कोरोना वायरस महामारी के कारण इस साल अप्रैल में अमरीका में 2.05 करोड़ लोग बेरोज़गार हुए हैं जिसके बाद यहां बेरोज़गारी दर बढ़ कर 14.7 फीसदी हो गई है।
1930 में आए ग्रेट डिप्रेशन के बाद से ये बेरोज़गारी दर अब तक सबसे ज्यादा है।
दो महीने पहले तक देश में बेरोज़गारी की दर 3.5 फीसदी थी जो बीते पचास सालों में सबसे कम था।
हालांकि अमरीकी राष्ट्रपति ने कहा है कि उन्हें बेरोज़गारी दर के बढ़ने की पूरी आशंका था और उन्हें उम्मीद है कि भविष्य में अर्थव्यवस्था में विकास होगा।
फॉक्स न्यूज़ चैनल पर एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि अप्रैल में नौकरियां जाने की बात ''चौंकाने वाली'' नहीं है और इसकी उन्हें ''पूरी आशंका'' थी।
फॉक्स ऐंड फ्रेंड्स नाम के इस कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि "इसके लिए डेमोक्रेट नेता भी उन्हें दोष नहीं दे रहे। लेकिन जो काम मैं कर सकता हूं वो है इन नौकरियों को फिर से वापस लाना।''
कोरोना महामारी की शुरुआत के वक्त से ही इसका असर अमरीका की अर्थव्यवस्था पर पड़ता दिख रहा है और यहां बीते सालों की अपेक्षा विकास दर में गिरावट नज़र आ रही है।
कोरोना के कारण दुकानें बंद हैं और रीटेल सेल्स में रिकॉर्ड गिरावट आई है।
सरकार के ब्यूरो ऑफ़ लेबर स्टैटिस्टिक्स की प्रमुख रह चुकी अर्थशात्री एरिका ग्रोशेन मौजूदा स्थिति को ऐतिहासिक बताती हैं। वो कहती हैं, "इस महामारी से मुक़ाबला करने के लिए हमने अपनी अर्थव्यवस्था को एक तरह के कोमा में डाल दिया है। इसका नतीजा ये हुआ है कि बड़े पैमाने पर लोगों की नौकरियां छिन गई हैं।''
एरिका ग्रोशेन फ़िलहाल कॉर्नेल यूनिवर्सिटी में पढ़ाती हैं।
अमरीकी लेबर विभाग की रिपोर्ट के अनुसार अर्थव्यवस्था के सभी सेक्टर में गिरावट दर्ज की जा रही है।
सबसे अधिक प्रभावित हॉस्पिटालिटी सेक्टर है जहां क़रीब 77 लाख नौकरियां गई हैं। वहीं शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में करीब 25 लाख नौकरियां और रीटेल सेक्टर में क़रीब 21 लाख लोगों की नौकरियां गई हैं।
लेबर विभाग का कहना है कि 1.81 करोड़ नौकरियां अस्थाई रूप से गई हैं और कंपनियों को उम्मीद है कि स्थिति में सुधार के साथ अर्थव्यवस्था भी फिर से दुरुस्त हो जाएगी।
हालांकि अर्थशास्त्रियों का मानना है कि इस महामारी के कारण कंपनियों के काम करने के तरीकों में बदलाव होगा और इसका असर लंबे वक्त तक रह सकता है।
उनका मानना है कि लॉकडाउन जितनी अधिक समय तक रहेगा, अर्थव्यवस्था को नुक़सान उतना ही अधिक होगा।
भारत में बीमा उद्योग का नियमन करने वाली सरकारी एजेंसी भारतीय बीमा विनियामक और विकास प्राधिकरण (आईआरडीएआई) ने बीमाधारकों के लिए बड़ी राहत की घोषणा की है।
कोरोना संकट के समय बीमाधारकों को आईआरडीएआई ने जीवन बीमा के प्रीमियम की रकम चुकाने के लिए 30 और दिनों की मोहलत दी है। ये राहत जीवन बीमा की उन पॉलिसीज के लिए है जिनके रिनवल की तारीख मार्च और अप्रैल के महीने में पड़ रही थी।
हेल्थ पॉलिसी और मोटर बीमा के मामले में तीसरी पार्टी के बीमा के प्रीमियम भुगतान के लिए आईआरडीएआई ने पहले ही अतिरिक्त समय देने की घोषणा कर रखी है। साधारण बीमा को दी गई छूट के बाद जीवन बीमा मुहैया कराने वाली कंपनियों ने आईआरडीएआई से 30 और दिनों की मोहलत दिए जाने की मांग की थी।
भारत की राजधानी दिल्ली में रह रहे हज़ारों ग़रीब सरकार की ओर से मिलने वाले राशन के लिए लगने वाली कतार में खड़े हैं। जिन फैक्ट्रियों में ये हजारों गरीब दैनिक मज़दूरी करते थे वो बंद हो गई है और उनकी आमदनी का ज़रिया भी ठप हो गया है। आने वाले वक़्त में ये गरीब लोग अपने परिवार का पेट कैसे भरेंगे? इसकी चिंता उन्हें सता रही है।
भारत की केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, ''कोई भी भूखा न रहे, सरकार इसका प्रयास कर रही है।''
लेकिन जिन कतारों में हजारों गरीब खड़े हैं वो बहुत लंबी हैं और खाने की मात्रा पर्याप्त नहीं है।
कोरोना वायरस के संक्रमण की वजह से जिस वक़्त भारत में लाखों लोग घरों में हैं और वो ऑनलाइन डिलिवरी सिस्टम का भरपूर फायदा उठा रहे हैं और घर बैठे मनचाही चीज़ें भी हासिल कर पा रहे हैं, उसी वक़्त भारत में हज़ारों लोग सड़कों पर हैं। उनके सामने रोज़ी और भोजन का संकट है।
यह विकट संकट की घड़ी है। 130 करोड़ आबादी वाले भारत में तीन हफ़्तों के लिए लॉकडाउन घोषित किया गया है। लोगों को घरों में रहने के लिए कहा गया है और कारोबार पूरी तरह ठप हैं। बड़ी संख्या में लोग घरों से काम कर रहे हैं और प्रोडक्टिविटी में भारी गिरावट देखने को मिल रही है।
बीते सप्ताह भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए आर्थिक उपायों की घोषणा करते हुए कहा था, ''दुनिया भर के देश एक अदृश्य हत्यारे से लड़ने के लिए लॉकडाउन कर रहे हैं।''
कोरोना वायरस के भारत में पहुंचने से पहले ही भारत की अर्थव्यवस्था की हालत चिंताजनक थी।
कभी दुनिया की सबसे तेज़ गति से बढ़ने वाली भारत की अर्थव्यवस्था की विकास दर बीते साल 4.7 फ़ीसदी रही। यह छह सालों में विकास दर का सबसे निचला स्तर था।
साल 2019 में भारत में बेरोज़गारी 45 सालों के सबसे अधिकतम स्तर पर थी और पिछले साल के अंत में भारत के आठ प्रमुख क्षेत्रों से औद्योगिक उत्पादन 5.2 फ़ीसदी तक गिर गया। यह बीते 14 वर्षों में सबसे खराब स्थिति थी। कम शब्दों में कहें तो भारत की आर्थिक स्थिति पहले से ही ख़राब हालत में थी।
विशेषज्ञों का मानना है कि अब कोरोना वायरस के प्रभाव की वजह से जहां एक ओर लोगों के स्वास्थ्य पर संकट छाया है तो दूसरी ओर पहले से कमज़ोर अर्थव्यवस्था को और बड़ा झटका मिल सकता है।
कोविड-19 का संक्रमण ऐसे वक़्त में फैला है जब भारत की अर्थव्यवस्था मोदी सरकार के साल 2016 के नोटबंदी के फ़ैसले की वजह से आई सुस्ती से उबरने की कोशिश कर रही है। नोटबंदी के ज़रिए मोदी सरकार कालाधन सामने लाने की कोशिश कर रही थी लेकिन भारत जैसी अर्थव्यवस्था जहां छोटे -छोटे कारोबार कैश पेमेंट पर ही निर्भर थे, इस फैसले से उनकी कमर टूट गई। अधिकतर धंधे नोटबंदी के असर से उबर ही रहे थे कि कोरोना वायरस की मार पड़ गई।
भारत में असंगठित क्षेत्र देश की करीब 94 फ़ीसदी आबादी को रोज़गार देता है और अर्थव्यवस्था में इसका योगदान 45 फ़ीसदी है। लॉकडाउन की वजह से असंगठित क्षेत्र पर बुरी मार पड़ी है क्योंकि रातोंरात हज़ारों लोगों का रोज़गार छिन गया।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 1.70 लाख करोड़ रुपये के राहत पैकेज की घोषणा की जिससे भारत के गरीब 80 करोड़ लोगों को आर्थिक बोझ से राहत मिल सके और उनकी रोज़ीरोटी चल सके। खातों में पैसे डालकर और खाद्य सुरक्षा का बंदोबस्त करके सरकार गरीबों, दैनिक मज़दूरी करने वालों, किसानों और मूलभूत सुविधाओं से वंचित लोगों की मदद करने का प्रयास कर रही है।
लेकिन क्या भारत की अर्थव्यवस्था इस थोड़े से सरकार के प्रयास से मंदी से उबर पायेगी। अर्थव्यवस्था को इस संकट के बुरे असर से बचाने के लिए और भी प्रयास किए जाने की ज़रूरत है।
राहत पैकेज की घोषणा को ज़मीनी स्तर पर लागू करना सबसे बड़ी चुनौती है। लॉकडाउन के वक़्त जब अतिरिक्त मुफ़्त राशन देने की घोषणा की गई है, गरीब लोग उस तक कैसे पहुंच पाएंगे? सरकार को सेना और राज्यों की मशीनरी की मदद से सीधे ग़रीबों तक खाने की चीज़ें पहुंचानी चाहिए।
इस वक़्त हज़ारों लोग अपने घरों से दूर फंसे हुए हैं, ऐसे में सरकार को चाहिए कि वो खातों में पैसे डालने का काम तेज़ी से करे और खाने की चीज़ों की सप्लाई को भी प्राथमिकता पर रखे।
ये वो लोग हैं जिनके खातों में तत्काल कैश ट्रांसफर किए जाने की ज़रूरत है। उन्हें किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा नहीं मिली है। सरकार को राजकोषीय घाटे की चिंता नहीं करनी चाहिए। वो आरबीआई से उधार ले और इस विपदा की घड़ी में लोगों पर खर्च करे।
सरकार ने राहत पैकेज में किसानों के लिए अलग से घोषणा की है। सरकार अप्रैल से तीन महीने तक किसानों के खातों में हर महीने 2000 रुपये डालेगी। सरकार किसानों को सालाना 6000 रुपये पहले ही देती थी।
लेकिन दो हज़ार रुपये की मदद पर्याप्त नहीं है क्योंकि निर्यात ठप हो चुका है, शहरी क्षेत्रों में कीमतें बढ़ेंगी क्योंकि मांग बढ़ रही है और ग्रामीण क्षेत्र में कीमतें गिरेंगी क्योंकि किसान अपनी फसल बेच नहीं पाएंगे।
यह संकट बेहद गंभीर समय में आया है, जब नई फसल तैयार है और बाज़ार भेजे जाने के इंतज़ार में है। भारत जैसे देश में जहां लाखों लोग गरीबी में जी रहे हैं, विशेषज्ञों का मानना है कि भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती होगी कि कठिन लॉकडाउन की स्थिति में गांवों से खाने-पीने की ये चीज़ें शहरों और दुनिया के किसी भी देश तक कैसे पहुंचेंगी। अगर सप्लाई शुरू नहीं हुई तो खाना बर्बाद हो जाएगा और भारतीय किसानों को भारी नुकसान झेलना पड़ेगा। भारत की कुल आबादी का 58 फ़ीसदी हिस्सा खेती पर निर्भर है और कृषि का देश की अर्थव्यस्था में 256 बिलियन डॉलर का योगदान है।
विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि भारत में बेरोज़गारी बढ़ने के पूरे आसार हैं। बड़ी संख्या में फैक्ट्रियां बंद होने की वजह से उत्पादन में भारी गिरावट आई है।
स्वयं रोज़गार करने वाले या छोटे कारोबार में जुड़े लोगों को राहत देने के लिए सरकार ब्याज़ और टैक्स चुकाने में छूट देकर उनकी मदद कर सकती है ताकि कारोबार उबर पाए।
भारत में बेरोज़गारी अब भी रिकॉर्ड स्तर पर है और अगर यह स्थिति जारी रहती है तो असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों को बड़ी मुश्किल झेलनी पड़ेगी। छोटे कारोबार में काम करने वाले लोग या तो कम पैसे में काम करने को मज़बूर होंगे या फिर उनकी नौकरी छिन जाएगी। कई कंपनियों में यह चर्चा चल रही है कि कितने लोगों को नौकरी से निकाले जाने की ज़रूरत है।
भारत में हवाई सफ़र पर फिलहाल 14 अप्रैल तक के लिए रोक लगी है। बंद का असर एविएशन इंडस्ट्री पर भी पड़ा है। सेंटर फॉर एशिया पैसिफिक एविएशन (CAPA) के अनुमान के मुताबिक एविएशन इंडस्ट्री को करीब चार अरब डॉलर का नुकसान झेलना पड़ेगा। इसका असर हॉस्पिटैलिटी और टूरिज्म सेक्टर पर भी होगा। भारत में होटल और रेस्टोरेंट चेन बुरी तरह प्रभावित हैं और कई महीनों तक यहां सन्नाटा पसरे रहने से बड़ी संख्या में लोगों को सैलरी न मिलने का भी संकट नज़र आ रहा है।
बंद की वजह से ऑटो इंडस्ट्री को भी भारी नुकसान हुआ है और करीब दो अरब डॉलर का अनुमानित नुकसान झेलना पड़ सकता है।
विशेषज्ञों का मानना है कि भारत ने कोरोना वायरस के प्रभाव की वजह से अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए जिस राहत पैकेज की घोषणा की है वो देश के कुल जीडीपी का एक फ़ीसदी है। सिंगापुर, चीन और अमरीका की तुलना में यह राहत पैकेज ऊंट के मुंह में जीरा जैसा है।
विशेषज्ञों का कहना है कि भारत को बड़े आर्थिक पैकेज की घोषणा जल्द करनी चाहिए ताकि कोरोना की तबाही में डूब रहे कारोबार को वापस पटरी पर लाया जा सके।
चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग शुक्रवार को म्यांमार की राजधानी नेपिडॉ पहुंचे। 19 साल बाद यह पहला मौक़ा है जब कोई चीनी राष्ट्रपति म्यांमार के दौरे पर है।
वैसे तो जिनपिंग दोनों देशों के राजनयिक रिश्तों की 70वीं वर्षगांठ पर म्यांमार आए हैं मगर इस यात्रा के दौरान वह म्यांमार की शीर्ष नेता आंग सान सू ची के साथ मिलकर चीन-म्यांमार आर्थिक गलियारे के तहत कई परियोजनाओं को शुरू करेंगे।
शी जिनपिंग के दौरे से पहले चीन के उप विदेश मंत्री लाउ शाहुई ने पत्रकारों से कहा था कि राष्ट्रपति की इस यात्रा का मक़सद दोनों देशों के रिश्तों को मज़बूत करना और बेल्ट एंड रोड अभियान के तहत आपसी सहयोग बढ़ाना है।
उन्होंने कहा था कि इस दौरे का तीसरा लक्ष्य है 'चीन-म्यांमार आर्थिक गलियारे को मूर्त रूप देना।' चीन म्यांमार आर्थिक गलियारा शी जिनपिंग के महत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड अभियान का ही अंग है।
चीन के इसी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव को भारत शक की निगाहों से देखता रहा है क्योंकि उसका मानना है कि इस अभियान के तहत चीन दक्षिण एशियाई देशों में अपना प्रभाव और पहुंच बढ़ाने की कोशिशों में जुटा है।
दिल्ली की जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के सेंटर फ़ॉर ईस्ट एशियन स्टडीज़ में एसोसिएट प्रोफ़ेसर रितु अग्रवाल कहती हैं कि चीन और म्यांमार के बीच अच्छे संबंधों की शुरुआत काफ़ी पहले हो गई थी।
वह बताती हैं, "चीन और म्यांमार काफ़ी क़रीबी कारोबारी सहयोगी रहे हैं। चीन के युन्नात प्रांत में म्यामांर की सीमा के साथ 2010 से लेकर अब तक कई सारे बॉर्डर इकनॉमिक ज़ोन बनाए गए हैं और आर्थिक आधार पर म्यांमार को चीन से जोड़ने की कोशिश की जा रही है। जैसे कि यहां से ऑयल और गैस पाइपलाइन बिछाने की भी बात थी।''
रितु अग्रवाल बताती हैं कि युन्नान की प्रांतीय सरकार ने अपने स्तर पर म्यामांर के साथ अच्छे रिश्ते बनाने की कोशिश की थी। यह सिलसिला 80 के दशक से शुरू हुआ था। हालांकि, बीच में कई उतार-चढ़ाव आए। मगर अब बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के माध्यम से इस कोशिश को जारी रखा जा रहा है।
बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव को चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की विदेश नीति का अहम हिस्सा माना जाता है। इसे सिल्क रोड इकनॉमिक बेल्ट और 21वीं सदी का समुद्री सिल्क रोड भी कहा जाता है। जिनपिंग ने 2013 में इसे शुरू किया था।
बेल्ट रोड इनिशिएटिव के तहत चीन का इरादा कम से कम 70 देशों के माध्यम से सड़कों, रेल की पटरियों और समुद्री जहाज़ों के रास्तों का जाल सा बिछाकर चीन को मध्य एशिया, मध्य पूर्व और रूस होते हुए यूरोप से जोड़ने का है। चीन यह सब ट्रेड और निवेश के माध्यम से करना चाहता है।
चीन के इस बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव में भौगोलिक रूप से म्यांमार काफ़ी अहम है। म्यांमार ऐसी जगह पर स्थित है जो दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया के बीच है। यह चारों ओर से ज़मीन से घिरे चीन के युन्नान प्रांत और हिंद महासागर के बीच पड़ता है इसलिए चीन-म्यांमार इकनॉमिक कॉरिडोर की चीन के लिए बहुत अहमियत है।
रितु अग्रवाल बताती हैं, "चीन काफ़ी सालों से कोशिश कर रहा है कि कैसे हिंद महासागर तक पहुंचे। शी जिनपिंग की ताज़ा यात्रा चीन की समुद्री शक्ति को बढ़ाने की कोशिश में है क्योंकि चीन का समुद्री शक्ति बढ़ाना शी जिनपिंग की प्राथमिकताओं में है। इसलिए वह पोर्ट बनाने, रेलवे लाइन बिछाने की कोशिश कर रहे हैं। वह इनके माध्यम से कनेक्टिविटी चाहते हैं।''
अप्रैल 2019 में हुए चीन के दूसरे बेल्ट एंड रोड फ़ोरम (बीआरएफ) में म्यांमार की नेता आंग सान सू ची ने 'चीन-म्यांमार आर्थिक गलियारे' (सीएमईसी) के तहत सहयोग बढ़ाने के लिए चीन के साथ तीन एमओयू पर हस्ताक्षर किए थे।
चीन-म्यांमार आर्थिक गलियारा अंग्रेज़ी के Y अक्षर के आकार का एक कॉरिडोर है। इसके तहत चीन विभिन्न परियोजनाओं के माध्यम से हिंद महासागर तक पहुंचकर म्यांमार के साथ आर्थिक सहयोग बढ़ाना चाहता है।
2019 से 2030 तक चलने वाले इस आर्थिक सहयोग के तहत दोनों देशों की सरकारों में इन्फ्रास्ट्रक्चर, उत्पादन, कृषि, परिवहन, वित्त, मानव संसाधन विकास, शोध, तकनीक और दूरसंचार जैसे कई क्षेत्रों में कई सारी परियोजनाओं को लेकर सहयोग करने पर सहमति बनी थी।
इसके तहत चीन के युन्नान प्रांत की राजधानी कुनमिंग से म्यांमार के दो मुख्य आर्थिक केंद्रों को जोड़ने के लिए लगभग 1700 किलोमीटर लंबा कॉरिडोर बनाया जाना है।
कुनमिंग से आगे बढ़ने वाले इस प्रॉजेक्ट को पहले मध्य म्यांमार के मंडालय से हाई स्पीड ट्रेन से जोड़ा जाएगा। फिर यहां से इसे पूर्व में यंगॉन और पश्चिम में क्यॉकप्यू स्पेशल इकनॉमिक ज़ोन से जोड़ा जाएगा। चीन क्यॉकप्यू में पोर्ट भी बनाएगा।
इस अभियान के तहत म्यांमार की सरकार ने शान और कचिन राज्यों में तीन बॉर्डर इकनॉमिक कोऑपरेशन ज़ोन बनाने पर सहमति जताई थी।
चीन का कहना है कि सीएमईसी से म्यांमार के दक्षिण और पश्चिमी क्षेत्रों में सीधे चीनी सामान पहुंच सकेगा और चीन के उद्योग भी सस्ते श्रम की तलाश में ख़ुद को यहां शिफ़्ट कर सकते हैं। यह दावा किया जाता रहा है कि म्यांमार इस परियोजना के कारण चीन, दक्षिण पूर्व एशिया और दक्षिण एशिया के बीच कारोबार का केंद्र बन जाएगा।
लेकिन चीन और म्यांमार के बीच युन्नान के साथ लगती सीमा पर कई तरह की पहलों के चलते बने संबंध पूरी तरह आर्थिक संबंध ही हैं, ऐसा भी नहीं है। रितु अग्रवाल कहती हैं कि इस तरह के आर्थिक अभियानों के पीछे कहीं न कहीं सुरक्षा का एजेंडा रहता है।
संभवत: भारत की चिंताएं भी इसी से जुड़ी हैं।
भारत के लिहाज़ से देखें तो चीन-म्यांमार आर्थिक गलियारे को कुछ विश्लेषक चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे की तरह मान रहे हैं जो चीन के पश्चिमी शिनज़ियांग प्रांत को कराची और फिर अरब सागर में ग्वादर बंदरगाह से जोड़ता है। वैसे ही चीन-म्यांमार आर्थिक गलियारा चीन को बंगाल की खाड़ी की ओर से समंदर से जोड़ता है।
इसके अलावा, पिछले साल शी जिनपिंग ने नेपाल यात्रा के दौरान चीन-नेपाल आर्थिक गलियारे की शुरुआत की थी। इसके तहत चीन का इरादा तिब्बत को नेपाल से जोड़ना है। चीन नेपाल कॉरिडोर, चीन-पाकिस्तान और चीन-म्यांमार गलियारों के बीच में पड़ता है।
इस तरह तीनों गलियारे का चीन को कारोबारी स्तर पर लाभ होगा मगर भारत की चिंताएं सुरक्षा को लेकर भी रहती हैं। रितु अग्रवाल कहती हैं कि भारत को पहले से ही इस बात की चिंता है कि कनेक्टिविटी बढ़ने के साथ सुरक्षा को लेकर भी ख़तरा बढ़ सकता है।
वह कहती हैं, "चीन जो भी कनेक्टिविटी करता है, उसमें वह इकनॉमिक कॉरिडोर की बात करता है मगर उसके पीछे भी दूसरों की अर्थव्यवस्था को कंट्रोल करने जैसी रणनीतियां रहती हैं। यह चीन का तरीक़ा है। भारत के लिए चिंता की बात यह है कि दक्षिण एशिया में उसके पड़ोसी अगर चीन के नियंत्रण में आ गए तो उसे क्षेत्रीय शक्ति के रूप में उभरने में दिक्कत होगी।''
चीन ने भारत को भी अपने इस अभियान में शामिल करने की कोशिशें की हैं मगर भारत ने दिलचस्पी नहीं दिखाई। हालांकि, चीन मामलों के जानकार अतुल भारद्वाज मानते हैं कि चीन की पहुंच म्यांमार कॉरिडोर के माध्यम से हिंद महासागर तक हो जाने से भारत को कोई चिंता नहीं होनी चाहिए।
उन्होंने बीबीसी से कहा, "भारत हमेशा से क्षेत्रीय कनेक्टिविटी बढ़ाए जाने के समर्थन में रहा है इसलिए उसे किस बात का डर होगा? बल्कि उसे तो अपने आसपास शुरू होने वाली नई परियोजनाओं में आर्थिक अवसरों की तलाश करनी चाहिए। ऐसा नहीं है कि चीन उन हिस्सों को जोड़ रहा है जो अछूते रहे हैं। वह सिर्फ़ कनेक्टिविटी बढ़ाने के लिए वैकल्पिक रास्ते मुहैया करवा रहा है।''
भारत भी अपनी विदेश नीति में 'लुक ईस्ट पॉलिसी' की बात करता रहा है। इसके तहत यह कहा जाता रहा कि भारत के संबंध म्यांमार के साथ अच्छे होने चाहिए। इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार पूर्वोत्तर राज्यों के जरिये 'एक्ट ईस्ट' पॉलिसी का ज़िक्र कर चुके हैं।
अगर भारत दक्षिण पूर्वी देशों के साथ आर्थिक और कारोबारी सहयोग बढ़ाना चाहता है तो उसका रास्ता म्यांमार से होकर ही जाता है। मगर भारत की लुक ईस्ट या एक्ट ईस्ट के नारों वाली नीतियों के बावजूद म्यांमार में चीन का प्रभाव लगातार बढ़ा है।
रितु अग्रवाल कहती हैं कि भारत का म्यांमार के साथ ऐतिहासिक रूप से सांस्कृतिक रिश्ता रहा है, इसलिए चीन के प्रयासों को लेकर चिंता करने की जगह अपनी ओर से गंभीरता से प्रयास किए जाने चाहिए।
वह कहती हैं, "ऐतिहासिक रूप से भारत के उत्तर पूर्व और कलकत्ता के म्यांमार से अच्छे रिश्ते थे, दोनों देशों में सीधे व्यापारिक संबंध थे और यातायात भी होता था। यह देखा जाना चाहिए कि कैसे इसे फिर से जीवंत किया जा सकता है।''
"भारत अपनी ओर से पहल करके म्यांमार के साथ कोई मिशन शुरू करने की दिशा में महत्वपूर्ण क़दम उठा सकता है। भारत दक्षिण एशिया में शुरू से बड़ी शक्ति रहा है। ऐसे में चिंतित होने की जगह उसे पड़ोसी देशों के साथ व्यापारिक रिश्ते मज़बूत करने की रणनीति बनानी चाहिए। उसे देखना होगा कि क्या पहल करके वह चीन के प्रभाव को सीमित कर सकता है।''
भारत पर तीन दिशाओं से बेल्ट एंड रोड अभियान के तहत चीन की पहुंच होने को लेकर रितु अग्रवाल कहती हैं, "भारत की चिंताएं तो हैं मगर अहम बात यह है कि उसकी आगे की रणनीति क्या होगी? कैसे पड़ोसियों के साथ ट्रेड डील की जा सकती है, कैसे व्यापारिक रिश्ते मज़बूत किए जा सकते हैं। कोई प्रभावी नीति होनी चाहिए।''
शी जिनपिंग पर अपने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव को सफल बनाने का दबाव बना हुआ है। बहुत सारे देशों ने उनकी पहल को लेकर इच्छा तो जताई थी मगर पायलट प्रॉजेक्ट्स के नतीजे चीन की उम्मीदों के अनुरूप नहीं रहे हैं। म्यांमार में भी विरोध के स्वर उठते रहे हैं।
ऐसे में विश्लेषकों का मानना है कि भारत को अपनी ओर से सकारात्मक पहल करके पड़ोसियों को अपनी ओर खींचने की कोशिश करनी चाहिए और इस संबंध में उसे कोई स्पष्ट नीति अपनानी चाहिए। लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि भारत की मोदी सरकार अपनी आर्थिक मंदी के कारण चीन को रोकने में सफल होगी?
साइरस मिस्त्री को नेशनल कंपनी लॉ अपेलैट ट्राइब्यूनल (एनसीएलएटी) ने बुधवार को टाटा ग्रुप का चेयरमैन बहाल कर दिया।
ट्राइब्यूनल ने यह भी कहा है कि एन चंद्रा को टाटा ग्रुप का एग्जीक्यूटिव चेयरमैन बनाया जाना अवैध था। एनसीएलएटी की दो जजों की बेंच ने कहा कि मिस्त्री के ख़िलाफ़ रतन टाटा ने मनमाने तरीक़े से कार्रवाई की थी और नए चेयरमैन की नियुक्ति अवैध थी। टाटा ग्रुप 110 अरब डॉलर की कंपनी है।
रतन टाटा को इस फ़ैसले को चुनौती देने के लिए चार हफ़्ते का वक़्त दिया गया है। ट्राइब्यूनल ने कहा है कि उसका फ़ैसला चार हफ़्ते बाद ही लागू होगा।
टाटा के पास इस फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में भी चुनौती देने का विकल्प है। जैसे ही यह ख़बर आई टाटा मोटर्स के शेयर गिरने लगे। मिस्त्री परिवार की टाटा सन्स में सबसे बड़ी हिस्सेदारी है। मिस्त्री परिवार की टाटा सन्स में 18.4 फ़ीसदी हिस्सेदारी है।
साइरस मिस्री टाटा सन्स के छठे चेयरमैन थे। उन्हें अक्टूबर 2016 में हटा दिया गया था। साइरस मिस्त्री को 2012 में रतन टाटा के रिटायरमेंट के बाद टाटा ग्रुप की कमान मिली थी।
मिस्त्री को जब हटाया गया था तो उन्होंने दावा किया था कि कंपनी एक्ट का उल्लंघन कर उनकी बर्खास्तगी हुई है। इसके साथ ही उन्होंने टाटा सन्स के प्रबंधन में गड़बड़ी का भी आरोप लगाया था।
एनसीएलएटी ने यह भी कहा है कि टाटा सन्स का पब्लिक से प्राइवेट कंपनी बनना ग़ैर-क़ानूनी था। एनसीएलएटी ने फिर से पब्लिक कंपनी बनने का आदेश दिया है।
कहा जा रहा है कि इस फ़ैसले से टाटा एक बार फिर से क़ानूनी दाँव-पेच में फँस गया है और इससे कंपनी का मुनाफ़ा प्रभावित होगा। टाटा इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में लेकर जाएगा लेकिन इसका असर निवेशकों पर पड़ेगा।
टाटा के कॉर्पोरेट गवर्नेंस पर भी सवाल उठने की आशंका जताई जा रही है।
बीते महीने तमिलाडु स्थित भारत के सबसे बड़े परमाणु संयंत्र कोडनकुलम में हुए साइबर अटैक ने भारत के साइबर सुरक्षा पर बड़े सवाल खड़े कर दिए।
इस ख़बर के फैलने के बाद इस बात पर चर्चा होने लगी है कि क्या भारत किसी भी साइबर हमले से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार है? क्या वह अपने महत्वपूर्ण आधारभूत ढांचों को हानि पहुँचाने वाले डिजिटल हमलों से बचा सकता है?
इस बहस ने एक और बड़े मुद्दे को हवा दे दी है, क्या भारत डेबिट कार्ड हैकर और दूसरे वित्तीय फ्रॉड से बचने के लिए तैयार है, क्योंकि ये भारत के करोड़ों लोगों का मुद्दा है।
पिछले ही महीने, भारतीय रिज़र्व बैंक ने बैंकों को एक चेतावनी दी है। यह चेतावनी सिंगापुर स्थित साइबर सिक्यूरिटी फ़र्म ग्रुप - आईबी की चेतावनी के बाद आया है जिसमें कहा गया था कि क़रीब 12 लाख डेबिट कॉर्ड के डिटेल्स ऑनलाइन उपलब्ध हैं।
बीते साल, हैकरों ने पुणे के कोस्मो बैंक के खातों से 90 करोड़ रुपये की फ़र्ज़ी ढंग से निकासी कर ली थी, ऐसा उन्होंने बैंक के डाटा सप्लायर पर साइबर हमले करके किया था।
ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन के साइबर इनिशिएटिव के प्रमुख अरुण सुकुमार ने बीबीसी को बताया, "भारत की फ़ाइनेंशियल सिस्टम पर हमला करना आसान है क्योंकि हम अभी भी ट्रांजैक्शन के लिए स्विफ्ट जैसे इंटरनेशनल बैंकिंग नेटवर्क पर निर्भर हैं। इंटरनेशनल गेटवेज़ की वजह से हमला करना आसान है।''
साइबर सिक्यूरिटी कंपनी सायमन टेक की एक रिपोर्ट बताती है कि ऐसे साइबर हमलों के लिए शीर्ष तीन ठिकानों में भारत एक है।
हालांकि भारत की विशाल डिजिटल आबादी को देखते हुए इसमें कमी आएगी। हर महीने फ्रांस जितनी आबादी भारत में कंप्यूटर से जुड़ रही है और यही बात सबसे बड़ी चिंता की है क्योंकि पहली बार इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों को भी डिजिटल पेमेंट करने के लिए कहा जा रहा है।
उदाहरण के लिए, नवंबर 2016 में भारत सरकार ने अचानक से 500 रुपये और 1000 रुपये के नोट के चलन पर रोक लगा दी, यह देश में मौजूद कुल रक़म का 80 प्रतिशत हिस्सा थे। इसके विकल्प के तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डिजिटल पेमेंट को काफ़ी प्रमोट किया।
भारतीय पेमेंट प्लेटफॉर्म पेटीएम हों या फिर इंटरनेशनल प्लेटफॉर्म गूगल पे हो, दोनों का कारोबार भारत में काफ़ी बढ़ गया है। क्रेडिट सुइसे की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ 2023 तक भारत में मोबाइल के ज़रिए एक ट्रिलियन डॉलर की पेमेंट होने लगेगी। क्रेडिट और डेबिट कार्ड का इस्तेमाल भी काफ़ी लोकप्रिय है। आज की तारीख़ में भारत में क़रीब 90 करोड़ कार्ड इस्तेमाल हो रहे हैं।
टेक्नालॉजी एक्सपर्ट प्रशांतो राय ने बीबीसी को बताया, "भारत में इंटरनेट का इस्तेमाल काफ़ी नए लोग कर रहे हैं, इनकी आबादी 30 करोड़ से ज़्यादा है। ये मध्य वर्ग या निम्न वर्ग के लोग हैं। जिनकी डिजिटल साक्षरता बेहद कम है। इनमें विभिन्न राज्यों में काम करने वाले दिहाड़ी मज़दूर हैं जो इसकी भाषा को नहीं समझते, उनके साथ धोखाधड़ी होने की आशंका बहुत ज्यादा है।''
इसके अलावा प्रशांतो राय दूसरी समस्या की ओर भी इशारा करते हैं, "दूसरी बात यह है कि बैंकों के फ्रॉड के बारे में काफ़ी कम रिपोर्टिंग होती है, कई बार उपभोक्ताओं को मालूम ही नहीं होता है कि आख़िर क्या हुआ था?"
भारत में वित्तीय धोखाधड़ी कई तरह से होती है। कुछ हैकर्स धोखाधड़ी के लिए एटीएम मशीनों में कार्ड की नक़ल उतारने वाले स्किमर्स लगा देते हैं या कीबोर्ड में कैमरा लगा देते हैं। इसके ज़रिए बिना किसी संदेह के आपके कार्ड का डुप्लीकेट तैयार हो जाता है। वहीं कुछ हैकर्स आपको फोन करके आपसे जानकारी निकालने की कोशिश करते हैं।
प्रशांतो राय बताते हैं, "भारत में डिजिटल ट्रांजैक्शन की प्रक्रिया धुंधली और कंफ्यूज करने वाली है। वास्तविक दुनिया में ये पता रहता है कि कौन पैसा ले रहा है और कौन दे रहा है लेकिन मोबाइल पेमेंट प्लेटफॉर्म में यह हमेशा स्पष्ट नहीं होता है। उदाहरण के लिए, कोई शख़्स ऑनलाइन एक टेबल बेच रहा है, कोई ख़रीददार बनकर ऑनलाइन पेमेंट करने की बात करता है।''
"इसके बाद वह बताता है कि उसने पेमेंट कर दिया है और आपको टेक्स्ट मैसेज के ज़रिए एक कोड मिलेगा। यह भुगतान सुनिश्चित करने के लिए होगा। ज्यादातर उपभोक्ता इसके बारे में नहीं सोचते और वे उस शख्स को इस कोड के बारे में बता देते हैं। अगली बात उन्हें यह पता चलती है कि उनके एकाउंट से ही पैसे निकल गए हैं।''
समस्या यह है कि सिस्टम ख़ुद में ना तो सुरक्षित है और ना ही पारदर्शी। कोस्मो बैंक की धोखाधड़ी में यह बात सामने आई थी कि साफ्टवेयर इतने बड़े ट्रांजैक्शन के दौरान पैटर्न में आए मिस्मैच को नहीं पकड़ पाया। जब तक फ्रॉड पकड़ में आया तब तक बहुत बड़ी रक़म का नुक़सान हो चुका था।
किसी मानक के नहीं होने से भी, पहली बार उपयोग करने वालों के लिए ऑनलाइन ट्रांजैक्शन काफ़ी कंफ्यूजन पैदा करने वाला है। उदाहरण के लिए एटीएम मशीनों को देखिए, ये कई तरह के होते हैं और हर पेमेंट ऐप का इंटरफेस अलग-अलग है।
सुकुमार एक दूसरी बात भी सुझाते हैं, उनके मुताबिक़ यह लोगों की भी समस्या है, लोगों में सामान्य जागरुकता का अभाव है, जिसके चलते वे ख़ुद को और पूरी व्यवस्था को जोखिम में डाल लेते हैं।
सुकुमार बताते हैं, "कीबोर्ड का इस्तेमाल करने वाले लोगों को भी सावधानी बरतने की ज़रूरत है। कोडनकुलम न्यूक्लियर प्लांट में जिस वायरस का हमला हुआ है, वह वहां एक कर्मचारी की वजह से ही पहुंचा था जिसने बाहर की एक यूएसबी को सिस्टम के कंप्यूटर में लगाया था। इससे पूरे प्लांट के सिस्टम को ख़तरा हुआ। ऐसा ही किसी बैंक या फाइनेंशियल इंस्टीट्यूशन में संभव है।''
प्रशांतो राय के मुताबिक़ फाइनेंशियल ट्रांजैक्शन की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सरकार और वित्तीय संस्थानों की है ना कि उपभोक्ताओं की।
वे बताते हैं, "भारत में जिस रफ्तार से इंटरनेट का इस्तेमाल बढ़ रहा है, उसे देखते हुए इसे केवल शिक्षा के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। शातिर और दक्ष हैकरों पर नज़र रखना हर किसी के लिए संभव नहीं है क्योंकि वे लगातार अपनी रणनीति और तरीक़ों को बदलते रहते हैं। ऐसे में किसी फ्रॉड को रोकने की ज़िम्मेदारी रेगुलेटरों की है।''
इसके अलावा, विभिन्न साइबर सिक्यूरिटी संस्थानों के बीच आपसी संवाद की रफ्तार भी बहुत धीमी है। भारत के डिजिटल आधारभूत ढांचों की सुरक्षा करने वाले कंप्यूटर इमरजेंसी रिस्पांस टीम (सीईआरटी) कई बार सरकार को ख़तरों के बारे में समय से जानकारी मुहैया नहीं करा पाती है।
लेकिन भारत सरकार को समस्या को अंदाज़ा है। यही वजह है कि देश 2020 के लिए राष्ट्रीय साइबर सिक्यूरिटी पॉलिसी तैयार कर रहा है। इसमें उन छह अहम क्षेत्रों की पहचान की गई है जिसमें स्पष्ट नीति की ज़रूरत महसूस की जा रही है। इनमें फाइनेंस सिक्यूरिटी भी शामिल है।
प्रशांतो राय के मुताबिक़ देश के अंदर हर अहम क्षेत्र का अपना कंप्यूटर इमरजेंसी रिस्पांस टीम (सीईआरटी) होना चाहिए, जिसके बीच आपसी संवाद हो और सरकार संयोजक की भूमिका निभाए।
ऐसा होने की सूरत में ही भारत के कैशलेस इकॉनमी बनने की राह में आने वाले ख़तरों पर प्रभावी ढंग से अंकुश लग पाएगा।
भारतीय मूल के अभिजीत बनर्जी और उनकी पत्नी एस्टेयर ड्युफ़लो के साथ माइकल क्रेमर को 2019 के अर्थशास्त्र का नोबेल सम्मान दिया गया है।
अभिजीत बनर्जी और उनकी पत्नी ड्युफ़लो अमरीका की मैसाचुसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी में प्रोफ़ेसर हैं।
नोबेल सम्मान की घोषणा होने के बाद एमआईटी में बनर्जी अपनी पत्नी के साथ पत्रकारों के सवालों के जवाब दे रहे थे।
इसी दौरान उनसे एक पत्रकार ने भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर सवाल पूछा तो उन्होंने कहा कि बहुत बुरी स्थिति है।
बनर्जी ने कहा कि भारत में लोग अभावग्रस्तता के कारण उपभोग में कटौती कर रहे हैं और गिरावट जिस तरह से जारी है उससे लगता है कि इसे नियंत्रित नहीं किया जा सकता।
बनर्जी और डुफलो एमआईटी के अर्थशास्त्र विभाग में प्रोफ़ेसर हैं। इन दोनों की शादी 2015 में हुई थी। अभिजीत बनर्जी भारत में भी कई रिसर्च प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं।
भारतीय अर्थव्यवस्था पर पूछे गए सवाल के जवाब में बनर्जी ने कहा, ''मेरी समझ से भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत बहुत ही ख़राब है। एनएसएस के डेटा देखें तो पता चलता है कि 2014-15 और 2017-18 के बीच शहरी और ग्रामीण भारत के लोगों ने अपने उपभोग में भारी कटौती की है। सालों बाद ऐसा पहली बार हुआ है। यह संकट की शुरुआत है।''
पत्रकार के अनुरोध पर अभिजीत बनर्जी ने सवालों का जवाब अपनी मातृभाषा बांग्ला में भी दिया। उनकी पत्नी ड्युफ़लो फ़्रांस की हैं और ड्युफ़लो ने भी अंग्रेज़ी के अलावा फ़्रेंच में जवाब दिया।
अभिजीत बनर्जी ने भारत में डेटा संग्रह के तरीक़ों में हुए विवादित बदलाव पर भी बोला। कई लोगों का आरोप है कि भारत सरकार जीडीपी ग्रोथ और राजस्व घाटे का जो डेटा दिखाती है वो असल डेटा नहीं है। ऐसा आरोप मोदी सरकार के आर्थिक सलाहकार रहे अरविंद सुब्रमण्यम भी लगा चुके हैं। अभिजीत बनर्जी ने कहा कि सरकार के डेटा पर कई तरह के संदेह हैं।
भारतीय मूल के अमरीकी इकॉनामिस्ट अभिजीत बनर्जी, इश्तर डूफलो और माइकल क्रेमर को संयुक्त रूप से इस साल अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार दिया गया है।
इन तीनों को दुनिया भर में ग़रीबी दूर करने के लिए एक्सपेरिमेंट अप्रोच के लिए ये सम्मान दिया गया है। माना जा रहा है कि बीते दो दशक के दौरान इस अप्रोच का सबसे अहम योगदान रहा। दुनिया भर में ग़रीबों की आबादी 70 करोड़ के आसपास मानी जाती है।
अभिजीत बनर्जी के ही एक अध्ययन पर भारत में विकलांग बच्चों की स्कूली शिक्षा की व्यवस्था को बेहतर बनाया गया, जिसमें क़रीब 50 लाख बच्चों को फ़ायदा पहुंचा है।
तीन लोगों में अभिजीत बनर्जी की पार्टनर इश्तर डूफलो भी शामिल हैं, जो अर्थशास्त्र में नोबेल जीतने वाली सबसे कम उम्र की महिला हैं। अर्थशास्त्र में नोबेल जीतने वाली वे महज दूसरी महिला हैं।
पुरस्कार की घोषणा होने के बाद इश्तर डूफेलो ने प्रेस कांफ्रेंस में कहा है, "महिलाएं भी कामयाब हो सकती हैं ये देखकर कई महिलाओं को प्रेरणा मिलेगी और कई पुरुष औरतों को उनका सम्मान दे पाएंगे।''
कोलकाता यूनिवर्सिटी से 1981 में बीएससी करने के बाद अभिजीत बनर्जी ने 1983 में जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी से एमए की पढ़ाई पूरी की। 1988 में उन्होंने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से पीएचडी पूरी की।
अभिजीत बनर्जी को नोबेल पुरस्कार दिए जाने पर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी उन्हें बधाई दी है। मोदी ने ट्वीट करके कहा है, ''अभिजीत बनर्जी ने ग़रीबी उन्मूलन के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया है।''
उनके बारे में ये भी कहा जा रहा है कि उन्होंने राहुल गांधी के न्याय योजना की रुपरेखा तैयार की थी। इसकी पुष्टि खुद राहुल गांधी ने भी की है, उन्होंने ट्वीट किया है कि अभिजीत ने न्याय योजना को तैयार किया था, जिसमें ग़रीबी को नष्ट करने और भारतीय अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की क्षमता है।
उनके जेएनयू कनेक्शन को लेकर भी सोशल मीडिया पर चर्चाओं का दौर शुरू हो गया है।
रामचंद्र गुहा ने ट्वीट किया है, "अभिजीत बनर्जी और इश्तर डूफेलो को नोबेल मिलने की ख़बर से खुश हूं। वे इसके योग्य हैं। अभिजीत बहुत बदनाम किए जा रहे यूनिवर्सिटी के गर्व भरे ग्रेजुएट हैं। उनका काम कई युवा भारतीय विद्वानों को प्रभावित करेगा।''
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी अभिजीत बनर्जी को बधाई दी है।
वर्ल्ड इकॉनोमिक फ़ोरम (WEF) की एक सालाना रिपोर्ट में भारत काफ़ी नीचे फिसल गया है। अर्थव्यवस्था में प्रतियोगिता के लिए लाई जाने वाली बेहतरी को आंकने वाली इस रिपोर्ट में ऐसा कहा गया है।
ग्लोबल कॉम्पिटिटिव इंडेक्स में पिछले साल भारत 58वें नंबर पर था लेकिन अब वह 68वें नंबर पर पहुंच गया है।
इस इंडेक्स में सबसे ऊपर सिंगापुर है। उसके बाद अमरीका और जापान जैसे देश हैं। ज़्यादातर अफ़्रीकी देश इस इंडेक्स में सबसे नीचे हैं।
भारत की रैंकिंग गिरने की वजह दूसरे देशों का बेहतर प्रदर्शन बताया जा रहा है। इस इंडेक्स में चीन भारत से 40 पायदान ऊपर 28वें नंबर पर है, उसकी रैंकिंग में कोई बदलाव नहीं आया है।
वियतनाम, कज़ाकस्तान और अज़रबैजान जैसे देश भी इस सूची में भारत से ऊपर हैं। ब्रिक्स देशों में चीन सबसे ऊपर है जबकि ब्राज़ील भारत से भी नीचे 71वें नंबर पर हैं।
वर्ल्ड इकोनॉमिक फ़ोरम का कहना है कि भारत की अर्थव्यवस्था बहुत बड़ी है और काफ़ी स्थिर भी है लेकिन आर्थिक सुधारों की रफ़्तार काफ़ी धीमी है।
बेहतर आर्थिक माहौल के मामले में कोलंबिया, दक्षिण अफ़्रीका और तुर्की ने पिछले साल भारत से बेहतर प्रदर्शन किया है और वे भारत से आगे निकल गए हैं।
इस रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि दुनिया भर में मंदी के लक्षण दिखाई दे रहे हैं जिनसे जूझना अर्थव्यवस्थाओं के लिए बड़ी चुनौती होगी।
इस रैंकिंग में पाकिस्तान 110वें नंबर पर है जबकि नेपाल (108) और बांग्लादेश (105) भी उससे ऊपर हैं।
इस रिपोर्ट में भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था, मज़ूदरों की दशा और बैंकिंग सेवाओं की हालत को इस गिरावट के लिए ज़िम्मेदार माना गया है।
यह गिरावट भारत के लिए निस्संदेह चिंता की बात है। ख़ासतौर पर ऐसे समय में जब भारत को अधिक निवेश और कारोबारी गतिविधियों की ज़रूरत है ताकि सुस्ती से निबटा जा सके।
भारत की केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने शुक्रवार को एक महत्वपूर्ण घोषणा करते हुए कॉरपोरेट कंपनियों को टैक्स में छूट देने की घोषणा की। वित्त मंत्री की घोषणा के बाद कांग्रेस की कड़ी प्रतिक्रिया सामने आई है।
मोदी सरकार ने घरेलू कंपनियों, नयी स्थानीय विनिर्माण कंपनियों के लिये कॉरपोरेट टैक्स को कम करते हुए इसे 25.17 फ़ीसदी कर दिया है। वित्त मंत्री ने कहा कि यदि कोई घरेलू कंपनी किसी प्रोत्साहन का लाभ नहीं ले तो उसके पास 22 प्रतिशत की दर से आयकर भुगतान करने का विकल्प होगा। जो कंपनियां 22 प्रतिशत की दर से आयकर भुगतान करने का विकल्प चुन रही हैं, उन्हें न्यूनतम वैकल्पिक कर का भुगतान करने की ज़रूरत नहीं होगी।
मोदी सरकार के इस फ़ैसले पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने शुक्रवार को एक संवाददाता सम्मेलन में कहा कि सावन के अंधे की कहावत भारतीय जनता पार्टी की मौजूदा सरकार के लिए सच साबित हो रही है।
सुरजेवाला ने कहा कि अर्थव्यवस्था डूब रही है, देश मंदी की मार से जूझ रहा है और कंपनियां बंद हो रही हैं। उन्होंने कहा कि जीडीपी गिर रही है, निर्यात फेल हो गया है और भाजपा के मंत्री और सरकार ये कह रहे हैं कि सब ठीक है। उनके अनुसार सब कुछ ग़लत है लेकिन यह सत्ता में कुर्सी पर बैठे हुक्मरानों को समझ नहीं आ रहा।
कांग्रेस ने मोदी सरकार पर ज़ोरदार निशाना साधते हुए कहा कि यह सरकार एक क़दम आगे और चार क़दम पीछे है। कांग्रेस प्रवक्ता ने प्रधानमंत्री मोदी और वित्त मंत्री पर निशाना साधते हुए कहा कि वे देश की अर्थव्यवस्था नौसिखियों की तरह चला रहे हैं।
उन्होंने कहा कि भाजपा सरकार द्वारा लिया गया हालिया निर्णय केवल डगमगाते संसेक्स इंडेक्स को बचाने के लिए लिया गया है। इसके निर्णय के तहत कॉरपोरेट जगत को सालाना एक लाख 45 हज़ार करोड़ रूपये की छूट दी गई है।
इसके अलावा कांग्रेस प्रवक्ता ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण से पाँच सवाल पूछे।
1. कॉरपोरेट टैक्स की दरों को 30 प्रतिशत से कम कर 22 प्रतिशत और 25 प्रतिशत से कम कर 15 प्रतिशत करने से सालाना एक लाख 45 हज़ार करोड़ रूपये का नुक़सान होगा। प्रधानमंत्री जी और वित्त मंत्री जी देश को यह बताएं कि इस वित्तीय घाटे की भरपाई कहां से होगी? क्या इसके लिए एक बार फिर वेतनभोगियों, मध्यम वर्ग के लोगों, ग़रीब, किसान, छोटे दुकानदार, छोटे-छोटे व्यवसायियों पर कर लगा कर और पेट्रोल, डीज़ल, बिजली के दामों में बढ़ोतरी कर किया जाएगा? या फिर देश की मुनाफ़े वाली पीएसयू का ख़ून निचोड़ कर किया जाएगा।
2. क्या प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री बताएंगे कि कॉरपोरेट टैक्स के तहत एक लाख 45 हज़ार करोड़ रूपये का सालाना छूट दिया गया है उससे जो फिस्कल डिफिसिट (वित्तीय घाटा) जो बढ़ जाएगा। उसके लिए आपके पास क्या उपाय है? अब जब वित्तीय घाटा सात प्रतिशत तक पहुंच जाएगा जिसका सीधा असर देश की प्रगति और महंगाई पर पड़ेगा तो उसके लिए आपके पास क्या उपाय हैं?
3. प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री बजट पास करने वाले संसद की बार-बार अवहेलना और उसे दरकिनार क्यों कर रहे हैं? 70 सालों में यह पहली सरकार है जिसने बजट पेश करने के 45 दिनों के अंदर ख़ुद के पेश किए हुए बजट को ही ख़ारिज कर दिया या संशोधन कर दिया या उसे वापस ले लिया। क्या देश की संसद और संसदीय प्रणाली की इस प्रकार व्यापक अवहेलना उचित है?
4. अगर आपको इनकम टैक्स में राहत ही देना था तो फिर इस देश के साधारण जनता, नौकरीपेशा लोगों और मध्यम वर्ग को इसमें राहत क्यों नहीं दिया गया? आज भी जब आर्थिक मंदी की मार पड़ रही है तो इसका सबसे ज्यादा असर नौकरीपेशा, मध्यम वर्ग और साधारण व्यक्ति पर पड़ रहा है। तो फिर सरकार इस वर्ग को कोई राहत नहीं देती है, ऐसा क्यों?
5. क्या केवल टैक्स राहत देने से ही मंदी की मार ठीक हो जाएगी? क्या यही आपका आर्थिक विज़न है? और अगर टैक्स राहत देने से मंदी की मार दूर हो जाती है तो फिर व्यक्तिगत इनकम टैक्स देने वाले जो लोग हैं वो 30 प्रतिशत पर टैक्स देंगे और हज़ारों करोड़ रूपये का मुनाफ़ा कमाने वाली कंपनियां वो 22 और 15 प्रतिशत की दर से टैक्स देंगी, यह इस देश में कौन सी न्यायसंगत और उचित बात है?