पर आने को लेकर डरे हुए हैं। इस फ़ैक्ट्री में 8,000 लोग काम करते हैं।
वहीं, कंपनी का कहना है कि सुरक्षा के पर्याप्त उपायों के साथ कामकाज चालू रहेगा।
मार्च के आख़िर में लगे लॉकडाउन के बाद भारत के सभी उद्योग लगभग पूरी तरह ठप हो गए थे और दो महीने से भी अधिक समय के बाद अब जाकर उनमें कामकाज शुरू हुआ है।
कुछ दिनों पहले इंटरनेशनल एयर ट्रांसपोर्ट एसोसिएशन (आईएटीए) ने घोषणा की थी कि 2037 तक हवाई यात्रियों की संख्या 8.2 बिलियन तक पहुंच जाएगी और दुनिया भर में विमानन उद्योग यात्रियों की संख्या में होने वाली इस वृद्धि के लिए कमर कस रहा है। लेकिन कोरोना वायरस की गंभीर चोट से अन्य सेक्टर्स की तरह यह सेक्टर भी बर्बाद हो गया।
महामारी का असर इतना गहरा है कि देशों को अपनी सीमाएं बंद करनी पड़ीं और लॉकडाउन में विमानन उद्योग को अपने विमानों को खड़े रखना पड़ा।
इंटरनेशनल एयर ट्रांसपोर्ट एसोसिएशन (आईएटीए) के मुताबिक, हवाई यात्रा में 98 फ़ीसदी तक की कमी आई है और अनुमान लगाया गया कि दुनिया भर की एयरलाइंस कंपनियों को 2020 तक 84 बिलियन डॉलर का नुकसान होगा।
आईएटीए ने यह भी अनुमान लगाया है कि प्रति पैसेंजर रेवेन्यू में भी 2019 की तुलना में 2020 में 48 फीसदी की गिरावट आएगी और सबसे बड़ा ख़तरा तो विमानन उद्योग और इससे जुड़ी 3.2 करोड़ नौकरियों पर मंडरा रहा है।
कोरोना वायरस के कारण भारतीय विमानन क्षेत्र को भी आने वाले वक्त में मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। रेटिंग एजेंसी क्रिसिल ने अनुमान लगाया है कि भारतीय विमानन उद्योग को 24,000 से 25,000 करोड़ के रेवेन्यू का नुक़सान उठाना पड़ सकता है।
क्रिसिल इन्फ्रास्ट्रक्चर के ट्रांसपोर्ट और लॉजिस्टिक निदेशक जगनारायण पद्मनाभन ने एक प्रेस नोट के ज़रिए कहा, ''एयरलाइंस को लगभग 17 हज़ार करोड़, हवाई अड्डे के रिटेलर्स को 1,700 से 1,800 करोड़ रुपये और हवाई अड्डा ऑपरेटर्स को क़रीब 5,000 से 5,500 करोड़ रुपये तक का नुकसान होने की संभावना है।''
रेटिंग एजेंसी मूडीज़ ने भारत की रेटिंग गिरा दी है। रेटिंग का अर्थ क्रेडिट रेटिंग है जिसे आसान भाषा में साख भी कहा जा सकता है।
बाज़ार में किसी की साख ख़राब होने का जो मतलब है एकदम वही मतलब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में देश की रेटिंग गिर जाने का है। यानी क़र्ज़ मिलना मुश्किल होगा और जो क़र्ज़ पहले से ले रखे हैं उनकी वापसी का दबाव बढ़ेगा। मूडीज़ दुनिया की तीसरी बड़ी रेटिंग एजेंसी है जिसने भारत को डाउनग्रेड किया है। दो अन्य एजेंसियाँ फ़िच और स्टैंडर्ड एंड पूअर पहले ही ये रेटिंग गिरा चुकी थीं।
मूडीज़ के रेटिंग गिराने का अर्थ यह है कि भारत सरकार विदेशी बाज़ारों या घरेलू बाज़ारों में क़र्ज़ उठाने के लिए जो बॉंड जारी करती है अब उन्हें कम भरोसेमंद माना जाएगा। ये रेटिंग पिछले बाईस सालों में सबसे निचले स्तर पर पहुँच गई है। इससे पहले 1998 में रेटिंग गिराई गई थी, और वो इसी स्तर पर पहुँची थी। जब भारत के परमाणु परीक्षणों के बाद अमेरिका ने भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए थे।
ग़नीमत सिर्फ़ इतनी है कि मूडीज़ ने रेटिंग गिराकर Baa3 पर पहुंचाई है जिसे इन्वेस्टमेंट ग्रेड का सबसे निचला पायदान कहा जा सकता है। इसका अर्थ ये है कि भारत सरकार की तरफ से जारी होने वाले लंबी अवधि के बॉंड अभी निवेश के लायक माने जाएंगे, बस इनमें जोख़िम बढ़ा हुआ मानकर।
पिछले साल नवंबर में भी आशंका थी कि मूडीज़ रेटिंग गिरा सकता है, लेकिन तब उसने रेटिंग इससे एक पायदान ऊपर यानी Baa2 पर बरकरार रखी थी। हालाँकि उस वक़्त उसने भारत पर अपना नज़रिया बदल दिया था। यानी उसे समस्या की आशंका दिख रही थी। उसने भारत पर अपना आउटलुक बदलकर स्टेबल से निगेटिव कर दिया था।
तब विश्लेषकों ने कहा था कि ज़्यादा फ़िक्र की बात नहीं है क्योंकि अर्थव्यवस्था रफ़्तार पकड़ेगी और मूडीज़ का मूड भी बिगड़ने के बजाय सुधर जाएगा। लेकिन अब ये उम्मीद तो बहुत दूर की कौड़ी साबित हो रही है। और फ़िक्र की बात ये है कि रेटिंग गिराने के बाद भी मूडीज ने अपना आउटलुक निगेटिव ही रखा है। इसका सीधा मतलब यह है कि उसे यहाँ से हालात और ख़राब होने का डर है।
मूडीज़ ने रेटिंग गिराने के जो कारण बताए हैं उन पर भी नज़र डालना ज़रूरी है। उनके हिसाब से 2017 के बाद से देश में आर्थिक सुधार लागू करने का काम काफ़ी सुस्त पड़ा है। लंबे समय से आर्थिक तरक़्क़ी यानी जीडीपी ग्रोथ में बढ़त की रफ़्तार कमजोर दिख रही है। सरकारों के ख़ज़ाने की हालत काफ़ी ख़स्ता हो रही है, केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों का हाल ऐसा है। और भारत के वित्तीय क्षेत्र में लगातार स्ट्रेस या तनाव बढ़ रहा है। यहाँ तनाव का मतलब है क़र्ज़ दिया हुआ या लगाया हुआ पैसा वापस न आने या डूबने का ख़तरा।
और आउटलुक ख़राब होने का अर्थ है कि एजेंसी को भारत की अर्थव्यवस्था और वित्तीय ढाँचे में एक साथ जुड़े हुए कई खतरे दिख रहे हैं जिनके असर से भारत सरकार की माली हालत उससे भी कहीं और कमजोर हो सकती है जैसा अंदाज़ा एजेंसी अभी लगा रही है।
और सबसे ख़तरनाक या चिंताजनक बात यह है कि मूडीज़ के इस डाउनग्रेड की वजह कोरोना से पैदा हुआ आर्थिक संकट क़तई नहीं है। उसका कहना है कि इस महामारी ने सिर्फ़ उन ख़तरों को बड़ा करके दिखा दिया है जो भारतीय अर्थव्यवस्था में पहले से ही पनप रहे थे। इन्हीं ख़तरों को देखकर मूडीज़ ने पिछले साल अपना आउटलुक बदला था।
यहाँ यह याद रखना चाहिए कि उससे दो साल पहले नवंबर 2017 में मूडीज़ ने भारत की क्रेडिट रेटिंग बढ़ाई थी। उस वक़्त उसे उम्मीद थी कि भारत में कुछ ज़रूरी आर्थिक सुधार लागू किए जाएँगे जिनसे देश की माली हालत धीरे धीरे मज़बूत होगी। लेकिन अब उसे शिकायत है कि उस वक़्त के बाद से सुधारों की रफ़्तार भी धीमी रही है और जो हुए भी उनका ख़ास असर नहीं दिखता।
अब समझना ज़रूरी है कि रेटिंग गिरने का नुक़सान क्या है और इसका असर क्या हो सकता है? यह भी रेटिंग का फ़ैसला करते वक़्त जोड़ा जाता है।
भारत सरकार और राज्य सरकारें अनेक अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों से क़र्ज़ लेती हैं। मूडीज़ का ही कहना है कि कोरोना संकट आने से पहले ही सरकारों का क़र्ज़ देश की जीडीपी का बहत्तर परसेंट था और अब बदली परिस्थिति में यानी कोरोना संकट के बाद जब सरकारों को ख़र्च के लिए और पैसे की ज़रूरत पड़ रही है तो ऐसा अनुमान है कि यह बोझ बढ़कर जीडीपी के 84 परसेंट तक जा सकता है।
आप अपने बजट से हिसाब लगाइए। जब आप घर या कार के लिए बैंक से लोन लेने जाते हैं तो बैंक अफ़सर कहते हैं कि कुल मिलाकर आपके सारे क़र्ज़ों की ईएमआई आपकी कमाई के चालीस परसेंट से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए। अगर आप इससे ज़्यादा लोन लेना चाहते हैं तो फिर कोई प्राइवेट बैंक मिल जाता है या कोई एनबीएफसी मिल जाती है जो बाज़ार के रेट से ऊँचे रेट पर आपको लोन देते हैं। मुसीबत के मारों को पर्सनल लोन देने वाले कुछ प्राइवेट फाइनेंसर भी होते हैं जो तीन से चार गुना तक ब्याज वसूलते हैं और लेने वाले पहले से बड़ी मुसीबत में फँस जाते हैं।
इसी तरह रेटिंग गिरने के बाद जब कोई देश बॉंड जारी करता है या सीधे क़र्ज़ लेना चाहता है तो उसे ऊँचा ब्याज चुकाना पड़ता है क्योंकि उसको क़र्ज़ देना जोखिम का काम माना जाता है। देश की क्रेडिट रेटिंग गिरने के साथ ही देश की सभी कंपनियों की रेटिंग की अधिकतम सीमा भी वही हो जाती है। किसी भी रेटिंग एजेंसी के हिसाब में किसी भी निजी या सरकारी कंपनी की रेटिंग उस देश की सॉवरेन रेटिंग से ऊपर नहीं हो सकती। यानी अब प्राइवेट कंपनियों के लिए भी क़र्ज़ उठाना मुश्किल और महँगा हो जाता है। जिनके बॉंड या डिबेंचर पहले से बाज़ार में हैं उनके भाव गिर जाते हैं और उन पर रक़म वापस करने का दबाव बढ़ने लगता है।
अभी भारत की रेटिंग जहां पहुँची है वहाँ वो इन्वेस्टमेंट ग्रेड की आख़िरी पायदान पर है। यानी अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान अभी इसमें पैसा लगा सकते हैं। लेकिन अगर ये रेटिंग इससे नीचे खिसक गई तो दुनिया भर के बड़े वित्तीय संस्थानों में से बहुत सारे मजबूर हो जाएँगे कि वो भारत सरकार के या भारत की कंपनियों के जो भी बॉंड उनके पास हैं उनका पैसा तुरंत वापस माँगे या इन्हें औने-पौने भाव पर बाज़ार में बेच दें। ऐसा इसलिए क्योंकि इन फंड मैनेजरों के सामने ये निर्देश साफ़ है कि वो इन्वेस्टमेंट ग्रेड से नीचे के किसी भी इंस्ट्रुमेंट में पैसा नहीं लगाएँगे।
इसके बाद पैसा लगाने वाले कुछ फंड मिलते हैं लेकिन वो बिलकुल सूदखोर महाजनों की ही तरह होते हैं। ऐसी ही स्थिति में देश क़र्ज़ के जाल में फँसते हैं। इसीलिए ये रेटिंग गिरना बहुत फ़िक्र की बात है।
हालाँकि सिक्के का एक दूसरा पहलू भी है। इस वक़्त अगर रेटिंग की चिंता में सरकार ने खर्च रोकना शुरू कर दिया तो फिर इकोनॉमी को पटरी पर लाना बहुत मुश्किल होता जाएगा। यानी बिलकुल एक तरफ़ कुआँ और दूसरी तरफ खाई। लेकिन अनेक जानकार राय दे रहे हैं कि सरकार को कुछ समय तक रेटिंग की चिंता छोड़कर पूरा दम लगाकर इकोनॉमी में जान फूंकनी चाहिए और एक बार इकोनॉमी चल पड़ी तो रेटिंग सुधरने में भी बहुत वक़्त नहीं लगेगा।
मूडीज़ का भी अनुमान है कि इस वित्त वर्ष में क़रीब चार परसेंट की गिरावट के बाद भारत की अर्थव्यवस्था अगले साल तेज़ उछाल दिखाएगी। फिर भी उसे डर है कि आगे कई साल तकलीफ़ बनी रहेगी इसीलिए उसका नज़रिया कमजोर है। अब अगर सरकार कुछ ऐसा कर दे कि तस्वीर पलट जाए तो यह नज़रिया अपने आप ही बदल जाएगा।
भारत के केंद्रीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने शुक्रवार को बैंकों का लोन चुका रहे लोगों को राहत देते हुए लोन चुकाने की मियाद को और तीन महीनों के लिए आगे बढ़ाने की घोषणा की है।
रिज़र्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने कहा कि वैश्विक अर्थव्यवस्था मंदी की ओर बढ़ गई है। कोरोना महामारी के कारण सरकार की आय पर बुरा असर पड़ा है।
इससे पहले इसी साल 27 मार्च को आरबीआई ने बैंकों से लोन मोरैटोरियम की अवधि 3 महीनों के लिए बढ़ाने की सलाह दी थी।
रेपो रेट में कटौती
रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया के गवर्नर शक्तिकांत दास ने प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर रेपो रेट में 40 बेसिस पॉइंट की घोषणा की है। रेपो रेट 4.4 फ़ीसदी से कम कर चार फ़ीसदी कर दिया गया है।
रिज़र्व बैंक ने लॉडाउन के बाद लगातार तीन बार रेपो रेट में कटौती की है।
रेपो रेट में कटौती से बैंकों से मिलने वाले क़र्ज़ पर असर पड़ता है। इसका असर ब्याज दरों पर पड़ता है।
रिवर्स रेपो रेट में भी 40 बेसिस पॉइंट की कटौती की गई है और अब ये 3.35 फ़ीसदी हो गया है।
संयुक्त राष्ट्र की लेबर एजेंसी इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन ने कोविड-19 के समय में श्रम कानून के निलंबन और श्रमिकों के अधिकारों के हनन को लेकर भारत को चेताया है।
भारत के तीन प्रांतों उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात ने श्रम कानूनों को निलंबित कर दिया है। इन तीनों प्रांतों में भारत के केंद्र में सत्तारूढ़ बीजेपी का शासन है। उत्तर प्रदेश ने तीन साल के लिए श्रम कानूनों को निलंबित कर दिया है जबकि गुजरात में भी श्रम कानूनों को निलंबित किया जा रहा है। बीते अप्रैल महीने में ही गुजरात की फैक्ट्रियों में काम करने के घंटे को बढ़ाकर 12 घंटे रोज़ाना कर दिया गया है।
समाचार एजेंसी रायटर्स के मुताबिक अब तक छह राज्यों से इस तरह की ख़बरें सामने आयी हैं। कहा जा रहा है कि ये राज्य अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए ये कदम उठा रहे हैं। इनमें से ज़्यादातर वे राज्य हैं जहाँ केंद्र में सत्तारूढ़ बीजेपी की सरकारें हैं।
लेकिन इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन ने कहा है कि इस तरह का कोई भी कदम सरकार, श्रमिकों और नियोक्ताओं के बीच बातचीत के बाद ही लिया जा सकता है। ऐसा किए बिना श्रम क़ानून में किसी तरह का बदलाव अंतरराष्ट्रीय श्रम मानकों का उल्लंघन होगा।
कांग्रेस नेता और पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने कहा है कि मौजूदा वित्त मंत्री ने आर्थिक पैकेज का जो ब्यौरा दिया है उसमें लाखों ग़रीबों और भूखे अपने घरों को पैदल लौटते मज़दूरों के लिए कुछ भी नहीं है।
उन्होंने कहा कि सूक्ष्म, लघु और घरेलू उद्योगों के लिए दिए गए पैकेज के अलावा बाक़ी की घोषणाएँ निराशाजनक हैं।
भारत की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की ओर से केंद्र सरकार के 20 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज का ब्यौरा आने के बाद पूर्व वित्त मंत्री चिदंबरम ने सवाल किया, "वित्तमंत्री ने 20 लाख करोड़ के पैकेज में से केवल 3.6 लाख करोड़ रूपए का ब्यौरा दिया है, बाक़ी का 16.4 लाख करोड़ रूपया कहाँ गया?''
उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार अपने ही अज्ञान और भय में क़ैद है, उसे अधिक ख़र्च करना होगा, लेकिन वह ऐसा करने को तैयार नहीं है।
चिदंबरम ने कहा, "सरकार को अधिक उधार लेना चाहिए, लेकिन वह ऐसा करने को तैयार नहीं है। सरकार को राज्यों को अधिक उधार लेने और अधिक ख़र्च करने की अनुमति देनी चाहिए, लेकिन वह ऐसा करने के लिए तैयार नहीं है।''
चिदंबरम ने साथ ही कहा कि सरकार का सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योगों (MSMEs) के लिए कुछ समर्थन उपायों की घोषणा एक ठीक क़दम है लेकिन इसमें भी ख़ामी है।
उन्होंने कहा, "मेरा मानना है कि बड़े MSMEs (लगभग 45 लाख) के पक्ष में उपायों को मोड़ा गया है। मुझे लगता है कि 6.3 करोड़ MSMEs के बड़े समूह को नज़रअंदाज़ कर दिया गया है।''
वहीं कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने ट्वीट कर कहा, ''कल, आज और कल - कल 20,00,000 करोड़ का हेडलाइन पैकेज, आज 3,70,000 करोड़ का मात्र क़र्ज़ पैकेज, पर ''हेडलाइन से हेल्पलाइन पैकेज'' कब? न ग़रीब के हाथ में एक फूटी कौड़ी, न किसान के खाते में एक रूपया, न प्रवासी मज़दूर की घर वापसी या राशन, न दुकानदार/नौकरी पेशा को कुछ मिला।''
आर्थिक पैकेज पर प्रतिक्रिया देते हुए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि इसमें राज्यों के लिए कुछ भी नहीं है।
ममता बनर्जी ने कहा, "लोगों को उम्मीद थी कि राहत मिलेगी ... मगर उन्हें कुछ नहीं मिला। राज्यों के लिए कुछ भी नहीं है। केंद्र ज़बरदस्ती संघीय शासन लाद रहा है, आर्थिक पैकेज से लोगों को गुमराह कर रहा है।''
आम आदमी पार्टी के राज्य सभा सांसद संजय सिंह ने इस पैकेज को करोड़ों को लूट का इंतज़ाम बताया है।
उन्होंने ट्वीट किया, "आज के पैकेज से एक बात तो साफ़ हो गई कि जिन बेईमानों ने देश का लाखों करोड़ रुपये एनपीए के नाम पर पहले से ही लूट रखा है उन्हीं को फिर से सरकार ने लाखों करोड़ लूटने का इंतज़ाम कर दिया है। ग़रीब के हाथ कुछ नहीं लगा उसे भगवान भरोसे छोड़ दिया गया।''
निर्मला सीतारमण ने आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आत्मनिर्भर भारत अभियान के बीस लाख करोड़ रुपए के राहत पैकेज की पहली किस्त की घोषणा की। अगले कुछ दिनों में रोज़ाना राहत पैकेज की घोषणाएं की जाएंगी।