भारत में पांच तिमाही पहले अर्थव्यवस्था आठ प्रतिशत की दर से विकास कर रही थी। अब वो गिरते-गिरते पांच प्रतिशत पर पहुंच गई है। ऐसा नहीं है कि यह गिरावट एकाएक आई है।
वास्तव में ये पाँच प्रतिशत से भी कम है क्योंकि जो तिमाही विकास दर के आँकड़े हैं, वो संगठित और कॉर्पोरेट सेक्टर पर आधारित होते हैं।
असंगठित क्षेत्र को इसमें पूरी तरह शामिल नहीं किया जाता है, तो ये मान लिया जाता है कि असंगठित क्षेत्र भी उसी रफ़्तार से बढ़ रहा है, जिस रफ़्तार से संगठित क्षेत्र।
लेकिन चारों तरफ़ से ख़बरें आ रही हैं कि लुधियाना में साइकिल और आगरा में जूते जैसे उद्योगों से जुड़े असंगठित क्षेत्र बहुत बड़ी तदाद में बंद हो गए हैं।
असंगठित क्षेत्र का विकास दर गिर रहा है तो यह मान लेना कि असंगठित क्षेत्र, संगठित क्षेत्र की रफ़्तार से बढ़ रहा है, ग़लत है।
हमारे असंगठित क्षेत्र में 94 प्रतिशत लोग काम करते हैं और 45 प्रतिशत उत्पादन होता है। अगर जहां 94 प्रतिशत लोग काम करते हैं, वहां उत्पादन और रोज़गार कम हो रहे हैं तो वहां मांग घट जाती है।
यह जो मांग घटी है, वो नोटबंदी से बाद से शुरू हुआ। फिर आठ महीने बाद जीएसटी का असर पड़ा और उसके बाद बैंकों के एनपीए का असर पड़ा। इन सबके बाद ग़ैरबैंकिंग वित्तीय कंपनियों के संकट का असर पड़ा।
यानी अर्थव्यवस्था को तीन साल में तीन बड़े-बड़े झटके लगे हैं, जिनकी वजह से बेरोजगारी बढ़ी है। सीएमआई के आँकड़े दिखाते हैं कि भारत में कर्मचारियों की संख्या 45 करोड़ थी, जो घट कर 41 करोड़ हो गई है।
इसका मतलब यह है कि चार करोड़ लोगों की नौकरियां या काम छिन गए हैं। जब इतने बड़े तबके की आमदनी कम हो जाएगी तो ज़ाहिर सी बात है मांग घट जाएगी। जब मांग घट जाएगी तो उपभोग की क्षमता कम हो जाएगी और जब उपभोग की क्षमता कम हो जाएगी तो निवेश कम हो जाएगा।
भारत की अर्थव्यवस्था में निवेश की दर 2012-13 में सबसे ऊपर थी। उस वक़्त निवेश की दर 37 फ़ीसदी की दर से बढ़ रही थी और वो आज गिरकर 30 फ़ीसदी से कम हो गई है।
जब तक निवेश नहीं बढ़ता है, विकास दर नहीं बढ़ती है।
जो समस्या है, ये असंगठित क्षेत्र से शुरू हुई और अब वो धीरे-धीरे संगठित क्षेत्र पर भी असर डाल रही है। उदाहरण के तौर पर आप ऑटोमोबिल और एफ़एमसीजी सेक्टर को देख सकते हैं।
आपने पारले-जी बिस्किट की मांग घटने के बारे में सुना होगा। यह एक संगठित क्षेत्र है। इनका उपयोग असंगठित क्षेत्र से जुड़े लोग करते हैं। जब असंगठित क्षेत्र में आमदनी कम होगी तो मांग अपने-आप कम हो जाएगी। एफ़एमसीजी का भी यही हाल है।
अगर भारत की अर्थव्यवस्था छह या पाँच प्रतिशत की रफ़्तार से भी बढ़ रही है तो यह एक बहुत अच्छी रफ़्तार है। इसके बाद भी खपत कम क्यों हो रही है, इसे बढ़ना चाहिए था। निवेश भी पाँच प्रतिशत की रफ़्तार से बढ़ना चाहिए था।
जब खपत में कमी आई है, निवेश नहीं बढ़ रहा है तो यह दर्शाता है कि आर्थिक विकास दर पाँच, छह या सात प्रतिशत नहीं है बल्कि यह शून्य प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है, क्योंकि असंगठित क्षेत्र के आँकड़े इसमें शामिल ही नहीं किए जाते हैं।
जिस दिन आप असंगठित क्षेत्र के आँकड़े उसमें जोड़ लेंगे तो पता लग जाएगा कि विकास दर शून्य या एक प्रतिशत है। असंगठित क्षेत्र के आँकड़े पाँच सालों में एक बार इकट्ठे किए जाते हैं। इस दरमियान यह मान लिया जाता है कि असंगठित क्षेत्र भी उसी रफ़्तार से बढ़ रहा है जिस रफ़्तार से संगठित क्षेत्र।
यह अनुमान लगाना नोटबंदी के पहले तक तो ठीक था, लेकिन जैसे ही नोटबंदी की गई, उसका जबरदस्त असर पड़ा। असंगठित क्षेत्रों पर और उसकी गिरावट शुरू हो गई।
8 नवंबर 2016 के बाद जीडीपी के आँकड़ों में असंगठित क्षेत्र के विकास दर के अनुमान को शामिल करने का यह तरीक़ा ग़लत है।
यह भी कहा जा रहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था मंदी के दौर से गुज़र रही है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ अर्थव्यवस्था मंदी के दौर से नहीं सुस्ती के दौर से गुज़र रही है। जब विकास दर ऋणात्मक हो जाए तो उस स्थिति को मंदी का दौर माना जाता है।
लेकिन अभी जो आँकड़े सरकार ने प्रस्तुत किए हैं, अगर उनमें असंगठित क्षेत्र के आँकड़ों को शामिल कर लिया जाए तो भारतीय अर्थव्यवस्था मंदी के दौर गुजर रही है।
नोटबंदी के बाद असंगठित क्षेत्र पिट गया। उसके बाद जीएसटी लागू किया गया। हालांकि जीएसटी असंगठित क्षेत्रों पर लागू नहीं होता है।
संगठित क्षेत्रों पर जीएसटी का असर हुआ है। पिछले ढाई साल से जब से जीएसटी लागू हुआ है तब से 1400 से अधिक बदलाव किए गए हैं। इससे संगठित क्षेत्र के लोगों में उलझन बहुत बढ़ी है।
लोग जीएसटी फाइल नहीं कर पा रहे हैं। क़रीब 1.2 करोड़ लोगों ने जीएसटी के लिए रजिस्ट्रेशन करवाया है, लेकिन सिर्फ़ 70 लाख लोग जीएसटी फाइल करते हैं और एनुअल रिटर्न सिर्फ़ 20 प्रतिशत लोगों ने फाइल किया है।
तो कुल मिलाकर जीएसटी का अर्थव्यवस्था को जबरदस्त धक्का लगा है।
समस्या असंगठित क्षेत्र से शुरू होती है और संगठित क्षेत्र भी अछूता नहीं है। अर्थव्यवस्था में मंदी या फिर सुस्ती के चलते सरकार के टैक्स कलेक्शन में कमी आई है। पिछले साल जीएसटी में 80 हज़ार करोड़ की कमी आई और डायरेक्ट टैक्स में भी इतने की ही कमी आई।
कुल मिलाकर सरकारी ख़ज़ाने को 1.6 लाख करोड़ रुपए का घाटा हुआ। जब सरकार की आमदनी कम हुई तो उसने खर्चे कम कर दिए। जब खर्चे कम होंगे तो मंदी और गहरा जाएगी।
अब कहा जा रहा है कि बैंकों का विलय अर्थव्यवस्था को मज़बूती देगा। लेकिन ये बात ग़लत है। बैंकों के विलय का असर पाँच से दस साल बाद दिखेगा। उसका कोई तत्कालिक असर नहीं होगा।
सरकार की तरफ़ से दिए गए बयानों से यह बात स्पष्ट होती है कि उसने मान लिया है कि अर्थव्यवस्था कमज़ोर हुई है और एक के बाद एक पैकेज की घोषणा की जा रही है। आरबीआई भी घोषणा कर रहा है।
वे सभी अभी मंदी की बात नहीं कह रहे हैं, लेकिन धीरे-धीरे बाद में सब मंदी की बात कहने लगेंगे, जब असगंठित क्षेत्र के आँकड़ों को शामिल किया जाएगा।
आरबीआई ने 1.76 लाख करोड़ रुपए का पैकेज जारी किया है। इसका इस्तेमाल भी संगठित क्षेत्र के लिए किया जाएगा। असंगठित क्षेत्र के लिए किसी तरह के पैकेज की घोषणा नहीं की गई है। रोज़गार बढ़ाने के लिए पैकेज की घोषणा नहीं की गई है।
जहां से समस्या शुरू हुई है, उन क्षेत्रों पर सरकार का ध्यान नहीं है। जब तक इन क्षेत्रों के लिए पैकेज की घोषणा नहीं की जाएगी, तब तक कोई सुधार होता नहीं दिखेगा।