एआईएमआईएम नेता और लोक सभा सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने कहा है कि नागरिकता संशोधन विधेयक भारत को इसराइल बना देगा जो कि भेदभाव के लिए जाना जाता है।
ओवैसी ने समाचार एजेंसी एएनआई से कहा, "नागरिकता संशोधन विधेयक दिखाता है कि वे भारत को एक धार्मिक मुल्क़ बनाना चाहते हैं। भारत इसराइल जैसे देशों की क़तार में आ जाएगा जो कि दुनिया का सबसे ज़्यादा भेदभाव करने वाला मुल्क़ है।
ओवैसी ने ये भी कहा कि ये क़ानून भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन करता है क्योंकि इसमें धर्म के आधार पर नागरिकता ख़त्म हो जाएगी।
भारत में इस बिल को बुधवार को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने हरी झंडी दे दी है और संभावना है कि इसे अगले सप्ताह संसद में पेश किया जाएगा।
इस विधेयक में अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से शरण के लिए भारत आए हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी और ईसाई समुदाय के लोगों को भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान है। लेकिन मुस्लिम समुदाय के शरणार्थियों को नागरिकता नहीं दी जाएगी।
इस बिल का भारत की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस सहित कई राजनैतिक पार्टियां खिलाफ कर रही है जो इस बिल को भारत के सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर रोकने का कोशिश कर सकती है क्योंकि लोक सभा और राज्य सभा में इस बिल के आसानी से पास होने की संभावना है।
इस बिल का भारत के उत्तर - पूर्व के राज्यों में जबरदस्त विरोध हो रहा है। बीजेपी की सहयोगी पार्टी असम गण परिषद इस बिल का विरोध कर रही है। उत्तर - पूर्व के राज्यों को डर है कि इस बिल के आने के बाद बांग्लादेशी हिन्दू शरणार्थियों की आबादी बढ़ जाएगी और वहां की मूल आबादी अल्पसंख्यक हो जाएगी।
इस बिल को लाने का तात्कालिक मकसद असम में एनआरसी में अपनी नागरिकता खोये हिन्दू आबादी (लगभग 13 लाख) को नागरिकता देना है। लेकिन यह बिल का असम में एनआरसी में अपनी नागरिकता खोये मुस्लिम आबादी (लगभग 5 लाख) को नागरिकता नहीं देगा। यह बिल धार्मिक आधार पर पक्षपात करती है।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि मोदी सरकार द्वारा इस बिल को लाने का असली मकसद एनआरसी लाने की पूर्व तैयारी है। ताकि एनआरसी में अपनी नागरिकता खोये मुस्लिम आबादी को भारत की नागरिकता नहीं मिल सके। लेकिन अगर एनआरसी में हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी और ईसाई समुदाय के लोगों की नागरिकता ख़त्म होती है तो इस बिल के प्रावधानों के तहत उन्हें भारत की नागरिकता मिल जाएगी। मोदी सरकार का असली गेम प्लान यही है ताकि भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाया जा सके।
अयोध्या में पूरी ज़मीन हिंदू पक्ष को देने पर लिब्रहान आयोग के वकील अनुपम गुप्ता ने कई सवाल उठाए।
भारत में बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद वरिष्ठ वकील अनुपम गुप्ता ने राम मंदिर आंदोलन से जुड़े भारतीय जनता पार्टी के नेताओं लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, कल्याण सिंह से जिरह की थी। इस मुद्दे पर उस समय रहे भारत के प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव से भी जिरह की थी।
15 साल पहले बाबरी ढहाए जाने के मामले की जांच कर रहे न्यायमूर्ति एम एस लिब्रहान आयोग के वकील अनुपम गुप्ता थे और उस समय उन्होंने नई दिल्ली के विज्ञान भवन में भाजपा नेताओं से जिरह की थी।
हालांकि बाद में अनुपम गुप्ता के लिब्रहान आयोग से मतभेद हो गए और 2009 में जब आयोग ने अपनी अंतिम रिपोर्ट सौंपी तो अनुपम गुप्ता ने उसकी आलोचना की थी।
बीबीसी से बातचीत में अनुपम गुप्ता ने अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर ज़ोरदार असहमति जताई है और इसकी आलोचना की है।
अनुपम गुप्ता ने अयोध्या केस पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की आलोचना निम्नलिखित बातों पर की?
(1) पूरी विवादित ज़मीन को एक पक्ष (हिंदू पक्ष) को देने का फ़ैसला।
(2) 1528 से 1857 के दौरान मस्जिद के भीतर मुसलमानों के नमाज़ पढ़े जाने के सबूत को लेकर सवाल।
(3) दिसंबर 1949 में मस्जिद में मूर्तियां रखकर क़ानून का उल्लंघन करना और पूरे ढांचे को दिसंबर 1992 में ध्वस्त किया जाना।
सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से आप कितना सहमत हैं?
यह फ़ैसला शानदार तरीके से इस बात की पुष्टि करता है और मैं इस बात से सहमत हूं कि एक हिंदू मूर्ति यानी राम लला क़ानूनी व्यक्ति है। इसलिए, लॉ ऑफ़ लिमिटेशन (परिसीमा क़ानून) एक नाबालिग़ राम लला विराजमान (राम के बाल्य रूप) के मामले में पैदा ही नहीं होता।
आप फ़ैसले की किन बातों से असहमत हैं?
मैं विवादित जगह के भीतर और बाहर की ज़मीन को पूरी तरह हिंदुओं को दिए जाने के फ़ैसले से सहमत नहीं हूं।
मैं मालिकाना हक़ के निष्कर्ष से असहमत हूं।
यहां तक कि बाहरी अहाते पर हिंदुओं के मालिकाना हक़ और लंबे समय से हिंदुओं के वहां बिना किसी रुकावट के पूजा करने की दलीलें स्वीकार कर ली गई हैं, लेकिन अंदर के अहाते पर आया अंतिम फ़ैसला अन्य निष्कर्षों के अनुकूल नहीं है।
कोर्ट ने कई बार यह दोहराया और माना कि भीतरी अहाते में स्थित गुंबदों के नीचे के क्षेत्र का मालिकाना हक़ और पूजा-अर्चना विवादित है।
इसे मानते हुए, अंतिम राहत यह होनी चाहिए थी कि बाहरी अहाता हिंदुओं को दिया जाता। लेकिन सवाल है कि भीतरी अहाता भी हिंदुओं को कैसे दिया जा सकता है?
अदालत का इस अहम फ़ैसले पर पहुंचना कि दोनों, भीतरी और बाहरी अहाते हिंदुओं को दिए जाएं, यह कोर्ट के निष्कर्षों के साथ ही मौलिक विरोधाभास है कि सिर्फ़ बाहरी अहाते पर ही हिंदुओं का अधिकार है।
इस फ़ैसले में यह भी पाया गया कि 1528 और 1857 के बीच विवादित स्थल पर नमाज़ पढ़े जाने के कोई साक्ष्य मौजूद नहीं हैं। आपकी राय?
कोर्ट ने इसे आधार माना है और यह मुझे विचित्र लगता है। फ़ैसले में कहा गया है कि मुसलमानों की तरफ़ से इसके कोई सबूत नहीं दिए गए कि 1528 से 1857 के बीच यहां नमाज़ पढ़ी गई। अब भले ही मुक़दमे में साक्ष्यों के अभाव पर फ़ैसला किया गया है, लेकिन यह बात निर्विवाद है कि 1528 में एक मस्जिद बनाई गई जिसे 1992 में ध्वस्त कर दिया गया।
अगर ये मानें कि मुग़ल शासन के दौरान कहीं कोई चर्च, गुरुद्वारे या मंदिर का निर्माण किया गया तो क्या आप उस समुदाय से सैकड़ों वर्षों के बाद यह कहेंगे कि - आपको साबित करना होगा कि आपने वहां पूजा की थी।
भले ही, हिंदू मानते हों कि यह भगवान राम की जन्मभूमि है, लिहाज़ा यह जगह बेहद पूजनीय है। लेकिन हिंदुओं के पास भी इस बात के कोई प्रमाण नहीं हैं कि - हिंदू 1528 से 1857 के दौरान विवादित भूमि पर पूजा करते रहे थे।
लेकिन अदालत के फ़ैसले में 1528 में बनीं मस्जिद में 1857 में मुसलमान नमाज़ अदा कर रहे थे, यह साबित नहीं हो सका। माननीय अदालत ने यह धारणा किस आधार पर बना ली?
क्या इस फ़ैसले में दिसंबर 1949 और दिसंबर 1992 की घटनाओं का संज्ञान लिया गया है?
फ़ैसले में 22 दिसंबर 1949 को मुख्य गुंबद के अंदर राम लला की मूर्तियां रखने की घटना का ज़िक्र करते हुए इसे 'मस्जिद को अपवित्र करना' बताया गया, वह अवैध था।
लेकिन नतीजा यह हुआ कि उस पूरी ज़मीन को ही ज़ब्त कर लिया गया। फ़ैसले में यह सही कहा गया है कि 22 दिसंबर 1949 से पहले वहां कोई मूर्ति नहीं थी, फिर भी इस तथ्य ने अदालती निष्कर्ष, धारणा, विश्लेषण या मूल्यांकन को प्रभावित नहीं किया।
दिसंबर 1992 में मस्जिद ढहाए जाने को यह फ़ैसला क़ानून का उल्लंघन मानता है लेकिन ये बात भावनात्मक, नैतिक या बौद्धिक रूप से कोर्ट पर असर नहीं डालती।
अदालत के सम्मान के साथ, मैं इसे बचाव के योग्य नहीं मानता। यह मूल सैद्धांतिक तथ्य हैं जिन्हें ख़ारिज नहीं किया जा सकता और यह दुखद है।
मेरी राय में, हिंदुओं को समूचे ढांचे का स्वामित्व देना अन्याय करने वाले पक्ष को पुरस्कार देने जैसा है क्योंकि वे 1949 में मूर्तियों को रखे जाने और 1992 में ढ़ांचे को तोड़ने के दोषी हैं।
विवादित स्थल के बाहरी और भीतरी अहाते को हिंदुओं को दिए जाने पर अदालत का तर्क क्या है?
कोर्ट ने अपने फ़ैसले में पूरी संरचना को एक माना है। अगर यह ऐसी ज़मीन है जिसका बंटवारा नहीं किया जा सकता था और किसी भी एक पक्ष का इस पूरी ज़मीन पर किसी एक का मालिकाना हक़ नहीं बन रहा था तो किसी भी पक्ष को इस ज़मीन का हिस्सा नहीं दिया जाना चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय के पूरे सम्मान के साथ कहना चाहता हूँ कि इस तरह के महत्वपूर्ण मामले में जिस तरह की सावधानी, निष्पक्षता और संतुलन की अपेक्षा की जाती है, इस फ़ैसले में उसकी कमी है जो मुझे परेशान करती है।
मेरी राय में अपने इस फ़ैसले में सर्वोच्च न्यायालय धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों और आदर्शों से पीछे हट गया।
आरसीईपी में शामिल नहीं होने पर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फ़ैसले की तारीफ़ और आलोचना दोनों हो रही है, लेकिन मोदी ने आरसीईपी में शामिल होने से मना करके किसका भला किया? यह जानना जरूरी है।
आरसीईपी के मामले में भारत में सरकार और सरकारी एजेंसियों के बर्ताव से तो यही लगता है कि उन्हें यह मामला समझ में नहीं आ रहा है।
भारत में खेती ऐसा मामला है जिसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। कब कौन सी फसल अच्छी होगी, और कब ख़राब होगी? कब किसके दाम अच्छे मिलेंगे? और कब अच्छी फसल वरदान की जगह अभिशाप साबित होगी? कहना मुश्किल है?
ये सवाल पहले ही देश भर के कृषि विशेषज्ञों और अर्थशास्त्रियों को चक्कर में डालने के लिए काफी थे। उसके ऊपर अब सवाल ये है कि अगर चीन से सस्ते सामान के साथ ही ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड से फल, सब्जी, दूध और दही जैसी चीजें भी आने लगीं तो भारत के किसानों, बागवानों और पशुपालकों का क्या होगा?
सवाल तो बहुत अच्छा है। मगर भारत के बाज़ारों में ऑस्ट्रेलिया के तरबूज, कैलिफ़ोर्निया के सेब और न्यूजीलैंड की किवी, अंगूर और संतरे भरे पड़े हैं। थाईलैंड के ड्रैगन फ्रूट, केले और अमरूद भी हैं। अब ये सब अगर बाज़ार में हैं तो नया क्या आने वाला है?
ओपन जनरल लाइसेंस के तहत इंपोर्ट होने वाली चीजों की लिस्ट पर नज़र डालिये, सब पता चल जाएगा। दरअसल, अब लिस्ट है ही नहीं। एक नेगेटिव लिस्ट है जिसमें शामिल चीजों पर या तो रोक है या उनके लिए अलग से इजाज़त चाहिए। बाकी सबका इंपोर्ट खुला हुआ है।
किसानों का हाल देखिए। प्याज का दाम इस वक्त सौ रुपए किलो के आसपास पहुंच रहा है। ऐसा मौका एक साल में या दो सालों में आता है जब किसान को प्याज की बहुत अच्छी कीमत मिलने की उम्मीद जागती है। लेकिन ऐसा होते ही सरकार को महंगाई की चिंता सताने लगती है और वो प्याज का मिनिमम एक्सपोर्ट प्राइस (एमईपी) तय कर देती है।
इसका असर किसान का प्याज विदेशी बाज़ारों में जा नहीं पाता जहां उस वक्त शायद मांग होती है और भारत में दाम काबू करने की कोशिश में किसान की बलि चढ़ा दी जाती है।
एकदम यही हाल गन्ने के किसान का होता है। वैसे तो समर्थन मूल्य हर बड़ी फसल पर तय है मगर ये मूल्य समर्थन कम, विरोध ज़्यादा करता है।
अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में चीनी की मांग बढ़ने पर सरकार की तरफ से पाबंदियां लगने लगती हैं। यहां भी वही सवाल है। क्या आप चीनी के बिना रह नहीं सकते? और इतनी ज़रूरी है तो ज़्यादा दाम क्यों नहीं दे सकते?
भारत में प्याज और चीनी के दामों पर सरकार गिर जाती हैं इसलिए सरकार जी-तोड़ कोशिश में रहती है कि ये चीज़ें महंगी न हो जाएं। और इस चक्कर में पिस रहे हैं वो किसान जिनके हितों की रक्षा के लिए भारत ने आरसीईपी समझौते पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया।
भारत में केंद्र सरकार के रोज बदलते सुर तो सामने ही दिख रहे हैं। भारत के केंद्रीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल पहले आरसीईपी के समर्थन में तर्क देते थे। फिर प्रधानमंत्री मोदी ने कह दिया कि समझौते पर दस्तखत करना उनकी अंतरात्मा को गवारा नहीं।
अब पीयूष गोयल फिर कह रहे हैं कि अच्छा ऑफ़र मिला तो अभी समझौते पर दस्तखत हो सकते हैं। दूसरी तरफ, वो ये भी कह रहे हैं कि भारत अब अमरीका और यूरोपीय यूनियन के साथ फ्री-ट्रेड (बेरोक-टोक कारोबार) के समझौते पर विचार कर रहा है।
बरसों से भारत ऐसे किसी विचार के विरोध में रहा है। दूसरे मंत्रियों से पूछिए तो वो अपने अपने तर्क दे देंगे। संघ परिवार ने स्वदेशी जागरण के नाम पर समझौते के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल रखा है। ये भी सरकार के गले की हड्डी है। लेकिन ये याद रखना ज़रूरी है कि यही स्वदेशी जागरण मंच पिछले तीस पैंतीस साल से भारत में विदेशी निवेश की हर कोशिश के ख़िलाफ़ खड़ा रहा है।
और विरोध करने वालों के तर्क देखें। न्यूजीलैंड से सस्ता दूध आ जाएगा।
उत्तर प्रदेश के एक मंत्री ने कहा कि, "न्यूजीलैंड वाले ग्यारह-बारह रुपये लीटर दूध बेचेंगे, हमारा डेरी कोऑपरेटिव तो चालीस रुपये में ख़रीदता है, कैसे चलेगा?"
लेकिन क्या यह सच है?
गूगल पर सर्च करने पर पता चला कि न्यूजीलैंड में एक लीटर दूध का रिटेल भाव दो डॉलर के आस-पास था और न्यूजीलैंड का एक डॉलर करीब पैंतालीस रुपये का होता है। अब आप खुद सोचिए कि वो कितना सस्ता दूध या पनीर भारत में बेचेंगे।
मजे की बात ये है कि समझौते का विरोध करने में कांग्रेस भी शामिल है और किसान मजदूर संगठन भी। कोई समझाए कि आर्थिक सुधार आने के बाद भारत में नौकरीपेशा लोगों की ज़िंदगी सुधरी है या बदतर हुई है।
आरसीईपी में अगर भारत शामिल होता तो आखिर किसे होता नुकसान? मज़दूरों की हालत में सुधार है कि नहीं है। और फसल का दाम बढ़ेगा तो किसान को फायदा होगा या नुकसान?
तो नुकसान किसको होगा? उन बिचौलियों को जो किसानों का ख़ून चूसते रहे हैं। उन सरकारी अफसरों, नेताओं और मंडी के कारकुनों को जिन्होंने फसल और बाज़ार के बीच का पूरा रास्ता कब्जा कर रखा है। उन व्यापारियों और उद्योगपतियों को जो मुक़ाबले में खड़े होने से डरते हैं क्योंकि उनका मुनाफा मारा जाएगा और उनके यहां काम करने वाले अच्छे लोग दूसरी कंपनियों में जा सकते हैं, दूसरी दुकानों में जा सकते हैं।
ये दूसरी कंपनियां, दूसरी दुकानें कौन हैं? यहीं हैं जिन्हें आरसीईपी के बाद भारत में माल बेचने या काम करने की छूट मिलेगी। अगर उपभोक्ता को सस्ता और अच्छा सामान मिलता है, कामगार को अच्छी तनख्वाह मिलती है और किसान को फसल का बेहतर दाम और बड़ा बाज़ार मिलता है, तो किसे एतराज है? क्यों एतराज है? समझना मुश्किल है क्या?
शामिल नहीं हुए तो किसका होगा नुकसान?
अगर 80 और 90 के दशक में भारत सरकार इसी तरह हिचक दिखाती तो आज हमारे बाज़ार में मौजूद आधे से ज़्यादा चीजें भी नहीं होतीं और देश में आधे से ज़्यादा रोज़गार भी नहीं होते।
फ़ैसले के मौकों पर हिम्मत दिखानी पड़ती है। किसी के हितों की रक्षा से ज्यादा जरूरी है एक देश के तौर पर आत्मविश्वास दिखाना।
क्या वास्तव में अबू-बकर अल-बग़दादी की सीरिया में अमरीकी सेना के ऑपरेशन में मौत हो गई? बगदादी पहले भी कई बार मारा जा चुका है। जिसकी घोषणा अमेरिका कई बार कर चुका है। एक बार फिर से अमेरिका ने बगदादी के मारे जाने की घोषणा की है।
गौरतलब है कि बहुत जल्द ही अमेरिकी में राष्ट्रपति का चुनाव होने वाला है। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की हालत बेहद कमजोर है और इस बार के चुनाव में ट्रम्प के चुनाव जीतने की संभावना कम है। ट्रम्प इस बार चुनाव हार सकते हैं। इसलिए ट्रम्प की घोषणा को इसी सन्दर्भ में देखने की जरूरत है। हम इसे ट्रम्प का चुनावी कार्ड मान सकते हैं।
अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस में घोषणा की है कि ख़ुद को इस्लामिक स्टेट कहने वाले चरमपंथी संगठन के भगोड़े नेता अबू-बकर अल-बग़दादी अमरीकी सेना के एक स्पेशल ऑपरेशन में मारे गए हैं।
रविवार को व्हाइट हाउस में आयोजित प्रेस कॉन्फ़्रेंस में ट्रंप ने बताया कि अमरीकी सेना ने शनिवार की रात सीरिया में एक ऑपरेशन किया जिस दौरान बग़दादी ने अपने आप को आत्मघाती जैकेट के धमाके से उड़ा दिया।
ट्रंप से मिली जानकारी की मुताबिक़ ऑपरेशन में किसी अमरीकी सैनिक की मौत नहीं हुई है लेकिन बग़दादी के कई अनुयायी मारे गए हैं और कुछ को पकड़ा भी गया है।
ट्रंप ने ये भी कहा कि इस ऑपरेशन से अमरीकी सेना को 'बहुत सी संवेदनशील जानकारियां और चीज़ें' मिली हैं।
डोनल्ड ट्रंप ने इस ऑपरेशन को सफल बनाने के लिए रूस, तुर्की और सीरिया का शुक्रिया भी अदा किया।
ट्रंप ने कहा, ''अबू-बकर अल-बग़दादी की मौत हो चुकी है। वो इस्लामिक स्टेट के संस्थापक थे। ये दुनिया का सबसे हिंसक और क्रूर संगठन है। अमरीका कई सालों से बग़दादी को खोज रहा था।''
ट्रंप ने कहा, ''बग़दादी को ज़िंदा पकड़ना या मारना मेरी सरकार की सबसे पहली राष्ट्रीय सुरक्षा प्राथमिकता थी। अमरीकी सेना के विशेष बलों ने उत्तर पश्चिम सीरिया में रात में एक बहादुर और ख़तरनाक अभियान किया और शानदार कामयाबी हासिल की।''
अमरीकी राष्ट्रपति ने रविवार अमरीकी समयानुसार सुबह लगभग नौ बजे की गई अपनी प्रेस कॉन्फ़्रेंस में कहा, "मैं बग़दादी के मारे जाने की पुष्टि करता हूं।''
ट्रंप ने व्हाइट हाउस में संवाददाताओं से बताया, "शनिवार को स्पेशल फ़ोर्सेज़ के रेड के बाद बग़दादी ने अपने आत्मघाती जैकेट से ख़ुद को उड़ा लिया।''
ट्रंप ने बताया कि बग़दादी के साथ उसके तीन बच्चे भी थे, जो मारे गए। आत्मघाती विस्फोट से बग़दादी का शरीर टुकड़ों में बिखर गया लेकिन डीएनए टेस्ट से उनकी पहचान की पुष्टि हो गई।
इससे पहले डोनल्ड ट्रंप ने रविवार को एक ट्वीट करके बताया था कि 'कुछ बहुत बड़ा हुआ है।'
बग़दादी जहां मारे गए वो जगह सीरिया के इदलिब प्रांत से काफ़ी दूर है। माना जा रहा है कि बग़दादी सीरिया-इराक़ सीमा के पास छिपे हुए थे। इदलिब के कई हिस्से अब भी जिहादियों के क़ब्ज़े में हैं।
अमरीकी राष्ट्रपति ने बग़दादी की लोकेशन को 'कंपाउंड' कहा और बताया कि उन पर कुछ हफ़्तों से निगरानी रखी जा रही थी।
ट्रंप ने बताया कि इससे पहले भी मिलिट्री रेड की योजना थी लेकिन उनके बार-बार जगह बदलने की वजह से उन्हें रद्द करना पड़ा था।
बरीशा के एक निवासी (जहां पर कथित रूप से ऑपरेशन को अंजाम दिया गया) ने बीबीसी को बताया कि शनिवार देर रात इलाक़े में हेलिकॉप्टरों के ज़रिए हमला हुआ।
हेलिकॉप्टरों ने दो घरों पर हमला किया और हमले में एक घर पूरी तरह नष्ट हो गया। इसके बाद सैनिक ज़मीन पर सक्रिय हो गए।
बग़दादी एक कथित इस्लामिक स्टेट के मुखिया थे और वो पिछले पाँच वर्षों से अंडरग्राउंड थे।
अप्रैल में इस्लामिक स्टेट के मीडिया विंग अल-फ़ुरक़ान की ओर से एक वीडियो जारी किया गया था। अल-फ़ुरक़ान ने वीडियो के ज़रिए कहा था कि बग़दादी ज़िंदा हैं।
जुलाई 2014 में मूसल की पवित्र मस्जिद से भाषण देने के बाद बग़दादी पहली बार दिखे थे।
फ़रवरी 2018 में कई अमरीकी अधिकारियों ने कहा था कि मई 2017 के एक हवाई हमले में बग़दादी ज़ख़्मी हो गए थे।
बग़दादी 2010 में इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक़ एंड सीरिया (आईएसआईएस) के नेता बने थे।
बग़दादी का जन्म 1971 में इराक़ के सामरा में निम्न-मध्य वर्गीय सुन्नी परिवार में हुआ था। बग़दादी का असल नाम इब्राहिम अल-ऊद अल-बदरी था लेकिन दुनिया उन्हें अल-बग़दादी के नाम से जानती थी।
यह परिवार अपनी धर्मनिष्ठता के लिए जाना जाता था। बग़दादी के परिवार का दावा है कि जिस क़बीले से पैग़ंबर मोहम्मद थे, उसी क़बीले से वो भी हैं। यह परिवार पैग़ंबर मोहम्मद का वंशज होने का दावा करता है।
युवा अवस्था में ही बग़दादी क़ुरान की आयतों को कंठस्थ करने के लिए जाने जाते थे। इसके साथ ही बग़दादी का इस्लामिक क़ानून से भी ख़ासा लगाव था।
परिवार में बग़दादी की पहचान घोर इस्लामिक व्यक्ति की थी। बग़दादी अपने रिश्तेदारों को बहुत ही सतर्क नज़रों से देखते थे कि इस्लामिक क़ानून का पालन हो रहा है या नहीं।
बग़दादी ने यूनिवर्सिटी में भी मज़हब की पढ़ाई की। 1996 में यूनिवर्सिटी ऑफ़ बग़दाद से इस्लामिक स्टडीज़ में बग़दादी ने ग्रैजुएशन किया।
इसके बाद 1999 से 2007 के बीच क़ुरान पर इराक़ की सद्दाम यूनिवर्सिटी फ़ॉर इस्लामिक स्टडीज़ से मास्टर्स और पीएचडी हासिल की।
2004 तक बग़दादी बग़दाद के पास तोबची में अपनी दो पत्नियों और छह बच्चों के साथ रहे। इसी दौरान वो स्थानीय मस्जिद में पड़ोस के बच्चों को क़ुरान की आयतें पढ़ाते थे। बग़दादी फ़ुटबॉल क्लब के भी स्टार थे।
इसी दौरान बग़दादी के चाचा ने उन्हें मुस्लिम ब्रदरहुड जॉइन करने के लिए प्रेरित किया। बग़दादी तत्काल ही रूढ़िवादी और हिंसक इस्लामिक मूवमेंट की तरफ़ आकर्षित हो गए।
2003 में इराक़ पर अमरीका के हमले के कुछ ही महीने बाद बग़दादी ने विद्रोही गुट जैश अह्ल अल-सुन्नाह वा अल-जमाह के गठन में मदद की।
फ़रवरी 2004 में अमरीकी बलों ने फलुजा में बग़दादी को गिरफ़्तार कर लिया और बक्का डिटेंशन कैंप में 10 महीने तक रखा। क़ैद के दौरान भी बग़दादी ने ख़ुद को मज़हब पर ही केंद्रित रखा। वो क़ैदियों को इस्लाम की शिक्षा देते थे।
साथ के क़ैदियों के अनुसार बग़दादी अन्तर्मुखी स्वभाव के थे लेकिन वे अपने प्रतिद्वंद्वियों की पूरी ख़बर रखते थे। दिसंबर 2004 में क़ैद से बाहर आने के बाद बग़दादी ने उन सभी से गठजोड़ किया जिनसे वो संपर्क में थे। बाहर निकलने के बाद बग़दादी ने इराक़ में अल-क़ायदा के प्रवक्ता से संपर्क किया।
वो प्रवक्ता बग़दादी के इस्लामिक ज्ञान से बहुत प्रभावित हुआ। उसी प्रवक्ता ने बग़दादी को दमिश्क जाने के लिए राज़ी किया। बग़दादी को यहां अल-क़ायदा के प्रॉपेगैंडा को फैलाने की ज़िम्मेदारी दी गई थी।
अल-क़ायदा इन इराक़ को ख़त्म कर अबू-अय्यूब अल-मासरी ने इस्लामिक स्टेट इन इराक़ का गठन किया। इस समूह का अल-क़ायदा से भी संबंध बना रहा।
इस्लामिक विश्वसनीयता के कारण बग़दादी में आईएस के अलग-अलग धड़ों को एकजुट करने की क्षमता थी। इस्लामिक स्टेट से बग़दादी ने लोगों को जोड़ना शुरू किया।
बग़दादी को शरीया समिति का पर्यवेक्षक बनाया गया। इसके साथ ही उन्हें शुरा काउंसिल के 11 सदस्यों में भी शामिल किया गया।
बाद में बग़दादी को आईएस की समन्वय समिति में रखा गया जिसका काम इराक़ में कमांडरों के बीच संवाद क़ायम करना था।
अप्रैल 2010 में आईएस के संस्थापक के मारे जाने के बाद शुरा काउंसिल ने बग़दादी को आईएस का प्रमुख बना दिया।
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई एम एफ़) का कहना है कि एक दशक पहले आए वित्तीय संकट के बाद पहली बार सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था इतनी सुस्त दिखाई दे रही है।
मुद्राकोष का अनुमान है कि इस साल सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था में कुल मिलाकर मात्र 3 प्रतिशत का विकास होगा।
वहीं भारत में इस साल विकास दर घटकर 6.1 प्रतिशत रह जाएगी।
आईएमएफ़ ने इससे पहले इसी साल अप्रैल में भारत की विकास दर के 7.3 फीसदी रहने की बात की थी।
फिर जुलाई में संस्था ने भारत के लिए अपने अनुमान को घटाकर 7 प्रतिशत कर दिया था।
आईएमएफ़ ने वर्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक की अपनी ताज़ा रिपोर्ट में भारत की आर्थिक वृद्धि दर के अनुमान में कटौती करते हुए 2019-2020 के लिए इसे घटाकर 6.1 प्रतिशत कर दिया है।
हालांकि मुद्रा कोष ने 2020-21 में इसमें कुछ सुधार की उम्मीद भी जताई है।
आईएमएफ़ की मुख्य अर्थशास्त्री गीता गोपीनाथ ने मंगलवार को एक संवाददाता सम्मेलन में कहा कि "2020 में भारत की आर्थिक वृद्धि दर कुछ बढ़कर सात प्रतिशत तक होने की उम्मीद की जा रही है।''
आईएमएफ़ ने अपनी नई रिपोर्ट में कहा "कुछ गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थाओं की कमज़ोरी और उपभोक्ता और छोटे और मध्यम दर्जे के व्यवसायों की ऋण लेने की क्षमता पर पड़े नकारात्मक असर के कारण भारत की आर्थिक विकास दर के अनुमान में कमी आई है।''
गीता का कहना था कि भारत सरकार अर्थव्यवस्था में सुधार लाने के लिए काम कर रही है, लेकिन भारत को अपने राजकोषीय घाटे पर लगाम लगानी होगी।
आईएमएफ़ के मुताबिक़ लगातार घटती विकास दर का कारण घरेलू मांग का उम्मीद से ज्यादा कमज़ोर रहना है।
आईएमएफ़ ने चीन के लिए इस साल के लिए आर्थिक वृद्धि दर 6.1 फीसदी और 2020 में 5.8 फीसदी रहने का अनुमान जताया है।
2018 में चीन की आर्थिक वृद्धि दर 6.6 फीसदी थी।
आईएमएफ़ के अनुसार वैश्विक विकास दर इस साल मात्र 3 प्रतिशत ही होगी लेकिन इसके 2020 में 3.4 तक रहने की उम्मीद है.
आईएमएफ़ ने यह भी कहा, "वैश्विक अर्थव्यवस्था सुस्ती के दौर में है और हम 2019 के विकास दर को एक बार फिर से घटाकर 3 प्रतिशत पर ले जा रहे हैं जो कि दशक भर पहले आए संकट के बाद से अब तक के सबसे कम है।''
ये जुलाई के वैश्विक विकास दर के उसके अनुमान से भी कम है। जुलाई में यह 3.2 फीसद बताई गई थी।
आईएमएफ़ ने कहा, "आर्थिक वृद्धि दरों में आई कमी के पीछे विनिर्माण क्षेत्र और वैश्विक व्यापार में गिरावट, आयात करों में बढ़ोतरी और उत्पादन की मांग बड़े कारण हैं।''
आईएमएफ़ ने कहा कि इस समस्या से निपटने के लिए नीति निर्माताओं को व्यापार में रूकावटें खत्म करनी होंगी, समझौतों पर फिर से काम शुरू करना होगा और साथ ही देशों के बीच तनाव कम करने के साथ-साथ घरेलू नीतियों में अनिश्चितता ख़त्म करनी होगी।
आईएमएफ़ का मानना है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में आई सुस्ती के कारण इस साल दुनिया के 90 प्रतिशत देशों में वृद्धि दर कम ही रहेगी।
आईएमएफ़ ने कहा है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था 2020 में तेजी से 3.4 फीसद तक जा सकती है।
हालांकि इसके लिए उसने कई ख़तरों की चेतावनी भी दी है क्योंकि यह वृद्धि भारत में आर्थिक सुधार पर निर्भर होने के साथ-साथ वर्तमान में गंभीर संकट से जूझ रही अर्जेंटीना, तुर्की और ईरान की अर्थव्यवस्था पर भी निर्भर करती है।
गीता ने कहा, "इस समय पर कोई भी गलत नीति जैसे कि नो-डील ब्रेक्सिट या व्यापार विवादों को और गहरा करना, विकास और रोज़गार सृजन के लिए गंभीर समस्या पैदा कर सकती है।''
आईएमएफ के अनुसार कई मामलों में सबसे बड़ी प्राथमिकता अनिश्चितता या विकास के लिए ख़तरों को दूर करना है।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम और पूर्व वित्त मंत्री ने मंगलवार को अर्थव्यवस्था की स्थिति पर सरकार को एक बार फिर घेरते हुए कहा, "अच्छी अर्थव्यवस्था अगर एक तरफ ले जाती है तो मोदी सरकार दूसरी ओर।''
चिदंबरम फिलहाल भ्रष्टाचार से जुड़े एक मामले में दिल्ली की तिहाड़ जेल में हैं। उन्होंने भारतीय मूल के अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी को नोबेल पुरस्कार जीतने के लिए बधाई दी है और कहा कि हमें उन्होंने भारतीय अर्थव्यव्था को लेकर जो कहा है उस पर ध्यान देना चहिए।
अमरीका-चीन के बीच व्यापार को लेकर बातचीत से संबंधित चिंताओं के बीच अधिक डॉलर खरीद के कारण मंगलवार को भारतीय रुपया 31 पैसे लुढ़ककर करीब एक महीने के सबसे निचले स्तर पर आ गया।
हालांकि, कच्चे तेल की क़ीमत में लगभग आधा प्रतिशत की गिरावट और शेयर बाज़ार में तेज़ी ने इस नुक़सान को कम करने में मदद की है।
15 अक्टूबर 2019 को भारतीय शेयर बाज़ार में रुपया 31 पैसे या 0.44 फीसदी की गिरावट के साथ 71.54 रुपये प्रति डॉलर पर बंद हुआ। इसे पहले 17 सितंबर को रुपया 71.78 रुपये प्रति डॉलर पर बंद हुआ था।
सीरिया में अमरीका की सैन्य नीति में बदलाव से भारी उठापटक की बात कही जा रही है। अमरीका ने उत्तर-पूर्वी सीरिया से अपने सैनिकों को बुलाने का फ़ैसला किया है।
हालांकि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का यह फ़ैसला पेंटागन के अधिकारियों की सोच के उलट है, जो चाहते थे कि उत्तर-पूर्वी सीरिया में अमरीकी सैनिकों की छोटी संख्या मौजूद रहे। पेंटागन चाहता है कि उत्तर-पूर्वी सीरिया में अमरीका का इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ अभियान ख़त्म नहीं हो।
कहा जा रहा है कि अमरीका के इस क़दम से सीरिया में रूस और ईरान का प्रभाव बढ़ेगा। इस इलाक़े में अमरीका कुर्दों के साथ मिलकर इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ अभियान चलाता रहा है। दूसरी तरफ़ तुर्की कुर्द बलों को आतंकवादी कहता है। तुर्की लंबे समय से चाहता था कि अमरीका कुर्दों के साथ सहयोग बंद करे।
कुर्दिश लड़ाका सीरियाई डेमोक्रेटिक फ़ोर्सेज यानी एसडीएफ़ के हिस्सा रहे हैं और यह धड़ा सीरिया में इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ अमरीका का सबसे विश्वसनीय साथी रहा है।
अमरीका के अधिकारियों का कहना है कि राष्ट्रपति ट्रंप ने तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन से सीधे बात की है। तुर्की सीरिया में कुर्दों के ख़िलाफ़ सैन्य ऑपरेशन चला सकता है लेकिन अभी तक स्पष्ट नहीं है कि इसका दायरा कितना बड़ा होगा।
अगर तुर्की की सेना अमरीका समर्थित कुर्दों से टकराती है तो इस इलाक़े में काफ़ी उलट-पुलट हो सकता है।
पिछले साल दिसंबर में ट्रंप ने सीरिया से अपने सैनिको को बुलाने की घोषणा की थी लेकिन देश के भीतर विरोध के बाद पीछे हटना पड़ा था। ट्रंप के इस फ़ैसले से अमरीका के यूरोप के सहयोगी भी ख़ुश नहीं थे।
वॉशिंगटन इंस्टिट्यूट में टर्किश रिसर्च प्रोग्राम के निदेशक सोनेर कैगप्टे 'अर्दोआन्स एम्पायर: टर्की एंड द पॉलिटिक्स ऑफ़ मिडल ईस्ट' किताब के लेखक हैं।
उन्होंने न्यूयॉर्क टाइम्स से टेलिफ़ोन इंटरव्यू में कहा है, ''अमरीका के विरोध के बिना तुर्की उत्तरी सीरिया में हमला कर कुर्दिश नियंत्रण वाले सीरियाई इलाक़े में अपनी मौजूदगी बना लेगा। ऐसे में अर्दोआन यहां हजारों सीरियाई शरणार्थियों को भेज सकते हैं और वो दावा करेंगे कि सीरिया में ट्रंप की नीतियों में उनका भी दख़ल है। यह एक अहम प्रगति है।''
ये आशंका भी जताई जा रही है कि इसकी आड़ में तुर्की वहां पर मौजूद कुर्द लड़ाकों पर हमले कर सकता है। लेकिन ट्रंप ने धमकी दी है कि तुर्की ऐसा करेगा तो उसकी अर्थव्यवस्था को वो तबाह कर देंगे।
व्हाइट हाउस ने रविवार को कहा कि राष्ट्रपति ट्रंप ने तुर्की की सेना को सीरिया से लगी सीमा में सीमित ऑपरेशन की अनुमति दे दी है। अमरीका ने कहा है कि तुर्की के इस ऑपरेशन से अमरीका समर्थित कुर्द बल अलग रहेंगे। सीरियाई विशेषज्ञ व्हाइट हाउस के इस फ़ैसले की आलोचना कर रहे हैं।
इनका कहना है कि अमरीका का कुर्दों को छोड़ देने से आठ सालों से जारी सीरियाई संकट का दायरा और बढ़ सकता है। ये भी संभव है कि कुर्द सीरियाई सरकार बशर अल-असद के साथ आ सकते हैं। बशर अल-असद की सेना तुर्की से लड़ने के लिए तैयार बैठी है।
अरिज़ोना के डेमोक्रेट रिप्रेजेंटेटिव और इराक़ युद्ध में नौसेना के हिस्सा रहे रुबेन गैलेगो ने ट्वीट कर लिखा है कि उत्तरी सीरिया में तुर्की की दस्तक मध्य-पूर्व को अस्थिर करने वाला क़दम साबित होगा।
उन्होंने ट्वीट कर कहा, ''इसके बाद कुर्द अमरीका पर कभी भरोसा नहीं करेंगे। वे नए सहयोगी की ओर देखेंगे ताकि वो अपनी आज़ादी और सुरक्षा को सुनिश्चित कर सकें।''
अमरीका की यह घोषणा एसडीएफ़ के लिए चौंकाने वाली है। एसडीएफ़ की तरफ़ से जारी बयान में कहा गया है कि अमरीका के इस फ़ैसले से इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ लड़ाई और शांति को झटका लगेगा।
तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन पूर्व में तुर्की-सीरियाई सीमा से 300 मील तक सेफ़ ज़ोन की मांग कर रहे हैं। वो इस इलाक़े को 10 लाख सीरियाई शरणार्थियों के लिए चाहते हैं।
ये शरणार्थी अभी तुर्की में हैं। अर्दोआन ने धमकी दे रखी है अगर अंतर्राष्ट्रीय समर्थन नहीं मिला तो वो इन शरणार्थियों को यूरोप में भेजना शुरू कर देंगे। अर्दोआन चाहते हैं कि सीरियाई शरणार्थी अब वापस जाएं।
अगस्त महीने की शुरुआत से अमरीकी और तुर्की सेना साथ मिलकर काम कर रही है। ये 300 मील लंबे सीमाई इलाक़े के 75 मील क्षेत्र में साथ में गश्ती लगाने का काम भी कर रहे थे।
अमरीका समर्थित कुर्द बल कई मील पीछे गए और अपने क़िलेबंदी को भी नष्ट किया। अर्दोआन के लिए यह प्रगति अब भी नाकाफ़ी है। पिछले हफ़्ते ही उन्होंने संकेत दिए थे कि सीमाई इलाक़े में तुर्की हमला कर सकता है।
अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि टर्किश बॉर्डर अमरीकन फ़ोर्स को इस ऑपरेशन में अमरीका की ओर से क्या मदद मिलेगी? न्यूयॉर्क टाइम्स के अनुसार उत्तरी सीरिया में अमरीका के एक हज़ार सैनिक हैं और इनके साथ कुल 60 हज़ार कुर्द लड़ाके हैं।
कई विशेषज्ञ मान रहे हैं कि अमरीका सीरिया से बाहर होकर फिर जगह नहीं बना पाएगा। तुर्की नेटो का बड़ा सदस्य देश है लेकिन कुर्द इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ अमरीका की लड़ाई के पार्टनर रहे हैं।
न्यूयॉर्क टाइम्स से एक अमरीकी अधिकारी ने नाम नहीं बताने की शर्त पर कहा, ''हमलोग न तो तुर्क का समर्थन करने जा रहे और न ही एसडीएफ़ का। अगर ये आपस में लड़ेंगे तो हमलोग बिल्कुल अलग रहेंगे।''
दिसंबर 2018 में अमरीका के विदेश मंत्री जिम मैटिस ने सीरिया से सभी 2000 सैनिकों की वापसी के आदेश को लेकर इस्तीफ़ा दे दिया था।
हालांकि तुर्की पूरे मामले को बिल्कुल अलग तरीक़े से देख रहा है। तुर्की में यह समझ है कि इस मसले पर राष्ट्रपति ट्रंप और सेना के अधिकारियों में सहमति नहीं है।
अर्दोआन सीरिया को लेकर अमरीका भी गए थे। राष्ट्रपति ट्रंप की ओर से आयोजित ग्रुप डिनर पार्टी में अर्दोआन शामिल हुए थे। ट्रंप ने कहा था कि अर्दोआन उनके दोस्त बन गए हैं। हालांकि दोनों के बीच प्राइवेट मीटिंग नहीं हो पाई थी।
एक समय उस्मानी साम्राज्य के केंद्र रहे तुर्की में कुर्दों की आबादी 20 फ़ीसदी है। कुर्द संगठन आरोप लगाते हैं कि उनकी संस्कृति पहचान को तुर्की में दबाया जा रहा है। ऐसे में कुछ संगठन 1980 के दशक से ही छापामार संघर्ष कर रहे हैं।
अमरीका की डेलावेयर यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान कहते हैं कि इस मामले को समझने के लिए इतिहास में जाना होगा।
वह बताते हैं, "तुर्की में दो नस्लीय पहचानें हैं- तुर्क और कुर्द. कुर्द आबादी लगभग 20 प्रतिशत है। पहले वे सांस्कृतिक स्वतंत्रता की मांग कर रहे थे मगर अब कई सालों से वे आज़ादी की मांग कर रहे हैं। वे कुर्दिस्तान बनाना चाहते हैं।''
मध्य-पूर्व के नक्शे में नज़र डालें तो तुर्की के दक्षिण-पूर्व, सीरिया के उत्तर-पूर्व, इराक़ के उत्तर-पश्चिम और ईरान के उत्तर- पश्चिम में ऐसा हिस्सा है, जहां कुर्द बसते हैं।
कुर्द हैं तो सुन्नी मुस्लिम, मगर उनकी भाषा और संस्कृति अलग है। प्रोफ़ेसर मुक़्तरदर ख़ान बताते हैं कि कुर्द मांग करते है कि संयुक्त राष्ट्र के आत्मनिर्णय के अधिकार पर उन्हें भी अलग कुर्दिस्तान बनाने का हक़ मिले। ध्यान देने वाली बात यह है कि अमरीका ने 2003 में इराक़ पर हमला किया था। तभी से उत्तरी इराक़ में कुर्दिस्तान लगभग स्वतंत्र राष्ट्र की तरह काम कर रहा है।
अमरीका के डेलेवेयर यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान कहते हैं, "तुर्की इस बात से डरा हुआ है कि कुर्दों का एक राष्ट्र सा लगभग बना हुआ है, ऊपर से कुर्द लड़ाकों को आईएस के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए अमरीका से हथियार भी मिले हैं। ऐसा भी सकता है कि कुर्द इतने शक्तिशाली हो जाएं कि सीरिया में इस्लामिक स्टेट से जीते हुए हिस्से को इराक़ के कुर्दिस्तान से जोड़कर बड़ा सा कुर्द राष्ट्र बना लें। ऐसा हुआ तो तुर्की के लिए ख़तरा पैदा हो जाएगा।''
तुर्की को यह चिंता पहले भी थी। शुरू में जब आईएस के ख़िलाफ़ अमरीका ने क़ुर्दों से सहयोग लेना चाहा था, तब भी तुर्की ने इसका विरोध किया था। ऐसे में यह आशंका बनी हुई है कि जैसे ही अमरीका सीरिया से अपनी सेनाएं हटाएगा, तुर्की वहां पर कार्रवाई करके कुर्द इलाक़ों को ख़त्म कर देगा और उनके नियंत्रण वाली ज़मीन छीन लेगा।
क्या अमरीका भारत पर प्रतिबंध लगा सकता है? भारत रूस से मिसाइल सिस्टम एस-400 ख़रीदने वाला है। लेकिन अमरीकी अधिकारियों का कहना है कि अगर भारत ने ये मिसाइल खरीदी तो उस पर अमेरिका प्रतिबंध लगा सकता है।
अमरीका दौरे पर गए भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा था कि उन्हें लगता है कि वो इस सौदे के लिए अमरीका को मना लेंगे, लेकिन उसी दिन अमरीकी विदेश मंत्रालय ने द हिंदू अख़बार को ईमेल के ज़रिए बताया कि ऐसा कोई भी सौदा भारत के लिए मुसीबत बन सकता है और अमरीका उस पर प्रतिबंध लगा सकता है।
इस ईमेल में अमरीकी विदेश मंत्रालय के एक प्रवक्ता ने लिखा, "हम अपने सहयोगियों से अपील करते हैं कि वो रूस के साथ कोई भी ऐसा सौदा करने से बचें, जिसकी वजह से उन पर काउंटरिंग अमरीकाज़ अडवर्सरीज थ्रु सैंक्शंस एक्ट (CAATSA) के तहत प्रतिबंध लगने का ख़तरा हो।''
ये प्रतिबंध हर उस देश पर लागू होंगे जो अमरीका के सीएएटीएसए क़ानून का उल्लंघन करेगा।
रूस के मामले में अमरीका का यह क़ानून उन देशों को रोकता है जो रूस के साथ हथियारों का सौदा करते हैं।
डोनल्ड ट्रंप के सत्ता में आने के बाद अमरीकी संसद ने 2017 में इस क़ानून को पास किया था।
2 अगस्त 2017 को जब से ये क़ानून लागू हुआ है तब से ही भारत में ये अटकलें लगाई जा रही हैं कि इससे भारत रूस के रक्षा संबंधों, ख़ास तौर पर एस-400 मिसाइल सिस्टम की संभावित ख़रीद पर क्या असर पड़ेगा।
इससे पहले अमरीका ने इस क़ानून के तहत चीन के सेंट्रल मिलिट्री कमिशन के इक्विपमेंट डेवेलपमेंट डिपार्टमेंट और उसके निदेशकों पर प्रतिबंध लगा दिया था। चीन पर ये प्रतिबंध इसलिए लगाए गए थे, क्योंकि उसने रूस से एसयू-35 एयरक्राफ्ट और एस-400 सिस्टम ख़रीदा था।
रूस में बनने वाले एस-400 लॉन्ग रेंज सरफेस टू एयर मिसाइल सिस्टम है। जिसे भारत सरकार ख़रीदना चाहती है।
एस-400 को दुनिया का सबसे प्रभावी एयर डिफेंस सिस्टम माना जाता है। इसमें स्टैंड ऑफ़ जैमर एयरक्राफ्ट, एयरबोर्न वॉर्निंग और कंट्रोल सिस्टम एयरक्राफ्ट है। यह बैलिस्टिक और क्रूज़ मिसाइलों को टारगेट को हिट करने से पहले ही नष्ट कर देगा। एस-400 को सड़क के रास्ते कहीं भी ले जाया जा सकता है। इसे पांच से 10 मिनट के भीतर तैनात किया जा सकता है।
रक्षा विश्लेषकों का मानना है कि एस-400 के आने से भारतीय वायु सेना की ताक़त बढ़ेगी। लेकिन रूस ने चीन को पहले ही एस- 400 दे दिया है। अब भारत को रूस ने एस- 400 की आपूर्ति करने का कॉन्ट्रैक्ट किया है। रूस पाकिस्तान को भी एस- 400 दे सकता है क्योंकि रूस का अब पाकिस्तान से अच्छा रिश्ता है।
भारतीय वायु सेना के लिए भारत सरकार ने रूस से पांच एस-400 सिस्टम मांगे हैं। भारत का रूस के साथ एस-400 सिस्टम की आपूर्ति के लिए कॉन्ट्रेक्ट हो चुका है।
इस डिफेंस सिस्टम के लिए भारत को कितनी क़ीमत चुकानी होगी, इसकी कोई आधिकारिक घोषणा अभी नहीं की गई है। लेकिन कुछ रिपोर्ट्स में बताया गया है कि भारत को इसके लिए 5.4 अरब डॉलर से अधिक ख़र्च करने होंगे।
जैसे ही इस मिसाइल सिस्टम की पहली किश्त चुकाई जाएगी, वैसे ही भारत पर अमरीका के प्रतिबंध लागू हो सकते हैं।
इन प्रतिबंधों से बचने का एक तरीक़ा है, वो ये कि अमरीका के राष्ट्रपति भारत को इससे छूट दे दें।
लेकिन अमरीकी अधिकारी लगातार ये कहते रहे हैं कि भारत को ये नहीं सोचना चाहिए कि उसे ये छूट अपने-आप मिल जाएगी। अमरीका ये तय करेगा कि क्या करना है?
सीएएटीएसए की धारा 235 में 12 तरह के प्रतिबंधों का ज़िक्र है। अगर भारत रूस के साथ लेन-देन करता है तो अमरीका के राष्ट्रपति इनमें से पांच या उससे ज़्यादा प्रतिबंध भारत पर लगा सकते हैं। जैसे -
- जिस पर प्रतिबंध लगा है, उसे लोन नहीं दिया जाएगा
- जिस पर प्रतिबंध लगा है, वहां कोई सामान एक्सपोर्ट करने के लिए एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट बैंक से सहायता नहीं मिलेगी।
- जिस पर प्रतिबंध लगा है, अमरीकी सरकार वहां से कोई सामान या सेवा नहीं लेगी।
- उससे क़रीब से जुड़े किसी व्यक्ति को वीज़ा नहीं दिया जाएगा।
इनमें से दस प्रतिबंधों का तो भारत-अमरीका और भारत-रूस संबंधों पर ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। लेकिन दो प्रतिबंध आपसी रिश्तों पर बड़ा असर डाल सकते हैं।
इनमें से एक है कि 'बैंकिग ट्रांसेक्शन्स पर प्रतिबंध' लगा दिया जाएगा। जिससे भारत एस-400 के लिए रूस को अमरीकी डॉलर में भुगतान नहीं कर पाएगा।
दूसरे प्रतिबंध का भारत-अमरीका रिश्तों पर गहरा असर होगा। इसके तहत 'निर्यात पर प्रतिबंध' लगा दिया जाएगा। मतलब जिस पर प्रतिबंध लगा है, अमरीका उससे किसी चीज़ का आयात नहीं करेगा और ना ही इसके लिए लाइसेंस देगा।
इन दो प्रतिबंधों की वजह से भारत और अमरीका के बीच की रणनीतिक और रक्षा साझेदारी बुरी तरह प्रभावित होगी।
ब्रिटेन की विपक्षी लेबर पार्टी ने कश्मीर पर बुधवार को एक आपात प्रस्ताव पारित करते हुए पार्टी के नेता जेरेमी कोर्बिन से अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों को क्षेत्र में जाने देने और वहां के लोगों के आत्म निर्णय के अधिकार की मांग करने के लिए कहा है।
भारतीय समुदाय के प्रतिनिधियों ने इसकी आलोचना करते हुए इसे 'ग़लत विचार पर आधारित' और 'भ्रामक जानकारी' देने वाला बताया।
इस बीच, भारत ने कश्मीर मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप की मांग करने वाली ब्रिटेन की लेबर पार्टी के प्रस्ताव की आलोचना की है।
भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने लेबर पार्टी के क़दम को 'वोट बैंक हितों को साधने' वाला बताया।
इस्लामी सहयोग संगठन (ओआईसी) ने भारत से कश्मीर में अपनी कार्रवाई बंद करने के लिए कहा है।
मुस्लिम देशों के एक संगठन, इस्लामी सहयोग संगठन ने बुधवार को संयुक्त राष्ट्र महासभा के 74 वें सत्र से इतर एक बैठक के दौरान कश्मीर मुद्दे पर चर्चा की।
ओआईसी ने भारत से कश्मीर में अपनी कार्रवाई बंद करने और नई दिल्ली के जम्मू-कश्मीर से विशेष राज्य का दर्जा वापस लेने के निर्णय के बाद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों का पालन करने का अनुरोध किया।
कश्मीर पर इस्लामी सहयोग संगठन (ओआईसी) कांटैक्ट ग्रुप के विदेश मंत्रियों ने एक बैठक के दौरान जम्मू-कश्मीर से भारत सरकार के अनुच्छेद 370 हटाए जाने और राज्य को दो केन्द्र शासित प्रदेशों में विभाजित करने पर चर्चा की। यह बैठक संयुक्त राष्ट्र महासभा के 74वें सत्र से इतर बुधवार को आयोजित की गई।
संगठन ने बाद में जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में कश्मीर में मानवाधिकार की स्थिति पर चिंता व्यक्त की।
उन्होंने कश्मीर में संचार पर लगे प्रतिबंधों पर भी चर्चा की।
इस समय, ओआईसी में 57 देश शामिल हैं।
इस बीच, तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने मंगलवार को संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) में जम्मू-कश्मीर का मुद्दा उठाते हुए विवाद का समाधान करने के लिए भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत करने की अपील की।
अब तक तुर्की एकमात्र देश है जिसने यूएनजीए में कश्मीर का मुद्दा उठाया है। यह पहली बार नहीं है जब तुर्की ने कश्मीर पर कुछ कहा है। इससे पहले छह अगस्त को तुर्की के विदेश मंत्री ने अनुच्छेद 370 को निरस्त करने पर चिंता व्यक्त की थी और कहा था कि इससे "मौजूदा तनाव और बढ़ सकता है।''
रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने मंगलवार को कहा कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय कश्मीर संघर्ष पर पर्याप्त ध्यान देने में विफल रहा है जहां 72 साल से समाधान नहीं हो सका है।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने महासभा में कश्मीर मुद्दा उठाने के लिए तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन को मंगलवार को धन्यवाद दिया।
दुनिया के सबसे बड़े तेल संयंत्र पर ड्रोन हमले से तेल की क़ीमतों में उछाल आ गया है। बीते कुछ दशकों में ये सबसे तेज़ उछाल है और इसने मध्य-पूर्व में एक नए संघर्ष का ख़तरा पैदा कर दिया है।
लेकिन इसका असर कई हज़ार किलोमीटर दूर तक महसूस किया जा रहा है।
शनिवार 14 सितंबर को कई ड्रोन के ज़रिए सऊदी अरब के बक़ीक़ तेल संयंत्र और ख़ुरैस तेल क्षेत्र में हमला किया गया। इस हमले से सऊदी अरब के कुल उत्पादन और दुनिया की 5 प्रतिशत तेल आपूर्ति पर बुरा असर पड़ा।
यमन के हूती विद्रोहियों ने इस हमले की ज़िम्मेदारी ली है।
भारत क़रीब 83 प्रतिशत तेल आयात करता है। भारत विश्व में तेल के सबसे बड़े आयातकों में से एक है।
भारत में ज़्यादातर कच्चा तेल और कुकिंग गैस इराक़ और सऊदी अरब से आता है।
अपने तेल का 10 प्रतिशत से ज़्यादा हिस्सा वो ईरान से आयात करता था।
हालांकि, साल की शुरुआत में अमरीका ने परमाणु समझौते से अलग होने के बाद भारत पर दबाव बनाया कि वो ईरान से तेल ख़रीदना बंद कर दे।
भारत अमरीका जैसे दूसरे देशों से भी आयात करता है, लेकिन ज़्यादा दामों पर।
बीजेपी प्रवक्ता और ऊर्जा विशेषज्ञ नरेंद्र तनेजा ने कहा, "भारत की दो बड़ी चिंताएं हैं। पहला, हम मानते हैं कि सऊदी अरब एक बहुत ही विश्वसनीय आपूर्तिकर्ता है। भारत, सऊदी अरब को दुनिया में सुरक्षित सप्लायर के तौर पर देखता है।''
लेकिन जिस तरह ये हमले किए गए, ऐसा लगने लगा है कि सऊदी के संयंत्र अब पहले की तरह सुरक्षित नहीं रहे हैं। इसने भारत जैसे दूसरे बड़े आयातकों को चिंतित कर दिया है।
"दूसरा ये कि भारत की अर्थव्यवस्था और यहां के लोग क़ीमतों को लेकर बहुत संवेदनशील रहते हैं इसलिए आज क़ीमत को लेकर चिंता ज़्यादा है।''
इसके अलावा, तेल के वैश्विक बाज़ार में ड्रोन हमले के बाद तेल की क़ीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है। कुवैत पर इराक के हमले वाले वक़्त के बाद से पहली बार क़ीमते इस क़दर बढ़ी हैं। पिछले 28 साल में कच्चे तेल की क़ीमतों में ऐसी उथल-पुथल नहीं हुई थी।
सऊदी अरब ने अब तक पूरी तरह से इस हमले का जवाब नहीं दिया है। इसलिए हम नहीं जानते कि सऊदियों के दिमाग़ में क्या चल रहा है? क्या वो सैन्य तरीक़े से जवाब देंगे? अगर हां, तो इससे क्षेत्र में तनाव बढ़ेगा, जिससे इराक़ और ईरान समेत खाड़ी के पूरे क्षेत्र से आपूर्ति बाधित होगी।
तो बहुत से अनकहे सवाल हैं, जिनके जवाब मिलने अभी बाकी हैं।
भारत की 2/3 मांग इस क्षेत्र से पूरी होती है और किसी भी तरह का तनाव भारत पर एक नकारात्मक असर डालेगा।
अगर आप सबसे तेज़ी से उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं और उनकी आयातित तेल पर निर्भरता को देखें। कोई भी आयात पर निर्भरता के मामले में भारत जैसी कमज़ोर स्थिति में नहीं है और ये सारी उथल-पुथल निश्चित तौर पर भारत पर असर डालेगी।
ये अब इस पर निर्भर करेगा कि उत्पादन कब तक बाधित रहता है। सऊदी अरब का कहना है कि संयंत्रों को ठीक करने में उसे कुछ दिन लगेंगे। लेकिन अगर और ज़्यादा वक़्त लगता है तो इससे तेल की क़ीमतों पर और असर पड़ेगा और हो सकता है इससे भारत में आयात की क़ीमत और बढ़ जाए।
भारत सरकार पहले ही अर्थव्यवस्था के मामले में बुरे दौर से गुज़र रही है और अगर क़ीमतें बढ़ती हैं तो भारत की मुश्किलें भी बढ़ेंगी।
अगर वैश्विक स्तर पर कच्चे तेल की क़ीमतें और बढ़ती हैं तो पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमतें भी बढ़ेंगी। ईंधन की क़ीमतें बढ़ेंगी तो इससे मैन्युफेक्चरिंग और एविएशन समेत कई उद्योगों पर असर पड़ेगा, इससे महंगाई और बढ़ जाएगी।
कच्चे तेल के बाय-प्रोडक्ट, प्लास्टिक और टायर जैसे उत्पादों में इस्तेमाल होते हैं, ये चीज़ें भी और महंगी हो जाएंगी।
तेल की बढ़ती क़ीमतों का असर मुद्रा पर भी पड़ता है। अगर कच्चे तेल का डॉलर प्राइज़ बढ़ेगा तो भारत को उतने ही तेल के लिए और डॉलर ख़रीदने होंगे। इससे डॉलर के मुक़ाबले रुपए की क़ीमत गिरेगी।
भारत के शेयर बाज़ार में और कमज़ोरी पहले ही देखी जा चुकी है। बढ़ती तेल क़ीमतों से अर्थव्यवस्था को और नुक़सान होने के डर से उसमें लगातार दूसरी बार गिरावट आई।
केयर रेटिंग लिमिटेड के प्रमुख अर्थशास्त्री मदन सबनविस कहते हैं, "सरकार अभी ज़्यादा कुछ नहीं कर पाएगी। वो हमारे पास मौजूद भंडार से आपूर्ति कर सकती है, जिससे क़रीब एक महीने के लिए मदद मिल सकती है। अगर संकट बना रहता है तो वो करों में कटौती कर सकती है, लेकिन इससे राजस्व पर और फिर राजकोषीय घाटे पर असर पड़ेगा। लेकिन जब तक क़ीमत 70 डॉलर प्रति बैरल से कम रहती है, तब तक इस झटके को सहा जा सकता है।''
भारत सरकार के कश्मीर का ख़ास दर्जा ख़त्म करने के फ़ैसले को लेकर चीन की भवें तनीं। बीते करीब चार हफ़्ते के दौरान अलग-अलग बयानों के जरिए चीन ने अपना विरोध जाहिर किया है।
बीती पांच अगस्त को भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली भारत सरकार ने तब के जम्मू कश्मीर राज्य को अर्ध स्वायत्ता देने वाले अनुच्छेद 370 को ख़त्म कर दिया।
इसके बाद एक कानून पारित कर राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांट दिया गया।
इनमें से एक केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख है। चीन का इसके एक हिस्से पर नियंत्रण है और वो इस पूरे इलाके पर दावा करता है।
चीन के विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता ख्वा चूनयिंग ने भारत के फ़ैसले को लेकर कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया।
उन्होंने कहा, "चीन-भारत सीमा के पश्चिमी सेक्टर में चीन के क्षेत्र पर भारतीय अधिग्रहण का चीन ने हमेशा विरोध किया है। हमारी इस पुख्ता और निरंतर स्थिति में कोई बदलाव नहीं हुआ है।''
ख्वा चूनयिंग ने आगे कहा, "अपने कानून में बदलाव करके भारत ने हाल में भी चीन की क्षेत्रीय संप्रभुता को अनदेखा करने का सिलसिला जारी रखा है। ये तरीका स्वीकार्य नहीं है और ये अमल में नहीं आएगा।''
इस बीच भारत में राष्ट्रवादी बयानों के साथ बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं ने इस कदम का स्वागत किया। कुछ नेताओं ने उम्मीद जाहिर की कि क्षेत्र का जो हिस्सा चीन और पाकिस्तान के नियंत्रण में है, वो भी भारत के पास आ जाएगा।
इन नेताओं इसमें चीन के नियंत्रण वाले लद्दाख के इलाके अक्साई चिन और पाकिस्तान के कश्मीर, जिसे भारत "पाकिस्तान के कब्ज़े वाला कश्मीर" या "पीओके" बताता है, को शामिल किया।
इंडिया टुडे मैगज़ीन ने भारत के केंद्रीय मंत्री और भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता गिरिराज सिंह के हवाले से लिखा, "200 प्रतिशत यकीन है कि पीओके और अक्साई चिन भी बहुत जल्दी देश के साथ मिल जाएंगे।''
लद्दाख को लेकर चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने कहा, "भारत सरकार की लद्दाख (जिसमें चीन का क्षेत्र शामिल है) को केंद्र शासित प्रदेश बनाने की घोषणा ने चीन की संप्रभुता को चुनौती दी है और सीमा क्षेत्र में शांति और स्थिरता बनाए रखने के लिए दो देशों के बीच हुए समझौते का उल्लंघन किया है।''
कश्मीर के मुद्दे पर ख्वा चूनयिंग ने कहा, "कश्मीर मुद्दे पर चीन की स्थिति साफ और एक जैसी है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इसे लेकर सहमति है कि भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर का मुद्दा अतीत से लंबित है।''
चीन कहता रहा है कि अक्साई चिन समेत लद्दाख इलाक़ा ऐसे सीमाई विवाद का हिस्सा है, जो अभी तय नहीं हुआ है।
फिलहाल, अक्साई चिन को चीन ने अपने शिनजियांग क्षेत्र में शामिल करता है और इसे बेहद अहम मानता है। वजह ये है कि इसके जरिए शिनजियांग और तिब्बत के बीच सैनिकों की आवाजाही हो सकती है।
चीन शिमला समझौते को मान्यता नहीं देता है। ये समझौता साल 1914 में तिब्बत और भारत के ब्रिटिश प्रशासन के बीच हुआ था। जिसमें लद्दाख के भारत का हिस्सा होने को मान्यता दी गई है।
चीन का कहना है कि ये संधि उस वक्त की चीन सरकार के साथ नहीं की गई थी और इसलिए ये अमान्य है।
वांग यी ने कहा, "भारत का कदम चीन को मान्य नहीं है और इससे इस क्षेत्र की संप्रभुता और प्रशासनिक ज्यूरिडिक्शन में चीन की स्थिति में भी कोई बदलाव नहीं होगा।''
चीन सरकार के नियंत्रण वाले अख़बार ग्लोबल टाइम्स ने लिखा, "जब भारत के गृह मंत्री अमित शाह जोर से दावा करते हैं कि भारत उत्तर पश्चिम चीन के शिनजियांग वीगर स्वायत्त क्षेत्र पर शासन स्थापित करना चाहता है तो ये चीन के ख़िलाफ शत्रुता का भाव दिखाता है।''
शंघाई इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनेशनल स्टडीज़ के रिसर्च फेलो झाओ गानचेंग के हवाले से ग्लोबल टाइम्स ने लिखा, "अगर भारत अपने अतार्किक दावों को आगे बढ़ाता है और सैन्य कार्रवाई से हमें उकसाता है तो चीन मजबूती के साथ पलटवार करेगा।''
भारत के विदेश मंत्रालय ने चीन की आलोचनाओं का जवाब दिया है। विदेश मंत्रालय का कहना है, "नए केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख का गठन भारत का आंतरिक मामला है।''
भारत के गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में कहा, "लद्दाख के लोगों की बहुत लंबे वक्त से मांग रही है, इस क्षेत्र को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा देने की, अब वो अपनी आकांक्षाओं को पूरा कर सकेंगे।''
भारत ये भी कहता रहा है कि अक्साई चिन पर चीन का दावा अवैध है और ये शिमला समझौते का उल्लंघन है।
इस विवाद को चीन के करीबी सहयोगी और भारत के प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान ने और उलझा दिया है। पाकिस्तान ने साल 1963 में ट्रांस कराकोरम का एक हिस्सा चीन के सुपुर्द कर दिया था। ये क्षेत्र अक्साई चिन के करीब है। पाकिस्तान के कदम को भारत अवैध बताता है।
लंबे समय से इस मामले पर भारत का जो रुख है, उसे दोहराते हुए अमित शाह ने संसद में कहा, "कश्मीर भारत का अविभाज्य हिस्सा है। इसे लेकर कोई संदेह नहीं है। जब मैं जम्मू कश्मीर की बात करता हूं तो पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर और अक्साई चिन भी इसमें आते हैं।''
चीन ने जो कहा है, वो उस पर अमल भी कर रहा है। पाकिस्तान की गुजारिश पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बंद कमरे में बैठक हुई। पाकिस्तान का कश्मीर को लेकर भारत के साथ विवाद है।
इस बैठक के कुछ ही दिन पहले भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने बीजिंग का दौरा किया था। ग्लोबल टाइम्स के मुताबिक उन्होंने समझौते वाली भाषा का इस्तेमाल करते हुए कहा था, "भारत के संविधान में संशोधन से संप्रभुता के नए दावे की स्थिति नहीं बनेगी। इससे (पाकिस्तान सीमा पर) कश्मीर क्षेत्र में नियंत्रण रेखा पर बदलाव नहीं आएगा और चीन-भारत सीमा पर कंट्रोल लाइन नहीं बदलेगी।''
पाकिस्तान लंबे वक्त से कश्मीर विवाद के अंतरराष्ट्रीयकरण की कोशिश में लगा है। संयुक्त राष्ट्र की बैठक उसी दिशा में प्रयास दिखती है। भारत इस मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय मामला बनाए जाने का विरोध करता है।
लेकिन इस बैठक में राय बंटी हुई रही। रिपोर्टों के मुताबिक रूस ने भारत का समर्थन किया। वहीं ब्रिटेन ने इस मांग में चीन का समर्थन किया कि बैठक के बाद एक सार्वजनिक बयान जारी किया जाए।
चीन के अलावा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के बाकी चार स्थायी सदस्यों ने भारत और पाकिस्तान से अपने विवादों को दोतरफा तरीके से सुलझाने के लिए कहा।
आखिरकार, ये बैठक बिना कोई बयान जारी किए हुए ख़त्म हो गई। हालांकि, चीन और पाकिस्तान ने बाद में अपनी ओर से बयान जारी किए। इसके बाद भारत ने भी बयान जारी किया।