भूटान के सकतेंग वन्यजीव अभयारण्य पर चीन के दावों का भूटान के द्वारा विरोध करने के कुछ दिन बाद ही चीन ने भूटान के पूर्वी सेक्टर को सीमा विवाद से जोड़ दिया है।
भूटान और चीन के बीच अब तक सीमा निर्धारित नहीं है और सीमा विवाद सुलझाने के लिए अब तक दोनों देशों के बीच 24 बार वार्ता हो चुकी है। इनमें कभी भी पूर्वी सेक्टर के मुद्दे को चीन ने नहीं उठाया था।
भूटान के साथ सीमा विवाद में चीन की ओर से नए इलाक़ों पर दावा करने को विश्लेषक भारत को निशाना बनाकर उठाए गए क़दम के तौर पर देखते हैं।
इस समय मुख्यतः दो देश हैं, एक भारत और दूसरा भूटान जिनके साथ चीन की सीमा निर्धारित नहीं हुई है और कई सालों से इसे लेकर विवाद है। भारत के साथ नियंत्रण रेखा पर चीन का तनाव जारी है जिसमें लद्दाख में हुए हिंसक संघर्ष में बीस भारतीय सैनिकों की मौत हाल ही में हुई है।
चीन का भूटान के साथ पश्चिमी सेक्टर और पूर्वी सेक्टर पर सीमा विवाद है। इस विवाद के समाधान के लिए भूटान और चीन के बीच में सुनियोजित ढंग से बातचीत चल रही है।
भूटान में भारत के पूर्व राजदूत पवन वर्मा ने कहा कि भूटान के साथ चीन का ताज़ा सीमा विवाद भारत के रणनीतिक हितों को प्रभावित करने की कोशिश हो सकती है।
पवन वर्मा ने कहा, ''मुझे लगता है कि ये भूटान पर दबाव बनाने का चीन का तरीक़ा है। चीन जानता हैं कि भूटान के साथ जहां उसकी सीमारेखा तय होगी, ख़ासतौर पर भूटान के पश्चिम की तरफ़, जहां चीन-भूटान और भारत के बीच में एक ट्राइ-जंक्शन (चिकेन नेक) बनता है, वहां किस जगह सीमा निर्धारित हो, उससे भारत के रणनीतिक हितों पर असर होगा।''
साल 2017 में भूटान के डोकलाम को लेकर चीन और भारत आमने सामने आए थे और दोनों देशों के बीच 75 दिनों तक सैन्य गतिरोध बना रहा था। तब भी चीन ने भूटान के डोकलाम को नियंत्रण में लेने की कोशिश की थी।
भूटान में भारत के पूर्व राजदूत इंद्र पाल खोसला ने कहा कि चीन इस समय विस्तारवादी मोड में है और हर ओर दावे कर रहा है।
बीबीसी बांग्ला सेवा से बात करते हुए इंद्र पाल खोसला ने कहा, ''मेरे नज़रिए में चीन विस्तारवादी मोड में है, चीन ने भूटान के ऐसे हिस्से पर दावा ठोका है जो अब तक दोनों देशों के बीच हुई वार्ता में नहीं उठाया गया था। सीमा विवाद को लेकर भूटान और चीन के बीच 24 बार बातचीत हुई है और इस इलाक़े पर कभी चर्चा नहीं हुई है। इन सालों के दौरान चीन ने कभी भी इस इलाक़े का मुद्दा नहीं उठाया।''
उन्होंने कहा, हाल ही में चीन ने रूस के व्लादिवोस्तोक पर दावा किया गया है, ऐसा लगता है कि चीन अब ऐसी दशा में है जब वो किसी समझौते या आपसी समझ या इतिहास में हुए समझौतों पर ध्यान नहीं दे रहा है। वो अब विस्तारवादी मोड में है।''
भूटान ने सकतेंग अभ्यारण्य पर चीन के दावे का विरोध करते हुए चीन को डीमार्श जारी किया है, आमतौर पर भूटान अपने सीमा विवादों को लेकर मुखर नहीं है और कम ही टिप्पणी करता है। ऐसे में भूटान के इस राजनीतिक क़दम की वजह क्या है?
ऑब्जर्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन यानी ओआरएफ़ से जुड़े विश्लेषक मिहिर भोंसले कहते हैं कि भूटान डर महसूस कर रहा है।
भोंसले ने कहा, ''जिस इलाक़े में भूटान समझता है कि वो सीमा विवाद चीन के साथ ख़त्म कर पाया है उसमें चीन ने विवाद खड़ा किया है। भूटान आमतौर पर सीमा विवादों पर बहुत बोलता नहीं हैं। भूटान के एक ओर चीन है और दूसरी ओर भारत है।''
''आमतौर पर भूटान शांत रहता है लेकिन चीन ने भूटान के अभ्यारण्य पर सवाल उठाया तो भूटान ने चीन को डीमार्श जारी किया है, जो एक नई बात है। आमतौर पर भूटान सीमा विवादों पर टिप्पणी नहीं करता है। भूटान ने डीमार्श जारी किया है जिसका सीधा मतलब है कि भूटान ख़तरा महसूस कर रहा है।''
मिहिर भोंसले का मानना है कि भूटान के साथ सीमा विवाद को हवा देने का मक़सद भारत को परेशान करना भी हो सकता है।
उन्होंने कहा, ''भारत के पड़ोस में भूटान एकमात्र ऐसा देश है जो हमेशा भारत के साथ रहा है, जबकि चीन के साथ भूटान के राजनयिक रिश्ते भी नहीं है। चीन को लगता है कि भूटान को परेशान करके वह भारत को तनाव दे सकता है।''
''डोकलाम में भी हमने देखा कि भूटान की ज़मीन पर चीन ने दावा किया था जिसके बाद भारत के साथ तनाव बढ़ गया था। ऐसा लगता है कि चीन भूटान का हाथ मरोड़कर भारत को दर्द देना चाहता है।''
2017 में जब चीन ने भूटान की ओर क़दम बढ़ाया था तो भारतीय सेना बीच में आ गई थी। भारत और चीन के बीच डोकलाम में 75 दिनों तक सैन्य तनाव रहा था। क्या ताज़ा विवाद उस स्थिति तक पहुंच सकता है?
पवन वर्मा ने कहा, ''ये संभव है कि ये विवाद डोकलाम जैसी स्थिति तक पहुंच जाए, लेकिन ज़रूरी नहीं कि ऐसा हो ही। भारत और भूटान के बीच बेहद क़रीबी रिश्ते हैं। चीन के साथ भूटान के राजनयिक रिश्ते भी नहीं है।''
''चीन की ये कोशिश होगी कि भूटान पर दबाव डालकर अपने नक़्शे क़दम पर चलाए और भारत पर दबाव बनाए। लेकिन मुझे लगता नहीं कि ऐसा होगा। लेकिन अगर भूटान पर और दबाव बढ़ेगा तो भारत को भूटान के साथ खड़ा होना होगा।''
मिहिर भोंसले ने कहा, ''यदि भूटान के साथ चीन का सीमा विवाद और बढ़ा तो एक बार फिर डोकलाम जैसा स्टेंड ऑफ़ हो सकता है। डोकलाम भारत, चीन और भूटान के बीच एक ट्राइ जंक्शन हैं, उसके अलावा सकतेंग अभ्यारण्य अरुणाचल सीमा के बहुत क़रीब है, वहां भी एक ट्राइ जंक्शन एरिया बन सकता है। यहां भविष्य में तनाव और बढ़ सकता है।''
पवन वर्मा का मानना है कि भारत के साथ सीमा विवाद में उलझा चीन भारत के पड़ोसी देशों का इस्तेमाल भारत पर दबाव बनाने के लिए कर रहा है। ये चीन की एक जानी मानी रणनीति है।
वहीं मिहिर भोंसले का मानना है कि भूटान पर दबाव बनाना चीन का रणनीतिक फ़ैसला हो सकता है। अभी जो भूटान के साथ विवाद है वो कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी। भूटान सकतेंग अभ्यारण्य में ग्लोबल एन्वायरंमेंट फ़ंड का इस्तेमाल करना चाहता था जिसका चीन ने विरोध कर दिया। इससे संकेत मिलता है कि चीन भारत के ख़िलाफ़ हर संभव मोर्चे पर प्रयास कर रहा है।
यह सदियों से अलग-अलग विचारधाराओं से सम्मानित एक प्राचीन स्मारक है।
तुर्की में हागिया सोफिया - दुनिया की सबसे अधिक प्रतियोगिता वाली इमारतों में से एक - एक बार फिर विवाद पैदा कर रही है।
यह पूर्वी रोमन साम्राज्य में एक हजार वर्षों के लिए सबसे बड़ा ईसाई गिरजाघर था।
अब, इस्तांबुल में सबसे व्यस्त पर्यटक आकर्षणों में से एक संग्रहालय है।
लेकिन ज्यादा समय के लिए नहीं, अगर तुर्की की सरकार इसे वापस मस्जिद में बदलने के लिए आगे बढ़ती है, जैसा कि ओटोमन साम्राज्य के दौरान था।
प्रस्ताव का विरोध कुछ धर्मनिरपेक्ष समूहों के साथ-साथ पूर्वी रूढ़िवादी चर्च, ग्रीक सरकार और संयुक्त राज्य के प्रमुख ने भी किया।
तुर्की की सर्वोच्च सलाहकार संस्था ने गुरुवार को मुलाकात की और कहा कि वह पंद्रह दिनों के भीतर अपने शासन की घोषणा करेगी।
पर अब क्यों?
यह किस उद्देश्य की पूर्ति करेगा?
और फैसला कितना राजनीतिक है?
प्रस्तुतकर्ता: लौरा काइल
मेहमान;
यूसुफ अलबरदा - इस्तांबुल में हैलिक विश्वविद्यालय में प्रोफेसर और राजनीतिक लेखक
यांनिस कोटसोमिटिस - प्रबंध संपादक, काप्पा न्यूज़ में ग्रीस और यूरोपीय मामलों के विशेषज्ञ
केंगिज़ तोमर - कजाकिस्तान में अहमत यासावी विश्वविद्यालय के अध्यक्ष और इतिहास के प्रोफेसर
इस्लामिक देशों के संगठन ऑर्गनाइज़ेशन ऑफ़ इस्लामिक कॉपरेशन (ओआईसी) के कॉन्टैक्ट ग्रुप के विदेश मंत्रियों की आपातकालीन बैठक में कहा गया है कि भारत सरकार की ओर से 5 अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर को लेकर जो फ़ैसला लिया गया है और नए डोमिसाइल नियम लागू किए गए हैं, वो संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव और अंतरराष्ट्रीय क़ानून जिसमें चौथा जिनेवा कंवेंशन भी शामिल है, उसका उल्लंघन है। साथ ही संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव को मानने की भारत की प्रतिबद्धता का भी उल्लंघन है।
इसके साथ ही बैठक में संयुक्त राष्ट्र की उन दो रिपोर्टों का स्वागत किया गया है जिसमें यह गया है कि भारत प्रशासित जम्मू-कश्मीर में वहां के लोगों के मानवाधिकार का व्यवस्थित तरीक़े से हनन किया गया है।
ये दोनों ही रिपोर्ट जून 2018 और जुलाई 2019 में आई थीं।
बैठक में 5 अगस्त, 2019 के बाद भारत प्रशासित जम्मू-कश्मीर में बदतर हुए मानवाधिकार की स्थिति और हालात पर चिंता ज़ाहिर की गई।
ओआईसी का यह कॉन्टैक्ट ग्रुप जम्मू-कश्मीर के लिए 1994 में बना था।
इस कॉन्टैक्ट ग्रुप के सदस्य हैं- अज़रबैजान, नीज़ेर, पाकिस्तान, सऊदी अरब और तुर्की।
ओआईसी के महासचिव डॉक्टर यूसुफ़ अल-ओथइमीन ने कहा, ''ओआईसी इस्लामी समिट, विदेश मंत्रियों की कौंसिल और अंतरराष्ट्रीय क़ानून के हिसाब से जम्मू-कश्मीर के मुद्दे का शांतिपूर्ण समाधान निकालने को लेकर प्रतिबद्ध है।''
बैठक में संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद की 16 अगस्त, 2019 और 15 जनवरी, 2020 की बैठक जो भारत की कार्रवाई को लेकर हुई थी, उसका स्वागत किया गया है।
ओआईसी ने जम्मू-कश्मीर पर अपने पुरानी स्थिति और प्रस्तावना को लेकर प्रतिबद्धता ज़ाहिर की है और कश्मीरी अवाम के आत्मनिर्णय के अधिकार की क़ानूनी लड़ाई के समर्थन को फिर से दोहराया है।
ओआईसी ने भारत से ये पाच माँग की है-
- एकतरफ़ा और ग़ैर-क़ानूनी कार्रवाई रद्द करे और कश्मीरी अवाम को स्वेच्छापूर्ण तरीक़े से उनके आत्मनिर्णय के अधिकार का संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में जनमत-संग्रह के तहत पालन करने दे।
- मानवाधिकार हनन को रोका जाए। फ़ौज के ग़लत इस्तेमाल पर रोक लगाई जाए जिसके तहत फ़ौज पैलेट-गन का इस्तेमाल करती है। फ़ौज की अभेद घेराबंदी और अमानवीय लॉकडाउन को हटाया जाए। कठोर आपातकालीन क़ानून को भंग किया जाए। मौलिक स्वतंत्रता के अधिकार को बहाल किया जाए और ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से हिरासत में लिए गए सभी लोगों को छोड़ा जाए।
- भारत प्रशासित जम्मू-कश्मीर की आबादी में किसी भी प्रकार की संरचनात्मक बदलाव को रोका जाए क्योंकि ये ग़ैर-क़ानूनी हैं और अंतरराष्ट्रीय क़ानून का उल्लंघन है, ख़ासतौर पर चौथे जिनेवा कंवेंशन का।
- ओआईसी, आईपीएचआरसी और संयुक्त राष्ट्र फ़ैक्ट फाइंडिंग मिशन, ओआईसी महासचिव के जम्मू-कश्मीर के लिए विशेष दूत और अंतरराष्ट्रीय मीडिया को भारत प्रशासित जम्मू-कश्मीर बिना रोकटोक के मानवाधिकार की उल्लंघन की जाँच-पड़ताल की इजाज़त हो।
-ओएचसीएचआर की रिपोर्ट में कश्मीर में हो रहे मानवाधिकारों के हनन को लेकर स्वतंत्र अंतरराष्ट्रीय जाँच बिठाने की माँग पर सहमति जताया जाए।
जम्मू-कश्मीर का भारत ने पिछले साल विशेष दर्जा ख़त्म किया तो पाकिस्तान का ओआईसी पर दबाव था कि वो भारत के ख़िलाफ़ कुछ कड़ा बयान जारी करे।
हालाँकि उस वक़्त ऐसा हुआ नहीं और ओआईसी लगभग तटस्थ रहा। दरअसल, ओआईसी को सऊदी अरब के प्रभुत्व वाला संगठन माना जाता है। बिना सऊदी अरब के समर्थन के ओआईसी में कुछ भी कराना असंभव सा माना जाता है।
भारत और सऊदी के व्यापक साझे हित हैं और सऊदी अरब कश्मीर को लेकर भारत के ख़िलाफ़ बोलने से बचता रहा है। अनुच्छेद 370 हटाने पर भी सऊदी अरब ने कोई बयान नहीं जारी किया था।
संयुक्त अरब अमीरात ने कहा था कि यह भारत का आंतरिक मुद्दा है। सऊदी अरब और यूएई के इस रुख़ को पाकिस्तान के लिए झटका माना जा रहा था और भारत की कूटनीतिक कामयाबी। लेकिन एक बार फिर ओआईसी में इस तरह की बैठक होना पाकिस्तान इसे अपनी कामयाबी से जोड़कर देखेगा। इससे पहले पिछले साल सितंबर में ऐसी बैठक हुई थी।
कश्मीर पर ओआईसी की तटस्थता को लेकर पाकिस्तान ने तुर्की, मलेशिया, ईरान के साथ गोलबंद होने की कोशिश की थी। इसके लिए तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन, ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी, मलेशिया के तत्कालीन प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद और पाकिस्तान के पीएम इमरान ख़ान ने कुआलालंपुर समिट में एकजुट होने की योजना बनाई थी लेकिन सऊदी अरब ने इसे ओआईसी को चुनौती के तौर पर लिया था और पाकिस्तान को इस मुहिम में शामिल होने से रोक दिया था।
तुर्की और मलेशिया कश्मीर पर पाकिस्तान के साथ खड़े दिखे जबकि बाक़ी के इस्लामिक देश तटस्थ रहे थे। हाल के दिनों में मालदीव ने भी ओआईसी में भारत का साथ दिया है।
ओआईसी की बैठक उस वक्त हो रही है जब भारत और दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था चीन के बीच तनाव है। सरहद पर भारत के 20 सैनिकों की मौत हुई है। नेपाल के साथ भी सीमा पर विवाद चल रहा है और पाकिस्तान के साथ तनाव तो पहले से ही है। ऐसे में ओआईसी की बैठक काफ़ी अहम मानी जा रही है।
ईरान, मलेशिया और तुर्की की लंबे समय से शिकायत रही है कि ओआईसी इस्लामिक देशों की ज़रूरतों और महत्वकांक्षा को जगह देने में नाकाम रहा है। ईरान, तुर्की और मलेशिया की कोशिश रही है कि कोई ऐसा संगठन बने जो सऊदी के प्रभुत्व से मुक्त हो।
जम्मू कश्मीर पर ओआईसी के इस कॉन्टैक्ट ग्रुप में सऊदी अरब भी है। अगर सऊदी बैठक नहीं चाहता तो शायद ही यह हो पाती। कहा जाता है कि सऊदी अरब के बिना ओआईसी में एक पत्ता भी नहीं हिलता है।
पाकिस्तान के भीतर इस बात की आलोचना होती रही है कि सऊदी और यूएई इस्लामिक देश हैं लेकिन वो कश्मीर के मसले पर भारत के साथ हैं।
अगर इस बैठक से कोई प्रस्ताव पास किया जाता है तो सऊदी से ही भारत उम्मीद कर सकता है कि वो उस प्रस्ताव की भाषा को किस हद तक संतुलित करवा पाता है।
कोरोना संक्रमण के मामले में भारत दुनिया में अब चौथे नंबर पर पहुँच गया है। अमरीका, ब्राज़ील और रूस ही केवल भारत से आगे हैं।
इसी बीच 16 और 17 जून को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक बार फिर राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक करने वाले हैं।
1 जून से पूरे भारत में अलग-अलग तरह से अनलॉक-1 लागू किया गया। अनलॉक-1 में धार्मिक स्थलों, रेस्तरां और मॉल्स को खोलने की इजाज़त दी गई।
उसके बाद की स्थिति का जायज़ा लेने के लिए प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के बीच की ये पहली बैठक है।
भारत में कोरोना के बढ़ते मामलों और हर रोज़ बढ़ते मौत के आँकड़ों के बीच इस बैठक को बेहद अहम माना जा रहा है।
खास तौर पर तब जब दिल्ली के लिए 12 एक्सपर्ट की टीम भारत की केंद्र सरकार ने बनाई है।
सबसे बड़ा सवाल कि क्या लॉकडाउन से जो कुछ हासिल हुआ, क्या अनलॉक-1 में उसे खो दिया?
31 मई को भारत में कोरोना के कुल 1 लाख 82 हज़ार मामले थे।
जबकि 15 जून को 3 लाख 32 हज़ार मामले हैं। यानी दोगुने से थोड़ा कम।
दिल्ली और मुंबई में अनलॉक-1 का सबसे बुरा ज़्यादा असर पड़ा है।
31 मई को दिल्ली में जहाँ 18549 मामले थे, वहीं 15 जून को ये आँकड़ा 41 हज़ार से ज्यादा है।
महाराष्ट्र में 31 मई को 65159 मामले थे, जो 15 जून को बढ़ कर 1 लाख 8 हज़ार के पास पहुँच गया है।
उपरोक्त तथ्यों से प्रमाणित होता है कि अनलॉक-1 के बाद भारत में कोरोना के बढ़ने की रफ़्तार में तेज़ी आई है।
भारत में कोरोना का पहला मामला 30 जनवरी को मिला था। 24 मार्च को जब मोदी ने लॉकडाउन की घोषणा की थी तब भारत में केवल 550 पॉज़िटिव मामले ही थे।
इसलिए रोज़ जिस रफ़्तार से मामले बढ़ रहे हैं, उससे लोगों में चिंता बढ़ती जा रही है।
यही हाल मौत के आँकड़ों का भी है। भारत में 15 जून तक कोरोना से मरने वालों की संख्या 9520 है, जो 31 मई तक भारत में 5164 थी यानी तीन महीने में भारत में जितने लोगों की मौत नहीं हुई, तक़रीबन उतने ही लोगों की मौत जून के पहले 15 दिनों में हो गई।
दिल्ली की बात करें, तो 31 मई तक मरने वालों की संख्या 416 थी, जो अब 1327 हो गई है। यानी तक़रीबन तीन गुना।
महाराष्ट्र में 31 मई तक 2197 मौत हुई थी। जो 15 जून तक 3950 है। यानी तक़रीबन दोगुना हो गया है मौत का आँकड़ा।
लेकिन भारत के लिए एक अच्छी बात ये है कि दुनिया में मौत के आँकड़ों में भारत टॉप पाँच देशों में नहीं हैं। वो पाँच देश जहां कोरोना के कारण मौतों की संख्या सबसे अधिक है वो हैं अमरीका, ब्राज़ील, ब्रिटेन, इटली और फ्रांस।
31 मई को भारत में तक़रीबन 1 लाख 25 हज़ार लोगों के टेस्ट हुए थे। जबकि 14 जून को भारत में कुल 1 लाख 15 हज़ार लोगों के कोरोना टेस्ट हुए।
वैसे हर दिन के हिसाब से ये आँकड़े ज़रूर बदलते रहते हैं। लेकिन ऐसा नहीं कि पिछले 15 दिनों में कोरोना टेस्ट की संख्या में बहुत ज़्यादा इज़ाफ़ा हुआ हो। आज भी भारत में एक दिन में सवा लाख से डेढ़ लाख लोगों के ही टेस्ट हो रहे हैं।
दिल्ली में पिछले कुछ दिनों में ये संख्या थोड़ी कम ही हुई है। दिल्ली सरकार ने जून के शुरुआती हफ्ते में कुछ टेस्टिंग लैब्स पर कार्रवाई की थी। जिसकी वजह से टेस्ट कम होने लगे थे।
दिल्ली में पिछले तीन दिनों से रोज़ कोरोना के 2000 से ज़्यादा मामले सामने आ रहे हैं। महाराष्ट्र का हाल भी इससे ज़्यादा अलग नहीं है।
31 मई तक भारत में 37 लाख 37 हज़ार टेस्ट हुए थे। वहीं 14 जून तक भारत में 57 लाख 74 हज़ार टेस्ट हो चुके हैं। यहाँ 15 दिन में लगभग 20 लाख टेस्ट हुए है।
मई के अंत तक भारत में रिकवरी रेट 47.76 फ़ीसदी बताई जा रही थी। कोरोना संक्रमित मरीज़ों के ठीक होने की दर 51 फ़ीसदी हो गई है। अनलॉक-1 में सरकार इसे एक पॉज़िटिव साइन के तौर पर देख रही है।
लेकिन दिल्ली और मुंबई में ये राष्ट्रीय औसत से कम हैं। दिल्ली में इस वक़्त रिकवरी रेट 38 फ़ीसदी के आसपास है, और मुंबई की रिकवरी रेट 45 फ़ीसदी से ज्यादा है।
लेकिन विश्व स्तर पर भारत रिकवरी रेट में सबसे आगे नहीं है। जर्मनी का रिकवरी रेट तक़रीबन 90 फ़ीसदी से ऊपर है, जो दुनिया में सबसे बेहतर है।
ईरान और इटली का उसके बाद नंबर आता है। इन दोनों देशों में रिकवरी रेट 70 से ऊपर है। भारत में इस वक़्त रिकवरी रेट रूस के बराबर है जहाँ रिकवरी रेट 50 फ़ीसदी के आसपास है।
भारत के जाने माने डॉक्टर मोहसिन वली मानते हैं कि इन आँकड़ों के आधार पर ये कहा जा रहा है कि देश ने लॉकडाउन करके जो कुछ हासिल किया उन सब को बर्बाद कर दिया है।
उनके मुताबिक़ आँकड़े बता रहे हैं कि लोगों ने अनलॉक की छूट का ख़ूब फ़ायदा उठाया और सोशल डिस्टेंसिंग, मास्क पहनना और हाथ धोना भूल गए।
प्रवासी मज़दूरों की आवाजाही ने कोरोना वायरस संक्रमण को बढ़ाया। ये पूछे जाने पर कि प्रवासी मज़दूर तो मई में ज़्यादा एक जगह से दूसरे जगह गए, डॉक्टर वली का कहना है कि उसका असर देश के कोरोना ग्राफ़ पर जून में ही दिखाई दे रहा है।
लेकिन डॉक्टर वली अब भी नहीं मानते कि अनलॉक-1 को हटा कर दोबारा लॉकडाउन लगाना चाहिए। उनके मुताबिक़ कोरोना के साथ जीना है, तो ऐसे में ही घर बैठना उपाय नहीं है। हमें सब काम जारी रखना है लेकिन एहतियात बरतते हुए।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी कहा है कि दिल्ली में फिर लॉकडाउन की कोई योजना नहीं है।
यही बात दिल्ली के व्यापारी संघ के लोग भी कह रहे हैं। दिल्ली के व्यापारियों ने निर्णय लिया कि दिल्ली के बाज़ार फ़िलहाल खुले रहेंगे।
बाज़ारों को बंद रखने, खुला रखने या बाज़ारों में ऑड-ईवन व्यवस्था अथवा एक दिन छोड़कर एक दिन दुकान खोलने का निर्णय दिल्ली के व्यापारी संगठन स्थिति का आकलन करते हुए स्वयं निर्णय लेंगें।
पिछले दिनों भारत के तमाम धार्मिक स्थलों को खोलने की इजाज़त के बाद भी दिल्ली स्थित जामा मस्जिद 30 जून तक के लिए बंद कर दिया गया है।
अब नज़रें 16-17 जून को भारतीय प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों की बैठक पर टिकी है। भारत के बढ़ते कोरोना ग्राफ़ को देखते हुए भारत के प्रधानमंत्री क्या निर्णय लेते हैं?
कोरोना वायरस तुर्की में देर से आया। यहां संक्रमण का पहला मामला 19 मार्च को दर्ज किया गया था। लेकिन जल्द ही यह तुर्की के हर कोने में फैल गया। महीने भर के भीतर ही तुर्की के सभी 81 प्रांतों में कोरोना वायरस फैल चुका था।
तुर्की में दुनिया में सबसे तेज़ी से कोरोना संक्रमण फैल रहा था। हालात चीन और ब्रिटेन से भी ज़्यादा ख़राब थे। आशंकाएं थी कि बड़े पैमानों पर मौतें होंगी और तुर्की इटली को भी पीछे छोड़ देगा। उस समय इटली सबसे ज़्यादा प्रभावित देश था।
तीन महीने गुज़र गए हैं, लेकिन ऐसा नहीं है, वो भी तब जब तुर्की ने पूर्ण लॉकडाउन लागू ही नहीं किया।
तुर्की में आधिकारिक तौर पर 4397 लोगों की कोरोना संक्रमण से मौत की पुष्टि की गई है। दावे किए जा रहे हैं कि वास्तविक संख्या इसके दो गुना तक हो सकती है क्योंकि तुर्की में सिर्फ़ उन लोगों को ही मौत के आंकड़ों में शामिल किया गया है जिनकी टेस्ट रिपोर्ट पॉज़िटिव थीं।
लेकिन अगर दूसरे देशों की तुलना में देखा जाए तो सवा आठ करोड़ की आबादी वाले इस देश के लिए ये संख्या कम ही है।
विशेषज्ञ चेताते हैं कि कोरोना संक्रमण को लेकर किसी नतीजे पर पहुंचना या दो देशों के आंकड़ों की तुलना करना मुश्किल है, वो भी तब जब कई देशों में मौतें जारी हैं।
लेकिन यूनिवर्सिटी आफ़ केंट में वायरलॉजी के लेक्चरर डॉ. जेरेमी रॉसमैन के मुताबिक़ 'तुर्की ने बर्बादी को टाल दिया है।'
उन्होंने बीबीसी से कहा, ''तुर्की उन देशों में शामिल है जिसने बहुत जल्द प्रतिक्रिया दी। ख़ासकर टेस्ट करने, पहचान करने, अलग करने और आवागमन को रोकने के मामले में। तुर्की उन चुनिंदा देशों में शामिल है जो वायरस की गति को प्रभावी तरीक़े से कम करने में कामयाब रहे हैं।''
जब वायरस की रफ़्तार बढ़ रही थी, अधिकारियों ने रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए। कॉफ़ी हाउस जाने पर रोक लग गई, शापिंग बंद हो गई, मस्जिदों में सामूहिक नमाज़ रोक दी गई।
पैंसठ साल से ऊपर और बीस साल से कम उम्र के लोगों को पूरी तरह लॉकडाउन में बंद कर दिया गया। सप्ताहांत में कर्फ्यू लगाए गए और मुख्य शहरों को सील कर दिया गया।
इस्तांबुल तुर्की में महामारी का केंद्र था। इस शहर ने अपनी रफ़्तार खो दी, जैसे कोई दिल धड़कना बंद कर दे।
अब प्रतिबंधों में धीरे-धीरे ढील दी जा रही है, लेकिन डॉ. मेले नूर असलान अभी भी चौकन्नी रहती हैं। वो फ़तीह ज़िले की स्वास्थ्य सेवाओं की निदेशक हैं। ये इस्तांबुल के केंद्र में एक भीड़भाड़ वाला इलाक़ा है। ऊर्जावान और बातूनी डॉ. असलान कांटेक्ट ट्रेसिंग अभियान का नेतृत्व कर रही हैं। पूरे तुर्की में कांटेक्ट ट्रेसिंग अभियान की छह हज़ार टीमें हैं।
वो बताती हैं, ऐसा लगता है जैसे हम युद्धक्षेत्र में हों। मेरी टीम के लोग घर जाना ही भूल जाते हैं, आठ घंटे के बाद भी वो काम करते रहते हैं। वो घर जाने की परवाह नहीं करते क्योंकि वो जानते हैं कि वो अपनी ड्यूटी निभा रहे हैं।
डॉ. मेले नूर असलान कहती हैं कि उन्होंने मार्च 11, यानी पहले दिन से ही वायरस को ट्रैक करना शुरू कर दिया था, इसमें ख़सरे की बीमारी को ट्रैक करने का उनका अनुभव काम आया।
वो कहती हैं, ''हमारी योजना तैयार थी। हमने सिर्फ़ अलमारी से अपनी फ़ाइलें निकालीं और हम काम पर लग गए।''
फ़तीह की तंग गलियों में हम दो डॉक्टरों के साथ हो लिए। पीपीई किटें पहने ये डॉक्टर एक एप का इस्तेमाल कर रहे थे। वो एक अपार्टमेंट में एक फ्लैट में गए जहां दो युवतियां क्वारंटीन में थीं। उनका दोस्त कोविड पॉज़िटिव है।
अपार्टमेंट के गलियारे में ही दोनों महिलाओं के कोविड के लिए परीक्षण किए गए, उन्हें रिपोर्ट चौबीस घंटों के भीतर मिल जाएगी। एक दिन पहले उन्हें हल्के लक्षण दिखने शुरु हुए हैं। 29 वर्षीया मज़ली देमीरअल्प शुक्रगुज़ार हैं कि उन्हें तुरंत रेस्पांस मिला है।
वो कहती हैं, ''हम विदेशों की ख़बरें सुनते हैं। शुरू में जब हमें वायरस के बारे में पता चला तो हम बेहद डर गए थे लेकिन जितना हमने सोचा था तुर्की ने उससे तेज़ काम किया। यूरोप या अमरीका के मुक़ाबले बहुत तेज़ काम किया।''
तुर्की में विश्व स्वास्थ्य संगठन के कार्यकारी प्रमुख डॉ. इरशाद शेख कहते हैं कि तुर्की के पास सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर दुनिया के लिए कई सबक़ हैं।
उन्होंने बीबीसी से कहा, ''शुरुआत में हम चिंतित थे। रोज़ाना साढ़े तीन हज़ार तक नए मामले आ रहे थे। लेकिन टेस्टिंग ने बहुत काम किया। और नतीजों के लिए लोगों को पांच-छह दिनों का इंतेज़ार नहीं करना पड़ा।''
उन्होंने तुर्की की कामयाबी का श्रेय कांटेक्ट ट्रेसिंग, क्वारंटीन और तुर्की की अलग-थलग करने की नीति को भी दिया।
तुर्की में मरीज़ों को हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन भी दी गई। अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने इसकी जमकर तारीफ़ की थी लेकिन अंतरराष्ट्रीय शोध ने इस दवा को खारिज कर दिया है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोरोना के इलाज के तौर पर इस दवा का ट्रायल रोक दिया है। मेडिकल जर्नल लेंसेट में प्रकाशित एक शोध पत्र में दावा किया गया है कि इस दवा से कोविड-19 के मरीज़ों में कार्डिएक अरेस्ट का ख़तरा बढ़ जाता है और इससे फ़ायदे से ज़्यादा नुकसान हो सकता है।
हमें उन अस्पतालों में जाने की अनुमति दी गई जहां हज़ारों लोगों को दवा के रूप में हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन दी गई है। दो साल पहले बना डॉ. सेहित इल्हान वारांक अस्पताल कोविड के ख़िलाफ़ लड़ाई का केंद्र बना हुआ है।
यहां की चीफ़ डॉक्टर नुरेत्तिन यीयीत कहते हैं कि शुरू में ही हाड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन इस्तेमाल करना अहम है। डॉ यीयीत के बनाए चित्र इस नए चमकदार अस्पताल की दीवारों पर लगे हैं।
वो कहती हैं, ''दूसरे देशों ने इस दवा का इस्तेमाल देरी से शुरू किया है, ख़ासकर अमरीका ने, हम इसका इस्तेमाल सिर्फ़ शुरुआती दिनों में करते हैं, हमें इस दवा को लेकर कोई झिझक नहीं है। हमें लगता है कि ये प्रभावशाली है क्योंकि हमें नतीजे मिल रहे हैं।''
अस्पताल का दौरा कराते हुए डॉ, यीयीत कहते हैं कि तुर्की ने वायरस से आगे रहने की कोशिश की है। हमने शुरू में ही इलाज किया है और आक्रामक रवैया अपनाया है।
यहां डॉक्टर हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन के अलावा दूसरी दवाओं, प्लाज़्मा और बड़ी मात्रा में ऑक्सीजन का इस्तेमाल करते हैं।
डॉ. यीयीत को गर्व है कि उनके अस्पताल में कोविड से मरने वालों की दर एक प्रतिशत से भी कम रही है। यहां कि इंटेसिव केयर यूनिट यानी आईसीयू में बिस्तर खाली हैं। वो मरीज़ों को यहां से बाहर और वेंटिलेटर के बिना ही रखने की कोशिश करते हैं।
हम चालीस साल के हाकिम सुकूक से मिले जो इलाज कराने के बाद अब अपने घर लौट रहे हैं। वो डॉक्टरों के शुक्रगुज़ार हैं।
वो कहते हैं, ''सभी ने मेरा बहुत ध्यान रखा है। ऐसा लग रहा था जैसे मैं अपनी मां की गोद में हूं।''
तुर्की मेडिकल एसोसिएशन ने अभी महामारी पर सरकार के रेस्पांस को क्लीन चिट नहीं दी है। एसोसिएशन कहती है कि सरकार ने जिस तरह से महामारी को लेकर क़दम उठाए उनमें कई कमियां थीं।
इनमें सीमाओं को खुला छोड़ देना भी शामिल है।
हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन तुर्की को कुछ श्रेय दे रहा है। डॉ शेख कहते हैं, ''ये महामारी अपने शुरुआती दिनों में है। हमें लगता है कि और भी बहुत से लोग गंभीर रूप से बीमार होंगे। कुछ तो है जो ठीक हो रहा है।''
कोरोना महामारी के ख़िलाफ़ लड़ाई में तुर्की के पक्ष में भी कई चीज़ें हैं। जैसे, युवा आबादी और आईसीयू के बिस्तरों की अधिक संख्या। लेकिन अभी भी रोज़ाना लगभग एक हज़ार नए मामले सामने आ ही रहे हैं।
तुर्की को कोरोना के ख़िलाफ़ लड़ाई में कामयाबी की कहानी के तौर पर देखा जा रहा है, लेकिन अभी भी सावधानी बरतने की ज़रूरत है क्योंकि अभी ये कहानी ख़त्म नहीं हुई है।
कोरोना महामारी ने भारत की आर्थिक सेहत पर भी बहुत बुरा असर डाला है। इस बात से भारत सरकार भी इनकार नहीं कर रही है और कह रही है कि वो देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए पूरी कोशिश कर रही है।
लेकिन भारत की अर्थव्यवस्था जिन राज्यों पर टिकी है, उनकी नींव कोरोना ने हिलाकर रख दी है। ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि भारत का आर्थिक पुनर्जीवन कितनी मुश्किल और चुनौती भरा रहेगा?
दरअसल भारत की जीडीपी में जिन राज्यों की सबसे ज़्यादा हिस्सेदारी है उनमें सबसे पहले नंबर पर महाराष्ट्र और दूसरे नंबर पर तमिलनाडु और तीसरे नंबर पर गुजरात हैं। इन राज्यों पर कोरोना की बुरी मार पड़ी है, यहां संक्रमण के मामले और मौतों का आंकड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है, इसने इन राज्यों की अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी है। इसका सीधा असर शनिवार को जारी देश के ताज़ा जीडीपी आंकड़ों में भी देखने को मिला।
ध्यान देने की बात है कि जीडीपी के जो आँकड़े जारी किये गए है उसमें लॉकडाउन के सिर्फ 7 दिनों के आँकड़े शामिल है। लॉकडाउन में हुए आर्थिक नुकसान के आँकड़े अभी नहीं आये हैं। लॉकडाउन के दौरान भारत की अर्थव्यवस्था की तबाही के आँकड़े आने अभी बाकी है। मूडीज़ ने कहा है कि भारत के जीडीपी में 4 फीसदी की गिरावट आएगी। यानि अभी आर्थिक तबाही आनी बाकी है।
महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई को भारत की आर्थिक राजधानी कहा जाता है। यहां बड़े कॉरपोरेट और फाइनेंशियल इंस्टीट्यूशन के मुख्यालय हैं। व्यूवरशिप के मामले में दुनिया की सबसे बड़ी फ़िल्म इंडस्ट्री बॉलीवुड मुंबई में है। महाराष्ट्र देश में कॉटन, गन्ने और केले का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक भी है।
ये राज्य बड़े बाज़ारों से अच्छे से जुड़ा हुआ है, यहां चार अंतरराष्ट्रीय और सात घरेलू हवाई अड्डे हैं। क़रीब तीन लाख किलोमीटर लंबा रोड नेटवर्क और 6,165 किलोमीटर लंबा रेल नेटवर्क है। राज्य का समुद्रतट 720 किलोमीटर लंबा है और 55 बंदरगाह हैं। जहां देश का क़रीब 22 प्रतिशत कार्गो ट्रांसपोर्ट होता है।
2017-18 में महाराष्ट्र का जीएसडीपी यानी ग्रॉस स्टेट डोमेस्टिक प्रोडक्ट $387 अरब रहा था और राज्य ने देश की जीडीपी में 15 प्रतिशत की हिस्सेदारी दी थी।
लेकिन कोरोना महामारी ने महाराष्ट्र को बुरी तरह प्रभावित किया है। अब तक सबसे ज़्यादा मामले यहीं सामने आए हैं। कोरोना संक्रमण के मामलों को नियंत्रित करने के लिए लगाए लॉकडाउन का सीधा असर राज्य की अर्थव्यवस्था पर पड़ा है। सब काम धंधे ठप हो गए हैं। फ़िल्म इंडस्ट्री बंद है। आयात और निर्यात का काम रुका हुआ है। इस सब से महाराष्ट्र राज्य को बहुत आर्थिक नुक़सान हुआ है।
भारत में सबसे ज़्यादा फ़ैक्ट्रियां तमिलनाडु में हैं।
तमिलनाडु का मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर काफ़ी विविध है। यहां ऑटोमोबाइल, फ़ार्मा, टेक्सटाइल, चमड़े के उत्पाद, केमिकल समेत कई चीज़ों की बड़ी इंडस्ट्री हैं।
तमिलनाडु के पास बेहतरीन इंफ्रास्ट्रक्चर है। इस राज्य का रोड और रेल नेटवर्क काफ़ी अच्छा माना जाता है। साथ ही यहां सात हवाई अड्डे हैं। तमिलनाडु के पास 1,076 किलोमीटर यानी देश का दूसरा सबसे लंबा समुद्र तट है। जहां 4 मेजर और 22 नॉन-मेजर पोर्ट हैं।
2017-18 में भारत से हुए कुल ऑटो निर्यात का 45 प्रतिशत तमिलनाडु से हुआ था। पैसेंजर वाहनों के मामले में भी तमिलनाडु एक्सपोर्ट हब है, पैसेंजर वाहनों में भारत के कुल निर्यात का 70 प्रतिशत तमिनलाडु करता है। तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई भारत की ऑटोमोबाइल कैपिटल है। तमिलनाडु देश में सबसे ज़्यादा टायर बनाता है।
2018-19 में तमिलनाडु का जीएसडीपी (ग्रॉस स्टेट डोमेस्टिक प्रोडक्ट) $229.7 अरब रहा था। तमिलनाडु देश की दूसरी सबसे ज़्यादा जीडीपी वाला राज्य है।
लेकिन कोरोना ने तमिलनाडु को काफ़ी प्रभावित किया है जिससे बचने के लिए लगाए गए लॉकडाउन की वजह से सभी आर्थिक गतिविधियां बंद हुईं। फ़ैक्ट्रियां बंद करनी पड़ी और बुरे दौर में चल रहा ऑटो सेक्टर और बुरी स्थिति में आ गया। इससे राज्य को आर्थिक तौर पर बहुत नुक़सान हुआ।
गुजरात कच्चे तेल (तटवर्ती) और प्राकृतिक गैस का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। यहां जामनगर में दुनिया का सबसे बड़ा पेट्रोलियम रिफाइनिंग हब है। इसके अलावा गुजरात प्रोसेस्ड डायमंड में ग्लोबल लीडर है। वहीं दुनिया में डेनिम का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक है।
गुजरात सरकार की माने तों राज्य में 30 हज़ार से ज़्यादा फूड प्रोसेसिंग यूनिट है। 560 कोल्ड स्टोरेज और फिश प्रोसेसिंग यूनिट है।
नेशनल लॉजिस्टिक इंडेक्स 2019 के मुताबिक़, भारत में लॉजिस्टिक के मामले में गुजरात नंबर वन है। गुजरात में 49 बंदरगाह हैं, जिनमें एक मेजर पोर्ट है और 48 नॉन-मेजर पोर्ट हैं। गुजरात में 17 एयरपोर्ट भी हैं, जिनमें एक अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट है।
2017-18 में गुजरात में $66.8 अरब का एक्सपोर्ट दर्ज किया गया। जो भारत के कुल निर्यात का 22 प्रतिशत से भी ज़्यादा था। 2016-17 के आंकड़ों को देखें तो गुजरात का जीएसडीपी $173 अरब रहा था।
प्रति व्यक्ति आय के मामले में दूसरे नंबर पर रहने वाला दिल्ली भारत के सबसे तेज़ी से आगे बढ़ रहे क्षेत्रों में से एक है। 2018-19 में इसका ग्रोथ रेट 12.82 प्रतिशत रहा था।
भारत की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली पर्यटकों के बीच ख़ासी लोकप्रिय है। साल भर यहां ट्रेड फेयर और कन्वेंशन भी होते रहते हैं। यहां आकर्षित रियल एस्टेट मार्केट भी है और एग्रोकेमिकल बेस्ड प्रोडक्ट को लेकर बड़ी संभावनाएं भी। दिल्ली और आसपास के नेशनल कैपिटल रीजन (एनसीआर) को पशुधन और डायरी प्रोडक्ट के लिए जाना जाता है। यहां की डायरी में हर दिन तीन मीलियन लीटर दूध की क्षमता है।
भारत का सबसे बड़ा मेट्रो रेल नेटवर्क भी दिल्ली में है। 2018-19 में दिल्ली की जीएसडीपी $109 अरब रही है।
लेकिन कोरोना वायरस के चलते मेट्रो रेल को बंद करना पड़ा। पर्यटन रुक गया। व्यापारिक गतिविधियां रुक गईं। इन सब से दिल्ली और फिर भारत की अर्थव्यवस्था पर काफ़ी असर पड़ा।
लेकिन कोरोना वायरस की मार के चलते भारत में इन सभी आर्थिक गतिविधियों को रोकना पड़ा। जिससे राज्यों को नुक़सान हुआ और इसका सीधा असर भारत की अर्थव्यवस्था पर पड़ा।
सबसे ज़्यादा कोरोना मामले महाराष्ट्र में दर्ज किए जा रहे हैं। उसके बाद तमिलनाडु, दिल्ली और गुजरात जैसे राज्य हैं।
ज़्यादा मामले होने की वजह से यहां के ज़्यादातर इलाक़े रेड ज़ोन में रहे हैं। जहां पर लॉकडाउन के दौरान आर्थिक गतिविधियां ना के बराबर रहीं है। जिसकी वजह से काफ़ी आर्थिक नुक़सान हुआ है।
हालांकि लॉकडाउन से हुए नुक़सान को लेकर कोई आधिकारिक आँकड़ा नहीं आया है। लेकिन एसबीआई ग्रुप के चीफ़ इकोनॉमिक एडवाइज़र सौम्य कांती घोष ने अपनी टीम के साथ मिलकर एक रिपोर्ट लिखी है, जिसे जीडीपी के आंकड़े जारी होने से पहले 26 मई को जारी किया गया था। इस रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया कि कोरोना महामारी की वजह से राज्यों की कुल जीएसडीपी यानी ग्रॉस स्टेट डोमेस्टिक प्रोडक्ट में 30.3 लाख करोड़ रुपए का नुक़सान हुआ है। जो कुल जीएसडीपी का 13.5% है।
सबसे ज़्यादा नुक़सान (50 प्रतिशत) रेड ज़ोन यानी जहां सबसे ज़्यादा मामले हैं, वहां हुआ। भारत के लगभग सभी बड़े ज़िले रेड ज़ोन में हैं। ऑरेंज और रेड ज़ोन को मिलाकर जितना नुक़सान हुआ वो कुल नुक़सान का 90 प्रतिशत है। ग्रीन ज़ोन में सबसे कम नुक़सान हुआ। क्योंकि इस ज़ोन की 80 फ़ीसदी आबादी ग्रामीण इलाक़ों में रहती है, जहां लगभग सभी गतिविधियां खुली हुई थीं।
शनिवार को जब भारत की कुल जीडीपी के आंकड़े जारी हुए तो पता चला कि मौजूदा वित्त वर्ष की चौथी तिमाही में, पिछले साल की तुलना में देश की विकास दर घटकर 3.1 प्रतिशत रह गई है। इससे पूरे वित्तीय वर्ष की जीडीपी दर 4.2 प्रतिशत पर आ गई, जो 11 साल का सबसे निचला स्तर है।
एसबीआई ग्रुप की चीफ़ इकोनॉमिक एडवाइज़र सौम्य कांती घोष की रिपोर्ट के मुताबिक़ राज्यवार विश्लेषण से पता चलता है कि कुल जीडीपी में जो नुक़सान हुआ है, उसका 75 प्रतिशत 10 राज्यों की वजह से हुआ।
कुल नुक़सान में महाराष्ट्र की 15.6% हिस्सेदारी है, इसके बाद तमिलनाडु की जीडीपी नुक़सान में 9.4 प्रतिशत हिस्सेदारी है और गुजरात की 8.6% हिस्सेदारी है। इन्हीं तीन राज्यों में सबसे ज़्यादा कोरोना के मामले दर्ज किए गए हैं।
अगर सेक्टर के हिसाब से देखें तो सिर्फ़ कृषि में सुधार हुआ है। जबकि दूसरे बड़े सेक्टरों में अधिकतर में स्थिति बहुत बुरी रही है। मौजूदा वित्त वर्ष की चौथी तिमाही के आंकड़ों पर नज़र डाले तों अधिकतर सेक्टरों की नेट सेल नकारात्मक रही है।
ऑटोमोबाइल सेक्टर में नेट सेल 15 रही है। बिजली के उपकरणों की नेट सेल 17 रही है। सिमेंट की नेट सेल 10 रही है। एफएमसीजी की नेट सेल 4 रही है। टेक्सटाइल की नेट सेल 30 रही। स्टील की नेट सेल 21 रही है।
हालांकि हेल्थकेयर, आईटी सेक्टर और फार्मा के आंकड़े कुछ सकारात्मक रहे हैं।
लॉकडाउन की वजह से आयात-निर्यात पर भी बुरा असर पड़ा, साथ ही पर्यटन से होने वाली आय भी रुक गई।
अब सवाल उठता है कि आगे की राह क्या है?
एसबीआई ग्रुप के चीफ़ इकोनॉमिक एडवाइज़र सौम्य कांती घोष के अनुसार लॉकडाउन से बहुत ही समझदारी से बाहर निकलना होगा। उनकी रिपोर्ट कहती है कि कोरोना महामारी के बाद भी कंसम्पशन पैटर्न में कुछ बदलाव आने की संभावना है।
नील्सन रिपोर्ट के मुताबिक़, दो तरह के ग्राहक कंसम्पशन डायनेमिक को तय करेंगे। एक मिडिल इनकम ग्रुप, जिनकी आय लॉकडाउन में ज़्यादा प्रभावित नहीं हुई और दूसरे वो, जिनकी नौकरी चली गई और जिन पर सबसे ज़्यादा बुरा असर पड़ा। बल्कि पहले वाला भी बहुत सोच समझकर ख़र्च करेगा, क्योंकि वो सोचेगा कि अब मेरी बारी हो सकती है। साथ ही वो सस्ती चीज़ें ख़रीदेंगे। प्रतिबंधों में ढील के बावजूद ज़्यादातर लोग घर का खाना खाएंगे। हालांकि हेल्थ, सेफ्टी और क्वालिटी पर लोग खर्च करेंगे।
अगर ऐसा होता है तो ज़ाहिर है कि आने वाले वक़्त में भी जीडीपी के आंकड़ों में काफ़ी उतार देखने को मिल सकता है। यानि भारत में आर्थिक तबाही का तूफ़ान आना अभी बाकी है!
रेटिंग एजेंसी मूडीज़ ने भारत की रेटिंग गिरा दी है। रेटिंग का अर्थ क्रेडिट रेटिंग है जिसे आसान भाषा में साख भी कहा जा सकता है।
बाज़ार में किसी की साख ख़राब होने का जो मतलब है एकदम वही मतलब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में देश की रेटिंग गिर जाने का है। यानी क़र्ज़ मिलना मुश्किल होगा और जो क़र्ज़ पहले से ले रखे हैं उनकी वापसी का दबाव बढ़ेगा। मूडीज़ दुनिया की तीसरी बड़ी रेटिंग एजेंसी है जिसने भारत को डाउनग्रेड किया है। दो अन्य एजेंसियाँ फ़िच और स्टैंडर्ड एंड पूअर पहले ही ये रेटिंग गिरा चुकी थीं।
मूडीज़ के रेटिंग गिराने का अर्थ यह है कि भारत सरकार विदेशी बाज़ारों या घरेलू बाज़ारों में क़र्ज़ उठाने के लिए जो बॉंड जारी करती है अब उन्हें कम भरोसेमंद माना जाएगा। ये रेटिंग पिछले बाईस सालों में सबसे निचले स्तर पर पहुँच गई है। इससे पहले 1998 में रेटिंग गिराई गई थी, और वो इसी स्तर पर पहुँची थी। जब भारत के परमाणु परीक्षणों के बाद अमेरिका ने भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए थे।
ग़नीमत सिर्फ़ इतनी है कि मूडीज़ ने रेटिंग गिराकर Baa3 पर पहुंचाई है जिसे इन्वेस्टमेंट ग्रेड का सबसे निचला पायदान कहा जा सकता है। इसका अर्थ ये है कि भारत सरकार की तरफ से जारी होने वाले लंबी अवधि के बॉंड अभी निवेश के लायक माने जाएंगे, बस इनमें जोख़िम बढ़ा हुआ मानकर।
पिछले साल नवंबर में भी आशंका थी कि मूडीज़ रेटिंग गिरा सकता है, लेकिन तब उसने रेटिंग इससे एक पायदान ऊपर यानी Baa2 पर बरकरार रखी थी। हालाँकि उस वक़्त उसने भारत पर अपना नज़रिया बदल दिया था। यानी उसे समस्या की आशंका दिख रही थी। उसने भारत पर अपना आउटलुक बदलकर स्टेबल से निगेटिव कर दिया था।
तब विश्लेषकों ने कहा था कि ज़्यादा फ़िक्र की बात नहीं है क्योंकि अर्थव्यवस्था रफ़्तार पकड़ेगी और मूडीज़ का मूड भी बिगड़ने के बजाय सुधर जाएगा। लेकिन अब ये उम्मीद तो बहुत दूर की कौड़ी साबित हो रही है। और फ़िक्र की बात ये है कि रेटिंग गिराने के बाद भी मूडीज ने अपना आउटलुक निगेटिव ही रखा है। इसका सीधा मतलब यह है कि उसे यहाँ से हालात और ख़राब होने का डर है।
मूडीज़ ने रेटिंग गिराने के जो कारण बताए हैं उन पर भी नज़र डालना ज़रूरी है। उनके हिसाब से 2017 के बाद से देश में आर्थिक सुधार लागू करने का काम काफ़ी सुस्त पड़ा है। लंबे समय से आर्थिक तरक़्क़ी यानी जीडीपी ग्रोथ में बढ़त की रफ़्तार कमजोर दिख रही है। सरकारों के ख़ज़ाने की हालत काफ़ी ख़स्ता हो रही है, केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों का हाल ऐसा है। और भारत के वित्तीय क्षेत्र में लगातार स्ट्रेस या तनाव बढ़ रहा है। यहाँ तनाव का मतलब है क़र्ज़ दिया हुआ या लगाया हुआ पैसा वापस न आने या डूबने का ख़तरा।
और आउटलुक ख़राब होने का अर्थ है कि एजेंसी को भारत की अर्थव्यवस्था और वित्तीय ढाँचे में एक साथ जुड़े हुए कई खतरे दिख रहे हैं जिनके असर से भारत सरकार की माली हालत उससे भी कहीं और कमजोर हो सकती है जैसा अंदाज़ा एजेंसी अभी लगा रही है।
और सबसे ख़तरनाक या चिंताजनक बात यह है कि मूडीज़ के इस डाउनग्रेड की वजह कोरोना से पैदा हुआ आर्थिक संकट क़तई नहीं है। उसका कहना है कि इस महामारी ने सिर्फ़ उन ख़तरों को बड़ा करके दिखा दिया है जो भारतीय अर्थव्यवस्था में पहले से ही पनप रहे थे। इन्हीं ख़तरों को देखकर मूडीज़ ने पिछले साल अपना आउटलुक बदला था।
यहाँ यह याद रखना चाहिए कि उससे दो साल पहले नवंबर 2017 में मूडीज़ ने भारत की क्रेडिट रेटिंग बढ़ाई थी। उस वक़्त उसे उम्मीद थी कि भारत में कुछ ज़रूरी आर्थिक सुधार लागू किए जाएँगे जिनसे देश की माली हालत धीरे धीरे मज़बूत होगी। लेकिन अब उसे शिकायत है कि उस वक़्त के बाद से सुधारों की रफ़्तार भी धीमी रही है और जो हुए भी उनका ख़ास असर नहीं दिखता।
अब समझना ज़रूरी है कि रेटिंग गिरने का नुक़सान क्या है और इसका असर क्या हो सकता है? यह भी रेटिंग का फ़ैसला करते वक़्त जोड़ा जाता है।
भारत सरकार और राज्य सरकारें अनेक अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों से क़र्ज़ लेती हैं। मूडीज़ का ही कहना है कि कोरोना संकट आने से पहले ही सरकारों का क़र्ज़ देश की जीडीपी का बहत्तर परसेंट था और अब बदली परिस्थिति में यानी कोरोना संकट के बाद जब सरकारों को ख़र्च के लिए और पैसे की ज़रूरत पड़ रही है तो ऐसा अनुमान है कि यह बोझ बढ़कर जीडीपी के 84 परसेंट तक जा सकता है।
आप अपने बजट से हिसाब लगाइए। जब आप घर या कार के लिए बैंक से लोन लेने जाते हैं तो बैंक अफ़सर कहते हैं कि कुल मिलाकर आपके सारे क़र्ज़ों की ईएमआई आपकी कमाई के चालीस परसेंट से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए। अगर आप इससे ज़्यादा लोन लेना चाहते हैं तो फिर कोई प्राइवेट बैंक मिल जाता है या कोई एनबीएफसी मिल जाती है जो बाज़ार के रेट से ऊँचे रेट पर आपको लोन देते हैं। मुसीबत के मारों को पर्सनल लोन देने वाले कुछ प्राइवेट फाइनेंसर भी होते हैं जो तीन से चार गुना तक ब्याज वसूलते हैं और लेने वाले पहले से बड़ी मुसीबत में फँस जाते हैं।
इसी तरह रेटिंग गिरने के बाद जब कोई देश बॉंड जारी करता है या सीधे क़र्ज़ लेना चाहता है तो उसे ऊँचा ब्याज चुकाना पड़ता है क्योंकि उसको क़र्ज़ देना जोखिम का काम माना जाता है। देश की क्रेडिट रेटिंग गिरने के साथ ही देश की सभी कंपनियों की रेटिंग की अधिकतम सीमा भी वही हो जाती है। किसी भी रेटिंग एजेंसी के हिसाब में किसी भी निजी या सरकारी कंपनी की रेटिंग उस देश की सॉवरेन रेटिंग से ऊपर नहीं हो सकती। यानी अब प्राइवेट कंपनियों के लिए भी क़र्ज़ उठाना मुश्किल और महँगा हो जाता है। जिनके बॉंड या डिबेंचर पहले से बाज़ार में हैं उनके भाव गिर जाते हैं और उन पर रक़म वापस करने का दबाव बढ़ने लगता है।
अभी भारत की रेटिंग जहां पहुँची है वहाँ वो इन्वेस्टमेंट ग्रेड की आख़िरी पायदान पर है। यानी अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान अभी इसमें पैसा लगा सकते हैं। लेकिन अगर ये रेटिंग इससे नीचे खिसक गई तो दुनिया भर के बड़े वित्तीय संस्थानों में से बहुत सारे मजबूर हो जाएँगे कि वो भारत सरकार के या भारत की कंपनियों के जो भी बॉंड उनके पास हैं उनका पैसा तुरंत वापस माँगे या इन्हें औने-पौने भाव पर बाज़ार में बेच दें। ऐसा इसलिए क्योंकि इन फंड मैनेजरों के सामने ये निर्देश साफ़ है कि वो इन्वेस्टमेंट ग्रेड से नीचे के किसी भी इंस्ट्रुमेंट में पैसा नहीं लगाएँगे।
इसके बाद पैसा लगाने वाले कुछ फंड मिलते हैं लेकिन वो बिलकुल सूदखोर महाजनों की ही तरह होते हैं। ऐसी ही स्थिति में देश क़र्ज़ के जाल में फँसते हैं। इसीलिए ये रेटिंग गिरना बहुत फ़िक्र की बात है।
हालाँकि सिक्के का एक दूसरा पहलू भी है। इस वक़्त अगर रेटिंग की चिंता में सरकार ने खर्च रोकना शुरू कर दिया तो फिर इकोनॉमी को पटरी पर लाना बहुत मुश्किल होता जाएगा। यानी बिलकुल एक तरफ़ कुआँ और दूसरी तरफ खाई। लेकिन अनेक जानकार राय दे रहे हैं कि सरकार को कुछ समय तक रेटिंग की चिंता छोड़कर पूरा दम लगाकर इकोनॉमी में जान फूंकनी चाहिए और एक बार इकोनॉमी चल पड़ी तो रेटिंग सुधरने में भी बहुत वक़्त नहीं लगेगा।
मूडीज़ का भी अनुमान है कि इस वित्त वर्ष में क़रीब चार परसेंट की गिरावट के बाद भारत की अर्थव्यवस्था अगले साल तेज़ उछाल दिखाएगी। फिर भी उसे डर है कि आगे कई साल तकलीफ़ बनी रहेगी इसीलिए उसका नज़रिया कमजोर है। अब अगर सरकार कुछ ऐसा कर दे कि तस्वीर पलट जाए तो यह नज़रिया अपने आप ही बदल जाएगा।
भारत के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने कबूल किया है कि भारत चीन सीमा पर इस समय चीन और भारत के बीच विवाद है और अच्छी खासी संख्य़ा में चीन के सैनिक सीमा पर मौजूद हैं।
नेटवर्क 18 से बात करते हुए भारत के रक्षामंत्री ने कहा है कि भारत ने भी सीमा पर पूरा बंदोबस्त किया है।
भारत-चीन सीमा पर ताज़ा हालात के बारे में पूछे गए सवाल पर राजनाथ सिंह ने कहा, ''हाल फिलहाल की जो घटना है, ये बात सच है कि सीमा पर इस समय चीन के लोग (चीन के सैनिक) भी, उनका दावा है कि हमारी सीमा यहां तक है, भारत का यह दावा है कि हमारी सीमा यहां तक है, उसको लेकर एक मतभेद हुआ है। और अच्छी खासी संख्या में चीन के लोग (चीन के सैनिक) भी आ गए हैं।''
भारत के रक्षामंत्री ने कहा, ''लेकिन अपनी तरफ़ से भारत को जो कुछ भी करना चाहिए, भारत ने भी किया है।''
उन्होंने कहा, ''भारत चीन सीमा पर लंबे समय से भारत और चीन के बीच लगातार कुछ न कुछ होता रहता है। शायद ही ऐसा कोई साल गुज़रा हो जब भारत और चीन की सेना के बीच सीमा पर फ़ेस आफ़ न होता हो। भारत और चीन की सेना में आपस में झड़पें होती हैं, कभी कभी ऐसा तनाव भी हुआ है कि हथियारों की छीना झपटी भी हुई है। ऐसा हालात समय-समय पर पैदा होते हैं।''
भारत के रक्षामंत्री ने कहा, ''मैं समझता हूं कि चीन को भी अब इस संबंध में गंभीरता पूर्वक विचार करना चाहिए ताकि इस विवाद को पूरी तरह से सुलझाया जा सके।''
भारत के रक्षामंत्री ने कहा कि पहले भी जब भी विवाद हुआ है, जैसे डोकलाम विवाद, भारत और चीन ने सैन्य स्तर पर और कूटनीतिक स्तर पर वार्ता करके समाधान किए हैं।
उन्होंने कहा कि जब दोनों देशों के बीच डोकलाम को लेकर विवाद हुआ था तब भी बातचीत से ही समाधान हुआ था। इसके पहले भी जब भी दोनों देशों के बीच कोई वारदात हुई है सेना के स्तर पर और बातचीत के स्तर पर समाधान निकाला गया है।
भारत के रक्षामंत्री ने बताया कि 'फिलहाल सैन्य स्तर पर इस समय वार्ता चल रही है। संभतः छह जून को सेना के बड़े स्तर के सैन्य अधिकारियों के बीच बात होने जा रही है।'
भारत के रक्षामंत्री ने ये भी कहा कि अगर भारत को उकसाया गया तो भारत जवाब देगा, उन्होंने कहा, ''भारत की एक नीति बहुत ही स्पष्ट है, भारत दुनिया के किसी भी देश के स्वाभिमान पर न चोट पहुंचाना चाहता है और न ही अपने स्वाभिमान पर चोट बर्दाश्त कर सकता है। हमारी नीति बिलकुल स्पष्ट है। इससे जिसको जो अर्थ निकालना हो वो अर्थ निकाल ले।''
जब उनसे पूछा गया कि क्या वो चीन को दुश्मन मानते हैं तो उन्होंने कहा, ''मैं चीन को दुश्मन नहीं मानता, पड़ोसी मानता हूं। जहां तक सोच का प्रश्न है, भारत की सोच ये हमेशा रही है कि हम किसी को दुश्मन नहीं मानते, सभी से बराबर का रिश्ता रखना चाहते हैं।''
उन्होंने कहा, ''लेकिन अगर कोई भारत के स्वाभिमान को झुकाने की कोशिश करेगा तो हमारे अंदर वो कुव्वत भी है कि हम उसे मुंहतोड़ जवाब दे सकते हैं।''
भारत और चीन के बीच इस समय बॉर्डर पर विवाद है। कई मीडिया रिपोर्टों में दावा किया गया है कि चीन ने बड़ी तादाद में सैनिक सीमा पर भेजे हैं और कुछ इस समय भारतीय क्षेत्र में घुस आए हैं।
अब भारत के रक्षामंत्री ने भी स्वीकार किया है कि दोनों देशों के बीच सीमा पर तनातनी है और सैन्य मौजूदगी बढ़ रही है।
भारत के रक्षामंत्री ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दोनों देशों के बीच मध्यस्थता करने के प्रस्ताव पर कहा कि भारत और चीन के बीच सीधी वार्ता का मैकेनिज़्म मौजूद है और मध्यस्थता की ज़रूरत नहीं है।
चीन के विदेश मंत्रालय ने सोमवार को ज़ोर देकर कहा था कि चीन और भारत के बीच सीमा पर हालात स्थिर हैं और नियंत्रण में हैं और दोनों देशों के बीच सैन्य और कूटनीतिक स्तर पर बातचीत के चैनल खुले हुए हैं।
चीन के अख़बार ग्लोबल टाइम्स के मुताबिक चीन की सेना की तिब्बत कमांड ने ऊंचाई पर सैन्य अभ्यास किया है। रिपोर्ट के मुताबिक पीपुल्ज़ लिब्रेशन आर्मी (पीएलए) ने 4700 मीटर की ऊंचाई पर दुश्मन के क्षेत्र में घुसकर हमला करने का अभ्यास किया।
रात में क़रीब एक बजे किए गए अभ्यास में मुश्किल वातावरण में अंधेरे में हमला करने का अभ्यास किया गया। इस अभ्यास के बारे में चीन के सरकारी टीवी पर भी रिपोर्ट प्रसारित की गई है।
ग्लोबल टाइम्स की रिपोर्ट में कहा गया है, ''भारत और चीन ऊंचाई क्षेत्र में सीमा साझा करते हैं। हाल के दिनों में दोनों देशों के बीच सीमा पर घटनाएं हुई हैं और दोनों ही देशों ने अपनी सैन्य मौजूदगी बढ़ाई है।''
भारत और चीन के बीच अक्साई चीन में स्थित गलवान घाटी को लेकर उस वक्त तनाव पैदा हो गया जब भारत ने आरोप लगाया कि गलवान घाटी के किनारे चीनी सेना ने कुछ टेंट लगाए हैं।
गलवान घाटी लद्दाख और अक्साई चीन के बीच भारत-चीन सीमा के नज़दीक स्थित है। यहां पर वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) अक्साई चीन को भारत से अलग करती है। ये घाटी चीन के दक्षिणी शिनजियांग और भारत के लद्दाख़ तक फैली है।
इसके बाद भारत ने वहाँ फ़ौज की तैनाती बढ़ा दी। दूसरी तरफ़ चीन ने आरोप लगाया कि भारत गलवान घाटी के पास सुरक्षा संबंधी ग़ैर-क़ानूनी निर्माण कर रहा है।
इसके अलावा पूर्वी लद्दाख की पानगोंग त्सो झील के पास भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच झड़प होने के बाद चीन और भारत के बीच लद्दाख के क्षेत्र में सीमा पर गतिरोध कायम हो गया।
नौ मई को नॉर्थ सिक्किम के नाकू ला सेक्टर में भारतीय और चीनी सेना में झड़प हुई थी। उस वक्त लद्दाख में एलएसी के पास चीनी सेना के हेलिकॉप्टर देखे गए थे। फिर इसके बाद भारतीय वायुसेना ने भी सुखोई और दूसरे लड़ाकू विमानों की पेट्रोलिंग शुरू कर दी थी।
कुछ समय पहले डोकलाम में भी ऐसा हो चुका है। 2017 में डोकलाम को लेकर भारत-चीन के बीच काफ़ी विवाद हुआ था। जो 70-80 दिन चला था, फिर बातचीत से यह मसला सुलझा।
मामला तब शुरू हुआ था जब भारत ने पठारी क्षेत्र डोकलाम में चीन के सड़क बनाने की कोशिश का विरोध किया।
वैसे तो डोकलाम चीन और भूटान के बीच का विवाद है। लेकिन सिक्किम बॉर्डर के नज़दीक ही पड़ता है और एक ट्राई-जंक्शन प्वाइंट है। जहां से चीन भी नज़दीक है। भूटान और चीन दोनों इस इलाक़े पर अपना दावा करते हैं और भारत भूटान के दावे का समर्थन करता है।
पूरी दुनिया में कोरोना वायरस का खौफ़ है। मध्य पूर्व के देश भी इससे डरे हुए हैं।
लेकिन इन देशों की आबादी नौजवान है जो कोरोना के ख़िलाफ़ इनकी लड़ाई को मज़बूती दे रही है।
मध्यपूर्व देशों की ज़्यादातर आबादी युवा है। इन देशों की 60 फ़ीसदी आबादी की औसत उम्र 30 साल से नीचे है।
इस वजह से इनके कोरोना वायरस से बुरी तरह प्रभावित होने की आशंकाएं कम हो गई हैं।
दुनिया के ज़्यादातर देशों में कोरोना ने अधिक उम्र वाले लोगों को अपना शिकार बनाया है।
मध्य पूर्व के ज़्यादातर देशों की सरकारों की नज़र दुनिया के उन इलाक़ों पर रही, जो कोरोना से अधिक प्रभावित थे।
लिहाजा इन देशों को इससे बचने के लिए तैयारियाँ करने का पर्याप्त समय मिला।
इन देशों ने अपने यहां कर्फ़्यू लगाने और सोशल डिस्टेंसिंग जैसे क़दम उठाये। लेकिन इस मामले में इन देशों की बढ़त यहीं ख़त्म हो जाती है।
वर्षों के संघर्ष और लड़ाइयों की वजह से यह दुनिया का सबसे अस्थिर इलाक़ा बन गया है। युद्ध ने इसकी बुनियाद कमज़ोर कर दी है।
साफ़ है कि कोरोना वायरस का हमला इस इलाक़े को और कमज़ोर कर सकता है।
मध्य पूर्व के देशों की मेडिकल क्षमताओं में काफ़ी अंतर है इसराइल के अस्पताल दुनिया के किसी भी देश के अच्छे अस्पतालों से होड़ ले सकते हैं।
लेकिन यमन, सीरिया और लीबिया में हेल्थकेयर सिस्टम कभी मज़बूत नहीं रहा। वर्षों की जंग ने इन देशों के हेल्थकेयर सिस्टम और इन्फ्रास्ट्रक्चर को बुरी तरह तोड़ दिया है।
कई जगह तो यह पूरी तरह ध्वस्त हो गया है। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक़ यमन पहले की मानवीय संकट के अपने सबसे बुरे दौर से गुज़र रहा है।
अब यमन में कोरोना ने भी पैर पसारना शुरू किया है। यमन के ग़रीब और बेहद घनी आबादी वाले इलाक़ों में यह तेज़ी से फैल सकता है।
यमन राजनीतिक उठापटक के दौर से गुज़र रहा है। पिछले सप्ताह कोरोना वायरस से दो मौतों के बावजूद लोग यहां कर्फ़्यू के नियमों का पालन करने को तैयार नहीं दिखते।
झुंड के झुंड लोग मस्जिदों और बाज़ारों की ओर जाते दिख रहे हैं।
हाल के दिनों तक जिन युवाओं में कोरोना वायरस से लड़ने की सबसे ज़्यादा क्षमता है वे संक्रमण फैलने से पहले अपनी सरकारों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करते दिख रहे थे।
हर देश के लोगों की अपनी सरकारों से शिकायतें हैं। लेकिन अरब देशों में भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और सुधारों की मांग विरोध प्रदर्शनों का कारण बनी हुई है।
भ्रष्ट और संभ्रांत लोगों पर जनता के पैसे का दुरुपयोग करने के आरोप लग रहे हैं।
लोगों का कहना है जनता के पैसे का इस्तेमाल सार्वजनिक सेवाओं को बेहतर बनाने में होना चाहिए।
अल्जीरिया, लेबनान और इराक़ में लोगों ने एक राष्ट्रपति और दो प्रधानमंत्रियों को गद्दी से उतरने के लिए मजबूर किया है।
अपनी सरकारों के ख़िलाफ़ लोगों ने राजधानियों के प्रमुख चौराहों को घेर लिया और वहाँ से हटने से मना कर दिया।
इराक़ में गोली लगने से 600 प्रदर्शनकारियों की मौत हो गई। हज़ारों जख्मी हुए। लेकिन लोगों का विरोध नहीं थमा और हुक्मरानों को गद्दी से उतरना पड़ा।
अपनी सरकारों के ख़िलाफ़ सड़कों पर डटे रहे ये युवा प्रदर्शनकारी अब कोरोना वायरस की वजह से घरों में बंद हैं। और यह वक्त उन्हें ज़रूर नागवार गुज़र रहा होगा।
लॉकडाउन ख़त्म होने के बाद जब वे दोबारा घरों से निकलेंगे तो पाएंगे कि उनके लिए नौकरियां पैदा करने में नाकाम अर्थव्यवस्था की हालत और ख़राब हो चुकी है। इससे ग़ुस्सा और भड़केगा।
युवाओं का यह ग़ुस्सा और हताशा सिर्फ़ कोरोना की वजह से गहराते आर्थिक संकट का ही नतीजा नहीं होगा बल्कि सत्ता के प्रति असंतोष का भी इसमें बड़ा हाथ होगा।
जाहिर है इन देशों की सत्ताधारी ताक़तों के पास भी विकल्प सीमित हो जाएंगे। दुनिया भर के तमाम देशों में चल रहे लॉकडाउन (ग्लोबल शटडाउन) ने मध्य पूर्व के देशों की अर्थव्यवस्था पर गहरी चोट की है।
लेबनान में प्रदर्शन कर रहे लोग अर्थव्यवस्था के ख़राब होने से पहले से बदहाल हैं। कोरोना वायरस के हमले से पहले ही अर्थव्यवस्था लगभग ध्वस्त हो गई थी और बैंक तबाह हो गए थे।
मध्य पूर्व के बड़े देशों को इस वक्त अपने महत्वाकांक्षी और महंगी विदेशी नीतियों पर दोबारा सोचने की ज़रूरत है क्योंकि पैसे के दम पर प्रभाव पैदा करने और परोक्ष युद्ध लड़ने के दिन अब लदते दिख रहे हैं।
थिंक टैंक चैटम हाउस में मीडिल ईस्ट प्रोग्राम की प्रमुख लिना खातिब मानती हैं कि सऊदी अरब और ईरान जैसे देशों को मध्य पूर्व में अपना असर बढ़ाने से जुड़ी रणनीति पर दोबारा सोचना होगा। उन्हें अपनी प्राथमिकताएं दोबारा तय करनी होंगी। उन्हें यमन या सीरिया में अपने हितों का बलिदान करना पड़ सकता है। इस बारे में इससे पहले सऊदी अरब और ईरान ने शायद ही सोचा होगा।
कोरोना वायरस संक्रमण से जो हालात पैदा हुए हैं, उसने हर किसी पर चोट की है चाहे वो खाड़ी देश में तेल से कमाई करने वाली अरबपति कंपनियाँ हों या देश या फिर मज़दूर।
ग़रीब देशों में लाखों लोग अब तंगी के बीच गुज़ारा कर रहे हैं। कई लोगों को भूखे रह कर दिन गुज़ारना पड़ रहा है क्योंकि लॉकडाउन और कर्फ़्यू की वजह से काम बंद है।
ईरान की अर्थव्यवस्था अमरीकी प्रतिबंधों की वजह से पहले से ही चरमराई हुई थी। कोरोना वायरस के हमले से पहले से ईरान के लोगों की आर्थिक हालत काफी ख़राब थी।
ईरान पर कोरोना वायरस का घातक हमला हुआ है। वहां 7 हज़ार से ज़्यादा लोगों की मौत हो गई है और एक लाख तीस हज़ार से अधिक लोग संक्रमित हैं।
अमरीका की ओर से नए सिरे से लगाए गए प्रतिबंधों ने ईरान की अर्थव्यवस्था की कमर पहले ही तोड़ दी है और अब कोरोना के कहर ने उसे और तबाह कर दिया है। ईरान व्यापार शुरू करने के लिए अपने बॉर्डर फिर खोल रहा है।
धार्मिक यात्राएं मध्य पूर्व देशों की कमाई का बड़ा ज़रिया रही हैं।
लेकिन लॉकडाउन में धार्मिक स्थलों को बंद कर दिए जाने से यहां दुनिया भर के मुसलमानों का आना रुक गया है।
ईरान से आने वाले शिया तीर्थ यात्रियों की वजह से इराक़ अरबों डॉलर की कमाई करता था। लॉकडाउन की वजह से इराक को भारी घाटा हो रहा है।
सऊदी अरब की मक्का सिटी में कर्फ़्यू लगा है। लगता है कि जुलाई में यहां की वार्षिक हज यात्रा भी टल जाएगी।
दुनिया भर के लाखों मुसलमान इस वार्षिक यात्रा में आते हैं।
तेल की क़ीमतों की गिरावट से मध्य पूर्व के देशों को भारी घाटा हुआ है। तेल की बदौलत खड़े इन देशों का मज़बूत आर्थिक क़िला अब दरकता हुआ दिख रहा है।
पिछले दिनों सऊदी अरब ने अपनी अर्थव्यवस्था को तेल कारोबार से निकाल कर डाइवर्सिफाई करने की योजना शुरू की थी।
तेल की क़ीमतें घटने से अब यह भी मुश्किल दिखने लगी है। अल्जीरिया की 60 फ़ीसदी कमाई इसके तेल और गैस रिज़र्व से होती है।
लेकिन इसकी क़ीमतों में गिरावट की वजह से इसने अब अपना सार्वजनिक ख़र्चा एक तिहाई कम कर दिया है।
कोरोना वायरस के हमले की वजह से इस देश में पिछले एक सप्ताह से चले आ रहे आंदोलन से जुड़े साप्ताहिक प्रदर्शन रुक गए हैं।
लेकिन एक बार इसका ज़ोर कम होते ही प्रदर्शनकारी दोबारा सड़कों पर आ सकते हैं।
2011 में पूरे अरब में ग़ुस्साए नौजवान सड़कों पर उतर पड़े थे। इन नौजवानों को लग रहा था उनका भविष्य उनसे छीना जा रहा है।
लेकिन वक्त के साथ परिवर्तन की उनकी आकांक्षाएं या तो भटक गईं या फिर कुचल दी गईं।
अब महामारी के हमले से पहले एक बार फिर उनके भीतर ग़ुस्सा उबलता दिख रहा था।
चीन 2022 में एक डिजिटल युआन मुद्रा लाना चाहता है जिसका नाम ई-आरएमबी है।
2022 में चीन जाने वाले लोगों को इस नई डिजिटल करेंसी में ही ख़रीदारी या लेन-देन करना पड़ सकता है। गौतलब है कि 2022 में चीन की राजधानी बीजिंग में विंटर ओलंपिक का आयोजन होगा।
एक ऐसे समय में जब दुनिया का हर देश कोरोना वायरस के प्रसार से जूझ रहा है, चीन डिजिटल युआन पर पायलट प्रोजेक्ट लॉन्च करने में जुटा था।
पिछले महीने चीन के केंद्रीय बैंक, पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना ने चार बड़े शहरों- शेन्ज़ेन, चेंग्दू, सूज़ो और जिओनगान में इस पर काम शुरू कर दिया।
इस परियोजना में सरकारी कर्मचारियों के वेतन का कुछ हिस्सा डिजिटल युआन में दिया जाएगा।
इसके अलावा लगभग 20 निजी व्यवसायों, जैसे स्टारबक्स और मैकडॉनल्ड, ने भी इस प्रयोग में हिस्सा लिया है।
अगर ये कामयाब रहा, तो चीन सरकार 2022 में इसे विंटर ओलंपिक के समय सारे देश में जारी कर देगी।
हालाँकि ये चरणबद्ध तरीक़े से किया जाएगा और इसमें कई साल लग सकते हैं।
इस प्रोजेक्ट पर काम 2014 में शुरू हुआ था। चीन इसे लागू करने में काफ़ी तेज़ी दिखा रहा है।
इसके तीन मुख्य कारण हो सकते हैं: अमरीका के साथ बढ़ता ट्रेड वॉर, कोरोना वायरस को लेकर अमरीका और पश्चिमी देशों का चीन पर लगातार लगता इल्ज़ाम और फ़ेसबुक की डिजिटल करेंसी लिब्रा के इस साल लाने की तैयारी।
डिजिटल युआन को लाना एक ऐसी बात मानी जा रही है जिससे वैश्विक संतुलन में बदलाव आ सकता है। ये चीन की उन महत्वाकांक्षी परियोजनाओं का हिस्सा है जिनका उद्देश्य अमरीका के प्रभाव को ख़त्म करना और 21वीं सदी का एक शक्तिशाली देश बन कर उभरना है।
विशेषज्ञों का कहना है कि इसके सफल प्रयोग से 10-15 वर्षों में एक नयी राजनैतिक और आर्थिक व्यवस्था जन्म ले सकती है।
दिल्ली स्थित फ़ोर स्कूल ऑफ मैनेजमेंट के चीन विशेषज्ञ डॉ. फ़ैसल अहमद कहते हैं, "भारत और अमरीका भी क्रमशः 'लक्ष्मी' और 'डिजिटल डॉलर' नाम की अपनी डिजिटल मुद्राओं पर काम कर रहे हैं। लेकिन अभी तक ये वास्तविकता से काफ़ी दूर हैं।''
फ़िलहाल तो चीनी ड्रैगन ने भारतीय लक्ष्मी को काफ़ी पीछे छोड़ दिया है।
लेकिन विशेषज्ञों के मुताबिक़ चीन के डिजिटल करेंसी ने अमेरिकी डॉलर को भी खतरे में डाल दिया है जो मुद्रा जगत का फ़िलहाल बादशाह है।
मुंबई स्थित चूड़ीवाला सेक्युरिटीज़ के आलोक चूड़ीवाला कहते हैं, ''अमरीकी फ़ेडरल रिज़र्व के ख़रबों डॉलर के कर्ज़ों को देखें तो डॉलर अपने असली मूल्य से काफ़ी महंगा है (ओवर-वैल्यूड)। एक नई मुद्रा का निश्चित रूप से स्वागत है लेकिन इसकी वैश्विक स्वीकृति में एक लंबा समय लगेगा।''
प्रवीण सिंगापुर-स्थित मॉड्युलर एसेट मैनेजमेंट के पोर्टफोलियो मैनेजर हैं और दुनिया भर की मुद्राओं से डील करते हैं।
वो कहते हैं, "डिजिटल युआन निश्चित रूप से अमरीकी डॉलर से दूरी बनाने की तरफ़ एक बड़ा क़दम है। वर्तमान में अमरीकी डॉलर दुनिया की प्रचलित मुद्रा है और ऐसा 1970 के दशक की शुरुआत में गोल्ड स्टैंडर्ड के अंत के बाद से है।''
वो आगे कहते हैं, "अमरीका-चीन के ट्रेड वॉर और अब कोरोना महामारी के विवाद के कारण बढ़ता अवैश्वीकरण डॉलर के लिए ख़तरा है। हालांकि, तत्काल किसी और विकल्प के अभाव के कारण इस परिवर्तन में समय लगेगा। दुनिया को निश्चित रूप से चीन के क़दम पर ध्यान रखना होगा।''
फ़िलहाल अमरीकी डॉलर की अहमियत का इस बात से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि साल 2019 में अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक लेन-देन का लगभग 90 प्रतिशत कारोबार अमरीकी डॉलर में हुआ।
इसकी तुलना में चीनी युआन वैश्विक भुगतान और भंडार का केवल 2 प्रतिशत था।
दूसरी तरफ़ दुनिया के सभी रिज़र्व भंडार का 60 प्रतिशत से अधिक हिस्सा अमरीकी डॉलर में है।
भारत का 487 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार भी अमरीकी डॉलर में ही है।
चीन के ख़ज़ाने में तीन खरब डॉलर भी अमरीकी मुद्रा में है।
डॉ फ़ैसल अहमद का मानना है कि चीन इसे कई तरीके से इस्तेमाल कर सकता है जिससे इसकी साख बढ़ेगी।
वो कहते हैं, ''चीन भू-राजनीतिक फ़ायदे के लिए दूसरे देशों को प्रोत्साहन पैकेज देने और मध्य एशिया से लेकर आर्कटिक क्षेत्र तक के बेल्ट एंड रोड (BRI) प्रोजेक्ट में शामिल देशों में निवेश करने के लिए इस करेंसी का इस्तेमाल कर सकता है।''
फ़िलहाल अमरीका डॉलर के प्रभाव और इसकी अहमियत का मतलब ये है कि अमरीका दुनिया की राजनैतिक और आर्थिक मुद्दों में अपना दबदबा बनाए रखेगा।
उदाहरण के लिए, ईरान, रूस, उत्तर कोरिया और अन्य देशों के ख़िलाफ़ प्रतिबंध अंतरराष्ट्रीय व्यापार और बैंकों की अमरीकी डॉलर पर निर्भरता के कारण संभव है।
डॉयचे बैंक ने इस साल जनवरी के अंत में डिजिटल मुद्राओं पर एक ख़ास रिपोर्ट जारी की थी जिसमें सुझाव दिया गया था कि चीनी डिजिटल युआन वैश्विक पावर संतुलन को उलट सकता है।
रिपोर्ट में कहा गया, "चीन अपने केंद्रीय बैंक की मदद से एक डिजिटल मुद्रा पर काम कर रहा है जिसे सॉफ्ट या हार्ड-पावर टूल के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। वास्तव में, अगर चीन में व्यापार करने वाली कंपनियों को डिजिटल युआन अपनाने के लिए मजबूर किया जाता है तो ये निश्चित रूप से वैश्विक वित्तीय बाज़ार में डॉलर की प्रधानता को नष्ट कर सकता है।''
रिपोर्ट में कहा गया है, "बीसवीं सदी की शुरुआत में जिस तरह से अमरीका ने डॉलर को बढ़ावा दिया था उसी तरह से चीन सरकार अब रेनमिनबी RMB (चीन की आधिकारिक मुद्रा जिसकी इकाई युआन है) के अंतर्राष्ट्रीयकरण के लिए ज़बरदस्त प्रयास कर रही है। साल 2000 से 2015 तक, चीन के व्यापारिक लेन-देन में RMB का हिस्सा शून्य से बढ़कर 25 प्रतिशत हो गया।''
डॉयचे बैंक ने सुझाव दिया कि डिजिटल युआन और इसी तरह की डिजिटल मुद्राएं नकदी को समाप्त नहीं कर सकती हैं लेकिन क्रेडिट कार्ड जैसे तीसरे पक्ष के अंत का कारण बन सकती हैं।
प्रवीण कहते है, "भुगतान के अन्य तरीकों के विपरीत, इसका उपयोग इंटरनेट कनेक्शन के बिना भुगतान के लिए किया जा सकता है। ये वास्तविक नकदी की तरह है मगर एक डिजिटल दुनिया में।''
वह आगे बताते है, "डिजिटल युआन की सफलता इस बात पर टिकी होगी कि आम इंसान, खुदरा व्यापारी, कॉर्पोरेशन, सरकारें और अन्य देश इसे किस तेज़ी से अपनाते हैं।''
मगर वर्चुअल दुनिया में एक शक्ति बन कर उभरने वाली मुद्राओं में फ़ेसबुक के लिब्रा और डिजिटल युआन के अलावा भी कई वर्चुअल करेंसी मौजूद हैं और कई पर काम चल रहा है।
बिटकॉइन बाज़ार में पहले से ही मौजूद है और इसकी लोकप्रियता बढ़ती जा रही है।
भारत ने क्रिप्टो मुद्राओं पर प्रतिबंध लगा दिया है लेकिन रिज़र्व बैंक डिजिटल मुद्रा लक्ष्मी के बारे में गंभीरता से सोच रहा है।
डॉयचे बैंक की रिपोर्ट में कहा गया है, "इस समय मुख्य धारा की डिजिटल मुद्राएं फ़ेसबुक की लिब्रा और चीनी सरकार की डिजिटल युआन हैं। फ़ेसबुक के लगभग 2.5 अरब यूज़र हैं जो दुनिया की आबादी का एक तिहाई हिस्सा है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि फेसबुक के सभी यूजर उसके डिजिटल करेंसी का प्रयोग करेंगे। चीन की 1.4 अरब से अधिक आबादी है। इस वजह से चीन की डिजिटल मुद्राओं को मुख्यधारा में आगे बढ़ाने की क्षमता है।''
लेकिन फेसबुक सहित अन्य डिजिटल मुद्राओं और डिजिटल युआन के बीच महत्वपूर्ण अंतर ये है कि डिजिटल युआन को चीन का केंद्रीय बैंक जारी करेगा जिससे इसे स्वीकृति मिलेगी और इस पर विश्वास बढ़ेगा। लेकिन बाकी डिजिटल करेंसी को निजी कंपनी जारी करता है या करेगा।
अन्य सभी डिजिटल मुद्राएं विकेंद्रीकृत हैं और किसी भी नियामक प्राधिकरण के दायरे में नहीं आती हैं।
डॉ फ़ैसल अहमद कहते हैं, "डिजिट़ल युआन लिब्रा जैसी अन्य मुद्राओं से अलग एक राज्य समर्थित मुद्रा है। इसके राजनीतिक असर भी होंगे। उदाहरण के लिए, डिजिटल युआन के इस्तेमाल से उत्तर कोरिया जैसे देशों को अमरीकी प्रतिबंधों से बचने में मदद मिलेगी।''
भारत की अपनी डिजिटल मुद्रा लक्ष्मी की सोच 2014 में पैदा हुई थी। उसी वर्ष चीन में डिजिटल युआन का भी विचार पैदा हुआ था।
लेकिन भारत की लक्ष्मी के लांच के लिए पहले इस मुद्दे पर गठित कई समितियों की रिपोर्ट का इंतज़ार करना पड़ेगा।
एक विशेषज्ञ ने कहा, "भारत डिजिटल वॉलेट को बढ़ावा दे रहा है जबकि चीन डिजिटल मुद्रा लांच करने वाला है।''
प्रवीण कहते हैं, ''डिजिटल युआन को ख़तरे के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि इसे डिजिटल नेटवर्क में क्रांति के रूप में देखना चाहिए। भारत ने भी AEPS (आधार सक्षम भुगतान प्रणाली) और UPI (एकीकृत भुगतान प्रणाली) को स्थानीय तौर पर इस्तेमाल से डिजिटल क्रांति को आगे बढ़ाया है।''
फ़ायदे ये हैं कि इसकी नक़ल नहीं की जा सकती, लेन-देन तत्काल हो सकता है, अंतर्राष्ट्रीय लेन-देन का ख़र्च न के बराबर होगा, सभी लोग इस्तेमाल कर सकेंगे।
और नुक़सान ये है कि इसमें लोगों को जल्दी भरोसा नहीं होगा, आबादी के सबसे ग़रीब तबके तक इसकी पहुँच नहीं होगी और ये डिजिटल वॉलेट पर निर्भर होगा।
जानकार कहते हैं, जैसै-जैसे टेक्नोलॉजी का विकास होगा, डिजिटल करेंसी के फायदे भी बढ़ेंगे।
आलोक चूड़ीवाला कहते है, ''किसी भी सिस्टम पर लोगों का भरोसा बनने में एक लंबा समय लगता है। अमरीकी डॉलर 1770 से वजूद में है। इसकी लोकप्रियता पहले विश्व युद्ध के समय से बढ़ने लगी और दूसरे विश्व युद्ध तक ये दुनिया की सर्वश्रेष्ठ मुद्रा बन गई।''
हर कोई डॉलर पर भरोसा करता है और हर कोई इसे महत्व देता है। लेकिन अगर अमरीका की दुनिया में धाक कम हो रही है तो कोई और ताक़त इसकी जगह लेगी। चीन उस दौड़ में काफ़ी आगे नज़र आता है।