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भारत, मध्य पूर्व देशों और यूरोप को जोड़ने वाले कॉरिडोर का काम जल्द होगा शुरू

भारत, मध्य पूर्व देशों और यूरोप को जोड़ने वाले कॉरिडोर का काम जल्द ही शुरू हो सकता है। जी-20 सम्मेलन में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ग्लोबल इन्फ्रास्ट्रक्चर एंड इनवेस्टमेंट (पीजीआईआई) और इंडिया-मिडिल ईस्ट-यूरोप इकोनॉमिक कॉरिडोर का ऐलान करते हुए कहा कि ये भारत, पश्चिम एशिया और यूरोप के बीच आर्थिक जुड़ाव का एक प्रभावी माध्यम बनेगा।

नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन, सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान और यूरोपियन कमीशन की प्रमुख उर्सला वॉन डेर लियेन की मौजूदगी में कहा, ''ये पूरे विश्व में कनेक्टिविटी और विकास को सस्टेनेबल दिशा प्रदान करेगा। मजबूत कनेक्टिविटी और इन्फ्रास्ट्रक्चर मानव सभ्यता के विकास का मूल आधार हैं। भारत ने अपनी विकास यात्रा में इस विषय को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है। फिजिकल इन्फ्रास्ट्रक्चर के साथ-साथ सोशल, डिजिटल और फाइनेंशियल इन्फ्रास्ट्रक्चर में अभूतपूर्व पैमाने पर निवेश हो रहा है। इससे हम एक विकसित भारत की मजबूत नींव रख रहे हैं।''

नरेंद्र मोदी ने कहा, ''हमने ग्लोबल साउथ के अनेक देशों में एक विश्वसनीय पार्टनर के रूप में एनर्जी, रेलवे, पानी, टेक्नोलॉजी पार्क जैसे टेक्नोलॉजी क्षेत्रों में इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट पूरे किए हैं। हमने डिमांड ड्रिवेन और ट्रांसपरेंट अप्रोच पर बल दिया है। पीजीआईआई के माध्यम से हम ग्लोबल साउथ के देशों में इन्फ्रास्ट्रक्चर गैप को कम करने में अहम योगदान दे सकते हैं। भारत कनेक्टिविटी को क्षेत्रीय सीमाओं में नहीं बांधता। हमारा मानना है कि कनेक्टिविटी आपसी व्यापार ही नहीं, आपसी विश्वास भी बढ़ाता है।''

यूरोपियन कमीशन की प्रमुख उर्स वॉन डेर लियेन ने कहा कि इंडिया-मिडिल ईस्ट-यूरोप इकोनॉमिक कॉरिडोर ऐतिहासिक है। ये अब तक इन तीनों को जोड़ने वाला सबसे तेज संपर्क होगा। इससे कारोबार की रफ्तार और तेज हो जाएगी।

जी-20: जलवायु परिवर्तन से जुड़े मुद्दों पर विकसित और विकासशील देशों में गंभीर असहमति

जलवायु परिवर्तन के लिए होने वाले संयुक्त राष्ट्र के वार्षिक सम्मेलनों के उलट जी-20 की बैठकों में इस समस्या को लेकर उठाए जाने वाले कदमों पर आमतौर पर विकसित और विकासशील देशों में ज्यादा गंभीर असहमतियां नहीं दिखती हैं।

लेकिन इस बार के जी-20 सम्मेलन में इसे लेकर तस्वीर कुछ अलग दिख रही है। जी-20 देशों के पर्यावरण मंत्रियों की बैठक में जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल धीरे-धीरे कम करने, रिन्युबल एनर्जी के लक्ष्यों को बढ़ाने और ग्रीन हाउस उत्सर्जन में कमी जैसे लक्ष्यों को हासिल कर कोई सहमति बनती नहीं दिख रही है।

जबकि जी-20 के देश दुनिया के 75 ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के जिम्मेदार हैं। जी-20 सम्मेलन में रूस, चीन, सऊदी अरब और भारत ने 2030 तक रिन्युबल एनर्जी की क्षमता तीन गुना बढ़ाने के विकसित देशों के लक्ष्य का विरोध किया है।

समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने आधिकारिक सूत्रों के हवाले से कहा है कि 6 सितंबर 2023 को शेरपा स्तर की बैठक में ये देश 2035 तक ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन 60 फीसदी घटाने के विकसित देशों के लक्ष्य से असहमत दिखे।

चीन ने उन मीडिया रिपोर्टों को खारिज किया है, जिनमें कहा गया था कि जुलाई 2023 में हुई जी-20 के पर्यावरण मंत्रियों की बैठक में उसने जलवायु परिवर्तन को काबू करने के लिए उठाए जाने वाले कदमों पर बनने वाली सहमति में बाधा डाली थी।

चीन ने विकसित देशों से जलवायु परिवर्तन की समस्या को खत्म करने के लिए अपनी क्षमता, जिम्मेदारियों और कर्तव्य के मुताबिक काम करने की अपील की थी।

चीन और भारत जैसी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं का कहना है कि विकसित देशों को कार्बन उत्सर्जन घटाने के लिए अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी निभानी चाहिए।

जबकि विकासशील देशों का कहना है कि प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं को साथ आए बगैर ये काम मुश्किल है। जी-20 में दोनों ओर के देश अड़े हुए हैं। इससे संकेत मिल रहा है कि जलवायु परिवर्तन पर यूएन के वार्षिक सम्मेलन सीओपी 28 में क्या होने वाला है।

क्या इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग का जिन्ना की मुस्लिम लीग से कोई सम्बन्ध है?

भारत की कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने वॉशिंगटन डीसी के नेशनल प्रेस क्लब में पूछे गए एक सवाल के जवाब में कहा कि मुस्लिम लीग पूरी तरह से सेक्युलर पार्टी है।

राहुल गांधी से पूछा गया था कि क्या केरल में इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग से कांग्रेस का गठबंधन धर्मनिरपेक्षता के ख़िलाफ़ नहीं है?

इसी के जवाब में राहुल ने कहा, ''मुस्लिम लीग के साथ धर्मनिरपेक्षता के ख़िलाफ़ जैसी कोई बात नहीं है। मुझे लगता है कि जिस व्यक्ति ने यह सवाल भेजा है, उसने मुस्लिम लीग को ठीक से पढ़ा नहीं है।''

इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आईयूएमएल) केरल की क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टी है और यह पारंपरिक रूप से कांग्रेस की अगुआई वाले गठबंधन यूडीएफ़ में शामिल रहती है।

क्या इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग का जिन्ना की मुस्लिम लीग से कोई सम्बन्ध है?

1947 में भारत के विभाजन के बाद पाकिस्तान के गठन का आंदोलन चलाने वाली ऑल इंडिया मुस्लिम लीग को भंग कर दिया गया था। पाकिस्तान के गठन के बाद मोहम्मद अली जिन्ना देश के गवर्नर जनरल बने थे। अगले कुछ महीनों के बाद पश्चिमी पाकिस्तान में मुस्लिम लीग और पूर्वी पाकिस्तान में द ऑल पाकिस्तान अवामी मुस्लिम लीग अस्तित्व में आई।

मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान को शुरुआती छह प्रधानमंत्री दिए, उनके कार्यकाल बेहद छोटे थे और आख़िरकार जनरल अय्यूब ख़ान ने मार्शल लॉ लगा दिया जिसके बाद मुस्लिम लीग भी भंग हो गई।

जनरल अय्यूब ख़ान ने बाद में मुस्लिम लीग को पाकिस्तान मुस्लिम लीग के रूप में पुनर्जीवित किया जो कई दशकों तक बनती और फिर बिगड़ती रही। पाकिस्तान मुस्लिम लीग का सबसे चर्चित धड़ा नवाज़ शरीफ़ की पार्टी है जिसके अध्यक्ष शहबाज़ शरीफ़ हैं।

पूर्वी पाकिस्तान में अवामी लीग ने बंगालियों के राष्ट्रवाद के लिए लड़ाई लड़ी और पंजाबी बहुल पश्चिमी पाकिस्तान से स्वतंत्रता की राह तलाशने की कोशिश की। शेख़ मुजीबुर रहमान के नेतृत्व में पश्चिमी पाकिस्तान से पूर्वी पाकिस्तान टूटकर बांग्लादेश के रूप में अस्तित्व में आया।

स्वतंत्र भारत में ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की जगह इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग ने ले ली और उसका इतिहास बिलकुल अलग है। आईयूएमएल भारत के संविधान के तहत चुनाव लड़ती है और लगातार उसकी उपस्थिति लोकसभा में रही है।

आईयूएमएल केरल की मज़बूत पार्टी है और उसकी एक यूनिट तमिलनाडु में भी है। भारत के चुनाव आयोग ने उसे केरल की राज्य पार्टी के तौर पर लंबे समय से मान्यता दी हुई है।

आईयूएमएल के हरे झंडे में ऊपर की बाईं ओर सफ़ेद रंग में एक चांद और सितारा है और ये पाकिस्तान के झंडे से बिलकुल अलग है।

तीसरी से 16वीं लोकसभा तक आईयूएमएल के दो सांसद हमेशा लोकसभा में रहे हैं। केवल दूसरी लोकसभा में उनका कोई सांसद नहीं था जबकि चौथी लोकसभा में उसके तीन सांसद थे।

आईयूएमएल लंबे समय से कांग्रेस का गठबंधन सहयोगी है और केरल में विपक्षी यूडीएफ़ गठबंधन का हिस्सा है। वर्तमान केरल विधानसभा में आईयूएमएल के 18 विधायक हैं जबकि 2011 में केरल विधानसभा में 20 विधायक थे।

जॉर्ज सोरोस का बयान भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बर्बाद करने की घोषणा है: भारतीय जनता पार्टी

भारत की भारतीय जनता पार्टी ने अमेरिकी बिज़नेसमैन जॉर्ज सोरोस की जमकर आलोचना की है।

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2023 को भारत की नरेंद्र मोदी सरकार में केंद्रीय मंत्री और भारतीय जनता पार्टी की नेता स्मृति ईरानी ने एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर कहा कि जॉर्ज सोरोस का बयान भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बर्बाद करने की घोषणा है।

जॉर्ज सोरोस ने जर्मनी के म्यूनिख़ रक्षा सम्मेलन में कहा था कि भारत तो एक लोकतांत्रिक देश है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकतांत्रिक नहीं हैं और मोदी के तेज़ी से बड़ा नेता बनने की अहम वजह भारतीय मुसलमानों के साथ की गई हिंसा है।

जॉर्ज सोरोस ने कहा कि भारत रूस से कम क़ीमत पर तेल ख़रीदता है।  जॉर्ज सोरोस के अनुसार गौतम अदानी मामले में मोदी फ़िलहाल ख़ामोश हैं लेकिन विदेशी निवेशकों और संसद में सवालों का उन्हें जवाब देना होगा। इससे सरकार पर उनकी पकड़ कमज़ोर होगी।

जॉर्ज सोरोस का यहां तक दावा था कि इससे भारत में लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पुनरुत्थान होगा।

इससे पहले जनवरी 2020 में दावोस में हुई वर्ल्ड इकोनॉमिक फ़ोरम की बैठक के एक कार्यक्रम में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना करते हुए जॉर्ज सोरोस ने कहा था कि भारत को हिंदू राष्ट्रवादी देश बनाया जा रहा है।

जॉर्ज सोरोस ने जनवरी 2020 में दावोस में हुई वर्ल्ड इकोनॉमिक फ़ोरम की बैठक के एक कार्यक्रम में कहा था कि यह भारत के लिए सबसे बड़ा और भयानक झटका है, जहां लोकतांत्रिक रूप से चुनकर आए नरेंद्र मोदी भारत को एक हिंदू राष्ट्रवादी देश बना रहे हैं।

जॉर्ज सोरोस ने ये भी कहा था कि मोदी कश्मीर पर प्रतिबंध लगाकर वहां के लोगों को दंडित कर रहे हैं और नागरिकता क़ानून (सीएए) के ज़रिए लाखों मुसलमानों से नागरिकता छीनने की धमकी दे रहे हैं।

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2023 को सोरोस की आलोचना करते हुए स्मृति ईरानी ने कहा कि विदेशी धरती से भारत के लोकतांत्रिक ढांचे को कमज़ोर करने की कोशिश की जा रही है।

स्मृति ईरानी के अनुसार यह भारत के आंतरिक मामलों में दख़लअंदाज़ी की कोशिश है।

स्मृति ईरानी ने सभी भारतीयों से इसका मुंहतोड़ जवाब देने की अपील की।

कांग्रेस ने भी जॉर्ज सोरोस के बयान पर अपनी प्रतिक्रिया दी है।

कांग्रेस पार्टी के महासचिव और मीडिया प्रमुख जयराम रमेश ने ट्वीट कर कहा, ''पीएम से जुड़ा अदानी घोटाला भारत में लोकतांत्रिक पुनरुत्थान शुरू करता है या नहीं, यह पूरी तरह कांग्रेस, विपक्ष व हमारी चुनाव प्रक्रिया पर निर्भर है।''

"इसका जॉर्ज सोरोस से कोई लेना देना नहीं है। हमारी नेहरूवादी विरासत सुनिश्चित करती है कि उन जैसे लोग हमारे चुनाव परिणाम तय नहीं कर सकते।''

शिव सेना की राज्य सभा सांसद प्रियंका चतुर्वेदी ने बीजेपी की आलोचना की है।

प्रियंका चतुर्वेदी ने ट्वीट किया, "जॉर्ज सोरोस कौन हैं और बीजेपी का ट्रोल मंत्रालय उनपर प्रेस कॉन्फ़्रेंस क्यों कर रहा है। वैसे, मंत्री जी भारत के चुनावी प्रक्रिया में इसराइली एजेंसी के दख़लअंदाज़ी पर आप कुछ कहना चाहेंगी? भारत के लोकतंत्र के लिए वो ज़्यादा बड़ा ख़तरा है।''

तृणमूल कांग्रेस की लोकसभा सांसद महुआ मोइत्रा ने स्मृति ईरानी पर तंज़ करते हुए कहा, "आदरणीय कैबिनेट मंत्री ने हर भारतीय से जॉर्ज सोरोस को मुंहतोड़ जवाब देने का आह्वान किया है। आज शाम छह बजे कृपया थाली पीटें।''

वीगर मुसलमानों के उत्पीड़न को लेकर संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में चीन पर गंभीर आरोप

चीन के शिनजियांग प्रांत में उत्पीड़न के आरोपों को लेकर आई एक रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र ने चीन पर मानवाधिकारों के गंभीर उल्लंघन का आरोप लगाया है।

चीन ने संयुक्त राष्ट्र (यूएन) से रिपोर्ट जारी ना करने की अपील की है और इसे पश्चिमी देशों का 'तमाशा' बताया है।

रिपोर्ट में वीगर मुसलमान और अन्य जातीय अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न का दावा किया गया है, जिससे चीन ने इनकार किया है।

लेकिन, जाँचकर्ताओं का कहना है कि उन्हें प्रताड़ना के विश्वसनीय प्रमाण मिले हैं जिन्हें ''मानवता के ख़िलाफ़ अपराध'' कहा जा सकता है।

उन्होंने चीन पर अल्पसंख्यकों के अधिकारों के दमन के लिए अस्पष्ट राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानूनों के इस्तेमाल करने और मनमाने तरीक़े से लोगों को हिरासत में रखने का आरोप लगाया है।

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त कार्यालय ने ये रिपोर्ट तैयार करने के लिए कहा था। रिपोर्ट में कहा गया है कि कैदियों के साथ बुरा व्यवहार किया जाता है जिसमें सेक्शुअल और जेंडर आधारित हिंसा भी शामिल है।

इसके अलावा उन पर परिवार नियोजन की नीतियों को भेदभावपूर्ण तरीक़े से थोपा जाता है।

चीन पर शिनजियांग में वीगर मुसलमानों को डिटेंशन कैंप में रखने का आरोप लगता है।

संयुक्त राष्ट्र ने सिफ़ारिश की है कि चीन को उन लोगों को रिहा करने के लिए तुरंत क़दम उठाने चाहिए, जिनकी आज़ादी छीन ली गई है। साथ ही कहा है कि चीन की कुछ कार्रवाइयां अंतरराष्ट्रीय अपराध के तहत आ सकती हैं। इसमें मानवता के ख़िलाफ़ अपराध भी शामिल है।

यूएन ने कहा है कि ये सुनिश्चित नहीं किया जा सकता कि सरकार ने कितने लोगों को पकड़कर रखा है। मानवाधिकार समूहों का कहना है कि शिनजियांग प्रांत में 10 लाख से ज़्यादा लोगों को हिरासत में रखा गया है।

60 संस्थाओं का नेतृत्व करने वाली वर्ल्ड वीगर कांग्रेस ने इस रिपोर्ट का स्वागत किया है और इस पर तुरंत अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया की मांग की है।

लेकिन, ये रिपोर्ट पहले ही देख चुके चीन ने उत्पीड़न के आरोपों से इनकार किया है और कहा है कि ये कैंप आतंकवाद से लड़ने का एक तरीक़ा हैं।

ईरान ने इसराइल को अरब देशों से दोस्ती पर कड़ी चेतावनी दी

ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी ने कुछ अरब देशों और इसराइल के बीच संबंधों के समान्य होने की आलोचना की है और साथ ही इसे लेकर इसराइल को कड़ी चेतावनी दी है।

इब्राहिम रईसी ने ईरान के नेशनल आर्मी डे पर तेहरान में एक सैन्य परेड के दौरान अरब और इसराइल देशों के संबंधों का ज़िक्र किया।

उन्होंने वहाँ इसराइल को चेतावनी देते हुए कहा, ''इसराइल अगर कुछ देशों के साथ संबंध सामान्य करना चाहता है तो उसे मालूम है कि उसकी छोटी-से-छोटी हरकत हमसे छिपी नहीं है।''

''अगर वे कोई ग़लती करते हैं, तो हम सीधे यहूदी शासन के दिल पर चोट करेंगे और हमारी सेना की शक्ति उन्हें शांति से बैठने नहीं देगी।''

ईरानी मीडिया के अनुसार कोरोना महामारी की वजह से दो साल के अंतराल के बाद सैन्य परेड हुई जो ईरान के वरिष्ठ नेताओं और सैन्य अधिकारियों की मौजूदगी में परेड आयोजित की गई।

इसमें सेना के नए हथियारों और उपकरणों का भी प्रदर्शन किया गया। इस दौरान इब्राहिम रईसी ने ईरान के रिवोल्यूशनरी गार्ड्स की भी जमकर तारीफ़ की।

ईरान और इसराइल की दुश्मनी जगजाहिर

ईरान इसराइल को मान्यता नहीं देता है। जबकि इसराइल भी कई बार कह चुका है कि वो परमाणु शक्ति संपन्न ईरान को बर्दाश्त नहीं करेगा।  ईरान और पश्चिमी देशों के बीच हुआ परमाणु समझौता डोनाल्ड ट्रंप ने ख़त्म कर दिया था। लेकिन जो बाइडन के राष्ट्रपति बनने के बाद से नए सिरे से परमाणु समझौते को लागू करने की क़वायद चल रही थी।

मार्च 2022 में ही ये बातचीत भी रद्द हो गई क्योंकि ईरान चाह रहा था कि अमेरिका अपने विदेशी आतंकी संगठन की लिस्ट से रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प को हटा दे लेकिन ये मुद्दा सुलझ नहीं सका और बातचीत भी बंद पड़ गई।

ईरान कई बार ये आरोप लगा चुका है कि इसराइल ने उसके परमाणु ठिकानों पर हमला किया है और ईरान के न्यूक्लियर वैज्ञानिकों की हत्या कराई है। इसराइल इन आरोपों को न तो नकारता है और न ही इसकी पुष्टि करता है।

साथ ही इसराइल और ईरान के बीच समुद्र में अघोषित टकराव भी सामने आता रहता है, जिसमें जहाजों पर रहस्यमय हमले होते हैं।

इसराइल ईरान के परमाणु कार्यक्रमों को लेकर अपनी चिंताएं जताता रहा है। इसराइल को शक है कि ईरान परमाणु हथियारों का निर्माण कर रहा है, जिससे ईरान इनकार करता रहा है।

इसराइल और खाड़ी देशों की क़रीबी पर ईरान की नज़र

हाल के कुछ सालों में खाड़ी के कई देश इसराइल के क़रीब आए हैं। अभी मार्च 2022 में ही इसराइल में चार अरब देशों का बड़ा सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें शामिल होने के लिए अमेरिका के विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन भी पहुंचे।

इस सम्मेलन में संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, मोरक्को और मिस्र के विदेश मंत्रियों ने हिस्सा लिया। ये पहली बार था जब इसराइल ने इतने सारे अरब देशों के वरिष्ठ अधिकारियों की बैठक आयोजित की है।

ऐसी बैठक और क़रीबी को मध्य-पूर्व में ईरान के ख़िलाफ़ एक नए क्षेत्रीय गठजोड़ के तौर पर भी देखा जा रहा है। ये भी कहा जा रहा है कि मुलाक़ात ने ये भी साफ़ कर दिया है कि अब अरब देश फ़लस्तीन विवाद के मुद्दे का हल निकाले बिना ही इसराइल के साथ संबंध बढ़ाने के लिए तैयार हैं।

इसराइली मीडिया में आई ख़बरों के मुताबिक, बैठक के आख़िर में इसराइली विदेश मंत्री याएर लैपिड ने बताया कि सम्मेलन में शामिल होने वाले सभी देशों के बीच ड्रोन और मिसाइल हमलों, समुद्री हमलों से सुरक्षा के लिए एक ''क्षेत्रीय व्यवस्था'' बनाए जाने को लेकर चर्चा हुई। याएर लैपिड का इशारा ईरान या उसके सहयोगी देशों की ओर था।

दरअसल, ये सभी देश ईरान की गतिविधियों को लेकर सवाल उठाते रहे हैं।

सऊदी अरब, बहरीन और यूएई, ईरान और उसके इस्लामिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड कोर (आईआरजीसी) को लेकर भी हमेशा संदेह में रहे हैं। बीबीसी के सुरक्षा संवाददाता फ्रैंक गार्डनर ने अपनी रिपोर्ट में इसके एक कारण का ज़िक्र करते हुए लिखा है, ''वो ईरान को लेकर सतर्क रहते हैं क्योंकि ईरान ने अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों का उल्लंघन करते हुए मध्य पूर्व में ताक़तवर छद्म मिलिशिया गुटों का नेटवर्क तैयार किया है।''

ऐसे में ईरान, इसराइल के साथ अपने दुश्मनी के संबंधों को खुलकर जाहिर कर ही रहा है साथ ही इसराइल पर निशाना साध अरब देशों को अपने रुख के बारे में संकेत भी दे रहा है।

हालांकि, नेशनल आर्मी डे पर इब्राहिम रईसी ने कहा, "हमारी रणनीति हमला करने की नहीं बल्कि बचाव की है।''

उन्होंने आगे कहा, ''ईरान की सेना ने ख़ुद को और मजबूत बनाने के लिए प्रतिबंधों के मौके का अच्छा इस्तेमाल किया है और हमारा सैन्य उद्योग सबसे अच्छे आकार में है।''

लाइव: यूक्रेन पर रूस का हमला

लाइव: यूक्रेन पर रूस का हमला

रूस ने 24 फरवरी 2022 को यूक्रेन पर हमला कर दिया। यूक्रेन पर रूस के हमले के बारे में यूक्रेन के भीतर से रिपोर्ट्स, विश्लेषण, ताज़ा खबरें और वीडियो के लिए नीचे दिए गए लिंक्स पर क्लिक करें।

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फिलिस्तीन में इसराइल की स्थापना: फिलिस्तीन का पतन, इसराइल का उदय

इसराइल और फ़लस्तीनी लड़ाकों के बीच एक बार फिर संघर्ष शुरू हो गया है। जिस स्तर की गोलाबारी इस बार देखी जा रही है, वो पिछले कई सालों में नहीं हुई थी।

फ़लस्तीनी चरमपंथियों ने ग़ज़ा पट्टी से इसराइल के इलाक़े में कई सौ रॉकेट दागे हैं और इसराइल ने इसका जवाब बर्बाद कर देने वाले अपने हवाई हमलों से दिया है।

फ़लस्तीन की ओर से दागे जाने वाले रॉकेटों का निशाना तेल अवीव, मोडिन, बीरशेबा जैसे इसराइली शहर हैं। इसराइल की मिसाइल प्रतिरक्षा प्रणाली आयरन डोम फ़लस्तीनी पक्ष के हमलों का जवाब दे रही है। लेकिन ख़तरे के सायरनों का बजना अभी रुका नहीं है।

इसराइल ने ग़ज़ा के कई ठिकानों पर हवाई हमले किए हैं। दोनों पक्षों की ओर जान और माल का नुक़सान हुआ है। दर्जनों फ़लस्तीनी मारे गए हैं जबकि दूसरी तरफ़ कम से कम 10 इसराइली लोगों की जान गई है।

यरूशलम में इसराइल की पुलिस और फ़लस्तीनी प्रदर्शनकारियों के बीच हफ़्तों से चले आ रहे तनाव के बाद ये सशस्त्र संघर्ष शुरू हुआ है। यरूशलम वो जगह है, जो दुनिया भर के यहूदियों और मुसलमानों के लिए पवित्र माना जाता है।

अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने दोनों ही पक्षों से शांति बनाए रखने की अपील की है। मध्य पूर्व में संयुक्त राष्ट्र के शांति दूत टोर वेन्नेसलैंड ने कहा है कि वहाँ बड़े पैमाने पर लड़ाई छिड़ने का ख़तरा है।

लेकिन इसराइल और फ़लस्तीनी लोगों का संघर्ष सालों पुराना है और इसे उसी नज़रिए से देखा जाना चाहिए। इसराइलियों और फ़लस्तीनियों के बीच का विवाद इतना जटिल क्यों है और इसे लेकर दुनिया बँटी हुई क्यों है? इसे समझने के लिए हमें इसराइल और फ़लस्तीन का इतिहास जानना होगा।

संघर्ष कैसे शुरू हुआ?

बीसवीं सदी की शुरुआत में यूरोप में यहूदियों को निशाना बनाया जा रहा था। इन हालात में यहूदी लोगों के लिए एक अलग देश की मांग ज़ोर पकड़ने लगी। भूमध्य सागर और जॉर्डन नदी के बीच पड़ने वाला फ़लस्तीन का इलाक़ा मुसलमानों, यहूदियों और ईसाई धर्म, तीनों के लिए पवित्र माना जाता था। फ़लस्तीन पर ऑटोमन साम्राज्य का नियंत्रण था और ये ज़्यादातर अरबों और दूसरे मुस्लिम समुदायों के क़ब्ज़े में रहा।

इस सब के बीच फ़लस्तीन में यहूदी लोग बड़ी संख्या में आकर बसने लगे और फ़लस्तीन के लोगों में उन्हें लेकर विरोध शुरू हो गया।

प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के बाद ऑटोमन साम्राज्य (उस्मानिया साम्राज्य) का विघटन हो गया और ब्रिटेन को राष्ट्र संघ की ओर से फ़लस्तीन का प्रशासन अपने नियंत्रण में लेने की मंज़ूरी मिल गई।

लेकिन प्रथम विश्व युद्ध के पहले और लड़ाई के दौरान अंग्रेज़ों ने फ़लस्तीन में अरबों और यहूदी लोगों से कई वायदे किए थे जिसका वे थोड़ा सा हिस्सा भी पूरा नहीं कर पाए। ब्रिटेन ने फ्रांस के साथ पहले ही मध्य पूर्व का बँटवारा कर लिया था। इस वजह से फ़लस्तीन में अरब लोगों और यहूदियों के बीच तनाव की स्थिति पैदा हो गई और दोनों ही पक्षों के सशस्त्र गुटों के बीच हिंसक झड़पों की शुरुआत हो गई।

द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) और जर्मनी में हिटलर और नाज़ियों के हाथों यहूदियों के व्यापक जनसंहार के बाद यहूदियों के लिए अलग देश की मांग को लेकर दबाव बढ़ने लगा। उस वक्त ये योजना बनी कि ब्रिटेन के नियंत्रण वाले इलाक़े फ़लस्तीन को फ़लस्तीनियों और यहूदियों के बीच बाँट दिया जाएगा।

आख़िरकार 14 मई, 1948 को ब्रिटेन की मदद से फ़लस्तीन में जबरदस्ती इसराइल की स्थापना हो गई। और यहूदियों द्वारा फ़लस्तीन को ख़त्म कर दिया गया। इसराइल के गठन के साथ ही एक स्थानीय तनाव क्षेत्रीय विवाद में बदल गया। अगले ही दिन मिस्र, जॉर्डन, सीरिया और इराक़ ने इस इलाक़े पर हमला कर दिया। ये पहला अरब-इसराइल संघर्ष था। इसे ही यहूदियों का कथित स्वतंत्रता संग्राम भी कहा गया था। इस लड़ाई के ख़त्म होने के बाद संयुक्त राष्ट्र ने एक अरब राज्य के लिए आधी ज़मीन मुकर्रर की।

फ़लस्तीनियों के लिए वहीं से त्रासदी का दौर शुरू हो गया। साढ़े सात लाख फलस्तीनियों को भागकर पड़ोसी देशों में पनाह लेनी पड़ी या फिर यहूदी सशस्त्र बलों ने उन्हें खदेड़ कर बेदखल कर दिया।

लेकिन साल 1948 यहूदियों और अरबों के बीच कोई आख़िरी संघर्ष नहीं था। साल 1956 में स्वेज़ नहर को लेकर विवाद हुआ और इसराइल और मिस्र फिर एक दूसरे के सामने खड़े हो गए। लेकिन ये मामला युद्ध के बिना सुलझा लिया गया।

लेकिन साल 1967 में छह दिनों तक चला अरब-इसराइल संघर्ष एक तरह से आखिरी बड़ी लड़ाई थी। पाँच जून 1967 से दस जून 1967 के बीच जो युद्ध हुआ, उसका दीर्घकालीन प्रभाव कई स्तरों पर देखा गया।

अरब देशों के सैनिक गठबंधन पर इसराइल को जीत मिली। ग़ज़ा पट्टी, मिस्र का सिनाई प्रायद्वीप, जॉर्डन से वेस्ट बैंक (पूर्वी यरूशलम सहित) और सीरिया से गोलन पहाड़ी इसराइल के नियंत्रण में आ गए। पाँच लाख फ़लस्तीनी लोग विस्थापित हो गए।

आख़िरी अरब-इसराइल संघर्ष साल 1973 का योम किप्पुर युद्ध था। मिस्र और सीरिया ने इसराइल के खिलाफ़ ये जंग लड़ी। मिस्र को सिनाई प्रायद्वीप फिर से हासिल हो गया। साल 1982 में इसराइल ने सिनाई प्रायद्वीप पर अपना दावा छोड़ दिया लेकिन ग़ज़ा पर नहीं। छह साल बाद मिस्र इसराइल के साथ शांति समझौता करने वाला पहला अरब देश बना। जॉर्डन ने आगे चलकर इसका अनुसरण किया।

इसराइल की स्थापना मध्य पूर्व में क्यों हुई?

यहूदियों का मानना है कि आज जहाँ इसराइल बसा हुआ है, ये वही इलाक़ा है, जो ईश्वर ने उनके पहले पूर्वज अब्राहम और उनके वंशजों को देने का वादा किया था।

पुराने समय में इस इलाक़े पर असीरियों (आज के इराक़, ईरान, तुर्की और सीरिया में रहने वाले क़बायली लोग), बेबीलोन, पर्सिया, मकदूनिया और रोमन लोगों का हमला होता रहा था। रोमन साम्राज्य में ही इस इलाक़े को फ़लस्तीन नाम दिया गया था और ईसा के सात दशकों बाद यहूदी लोग इस इलाक़े से बेदखल कर दिए गए।

इस्लाम के अभ्युदय के साथ सातवीं सदी में फ़लस्तीन अरबों के नियंत्रण में आ गया और फिर यूरोपीय हमलावरों ने इस पर जीत हासिल की। साल 1516 में फ़लस्तीन ऑटोमन साम्राज्य (उस्मानिया साम्राज्य) के नियंत्रण में चला गया और फिर प्रथम विश्व युद्ध के बाद 29 सितम्बर 1923 को ब्रिटेन का फ़लस्तीन पर कब्ज़ा हो गया। जो 14 मई, 1948 को इसराइल की स्थापना के एक दिन बाद 15 मई, 1948 तक रहा।

15 मई 1948 के बाद सत्ता के सुचारु परिवर्तन की अनुमति देने के लिए, अनिवार्य शक्ति के रूप में ब्रिटेन को फिलिस्तीन की अनंतिम सरकार के रूप में संयुक्त राष्ट्र फिलिस्तीन आयोग को सौंपना था।

फ़लस्तीन पर संयुक्त राष्ट्र की एक स्पेशल कमेटी ने तीन सितंबर, 1947 को जेनरल असेंबली को अपनी रिपोर्ट सौंपी। इस रिपोर्ट में कमेटी ने मध्य पूर्व में यहूदी राष्ट्र की स्थापना के लिए धार्मिक और ऐतिहासिक दलीलों को स्वीकार कर लिया।

साल 1917 के बालफोर घोषणापत्र में ब्रिटिश सरकार ने यहूदियों को फ़लस्तीन में 'राष्ट्रीय घर' देने की बात मान ली थी। इस घोषणापत्र में यहूदी लोगों के फ़लस्तीन के साथ ऐतिहासिक संबंध को मान्यता दी गई थी और इसी के आधार पर फ़लस्तीन के इलाक़े में यहूदी राज्य की नींव पड़ी।

यूरोप में नाज़ियों के हाथों लाखों यहूदियों के जनसंहार के बाद और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान एक अलग यहूदी राष्ट्र को मान्यता देने के लिए अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ने लगा था।

अरब लोगों और यहूदियों के बीच बढ़ते तनाव को सुलझाने में नाकाम होने के बाद ब्रिटेन ने ये मुद्दा संयुक्त राष्ट्र के विचार के लिए रखा।

29 नवंबर, 1947 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने फ़लस्तीन के बँटवारे की योजना को मंज़ूरी दे दी। इसमें एक अरब देश और यहूदी राज्य के गठन की सिफ़ारिश की गई और साथ ही यरूशलम के लिए एक विशेष व्यवस्था का प्रावधान किया गया।

इस योजना को यहूदियों ने स्वीकार कर लिया लेकिन अरब लोगों ने ख़ारिज कर दिया। वे इसे अपनी ज़मीन खोने के तौर पर देख रहे थे। यही वजह थी कि संयुक्त राष्ट्र की योजना को कभी लागू नहीं किया जा सका।

फ़लस्तीन पर ब्रिटेन का नियंत्रण समाप्त होने के एक दिन पहले 14 मई, 1948 को स्वतंत्र इसराइल के गठन की घोषणा कर दी गई। इसके अगले दिन इसराइल ने संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता के लिए आवेदन किया और एक साल बाद उसे इसकी मंज़ूरी मिल गई। संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों में 83 फ़ीसदी देश इसराइल को मान्यता दे चुके हैं। दिसंबर, 2019 तक 193 देशों में 162 ने इसराइल को मान्यता दे दी थी।

दो फलस्तीनी क्षेत्र क्यों हैं?

फ़लस्तीन पर संयुक्त राष्ट्र की स्पेशल कमेटी ने 1947 में जनरल असेंबली को रिपोर्ट सौंपी थी, उसमें ये सिफ़ारिश की गई थी कि अरब राष्ट्र में वेस्टर्न गैली (समारिया और ज्युडिया का पहाड़ी इलाका) शामिल किया जाए।

कमेटी ने यरूशलम और मिस्र की सीमा से लगने वाले इस्दुद के तटीय मैदान को इससे बाहर रखने की सिफ़ारिश की थी।

लेकिन इस क्षेत्र के बँटवारे को साल 1949 में खींची गई आर्मीस्टाइस रेखा से परिभाषित किया गया। ये रेखा इसराइल के गठन और पहले अरब-इसराइल युद्ध के बाद खींची गई थी।

फ़लस्तीन के ये दो क्षेत्र हैं वेस्ट बैंक (जिसमें पूर्वी यरूशलम शामिल है) और ग़ज़ा पट्टी। ये दोनों क्षेत्र एक दूसरे से 45 किलोमीटर की दूरी पर हैं। वेस्ट बैंक का क्षेत्रफल 5970 वर्ग किलोमीटर है तो ग़ज़ा पट्टी का क्षेत्रफल 365 वर्ग किलोमीटर।

वेस्ट बैंक यरूशलम और जॉर्डन के पूर्वी इलाक़े के बीच पड़ता है। यरूशलम को फ़लस्तीनी पक्ष और इसराइल दोनों ही अपनी राजधानी बताते हैं।

ग़ज़ा पट्टी 41 किलोमीटर लंबा इलाक़ा है, जिसकी चौड़ाई 6 से 12 किलोमीटर के बीच पड़ती है।

ग़ज़ा की 51 किलोमीटर लंबी सीमा इसराइल से लगती है, सात किलोमीटर मिस्र के साथ और 40 किलोमीटर भूमध्य सागर का तटवर्ती इलाक़ा है।

ग़ज़ा पट्टी को इसराइल ने साल 1967 की लड़ाई में अपने नियंत्रण में ले लिया था। साल 2005 में इसराइल ने इस पर अपना क़ब्ज़ा छोड़ दिया। हालांकि इसराइल गज़ा पट्टी से लोगों, सामानों और सेवाओं की आमदरफ्त को हवा, ज़मीन और समंदर हर तरह से नियंत्रित करता है।

फ़िलहाल गज़ा पट्टी हमास के नियंत्रण वाला इलाक़ा है। हमास इसराइल का सशस्त्र गुट है जो फ़लस्तीन के अन्य धड़ों के साथ इसराइल के समझौते को मान्यता नहीं देता है।

इसके उलट, वेस्ट बैंक पर फ़लस्तीनी नेशनल अथॉरिटी का शासन है। फ़लस्तीनी नेशनल अथॉरिटी को अंतरराष्ट्रीय समुदाय फ़लस्तीनियों की सरकार के रूप में मान्यता देता है।

फलस्तीनियों और इसराइलियों के बीच क्या कभी कोई समझौता हुआ है?

इसराइल के गठन और हज़ारों फ़लस्तीनियों के विस्थापित होने के बाद वेस्ट बैंक, गज़ा और अरब देशों के यहाँ बने शरणार्थी शिविरों में फ़लस्तीनी आंदोलन अपनी जड़ें जमाने लगा।

इस आंदोलन को जॉर्डन और मिस्र का समर्थन हासिल था।

साल 1967 की लड़ाई के बाद यासिर अराफात की अगुवाई वाले 'फतह' जैसे फ़लस्तीनी संगठनों ने 'फ़लस्तीनी लिबरेशन ऑर्गनाइज़ेशन' बनाया।

पीएलओ ने इसराइल के ख़िलाफ़ पहले जॉर्डन से और फिर लेबनान से कार्रवाई की शुरुआत की।

लेकिन इन हमलों में इसराइल के भीतर और बाहर के सभी ठिकानों को निशाना बनाया गया। इसराइल के दूतावासों, खिलाड़ियों, उसके हवाई जहाज़ों में कोई भेदभाव नहीं किया गया।

इसराइली टारगेट्स पर फ़लस्तीनियों के सालों तक हमले होते रहे और आख़िर में साल 1993 में ओस्लो शांति समझौता हुआ जिस पर पीएलओ और इसराइल ने दस्तखत किए।

फलस्तीनी लिबरेशन ऑर्गनाइज़ेशन ने 'हिंसा और चरमपंथ' का रास्ता छोड़ने का वादा किया और इसराइल के शांति और सुरक्षा के साथ जीने के अधिकार को मान लिया। हालाँकि हमास इस समझौते को स्वीकार नहीं करता है।

इस समझौते के बाद फ़लस्तीनी नेशनल अथॉरिटी का गठन हुआ और इस संगठन को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर फ़लस्तीनी लोगों की नुमाइंदगी का हक़ मिल गया।

इस संगठन के अध्यक्ष का चुनाव सीधे मतदान के द्वारा होता है। अध्यक्ष एक प्रधानमंत्री और उसकी कैबिनेट की नियुक्ति करता है। इसके पास शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों की नागरिक सुविधाओं के प्रबंधन का अधिकार है।

पूर्वी यरूशलम जिसे ऐतिहासिक तौर पर फ़लस्तीनियों की राजधानी माना जाता है, को ओस्लो शांति समझौता में शामिल नहीं किया गया था।

यरूशलम को लेकर दोनों पक्षों में गहरा विवाद है।

फ़लस्तीनियों और इसराइलियों के बीच विवाद के मुख्य बिंदु क्या हैं?

एक स्वतंत्र फ़लस्तीनी राष्ट्र के गठन में देरी, वेस्ट बैंक में यहूदी बस्तियाँ बसाने का काम और फ़लस्तीनी क्षेत्र के आस-पास सुरक्षा घेरा, ये वो वजहें हैं जिससे शांति प्रक्रिया में बाधा पहुँचती है।

हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने फ़लस्तीनी क्षेत्र के आस-पास इसराइल के सुरक्षा घेरे की आलोचना भी की है।

साल 2000 में अमेरिका के कैंप डेविड में जब राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की मौजूदगी में दोनों पक्षों के बीच सुलह कराने की आख़िरी बार गंभीर कोशिश हुई थी, तभी ये साफ़ हो गया था कि फ़लस्तीनियों और इसराइलियों के बीच शांति की राह में केवल यही बाधाएँ नहीं है।

उस वक्त इसराइल के प्रधानमंत्री एहुद बराक और यासिर अराफात के बीच बिल क्लिंटन समझौता कराने में नाकाम रहे थे। जिन मुद्दों पर दोनों पक्षों के बीच असहमति थी, वे थीं - यरूशलम, सीमा और ज़मीन, यहूदी बस्तियाँ और फ़लस्तीनी शरणार्थियों का मुद्दा।

इसराइल का दावा है कि यरूशलम उसका इलाक़ा है। उसका कहना है कि साल 1967 में पूर्वी यरूशलम पर कब्जे के बाद से ही यरूशलम उसकी राजधानी रही है लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे मान्यता नहीं मिली हुई है। फ़लस्तीनी पक्ष पूर्वी यरूशलम को अपनी राजधानी बनाना चाहता है।

फ़लस्तीनियों की मांग है कि छह दिन तक चले अरब-इसराइल युद्ध यानी चार जून, 1967 से पहले की स्थिति के मुताबिक़ उसकी सीमाओं का निर्धारण किया जाए जिसे इसराइल मानने से इनकार करता है।

यहूदी बस्तियाँ इसराइल ने क़ब्ज़े वाली ज़मीन पर बसाई हैं। अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के तहत ये अवैध हैं। वेस्ट बैंक और पूर्वी यरूशलम में इन बस्तियों में पाँच लाख से ज़्यादा यहूदी रहते हैं।

फ़लस्तीनी शरणार्थियों की संख्या वास्तव में कितनी है, ये इस बात पर निर्भर करता है कि कौन इसे गिन रहा है। पीएलओ का कहना है कि इनकी संख्या एक करोड़ से अधिक है। इनमें आधे लोग संयुक्त राष्ट्र के पास रजिस्टर्ड हैं। फ़लस्तीनियों का कहना है कि इन शरणार्थियों को अपनी ज़मीन पर लौटने का हक़ है। लेकिन वो जिस ज़मीन की बात कर रहे हैं, वो आज का इसराइल है और अगर ऐसा हुआ तो यहूदी राष्ट्र के तौर पर उसकी पहचान का क्या होगा।

क्या फ़लस्तीन एक देश है?

संयुक्त राष्ट्र फ़लस्तीन को एक 'गैर सदस्य-ऑब्ज़र्वर स्टेट' के तौर पर मान्यता देता है।

फ़लस्तीनियों को जनरल असेंबली की बैठक और बहस में हिस्सा लेने का अधिकार है ताकि संयुक्त राष्ट्र के संगठनों की सदस्यता लेने की उनकी संभावना बेहतर हो सके।

साल 2011 में फ़लस्तीन ने पूर्ण सदस्यता के लिए आवेदन किया था लेकिन ये हो नहीं पाया।

संयुक्त राष्ट्र महासभा के 70 फ़ीसदी से ज़यादा सदस्य फ़लस्तीन को एक राज्य के तौर पर मान्यता देते हैं।

अमेरिका इसराइल का मुख्य साथी क्यों हैं? फ़लस्तीन को किनका समर्थन हासिल है?

इसके लिए अमेरिका में मौजूद इसराइल समर्थक ताक़तवर लॉबी की अहमियत समझनी होगी। अमेरिका में जनमत भी इसराइल के रुख़ का समर्थन करता है।

इसलिए किसी अमेरिकी राष्ट्रपति का इसराइल से समर्थन वापस लेना हकीकत में नामुमकिन है।

इसके अलावा दोनों देश सैन्य सहयोगी भी हैं। इसराइल को अमेरिका की सबसे ज्यादा मदद मिली है। ये मदद हथियारों की ख़रीद और पैसे के रूप में मिलती है।

हालाँकि साल 2016 में जब सुरक्षा परिषद में इसराइल की यहूदी बस्तियाँ बसाने की नीति की आलोचना पर वोटिंग हो रहे थे, तो ओबामा प्रशासन ने अपने वीटो पावर का इस्तेमाल नहीं किया था।

लेकिन व्हाइट हाउस में डोनाल्ड ट्रंप के आने के बाद दोनों देशों के रिश्तों को नईं ज़िंदगी मिली। अमेरिका ने अपना दूतावास तेल अवीव से हटाकर यरूशलम स्थानांतरित कर लिया। इसके साथ ही अमेरिका दुनिया का पहला ऐसा देश बन गया जिसने यरूशलम को इसराइल की राजधानी के रूप में मान्यता दी।

अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों में राष्ट्रपति ट्रंप धनी अरब देशों से इसराइल के रिश्ते सामान्य करने की दिशा में कामयाब रहे थे।

हालांकि बाइडन प्रशासन ने सत्ता संभालने के बाद से ही इसराइल फ़लस्तीन के जोखिम भरे संघर्ष से दूरी बनाने की रणनीति अपनाई है। जानकारों का कहना है कि बाइडन प्रशासन इसे ऐसी समस्या के तौर पर देखता है जिसमें बड़ी राजनीतिक पूंजी की ज़रूरत है और जो हासिल होगा, वो पक्का नहीं है।

इसराइल को अमेरिकी समर्थन जारी है लेकिन बाइडन प्रशासन की कूटनीति में एहतियात दिखता है। हालांकि मौजूदा हिंसा के बाद बाइडन को अपनी पार्टी के वामपंथी धड़े की आलोचनाओं का सामना करना पड़ सकता है जो इसराइल के आलोचक रहे हैं।

दूसरी तरफ़ तुर्की, पाकिस्तान, चीन, भारत, मलेशिया, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, मिस्र, सीरिया, ईरान और कई अरब देश फ़लस्तीन के मुद्दे पर फ़लस्तीनी लोगों के साथ हैं। अरब देशों में फ़लस्तीनियों के लिए सहानुभूति की भावना है।

शांति का रास्ता क्या बचता है और इसके लिए क्या करना होगा?

विशेषज्ञों का कहना है कि स्थाई शांति के लिए इसराइल को फ़लस्तीनियों की संप्रभुता स्वीकार कर लेनी चाहिए जिसमें हमास भी शामिल हो। उसे ग़ज़ा से नाकाबंदी ख़त्म कर लेनी चाहिए और वेस्ट बैंक और पूर्वी यरूशलम में पाबंदियाँ भी उठा लेनी चाहिए।

दूसरी तरफ़ फ़लस्तीनी गुटों को स्थाई शांति के लिए हिंसा का रास्ता छोड़ना होगा और इसराइल को स्वीकार करना होगा।

सीमाओं, यहूदी बस्तियों और फलस्तीनी शरणार्थियों की वापसी के मुद्दे पर दोनों पक्षों को स्वीकार्य समझौते तक पहुँचना होगा।

चीन और ईरान के बीच आर्थिक सहयोग योजना वैश्विक आर्थिक प्रणाली में 'गेम चेंजर' साबित होगा

चीन और ईरान के बीच 25 साल के लिए 400 अरब डॉलर की व्यापक आर्थिक सहयोग योजना पर अमरीका की ओर से अभी तक कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है।

लेकिन विश्लेषकों का कहना है कि यह क़दम सिर्फ़ क्षेत्र के लिए ही नहीं, बल्कि वैश्विक आर्थिक प्रणाली में एक महत्वपूर्ण 'गेम चेंजर' साबित होगा।

पाकिस्तान में इस बात को लेकर बेचैनी है कि अब चीन ईरान का रुख़ कर रहा है। लेकिन इस मुद्दे पर गहरी नज़र रखने वाले पाकिस्तान के राजनयिकों और विश्लेषकों ने स्पष्ट रूप से इस संदेह को ख़ारिज कर दिया है।

उनका कहना है कि हालिया चीन और ईरान का आर्थिक सहयोग समझौता, चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) का विकल्प नहीं बनेगा, बल्कि इसे मज़बूत करेगा।

ईरान की मजबूरी और चीन की ज़रूरत

विशेषज्ञों के अनुसार, तेहरान ने चीन के साथ दीर्घकालिक आर्थिक, इंफ्रास्ट्रक्चर के निर्माण और सुरक्षा के मुद्दों पर सहयोग करके ख़ुद को नई वैश्विक स्थिति के लिए एक शक्तिशाली देश बनाने की कोशिश की है।

लेकिन ऐसा करने पर, जहां एक तरफ़ ईरान को अमरीका के नए प्रतिबंधों का सामना करना पड़ सकता है, वहीं दूसरी तरफ़ यह समझौता उसे अमरीका के निरंतर प्रतिबंधों से बचा भी सकता है।

ईरान पर लंबे समय से चल रहे अमरीकी प्रतिबंधों ने ही उसे चीन के इतने क़रीब पहुंचा दिया है। यही वजह है कि ईरान वैश्विक दरों के मुक़ाबले कम क़ीमत पर चीन को तेल बेचने के लिए तैयार हो गया है। ताकि उसके तेल की बिक्री बिना किसी रुकावट के जारी रह सके और राष्ट्रीय ख़ज़ाने को एक विश्वसनीय आय का स्रोत मिल सके।

विशेषज्ञों का कहना है कि समझौते के दस्तावेज़ तो अभी सामने नहीं आये हैं। लेकिन जो सूचनाएं मिली हैं, उनसे पता चलता है कि ईरान की नाज़ुक अर्थव्यवस्था में अगले 25 वर्षों में 400 अरब डॉलर की परियोजनाएँ आर्थिक स्थिरता लाने में मदद कर सकती हैं।

इसके बदले में, चीन रियायती दरों पर ईरान से तेल, गैस और पेट्रो-कैमिकल उत्पाद ख़रीद सकेगा। इसके अलावा, चीन, ईरान के वित्तीय, परिवहन और दूरसंचार क्षेत्रों में भी निवेश करेगा।

इस समझौते के तहत, ईरान के इतिहास में पहली बार, दोनों देश संयुक्त प्रशिक्षण अभ्यास, हथियारों का आधुनिकीकरण और संयुक्त इंटेलिजेंस से राज्य, सुरक्षा और सैन्य मामलों में सहयोग करेंगे।

दोनों देशों के बीच हुए समझौते के अनुसार, चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के पाँच हज़ार सैनिकों को भी ईरान में तैनात किया जाएगा। लेकिन ध्यान रहे कि ईरान में इसे लेकर विरोध भी हो रहा है, जिसमें ईरान के पूर्व राष्ट्रपति अहमदीनेजाद सबसे आगे हैं।

यह भी अनुमान लगाया जा रहा है कि शायद ईरान, चीन की नई डिजिटल मुद्रा, ई-आरएमबी को अपनाने के लिए आदर्श उम्मीदवार साबित हो सकता है, जिसने डॉलर को नज़रअंदाज़ करने और इसे मंज़ूरी देने वाली ताक़त को कमज़ोर किया है।

याद रहे कि ईरान वर्तमान में वैश्विक वित्तीय और बैंकिंग प्रणाली स्विफ्ट (SWIFT) से नहीं जुड़ा है और ईरान के साथ कोई लेनदेन नहीं कर रहा है।

सीपीईसी - प्लस

पाकिस्तान-चीन संस्थान के अध्यक्ष सीनेटर मुशाहिद हुसैन सैयद के अनुसार, ईरान-चीन रणनीतिक समझौता क्षेत्र के लिए एक अच्छा क़दम है और पाकिस्तान के हितों के लिए सकारात्मक भी है, क्योंकि यह पाकिस्तान पर केंद्रित, क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग को मजबूत करेगा।

मुशाहिद हुसैन ने उम्मीद जताई है कि बलूचिस्तान में स्थिरता लाने और चीन, अफगानिस्तान, ईरान तथा मध्य एशियाई देशों के साथ क्षेत्रीय सहयोग को बढ़ावा देने में, ग्वादर पोर्ट की भूमिका को मजबूत करने में मदद मिलेगी।

उन्होंने आगे कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण था कि अमरीकी दबाव के कारण (जब 25 जनवरी, 2006 को डेविड मलफोर्ड भारत में अमेरिकी राजदूत थे) भारत ने आईपीआई (ईरान-पाकिस्तान-इंडिया पाइपलाइन) का नवीनीकरण नहीं किया। इसके बजाय अमरीका के साथ परमाणु समझौते का चुनाव किया। भारत ने तत्कालीन मंत्री मणिशंकर अय्यर को हटा दिया था जो आईपीआई के समर्थक थे।

पाकिस्तान में सीपीईसी के बारे में बेचैनी को खारिज करते हुए, मुशाहिद हुसैन ने कहा कि ईरान-चीन समझौता सीपीईसी को और अधिक सार्थक बना देगा। क्योंकि ये दोनों समझौते प्रतिस्पर्धा या प्रतिद्वंद्विता के लिए नहीं हैं, बल्कि दोनों का मक़सद चीन के साथ रणनीतिक सहयोग है।

'विश्व शक्ति से मुक़ाबला करने की तैयारी'

भारत के मशहूर रक्षा विश्लेषक प्रवीण साहनी कहते हैं, ''मुझे लगता है कि इस समझौते को फारस की खाड़ी में क्षेत्रीय तनाव के संदर्भ में देखना गलत होगा। चीन ने हमेशा ईरान-सऊदी प्रतिद्वंद्विता में किसी का भी समर्थन या विरोध करने से परहेज किया है। फारस की खाड़ी में चीन की बढ़ती उपस्थिति का मुख्य कारण उसके आर्थिक मामले हैं।''

वह कहते हैं कि चीन और सऊदी अरब ने भी एक साल पहले बड़े आर्थिक सौदों पर हस्ताक्षर किए थे। लेकिन ईरान के साथ चीन के इस नए समझौते से एक और महत्वपूर्ण बात पता चलती है। वो यह है कि अमरीकी प्रतिबंधों ने तेहरान को अकेला करने के बजाय, इसे चीन के कैम्प में और भी मज़बूती से आगे बढ़ाया है। इसलिए इस समझौते का महत्व न केवल क्षेत्र के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि यह विश्व शक्ति से मुक़ाबले की भी तैयारी दिखाई देती है।

प्रवीण साहनी कहते हैं, ''समझौते का ज़्यादा विवरण फिलहाल उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए इसकी तुलना सीपीईसी से नहीं की जा सकती है। फिर भी, बड़ा अंतर यह है कि इसमें दोनों पक्षों के बुनियादी हित जुड़े हुए हैं। चीन को तेल की ज़रूरत है, जो उसे ईरान से सस्ती दरों पर मिलेगा।''

प्रवीण साहनी कहते हैं, ''बदले में, ईरान अपने आर्थिक, तेल के उत्पादन, बुनियादी ढांचे और व्यापार में निवेश कराना चाहता है, जो चीन मुहैया करेगा। चीन-ईरान संबंधों में आर्थिक सहयोग है, जो चीन और पाकिस्तान के मामले में नहीं है। यह फ़र्क़ किस तरह की भूमिका निभाएगा, फिलहाल इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता।''

उनके अनुसार, ''ईरान के पास ऐसे संसाधन हैं जिनकी चीन को सख्त जरूरत है, यानी हाइड्रोकार्बन। पाकिस्तान के पास ऐसी कोई दौलत नहीं है। इसलिए, आर्थिक मामलों के लिहाज़ से, पाकिस्तान और चीन के संबंध चीन और ईरान के संबंधों से बहुत अलग हैं।''

प्रवीण साहनी के मुताबिक, हालांकि इस बात पर बहुत चर्चा हुई है कि पाकिस्तान, ईरान, मध्य एशिया पर आधारित गलियारे से क्षेत्र में आर्थिक विकास और सुधार होगा या नही।

प्रवीण साहनी कहते हैं, ''यह एक दीर्घकालिक योजना तो हो सकती है, लेकिन छोटी अवधि में इसके फायदे की कोई संभावना नहीं है। ईरान और पाकिस्तान उन औद्योगिक उत्पादों का निर्माण नहीं करते हैं, जिन्हे मध्य एशियाई देश आयात करते हैं और न ही पाकिस्तान और ईरान मध्य एशियाई निर्यात के लिए प्रमुख बाजार हैं।''

उन्होंने कहा कि चीन से लेकर मध्य एशिया के साथ-साथ यूरोप तक ऐसा इंफ्रास्ट्रक्चर है जिसकी वजह से वहां सड़कों और रेलवे का नेटवर्क बिछा हुआ है। वो कहते हैं कि ''यह देखना मुश्किल है कि चीन के नए रास्ते पाकिस्तान और ईरान, इन पुराने रास्तों का विकल्प कैसे बन सकेंगे।''

प्रवीण ने आगे कहा कि ईरान के चाबहार बंदरगाह के निर्माण की परियोजना भारत ने शुरू की थी क्योंकि भारत को अफ़ग़ानिस्तान के खनिज संसाधनों का उपयोग करना था और उन्हें ईरान की औद्योगिक क्षमता के उपयोग से अधिक बेहतर बनाना था।

जाहिर है यह सब अफ़ग़ानिस्तान में ज़मीनी हालात को देखते हुए, 'दूर के ढोल सुहावने' की तरह था। अफ़ग़ानिस्तान की अर्थव्यवस्था इतनी बड़ी नहीं है कि भारत, ईरान के माध्यम से भारत-अफ़ग़ानिस्तान व्यापार गलियारे के लिए एक बड़ी सड़क या रेलवे इंफ्रास्ट्रक्चर का निर्माण करे।

उन्होंने आगे कहा कि पाकिस्तान ने फारस की खाड़ी में ईरान-सऊदी टकराव से दूर रहने की भरसक कोशिश की है और ऐसा ही भारत ने भी किया है।

प्रवीण कहते हैं, ''इस टकराव में दोनों पक्षों के आर्थिक हित हैं, लेकिन साथ ही, इस टकराव से संबंधित आंतरिक मुद्दे भी हैं। इसलिए समय के साथ-साथ सभी पक्षों के बीच संतुलन बनाए रखना अधिक कठिन होता जा रहा है। खासतौर पर तब, जब अमरीका अगले कुछ वर्षों में यह तय करेगा कि उसे ईरान पर और दबाव बढ़ाने की जरूरत है। मुझे नहीं लगता कि यथार्थवादी संतुलन बनाए रखने के अलावा कोई और विकल्प है।''

'अमरीका ने पाकिस्तान और ईरान को चीन की तरफ़ धकेल दिया'

पाकिस्तान के पूर्व राजदूत और लाहौर यूनिवर्सिटी ऑफ मैनेजमेंट साइंसेज में कूटनीति और अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रोफेसर इक़बाल अहमद ख़ान का कहना है, कि ईरान के साथ चीन की निवेश योजना उसकी आठ खरब डॉलर की बीआरआई परियोजनाओं का हिस्सा है, जिनमें से एक सीपीईसी भी है।

पूर्व राजदूत इक़बाल अहमद ख़ान के अनुसार, ईरान में चीन के निवेश की, सीपीईसी से तुलना करना सही नहीं है। क्योंकि ये दोनों चीन के ही निवेश हैं और दोनों एक-दूसरे के लिए सहायक होंगे और इसका फायदा तीनों देशों को होगा।

वो कहते हैं, ''चीन और ईरान दोनों पाकिस्तान के दोस्त हैं, इसलिए पाकिस्तान चाहता है कि परियोजना सफल हो।''

इक़बाल अहमद ख़ान ने आगे कहा कि ईरान में चीन का निवेश पाकिस्तान की कीमत पर नहीं है, इसलिए इसे ''शून्य-सम गेम'' नहीं समझना चाहिए।

इस सवाल पर कि क्या पाकिस्तान और चीन, ईरान पर अमरीकी प्रतिबंधों का बोझ उठा पाएंगे। इक़बाल अहमद ख़ान ने कहा कि वास्तव में पाकिस्तान और ईरान में चीन के निवेश का मुख्य कारण, अमरीका द्वारा लगाए गए प्रतिबंध या इन देशों को नज़रअंदाज़ करने की कोशिशें हैं।

वो कहते हैं, ''पाकिस्तान और ईरान दोनों को ही अमरीका ने दरकिनार कर दिया है, जिससे हमें दूसरा रास्ता देखना पड़ा। पाकिस्तान ने अपनी राजनीतिक और भौगोलिक स्थिति का अधिकतम लाभ उठाने का फैसला किया। एक तरफ चीन है और दूसरी तरफ ईरान है। हालांकि, अगर पाकिस्तान चीन का दोस्त है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि पाकिस्तान अमरीका का विरोधी है, बल्कि चीन तो पाकिस्तान से कई बार अमरीका और भारत दोनों से अपने संबंधों को सुधारने के लिए कह चुका है। हालांकि अमरीका को भी इसका एहसास होना चाहिए।''

इक़बाल अहमद ख़ान ने कहा कि पाकिस्तान ख़ुशी से ईरान के साथ सहयोग करेगा, बल्कि पाकिस्तान ईरान को भी उसकी तरह शंघाई सहयोग परिषद का सदस्य बनाने की कोशिश करेगा।

वो कहते हैं, ''ईरान के साथ चीन के सहयोग से पाकिस्तान को सीधे लाभ होगा। ईरान से तेल, जो वर्तमान में 13 हज़ार मील की दूरी तय करने के बाद चीन पहुंचता है। वह पाकिस्तान के रास्ते 15 सौ मील के सुरक्षित मार्ग से चीन पहुंचेगा।''

उन्होंने कहा कि पाकिस्तान, ईरान, तुर्की और अन्य एशियाई देशों में चीन के निवेश और आर्थिक व व्यापारिक इंफ्रास्ट्रक्चर में, इसके निवेश अटलांटिक महासागर से हिंद महासागर और प्रशांत महासागर के क्षेत्रों में, दुनिया की शक्ति को स्थानांतरित करने के ठोस संकेत हैं।

वैश्विक परिवर्तन की इस प्रक्रिया में पाकिस्तान और ईरान की महत्वपूर्ण भूमिका हैं। बदलाव की इस प्रक्रिया में अमरीकी प्रतिबंध की भी भूमिका है, जो इन देशों को दूसरी तरफ धकेल रही हैं।''

'ईरान समझौता और सीपीईसी स्वाभाविक साझेदार हैं'

इंस्टीट्यूट ऑफ स्ट्रेटेजिक स्टडीज़ इस्लामाबाद में वैश्विक मामलों की विशेषज्ञ फातिमा रज़ा का कहना है, कि हालांकि दोनों परियोजनाओं में ऊर्जा और बुनियादी ढांचे की विशेषताएं समान हैं, लेकिन इसमें शामिल पक्षों के हित कई मायनों में अलग हैं।

हालांकि फातिमा रज़ा ने कहा कि चीन-ईरान समझौता दोनों देशों के बीच एक स्वाभाविक साझेदारी का समझौता है, जो सीपीईसी की संभावनाओं को भी आगे बढ़ा सकता है।

फातिमा रज़ा ने आगे कहा कि प्रत्येक पार्टी के लिए, दोनों की तुलना करना एक अलग तस्वीर प्रस्तुत करता है। ''ये दोनों परियोजनाएं पाकिस्तान को सफल होने के लिए असाधारण अवसर प्रदान करती हैं, क्योंकि यह ईरानी तेल को चीन पहुंचाने के लिए प्राकृतिक मार्ग बन जाता है।''

फातिमा रज़ा ने कहा, ''चीन के लिए, इसका मतलब सीपीईसी जैसी परियोजना है, जो क्षेत्र में अपने विस्तार के प्रभाव को मजबूत करना चाहता है, जो इस क्षेत्र में अमरीकी हितों के लिए परेशानी खड़ी करेगा।''

फातिमा रज़ा का कहना है कि यह समझौता ईरान को उसकी वित्तीय जरूरतों को पूरा करने में मदद करेगा, जिसकी उसे बहुत अधिक ज़रुरत है।

फातिमा रज़ा ने कहा, ''दोनों सौदे प्रतिस्पर्धी होने के बजाय अपनी प्रकृति में एक दूसरे को मजबूत करते हैं, लेकिन इसकी सफलता अपनी पूरी क्षमता का उपयोग करने वाले दलों पर निर्भर करती है।''

'खाड़ी और क्षेत्र के समग्र भौगोलिक-राजनीतिक संतुलन पर प्रभाव'

अरब न्यूज़ के एक विश्लेषक, ओसामा अल-शरीफ ने लिखा है, कि चीन और ईरान के बीच 25 साल के व्यापक रणनीतिक साझेदारी के समझौते का, खाड़ी और क्षेत्र के समग्र भोगौलिक-राजनीतिक संतुलन पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ेगा।

इस समझौते पर ऐसे समय में हस्ताक्षर किए गए हैं, जब बीजिंग और वाशिंगटन के बीच संबंध बहुत तनावपूर्ण हैं।

इस समझौते ने ईरान के परमाणु समझौते पर पश्चिम की तरफ से, इस पर दोबारा बातचीत और इसके विस्तार के प्रयासों पर तेहरान को एक मजबूत स्थिति प्रदान की है।

ओसामा अल-शरीफ के अनुसार, ये समझौता चीन को ईरानी धरती पर 5 हज़ार सुरक्षा और सैन्य कर्मियों को तैनात करने का अवसर प्रदान करेगा, जो क्षेत्रीय गेम चेंजर साबित होगा।

चीन से पहले, तेहरान ने 2001 में मास्को के साथ विशेष रूप से परमाणु क्षेत्र में, 10 साल के सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर किए, जो तब से दो बार बढ़ाया जा चुका है।

उन्होंने लिखा कि दो साल पहले ईरान, रूस और चीन के साथ नौसेना अभ्यास में शामिल हुआ था। इस नए समझौते से चीन को खाड़ी क्षेत्र में और साथ ही मध्य एशिया में भी अपने अड्डे स्थापित करने का मौक़ा मिलेगा।

बदले में, ईरान को चीन की टेक्नोलॉजी मिलेगी और उसके खराब बुनियादी ढांचे में निवेश होगा।

चीनी सरकार वर्षों से अन्य खाड़ी देशों के साथ अपने आर्थिक संबंधों को मजबूत कर रही है।

बीजिंग ने संयुक्त अरब अमीरात और कुवैत के साथ सहयोग समझौतों पर हस्ताक्षर किए हैं और उनके सऊदी अरब के साथ अच्छे संबंध हैं।

ओसामा अल-शरीफ ने लिखा, ''नए समझौते से खाड़ी के अरब देशों की राजधानियों में खतरे की भावना बढ़ जाएगी। क्योंकि ये देश ईरान को अस्थिरता के एक प्रमुख स्रोत के रूप में देखते हैं और बीजिंग के साथ इसका गठबंधन तेहरान और क्यूम के बीच की रेखा को और मजबूत करेगा।''

ओसामा अल-शरीफ के अनुसार, इसके अलावा इस्राइल भी चीन के कदम को लेकर असहज महसूस करेगा। ईरान के परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले रूस और चीन दोनों ने, तेहरान के पक्ष को सपोर्ट किया और अमरीकी प्रतिबंधों का खुले तौर पर उल्लंघन किया है।

अमरीका और चीन के बीच तनाव बढ़ा

विश्व समाजवादी संगठन के एक विश्लेषक एलेक्स लांटियर लिखते हैं कि ईरान-चीन समझौते की शर्तों का खुलासा नहीं किया गया है। लेकिन ये हस्ताक्षर ऐसे समय में हुए, जब अमरीका ने पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को उठाने से इनकार कर दिया। साथ ही साथ चीन और अमरीका के अलास्का में होने वाले सम्मेलन में चीन और अमरीका के मतभेद खुलकर सामने आए।

इस शिखर सम्मेलन के शुरू होने से पहले प्रेस से बात करते हुए, अमरीकी विदेश मंत्री एंथनी ब्लिंकन ने कहा कि चीन को वाशिंगटन के ''नियम पर आधारित अंतर्राष्ट्रीय आदेश'' को स्वीकार करना चाहिए वरना उसे ''इससे कहीं अधिक कठोर और अस्थिर दुनिया का सामना करना पड़ेगा।''

तेहरान में, चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने एक सवाल के जवाब में कहा कि ''हमारे दोनों देशों के बीच संबंध अब रणनीतिक स्तर पर पहुंच गए हैं और चीन इस्लामी गणतंत्र ईरान के साथ व्यापक संबंधों को बढ़ावा देने की कोशिश कर रहा है।''

दोनों देशों के बीच रणनीतिक सहयोग के लिए रोडमैप पर हस्ताक्षर से ज़ाहिर होता है कि बीजिंग संबंधों को उच्चतम स्तर तक बढ़ाएगा।

चीन का प्रतिरोध

चीन की सरकारी न्यूज़ एजेंसी ग्लोबल टाइम्स के अनुसार, चीनी विदेश मंत्री ने ईरानी अधिकारियों से कहा कि ''चीन प्रभुत्व और गुंडागर्दी का विरोध, अंतरराष्ट्रीय न्याय की सुरक्षा के साथ-साथ ईरान और अन्य देशों के लोगों के साथ अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों को भी मानेगा।''

इस समझौते पर पहली बार 2016 में ईरान के सुप्रीम लीडर सैयद अली खामेनी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच चर्चा हुई थी।

मध्य पूर्व के साथ आर्थिक संबंधों को गहरा करने के लिए, चीन ने ईरान को अपने बीआरआई कार्यक्रम के साथ विकास में सहयोग करने की भी पेशकश की थी।

तेहरान टाइम्स ने चीन में ईरान के राजदूत मोहम्मद केशवरज़ ज़ादेह के हवाले से बताया कि यह समझौता ''ईरान और चीन के बीच, विशेष रूप से प्रौद्योगिकी, उद्योग, परिवहन और ऊर्जा के क्षेत्र में सहयोग की क्षमता को स्पष्ट करता है।'' चीनी फर्मों ने ईरान में मास ट्रांजिट सिस्टम, रेलवे और अन्य महत्वपूर्ण इंफ्रास्ट्रक्चर का निर्माण किया है।

दिसंबर 2020 में, इस समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने की अटकलों के बीच, अमरीकी विदेश विभाग के पॉलिसी प्लानिंग स्टाफ के डायरेक्टर, पीटर बर्कोवित्ज़ ने इसकी निंदा की।

उन्होंने समाचार पत्र अल अरेबिया को बताया था कि यदि ये समझौता होता है, तो यह ''स्वतंत्र दुनिया'' के लिए बुरी ख़बर होगी। ईरान पूरे क्षेत्र में आतंकवाद, मौत और विनाश के बीज बोता है। पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना का इस देश को सशक्त बनाना ख़तरे को और बढ़ा देगा।

स्वेज़ नहर में फंसे जहाज़ को आख़िर कैसे निकाला गया?

मिस्र की स्वेज़ नहर में जाम खुल गया है। क़रीब एक हफ़्ते से वहां फंसे विशाल जहाज़ को बड़ी मशक्कत के बाद रास्ते से हटाया जा सका।

टग बोट्स और ड्रेजर की मदद से 400 मीटर (1,300 फीट) लंबे 'एवर गिवेन' जहाज़ को निकाला गया।

सैकड़ों जहाज़ भूमध्य सागर को लाल सागर से जोड़ने वाली इस नहर से गुज़रने का इंतज़ार कर रहे हैं।

ये दुनिया के सबसे व्यस्त व्यापारिक मार्गों में से एक है।

जहाज़ को हटाने में मदद करने वाली कंपनी, बोसकालिस के सीईओ पीटर बर्बर्सकी ने कहा, ''एवर गिवेन सोमवार, 29 मार्च 2021 को स्थानीय समयानुसार 15:05 बजे फिर तैरने लगा था। जिसके बाद स्वेज़ नहर का रास्ता फिर से खोलना संभव हुआ।''

मिस्र के अधिकारियों का कहना है कि जाम की वजह से फंसे सभी जहाज़ों को निकलने में क़रीब तीन दिन का वक़्त लग जाएगा, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि वैश्विक शिपिंग पर पड़े असर को जाने में हफ़्तों या यहां तक की महीनों लग सकते हैं।

जहाज़ को आख़िर कैसे निकाला गया?

मंगलवार, 23 मार्च 2021 की सुबह तेज़ हवाओं और रेत के तूफ़ान के बीच फंसे दो लाख टन वज़न वाले जहाज़ को निकालना बचाव टीमों के लिए मुश्किल चुनौती थी।

ऐसे जहाज़ों को निकालने में विशेषज्ञ टीम, एसएमआईटी ने 13 टग बोट का इंतज़ाम किया। टग बोट छोटी लेकिन शक्तिशाली नावें होती हैं जो बड़े जहाज़ों को खींच कर एक जगह से दूसरी जगह ले जा सकती हैं।

ड्रेजर भी बुलाए गए। जिन्होंने जहाज़ के सिरों के नीचे से 30,000 क्यूबिक मीटर मिट्टी और रेत खोदकर निकाली।

जब बात नहीं बनी तो सप्ताहांत पर ये भी सोचा गया कि जहाज़ को हल्का करने के लिए कुछ माल को उतारना पड़ेगा। आशंका थी कि कुछ 18,000 कंटेनर निकालने पड़ सकते हैं।

लेकिन ऊंची लहरों ने टग बोट और ड्रेजर की उनके काम में मदद की और सोमवार, 29 मार्च 2021 की सुबह स्टर्न (जहाज़ का पिछला हिस्सा) को निकाला गया, फिर तिरछे होकर फंसे इस विशाल जहाज़ को काफी हद तक सीधा किया जा सका। इसके कुछ घंटों बाद बो (जहाज़ का आगे का हिस्सा) भी निकल गया और एवर गिवेन तैरने लायक स्थिति में आ गया यानी वो पूरी तरह से निकाल लिया गया।

फिर जहाज़ को खींचकर ग्रेट बिटर लेक ले जाया गया, जो जहाज़ के फंसने वाली जगह से उत्तर की तरफ नहर के दो हिस्सों के बीच स्थित है। यहां ले जाकर जहाज़ की सुरक्षा जांच की जाएगी।

इसके बाद क्या हुआ?

एक मरीन सोर्स ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स को सोमवार, 29 मार्च 2021
शाम को बताया कि जहाज़ दक्षिण की ओर लाल सागर की तरफ जा रहे हैं, वहीं नहर में सेवाएं देने वाली लेथ एजेंसीज़ ने कहा कि जहाज़ ग्रेट बिटर लेक से निकलना शुरू हो गए हैं।

कुछ जहाज़ क्षेत्र से पहले ही निकल चुके हैं। उन्होंने अफ्रीका के दक्षिणी सिरे के आसपास का एक वैकल्पिक, लंबा रास्ता लेने का फैसला किया।

इन कार्गों को पहुंचने में निश्चित रूप से ज़्यादा वक़्त लगेगा। जब वो बंदरगाह पर पहुंचेंगे तो हो सकता है वहां भी उन्हें जाम मिले। अगले कुछ दिनों में आने वाले जहाज़ों के शिड्यूल में भी गड़बड़ी हो सकती है।

बीबीसी बिज़नेस संवाददाता थियो लेगट की रिपोर्ट के मुताबिक़, इसकी वजह से यूरोप में जहाज़ से माल भेजने की लागत बढ़ सकती है।

शिपिंग समूह मर्स्क ने कहा, ''साफ़ तौर पर इसकी जांच होगी, क्योंकि इससे बड़ा असर हुआ है और मुझे लगता है कि इस बात पर कुछ वक़्त तक बहस होगी कि वहां असल में हुआ क्या था।''

मर्स्क ने कहा, ''हम क्या कर सकते हैं ताकि फिर कभी ऐसा ना हो? ये मिस्र के प्रशासन को देखना होगा कि जहाज़ हमेशा बिना किसी दिक्कत के नहर से निकलते रहें, क्योंकि ये उन्हीं के हित में है।''

बड़ी कामयाबी

स्वेज़ के बंदरगाह पर मौजूद बीबीसी अरबी संवाददाता सैली नबील

एवर गिवेन जहाज़ को निकाल लेना एक बड़ी कामयाबी समझा जा रहा है। कुछ विशेषज्ञों ने पहले चेताया था कि इस जहाज़ को निकालने में हफ़्तों लग सकते हैं। लेकिन ऊंची लहरों के साथ-साथ विशेषज्ञ उपकरणों ने बचाव अभियान में पूरी तरह मदद की।

अब प्रशासन को दूसरी चुनौती से निपटना होगा - जाम। स्वेज़ नहर प्राधिकरण के प्रमुख ने कहा कि जाम में फंसे सैकड़ों जहाज़ों में से पहले उन्हें निकलने दिया जाएगा जो पहले आएंगे। हालांकि जहाज़ों पर लदे माल को देखते हुए कुछ जहाज़ों को प्राथमिकता दी जा सकती है।

वैश्विक व्यापार पर जो असर पड़ा, उसने जाम को लेकर प्रशासन को बेहद दबाव में ला दिया। मिस्र के लिए ये नहर सिर्फ राष्ट्रीय गर्व का सवाल नहीं है, बल्कि इससे अर्थव्यवस्था को भी मज़बूती मिलती है।

कुछ दिन पहले मैंने स्वेज़ नहर प्राधिकरण के प्रमुख ओसामा रबी से पूछा था कि क्या वो इस बात को लेकर चिंतित हैं कि कुछ शिपिंग कंपनियां भविष्य में ऐसे बड़े जहाज़ों को इस नहर के रास्ते भेजने से बचेंगी। इसके जवाब में उन्होंने कहा कि स्वेज़ नहर का कोई विकल्प नहीं हैं, उनके मुताबिक़ ये रास्ता जल्दी पहुंचाता है और सुरक्षित है। तो यहां बात सिर्फ वक़्त की नहीं, बल्कि सुरक्षा की भी है।

अब जहाज़ का क्या होगा?

शिप का तकनीकी रखरखाव करने वाली कंपनी के मैनेजर्स के मुताबिक़, ग्रेट बिटर लेक में अब जहाज़ की पूरी जांच होगी।

मैनेजर्स ने बताया कि प्रदूषण या कार्गो को नुक़सान होने का पता नहीं चला है और शुरुआती जांच में सामने आया है कि जहाज़ के फंसने के पीछे कोई मैकेनिकल या इंजन के फेल होने का कारण नहीं था।

बताया गया है कि जहाज़ पर सवार भारतीय क्रू के सभी 25 सदस्य सुरक्षित हैं। मैनेजर्स का कहना है, ''उनकी कड़ी मेहनत और अथक प्रोफेशनलिज़म की तारीफ़ हो रही है।''

जहाज़ में लदे सामान में कई तरह की चीज़ें हैं और माना जा रहा है कि इस सामान की क़ीमत अरबों डॉलर है।