लेबनान की राजधानी बेरूत में राहतकर्मी अब भी धमाके के बाद मलबे में तब्दील इमारतों में बचे हुए लोगों की तलाश में जुटे हुए हैं। मंगलवार को हुए धमाके में अभी तक कम से कम 135 लोगों की मौत हो गई है और 5000 से ज़्यादा घायल हुए हैं।
लेबनान की राजधानी बेरूत के पोर्ट इलाक़े में स्थानीय समय के अनुसार शाम छह बजे शुरुआती धमाका हुआ। इसके बाद वहाँ आग लगी और छोटे छोटे अन्य धमाके भी हुए। कुछ प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक़ ऐसा लगा कि पटाख़े चल रहे हों।
सोशल मीडिया पर पोस्ट किए गए वीडियो में एक वेयरहाउस से धुआँ निकलता देखा गया। लेकिन इसके बाद जो हुआ, उससे कई लोग अब भी नहीं उबर पाए हैं। एकाएक भयानक विस्फोट, धुएँ का गुबार और जैसे पूरा शहर इसकी चपेट में आ गए। हवा में आग का गोला उठा। इसके साथ एक सुपरसोनिक और मशरूम आकार का एक शॉकवेव उठा, जो पूरे शहर में फैल गया।
दूसरे वाले भयानक विस्फोट के कारण पोर्ट इलाक़े की इमारतें पूरी तरह ध्वस्त हो गईं। साथ ही बेरूत के कई इलाक़ों में भयानक तबाही हुई। बेरूत की आबादी 20 लाख है। धमाके के बाद जल्द ही घायल अस्पताल पहुँचने लगे और धीरे-धीरे अस्पताल भरने लगे।
लेबनान में रेड क्रॉस के प्रमुख जॉर्ज केटानी ने बताया, ''जो हम देख रहे हैं, वो बड़ी तबाही है। हर जगह हताहत हैं।''
बेरूत के गवर्नर मारवन अबूद ने कहा कि क़रीब तीन लाख लोग अस्थायी रूप से बेघर हुए हैं। उनका आकलन था कि इस धमाके से 10-15 अरब डॉलर का कुल नुक़सान हुआ है।
जानकार अभी भी इसका पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन धमाके के बाद जिस तरह शॉकवेव उठा था और नौ किलोमीटर दूर बेरूत अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के पैसेंजर टर्मिनल में शीशे टूट गए, उससे इसकी तीव्रता का अंदाज़ा होता है।
बेरूत से 200 किलोमीटर दूर साइप्रस तक में धमाके की आवाज़ सुनाई पड़ी। अमरीका में जियोलॉजिकल सर्वे के भूगर्भ वैज्ञानिकों के मुताबिक़ ये धमाका 3.3 तीव्रता के भूकंप जैसा था।
लेबनान के राष्ट्रपति मिशेल आउन का कहना है कि पोर्ट इलाक़े के एक वेयरहाउस में 2750 टन अमोनियम नाइट्रेट असुरक्षित रूप से रखा हुआ था और धमाके की वजह यही अमोनियम नाइट्रेट है।
2013 में इतनी ही मात्रा में रसायन एक माल्डोवियन कार्गो शिप एमवी रोसूस से बेरूत पोर्ट पहुँचा था। जॉर्जिया से मोज़ाम्बिक़ जाते समय इस जहाज़ में कोई तकनीकी समस्या आ गई थी, जिस कारण इसे बेरूत पोर्ट में रुकना पड़ा था।
उस समय इस जहाज़ का निरीक्षण किया गया और इसे वहाँ से जाने से रोक दिया गया। इसके बाद इसके मालिकों ने इस जहाज़ को छोड़ दिया। इस इंडस्ट्री के एक न्यूज़लेटर Shiparrested.com ने ये जानकारी दी थी। इस जहाज़ के कार्गो को सुरक्षा कारणों से पोर्ट के एक गोदाम में शिफ़्ट कर दिया गया। हालाँकि कहा ये गया कि या तो इसका निपटारा करना चाहिए था या फिर बेच देना चाहिए था।
अमोनियम नाइट्रेट (NH4NO3) एक क्रिस्टल जैसा सफेद ठोस पदार्थ है, जिसे आम तौर पर खेती के लिए उर्वरक में नाइट्रोजन के स्रोत के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इसे ईंधन वाले तेल के साथ मिलाकर विस्फोटक भी तैयार किया जाता है, जिसका इस्तेमाल खनन और निर्माण उद्योगों में होता है। चरमपंथियों ने कई बार इसका इस्तेमाल बम बनाने में भी किया है।
जानकारों का कहना है कि अमोनियम नाइट्रेट को अगर ठीक से स्टोर किया जाए, तो ये सुरक्षित रहता है। लेकिन अगर बड़ी मात्रा में ये पदार्थ लंबे समय तक ऐसे ही ज़मीन पर पड़ा रहा, तो धीरे धीरे ख़राब होने लगता है।
लंदन के यूनिवर्सिटी कॉलेज में केमिस्ट्री के प्रोफ़ेसर आंद्रिया सेला कहती हैं कि असली समस्या ये है कि समय के साथ ये धीरे-धीरे नमी को सोखते रहता है और आख़िरकार एक बड़े चट्टान में बदल जाता है। इस कारण ये काफ़ी ख़तरनाक हो जाता है। अगर किसी भी तरह की आग वहाँ तक पहुँचती है, तो इससे होने वाली रासायनिक प्रतिक्रिया बहुत तीव्र होती है।
अमोनियम नाइट्रेट कई बड़े औद्योगिक हादसों से जुड़ा हुआ है। वर्ष 1947 में अमरीका के टेक्सस में 2000 टन रसायन ले जा रहे एक जहाज़ में धमाका हो गया था, जिसमें 581 लोग मारे गए थे।
राष्ट्रपति आउन ने इस धमाके की एक पारदर्शी जाँच का भरोसा दिलाया है।
बुधवार को उन्होंने कहा, ''हम जाँच कराने को लेकर प्रतिबद्ध हैं और जितना जल्द होगा, इस घटना के ईर्द-गिर्द की परिस्थितियों को सामने लाएँगे। इसके लिए जो भी ज़िम्मेदार होंगे और जिन्होंने इसकी अनदेखी की, उन्हें कड़ी सज़ा दी जाएगी।''
प्रधानमंत्री हसन दियाब ने धमाके के पीछे की परिस्थितियों को अस्वीकार्य बताया है।
पोर्ट के जनरल मैनेजर हसन कोरेटेम और लेबनीज़ कस्टम्स के डायरेक्टर जनरल बद्री दाहेर ने कहा है कि उन्होंने अमोनियम नाइट्रेट को स्टोर किए जाने के ख़तरे के प्रति कई बार आगाह किया था, लेकिन उसकी अनदेखी की गई।
दाहेर ने कहा - हमने कहा कि इसे फिर से निर्यात कर दिया जाए, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हम विशेषज्ञों और संबंधित लोगों पर ये छोड़ते हैं कि वे यह पता करें कि ऐसा क्यों हुआ?
इंटरनेट पर जारी दस्तावेज़ों से ऐसा लगता है कि कस्टम अधिकारियों ने वर्ष 2014 से 2017 के बीच न्यायपालिका को कम से कम छह बार चिट्ठियाँ लिखी थी, ताकि इस बारे में वो दिशा निर्देश दे।
लेबनान की सरकार ने पोर्ट पर स्टोर में रखे अमोनियम नाइट्रेट की निगरानी करने वाले अधिकारियों को जाँच पूरी होने तक घर में नज़रबंद करने का आदेश दिया है।
भारत में नई शिक्षा नीति-2020 को मोदी कैबिनेट की मंज़ूरी मिल गई है। भारत के केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक और केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने बुधवार को प्रेस वार्ता कर इसकी जानकारी दी।
इससे पहले 1986 में नई शिक्षा नीति लागू की गई थी। 1992 में इस नीति में कुछ संशोधन किए गए थे। यानी 34 साल बाद भारत में फिर से एक बार नई शिक्षा नीति लागू की जा रही है।
पूर्व इसरो प्रमुख के कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में विशेषज्ञों की एक समिति ने इसका मसौदा तैयार किया था, जिसे भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में कैबिनेट ने बुधवार को मंज़ूरी दी।
नई शिक्षा नीति में स्कूल शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक कई बड़े बदलाव किए गए हैं।
नई शिक्षा नीति-2020 की मुख्य बातें:
- नई शिक्षा नीति में पाँचवी क्लास तक मातृभाषा, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई का माध्यम रखने की बात कही गई है। इसे क्लास आठ या उससे आगे भी बढ़ाया जा सकता है। विदेशी भाषाओं की पढ़ाई सेकेंडरी लेवल से होगी। हालांकि नई शिक्षा नीति में यह भी कहा गया है कि किसी भी भाषा को थोपा नहीं जाएगा।
- साल 2030 तक स्कूली शिक्षा में 100% जीईआर (Gross Enrolment Ratio) के साथ माध्यमिक स्तर तक एजुकेशन फ़ॉर ऑल का लक्ष्य रखा गया है।
- अभी स्कूल से दूर रह रहे दो करोड़ बच्चों को दोबारा मुख्य धारा में लाया जाएगा। इसके लिए स्कूल के बुनियादी ढांचे का विकास और नवीन शिक्षा केंद्रों की स्थापना की जाएगी।
- स्कूल पाठ्यक्रम के 10 + 2 ढांचे की जगह 5 + 3 + 3 + 4 का नया पाठयक्रम संरचना लागू किया जाएगा जो क्रमशः 3-8, 8-11, 11-14, और 14-18 उम्र के बच्चों के लिए है। इसमें अब तक दूर रखे गए 3-6 साल के बच्चों को स्कूली पाठ्यक्रम के तहत लाने का प्रावधान है, जिसे विश्व स्तर पर बच्चे के मानसिक विकास के लिए महत्वपूर्ण चरण के रूप में मान्यता दी गई है।
- नई प्रणाली में प्री स्कूलिंग के साथ 12 साल की स्कूली शिक्षा और तीन साल की आंगनवाड़ी होगी। इसके तहत छात्रों की शुरुआती स्टेज की पढ़ाई के लिए तीन साल की प्री-प्राइमरी और पहली तथा दूसरी क्लास को रखा गया है। अगले स्टेज में तीसरी, चौथी और पाँचवी क्लास को रखा गया है। इसके बाद मिडिल स्कूल यानी 6-8 कक्षा में सब्जेक्ट का इंट्रोडक्शन कराया जाएगा। सभी छात्र केवल तीसरी, पाँचवी और आठवी कक्षा में परीक्षा देंगे। 10वीं और 12वीं की बोर्ड परीक्षा पहले की तरह जारी रहेगी। लेकिन बच्चों के समग्र विकास के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए इन्हें नया स्वरूप दिया जाएगा। एक नया राष्ट्रीय आकलन केंद्र 'परख' (समग्र विकास के लिए कार्य-प्रदर्शन आकलन, समीक्षा और ज्ञान का विश्लेषण) एक मानक-निर्धारक निकाय के रूप में स्थापित किया जाएगा।
- पढ़ने-लिखने और जोड़-घटाव (संख्यात्मक ज्ञान) की बुनियादी योग्यता पर ज़ोर दिया जाएगा। बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान की प्राप्ति को सही ढंग से सीखने के लिए अत्यंत ज़रूरी एवं पहली आवश्यकता मानते हुए 'एनईपी 2020' में मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा 'बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान पर एक राष्ट्रीय मिशन' की स्थापना किए जाने पर विशेष ज़ोर दिया गया है।
- एनसीईआरटी 8 वर्ष की आयु तक के बच्चों के लिए प्रारंभिक बचपन देखभाल और शिक्षा (एनसीईएफ़ईसीसीई) के लिए एक राष्ट्रीय पाठ्यक्रम और शैक्षणिक ढांचा विकसित करेगा।
- स्कूलों में शैक्षणिक धाराओं, पाठ्येतर गतिविधियों और व्यावसायिक शिक्षा के बीच ख़ास अंतर नहीं किया जाएगा।
- सामाजिक और आर्थिक नज़रिए से वंचित समूहों (SEDG) की शिक्षा पर विशेष ज़ोर दिया जाएगा।
- शिक्षकों के लिए राष्ट्रीय प्रोफ़ेशनल मानक (एनपीएसटी) राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद द्वारा वर्ष 2022 तक विकसित किया जाएगा, जिसके लिए एनसीईआरटी, एससीईआरटी, शिक्षकों और सभी स्तरों एवं क्षेत्रों के विशेषज्ञ संगठनों के साथ परामर्श किया जाएगा।
- मानव संसाधन विकास मंत्रालय का नाम बदल कर शिक्षा मंत्रालय कर दिया गया है। इसका मतलब है कि रमेश पोखरियाल निशंक अब देश के शिक्षा मंत्री कहलाएंगे।
- जीडीपी का छह फ़ीसद शिक्षा में लगाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है जो अभी 4.43 फ़ीसद है।
- नई शिक्षा का लक्ष्य 2030 तक 3-18 आयु वर्ग के प्रत्येक बच्चे को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करता है।
- छठी क्लास से वोकेशनल कोर्स शुरू किए जाएंगे। इसके लिए इच्छुक छात्रों को छठी क्लास के बाद से ही इंटर्नशिप करवाई जाएगी। इसके अलावा म्यूज़िक और आर्ट्स को बढ़ावा दिया जाएगा। इन्हें पाठयक्रम में लागू किया जाएगा।
- उच्च शिक्षा के लिए एक सिंगल रेगुलेटर रहेगा। लॉ और मेडिकल शिक्षा को छोड़कर समस्त उच्च शिक्षा के लिए एक एकल अति महत्वपूर्ण व्यापक निकाय के रूप में भारत उच्च शिक्षा आयोग (एचईसीआई) का गठन किया जाएगा।
- एचईसीआई के चार स्वतंत्र वर्टिकल होंगे- विनियमन के लिए राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा नियामकीय परिषद (एनएचईआरसी), मानक निर्धारण के लिए सामान्य शिक्षा परिषद (जीईसी), वित्त पोषण के लिए उच्चतर शिक्षा अनुदान परिषद (एचईजीसी) और प्रत्यायन के लिए राष्ट्रीय प्रत्यायन परिषद (एनएसी)।
- उच्च शिक्षा में 2035 तक 50 फ़ीसद GER (Gross Enrolment Ratio) पहुंचाने का लक्ष्य है। फ़िलहाल 2018 के आँकड़ों के अनुसार GER 26.3 प्रतिशत है। उच्च शिक्षा में 3.5 करोड़ नई सीटें जोड़ी जाएंगी।
- पहली बार मल्टीपल एंट्री और एग्ज़िट सिस्टम लागू किया गया है। आप इसे ऐसे समझ सकते हैं। आज की व्यवस्था में अगर चार साल इंजीनियरिंग पढ़ने या छह सेमेस्टर पढ़ने के बाद किसी कारणवश आगे नहीं पढ़ पाते हैं तो आपके पास कोई उपाय नहीं होता, लेकिन मल्टीपल एंट्री और एग्ज़िट सिस्टम में एक साल के बाद सर्टिफ़िकेट, दो साल के बाद डिप्लोमा और तीन-चार साल के बाद डिग्री मिल जाएगी। इससे उन छात्रों को बहुत फ़ायदा होगा जिनकी पढ़ाई बीच में किसी वजह से छूट जाती है।
- नई शिक्षा नीति में छात्रों को ये आज़ादी भी होगी कि अगर वो कोई कोर्स बीच में छोड़कर दूसरे कोर्स में दाख़िला लेना चाहें तो वो पहले कोर्स से एक ख़ास निश्चित समय तक ब्रेक ले सकते हैं और दूसरा कोर्स ज्वाइन कर सकते हैं।
- उच्च शिक्षा में कई बदलाव किए गए हैं। जो छात्र रिसर्च करना चाहते हैं उनके लिए चार साल का डिग्री प्रोग्राम होगा। जो लोग नौकरी में जाना चाहते हैं वो तीन साल का ही डिग्री प्रोग्राम करेंगे। लेकिन जो रिसर्च में जाना चाहते हैं वो एक साल के एमए (MA) के साथ चार साल के डिग्री प्रोग्राम के बाद सीधे पीएचडी (PhD) कर सकते हैं। उन्हें एमफ़िल (M.Phil) की ज़रूरत नहीं होगी।
- शोध करने के लिए और पूरी उच्च शिक्षा में एक मज़बूत अनुसंधान संस्कृति तथा अनुसंधान क्षमता को बढ़ावा देने के लिए एक शीर्ष निकाय के रूप में नेशनल रिसर्च फ़ाउंडेशन (एनआरएफ़) की स्थापना की जाएगी। एनआरएफ़ का मुख्य उद्देश्य विश्वविद्यालयों के माध्यम से शोध की संस्कृति को सक्षम बनाना होगा। एनआरएफ़ स्वतंत्र रूप से सरकार द्वारा, एक बोर्ड ऑफ़ गवर्नर्स द्वारा शासित होगा।
- उच्च शिक्षा संस्थानों को फ़ीस चार्ज करने के मामले में और पारदर्शिता लानी होगी।
- एससी, एसटी, ओबीसी और अन्य विशिष्ट श्रेणियों से जुड़े हुए छात्रों की योग्यता को प्रोत्साहित करने का प्रयास किया जाएगा। छात्रवृत्ति प्राप्त करने वाले छात्रों की प्रगति को समर्थन प्रदान करना, उसे बढ़ावा देना और उनकी प्रगति को ट्रैक करने के लिए राष्ट्रीय छात्रवृत्ति पोर्टल का विस्तार किया जाएगा। निजी उच्च शिक्षण संस्थानों को अपने यहां छात्रों को बड़ी संख्या में मुफ़्त शिक्षा और छात्रवृत्तियों की पेशकश करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा।
- ई-पाठ्यक्रम क्षेत्रीय भाषाओं में विकसित किए जाएंगे। वर्चुअल लैब विकसित की जा रही है और एक राष्ट्रीय शैक्षिक टेक्नोलॉजी फ़ोरम (NETF) बनाया जा रहा है।
- हाल ही में कोरोना महामारी और वैश्विक कोरोना महामारी में वृद्धि होने के परिणामस्वरूप ऑनलाइन शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए सिफ़ारिशों के एक व्यापक सेट को कवर किया गया है, जिससे जब कभी और जहां भी पारंपरिक और व्यक्तिगत शिक्षा प्राप्त करने का साधन उपलब्ध होना संभव नहीं हैं, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के वैकल्पिक साधनों की तैयारियों को सुनिश्चित करने के लिए, स्कूल और उच्च शिक्षा दोनों को ई-शिक्षा की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए एमएचआरडी में डिजिटल अवसंरचना, डिजिटल कंटेंट और क्षमता निर्माण के उद्देश्य से एक समर्पित इकाई बनाई जाएगी।
- सभी भारतीय भाषाओं के लिए संरक्षण, विकास और उन्हें और जीवंत बनाने के लिए नई शिक्षा नीति में पाली, फ़ारसी और प्राकृत भाषाओं के लिए एक इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ ट्रांसलेशन एंड इंटरप्रिटेशन (आईआईटीआई), राष्ट्रीय संस्थान की स्थापना करने, उच्च शिक्षण संस्थानों में संस्कृत और सभी भाषा विभागों को मज़बूत करने और ज़्यादा से ज़्यादा उच्च शिक्षण संस्थानों के कार्यक्रमों में, शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा/ स्थानीय भाषा का उपयोग करने की सिफ़ारिश की गई है।
तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने इस्तांबुल के ऐतिहासिक हागिया सोफ़िया म्यूज़ियम को दोबारा मस्जिद में बदलने के आदेश दे दिए हैं।
इससे पहले शुक्रवार को ही तुर्की की एक अदालत ने हागिया सोफ़िया म्यूज़ियम को मस्जिद में बदलने का रास्ता साफ़ कर दिया था। कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा था कि हागिया सोफ़िया अब म्यूज़ियम नहीं रहेगा और 1934 के कैबिनेट के फ़ैसले को रद्द कर दिया।
1500 साल पुरानी यूनेस्को की ये विश्व विरासत मूल रूप से मस्जिद बनने से पहले चर्च था और 1930 के दशक में म्यूज़ियम बना दिया गया था। तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने पिछले साल चुनाव में इसे फिर से मस्जिद बनाने का वादा किया था।
डेढ़ हज़ार साल पुराने चर्च को पहले मस्जिद, फिर म्यूज़ियम बनाया गया, अब फिर मस्जिद बनाने का फ़ैसला किया गया है।
तुर्की का हागिया सोफ़िया दुनिया के सबसे बड़े चर्चों में से एक रहा है। इसे छठी सदी में बाइज़ेंटाइन सम्राट जस्टिनियन के हुक्म से बनाया गया था।
यह संयुक्त राष्ट्र की सांस्कृतिक मामलों की संस्था यूनेस्को के विश्व धरोहरों की सूची में आता है। जब उस्मानिया सल्तनत ने 1453 में क़ुस्तुनतुनिया (जिसे बाद में इस्तांबुल का नाम दिया गया) शहर पर क़ब्ज़ा किया तो इस चर्च को मस्जिद बना दिया गया था।
इस्तांबूल में बने ग्रीक शैली के इस चर्च को स्थापत्य कला का अनूठा नमूना माना जाता है जिसने दुनिया भर में बड़ी इमारतों के डिज़ाइन पर अपनी छाप छोड़ी है।
पहले विश्व युद्ध में तुर्की की हार और फिर वहां उस्मानिया सल्तनत के ख़ात्मे के बाद मुस्तफ़ा कमाल पाशा का शासन आया। उन्हीं के शासन में 1934 में इस मस्जिद (मूल रूप से हागिया सोफ़िया चर्च) को म्यूज़ियम बनाने का फ़ैसला किया गया।
आधुनिक काल में तुर्की के इस्लामवादी राजनीतिक दल इसे मस्जिद बनाने की माँग लंबे समय से करते रहे हैं जबकि धर्मनिरपेक्ष पार्टियाँ पुराने चर्च को मस्जिद बनाने का विरोध करती रही हैं। इस मामले पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाएँ भी आई हैं जो धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष आधार पर बँटी हुई हैं।
ग्रीस ने इस फ़ैसले का विरोध किया है और कहा है कि यह चर्च ऑर्थोडॉक्स ईसाइयत को मानने वाले लाखों लाख लोगों की आस्था का केंद्र है। ग्रीस की सांस्कृतिक मामलों की मंत्री ने इसे 'धार्मिक भावनाएँ भड़काकर राजनीतिक लाभ लेने की राजनीति' क़रार दिया है।
यूनेस्को के उप-प्रमुख ने ग्रीक अख़बार को दिए गए एक इंटरव्यू में कहा है कि इस चर्च के भविष्य का फ़ैसला एक बड़े स्तर पर होना चाहिए जिसमें अंतरराष्ट्रीय बिरादरी की बात भी सुनी जानी चाहिए। संयुक्त राष्ट्र के इस प्रतिनिधि का कहना है कि तुर्की को इस बारे में एक पत्र लिखा गया था लेकिन उसने कोई जवाब नहीं दिया।
अमरीकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने कहा है कि इस इमारत की स्थिति में बदलाव ठीक नहीं होगा क्योंकि यह अलग-अलग धार्मिक आस्थाओं के बीच एक पुल का काम करता रहा है।
गुम्बदों वाली यह ऐतिहासिक इमारत इस्तांबूल में बॉस्फ़ोरस नदी के पश्चिमी किनारे पर है, बॉस्फ़ोरस वह नदी है जो एशिया और यूरोप की सीमा तय करती है, इस नदी के पूर्व की तरफ़ एशिया और पश्चिम की ओर यूरोप है।
सम्राट जस्टिनियन ने सन 532 में एक भव्य चर्च के निर्माण का आदेश दिया था, उन दिनों इस्तांबूल को कॉन्सटेनटिनोपोल या क़ुस्तुनतुनिया के नाम से जाना जाता था, यह बाइज़ेन्टाइन साम्राज्य की राजधानी थी जिसे पूरब का रोमन साम्राज्य भी कहा जाता था।
इस शानदार इमारत को बनाने के लिए दूर-दूर से निर्माण सामग्री और इंजीनियर लगाए गए थे।
यह तुर्की के सबसे लोकप्रिय पर्यटन स्थलों में से एक है।
यह चर्च पाँच साल में बनकर 537 में पूरा हुआ, यह ऑर्थोडॉक्स इसाइयत को मानने वालों का अहम केंद्र तो बन ही गया, बाइज़ेन्टाइन साम्राज्य की ताक़त का भी प्रतीक बन गया, राज्याभिषेक जैसे अहम समारोह इसी चर्च में होते रहे।
हागिया सोफ़िया जिसका मतलब है 'पवित्र विवेक', यह इमारत क़रीब 900 साल तक ईस्टर्न ऑर्थोडॉक्स चर्च का मुख्यालय रही।
लेकिन इसे लेकर विवाद सिर्फ़ मुसलमानों और ईसाइयों में ही नहीं है, 13वीं सदी में इसे यूरोपीय ईसाई हमलावरों ने बुरी तरह तबाह करके कुछ समय के लिए कैथोलिक चर्च बना दिया था।
1453 में इस्लाम को मानने वाले ऑटोमन साम्राज्य के सुल्तान मेहमद द्वितीय ने क़ुस्तुनतुनिया पर क़ब्ज़ा कर लिया, उसका नाम बदलकर इस्तांबूल कर दिया और इस तरह बाइज़ेन्टाइन साम्राज्य का ख़ात्मा हमेशा के लिए हो गया।
सुल्तान मेहमद ने आदेश दिया कि हागिया सोफ़िया की मरम्मत की जाए और उसे एक मस्जिद में तब्दील कर दिया जाए। इसमें पहले जुमे की नमाज़ में सुल्तान ख़ुद शामिल हुए। ऑटोमन साम्राज्य को सल्तनत-ए-उस्मानिया भी कहा जाता है।
इस्लामी वास्तुकारों ने ईसायत की ज़्यादातर निशानियों को तोड़ दिया या फिर उनके ऊपर प्लास्टर की परत चढ़ा दी। पहले यह सिर्फ़ एक गुंबद वाली इमारत थी लेकिन इस्लामी शैली की छह मीनारें भी इसके बाहर खड़ी कर दी गईं।
17वीं सदी में बनी तुर्की की मशहूर नीली मस्जिद सहित दुनिया की कई मशहूर इमारतों के डिज़ाइन की प्रेरणा हागिया सोफ़िया को ही बताया जाता है।
पहले विश्व युद्ध में ऑटोमन साम्राज्य को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा, साम्राज्य को विजेताओं ने कई टुकड़ों में बाँट दिया। मौजूदा तुर्की उसी ध्वस्त ऑटोमन साम्राज्य की नींव पर खड़ा है।
आधुनिक तुर्की के निर्माता कहे जाने वाले मुस्तफ़ा कमाल पाशा ने देश को धर्मनिरपेक्ष घोषित किया और इसी सिलसिले में हागिया सोफ़िया को मस्जिद से म्यूज़ियम में बदल दिया।
1935 में इसे आम जनता के लिए खोल दिया गया तब से यह दुनिया के प्रमुख पर्यटन स्थलों में एक रहा है।
हागिया सोफ़िया क़रीब डेढ़ हज़ार साल के इतिहास की वजह से तुर्की ही नहीं, उसके बाहर के लोगों के लिए भी बहुत अहमियत रखता है, ख़ास तौर पर ग्रीस के ईसाइयों और दुनिया भर के मुसलमानों के लिए।
तुर्की में 1934 में बने क़ानून के ख़िलाफ़ लगातार प्रदर्शन होते रहे हैं जिसके तहत हागिया सोफ़िया में नमाज़ पढ़ने या किसी अन्य धार्मिक आयोजन पर पाबंदी है।
तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोआन इन इस्लामी भावनाओं का समर्थन करते रहे हैं और हागिया सोफ़िया को म्यूज़ियम बनाने के फ़ैसले को ऐतिहासिक ग़लती बताते रहे हैं, वे लगातार कोशिशें करते रहे हैं कि इसे दोबारा मस्जिद बना दिया जाए। इसी का परिणाम है कि हागिया सोफ़िया म्यूज़ियम को फिर से मस्जिद में बदला गया।
भूटान के सकतेंग वन्यजीव अभयारण्य पर चीन के दावों का भूटान के द्वारा विरोध करने के कुछ दिन बाद ही चीन ने भूटान के पूर्वी सेक्टर को सीमा विवाद से जोड़ दिया है।
भूटान और चीन के बीच अब तक सीमा निर्धारित नहीं है और सीमा विवाद सुलझाने के लिए अब तक दोनों देशों के बीच 24 बार वार्ता हो चुकी है। इनमें कभी भी पूर्वी सेक्टर के मुद्दे को चीन ने नहीं उठाया था।
भूटान के साथ सीमा विवाद में चीन की ओर से नए इलाक़ों पर दावा करने को विश्लेषक भारत को निशाना बनाकर उठाए गए क़दम के तौर पर देखते हैं।
इस समय मुख्यतः दो देश हैं, एक भारत और दूसरा भूटान जिनके साथ चीन की सीमा निर्धारित नहीं हुई है और कई सालों से इसे लेकर विवाद है। भारत के साथ नियंत्रण रेखा पर चीन का तनाव जारी है जिसमें लद्दाख में हुए हिंसक संघर्ष में बीस भारतीय सैनिकों की मौत हाल ही में हुई है।
चीन का भूटान के साथ पश्चिमी सेक्टर और पूर्वी सेक्टर पर सीमा विवाद है। इस विवाद के समाधान के लिए भूटान और चीन के बीच में सुनियोजित ढंग से बातचीत चल रही है।
भूटान में भारत के पूर्व राजदूत पवन वर्मा ने कहा कि भूटान के साथ चीन का ताज़ा सीमा विवाद भारत के रणनीतिक हितों को प्रभावित करने की कोशिश हो सकती है।
पवन वर्मा ने कहा, ''मुझे लगता है कि ये भूटान पर दबाव बनाने का चीन का तरीक़ा है। चीन जानता हैं कि भूटान के साथ जहां उसकी सीमारेखा तय होगी, ख़ासतौर पर भूटान के पश्चिम की तरफ़, जहां चीन-भूटान और भारत के बीच में एक ट्राइ-जंक्शन (चिकेन नेक) बनता है, वहां किस जगह सीमा निर्धारित हो, उससे भारत के रणनीतिक हितों पर असर होगा।''
साल 2017 में भूटान के डोकलाम को लेकर चीन और भारत आमने सामने आए थे और दोनों देशों के बीच 75 दिनों तक सैन्य गतिरोध बना रहा था। तब भी चीन ने भूटान के डोकलाम को नियंत्रण में लेने की कोशिश की थी।
भूटान में भारत के पूर्व राजदूत इंद्र पाल खोसला ने कहा कि चीन इस समय विस्तारवादी मोड में है और हर ओर दावे कर रहा है।
बीबीसी बांग्ला सेवा से बात करते हुए इंद्र पाल खोसला ने कहा, ''मेरे नज़रिए में चीन विस्तारवादी मोड में है, चीन ने भूटान के ऐसे हिस्से पर दावा ठोका है जो अब तक दोनों देशों के बीच हुई वार्ता में नहीं उठाया गया था। सीमा विवाद को लेकर भूटान और चीन के बीच 24 बार बातचीत हुई है और इस इलाक़े पर कभी चर्चा नहीं हुई है। इन सालों के दौरान चीन ने कभी भी इस इलाक़े का मुद्दा नहीं उठाया।''
उन्होंने कहा, हाल ही में चीन ने रूस के व्लादिवोस्तोक पर दावा किया गया है, ऐसा लगता है कि चीन अब ऐसी दशा में है जब वो किसी समझौते या आपसी समझ या इतिहास में हुए समझौतों पर ध्यान नहीं दे रहा है। वो अब विस्तारवादी मोड में है।''
भूटान ने सकतेंग अभ्यारण्य पर चीन के दावे का विरोध करते हुए चीन को डीमार्श जारी किया है, आमतौर पर भूटान अपने सीमा विवादों को लेकर मुखर नहीं है और कम ही टिप्पणी करता है। ऐसे में भूटान के इस राजनीतिक क़दम की वजह क्या है?
ऑब्जर्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन यानी ओआरएफ़ से जुड़े विश्लेषक मिहिर भोंसले कहते हैं कि भूटान डर महसूस कर रहा है।
भोंसले ने कहा, ''जिस इलाक़े में भूटान समझता है कि वो सीमा विवाद चीन के साथ ख़त्म कर पाया है उसमें चीन ने विवाद खड़ा किया है। भूटान आमतौर पर सीमा विवादों पर बहुत बोलता नहीं हैं। भूटान के एक ओर चीन है और दूसरी ओर भारत है।''
''आमतौर पर भूटान शांत रहता है लेकिन चीन ने भूटान के अभ्यारण्य पर सवाल उठाया तो भूटान ने चीन को डीमार्श जारी किया है, जो एक नई बात है। आमतौर पर भूटान सीमा विवादों पर टिप्पणी नहीं करता है। भूटान ने डीमार्श जारी किया है जिसका सीधा मतलब है कि भूटान ख़तरा महसूस कर रहा है।''
मिहिर भोंसले का मानना है कि भूटान के साथ सीमा विवाद को हवा देने का मक़सद भारत को परेशान करना भी हो सकता है।
उन्होंने कहा, ''भारत के पड़ोस में भूटान एकमात्र ऐसा देश है जो हमेशा भारत के साथ रहा है, जबकि चीन के साथ भूटान के राजनयिक रिश्ते भी नहीं है। चीन को लगता है कि भूटान को परेशान करके वह भारत को तनाव दे सकता है।''
''डोकलाम में भी हमने देखा कि भूटान की ज़मीन पर चीन ने दावा किया था जिसके बाद भारत के साथ तनाव बढ़ गया था। ऐसा लगता है कि चीन भूटान का हाथ मरोड़कर भारत को दर्द देना चाहता है।''
2017 में जब चीन ने भूटान की ओर क़दम बढ़ाया था तो भारतीय सेना बीच में आ गई थी। भारत और चीन के बीच डोकलाम में 75 दिनों तक सैन्य तनाव रहा था। क्या ताज़ा विवाद उस स्थिति तक पहुंच सकता है?
पवन वर्मा ने कहा, ''ये संभव है कि ये विवाद डोकलाम जैसी स्थिति तक पहुंच जाए, लेकिन ज़रूरी नहीं कि ऐसा हो ही। भारत और भूटान के बीच बेहद क़रीबी रिश्ते हैं। चीन के साथ भूटान के राजनयिक रिश्ते भी नहीं है।''
''चीन की ये कोशिश होगी कि भूटान पर दबाव डालकर अपने नक़्शे क़दम पर चलाए और भारत पर दबाव बनाए। लेकिन मुझे लगता नहीं कि ऐसा होगा। लेकिन अगर भूटान पर और दबाव बढ़ेगा तो भारत को भूटान के साथ खड़ा होना होगा।''
मिहिर भोंसले ने कहा, ''यदि भूटान के साथ चीन का सीमा विवाद और बढ़ा तो एक बार फिर डोकलाम जैसा स्टेंड ऑफ़ हो सकता है। डोकलाम भारत, चीन और भूटान के बीच एक ट्राइ जंक्शन हैं, उसके अलावा सकतेंग अभ्यारण्य अरुणाचल सीमा के बहुत क़रीब है, वहां भी एक ट्राइ जंक्शन एरिया बन सकता है। यहां भविष्य में तनाव और बढ़ सकता है।''
पवन वर्मा का मानना है कि भारत के साथ सीमा विवाद में उलझा चीन भारत के पड़ोसी देशों का इस्तेमाल भारत पर दबाव बनाने के लिए कर रहा है। ये चीन की एक जानी मानी रणनीति है।
वहीं मिहिर भोंसले का मानना है कि भूटान पर दबाव बनाना चीन का रणनीतिक फ़ैसला हो सकता है। अभी जो भूटान के साथ विवाद है वो कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी। भूटान सकतेंग अभ्यारण्य में ग्लोबल एन्वायरंमेंट फ़ंड का इस्तेमाल करना चाहता था जिसका चीन ने विरोध कर दिया। इससे संकेत मिलता है कि चीन भारत के ख़िलाफ़ हर संभव मोर्चे पर प्रयास कर रहा है।
यह सदियों से अलग-अलग विचारधाराओं से सम्मानित एक प्राचीन स्मारक है।
तुर्की में हागिया सोफिया - दुनिया की सबसे अधिक प्रतियोगिता वाली इमारतों में से एक - एक बार फिर विवाद पैदा कर रही है।
यह पूर्वी रोमन साम्राज्य में एक हजार वर्षों के लिए सबसे बड़ा ईसाई गिरजाघर था।
अब, इस्तांबुल में सबसे व्यस्त पर्यटक आकर्षणों में से एक संग्रहालय है।
लेकिन ज्यादा समय के लिए नहीं, अगर तुर्की की सरकार इसे वापस मस्जिद में बदलने के लिए आगे बढ़ती है, जैसा कि ओटोमन साम्राज्य के दौरान था।
प्रस्ताव का विरोध कुछ धर्मनिरपेक्ष समूहों के साथ-साथ पूर्वी रूढ़िवादी चर्च, ग्रीक सरकार और संयुक्त राज्य के प्रमुख ने भी किया।
तुर्की की सर्वोच्च सलाहकार संस्था ने गुरुवार को मुलाकात की और कहा कि वह पंद्रह दिनों के भीतर अपने शासन की घोषणा करेगी।
पर अब क्यों?
यह किस उद्देश्य की पूर्ति करेगा?
और फैसला कितना राजनीतिक है?
प्रस्तुतकर्ता: लौरा काइल
मेहमान;
यूसुफ अलबरदा - इस्तांबुल में हैलिक विश्वविद्यालय में प्रोफेसर और राजनीतिक लेखक
यांनिस कोटसोमिटिस - प्रबंध संपादक, काप्पा न्यूज़ में ग्रीस और यूरोपीय मामलों के विशेषज्ञ
केंगिज़ तोमर - कजाकिस्तान में अहमत यासावी विश्वविद्यालय के अध्यक्ष और इतिहास के प्रोफेसर
इस्लामिक देशों के संगठन ऑर्गनाइज़ेशन ऑफ़ इस्लामिक कॉपरेशन (ओआईसी) के कॉन्टैक्ट ग्रुप के विदेश मंत्रियों की आपातकालीन बैठक में कहा गया है कि भारत सरकार की ओर से 5 अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर को लेकर जो फ़ैसला लिया गया है और नए डोमिसाइल नियम लागू किए गए हैं, वो संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव और अंतरराष्ट्रीय क़ानून जिसमें चौथा जिनेवा कंवेंशन भी शामिल है, उसका उल्लंघन है। साथ ही संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव को मानने की भारत की प्रतिबद्धता का भी उल्लंघन है।
इसके साथ ही बैठक में संयुक्त राष्ट्र की उन दो रिपोर्टों का स्वागत किया गया है जिसमें यह गया है कि भारत प्रशासित जम्मू-कश्मीर में वहां के लोगों के मानवाधिकार का व्यवस्थित तरीक़े से हनन किया गया है।
ये दोनों ही रिपोर्ट जून 2018 और जुलाई 2019 में आई थीं।
बैठक में 5 अगस्त, 2019 के बाद भारत प्रशासित जम्मू-कश्मीर में बदतर हुए मानवाधिकार की स्थिति और हालात पर चिंता ज़ाहिर की गई।
ओआईसी का यह कॉन्टैक्ट ग्रुप जम्मू-कश्मीर के लिए 1994 में बना था।
इस कॉन्टैक्ट ग्रुप के सदस्य हैं- अज़रबैजान, नीज़ेर, पाकिस्तान, सऊदी अरब और तुर्की।
ओआईसी के महासचिव डॉक्टर यूसुफ़ अल-ओथइमीन ने कहा, ''ओआईसी इस्लामी समिट, विदेश मंत्रियों की कौंसिल और अंतरराष्ट्रीय क़ानून के हिसाब से जम्मू-कश्मीर के मुद्दे का शांतिपूर्ण समाधान निकालने को लेकर प्रतिबद्ध है।''
बैठक में संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद की 16 अगस्त, 2019 और 15 जनवरी, 2020 की बैठक जो भारत की कार्रवाई को लेकर हुई थी, उसका स्वागत किया गया है।
ओआईसी ने जम्मू-कश्मीर पर अपने पुरानी स्थिति और प्रस्तावना को लेकर प्रतिबद्धता ज़ाहिर की है और कश्मीरी अवाम के आत्मनिर्णय के अधिकार की क़ानूनी लड़ाई के समर्थन को फिर से दोहराया है।
ओआईसी ने भारत से ये पाच माँग की है-
- एकतरफ़ा और ग़ैर-क़ानूनी कार्रवाई रद्द करे और कश्मीरी अवाम को स्वेच्छापूर्ण तरीक़े से उनके आत्मनिर्णय के अधिकार का संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में जनमत-संग्रह के तहत पालन करने दे।
- मानवाधिकार हनन को रोका जाए। फ़ौज के ग़लत इस्तेमाल पर रोक लगाई जाए जिसके तहत फ़ौज पैलेट-गन का इस्तेमाल करती है। फ़ौज की अभेद घेराबंदी और अमानवीय लॉकडाउन को हटाया जाए। कठोर आपातकालीन क़ानून को भंग किया जाए। मौलिक स्वतंत्रता के अधिकार को बहाल किया जाए और ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से हिरासत में लिए गए सभी लोगों को छोड़ा जाए।
- भारत प्रशासित जम्मू-कश्मीर की आबादी में किसी भी प्रकार की संरचनात्मक बदलाव को रोका जाए क्योंकि ये ग़ैर-क़ानूनी हैं और अंतरराष्ट्रीय क़ानून का उल्लंघन है, ख़ासतौर पर चौथे जिनेवा कंवेंशन का।
- ओआईसी, आईपीएचआरसी और संयुक्त राष्ट्र फ़ैक्ट फाइंडिंग मिशन, ओआईसी महासचिव के जम्मू-कश्मीर के लिए विशेष दूत और अंतरराष्ट्रीय मीडिया को भारत प्रशासित जम्मू-कश्मीर बिना रोकटोक के मानवाधिकार की उल्लंघन की जाँच-पड़ताल की इजाज़त हो।
-ओएचसीएचआर की रिपोर्ट में कश्मीर में हो रहे मानवाधिकारों के हनन को लेकर स्वतंत्र अंतरराष्ट्रीय जाँच बिठाने की माँग पर सहमति जताया जाए।
जम्मू-कश्मीर का भारत ने पिछले साल विशेष दर्जा ख़त्म किया तो पाकिस्तान का ओआईसी पर दबाव था कि वो भारत के ख़िलाफ़ कुछ कड़ा बयान जारी करे।
हालाँकि उस वक़्त ऐसा हुआ नहीं और ओआईसी लगभग तटस्थ रहा। दरअसल, ओआईसी को सऊदी अरब के प्रभुत्व वाला संगठन माना जाता है। बिना सऊदी अरब के समर्थन के ओआईसी में कुछ भी कराना असंभव सा माना जाता है।
भारत और सऊदी के व्यापक साझे हित हैं और सऊदी अरब कश्मीर को लेकर भारत के ख़िलाफ़ बोलने से बचता रहा है। अनुच्छेद 370 हटाने पर भी सऊदी अरब ने कोई बयान नहीं जारी किया था।
संयुक्त अरब अमीरात ने कहा था कि यह भारत का आंतरिक मुद्दा है। सऊदी अरब और यूएई के इस रुख़ को पाकिस्तान के लिए झटका माना जा रहा था और भारत की कूटनीतिक कामयाबी। लेकिन एक बार फिर ओआईसी में इस तरह की बैठक होना पाकिस्तान इसे अपनी कामयाबी से जोड़कर देखेगा। इससे पहले पिछले साल सितंबर में ऐसी बैठक हुई थी।
कश्मीर पर ओआईसी की तटस्थता को लेकर पाकिस्तान ने तुर्की, मलेशिया, ईरान के साथ गोलबंद होने की कोशिश की थी। इसके लिए तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन, ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी, मलेशिया के तत्कालीन प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद और पाकिस्तान के पीएम इमरान ख़ान ने कुआलालंपुर समिट में एकजुट होने की योजना बनाई थी लेकिन सऊदी अरब ने इसे ओआईसी को चुनौती के तौर पर लिया था और पाकिस्तान को इस मुहिम में शामिल होने से रोक दिया था।
तुर्की और मलेशिया कश्मीर पर पाकिस्तान के साथ खड़े दिखे जबकि बाक़ी के इस्लामिक देश तटस्थ रहे थे। हाल के दिनों में मालदीव ने भी ओआईसी में भारत का साथ दिया है।
ओआईसी की बैठक उस वक्त हो रही है जब भारत और दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था चीन के बीच तनाव है। सरहद पर भारत के 20 सैनिकों की मौत हुई है। नेपाल के साथ भी सीमा पर विवाद चल रहा है और पाकिस्तान के साथ तनाव तो पहले से ही है। ऐसे में ओआईसी की बैठक काफ़ी अहम मानी जा रही है।
ईरान, मलेशिया और तुर्की की लंबे समय से शिकायत रही है कि ओआईसी इस्लामिक देशों की ज़रूरतों और महत्वकांक्षा को जगह देने में नाकाम रहा है। ईरान, तुर्की और मलेशिया की कोशिश रही है कि कोई ऐसा संगठन बने जो सऊदी के प्रभुत्व से मुक्त हो।
जम्मू कश्मीर पर ओआईसी के इस कॉन्टैक्ट ग्रुप में सऊदी अरब भी है। अगर सऊदी बैठक नहीं चाहता तो शायद ही यह हो पाती। कहा जाता है कि सऊदी अरब के बिना ओआईसी में एक पत्ता भी नहीं हिलता है।
पाकिस्तान के भीतर इस बात की आलोचना होती रही है कि सऊदी और यूएई इस्लामिक देश हैं लेकिन वो कश्मीर के मसले पर भारत के साथ हैं।
अगर इस बैठक से कोई प्रस्ताव पास किया जाता है तो सऊदी से ही भारत उम्मीद कर सकता है कि वो उस प्रस्ताव की भाषा को किस हद तक संतुलित करवा पाता है।
कोरोना संक्रमण के मामले में भारत दुनिया में अब चौथे नंबर पर पहुँच गया है। अमरीका, ब्राज़ील और रूस ही केवल भारत से आगे हैं।
इसी बीच 16 और 17 जून को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक बार फिर राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक करने वाले हैं।
1 जून से पूरे भारत में अलग-अलग तरह से अनलॉक-1 लागू किया गया। अनलॉक-1 में धार्मिक स्थलों, रेस्तरां और मॉल्स को खोलने की इजाज़त दी गई।
उसके बाद की स्थिति का जायज़ा लेने के लिए प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के बीच की ये पहली बैठक है।
भारत में कोरोना के बढ़ते मामलों और हर रोज़ बढ़ते मौत के आँकड़ों के बीच इस बैठक को बेहद अहम माना जा रहा है।
खास तौर पर तब जब दिल्ली के लिए 12 एक्सपर्ट की टीम भारत की केंद्र सरकार ने बनाई है।
सबसे बड़ा सवाल कि क्या लॉकडाउन से जो कुछ हासिल हुआ, क्या अनलॉक-1 में उसे खो दिया?
31 मई को भारत में कोरोना के कुल 1 लाख 82 हज़ार मामले थे।
जबकि 15 जून को 3 लाख 32 हज़ार मामले हैं। यानी दोगुने से थोड़ा कम।
दिल्ली और मुंबई में अनलॉक-1 का सबसे बुरा ज़्यादा असर पड़ा है।
31 मई को दिल्ली में जहाँ 18549 मामले थे, वहीं 15 जून को ये आँकड़ा 41 हज़ार से ज्यादा है।
महाराष्ट्र में 31 मई को 65159 मामले थे, जो 15 जून को बढ़ कर 1 लाख 8 हज़ार के पास पहुँच गया है।
उपरोक्त तथ्यों से प्रमाणित होता है कि अनलॉक-1 के बाद भारत में कोरोना के बढ़ने की रफ़्तार में तेज़ी आई है।
भारत में कोरोना का पहला मामला 30 जनवरी को मिला था। 24 मार्च को जब मोदी ने लॉकडाउन की घोषणा की थी तब भारत में केवल 550 पॉज़िटिव मामले ही थे।
इसलिए रोज़ जिस रफ़्तार से मामले बढ़ रहे हैं, उससे लोगों में चिंता बढ़ती जा रही है।
यही हाल मौत के आँकड़ों का भी है। भारत में 15 जून तक कोरोना से मरने वालों की संख्या 9520 है, जो 31 मई तक भारत में 5164 थी यानी तीन महीने में भारत में जितने लोगों की मौत नहीं हुई, तक़रीबन उतने ही लोगों की मौत जून के पहले 15 दिनों में हो गई।
दिल्ली की बात करें, तो 31 मई तक मरने वालों की संख्या 416 थी, जो अब 1327 हो गई है। यानी तक़रीबन तीन गुना।
महाराष्ट्र में 31 मई तक 2197 मौत हुई थी। जो 15 जून तक 3950 है। यानी तक़रीबन दोगुना हो गया है मौत का आँकड़ा।
लेकिन भारत के लिए एक अच्छी बात ये है कि दुनिया में मौत के आँकड़ों में भारत टॉप पाँच देशों में नहीं हैं। वो पाँच देश जहां कोरोना के कारण मौतों की संख्या सबसे अधिक है वो हैं अमरीका, ब्राज़ील, ब्रिटेन, इटली और फ्रांस।
31 मई को भारत में तक़रीबन 1 लाख 25 हज़ार लोगों के टेस्ट हुए थे। जबकि 14 जून को भारत में कुल 1 लाख 15 हज़ार लोगों के कोरोना टेस्ट हुए।
वैसे हर दिन के हिसाब से ये आँकड़े ज़रूर बदलते रहते हैं। लेकिन ऐसा नहीं कि पिछले 15 दिनों में कोरोना टेस्ट की संख्या में बहुत ज़्यादा इज़ाफ़ा हुआ हो। आज भी भारत में एक दिन में सवा लाख से डेढ़ लाख लोगों के ही टेस्ट हो रहे हैं।
दिल्ली में पिछले कुछ दिनों में ये संख्या थोड़ी कम ही हुई है। दिल्ली सरकार ने जून के शुरुआती हफ्ते में कुछ टेस्टिंग लैब्स पर कार्रवाई की थी। जिसकी वजह से टेस्ट कम होने लगे थे।
दिल्ली में पिछले तीन दिनों से रोज़ कोरोना के 2000 से ज़्यादा मामले सामने आ रहे हैं। महाराष्ट्र का हाल भी इससे ज़्यादा अलग नहीं है।
31 मई तक भारत में 37 लाख 37 हज़ार टेस्ट हुए थे। वहीं 14 जून तक भारत में 57 लाख 74 हज़ार टेस्ट हो चुके हैं। यहाँ 15 दिन में लगभग 20 लाख टेस्ट हुए है।
मई के अंत तक भारत में रिकवरी रेट 47.76 फ़ीसदी बताई जा रही थी। कोरोना संक्रमित मरीज़ों के ठीक होने की दर 51 फ़ीसदी हो गई है। अनलॉक-1 में सरकार इसे एक पॉज़िटिव साइन के तौर पर देख रही है।
लेकिन दिल्ली और मुंबई में ये राष्ट्रीय औसत से कम हैं। दिल्ली में इस वक़्त रिकवरी रेट 38 फ़ीसदी के आसपास है, और मुंबई की रिकवरी रेट 45 फ़ीसदी से ज्यादा है।
लेकिन विश्व स्तर पर भारत रिकवरी रेट में सबसे आगे नहीं है। जर्मनी का रिकवरी रेट तक़रीबन 90 फ़ीसदी से ऊपर है, जो दुनिया में सबसे बेहतर है।
ईरान और इटली का उसके बाद नंबर आता है। इन दोनों देशों में रिकवरी रेट 70 से ऊपर है। भारत में इस वक़्त रिकवरी रेट रूस के बराबर है जहाँ रिकवरी रेट 50 फ़ीसदी के आसपास है।
भारत के जाने माने डॉक्टर मोहसिन वली मानते हैं कि इन आँकड़ों के आधार पर ये कहा जा रहा है कि देश ने लॉकडाउन करके जो कुछ हासिल किया उन सब को बर्बाद कर दिया है।
उनके मुताबिक़ आँकड़े बता रहे हैं कि लोगों ने अनलॉक की छूट का ख़ूब फ़ायदा उठाया और सोशल डिस्टेंसिंग, मास्क पहनना और हाथ धोना भूल गए।
प्रवासी मज़दूरों की आवाजाही ने कोरोना वायरस संक्रमण को बढ़ाया। ये पूछे जाने पर कि प्रवासी मज़दूर तो मई में ज़्यादा एक जगह से दूसरे जगह गए, डॉक्टर वली का कहना है कि उसका असर देश के कोरोना ग्राफ़ पर जून में ही दिखाई दे रहा है।
लेकिन डॉक्टर वली अब भी नहीं मानते कि अनलॉक-1 को हटा कर दोबारा लॉकडाउन लगाना चाहिए। उनके मुताबिक़ कोरोना के साथ जीना है, तो ऐसे में ही घर बैठना उपाय नहीं है। हमें सब काम जारी रखना है लेकिन एहतियात बरतते हुए।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी कहा है कि दिल्ली में फिर लॉकडाउन की कोई योजना नहीं है।
यही बात दिल्ली के व्यापारी संघ के लोग भी कह रहे हैं। दिल्ली के व्यापारियों ने निर्णय लिया कि दिल्ली के बाज़ार फ़िलहाल खुले रहेंगे।
बाज़ारों को बंद रखने, खुला रखने या बाज़ारों में ऑड-ईवन व्यवस्था अथवा एक दिन छोड़कर एक दिन दुकान खोलने का निर्णय दिल्ली के व्यापारी संगठन स्थिति का आकलन करते हुए स्वयं निर्णय लेंगें।
पिछले दिनों भारत के तमाम धार्मिक स्थलों को खोलने की इजाज़त के बाद भी दिल्ली स्थित जामा मस्जिद 30 जून तक के लिए बंद कर दिया गया है।
अब नज़रें 16-17 जून को भारतीय प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों की बैठक पर टिकी है। भारत के बढ़ते कोरोना ग्राफ़ को देखते हुए भारत के प्रधानमंत्री क्या निर्णय लेते हैं?
कोरोना वायरस तुर्की में देर से आया। यहां संक्रमण का पहला मामला 19 मार्च को दर्ज किया गया था। लेकिन जल्द ही यह तुर्की के हर कोने में फैल गया। महीने भर के भीतर ही तुर्की के सभी 81 प्रांतों में कोरोना वायरस फैल चुका था।
तुर्की में दुनिया में सबसे तेज़ी से कोरोना संक्रमण फैल रहा था। हालात चीन और ब्रिटेन से भी ज़्यादा ख़राब थे। आशंकाएं थी कि बड़े पैमानों पर मौतें होंगी और तुर्की इटली को भी पीछे छोड़ देगा। उस समय इटली सबसे ज़्यादा प्रभावित देश था।
तीन महीने गुज़र गए हैं, लेकिन ऐसा नहीं है, वो भी तब जब तुर्की ने पूर्ण लॉकडाउन लागू ही नहीं किया।
तुर्की में आधिकारिक तौर पर 4397 लोगों की कोरोना संक्रमण से मौत की पुष्टि की गई है। दावे किए जा रहे हैं कि वास्तविक संख्या इसके दो गुना तक हो सकती है क्योंकि तुर्की में सिर्फ़ उन लोगों को ही मौत के आंकड़ों में शामिल किया गया है जिनकी टेस्ट रिपोर्ट पॉज़िटिव थीं।
लेकिन अगर दूसरे देशों की तुलना में देखा जाए तो सवा आठ करोड़ की आबादी वाले इस देश के लिए ये संख्या कम ही है।
विशेषज्ञ चेताते हैं कि कोरोना संक्रमण को लेकर किसी नतीजे पर पहुंचना या दो देशों के आंकड़ों की तुलना करना मुश्किल है, वो भी तब जब कई देशों में मौतें जारी हैं।
लेकिन यूनिवर्सिटी आफ़ केंट में वायरलॉजी के लेक्चरर डॉ. जेरेमी रॉसमैन के मुताबिक़ 'तुर्की ने बर्बादी को टाल दिया है।'
उन्होंने बीबीसी से कहा, ''तुर्की उन देशों में शामिल है जिसने बहुत जल्द प्रतिक्रिया दी। ख़ासकर टेस्ट करने, पहचान करने, अलग करने और आवागमन को रोकने के मामले में। तुर्की उन चुनिंदा देशों में शामिल है जो वायरस की गति को प्रभावी तरीक़े से कम करने में कामयाब रहे हैं।''
जब वायरस की रफ़्तार बढ़ रही थी, अधिकारियों ने रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए। कॉफ़ी हाउस जाने पर रोक लग गई, शापिंग बंद हो गई, मस्जिदों में सामूहिक नमाज़ रोक दी गई।
पैंसठ साल से ऊपर और बीस साल से कम उम्र के लोगों को पूरी तरह लॉकडाउन में बंद कर दिया गया। सप्ताहांत में कर्फ्यू लगाए गए और मुख्य शहरों को सील कर दिया गया।
इस्तांबुल तुर्की में महामारी का केंद्र था। इस शहर ने अपनी रफ़्तार खो दी, जैसे कोई दिल धड़कना बंद कर दे।
अब प्रतिबंधों में धीरे-धीरे ढील दी जा रही है, लेकिन डॉ. मेले नूर असलान अभी भी चौकन्नी रहती हैं। वो फ़तीह ज़िले की स्वास्थ्य सेवाओं की निदेशक हैं। ये इस्तांबुल के केंद्र में एक भीड़भाड़ वाला इलाक़ा है। ऊर्जावान और बातूनी डॉ. असलान कांटेक्ट ट्रेसिंग अभियान का नेतृत्व कर रही हैं। पूरे तुर्की में कांटेक्ट ट्रेसिंग अभियान की छह हज़ार टीमें हैं।
वो बताती हैं, ऐसा लगता है जैसे हम युद्धक्षेत्र में हों। मेरी टीम के लोग घर जाना ही भूल जाते हैं, आठ घंटे के बाद भी वो काम करते रहते हैं। वो घर जाने की परवाह नहीं करते क्योंकि वो जानते हैं कि वो अपनी ड्यूटी निभा रहे हैं।
डॉ. मेले नूर असलान कहती हैं कि उन्होंने मार्च 11, यानी पहले दिन से ही वायरस को ट्रैक करना शुरू कर दिया था, इसमें ख़सरे की बीमारी को ट्रैक करने का उनका अनुभव काम आया।
वो कहती हैं, ''हमारी योजना तैयार थी। हमने सिर्फ़ अलमारी से अपनी फ़ाइलें निकालीं और हम काम पर लग गए।''
फ़तीह की तंग गलियों में हम दो डॉक्टरों के साथ हो लिए। पीपीई किटें पहने ये डॉक्टर एक एप का इस्तेमाल कर रहे थे। वो एक अपार्टमेंट में एक फ्लैट में गए जहां दो युवतियां क्वारंटीन में थीं। उनका दोस्त कोविड पॉज़िटिव है।
अपार्टमेंट के गलियारे में ही दोनों महिलाओं के कोविड के लिए परीक्षण किए गए, उन्हें रिपोर्ट चौबीस घंटों के भीतर मिल जाएगी। एक दिन पहले उन्हें हल्के लक्षण दिखने शुरु हुए हैं। 29 वर्षीया मज़ली देमीरअल्प शुक्रगुज़ार हैं कि उन्हें तुरंत रेस्पांस मिला है।
वो कहती हैं, ''हम विदेशों की ख़बरें सुनते हैं। शुरू में जब हमें वायरस के बारे में पता चला तो हम बेहद डर गए थे लेकिन जितना हमने सोचा था तुर्की ने उससे तेज़ काम किया। यूरोप या अमरीका के मुक़ाबले बहुत तेज़ काम किया।''
तुर्की में विश्व स्वास्थ्य संगठन के कार्यकारी प्रमुख डॉ. इरशाद शेख कहते हैं कि तुर्की के पास सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर दुनिया के लिए कई सबक़ हैं।
उन्होंने बीबीसी से कहा, ''शुरुआत में हम चिंतित थे। रोज़ाना साढ़े तीन हज़ार तक नए मामले आ रहे थे। लेकिन टेस्टिंग ने बहुत काम किया। और नतीजों के लिए लोगों को पांच-छह दिनों का इंतेज़ार नहीं करना पड़ा।''
उन्होंने तुर्की की कामयाबी का श्रेय कांटेक्ट ट्रेसिंग, क्वारंटीन और तुर्की की अलग-थलग करने की नीति को भी दिया।
तुर्की में मरीज़ों को हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन भी दी गई। अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने इसकी जमकर तारीफ़ की थी लेकिन अंतरराष्ट्रीय शोध ने इस दवा को खारिज कर दिया है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोरोना के इलाज के तौर पर इस दवा का ट्रायल रोक दिया है। मेडिकल जर्नल लेंसेट में प्रकाशित एक शोध पत्र में दावा किया गया है कि इस दवा से कोविड-19 के मरीज़ों में कार्डिएक अरेस्ट का ख़तरा बढ़ जाता है और इससे फ़ायदे से ज़्यादा नुकसान हो सकता है।
हमें उन अस्पतालों में जाने की अनुमति दी गई जहां हज़ारों लोगों को दवा के रूप में हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन दी गई है। दो साल पहले बना डॉ. सेहित इल्हान वारांक अस्पताल कोविड के ख़िलाफ़ लड़ाई का केंद्र बना हुआ है।
यहां की चीफ़ डॉक्टर नुरेत्तिन यीयीत कहते हैं कि शुरू में ही हाड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन इस्तेमाल करना अहम है। डॉ यीयीत के बनाए चित्र इस नए चमकदार अस्पताल की दीवारों पर लगे हैं।
वो कहती हैं, ''दूसरे देशों ने इस दवा का इस्तेमाल देरी से शुरू किया है, ख़ासकर अमरीका ने, हम इसका इस्तेमाल सिर्फ़ शुरुआती दिनों में करते हैं, हमें इस दवा को लेकर कोई झिझक नहीं है। हमें लगता है कि ये प्रभावशाली है क्योंकि हमें नतीजे मिल रहे हैं।''
अस्पताल का दौरा कराते हुए डॉ, यीयीत कहते हैं कि तुर्की ने वायरस से आगे रहने की कोशिश की है। हमने शुरू में ही इलाज किया है और आक्रामक रवैया अपनाया है।
यहां डॉक्टर हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन के अलावा दूसरी दवाओं, प्लाज़्मा और बड़ी मात्रा में ऑक्सीजन का इस्तेमाल करते हैं।
डॉ. यीयीत को गर्व है कि उनके अस्पताल में कोविड से मरने वालों की दर एक प्रतिशत से भी कम रही है। यहां कि इंटेसिव केयर यूनिट यानी आईसीयू में बिस्तर खाली हैं। वो मरीज़ों को यहां से बाहर और वेंटिलेटर के बिना ही रखने की कोशिश करते हैं।
हम चालीस साल के हाकिम सुकूक से मिले जो इलाज कराने के बाद अब अपने घर लौट रहे हैं। वो डॉक्टरों के शुक्रगुज़ार हैं।
वो कहते हैं, ''सभी ने मेरा बहुत ध्यान रखा है। ऐसा लग रहा था जैसे मैं अपनी मां की गोद में हूं।''
तुर्की मेडिकल एसोसिएशन ने अभी महामारी पर सरकार के रेस्पांस को क्लीन चिट नहीं दी है। एसोसिएशन कहती है कि सरकार ने जिस तरह से महामारी को लेकर क़दम उठाए उनमें कई कमियां थीं।
इनमें सीमाओं को खुला छोड़ देना भी शामिल है।
हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन तुर्की को कुछ श्रेय दे रहा है। डॉ शेख कहते हैं, ''ये महामारी अपने शुरुआती दिनों में है। हमें लगता है कि और भी बहुत से लोग गंभीर रूप से बीमार होंगे। कुछ तो है जो ठीक हो रहा है।''
कोरोना महामारी के ख़िलाफ़ लड़ाई में तुर्की के पक्ष में भी कई चीज़ें हैं। जैसे, युवा आबादी और आईसीयू के बिस्तरों की अधिक संख्या। लेकिन अभी भी रोज़ाना लगभग एक हज़ार नए मामले सामने आ ही रहे हैं।
तुर्की को कोरोना के ख़िलाफ़ लड़ाई में कामयाबी की कहानी के तौर पर देखा जा रहा है, लेकिन अभी भी सावधानी बरतने की ज़रूरत है क्योंकि अभी ये कहानी ख़त्म नहीं हुई है।
कोरोना महामारी ने भारत की आर्थिक सेहत पर भी बहुत बुरा असर डाला है। इस बात से भारत सरकार भी इनकार नहीं कर रही है और कह रही है कि वो देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए पूरी कोशिश कर रही है।
लेकिन भारत की अर्थव्यवस्था जिन राज्यों पर टिकी है, उनकी नींव कोरोना ने हिलाकर रख दी है। ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि भारत का आर्थिक पुनर्जीवन कितनी मुश्किल और चुनौती भरा रहेगा?
दरअसल भारत की जीडीपी में जिन राज्यों की सबसे ज़्यादा हिस्सेदारी है उनमें सबसे पहले नंबर पर महाराष्ट्र और दूसरे नंबर पर तमिलनाडु और तीसरे नंबर पर गुजरात हैं। इन राज्यों पर कोरोना की बुरी मार पड़ी है, यहां संक्रमण के मामले और मौतों का आंकड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है, इसने इन राज्यों की अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी है। इसका सीधा असर शनिवार को जारी देश के ताज़ा जीडीपी आंकड़ों में भी देखने को मिला।
ध्यान देने की बात है कि जीडीपी के जो आँकड़े जारी किये गए है उसमें लॉकडाउन के सिर्फ 7 दिनों के आँकड़े शामिल है। लॉकडाउन में हुए आर्थिक नुकसान के आँकड़े अभी नहीं आये हैं। लॉकडाउन के दौरान भारत की अर्थव्यवस्था की तबाही के आँकड़े आने अभी बाकी है। मूडीज़ ने कहा है कि भारत के जीडीपी में 4 फीसदी की गिरावट आएगी। यानि अभी आर्थिक तबाही आनी बाकी है।
महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई को भारत की आर्थिक राजधानी कहा जाता है। यहां बड़े कॉरपोरेट और फाइनेंशियल इंस्टीट्यूशन के मुख्यालय हैं। व्यूवरशिप के मामले में दुनिया की सबसे बड़ी फ़िल्म इंडस्ट्री बॉलीवुड मुंबई में है। महाराष्ट्र देश में कॉटन, गन्ने और केले का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक भी है।
ये राज्य बड़े बाज़ारों से अच्छे से जुड़ा हुआ है, यहां चार अंतरराष्ट्रीय और सात घरेलू हवाई अड्डे हैं। क़रीब तीन लाख किलोमीटर लंबा रोड नेटवर्क और 6,165 किलोमीटर लंबा रेल नेटवर्क है। राज्य का समुद्रतट 720 किलोमीटर लंबा है और 55 बंदरगाह हैं। जहां देश का क़रीब 22 प्रतिशत कार्गो ट्रांसपोर्ट होता है।
2017-18 में महाराष्ट्र का जीएसडीपी यानी ग्रॉस स्टेट डोमेस्टिक प्रोडक्ट $387 अरब रहा था और राज्य ने देश की जीडीपी में 15 प्रतिशत की हिस्सेदारी दी थी।
लेकिन कोरोना महामारी ने महाराष्ट्र को बुरी तरह प्रभावित किया है। अब तक सबसे ज़्यादा मामले यहीं सामने आए हैं। कोरोना संक्रमण के मामलों को नियंत्रित करने के लिए लगाए लॉकडाउन का सीधा असर राज्य की अर्थव्यवस्था पर पड़ा है। सब काम धंधे ठप हो गए हैं। फ़िल्म इंडस्ट्री बंद है। आयात और निर्यात का काम रुका हुआ है। इस सब से महाराष्ट्र राज्य को बहुत आर्थिक नुक़सान हुआ है।
भारत में सबसे ज़्यादा फ़ैक्ट्रियां तमिलनाडु में हैं।
तमिलनाडु का मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर काफ़ी विविध है। यहां ऑटोमोबाइल, फ़ार्मा, टेक्सटाइल, चमड़े के उत्पाद, केमिकल समेत कई चीज़ों की बड़ी इंडस्ट्री हैं।
तमिलनाडु के पास बेहतरीन इंफ्रास्ट्रक्चर है। इस राज्य का रोड और रेल नेटवर्क काफ़ी अच्छा माना जाता है। साथ ही यहां सात हवाई अड्डे हैं। तमिलनाडु के पास 1,076 किलोमीटर यानी देश का दूसरा सबसे लंबा समुद्र तट है। जहां 4 मेजर और 22 नॉन-मेजर पोर्ट हैं।
2017-18 में भारत से हुए कुल ऑटो निर्यात का 45 प्रतिशत तमिलनाडु से हुआ था। पैसेंजर वाहनों के मामले में भी तमिलनाडु एक्सपोर्ट हब है, पैसेंजर वाहनों में भारत के कुल निर्यात का 70 प्रतिशत तमिनलाडु करता है। तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई भारत की ऑटोमोबाइल कैपिटल है। तमिलनाडु देश में सबसे ज़्यादा टायर बनाता है।
2018-19 में तमिलनाडु का जीएसडीपी (ग्रॉस स्टेट डोमेस्टिक प्रोडक्ट) $229.7 अरब रहा था। तमिलनाडु देश की दूसरी सबसे ज़्यादा जीडीपी वाला राज्य है।
लेकिन कोरोना ने तमिलनाडु को काफ़ी प्रभावित किया है जिससे बचने के लिए लगाए गए लॉकडाउन की वजह से सभी आर्थिक गतिविधियां बंद हुईं। फ़ैक्ट्रियां बंद करनी पड़ी और बुरे दौर में चल रहा ऑटो सेक्टर और बुरी स्थिति में आ गया। इससे राज्य को आर्थिक तौर पर बहुत नुक़सान हुआ।
गुजरात कच्चे तेल (तटवर्ती) और प्राकृतिक गैस का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। यहां जामनगर में दुनिया का सबसे बड़ा पेट्रोलियम रिफाइनिंग हब है। इसके अलावा गुजरात प्रोसेस्ड डायमंड में ग्लोबल लीडर है। वहीं दुनिया में डेनिम का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक है।
गुजरात सरकार की माने तों राज्य में 30 हज़ार से ज़्यादा फूड प्रोसेसिंग यूनिट है। 560 कोल्ड स्टोरेज और फिश प्रोसेसिंग यूनिट है।
नेशनल लॉजिस्टिक इंडेक्स 2019 के मुताबिक़, भारत में लॉजिस्टिक के मामले में गुजरात नंबर वन है। गुजरात में 49 बंदरगाह हैं, जिनमें एक मेजर पोर्ट है और 48 नॉन-मेजर पोर्ट हैं। गुजरात में 17 एयरपोर्ट भी हैं, जिनमें एक अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट है।
2017-18 में गुजरात में $66.8 अरब का एक्सपोर्ट दर्ज किया गया। जो भारत के कुल निर्यात का 22 प्रतिशत से भी ज़्यादा था। 2016-17 के आंकड़ों को देखें तो गुजरात का जीएसडीपी $173 अरब रहा था।
प्रति व्यक्ति आय के मामले में दूसरे नंबर पर रहने वाला दिल्ली भारत के सबसे तेज़ी से आगे बढ़ रहे क्षेत्रों में से एक है। 2018-19 में इसका ग्रोथ रेट 12.82 प्रतिशत रहा था।
भारत की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली पर्यटकों के बीच ख़ासी लोकप्रिय है। साल भर यहां ट्रेड फेयर और कन्वेंशन भी होते रहते हैं। यहां आकर्षित रियल एस्टेट मार्केट भी है और एग्रोकेमिकल बेस्ड प्रोडक्ट को लेकर बड़ी संभावनाएं भी। दिल्ली और आसपास के नेशनल कैपिटल रीजन (एनसीआर) को पशुधन और डायरी प्रोडक्ट के लिए जाना जाता है। यहां की डायरी में हर दिन तीन मीलियन लीटर दूध की क्षमता है।
भारत का सबसे बड़ा मेट्रो रेल नेटवर्क भी दिल्ली में है। 2018-19 में दिल्ली की जीएसडीपी $109 अरब रही है।
लेकिन कोरोना वायरस के चलते मेट्रो रेल को बंद करना पड़ा। पर्यटन रुक गया। व्यापारिक गतिविधियां रुक गईं। इन सब से दिल्ली और फिर भारत की अर्थव्यवस्था पर काफ़ी असर पड़ा।
लेकिन कोरोना वायरस की मार के चलते भारत में इन सभी आर्थिक गतिविधियों को रोकना पड़ा। जिससे राज्यों को नुक़सान हुआ और इसका सीधा असर भारत की अर्थव्यवस्था पर पड़ा।
सबसे ज़्यादा कोरोना मामले महाराष्ट्र में दर्ज किए जा रहे हैं। उसके बाद तमिलनाडु, दिल्ली और गुजरात जैसे राज्य हैं।
ज़्यादा मामले होने की वजह से यहां के ज़्यादातर इलाक़े रेड ज़ोन में रहे हैं। जहां पर लॉकडाउन के दौरान आर्थिक गतिविधियां ना के बराबर रहीं है। जिसकी वजह से काफ़ी आर्थिक नुक़सान हुआ है।
हालांकि लॉकडाउन से हुए नुक़सान को लेकर कोई आधिकारिक आँकड़ा नहीं आया है। लेकिन एसबीआई ग्रुप के चीफ़ इकोनॉमिक एडवाइज़र सौम्य कांती घोष ने अपनी टीम के साथ मिलकर एक रिपोर्ट लिखी है, जिसे जीडीपी के आंकड़े जारी होने से पहले 26 मई को जारी किया गया था। इस रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया कि कोरोना महामारी की वजह से राज्यों की कुल जीएसडीपी यानी ग्रॉस स्टेट डोमेस्टिक प्रोडक्ट में 30.3 लाख करोड़ रुपए का नुक़सान हुआ है। जो कुल जीएसडीपी का 13.5% है।
सबसे ज़्यादा नुक़सान (50 प्रतिशत) रेड ज़ोन यानी जहां सबसे ज़्यादा मामले हैं, वहां हुआ। भारत के लगभग सभी बड़े ज़िले रेड ज़ोन में हैं। ऑरेंज और रेड ज़ोन को मिलाकर जितना नुक़सान हुआ वो कुल नुक़सान का 90 प्रतिशत है। ग्रीन ज़ोन में सबसे कम नुक़सान हुआ। क्योंकि इस ज़ोन की 80 फ़ीसदी आबादी ग्रामीण इलाक़ों में रहती है, जहां लगभग सभी गतिविधियां खुली हुई थीं।
शनिवार को जब भारत की कुल जीडीपी के आंकड़े जारी हुए तो पता चला कि मौजूदा वित्त वर्ष की चौथी तिमाही में, पिछले साल की तुलना में देश की विकास दर घटकर 3.1 प्रतिशत रह गई है। इससे पूरे वित्तीय वर्ष की जीडीपी दर 4.2 प्रतिशत पर आ गई, जो 11 साल का सबसे निचला स्तर है।
एसबीआई ग्रुप की चीफ़ इकोनॉमिक एडवाइज़र सौम्य कांती घोष की रिपोर्ट के मुताबिक़ राज्यवार विश्लेषण से पता चलता है कि कुल जीडीपी में जो नुक़सान हुआ है, उसका 75 प्रतिशत 10 राज्यों की वजह से हुआ।
कुल नुक़सान में महाराष्ट्र की 15.6% हिस्सेदारी है, इसके बाद तमिलनाडु की जीडीपी नुक़सान में 9.4 प्रतिशत हिस्सेदारी है और गुजरात की 8.6% हिस्सेदारी है। इन्हीं तीन राज्यों में सबसे ज़्यादा कोरोना के मामले दर्ज किए गए हैं।
अगर सेक्टर के हिसाब से देखें तो सिर्फ़ कृषि में सुधार हुआ है। जबकि दूसरे बड़े सेक्टरों में अधिकतर में स्थिति बहुत बुरी रही है। मौजूदा वित्त वर्ष की चौथी तिमाही के आंकड़ों पर नज़र डाले तों अधिकतर सेक्टरों की नेट सेल नकारात्मक रही है।
ऑटोमोबाइल सेक्टर में नेट सेल 15 रही है। बिजली के उपकरणों की नेट सेल 17 रही है। सिमेंट की नेट सेल 10 रही है। एफएमसीजी की नेट सेल 4 रही है। टेक्सटाइल की नेट सेल 30 रही। स्टील की नेट सेल 21 रही है।
हालांकि हेल्थकेयर, आईटी सेक्टर और फार्मा के आंकड़े कुछ सकारात्मक रहे हैं।
लॉकडाउन की वजह से आयात-निर्यात पर भी बुरा असर पड़ा, साथ ही पर्यटन से होने वाली आय भी रुक गई।
अब सवाल उठता है कि आगे की राह क्या है?
एसबीआई ग्रुप के चीफ़ इकोनॉमिक एडवाइज़र सौम्य कांती घोष के अनुसार लॉकडाउन से बहुत ही समझदारी से बाहर निकलना होगा। उनकी रिपोर्ट कहती है कि कोरोना महामारी के बाद भी कंसम्पशन पैटर्न में कुछ बदलाव आने की संभावना है।
नील्सन रिपोर्ट के मुताबिक़, दो तरह के ग्राहक कंसम्पशन डायनेमिक को तय करेंगे। एक मिडिल इनकम ग्रुप, जिनकी आय लॉकडाउन में ज़्यादा प्रभावित नहीं हुई और दूसरे वो, जिनकी नौकरी चली गई और जिन पर सबसे ज़्यादा बुरा असर पड़ा। बल्कि पहले वाला भी बहुत सोच समझकर ख़र्च करेगा, क्योंकि वो सोचेगा कि अब मेरी बारी हो सकती है। साथ ही वो सस्ती चीज़ें ख़रीदेंगे। प्रतिबंधों में ढील के बावजूद ज़्यादातर लोग घर का खाना खाएंगे। हालांकि हेल्थ, सेफ्टी और क्वालिटी पर लोग खर्च करेंगे।
अगर ऐसा होता है तो ज़ाहिर है कि आने वाले वक़्त में भी जीडीपी के आंकड़ों में काफ़ी उतार देखने को मिल सकता है। यानि भारत में आर्थिक तबाही का तूफ़ान आना अभी बाकी है!
रेटिंग एजेंसी मूडीज़ ने भारत की रेटिंग गिरा दी है। रेटिंग का अर्थ क्रेडिट रेटिंग है जिसे आसान भाषा में साख भी कहा जा सकता है।
बाज़ार में किसी की साख ख़राब होने का जो मतलब है एकदम वही मतलब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में देश की रेटिंग गिर जाने का है। यानी क़र्ज़ मिलना मुश्किल होगा और जो क़र्ज़ पहले से ले रखे हैं उनकी वापसी का दबाव बढ़ेगा। मूडीज़ दुनिया की तीसरी बड़ी रेटिंग एजेंसी है जिसने भारत को डाउनग्रेड किया है। दो अन्य एजेंसियाँ फ़िच और स्टैंडर्ड एंड पूअर पहले ही ये रेटिंग गिरा चुकी थीं।
मूडीज़ के रेटिंग गिराने का अर्थ यह है कि भारत सरकार विदेशी बाज़ारों या घरेलू बाज़ारों में क़र्ज़ उठाने के लिए जो बॉंड जारी करती है अब उन्हें कम भरोसेमंद माना जाएगा। ये रेटिंग पिछले बाईस सालों में सबसे निचले स्तर पर पहुँच गई है। इससे पहले 1998 में रेटिंग गिराई गई थी, और वो इसी स्तर पर पहुँची थी। जब भारत के परमाणु परीक्षणों के बाद अमेरिका ने भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए थे।
ग़नीमत सिर्फ़ इतनी है कि मूडीज़ ने रेटिंग गिराकर Baa3 पर पहुंचाई है जिसे इन्वेस्टमेंट ग्रेड का सबसे निचला पायदान कहा जा सकता है। इसका अर्थ ये है कि भारत सरकार की तरफ से जारी होने वाले लंबी अवधि के बॉंड अभी निवेश के लायक माने जाएंगे, बस इनमें जोख़िम बढ़ा हुआ मानकर।
पिछले साल नवंबर में भी आशंका थी कि मूडीज़ रेटिंग गिरा सकता है, लेकिन तब उसने रेटिंग इससे एक पायदान ऊपर यानी Baa2 पर बरकरार रखी थी। हालाँकि उस वक़्त उसने भारत पर अपना नज़रिया बदल दिया था। यानी उसे समस्या की आशंका दिख रही थी। उसने भारत पर अपना आउटलुक बदलकर स्टेबल से निगेटिव कर दिया था।
तब विश्लेषकों ने कहा था कि ज़्यादा फ़िक्र की बात नहीं है क्योंकि अर्थव्यवस्था रफ़्तार पकड़ेगी और मूडीज़ का मूड भी बिगड़ने के बजाय सुधर जाएगा। लेकिन अब ये उम्मीद तो बहुत दूर की कौड़ी साबित हो रही है। और फ़िक्र की बात ये है कि रेटिंग गिराने के बाद भी मूडीज ने अपना आउटलुक निगेटिव ही रखा है। इसका सीधा मतलब यह है कि उसे यहाँ से हालात और ख़राब होने का डर है।
मूडीज़ ने रेटिंग गिराने के जो कारण बताए हैं उन पर भी नज़र डालना ज़रूरी है। उनके हिसाब से 2017 के बाद से देश में आर्थिक सुधार लागू करने का काम काफ़ी सुस्त पड़ा है। लंबे समय से आर्थिक तरक़्क़ी यानी जीडीपी ग्रोथ में बढ़त की रफ़्तार कमजोर दिख रही है। सरकारों के ख़ज़ाने की हालत काफ़ी ख़स्ता हो रही है, केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों का हाल ऐसा है। और भारत के वित्तीय क्षेत्र में लगातार स्ट्रेस या तनाव बढ़ रहा है। यहाँ तनाव का मतलब है क़र्ज़ दिया हुआ या लगाया हुआ पैसा वापस न आने या डूबने का ख़तरा।
और आउटलुक ख़राब होने का अर्थ है कि एजेंसी को भारत की अर्थव्यवस्था और वित्तीय ढाँचे में एक साथ जुड़े हुए कई खतरे दिख रहे हैं जिनके असर से भारत सरकार की माली हालत उससे भी कहीं और कमजोर हो सकती है जैसा अंदाज़ा एजेंसी अभी लगा रही है।
और सबसे ख़तरनाक या चिंताजनक बात यह है कि मूडीज़ के इस डाउनग्रेड की वजह कोरोना से पैदा हुआ आर्थिक संकट क़तई नहीं है। उसका कहना है कि इस महामारी ने सिर्फ़ उन ख़तरों को बड़ा करके दिखा दिया है जो भारतीय अर्थव्यवस्था में पहले से ही पनप रहे थे। इन्हीं ख़तरों को देखकर मूडीज़ ने पिछले साल अपना आउटलुक बदला था।
यहाँ यह याद रखना चाहिए कि उससे दो साल पहले नवंबर 2017 में मूडीज़ ने भारत की क्रेडिट रेटिंग बढ़ाई थी। उस वक़्त उसे उम्मीद थी कि भारत में कुछ ज़रूरी आर्थिक सुधार लागू किए जाएँगे जिनसे देश की माली हालत धीरे धीरे मज़बूत होगी। लेकिन अब उसे शिकायत है कि उस वक़्त के बाद से सुधारों की रफ़्तार भी धीमी रही है और जो हुए भी उनका ख़ास असर नहीं दिखता।
अब समझना ज़रूरी है कि रेटिंग गिरने का नुक़सान क्या है और इसका असर क्या हो सकता है? यह भी रेटिंग का फ़ैसला करते वक़्त जोड़ा जाता है।
भारत सरकार और राज्य सरकारें अनेक अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों से क़र्ज़ लेती हैं। मूडीज़ का ही कहना है कि कोरोना संकट आने से पहले ही सरकारों का क़र्ज़ देश की जीडीपी का बहत्तर परसेंट था और अब बदली परिस्थिति में यानी कोरोना संकट के बाद जब सरकारों को ख़र्च के लिए और पैसे की ज़रूरत पड़ रही है तो ऐसा अनुमान है कि यह बोझ बढ़कर जीडीपी के 84 परसेंट तक जा सकता है।
आप अपने बजट से हिसाब लगाइए। जब आप घर या कार के लिए बैंक से लोन लेने जाते हैं तो बैंक अफ़सर कहते हैं कि कुल मिलाकर आपके सारे क़र्ज़ों की ईएमआई आपकी कमाई के चालीस परसेंट से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए। अगर आप इससे ज़्यादा लोन लेना चाहते हैं तो फिर कोई प्राइवेट बैंक मिल जाता है या कोई एनबीएफसी मिल जाती है जो बाज़ार के रेट से ऊँचे रेट पर आपको लोन देते हैं। मुसीबत के मारों को पर्सनल लोन देने वाले कुछ प्राइवेट फाइनेंसर भी होते हैं जो तीन से चार गुना तक ब्याज वसूलते हैं और लेने वाले पहले से बड़ी मुसीबत में फँस जाते हैं।
इसी तरह रेटिंग गिरने के बाद जब कोई देश बॉंड जारी करता है या सीधे क़र्ज़ लेना चाहता है तो उसे ऊँचा ब्याज चुकाना पड़ता है क्योंकि उसको क़र्ज़ देना जोखिम का काम माना जाता है। देश की क्रेडिट रेटिंग गिरने के साथ ही देश की सभी कंपनियों की रेटिंग की अधिकतम सीमा भी वही हो जाती है। किसी भी रेटिंग एजेंसी के हिसाब में किसी भी निजी या सरकारी कंपनी की रेटिंग उस देश की सॉवरेन रेटिंग से ऊपर नहीं हो सकती। यानी अब प्राइवेट कंपनियों के लिए भी क़र्ज़ उठाना मुश्किल और महँगा हो जाता है। जिनके बॉंड या डिबेंचर पहले से बाज़ार में हैं उनके भाव गिर जाते हैं और उन पर रक़म वापस करने का दबाव बढ़ने लगता है।
अभी भारत की रेटिंग जहां पहुँची है वहाँ वो इन्वेस्टमेंट ग्रेड की आख़िरी पायदान पर है। यानी अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान अभी इसमें पैसा लगा सकते हैं। लेकिन अगर ये रेटिंग इससे नीचे खिसक गई तो दुनिया भर के बड़े वित्तीय संस्थानों में से बहुत सारे मजबूर हो जाएँगे कि वो भारत सरकार के या भारत की कंपनियों के जो भी बॉंड उनके पास हैं उनका पैसा तुरंत वापस माँगे या इन्हें औने-पौने भाव पर बाज़ार में बेच दें। ऐसा इसलिए क्योंकि इन फंड मैनेजरों के सामने ये निर्देश साफ़ है कि वो इन्वेस्टमेंट ग्रेड से नीचे के किसी भी इंस्ट्रुमेंट में पैसा नहीं लगाएँगे।
इसके बाद पैसा लगाने वाले कुछ फंड मिलते हैं लेकिन वो बिलकुल सूदखोर महाजनों की ही तरह होते हैं। ऐसी ही स्थिति में देश क़र्ज़ के जाल में फँसते हैं। इसीलिए ये रेटिंग गिरना बहुत फ़िक्र की बात है।
हालाँकि सिक्के का एक दूसरा पहलू भी है। इस वक़्त अगर रेटिंग की चिंता में सरकार ने खर्च रोकना शुरू कर दिया तो फिर इकोनॉमी को पटरी पर लाना बहुत मुश्किल होता जाएगा। यानी बिलकुल एक तरफ़ कुआँ और दूसरी तरफ खाई। लेकिन अनेक जानकार राय दे रहे हैं कि सरकार को कुछ समय तक रेटिंग की चिंता छोड़कर पूरा दम लगाकर इकोनॉमी में जान फूंकनी चाहिए और एक बार इकोनॉमी चल पड़ी तो रेटिंग सुधरने में भी बहुत वक़्त नहीं लगेगा।
मूडीज़ का भी अनुमान है कि इस वित्त वर्ष में क़रीब चार परसेंट की गिरावट के बाद भारत की अर्थव्यवस्था अगले साल तेज़ उछाल दिखाएगी। फिर भी उसे डर है कि आगे कई साल तकलीफ़ बनी रहेगी इसीलिए उसका नज़रिया कमजोर है। अब अगर सरकार कुछ ऐसा कर दे कि तस्वीर पलट जाए तो यह नज़रिया अपने आप ही बदल जाएगा।