भारत के पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के मुताबिक़, कोरोना वायरस महामारी से हुए नुकसान से निबटने के लिए भारत को तत्काल तीन क़दम उठाने चाहिए।
बड़े तौर पर भारत में आर्थिक सुधार कार्यक्रम का श्रेय डॉ. मनमोहन सिंह को दिया जाता है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस हफ़्ते बीबीसी से ईमेल के ज़रिए बातचीत की है। कोरोना वायरस के चलते आमने-सामने बैठकर चर्चा की गुंजाइश नहीं थी। हालांकि, डॉ. सिंह ने एक वीडियो कॉल के ज़रिए इंटरव्यू से इनकार कर दिया।
ईमेल के ज़रिए हुई बातचीत में मनमोहन सिंह ने कोरोना वायरस संकट को रोकने और आने वाले वर्षों में आर्थिक स्थितियां सामान्य करने के लिए ज़रूरी तीन क़दमों का ज़िक्र किया है।
डॉ. सिंह के सुझाए तीन क़दम क्या हैं?
वे कहते हैं, पहला क़दम यह है कि सरकार को ''यह सुनिश्चित करना चाहिए कि लोगों की आजीविका सुरक्षित रहे और अच्छी-ख़ासी सीधे नक़दी मदद के ज़रिए उनके हाथ में खर्च लायक पैसा हो।''
दूसरा, सरकार को कारोबारों के लिए पर्याप्त पूंजी उपलब्ध करानी चाहिए। इसके लिए एक ''सरकार समर्थित क्रेडिट गारंटी प्रोग्राम चलाया जाना चाहिए।''
तीसरा, सरकार को ''सांस्थानिक स्वायत्तता और प्रक्रियाओं'' के ज़रिए वित्तीय सेक्टर की समस्याओं को हल करना चाहिए।
महामारी शुरू होने से पहले से ही भारत की अर्थव्यवस्था सुस्ती की चपेट में थी। 2019-20 में भारत की जीडीपी (ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट यानी सकल घरेलू उत्पाद) महज 4.2 फ़ीसदी की दर से बढ़ी है। यह बीते क़रीब एक दशक में इसकी सबसे कम ग्रोथ रेट है।
लंबे और मुश्किल भरे लॉकडाउन के बाद भारत ने अब अपनी अर्थव्यवस्था को धीरे-धीरे खोलना शुरू किया है। लेकिन, संक्रमितों की संख्या लगातार बढ़ रही है और ऐसे में भविष्य अनिश्चित जान पड़ रहा है।
गुरुवार को कोविड-19 केसों के लिहाज से भारत 20 लाख का आँकड़ा पार करने वाला तीसरा देश बन गया।
गहरी और लंबी चलने वाली आर्थिक सुस्ती
अर्थशास्त्री तब से ही चेतावनी दे रहे हैं कि वित्तीय वर्ष 2020-21 के लिए भारत की जीडीपी ग्रोथ में गिरावट आ सकती है और इसके चलते 1970 के दशक के बाद की सबसे बुरी मंदी देखने को मिल सकती है।
पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह कहते हैं, ''मैं 'डिप्रेशन' जैसे शब्द का इस्तेमाल नहीं करना चाहता, लेकिन एक गहरी और लंबी चलने वाली आर्थिक सुस्ती तय है।''
वे कहते हैं, ''मानवीय संकट की वजह से यह आर्थिक सुस्ती आई है। इसे महज़ आर्थिक आँकड़ों और तरीक़ों की बजाय हमारे समाज की भावना के नज़रिए से देखने की ज़रूरत है।''
पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. सिंह कहते हैं कि अर्थशास्त्रियों के बीच में भारत में आर्थिक संकुचन (इकनॉमिक कॉन्ट्रैक्शन यानी आर्थिक गतिविधियों का सुस्त हो जाना) को लेकर सहमति बन रही है। वे कहते हैं, ''अगर ऐसा होता है तो आज़ादी के बाद भारत में ऐसा पहली बार होगा।''
वे कहते हैं, ''मैं आशा करता हूं कि यह सहमति ग़लत साबित हो।''
बिना विचार किए लॉकडाउन लागू किया गया
भारत ने मार्च के अंत में ही लॉकडाउन लागू कर दिया था ताकि कोरोना वायरस को फैलने से रोका जा सके। कई लोगों का मानना है कि लॉकडाउन को हड़बड़ाहट में लागू कर दिया गया और इसमें इस बात का अंदाज़ा नहीं लगाया गया कि लाखों प्रवासी मज़दूर बड़े शहरों को छोड़कर अपने गाँव-कस्बों के लिए चल पड़ेंगे।
डॉ. सिंह का मानना है कि भारत ने वही किया जो कि दूसरे देश कर रहे थे और ''शायद उस वक़्त लॉकडाउन के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था।''
वे कहते हैं, ''लेकिन, सरकार के इस बड़े लॉकडाउन को अचानक लागू करने से लोगों को असहनीय पीड़ा उठानी पड़ी है। लॉकडाउन के अचानक किए गए ऐलान और इसकी सख़्ती के पीछे कोई विचार नहीं था और यह असंवेदनशील था।''
डॉ. सिंह के मुताबिक़, ''कोरोना वायरस जैसी सार्वजनिक स्वास्थ्य आपात स्थितियों से सबसे अच्छी तरह से स्थानीय प्रशासन और स्वास्थ्य अफसरों के ज़रिए निबटा जा सकता है। इसके लिए व्यापक गाइडलाइंस केंद्र की ओर से जारी की जातीं। शायद हमें कोविड-19 की जंग राज्यों और स्थानीय प्रशासन को कहीं पहले सौंप देनी चाहिए थी।''
डॉ. मनमोहन सिंह 90 के दशक के आर्थिक सुधारों के अगुवा रहे
एक बैलेंस ऑफ पेमेंट्स (बीओपी यानी किसी एक तय वक़्त में देश में बाहर से आने वाली कुल पूंजी और देश से बाहर जाने वाली पूंजी के बीच का अंतर) संकट के चलते भारत के तकरीबन दिवालिया होने की कगार पर पहुंचने के बाद बतौर वित्त मंत्री डॉ. सिंह ने 1991 में एक महत्वाकांक्षी आर्थिक सुधार कार्यक्रम की अगुआई की थी।
वो कहते हैं कि 1991 का संकट वैश्विक फैक्टर्स के चलते पैदा हुआ एक घरेलू संकट था। डॉ. सिंह के मुताबिक़, ''लेकिन, मौजूदा आर्थिक हालात अपनी व्यापकता, पैमाने और गहराई के चलते असाधारण हैं।''
वे कहते हैं कि यहां तक कि दूसरे विश्व युद्ध में भी ''पूरी दुनिया इस तरह से एकसाथ बंद नहीं हुई थी जैसी कि आज है।''
सरकार पैसों की कमी कैसे पूरी करेगी?
अप्रैल में नरेंद्र मोदी की बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार ने 266 अरब डॉलर के राहत पैकेज का ऐलान किया। इसमें नकदी बढ़ाने के उपायों और अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए सुधार के क़दमों का ऐलान किया गया था।
भारत के केंद्रीय बैंक रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया यानी आरबीआई ने भी ब्याज दरों में कटौती और लोन की किस्तें चुकाने में छूट देने जैसे क़दम उठाए हैं।
सरकार को मिलने वाले टैक्स में गिरावट आने के साथ अर्थशास्त्री इस बात पर बहस कर रहे हैं कि नक़दी की कमी से जूझ रही सरकार किस तरह से डायरेक्ट ट्रांसफर के लिए पैसे जुटाएगी, बीमारू बैंकों को पूंजी देगी और कारोबारियों को क़र्ज़ मुहैया कराएगी।
क़र्ज़ लेना ग़लत नहीं
डॉ. सिंह इसका जवाब उधारी को बताते हैं। वे कहते हैं, ''ज़्यादा उधारी (बौरोइंग) तय है। यहां तक कि अगर हमें मिलिटरी, हेल्थ और आर्थिक चुनौतियों से निबटने के लिए जीडीपी का अतिरिक्त 10 फ़ीसदी भी खर्च करना हो तो भी इससे पीछे नहीं हटना चाहिए।''
वे मानते हैं कि इससे भारत का डेट टू जीडीपी रेशियो (यानी जीडीपी और क़र्ज़ का अनुपात) बढ़ जाएगा, लेकिन अगर उधारी लेने से ''ज़िंदगियां, देश की सीमाएं बच सकती हैं, लोगों की आजीविकाएं बहाल हो सकती हैं और आर्थिक ग्रोथ बढ़ सकती है तो ऐसा करने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए।''
वे कहते हैं, ''हमें उधार लेने में शर्माना नहीं चाहिए, लेकिन हमें इस बात को लेकर समझदार होना चाहिए कि हम इस उधारी को कैसे खर्च करने जा रहे हैं?''
डॉ. सिंह कहते हैं, ''गुज़रे वक़्त में आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक जैसे बहुराष्ट्रीय संस्थानों से क़र्ज़ लेने को भारतीय अर्थव्यवस्था की कमज़ोरी माना जाता था, लेकिन अब भारत दूसरे विकासशील देशों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा मज़बूत हैसियत के साथ लोन ले सकता है।''
वे कहते हैं, ''उधार लेने वाले देश के तौर पर भारत का शानदार ट्रैक रिकॉर्ड है। इन बहुराष्ट्रीय संस्थानों से क़र्ज़ लेना कोई कमज़ोरी की निशानी नहीं है।''
पैसे छापने से बचना होगा
कई देशों ने मौजूदा आर्थिक संकट से उबरने के लिए पैसे छापने का फैसला किया है ताकि सरकारी खर्च के लिए पैसे जुटाए जा सकें। कुछ अहम देशों ने यही चीज़ भारत को भी सुझाई है। कुछ अन्य देशों ने इसे लेकर चिंता जताई है कि इससे महंगाई बढ़ने का ख़तरा पैदा हो जाएगा।
1990 के दशक के मध्य तक फिस्कल डेफिसिट (वित्तीय घाटा) की भरपाई सीधे तौर पर आरबीआई करता था और यह एक आम बात थी।
डॉ. सिंह कहते हैं कि भारत ''वित्तीय अनुशासन, सरकार और रिज़र्व बैंक के बीच संस्थागत स्वतंत्रता लाने और मुक्त पूंजी पर लगाम लगाने'' के साथ अब कहीं आगे बढ़ चुका है।
वे कहते हैं, ''मुझे पता है कि सिस्टम में ज़्यादा पैसे आने से ऊंची महंगाई का पारंपरिक डर शायद विकसित देशों में अब नहीं है। लेकिन, भारत जैसे देशों के लिए आरबीआई की स्वायत्तता को चोट के साथ ही, बेलगाम तरीक़े से पैसे छापने का असर करेंसी, ट्रेड और महंगाई के तौर पर भी दिखाई दे सकता है।''
डॉ. सिंह कहते हैं कि वे घाटे की भरपाई करने के लिए पैसे छापने को ख़ारिज नहीं कर रहे हैं बल्कि वे ''महज़ यह सुझाव दे रहे हैं कि इसके लिए अवरोध का स्तर बेहद ऊंचा होना चाहिए और इसे केवल अंतिम चारे के तौर पर तब इस्तेमाल करना चाहिए जब बाक़ी सभी विकल्पों का इस्तेमाल हो चुका हो।''
संरक्षणवाद से बचे भारत
वे भारत को दूसरे देशों की तर्ज़ पर ज़्यादा संरक्षणवादी (आयात पर ऊंचे टैक्स लगाने जैसे व्यापार अवरोध लगाना) बनने से आगाह करते हैं।
वे कहते हैं, ''गुजरे तीन दशकों में भारत की ट्रेड पॉलिसी से देश के हर तबके को बड़ा फ़ायदा हुआ है।''
एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के तौर पर आज भारत 1990 के दशक की शुरुआत के मुक़ाबले कहीं बेहतर स्थिति में है।
डॉ. सिंह कहते हैं, ''भारत की वास्तविक जीडीपी 1990 के मुक़ाबले आज 10 गुना ज़्यादा मज़बूत है। तब से भारत ने अब तक 30 करोड़ से ज्यादा लोगों को ग़रीबी से बाहर निकाला है।''
लेकिन, इस ग्रोथ का एक अहम हिस्सा भारत का दूसरे देशों के साथ व्यापार रहा है। भारत की जीडीपी में ग्लोबल ट्रेड की हिस्सेदारी इस अवधि में क़रीब पाँच गुना बढ़ी है।
इस संकट ने सबको सकते में डाला
डॉ. सिंह कहते हैं, ''भारत आज दुनिया के साथ कहीं ज़्यादा घुलमिल गया है। ऐसे में दुनिया की अर्थव्यवस्था में घटने वाली कोई भी चीज़ भारत पर भी असर डालती है। इस महामारी में वैश्विक अर्थव्यवस्था पर बुरी चोट लगी है और यह भारत के लिए भी एक चिंता की बात है।''
फ़िलहाल किसी को भी यह नहीं पता कि कोरोना वायरस महामारी का पूरा आर्थिक असर क्या है? न ही किसी को यह पता कि देशों को इससे उबरने में कितना वक़्त लगेगा?
वे कहते हैं, ''पिछले संकट मैक्रोइकनॉमिक संकट थे जिनके लिए आजमाए हुए आर्थिक टूल मौजूद हैं। अब हम एक महामारी से पैदा हुए आर्थिक संकट का सामना कर रहे हैं जिसने समाज में अनिश्चितता और डर भर दिया है। इस संकट से निबटने के लिए मौद्रिक नीति को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करना कारगर साबित नहीं हो रहा है।''
भारत की सबसे बड़ी ऑटोमोबाइल कंपनी मारुति सुज़ुकी को पिछले पंद्रह सालों में पहली बार तिमाही में घाटा हुआ है। कोरोना लॉकडाउन के कारण कंपनी के उत्पादन और बिक्री पर बुरा असर पड़ा था।
30 जून को ख़त्म होने वाली तिमाही में कंपनी को 2.49 अरब रुपए का नुक़सान हुआ है। पिछले साल कंपनी ने इसी अवधि के दौरान 14.36 अरब रुपए का मुनाफ़ा कमाया था।
वित्तीय वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही के दौरान कंपनी की बिक्री में पिछले साल की तुलना में 80 फ़ीसदी की गिरावट दर्ज की गई है। इस साल की पहली तिमाही में कंपनी महज 76,599 यूनिट्स गाड़ियां ही बेच पाई है।
हालांकि कंपनी का कहना है कि उसने लॉकडाउन के कारण 22 मार्च से उत्पादन रोक दिया था, इसलिए बिक्री के आंकड़ें तुलना के लिहाज से ठीक नहीं हैं।
कोरोना संकट के बीच अमरीकी डॉलर में बुधवार को जबर्दस्त गिरावट देखी गई। कहा जा रहा है कि अमरीकी डॉलर पिछले दो सालों के अपने सबसे निचले स्तर पर है।
इसके साथ ही अमरीका के सेंट्रल बैंकिंग सिस्टम 'फेडरल रिज़र्व' पर गिरावट को रोकने के लिए ब्याज दरों में कमी जैसे ज़रूरी क़दम उठाए जाने का दबाव बढ़ गया है।
हालांकि बाज़ार को उम्मीद है कि सरकार फ़िलहाल शांत रहेगी लेकिन अमरीका में कोरोना संक्रमण के मामले और तनाव का माहौल जिस तरह से बढ़ रहा है, उसे देखते हुए कुछ विश्लेषकों का अनुमान है कि 'फेडरल रिज़र्व' कोई बड़ा दूरगामी क़दम उठा सकता है।
जापान के सबसे बड़े बैंकों में से एक एमयूएफ़जी बैंक के हेड ऑफ़ रिसर्च डेरेक हालपेन्नी ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स को बताया, ''इन बातों का मतलब हुआ कि हमें आर्थिक विकास की ज़्यादा निराशाजनक हालात की उम्मीद करनी चाहिए। हमें कुछ हद तक अमरीकी डॉलर पर भी ध्यान देना चाहिए।''
दूसरी मुद्राओं की तुलना में अमरीकी डॉलर में इस बुधवार को 0.4 फ़ीसदी की गिरावट दर्ज की गई। जून, 2018 के बाद से ये अमरीकी डॉलर का सबसे निचला स्तर है।
'फेडरल रिज़र्व' की आख़िरी मीटिंग के बाद से अमरीकी डॉलर तीन फ़ीसदी कमज़ोर हुआ है। अमरीकी उपभोक्ताओं का भरोसा जुलाई में उम्मीद से ज़्यादा कमज़ोर हुआ है।
इससे संकेत मिलता है कि कोरोना संक्रमण के बढ़ते मामलों के कारण लोग खर्च कम कर रहे हैं।
नोमुरा सिक्योरिटी के मार्केट एक्सपर्ट युजिरो गोटो कहते हैं, ''संक्रमण की दूसरी लहर की चिंताओं को देखते हुए बाज़ार को लगता है कि फेडरल रिज़र्व ब्याज दरों में कमी का फ़ैसला करेगा।''
भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर उर्जित पटेल ने अपनी नई किताब 'ओवरड्राफ़्ट: सेविंग द इंडियन सेवर' की रिलीज़ के दौरान बैंकरप्सी क़ानून के नियमों में ढील दिए जाने पर केंद्र की मोदी सरकार की आलोचना की है।
उर्जित पटेल ने कहा है कि केंद्र सरकार ने इंसॉल्वेंसी और बेंकरप्सी क़ानून के नियमों में ढील दी और केंद्रीय बैंक की शक्तियों में भी कमी की है जिससे एनपीए की समस्या को हल करने के लिए साल 2014 से जो कोशिशें की गई थीं, उन पर नकारात्मक असर पड़ा है।
सितंबर 2016 से लेकर दिसंबर 2018 तक आरबीआई के गवर्नर पद पर रहे उर्जित पटेल ने बताया कि आरबीआई चाहता था कि बैंकरप्सी क़ानून को सख़्त बनाया जाए ताकि भविष्य में जो कंपनियां डिफ़ॉल्ट करने की फ़िराक़ में हों उन्हें सबक़ मिले।
फ़रवरी 2018 में आरबीआई की तरफ़ से एक सर्कुलर जारी किया गया था। इसमें कहा गया था कि जो भी लेनदार राशि नहीं चुका रहा है उन्हें डिफ़ॉल्टर्स की लिस्ट में डाला जाए। इसके अलावा सर्कुलर में यह भी कहा गया था कि जो कंपनी डिफ़ॉल्ट कर जाएगी उसके प्रमोटर इनसॉल्वेंसी ऑक्शन के दौरान कंपनी में हिस्सेदारी बायबैक नहीं कर सकते हैं। सरकार की इस पर राय जुदा थी। सरकार इस बात से सहमत नहीं थी।
उन्होंने बताया कि सर्कुलर के आने तक उनकी और सरकार की राय एक थी, उनकी वित्त मंत्री से बातचीत भी होती थी लेकिन इस सर्कुलर के आने के बाद उनकी और सरकार की राय जुदा हो गई। उन्होंने बताया कि सरकार चाहती थी कि बैंक अपना सर्कुलर वापस ले ले लेकिन बैंक ने ऐसा करने से इंकार कर दिया था।
मलेशिया का पाम तेल कारोबार भारत से तनाव के कारण कुछ महीनों तक प्रभावित रहा था लेकिन अब कोरोना की महामारी ने पाम फसल की उपज में 25 फ़ीसदी की गिरावट ला दी है। आने वाले हफ़्तों में यह गिरावट और बढ़ेगी।
ऐसा श्रमिकों की कमी के कारण हो रहा है। मलेशियाई पाम तेल एसोसिएशन (MPOA) ने सोमवार को कहा कि सरकार के उस फ़ैसले का पाम तेल के उत्पादन पर गहरा असर पड़ा है जिसमें नए विदेशी श्रमिकों की बहाली को रोक दिया गया है।
सरकार ने दिसंबर महीने तक नए विदेशी श्रमिकों की बहाली कोरोना के कारण रोक दी है। विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार के इस फ़ैसले से मलेशिया की पाम तेल इंडस्ट्री चौपट हो सकती है।
MPOA के सीईओ नजीब वहाब ने एक कॉन्फ़्रेंस में कहा, ''कोविड 19 से पहले ही हमारे पास क़रीब 36 हज़ार श्रमिक कम थे। हमारा उत्पादन 10 फीसदी से 25 फीसदी गिर गया है।''
मलेशिया दुनिया का दूसरा बड़ा पाम तेल उत्पादक देश है। लेकिन मलेशिया की यह इंडस्ट्री इंडोनेशिया और बांग्लादेश के श्रमिकों पर निर्भर है। मलेशिया पाम फसल के प्लांटेशन 84 फ़ीसदी श्रमिक बांग्लादेश और इंडोनेशिया के हैं। हज़ारों श्रमिक वापस चले गए हैं और उनकी जगह पर नई भर्तियां बंद कर दी गई हैं।
श्रमिकों की कमी के कारण पाम के फल निकालने में देरी हो सकती है और इसका असर तेल उत्पादन पर सीधा पड़ेगा। सितंबर महीने में पाम तेल का उत्पादन बड़े पैमाने पर होता है और पूरी इंडस्ट्री श्रमिकों की कमी से जूझ रही है।
नजीब ने कहा कि प्लांटेशन कंपनी सक्रिय रूप से स्थानीय लोगों की नियुक्ति कर रहे हैं ताकि सरकार की नीति का पालन किया जा सके लेकिन स्थानीय लोग गंदगी के कारण इस काम में लगना नहीं चाहते हैं।
ऐसे में श्रमिकों की कमी को पाटना आसान नहीं है। नजीब ने कहा कि अगर स्थानीय लोगों से ज़रूरतें पूरी नहीं हो पाती है तो फिर सरकार की मदद चाहिए।
डिप्टी प्लांटेशन इंडस्ट्रीज और उत्पाद मंत्री विली मोंगिन ने कहा है कि मंत्रालय समस्या को निपटाने के लिए काम कर रहा है।
उन्होंने कहा कि मलेशिया विश्व व्यापार संगठन में शिकायत करने की तैयारी कर रहा है क्योंकि यूरोपीय यूनियन ने पाम तेल का इस्तेमाल बायोफ़्यूल के रूप में करने पर पाबंदी लगा दी है।
कोरोना वायरस महामारी की वजह से दुनिया भर के देशों की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ा है। इंडोनेशिया ने अपनी अर्थव्यवस्था पर महामारी के असर को सीमित करने के लिए कारोबार के लिए टैक्स छूट बढ़ाने का फ़ैसला किया है।
इंडोनेशिया के टैक्स ऑफिस ने शनिवार को कहा है कि सितंबर महीने में टैक्स में दी गई राहत ख़त्म हो रही थी, जिसे दिसंबर महीने तक बढ़ा दिया गया है। इसमें मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर और मध्यम-लघु आकार के उद्योगों को टैक्स ब्रेक की सुविधा दी जाएगी।
इसके अलावा, कॉर्पोरेट टैक्स की किस्तों में भी छूट दी जाएगी। इंडोनेशिया की सरकार ने कोरोना महामारी से निपटने के लिए 50 अरब डॉलर का पैकेज दिया है। राहत पैकेज और राजस्व में आई कमी की वजह से साल 2020 के लिए इंडोनेशिया का बजट घाटा अनुमान से तीन गुना ज्यादा बढ़ने की आशंका है।
यह इंडोनेशिया की जीडीपी के 6.34 फीसदी तक पहुंच सकता है। इंडोनेशिया की वित्त मंत्री श्रीमुलयानी इंद्रावती ने पहले कहा था कि कंपनियों को दिवालिया होने से बचाने के लिए टैक्स ब्रेक की सुविधा दी गई है।
समाचार एजेंसी एएफ़पी के मुताबिक़, सिंगापुर साल की दूसरी तिमाही में मंदी में चला गया है क्योंकि व्यापार आधारित सिंगापुर की अर्थव्यवस्था में तिमाही दर तिमाही 41.2 फ़ीसद की गिरावट देखी गई है।
वाणिज्य मंत्रालय के मुताबिक़, पिछले साल के मुक़ाबले देखा जाए तो अप्रैल से जून के बीच सिंगापुर की अर्थव्यवस्था में 12.6 फ़ीसदी की दर से गिरावट आई है क्योंकि कोरोना वायरस संक्रमण को रोकने के लिए कठोर प्रतिबंध लगाए गए थे।
इस तरह अर्थव्यवस्था में गिरावट का ये दूसरा हफ़्ता है जब दुनिया की सबसे खुली अर्थव्यवस्थाओं में से एक सिंगापुर की अर्थव्यवस्था में गिरावट देखी गई है।
बीते दस सालों में ये पहला मौक़ा है जब सिंगापुर मंदी के दौर में गया है।
सिंगापुर के वाणिज्य मंत्रालय ने अपने बयान में कहा है कि ''दूसरी तिमाही में जीडीपी में जो भारी गिरावट आई है, उसके लिए सात अप्रैल से एक जून के बीच कोरोना वायरस के प्रसार को कम करने के लिए लगाए गए प्रतिबंध ज़िम्मेदार हैं। इन प्रतिबंधों के तहत सभी ग़ैर-ज़रूरी सेवाओं और ज़्यादातर सभी काम की जगहों को बंद कर दिया गया था।''
सरकारी बयान में ये भी कहा गया है कि इस मंदी के लिए दुनिया भर में आ रही आर्थिक गिरावट की वजह से बाहरी मांग में आने वाली कमी भी ज़िम्मेदार है।
वैश्विक व्यापार की सेहत बताने वाले बैरोमीटर के रूप में देखा जाने वाला सिंगापुर बाहरी झटकों के लिए बेहद संवेदनशील है। ऐसे में सिंगापुर के डराने वाले आँकड़े वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए भी ख़तरनाक संकेत दे रहे हैं।
एशियाई बाज़ारों में सोमवार को व्यापार की शुरुआत में तेल की क़ीमतों में गिरावट दर्ज की गई। ये ऐसे समय में हुआ है जब ट्रेडर्स ओपेक की उस बैठक के नतीजों का इंतज़ार कर रहे थे जिसमें तेल आपूर्ति को बढ़ाने का सुझाव आने की उम्मीद है। बीते कुछ समय से तेल आपूर्ति में कमी लाए जाने की वजह से कच्चे तेल की क़ीमतों में उछाल देखा गया है।
ब्रेंट क्रूड ऑयल के दाम में सोमवार सुबह 6:44 मिनट पर 27 सेंट की कमी दर्ज की गई जिसके बाद इसकी क़ीमत 42.97 अमरीकी डॉलर प्रति बैरल हो गई। वहीं, वेस्ट टेक्सस इंटरमीडिएट क्रूड ऑयल 28 सेंट की कमी के साथ 40.27 अमरीकी डॉलर प्रति बैरल के स्तर तक पहुंच गया।
बीते हफ़्ते कई तेल की क़ीमतों में भारी बदलाव देखने को नहीं मिला है। ये तब हुआ जब अमरीकी प्रांतों में कोरोना वायरस के मामले बढ़ने के बाद आवाजाही में प्रतिबंध लगाए गए। ये प्रतिबंध दुनिया के सबसे बड़े तेल उपभोक्ता देश में तेल की खपत कम कर सकते हैं।
लेकिन शुक्रवार को तेल की कीमतों में दो फ़ीसदी की बढ़त देखी गई जब इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी ने साल 2020 में तेल की माँग के अपने अनुमान में बढ़त करते हुए प्रतिदिन चार लाख बैरल तेल की माँग होने की बात कही।
अप्रैल में तेल के दाम अपने दशकों पुराने स्तर पर थे। लेकिन ओपेक प्लस कहे जाने वाले ओपेक और उसके सहयोगियों, जिनमें रूस भी शामिल है, ने तीन महीनों के लिए मई से तेल की आपूर्ति में 9.7 मिलियन बैरल प्रतिदिन की कमी लाने का फ़ैसला किया।
ओपेक की जॉइंट मिनिस्टेरियल मॉनिटरिंग कमेटी आगामी मंगलवार और बुधवार को आने वाले दिनों के हिसाब से कमी करने का फ़ैसला करेगी।
तेल की वैश्विक माँग और कीमतों में सुधार के बाद ओपेक और रूस तेल की आपूर्ति में बढ़ोतरी कर सकते हैं।
एक्सीकॉर्प में वैश्विक बाज़ारों के रणनीतिकार स्टीफेन इनेस कहते हैं, ओपेक प्लस के समझौते के मुताबिक़ अगले महीने से तेल उत्पादन और अमरीका के उत्पादन में कमी से आपूर्ति के समीकरण पर दबाव बन सकता है।''
पूर्वी शक्तियों की ओर से लगाए गए प्रतिबंध के बाद लीबिया ने बीते शुक्रवार को पहली बार छह महीने में अपना कच्चा तेल निर्यात किया है। लेकिन इसके बाद रविवार को एक बार फिर तेल निर्यात पर प्रतिबंध लग गया है।
लीबिया की नेशनल ऑयल कॉरपोरेशन ने संयुक्त अरब अमीरात पर आरोप लगाया है कि उसने लीबिया के गृह युद्ध की पूर्वी ताकतों को निर्देश देकर तेल निर्यात पर एक बार फिर प्रतिबंध लगवाया है।
भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने कहा है कि कोरोना वायरस बीते 100 सालों में सामने आया सबसे बड़ा आर्थिक और स्वास्थ्य संकट है जो उत्पादन, रोजगार और लोगों की सेहत पर अभूतपूर्व नकारात्मक असर डालेगा।
आरबीआई गवर्नर शक्तिकांत दास ने ये बात एसबीआई बैंकिंग एंड इकोनॉमिक कॉनक्लेव के दौरान कही है।
उन्होंने कहा है कि इस संकट ने वर्तमान वैश्विक तंत्र, वैश्विक आपूर्ति तंत्र, श्रम और पूंजी के प्रवाह को प्रभावित किया है, और ये महामारी हमारे आर्थिक और वित्तीय ढांचे की मजबूती और बर्दाश्त करने की क्षमता के लिए शायद सबसे बड़ी परीक्षा होगी।
290 एयरलाइंस कंपनियों का प्रतिनिधित्व करने वाली इंटरनेशनल एयर ट्रांसपोर्ट एसोशिएसन का अनुमान है कि दुनिया भर की एयरलाइंस कंपनियों को 84 अरब डॉलर का नुकसान होगा। इसके साथ ही दस लाख लोगों की नौकरियां ख़त्म हो जाएंगी।
इस हफ़्ते अमरीका की तीन सबसे बड़ी विमानन कंपनियों में से एक यूनाइटेड एयरलाइंस ने अपने कर्मचारियों को चेतावनी दी है कि वह हवाई यात्राओं में भारी कमी आने की वजह से अपने 36000 नौकरियों में कमी ला सकती है।
इंवेस्टमेंट फर्म कोवेन में प्रबंध निदेशक और सीनियर रिसर्च एनालिस्ट हेलेन बेकर कहती हैं कि इस महामारी की वजह से अमरीकी विमानन कंपनियां अपने 7.5 लाख कर्मचारियों में से दो लाख कर्मचारियों की छुट्टी कर सकती हैं।
अमरीकी विमानन कंपनियों के संघ ट्रंप सरकार पर 25 अरब डॉलर के बेल आउट पैकेज़ को बढ़ाने का दबाव डाल रहे हैं।
सरकार की ओर से जारी की गई मदद लेने के लिए विमानन कंपनियों को आगामी सितंबर महीने तक लोगों को नौकरियों पर रखना होगा।
लेकिन आईएटीए कहती है कि ऐसा करने से व्यापक लाभ होंगे।
आईएटीए के प्रवक्ता ने कहा है कि विमानन क्षेत्र में जितनी नौकरियां जा रही हैं, वो ये बताता हैं कि विमानन क्षेत्र और वे सभी जो कि एयर कनेक्टिविटी पर निर्भर हैं कितना गंभीर आर्थिक संकट झेल रहा है।
इसके साथ ही ये भी कहा गया है कि सरकार की ओर से लोगों को कोरोना वायरस से बचाने के लिए लगाए प्रतिबंध पूरी तरह समझ में आते हैं लेकिन ऐसा करते हुए इन कदमों के आर्थिक और सामाजिक परिणामों को ध्यान में रखा जाना चाहिए।