दुनिया में सबसे ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने वाली कंपनी अरामको ने शेयर बाज़ार में आने के लिए आईपीओ लाने की पुष्टि की है। यह दुनिया की सबसे बड़ी इनीशियल पब्लिक ऑफ़रिंग हो सकती है।
सऊदी अरब की तेल कंपनी ने रविवार को कहा कि यह रियाध स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध होने की योजना बना चुकी है।
सऊदी अरब के शाही परिवार के स्वामित्व वाली यह कंपनी निवेशकों के रजिस्ट्रेशन और दिलचस्पी के मुताबिक आईपीओ लॉन्च प्राइस तय करेगी।
कारोबार जगत के सूत्रों का मानना है कि कंपनी के मौजूदा शेयरों में से एक या दो फ़ीसदी शेयर उपलब्ध करवाए जा सकते हैं।
अरामको की कीमत 1.3 ट्रिलियन डॉलर (927 बिलियन डॉलर) बताई जाती है।
कंपनी ने कहा कि अभी फ़िलहाल इसकी विदेशी शेयर बाज़ार में उतरने की कोई योजना नहीं है।
अरामको बोर्ड के अध्यक्ष यासिर अल-रुम्यान ने एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस में कहा, "अंतरराष्ट्रीय शेयर बाज़ार में उतरने के बारे में हम आपको आने वाले वक़्त में बताएंगे।''
सऊदी अरामको का इतिहास साल 1933 से शुरू होता है जब सऊदी अरब और स्टैंडर्ड ऑयल कंपनी ऑफ़ कैलिफ़ॉर्निया (शेवरॉन) के बीच एक डील अटक गई।
ये डील तेल के कुओं की खोज और खुदाई के लिए नई कंपनी बनाने से सम्बन्धित थी। बाद में 1973-1980 के बीच सऊदी अरब ने ये पूरी कंपनी ही खरीद ली।
एनर्जी इन्फ़ॉर्मेशन एडमिनिस्ट्रेशन के अनुसार सऊदी अरब में वेनेज़ुएला के बाद तेल का सबसे बड़ा भंडार है। तेल उत्पादन में भी अमरीका के बाद सऊदी अरब दूसरे नंबर पर है।
तेल के मामले में सऊदी अरब को बाकी देशों के मुकाबले प्राथमिकता इसलिए भी मिलती है क्योंकि पूरे देश में तेल पर इसका एकाधिकार है और यहां तेल निकालना अपेक्षाकृत सस्ता भी है।
शीन्ड्रर इलेक्ट्रिक (एनर्जी मैनेजमेंट कंपनी) में मार्केट स्टडीज़ के डायरेक्टर डेविड हंटर के मुताबिक़ अरामको निश्चित तौर पर दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी है।
शीन्ड्रर ने कहा, "यह बाकी सभी ऑयल और गैस कंपनियों से बड़ी है।''
अगर दुनिया की कुछ बड़ी कंपनियों से तुलना करें तो 2018 में ऐपल की कमाई 59.5 अरब डॉलर थी। इसके साथ ही अन्य तेल कंपनियां रॉयल डच शेल और एक्सोन मोबिल भी इस रेस में बहुत पीछे हैं।
रोज़ 10 मिलियन बैरल के उत्पादन और 356,000 मिलियन अमरीकी डॉलर की कमाई के साथ यह दुनिया की सबसे बड़ी तेल कंपनी है।
रिलायंस इंडस्ट्रीज़ के चेयरपर्सन मुकेश अंबानी अरामको को अपनी तेल कंपनी का 20 फ़ीसदी शेयर बेचने का ऐलान कर चुके हैं। यह भारत में अरामको का अब तक का सबसे बड़ा विदेशी निवेश होगा।
आईजी ग्रुप में चीफ़ मार्केट एनलिस्ट क्रिस बाउन का कहना है कि अरामको में निवेश करने के अपने ख़तरे हैं। कंपनी के लिए रणनीतिक और राजनीतिक ख़तरे भी हैं।
ये ख़तरे इस साल सितंबर में तब भी सामने आए थे जब अरामको के स्वामित्व वाले संयत्रों पर हमला हुआ था। सऊदी अरब में कंपनी के दो संयत्रों पर ड्रोन से हमला किया गया जिसकी वजह से आग लग गई और काफ़ी नुक़सान हुआ।
हालांकि कंपनी के चीफ़ एग़्जिक्युटिव अमीन नासिर ने कंपनी की योजनाओं को 'ऐतिहासिक' बताया। उन्होंने कहा कि अरामको अब भी दुनिया की सबसे विश्वसनीय तेल कंपनी है।
आईपीओ लॉन्च के मौके पर अरामको की तरफ़ से कहा गया कि हाल में हुए हमलों का इसके कारोबार, आर्थिक स्थिति और ऑपरेशन पर कोई असर नहीं पड़ेगा।
मध्यपूर्व मामलों के जानकार क़मर आग़ा ने बीबीसी से बातचीत में कहा, ''आर्थिक सुस्ती और बाज़ार में पैसों की कमी की वजह से अमरीकी और यूरोपीय निवेशक अभी ख़तरा मोल लेने को उत्सुक नहीं हैं। यमन में जारी युद्ध में सऊदी अरब की भूमिका को लेकर भी निवेशक सशंकित हैं।''
सऊदी अरब की अगुवाई वाले गठबंधन ने बीते क़रीब चार साल से यमन के हूती विद्रोहियों के ख़िलाफ़ संघर्ष छेड़ा हुआ है। सितंबर में सऊदी के तेल संयंत्रों पर हुए हमले की ज़िम्मेदारी भी हूती विद्रोहियों ने ली थी। लेकिन अमेरिका और सऊदी अरब ने इस हमले के लिए ईरान को जिम्मेदार माना।
क़मर आग़ा के अनुसार एक अहम सवाल ये भी है कि सऊदी अरब के पास कितना तेल भंडार बचा है क्योंकि ये दिन पर दिन कम ही हो रहा है। दूसरे, सऊदी के घरेलू बाज़ार में भी तेल की अच्छी-ख़ासी खपत होती है।
एक वक़्त था जब अरामको को रहस्यमय कंपनी माना जाता था लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इसने ख़ुद को पूरी तरह बदल डाला है। आज कंपनी जहां पहुंची है, उसके लिए इसने ख़ुद को सावधानी से तैयार किया है।
इसकी तैयारी के लिए कंपनी को कई साल लगाने पड़े हैं। फोर्ब्स पत्रिका के मुताबिक, ''2016 में अरामको के पास अंतरराष्ट्रीय मानकों के मुताबिक अकाउंटिंग की किताबें तक नहीं थीं। और ना तो उसके पास संस्थागत चार्ट और स्ट्रक्चर के औपचारिक रिकॉर्ड थे।''
सितंबर में हुए ड्रोन हमलों के बाद से अरामको ने अपने आर्थिक आंकड़े प्रकाशित करने शुरू कर दिए हैं। कंपनी अब पत्रकारों के लिए नियमित रूप से सवाल-जवाब के कार्यक्रम भी आयोजित करती है। इतना ही नहीं, अरामको पत्रकारों को ड्रोन हमले वाली जगह पर भी ले गई थी।
कंपनी ने कुछ शीर्ष पदों के लिए महिलाओं को नियुक्त किया है। रविवार को कंपनी ने जो ऐलान किए उसने अंतरराष्ट्रीय चिंताओं का भी ज़िक्र किया गया है।
कंपनी ने कहा है कि उसका मक़सद कच्चे तेल को लंबे वक़्त तक रीसाइकिल करना है। अरामको ने पर्यावरण के प्रति जवाबदेही का परिचय देते हुए कहा है कि वो आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल से पर्यावरण को होने वाले नुक़सान को कम करेगी।
कंपनी ने कहा है कि स्थानीय लोग, 'यहां तक कि तलाक़शुदा औरतें' भी इसके शेयर खरीद सकेंगी और हर 10 शेयर के लिए उन्हें एक बोनस दिया जाएगा।
सऊदी अरब अरामको के शेयर इसलिए बेचना चाहता है क्योंकि ये अर्थव्यवस्था की निर्भरता तेल पर कम करना चाहता है।
क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान अपने 'विज़न 2030' के ज़रिए देश की अर्थव्यवस्था को अलग-अलग क्षेत्रों में ले जाना चाहते हैं।
डेविड हंटर के मुताबिक़ सऊदी अरब अपने यहां के विस्तृत रेगिस्तान का इस्तेमाल करके सौर ऊर्जा के उत्पादन में भी आगे निकलना चाहता है।
हंटर कहते हैं, "मौजूदा वक़्त में अरामको के लिए हालात राजनीतिक रूप से जटिल हैं। इसकी बड़ी वजह पिछले साल सऊदी अरब के पत्रकार जमाल ख़ाशोज्जी की हत्या है। मानवाधिकारों के मामले में सऊदी अरब का रिकॉर्ड अच्छा नहीं है इसलिए इससे जुड़ी किसी भी चीज़ को संदेह की नज़रों से देखा जाता है।''
मोहम्मद बिन सलमान की योजना में दूसरी कठिनाई हो सकती है इस समय दुनिया भर में जीवाश्म ईंधन के ख़िलाफ़ चल रही मुहिम।
डेविड हंटर कहते हैं, "अरामको के लिए आगे इसलिए भी मुश्किल हो सकती है क्योंकि इस समय निवेशकों का रुझान जीवाश्म ईंधन की ओर से कम हो रहा है और वो नए विकल्प तलाश रहे हैं।''
क़मर आग़ा मानते हैं कि बेशक़ अरामको के कई सकारात्मक पहलू हैं लेकिन ये कितने निवेशकों को आकर्षित करने में कामयाब हो पाएगी, ये देखने के लिए अभी इंतज़ार करना होगा।
आग़ा कहते हैं कि अगर कंपनी निवेशकों को खींचने में असफल रही तो इसका सबसे ज़्यादा असर उस पर और सऊदी अरब पर ही पड़ेगा।
अभिजीत बनर्जी, एस्टर डुफ़लो और हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर माइकल क्रेमर को 2019 का अर्थशास्त्र के लिए प्रतिष्ठित नोबेल सम्मान मिला तो भारतीय मीडिया में ये ख़बर प्रमुखता से चली।
अभिजीत बनर्जी का जन्म भारत में हुआ था और मास्टर तक यहीं पढ़े-लिखे भी। बनर्जी के जेएनयू में पढ़े होने की भी ख़ूब चर्चा हुई। ऐसा इसलिए भी क्योंकि बीजेपी के कई नेताओं के निशाने पर जेएनयू रही है।
अभिजीत बनर्जी मोदी सरकार के नोटबंदी के फ़ैसले को आलोचक रहे हैं और 2019 के आम चुनाव में उन्होंने कांग्रेस पार्टी के घोषणापत्र तैयार करने में मदद की थी।
कांग्रेस के घोषणापत्र में न्याय स्कीम अभिजीत बनर्जी का ही आइडिया था। न्याय स्कीम के तहत कांग्रेस पार्टी ने 2019 के आम चुनाव में वादा किया था कि वो सरकार बनाती है तो देश के बीस फ़ीसदी सबसे ग़रीब परिवारों को हर साल उनके खाते में 72 हज़ार रुपए ट्रांसफर करेगी। हालांकि चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह से हार गई।
अभिजीत बनर्जी के नोबेल मिलने पर भारत सरकार की बहुत ठंडी प्रतिक्रिया रही। हालांकि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्विटर पर एक औपचारिक बधाई दी। लेकिन भारत सरकार के रेल और वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल की अभिजीत बनर्जी पर टिप्पणी सबसे ज़्यादा चर्चा में रही।
पीयूष गोयल ने शुक्रवार को पत्रकारों से बातचीत में कहा था, ''अभिजीत बनर्जी ने नोबेल सम्मान जीता है इसके लिए हम उन्हें बधाई देते हैं। लेकिन आप सभी जानते हैं कि वो पूरी तरह से वाममंथी विचारधारा के साथ हैं। उन्होंने कांग्रेस को न्याय योजना बनाने में मदद की थी लेकिन भारत की जनता ने पूरी तरह से नकार दिया।''
पीयूष गोयल की इस टिप्पणी पर अभिजीत बनर्जी ने प्रतिक्रिया दी है। अभिजीत अपनी नई किताब 'गुड इकोनॉमिक्स फोर हार्ड टाइम्स: बेटर एंसर टू आवर बिगेस्ट प्रॉब्मलम्स' को लॉन्च करने दिल्ली आए हुए हैं।
दिल्ली में उनसे पीयूष गोयल की टिप्पणी के बारे में पूछा गया तो उन्होंने एनडीटीवी से कहा, ''मुझे लगता है कि इस तरह की टिप्पणी से कोई मदद नहीं मिलेगी। मुझे अपने काम के लिए नोबेल मिला है और उन्हें मेरे काम पर सवाल खड़ा करने से कुछ भी हासिल नहीं होगा। अगर बीजेपी भी कांग्रेस पार्टी की तरह अर्थशास्त्र को लेकर सवाल पूछेगी तो क्या मैं सच नहीं बताऊंगा? मैं बिल्कुल सच बताऊंगा। मैं एक प्रोफ़ेशनल हूं तो सभी के लिए हूं। किसी ख़ास पार्टी के लिए नहीं हूं। अर्थव्यवस्था को लेकर जो मेरी समझ है वो पार्टी के हिसाब से नहीं बदलेगी। अगर कोई मुझसे सवाल पूछेगा तो मैं उसके सवाल पूछने के मक़सद पर सवाल नहीं खड़ा करूंगा। मैं उन सवालों का जवाब दूंगा।''
अभिजीत ने कहा, ''मैंने भारत में कई राज्य सरकारों के साथ काम किया है। इसमें बीजेपी की भी सरकारें हैं। मैंने गुजरात में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के साथ मिलकर काम किया है। तब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ही थे और मेरा तब का अनुभव बहुत बढ़िया रहा था। मुझे उस वक़्त किसी राजनीतिक व्यक्ति के तौर पर नहीं देखा गया था बल्कि एक विशेषज्ञ के तौर पर लिया गया और उन्होंने उन नीतियों को लागू भी किया था। मैं एक प्रोफ़ेशनल हूं तो वही हूं और ऐसा सबके लिए हूं। मैंने हरियाणा में खट्टर के साथ भी काम किया है।''
अभिजीत बनर्जी पर वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल की टिप्पणी को लेकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने ट्वीट कर मोदी सरकार को निशाने पर लिया है। राहुल ने ट्वीट कर कहा, ''प्रिय अभिजीत बनर्जी, नफरत ने इन हठियों को अंधा बना दिया है। इन्हें इस बात का कोई इल्म नहीं है कि एक प्रोफ़ेशनल क्या होता है। आप दशकों तक कोशिश करते रह जाएंगे लेकिन ये नहीं समझेंगे। इतना तय है कि लाखों भारतीयों को आपके काम पर गर्व है।
नोबेल मिलने के बाद एमआईटी में पत्रकारों से बातचीत में अभिजीत बनर्जी ने कहा था कि राजकोषीय घाटा और मुद्रा स्फीति के संतुलन के लक्ष्य से चिपके रहने से भारतीय अर्थव्यवस्था में आई सुस्ती नहीं जाएगी। आख़िर इसका मतलब क्या है?
इस सवाल के जवाब में अभिजीत ने हिन्दुस्तान टाइम्स से कहा, ''मुझे नहीं लगता है कि यह कोई रॉकेट साइंस है। भारतीय अर्थव्यवस्था में जो कुछ हो रहा है उसके मूल्यांकन के आधार पर ही ऐसा कह रहा हूं। भारत की अर्थव्यवस्था में सुस्ती मांगों में कमी के कारण है। अगर हमारे पास पैसा नहीं है तो बिस्किट नहीं ख़रीदेंगे और बिस्किट कंपनी बंद हो जाएगी। मुझे लगता है कि मांग को बढ़ाना चाहिए। मतलब लोगों के पास पैसे हों ताकि खर्च कर सकें। ओबामा सरकार ने अमरीका में यही किया था। इसका विचारधारा से कोई मतलब नहीं है। भारत की अर्थव्यवस्था में आई सुस्ती मांगों में कमी के कारण है।''
अभिजीत बनर्जी की किताब में कहा गया है कि भारत तेज़ गति से वृद्धि दर हासिल करने के लिए ऐसी नीतियों पर चल रहा है जिनसे ग़रीबों की मुश्किलें बढ़ रही हैं। इसका मतलब क्या है?
इसके जवाब में अभिजीत बनर्जी ने कहा, ''ऐसा कई देशों में हुआ है। अमरीका और ब्रिटेन में क्या हुआ? 1970 के दशक में इन देशों की वृद्धि दर में गिरावट आई तो वो कभी संभल नहीं पाई। उन्हें कोई आडिया नहीं था कि ये गिरावट क्यों है? तब इसके लिए कहा गया कि ज़्यादा टैक्स और ज़्यादा पुनर्वितरण इसके लिए ज़िम्मेदार है। बाद में इनमें कटौती की गई। यह रीगन और थैचर शैली की अर्थव्यवस्था थी।''
क्या भारत की अर्थव्यवस्था इसी ओर बढ़ रही है?
इसके जवाब में अभिजीत ने कहा, ''नहीं, मैं ये कह रहा हूं कि इस तरह की गिरावट में सरकारों की ये स्वाभाविक प्रतिक्रिया होती है। हमलोग ये कह रहे हैं कि हमें इस बात को लेकर आगाह होना चाहिए कि ऐसी नीतियों से अमरीका और ब्रिटेन को कोई मदद नहीं मिली थी। बल्कि इन नीतियों से विषमता बढ़ी है। इन नीतियों से वैसी अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलता है जो ट्रंप कर रहे हैं और जिससे ब्रेग्ज़िट को हवा मिली।''
तो भारतीय अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए क्या करना होगा?
इसके जवाब में अभिजीत बनर्जी ने हिन्दुस्तान टाइम्स से कहा, ''मैं कोई मैक्रो इकनॉमिस्ट नहीं हूं। लेकिन अगर मैं नीति निर्माता होता तो पहले व्यापक रूप से डेटा जुटाता। इसके बाद अगर मैं इस निर्णय पर पहुंचता कि यह मांग आधारित समस्या है तो मैं ग़रीबों के हाथों में पर्याप्त पैसे देता। ये ऐसी बात है जिसमें मैं पूरी तरह से भरोसा करता हूं। ओबामा प्रशासन ने भी यही काम किया था। यह कोई नई बात नहीं है।''
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने कहा है कि भारत ने अर्थव्यवस्था की बुनियादी बातों पर काम किया है लेकिन कुछ ऐसी चीज़ें हैं जो लंबी अवधि के विकास के लिए ज़रूरी हैं उन पर काम किए जाने की ज़रूरत है।
आईएमएफ़ की प्रबंध निदेशक क्रिस्टलीना जॉर्जिवा ने गुरुवार को वाशिंगटन में संवाददाताओं से कहा, "भारत ने अर्थव्यवस्था की बुनियादी बातों पर काम किया है लेकिन कुछ ऐसी समस्याएं हैं जिस पर काम किए जाने की ज़रूरत है। वित्तीय क्षेत्र में बैंकिंग सेक्टर, विशेष रूप से गैर-बैंकिंग संस्थाओं में सुधार किए जाने की ज़रूरत है।''
आईएमएफ़ ने मंगलवार को अपनी वर्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक की ताज़ा रिपोर्ट में भारत के विकास दर के अनुमान को 0.90 बेसिस पॉइंट घटाते हुए 6.1 फ़ीसदी कर दिया है।
यह इस साल तीसरी बार है जब आई एम एफ़ ने भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास दर में कटौती की है।
जुलाई के महीने में ही आईएमएफ़ ने 2019-20 में भारतीय विकास दर के 7 फ़ीसदी रहने का अनुमान लगाया था जबकि इसी वर्ष अप्रैल में इसके 7.3 फ़ीसदी रहने की बात की थी।
हालांकि आई एम एफ़ ने 2020-21 में इसमें सुधार की उम्मीद भी जताई है।
बुल्गारिया की इकोनॉमिस्ट क्रिस्टलीना जॉर्जिवा सितंबर के अंत में ही आई एम एफ़ की प्रमुख बनी हैं। क्रिस्टलीना के इस पद पर आने के बाद पहली बार ये आंकड़े आए हैं।
जॉर्जिवा ने कहा, "भारत को उन चीज़ों पर काम जारी रखना होगा जो लंबे समय तक विकास की गति को बनाए रखने के लिए ज़रूरी हैं। साथ ही जॉर्जिवा का कहना था कि भारत सरकार अर्थव्यवस्था में सुधार लाने के लिए काम कर रही है, लेकिन भारत को अपने राजकोषीय घाटे पर लगाम लगानी होगी।''
हालांकि जॉर्जिवा ने कहा, "बीते कुछ वर्षों में भारत में विकास दर बहुत मजबूत रही है और आईएमएफ़ अभी भी उसके लिए बेहद मजबूत विकास दर का अनुमान लगा रही है।''
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के विकास दर को 6.1 फ़ीसदी किए जाने पर भारत की केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का भी बयान आया है।
आई एम एफ़ और विश्व बैंक की वार्षिक बैठक में भाग लेने वाशिंगटन पहुंचीं सीतारमण ने कहा, "भारत दुनिया की सबसे तेज़ी से विकसित होती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है और आई एम एफ़ ने भले ही विकास दर के अनुमानों को घटा दिया है, लेकिन अब भी भारत की अर्थव्यवस्था सबसे तेज़ी से विकास कर रही है।''
निर्मला सीतारमण ने यह भी कहा, "मैं चाहती हूं कि यह और तेज़ी से विकास कर सके। इसके लिए मैं हरसंभव कोशिश करूंगी, लेकिन सच यह है कि भारत अब भी तुलनात्मक रूप से तेज़ी से विकास कर रहा है।''
मंगलवार को ही अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) ने कहा था कि "एक दशक पहले आए वित्तीय संकट के बाद पहली बार सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था इतनी सुस्त दिखाई दे रही है।''
भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर आई एम एफ़ ने अपनी रिपोर्ट में कहा, ''कुछ गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थाओं की कमज़ोरी और उपभोक्ता और छोटे और मध्यम दर्जे के व्यवसायों के कर्ज़ लेने की क्षमता पर पड़े नकारात्मक असर के कारण भारत की आर्थिक विकास दर के अनुमान में कमी आई है।''
आईएमएफ़ के मुताबिक़, "लगातार घटती विकास दर का कारण घरेलू मांग का उम्मीद से अधिक कमज़ोर रहना है। मानव पूंजी में निवेश भारत की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। कामगारों में महिलाओं की तादाद लगातार बढ़ाते रहने की ज़रूरत है। यह बेहद महत्वपूर्ण है। भारत में महिलाएं बहुत प्रतिभाशाली हैं लेकिन वे घर पर रहती हैं।''
मुद्राकोष ने अनुमान लगाया है कि इस साल पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था में कुल मिलाकर मात्र 3 फ़ीसदी ही विकास होगा लेकिन इसके 2020 में 3.4 फीसदी तक रहने की उम्मीद है।
आईएमएफ़ ने यह भी कहा, "वैश्विक अर्थव्यवस्था सुस्ती के दौर में है और हम 2019 के विकास दर को एक बार फिर से घटाकर 3 फ़ीसदी पर ले जा रहे हैं जो कि दशक भर पहले आए संकट के बाद से अब तक के सबसे कम है।''
ये जुलाई के वैश्विक विकास दर के उसके अनुमान से भी कम है। जुलाई में यह 3.2 फ़ीसदी बताई गई थी।
आईएमएफ़ ने कहा, "आर्थिक वृद्धि दरों में आई कमी के पीछे विनिर्माण क्षेत्र और वैश्विक व्यापार में गिरावट, आयात करों में बढ़ोतरी और उत्पादन की मांग बड़े कारण हैं।''
आईएमएफ़ ने कहा, ''इस समस्या से निपटने के लिए नीति निर्माताओं को व्यापार में रूकावटें ख़त्म करनी होंगी, समझौतों पर फिर से काम शुरू करना होगा और साथ ही देशों के बीच तनाव कम करने के साथ-साथ घरेलू नीतियों में अनिश्चितता ख़त्म करनी होगी।''
आईएमएफ़ का मानना है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में आई सुस्ती के कारण इस साल दुनिया के 90 फ़ीसदी देशों में वृद्धि दर कम ही रहेगी।
आईएमएफ़ ने कहा है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था 2020 में तेज़ी से 3.4 फ़ीसदी तक जा सकती है।
हालांकि इसके लिए उसने कई ख़तरों की चेतावनी भी दी है क्योंकि यह वृद्धि भारत में आर्थिक सुधार पर निर्भर होने के साथ-साथ वर्तमान में गंभीर संकट से जूझ रही अर्जेंटीना, तुर्की और ईरान की अर्थव्यवस्था पर भी निर्भर करती है।
उन्होंने कहा, "इस समय पर कोई भी गलत नीति जैसे कि नो-डील ब्रेक्सिट या व्यापार विवादों को और गहरा करना, विकास और रोज़गार सृजन के लिए गंभीर समस्या पैदा कर सकती है।''
आईएमएफ़ के अनुसार, कई मामलों में सबसे बड़ी प्राथमिकता अनिश्चितता या विकास के लिए ख़तरों को दूर करना है।
शीत युद्ध के दौरान सऊदी अरब के बेहद गंभीर माने जाने वाले कुछ लोग रूसी नेताओं को 'गॉडलेस कम्युनिस्ट' कहा करते थे।
तब यह अकल्पनीय था कि किसी रूसी नेता का सऊदी अरब में तहे दिल से स्वागत होता लेकिन चीज़ें अब बहुत बदल चुकी हैं और इस हफ़्ते रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का वहां ज़ोरदार स्वागत किया गया।
उन्हें 12 बंदूकों की सलामी दी गई। समारोह में किंग सलमान बिन अब्दुल अज़ीज़ अल सउद और क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन-सलमान भी शामिल थे।
अमेरिका ने उत्तरी सीरिया में कुर्दों को उनके हाल पर छोड़ दिया। इसके बाद सऊदी अरब ने रूस के साथ कई द्विपक्षीय समझौते किए और क्षेत्रीय स्थिति की समीक्षा भी की गई।
तो क्या अब सऊदी अरब रूस के क़रीब आ रहा है? इसकी मुख्य वजह क्या है?
रूस के राष्ट्रपति पुतिन अपने 12 वर्षों के कार्यकाल में पहली बार सऊदी अरब गए। यह दौरा जितना अभूतपूर्व था उतना ही बहुप्रचारित भी।
उनके साथ व्यापार, सुरक्षा और रक्षा अधिकारियों का एक बड़ा प्रतिनिधिमंडल गया था, जिसने वहां 2 अरब डॉलर के द्विपक्षीय सौदे किए और इस दौरान 20 से भी अधिक समझौतों की घोषणा की गई।
सऊदी अरब ने रूस को 14 सितंबर को सरकारी तेल कंपनी अरामको पर हुए ड्रोन हमलों में चल रही अंतरराष्ट्रीय जांच में भी शामिल होने का न्योता दिया।
रक्षा मामलों में रूस की एयर डिफेंस मिसाइल एस-400 की ख़रीद और भविष्य में उसकी तैनाती पर भी संभावित चर्चा हुई जो कि अमरीका के लिए एक राजनयिक झटके के समान है।
जब 2017 में तुर्की ने रूस से एस-400 मिसाइल डिफ़ेन्स सिस्टम ख़रीदने का सौदा किया था तो अमरीका ने कहा था कि यदि तुर्की ऐसा करता है तो वो एफ़ 35 युद्धक विमान देने के सौदे को रद्द कर देगा।
बीते दिनों रूस के साथ अपने सौदे पर तुर्की आगे बढ़ा तो अब अमरीका ने उसके साथ एफ़ 35 के सौदे को रद्द कर दिया है।
सऊदी अरब और रूस के बीच जून 2018 से ही द्विपक्षीय व्यापार में वृद्धि हुई है और हाल ही में दोनों के बीच तेल उत्पादन पर प्रतिबंध लगाने को लेकर हुए सहयोग के बाद तेल की वैश्विक क़ीमतों में इजाफा हुआ है।
व्लादिमीर पुतिन के इस दौरे के दौरान ही रूसी प्रत्यक्ष निवेश कोष (आरडीआईएफ़) ने भी निवेश को लेकर घोषणाएं की हैं।
ये सभी सऊदी अरब और रूस के बीच संबंधों में गर्मजोशी के संकेत देते हैं जो कि 1980 के दशक में अफ़ग़ान मुजाहिदीन को लेकर तल्ख थीं।
तो रूस और सऊदी अरब के बीच संबंध बढ़ने की वजह आख़िर क्या है?
स्पष्ट शब्दों में कहें तो आज सऊदी अरब को अमरीका और पश्चिम के देशों पर उतना भरोसा नहीं रह गया जितना वो पहले किया करता था।
लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं कि वो रूस पर भरोसा करने लगा है। लेकिन मध्य-पूर्व में इस एक दशक की घटनाओं से सऊदी अरब थिंक टैंक इस पर फिर से विचार कर रहे हैं।
सबसे बड़ा झटका अरब स्प्रिंग प्रोटेस्ट 2011 से लगा। जब अमरीकी दबाव से जिस तेज़ी से तीन दशक तक मिस्र के राष्ट्रपति रहे होस्नी मुबारक की सत्ता ख़त्म हुई उससे सऊदी अरब और खाड़ी के अन्य साम्राज्य में ख़ौफ़ बैठ गया।
इसके विपरीत, वे इस पर भी ध्यान नहीं दे सके कि रूस चारों ओर से घिरे मध्य-पूर्व के सहयोगी सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद के समर्थन में खड़ा है।
इसके बाद अगला झटका तब लगा जब तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 2015 में ईरान परमाणु समझौता को समर्थन दिया था। सऊदी अरब इससे बेहद असहज हुआ था। उन्हें अंदेशा हुआ, जो कि सही है कि ओबामा प्रशासन की मध्य-पूर्व में रूचि ख़त्म हो रही है।
जब नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने 2017 में अपने पहले विदेशी दौरे के लिए सऊदी अरब को चुना तो उन्हें बहुत ख़ुशी हुई। अमरीका के साथ उनके संबंध पटरी पर लौटते दिखे जब अरबों डॉलर के सौदों की घोषणा की गई।
लेकिन अक्टूबर 2018 में सऊदी पत्रकार जमाल ख़ाशोज़्ज़ी की सऊदी सरकार के एजेंटों ने हत्या कर दी तो दुनिया भर में इसकी बड़े पैमाने पर आलोचना की गई।
सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान की इसमें संदिग्ध भागीदारी को लेकर पश्चिम के नेताओं ने उनसे दूरियां बनानी शुरू कर दीं। ब्यूनस आयर्स में हुए जी-20 शिखर सम्मेलन में वे अलग-थलग पड़ गए। लेकिन यहां पुतिन उनसे बहुत उत्साह से मिले।
हालांकि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने सऊदी नेतृत्व के साथ अच्छे संबंध की वकालत की लेकिन अरब प्रशासन अब भी इस क्षेत्र के प्रति अमरीका के अप्रत्याशित और अव्यवहारिक दृष्टिकोण को लेकर निराश है।
इस हफ़्ते सऊदी अरब के ब्रिटेन में राजदूत प्रिंस ख़ालिद बिन बनदर ने उत्तरी सीरिया में तुर्की की घुसपैठ को 'आपदा' बताया है।
रूस के साथ संबंधों में आई गर्मी के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि "पश्चिमी देशों की तुलना में रूस पूर्व के देशों को बेहतर समझता है।''
सीरिया में गृह युद्ध के आठ सालों के दौरान रूस ने असद शासन को बचाने में मदद पहुंचाई है। उसने न केवल अपने आधुनिक सैन्य हथियारों का प्रदर्शन किया बल्कि साथ-साथ रणनीतिक पैर भी पसारे हैं।
अमरीका ने सऊदी अरब एयर डिफेंस को सैन्य उपकरण बेचे, जो 14 सितंबर को अरामको पर हुए ड्रोन हमलों को रोकने में नाकाम रहे। अमरीका और सऊदी दोनों के संबंध ख़ाशोज्जी हत्याकांड के बाद भी असहज हुए हैं।
सऊदी और खाड़ी के उसके सहयोगी देश पश्चिम पर अपनी निर्भरता को कम करने की कोशिश कर रहे हैं।
इन सभी घटनाओं को एक परिप्रेक्ष्य में देखने की ज़रूरत है।
अमरीका अब भी सऊदी अरब का प्रमुख सुरक्षा साझेदार है। इसकी शुरुआत अमरीकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूज़वेल्ट और सऊदी किंग अब्दुल अज़ीज इब्न सौद की एक अमरीकी युद्धपोत पर मुलाक़ात से 1945 में हुई थी।
तब सऊदी अरब ने भविष्य में तेल की आपूर्ति बनाए रखने की गारंटी दी तो अमरीका ने सुरक्षा मुहैया कराने की। लेकिन उस समझौते के बाद भी स्थिति ढुलमुल रही जो अब तक बनी हुई है।
खाड़ी के सभी छह अरब देशों में आज अमरीकी सेना का बेस है। अमरीकी नौसेना की पांचवीं फ्लीट जिसका मुख्यालय बहरीन में है और ये इस इलाक़े की सबसे ताक़तवर सेना है।
जब ट्रंप सऊदी अरब आए थे तो 100 अरब डॉलर से अधिक की डील की घोषणा की गई थी। पुतिन के साथ इस हफ़्ते महज दो बिलियन डॉलर के समझौते ही हुए हैं।
लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि मध्य-पूर्व में गठबंधनों की संरचनाएं न केवल हिल रही हैं बल्कि इसमें काफ़ी बदलाव आ रहे हैं। आने वाले समय में सऊदी अरब में रूस और चीन के और भी दौरे होने की उम्मीद है।
अमरीका अब भी सऊदी की मेज पर बैठा प्रमुख सहयोगी है लेकिन अब इसके इर्द-गिर्द और कई मेहमान बैठे हैं।
तुर्की के बढ़ते सैन्य अभियान के बीच कुर्द बलों और सीरियाई सरकार के बीच आपसी मदद के लिए सहमति बन गई है। इसके घंटों बाद सीरियाई सेना कुर्दों की मदद के लिए देश के उत्तर की ओर बढ़ रही है।
सीरियाई सरकारी मीडिया के अनुसार रूस समर्थित सेना ने तुर्की की सीमा से 30 किलोमीटर दूर दक्षिण में ताल तामेर शहर में प्रवेश कर लिया है। सरकारी मीडिया के अनुसार सेना ने मानबिज शहर में भी प्रवेश कर लिया है जहां तुर्की सीरिया से विस्थापित हुए लोगों को बसाने के लिए सेफ़ ज़ोन बनाना चाहता है।
रविवार को कुर्दों के मुख्य सहयोगी अमरीका ने सीरिया में मौजूद अपने सभी सैनिकों को बाहर निकालने की घोषणा की थी जिसके बाद सीरियाई सरकार का यह फैसला आया है।
तुर्की के हमले का मक़सद कुर्द बलों को अपनी सीमा क्षेत्र से पीछे खदेड़ना है।
कुर्द नेतृत्व वाले सीरियाई डेमोक्रेटिक फोर्सेस (एसडीएफ़) के कब्ज़े वाले क्षेत्रों में रविवार को भारी बमबारी हुई। इस दौरान तुर्की को रास अल-ऐन और तल आब्यद के प्रमुख सीमावर्ती शहरों में सफलता मिली है।
इन हमलों में दोनों तरफ से दर्जनों नागरिक और लड़ाके मारे गए हैं।
रविवार को अमरीकी रक्षा मंत्री मार्क ऐस्पर ने सीरिया से अमरीकी सैनिकों के हटाए जाने की घोषणा की थी। राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के उत्तर सीरिया से अमरीकी सैनिकों को वापस बुलाने के विवादास्पद फ़ैसले के कुछ दिन बाद ही तुर्की ने सीरिया के कुछ इलाकों पर हमला किया था।
ट्रंप के फ़ैसले और तुर्की के हमले की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आलोचना हो रही है। सीरिया में इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ युद्ध में सीरियाई डेमोक्रेटिक फोर्सेस पश्चिमी देशों का मुख्य सहयोगी रहा है।
और अब इस अस्थिरता के बीच कथित चरमपंथी संगठन इस्लामिक स्टेट के दोबारा सक्रिय होने और इससे जुड़े कैदियों के भागने के बारे में आशंकाएं जताई जा रहीं हैं।
हाल ही में एसडीएफ़ और कुर्द नेतृत्व में लड़ रहे लड़ाकों ने कहा था कि तुर्की की सेना के हमले के कारण हालात बिगड़े तो वो कैम्पों में रह रहे कथित चरमपंथी संगठन इस्लामिक स्टेट के संदिग्ध लड़ाकों के परिवारों की रक्षा नहीं कर पाएंगे।
उत्तरी सीरिया में कुर्द नेतृत्व वाले प्रशासन के अनुसार रविवार को हुए समझौते के बाद सीरियाई सेना को कुर्द बलों द्वारा नियंत्रित सीमावर्ती क्षेत्रों में जाने की अनुमति मिल जाएगी। यहां से वो तुर्की के हमले के खिलाफ़ कुर्दों की मदद कर सकेंगे।
2012 के बाद यह पहली बार है जब सीरियाई सैनिक इन क्षेत्रों में प्रवेश करेंगे। उस वक्त़ राष्ट्रपति बशर अल-असद का समर्थन कर रही सेना दूसरे इलाकों में विद्रोहियों से निपटने पर ध्यान केंद्रित करने के लिए इस इलाके से पीछे हट गई थी। इस इलाके का नियंत्रण कुर्दों को दे दिया गया था।
कई मुद्दों पर कुर्दों से असहमत होने के बावजूद राष्ट्रपति असद ने इस क्षेत्र को फिर से लेने की कभी कोशिश नहीं की। ख़ासतौर पर तब जब इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ अंतरराष्ट्रीय गठबंधन में कुर्द इस क्षेत्र में अमरीकी सैनिकों के साथ साझेदार बन गए।
चूंकि डोनल्ड ट्रंप के उत्तर सीरिया से अमरीकी सैनिकों को वापस बुलाने के फ़ैसले के कुछ ही दिन बाद तुर्की ने ये हमला किया है। ऐसे में कुर्दों का कहना है कि वे अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के अपनी सेना को वापस बुलाने के फ़ैसले को धोखे की तरह देखते हैं।
ये भी कहा जा रहा है कि ट्रंप के इस कदम से तुर्की को एक तरह की हरी झंडी मिल गई है। तुर्की कुर्दों को चरमपंथी मानता है।
फिलहाल के लिए, सीरियाई सेना को तल आब्यद और रास अल-ऐन शहरों के बीच तैनात नहीं किया जाएगा। ताल तामेर के अलावा सैनिक ऐन इस्सा में भी पहुंचे हैं। सरकारी मीडिया के अनुसार सेना के पहुंचने पर लोगों ने जश्न मनाया जिसकी तस्वीरें भी प्रसारित की गईं हैं।
तुर्की पर सैन्य अभियान रोकने का दबाव बढ़ रहा है लेकिन राष्ट्रपति रिचेप तैयप्प अर्दोआन ने कहा है कि यह अभियान जारी रहेगा। सोमवार को उन्होंने कहा कि तुर्की पीछे नहीं हटेगा। इस पर कोई क्या कहता है इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।
तुर्की कुर्दों को सीरिया में 32 किलोमीटर अंदर तक बन रहे 'सेफ़ ज़ोन' से बाहर धकेलना चाहता है। तुर्की ने यहां करीब 20 लाख से ज्यादा सीरियाई शरणार्थियों को फिर से बसाने की योजना बनाई है जो इस समय तुर्की में है। इनमें से ज़्यादातर कुर्द नहीं हैं।
अर्दोआन की करीबी सहयोगी रहे रूसी सरकार ने कहा कि वह सीरिया में रूसी और तुर्की बलों के बीच संघर्ष की कोई संभावना नहीं चाहती है और वह तुर्की के अधिकारियों के साथ लागतार संपर्क में है।
इससे पहले, राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा था कि कुर्द बलों ने अमरीका को संघर्ष में घसीटने के लिए इस्लामिक स्टेट के कैदियों को रिहा किया गया हो सकता है। उन्होंने आगे कहा, ''तुर्की पर बड़ा प्रतिबंध लगाया जाएगा।''
इन हमलों में अब तक सीरिया में कम से कम 50 और दक्षिण तुर्की में 18 आम नागरिक मारे गए हैं। कुर्द बलों ने अपने 56 लड़ाकों की मौत की पुष्टि की है।
तुर्की का कहना है कि सीरिया में उसके चार सैनिक और 16 तुर्की समर्थित सीरियाई लड़ाके भी मारे गए हैं।
संयुक्त राष्ट्र मानवीय एजेंसी ने कहा कि एक लाख साठ हज़ार से अधिक नागरिक विस्थापित हुए हैं और यह संख्या बढ़ने की उम्मीद है।
रविवार को कुर्द अधिकारियों ने बताया कि इस्लामिक स्टेट से जुड़े करीब 800 लोग उत्तरी सीरिया में एक शिविर से भाग निकले हैं।
उन्होंने बताया कि बंदियों ने ऐन इस्सा के विस्थापन शिविर के गेट पर हमला किया। इस इलाक़े के नज़दीक ही लड़ाई चल रही है।
सीरियन डेमोक्रेटिक फोर्सेस के अनुसार शिविर में सात जेलों में इस्लामिक स्टेट से जुड़े करीब 12,000 संदिग्ध लोगों को रखा गया है जिनमें से लगभग 4,000 विदेशी महिलाएं और बच्चे हैं जिनका संबंध इस्लामिक स्टेट के लड़ाकों से है।
तुर्की ने कहा है कि वह आईएस के उन कैदियों की जिम्मेदारी लेगा जो उसे हमले के दौरान मिलेंगे।
तुर्की ने ये दावा किया है कि वो उत्तरी सीरिया में अपने कदम बढ़ा रहा है। रविवार को तुर्की के राष्ट्रपति रिचेप तैय्यप अर्दोआन ने कहा कि सुरक्षा बलों ने 109 वर्ग किलोमीटर के इलाके में अपना कब्ज़ा कर लिया है।
इमरान ख़ान पिछले साल अगस्त में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने और नवंबर में मलेशिया के दौरे पर गए।
इमरान ख़ान से तीन महीने पहले 2018 में ही 92 साल के महातिर मोहम्मद फिर से मलेशिया के प्रधानमंत्री बने थे। इमरान और महातिर के चुनावी कैंपेन में भ्रष्टाचार सबसे बड़ा मुद्दा था। इसके साथ ही दोनों देशों पर चीन का क़र्ज़ भी बेशुमार बढ़ रहा था।
महातिर राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी हैं। वो 1981 से 2003 तक इससे पहले सत्ता में रह चुके थे। वहीं इमरान ख़ान इससे पहले केवल क्रिकेट के खिलाड़ी थे। महातिर ने आते ही चीन के 22 अरब डॉलर की परियोजना को रोक दिया और कहा कि यह बिल्कुल ग़ैरज़रूरी थी।
दूसरी तरफ़ इमरान ख़ान ने वन बेल्ट वन रोड के तहत पाकिस्तान में चीन की 60 अरब डॉलर की परियोजना को लेकर उतनी ही बेक़रारी दिखाई जैसी बेक़रारी नवाज़ शरीफ़ की थी।
नवंबर 2018 में जब इमरान ख़ान क्वालालंपुर पहुँचे तो उनका स्वागत किसी रॉकस्टार की तरह किया गया। इमरान ख़ान ने कहा कि मलेशिया और पाकिस्तान दोनों एक पथ पर खड़े हैं।
इमरान ख़ान ने कहा था, ''मुझे और महातिर दोनों को जनता ने भ्रष्टाचार से आजिज आकर सत्ता सौंपी है। हम दोनों क़र्ज़ की समस्या से जूझ रहे हैं। हम अपनी समस्याओं से एक साथ आकर निपट सकते हैं। महातिर ने मलेशिया को तरक्की के पथ पर लाया है। हमें उम्मीद है कि महातिर के अनुभव से हम सीखेंगे।''
दोनों मुस्लिम बहुल देश हैं।
इमरान ख़ान और मलेशिया के क़रीबी की यह शुरुआत थी। भारत और पाकिस्तान में जब भी तनाव की स्थिति बनी तो इमरान ख़ान ने महातिर मोहम्मद को फ़ोन किया। कहा जाता है कि इमरान ख़ान के शुरुआती विदेशी दौरे में मलेशिया एकमात्र देश था जिससे इमरान ख़ान ने क़र्ज़ नहीं मांगा।
महातिर मोहम्मद के शासन काल में पाकिस्तान मलेशिया के सबसे क़रीब आया। पाकिस्तान और मलेशिया के बीच 2007 में इकनॉमिक पार्टनरशिप एग्रीमेंट हुआ था।
इमरान ख़ान के दौरे पर महातिर ने पाकिस्तान को ऊर्जा सुरक्षा में मदद करने की प्रतिबद्धता जताई थी। पाँच अगस्त को जब भारत ने जम्मू-कश्मीर को मिले विशेष दर्जे को ख़त्म करने की घोषणा की तो महातिर उन राष्ट्र प्रमुखों में शामिल थे जिन्हें इमरान ख़ान ने फ़ोन कर समर्थन मांगा और महातिर ने इमरान को समर्थन दिया।
जब कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में गया तब भी मलेशिया पाकिस्तान के साथ था। यहां तक पिछले महीने संयुक्त राष्ट्र की आम सभा में भी मलेशियाई प्रधानमंत्री ने कश्मीर का मुद्दा उठाया और भारत को घेरा। भारत के लिए यह किसी झटके से कम नहीं था।
आख़िर मलेशिया पाकिस्तान के साथ क्यों है? साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट से नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ मलेशिया में स्ट्रैटिजिक स्टडीज के एक्सपर्ट रविचंद्रन दक्षिणमूर्ति ने कहा, ''मलेशिया और पाकिस्तान के बीच लंबे समय से अच्छे रिश्ते रहे हैं। 1957 में मलेशिया की आज़ादी के बाद पाकिस्तान उन देशों में शामिल था जिन्होंने सबसे पहले संप्रभु देश के रूप में मान्यता दी।''
रविचंद्रन ने कहा, ''पाकिस्तान और मलेशिया दोनों कई इस्लामिक संगठन और सहयोग से जुड़े हुए हैं। इन दोनों के संबंध में चीन का मामला बिल्कुल अलग है। मलेशिया और चीन के रिश्ते बिल्कुल सामान्य हैं लेकिन पाकिस्तान और चीन का संबंध बेहद ख़ास है। चीन पाकिस्तान में सबसे बड़ा हथियार आपूर्तिकर्ता देश है और दोनों देशों के रिश्ते भारत से अच्छे नहीं हैं। जब तक सत्ता में महातिर मोहम्मद रहे, तब तक पाकिस्तान से संबंध अच्छा रहा।''
भारत खाने में इस्तेमाल होने वाले तेलों का सबसे बड़ा आयातक देश है। भारत के रुख़ को देखते हुए मलेशिया के प्रधानमंत्री ने रविवार को कहा था कि भारत के साथ द्विपक्षीय कारोबारी संबंधों की समीक्षा की जाएगी। उन्होंने कहा था कि भारत भी मलेशिया में निर्यात करता है और दोनों के कारोबारी रिश्ते द्विपक्षीय हैं न कि एकतरफ़ा।
भारत ने कश्मीर पर मलेशिया के रुख़ से काफ़ी नाराज़गी जताई और अब कहा जा रहा है कि दोनों देशों के ट्रेड रिलेशन भी प्रभावित हो सकते हैं। समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार महातिर मोहम्मद ने कहा है कि उनकी सरकार भारत के साथ द्विपक्षीय संबंधों की समीक्षा करेगी।
रॉयटर्स की रिपोर्ट के अनुसार भारत मलेशिया से पाम तेल के आयात को सीमित कर सकता है। इसके साथ ही मलेशिया से भारत अन्य वस्तुओं के आयात पर भी फिर से विचार कर सकता है।
महातिर ने यूएन की आम सभा में कहा था कि भारत ने कश्मीर को अपने क़ब्ज़े में रखा है। हालांकि सरकार की तरफ़ से इस पर अभी कोई टिप्पणी नहीं आई है।
रॉयटर्स के अनुसार भारतीय रिफाइनर्स ने नवंबर और दिसंबर में शिपमेंट के लिए मलेशिया से पाम तेल ख़रीदना बंद कर दिया है। एजेंसी के अनुसार इन्हें डर है कि भारत सरकार आयात शुल्क बढ़ा सकता है। डर है कि भारत सरकार इसे रोकने के लिए और क़दम उठा सकता है।
सोमवार को रॉयटर्स से पाँच ट्रेडर्स ने कहा है कि उन्होंने नवंबर-दिसंबर में शिपमेंट के लिए पाम तेल ख़रीदना बंद कर दिया है। भारत मलेशिया के पाम तेल का बड़ा ख़रीदार रहा है।
भारत के इस रुख़ से मलेशिया की पाम तेल इंडस्ट्री प्रभावित हो सकती है। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत के इस फ़ैसले से इंडोनेशिया को फ़ायदा हो सकता है।
रॉयटर्स ने भारत के वाणिज्य मंत्रालय से इस मामले में संपर्क साधा लेकिन कोई जवाब नहीं मिला है। मुंबई के कारोबारी ने रॉयटर्स से कहा, ''मलेशिया से कारोबार करने से पहले हमें स्पष्टीकरण चाहिए अगर सरकार की तरफ़ से कोई स्पष्टीकरण नहीं आया तो हम इंडोनेशिया से व्यापार शुरू कर देंगे। मुंबई में वेजिटेबल ऑइल कंपनी के सीईओ संदीप बजोरिया ने कहा, ''दोनों तरफ़ के बिजनेसमैन कन्फ़्यूज्ड हैं। हमें नहीं पता कि क्या होने वाला है?''
भारत में खाने में इस्तेमाल किए जाने वाले तेलों में पाम तेल का हिस्सा दो तिहाई है। भारत हर साल 90 लाख टन पाम तेल आयात करता है। यह आयात मुख्य रूप से मलेशिया और इंडोनेशिया से होता है।
2019 के पहले नौ महीनों में भारत ने मलेशिया से 30.9 लाख टन पाम तेल का आयात किया। मलेशियाई पाम ऑइल बोर्ड के डेटा के अनुसार भारत का मलेशिया से मासिक आयात चार लाख 33 हज़ार टन है।
महातिर जब तक सत्ता में रहे, तब तक पाकिस्तान से संबंध अच्छा रहा है। 2003 में उनके रिटायर होने के बाद भारत से मलेशिया की क़रीबी बढ़ी थी। पिछले साल जब एक फिर से महातिर की हैरान करने वाली वापसी हुई तो फिर से पाकिस्तान से क़रीबी बढ़ी।
इमरान ख़ान लगभग 14 महीने पहले पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने। तब से तीसरी बार चीन के दौरे पर मंगलवार को बीजिंग पहुंचे। चीन की राजधानी पहुंचने से कुछ घंटे पहले पाकिस्तान के सैन्य प्रवक्ता ने ट्विटर पर बताया कि पाकिस्तान के सेना प्रमुख क़मर जावेद बाजवा चीनी सैन्य नेतृत्व के साथ बैठक करने पहुंचे हैं। ट्वीट में लिखा गया कि इमरान ख़ान के साथ चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और प्रधानमंत्री ली केक़ियांग की बैठक में बाजवा भी शामिल होंगे।
पाकिस्तान और चीन अपनी दोस्ती को हिमालय से भी मजबूत और शहद से भी मीठा बताते रहे हैं।
हालांकि, पाकिस्तानी राजनैतिक नेतृत्व का यह दौरा चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के भारत दौरे से ठीक पहले हुआ है। उधर भारत के कश्मीर में 5 अगस्त से भारत सरकार की लगाई पाबंदियों के दो महीने पूरे हो चुके हैं। लिहाजा विश्लेषक सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण इमरान के इस दौरे में बहुत दिलचस्पी ले रहे हैं।
बीबीसी से बातचीत में पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी ने कहा कि दोनों देशों के बीच आर्थिक सहयोग, ख़ासकर चीन-पाकिस्तान के बीच आर्थिक गलियारे पर दूसरे चरण की बातचीत इस दौरे का सबसे बड़ा एजेंडा है।
हालांकि, उन्होंने कहा कि चीन और पाकिस्तान सभी मसलों पर एक दूसरे से सहयोग करते हैं, जिसमें द्विपक्षीय समेत सभी वैश्विक मुद्दे भी हैं, लिहाजा इस दौरे को एक निरंतर चली आ रही प्रक्रिया के रूप में देखा जाना चाहिए। ख़ासकर चीन के राष्ट्रपति के भारत दौरे से पहले।
क़ुरैशी ने कहा, "भारत जाने से पहले राष्ट्रपति शी जिनपिंग पाकिस्तान से सलाह लेना चाहते हैं, वे पाकिस्तान के नज़रिए से पूरी तरह वाकिफ़ होना चाहते हैं।''
पाकिस्तान के विदेश मंत्री का मानना है कि इस तरह के मुद्दों पर बाचतीत हो सकती है जिससे राष्ट्रपति जिनपिंग को भारत जाने से पहले पाकिस्तान की स्थिति का भलीभांति ज्ञान हो। उनका इशारा कश्मीर में अनुच्छेद 370 और 35ए के निरस्त किए जाने के बाद से ताज़ा राजनीतिक माहौल और सैन्य झड़पों की तरफ था।
पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय से जारी इस दौरे के विस्तृत ब्योरे के अनुसार प्रधानमंत्री इमरान ख़ान अपने तीन दिवसीय इस दौरे के दौरान आर्थिक सहयोग के कई समझौते और मसौदे पर हस्ताक्षर करेंगे।
आधिकारिक बयान के मुताबिक प्रधानमंत्री इमरान ख़ान 5 अगस्त 2019 के बाद से भारतीय कश्मीर में पैदा हुए शांति और सुरक्षा के मुद्दे से जुड़ी स्थिति समेत क्षेत्रीय विकास पर विचारों का आदान प्रदान करेंगे।
पाकिस्तान चीन इंस्टीट्यूट के अध्यक्ष, मुशाहिद हुसैन सैय्यद का मानना है कि राजनीतिक और कूटनीतिक दृष्टि से इमरान ख़ान का यह दौरा बेहद महत्वपूर्ण है।
वे कहते हैं, "जिस तरह 5 अगस्त के बाद से चीन ने पाकिस्तान की स्थिति का समर्थन किया है, इस दौरे का ख़ास उद्देश्य राष्ट्रपति शी जिनपिंग के भारत दौरे से पहले पाकिस्तान और चीन के बीच राजनीतिक और रणनीतिक समन्वय बनाना है।''
मुशाहिद हुसैन सैय्यद ने बताया, "हमें चीन के समन्वय में कश्मीर पर अपनी रणनीति बनाने की ज़रूरत है क्योंकि इस विवाद में चीन भी एक पक्ष है। भारत ने अवैध तरीके से लद्दाख में चीन की ज़मीन पर कब्जा कर रखा है और इस क्षेत्र को नए केंद्र शासित प्रदेश में शामिल किया गया है। लिहाजा चीन और पाकिस्तान का नेतृत्व एक रणनीतिक सोच को लेकर एक साथ इस मुद्दे पर आगे बढ़ेगा।''
हालांकि राजनीतिक विशेषज्ञ डॉ. नज़ीर मानते हैं कि भारत द्वारा कश्मीर में की गई कार्रवाई से चीन को भी तल्खी ज़रूर हुई है। वे लद्दाख में बनाई जा रही हवाई पट्टी और उसके तह में छिपी बातों पर आई एक रिपोर्ट का उल्लेख करते हैं।
चीन इस विवादित क्षेत्र में हो रही कार्रवाइयों से खुश नहीं है। इसलिए शी जिनपिंग अपने भारत दौरे का उपयोग इस बाबत चीज़ों को बेहतर बनाने में कर सकते हैं। लेकिन समस्या यह है कि भारत ने इस पर कदम उठा लिए हैं और वो इस पर अड़ा हुआ है।
पाकिस्तान की बीमार अर्थव्यवस्था के लिए चीन के साथ आर्थिक सहयोग कितना महत्वपूर्ण है। पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने कहा है कि प्रधानमंत्री इमरान ख़ान द्विपक्षीय व्यापार, वाणिज्यिक और निवेश साझेदारी को और मजबूत बनाने के लिए चीनी व्यापार और कॉर्पोरेट सेक्टर के वरिष्ठ प्रतिनिधियों से मुलाक़ात करेंगे।
इसके अलावा, प्रधानमंत्री इमरान ख़ान चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) परियोजनाओं की गति को बढ़ाने के लिए सरकार के हालिया ऐतिहासिक फ़ैसलों से चीनी नेतृत्व को अवगत कराएंगे।
मुशाहिद हुसैन सैय्यद कहते हैं कि इस दौरे पर चीन-पाकिस्तान के आर्थिक गलियारे के विस्तार पर भी चर्चा की जाएगी।
वे कहते हैं, "अब वो अफ़ग़ानिस्तान को भी इस आर्थिक गलियारे में बतौर नया सदस्य जोड़ना चाहते हैं। इसलिए पेशावर को काबुल से जोड़ने के लिए एक परियोजना पर भी इस दौरे में विचार किया जाएगा।''
अमरीका ने कहा है कि चीन में मुस्लिम आबादी के साथ होने वाले उत्पीड़न की वजह से वह चीनी अधिकारियों पर वीज़ा प्रतिबंध लगाने जा रहा है।
इससे पहले बीते सोमवार को अमरीका ने चीन के शिनजियांग प्रांत में वीगर मुसलमानों के साथ उत्पीड़न के मामले में अमरीका में काम कर रहे 28 चीनी संस्थानों को ब्लैकलिस्ट कर दिया था।
अमरीका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने कहा कि चीन की सरकार 'एक अत्यंत दमनकारी अभियान' चला रही है। वहीं चीन ने इन आरोपों को आधारहीन बताया है।
एक बयान में पॉम्पियो ने चीनी सरकार पर वीगर, कज़ाख़, किर्गिज़ मुसलमान और अन्य अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदायों के साथ उत्पीड़न करने के आरोप लगाए हैं।
उन्होंने कहा, ''नज़रबंदी शिविरों में बड़ी संख्या में लोगों को रखा गया है, उन पर उच्चस्तर की निगरानी रखी जाती है। लोगों पर उनकी धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान दर्शाने पर कठोर नियंत्रण है।''
चीन ने अमरीका के क़दम को अस्वीकार्य बताया है।
सोमवार को चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता गेंग शुआन ने कहा, ''अमरीका ने मानवाधिकार का हवाला देकर जो मुद्दे उठाए हैं, वैसा यहां पर कुछ भी नहीं है।''
''ये तमाम आरोप और कुछ नहीं सिर्फ़ अमरीका की एक चाल है, जिससे वो चीन के आंतरिक मामलों में दखल दे सके।''
अमरीका ने जो वीज़ा प्रतिबंध लगाए हैं वो चीनी सरकार और कम्युनिस्ट पार्टी के अधिकारियों पर लागू होंगे, इसके साथ ही उनके परिजनों पर भी यह प्रतिबंध लगेंगे।
अमरीका और चीन के बीच फ़िलहाल ट्रेड वॉर चल रहा है। चीन ने हाल ही में ट्रेड वॉर पर बात करने के लिए अपना एक दल अमरीका भेजा था।
चीन के सुदूर पश्चिमी प्रांत शिनजियांग में बीते कुछ सालों से एक बड़ा सुरक्षा अभियान चल रहा है।
मानवाधिकार समूहों और संयुक्त राष्ट्र ने कहा है कि चीन ने इस प्रांत में 10 लाख से अधिक वीगर और अन्य जातीय अल्पसंख्यकों को बंदी बनाया हुआ है। यहां पर बहुत बड़े इलाक़े में बंदीगृह बनाए गए हैं।
ऐसे आरोप लगाए जाते हैं कि इन बंदीगृहों में मुसलमानों को इस्लाम छोड़ने, सिर्फ़ चीनी मंदारिन भाषा बोलने और चीन की वामपंथी सरकार के नियमों का पालन करने के लिए बाध्य किया जाता है।
लेकिन इसके उलट चीन का कहना है कि वो शिनजियांग में प्रशिक्षण शिविर चला रहा है, जिसके ज़रिए वीगर को ट्रेनिंग देकर उन्हें नौकरी हासिल करने और चीनी समाज में घुलने मिलने में मदद करेगा। इस प्रशिक्षण के ज़रिए वह चरमपंथ पर लगाम लगाने की बात भी करता है।
चीन के शिनजियांग प्रांत में बने शिविरों की अमरीका सहित कई अन्य देश मुखर निंदा कर चुके हैं।
पिछले हफ्ते, पॉम्पियो ने वैटिकन में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर आरोप लगाए थे कि चीन अपने नागरिकों से अपने गॉड की पूजा करने की जगह सरकार की पूजा करने के लिए कहता है।
इससे पहले जुलाई में 20 से अधिक देशों ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में एक संयुक्त पत्र पर हस्ताक्षर किए थे जिसमें वीगर और अन्य मुसलमानों के साथ चीन के बर्ताव की निंदा की गई थी।
इस बीच पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान भी इन दिनों चीन के दौरे पर हैं। कुछ दिन पहले जब प्रधानमंत्री इमरान ख़ान से चीन में रहने वाले वीगर मुसलमानों पर सवाल पूछा गया था तो वो कोई जवाब नहीं दे पाए थे।
14 सितंबर को अल-जज़ीरा को दिए इंटरव्यू में पत्रकार ने इमरान ख़ान से सवाल पूछा कि चीन में वीगर मुसलमानों के साथ हो रहे व्यवहार को लेकर पश्चिम के देशों में काफ़ी आलोचना हो रही है। क्या आपने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से इस मामले में कभी औपचारिक रूप से चर्चा की?
इस सवाल के जवाब में इमरान ख़ान ने कहा था, ''आपको पता है कि हम अपने मुल्क के भीतर ही कई समस्याओं से जूझ रहे हैं। मुझे इसके बारे में बहुत कुछ पता भी नहीं है। पिछले एक साल से ख़राब अर्थव्यवस्था और अब कश्मीर से हम जूझ रहे हैं। पर मैं इतना कह सकता हूं कि चीन हमारा सबसे अच्छा दोस्त है।''
वीगर असल में तुर्की से ताल्लुक रखने वाले मुसलमान हैं। शिनजियांग प्रांत की लगभग 45 प्रतिशत आबादी वीगर मुसलमानों की है। इसके अलावा 40 प्रतिशत हैन चीनी हैं।
साल 1949 में जब चीन ने पूर्वी तुर्किस्तान पर अपना कब्ज़ा किया तो इसके बाद बड़ी संख्या में हैन चीनी और वीगर मुसलमानों को अपनी संस्कृति पर ख़तरा महसूस होने लगा, इसके चलते इन समुदायों ने पलायन शुरू कर दिया।
शिनजियांग आधिकारिक तौर पर चीन का एक स्वायत्त क्षेत्र है, जैसे कि दक्षिण में तिब्बत है।
तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने पिछले महीने 24 सितंबर को संयुक्त राष्ट्र की आम सभा को संबोधित करते हुए कश्मीर का मुद्दा उठाया था।
राष्ट्रपति अर्दोआन ने कहा कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय पिछले 72 सालों से कश्मीर समस्या का समाधान खोजने में नाकाम रहा है।
अर्दोआन ने कहा था कि भारत और पाकिस्तान कश्मीर समस्या को बातचीत के ज़रिए सुलझाएं। तुर्की के राष्ट्रपति ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के बावजूद कश्मीर में 80 लाख लोग फँसे हुए हैं।
अर्दोआन के अलावा मलेशिया ने भी यूएन की आम सभा में कश्मीर का मुद्दा उठाया था। कहा जा रहा है कि यूएन की आम सभा में तुर्की और मलेशिया का यह रुख़ भारत के लिए झटका है।
तुर्की के इस रुख़ पर भारत ने खेद जताया है। इसी हफ़्ते शुक्रवार को भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने कहा कि कश्मीर भारत का आंतरिक मामला है। उन्होंने कहा कि तुर्की और मलेशिया का रुख़ बहुत ही अफ़सोस जनक है।
रवीश कुमार ने कहा, ''भारत और तुर्की में दोस्ताना संबंध हैं। लेकिन छह अगस्त के बाद से हमें खेद है कि तुर्की की तरफ़ से भारत के आंतरिक मामले पर लगातार बयान आए हैं। ये तथ्यात्मक रूप से ग़लत और पक्षपातपूर्ण हैं।''
पाकिस्तान और तुर्की के बीच संबंध भारत के तुलना में काफ़ी अच्छे रहे हैं। दोनों मुल्क इस्लामिक दुनिया के सुन्नी प्रभुत्व वाले हैं। अर्दोआन के पाकिस्तान से हमेशा से अच्छे संबंध रहे हैं।
जब जुलाई 2016 में तुर्की में सेना का रेचेप तैय्यप अर्दोआन के ख़िलाफ़ तख्ता पलट नाकाम रहा तो पाकिस्तान खुलकर अर्दोआन के पक्ष में आया था। पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ ने अर्दोआन को समर्थन किया था। इसके बाद शरीफ़ ने तुर्की का दौरा भी किया था। तब से अर्दोआन और पाकिस्तान के संबंध और अच्छे हुए हैं।
2017 से तुर्की ने पाकिस्तान में एक अरब डॉलर का निवेश किया है। तुर्की पाकिस्तान में कई परियोजनाओं पर काम कर रहा है। वो पाकिस्तान को मेट्रोबस रैपिड ट्रांजिट सिस्टम भी मुहैया कराता रहा है। दोनों देशों के बीच प्रस्तावित फ़्री ट्रेड एग्रीमेंट को लेकर अब भी काम चल रहा है।
अगर दोनों देशों के बीच यह समझौता हो जाता है कि तो द्विपक्षीय व्यापार 90 करोड़ डॉलर से बढ़कर 10 अरब डॉलर तक पहुँच सकता है।
पाकिस्तान में टर्किश एयरलाइंस का भी काफ़ी विस्तार हुआ है। इस्तांबुल रीजनल एविएशन हब के तौर पर विकसित हुआ है। ज़्यादातर पाकिस्तानी तुर्की के रास्ते पश्चिम के देशों में जाते हैं।
हालांकि पाकिस्तानियों को तुर्की में जाने के लिए वीज़ा की ज़रूरत पड़ती है। अगर फ़्री ट्रेड एग्रीमेंट हो जाता है तो दोनों देशों के बीच संबंध और गहरे होंगे। तुर्की में हाल के वर्षों में पश्चिम और यूरोप के पर्यटकों का आना कम हुआ है ऐसे में तुर्की इस्लामिक देशों के पर्यटकों को आकर्षित करना चाहता है।
पाकिस्तान के लिए तुर्की लंबे समय से आर्थिक और सियासी मॉडल के रूप में रहा है। पाकिस्तानी सेना के पूर्व प्रमुख और पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ तुर्की के संस्थापक मुस्तफ़ा कमाल पाशा के प्रशंसक रहे हैं।
मुशर्रफ़ पाशा के सेक्युलर सुधारों और सख़्त शासन की प्रशंसा करते रहे हैं। पाकिस्तान के वर्तमान प्रधानमंत्री इमरान ख़ान अर्दोआन की प्रशंसा करते रहे हैं।
2016 में तुर्की में तख़्तापलट नाकाम करने पर इमरान ख़ान ने अर्दोआन को नायक कहा था। ज़ाहिर है इमरान ख़ान भी नहीं चाहते हैं कि पाकिस्तान में राजनीतिक सरकार के ख़िलाफ़ सेना का तख्तापलट हो, जिसकी आशंका पाकिस्तान में हमेशा बनी रहती है।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तुर्की-पाकिस्तानी एकता दशकों से साफ़ दिखती रही है। दोनों देश एक दूसरे को अपने आतंरिक मसलों पर समर्थन करते रहे हैं। दोनों देशों की क़रीबी अज़रबैजान को लेकर भी है।
तीनों देशों की यह दोस्ती आर्मेनिया को भारी पड़ती है। पाकिस्तान दुनिया का एकमात्र देश है जिसने आर्मेनिया को संप्रभु राष्ट्र की मान्यता नहीं दी है। अज़रबैजान विवादित इलाक़ा नागोर्नो-काराबाख़ पर अपना दावा करता है और पाकिस्तान भी इसका समर्थन करता है। तुर्की का भी इस मामले में यही रुख़ है।
इसके बदले में तुर्की पाकिस्तान को कश्मीर पर समर्थन देता है। इसी साल 26 फ़रवरी को भारत ने पाकिस्तान के बालाकोट में कथित चरमपंथी कैंपों पर एयर स्ट्राइक का दावा किया तो दोनों देशों के बीच तनाव काफ़ी बढ़ गया था। 27 फरवरी को पाकिस्तान ने भारत पर जवाबी हवाई हमला किया। भारत और पाकिस्तान के बीच हुए एरियल संघर्ष में पाकिस्तान ने भारत के दो लड़ाकू विमान मार गिराए और एक भारतीय पायलट अभिनन्दन को पाकिस्तान ने गिरफ़्तार कर लिया था जिसे बाद में छोड़ दिया था। पाकिस्तान के इस क़दम की राष्ट्रपति अर्दोआन ने तारीफ़ की थी।
पाँच अगस्त को जब भारत ने अपने नियंत्रण वाले जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी किया तब भी प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने राष्ट्रपति अर्दोआन से संपर्क किया और उन्होंने पाकिस्तान के रुख़ का समर्थन किया।
अर्दोआन ख़ुद को मुस्लिम दुनिया के बड़े नेता और हिमायती के तौर पर भी पेश करते हैं। हालांकि दोनों देशों में भले दोस्ती है लेकिन दोनों के दोस्त एक ही नहीं हैं। तुर्की और चीन के संबंध अच्छे नहीं हैं लेकिन चीन और पाकिस्तान के संबंध बहुत अच्छे हैं। तुर्की चीन में वीगर मुसलमानों के प्रति सरकार के व्यवहार की खुलकर आलोचना करता है जबकि पाकिस्तान चुप रहता है।
तुर्की और सऊदी अरब के रिश्ते ठीक नहीं हैं लेकिन पाकिस्तान और सऊदी के रिश्ते बहुत अच्छे हैं। पत्रकार जमाल ख़ाशोज्जी की हत्या के ख़िलाफ़ तुर्की काफ़ी मुखर रहा लेकिन पाकिस्तान बिल्कुल चुप रहा।
पाकिस्तान और तुर्की एक जैसे अलगाववाद से जूझ रहे हैं। तुर्की में कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी के साथ जारी संघर्ष में पाकिस्तान अर्दोआन के साथ खड़ा रहता है। कुर्द विद्रोहियों के साथ तुर्की का संघर्ष लंबे समय से चल रहा है। 2015 में तो तुर्की ने इस संघर्ष में पाकिस्तान से ख़ुफ़िया और संसाधनों की मदद का भी अनुरोध किया था।
दोनों देशों के बीच मधुर संबंधों में पाकतुर्क स्कूल सबसे विकट मुद्दा बनकर सामने आया। ये स्कूल प्रभावशाली इस्लामिक धार्मिक नेता फ़ेतुल्लाह गुलेन के ग्लोबल नेटवर्क के हिस्सा रहे थे। एक वक़्त में फ़ेतुल्लाह अर्दोआन के सहयोगी हुआ करते थे। इन स्कूलों के ज़रिए तुर्की की संस्कृति के साथ-साथ गुलेन के राजनीतिक विचारों को प्रोत्साहन दिया जाता था।
2016 में जब तख़्तापलट की कोशिश हुई तो अर्दोआन ने इसके लिए गुलेन और उनके हिज़मत आंदोलन को दोषी ठहाराया।
इसके बाद से अर्दोआन ने बाक़ी के देशों से कहा कि गुलेन आतंकवाद के समर्थक हैं इसलिए अपने यहां चल रहे उनके स्कूलों को बंद करे। पाकिस्तान ने अर्दोआन की मांग को ख़ारिज नहीं किया। पहले स्कूलों में काम करने वालों को रेजिडेंस वीज़ा देने से इनकार किया और बाद में उन्हें पाकिस्तान छोड़ने पर मजबूर किया।
इस साल की शुरुआत में पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने गुलेनवादियों को आतंकवादी घोषित कर दिया और पाकतुर्क स्कूलों को मारिफ़ फ़ाउंडेशन के हवाले कर दिया। मतलब पाकिस्तान ने अर्दोआन की ख़िदमत में कोई कमी नहीं की।
दूसरी तरफ़ अफ़ग़ानिस्तान समस्या को लेकर भी तुर्की पाकिस्तान के रुख़ का समर्थन करता है। हालांकि अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत संघ के दख़ल के दौरान पाकिस्तान और तुर्की मुजाहिदीन के साथ थे। इसकी वजह से अमरीका के साथ सहयोग के कारण दोनों देश इस्लामिक वर्ल्ड के टकराव से अलग नहीं रहे।
अमरीका ने अक्टूबर 2001 में अफ़ग़ानिस्तान पर जब हमला किया तो पाकिस्तान को तालिबान के ख़िलाफ़ होना पड़ा था।
अफ़ग़ान तालिबान का एक शीर्ष प्रतिनिधिमंडल तालिबान के शीर्ष कमांडर मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर के नेतृत्व में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान से मिला।
पीएमओ के एक अधिकारी ने बीबीसी उर्दू के शहज़ाद मलिक को बताया कि गुरुवार दोपहर को हुई इस बैठक में पाकिस्तानी सेना प्रमुख भी शामिल हुए।
इससे पहले यह प्रतिनिधिमंडल पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के दफ़्तर में विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी से भी मिला। उस बैठक में पाकिस्तानी सेना की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल फ़ैज़ हमीद ने भी भाग लिया।
विदेश मंत्रालय ने एक बयान जारी कर बताया कि मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर के नेतृत्व में अफ़ग़ान तालिबान के इस राजनीतिक प्रतिनिधिमंडल ने अफ़ग़ान शांति प्रक्रिया समेत आपसी हित के मुद्दों पर चर्चा की।
दूसरी ओर, अफ़ग़ानिस्तान के चीफ़ एक्ज़ीक्यूटिव अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह ने उम्मीद जताई है कि पाकिस्तान तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान के साथ शांति वार्ता के लिए राज़ी कर लेगा।
बुधवार को काबुल में पाकिस्तान के राजदूत ज़ाहिद नसरुल्ला ख़ान के साथ बातचीत में उन्होंने कहा कि अगर पाकिस्तान तालिबान पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके उसे अफ़ग़ान सरकार के साथ बातचीत के लिए राज़ी कर सकता है, तो इससे देश में शांति स्थापित करने के प्रयासों को बल मिलेगा।
पाकिस्तान की जेल में बंद मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर को आठ साल की हिरासत के बाद पाकिस्तान ने बीते वर्ष रिहा कर दिया था। उन्हें सुरक्षा एजेंसियों ने 2010 में कराची से गिरफ़्तार किया था।
इसी वर्ष उन्हें क़तर में तालिबान के पॉलिटिकल ऑफिस का प्रमुख नियुक्त किया गया था।
इस दौरान पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी ने कहा कि पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के बीच संबंध धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक रिश्तों पर आधारित है। जबकि बीते 40 वर्षों से अफ़ग़ानिस्तान अस्थिरता झेल रहा है।
उन्होंने कहा, "पाकिस्तान का पूरी ईमानदारी से यह मानना है कि युद्ध किसी भी समस्या का हल नहीं है और बातचीत ही अफ़ग़ानिस्तान में शांति का एकमात्र ज़रिया है।''
क़ुरैशी ने कहा, "हमें ख़ुशी है कि आज दुनिया अफ़ग़ानिस्तान पर हमारे रुख़ का समर्थन कर रही है।''
उन्होंने कहा कि पाकिस्तान ने अपनी ज़िम्मेदारी समझते हुए अफ़ग़ान शांति प्रक्रिया में एक ईमानदार भूमिका निभाई है क्योंकि शांत अफ़ग़ानिस्तान इस पूरे क्षेत्र की स्थिरता के लिए ज़रूरी है।
क़ुरैशी ने कहा, "हम चाहते हैं कि अफ़ग़ान वार्ता से जुड़े संबंधित पक्ष इस दिशा में आगे बढ़ें ताकि स्थायी शांति और स्थिरता का मार्ग प्रशस्त हो।''
विदेश मंत्री ने कहा कि पिछले कई सालों से पाकिस्तान दुनिया को याद दिला रहा है कि वह अफ़ग़ानिस्तान की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक ज़मीनी हक़ीक़त को नज़रअंदाज न करे।
उन्होंने कहा कि अफ़ग़ान संघर्ष के शांतिपूर्ण समाधान से इस समूचे इलाक़े में हिंसा की घटनाओं में उल्लेखनीय कमी आएगी।
विदेश मंत्री ने कहा कि अफ़ग़ानिस्तान में शांति के लिए मौजूदा क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय सहमति से एक अभूतपूर्व अवसर मिला है जिसे याद रखा जाना चाहिए।
उन्होंने आशा व्यक्त की कि रुकी हुई अफ़ग़ान शांति वार्ता जल्द ही फिर शुरू होगी।
पाक विदेश मंत्रालय के बयान के अनुसार, अफ़ग़ानिस्तानी तालिबान के उच्च-स्तरीय प्रतिनिधिमंडल ने अफ़ग़ान शांति प्रक्रिया में पाकिस्तान की भूमिका की सराहना की और संबंधित पक्षों के बीच बातचीत की तत्काल बहाली की ज़रूरत पर सहमति व्यक्त की।
क़तर में अफ़ग़ानिस्तानी तालिबान के पॉलिटिकल ऑफिस के प्रवक्ता सोहेल शाहीन ने बीबीसी के नूर नासिर से कहा कि तालिबान के इस प्रतिनिधिमंडल में मुल्ला बरादर समेत उनके 11 वरिष्ठ सदस्य शामिल हैं।
तालिबान के वार्ताकारों का यह दौरा ऐसे समय में हो रहा है जब अफ़ग़ानिस्तान में अमरीका के मुख्य वार्ताकार रहे ज़िल्मे ख़लीलज़ाद पहले से ही पाकिस्तान में मौजूद हैं।
ज़िल्मे ख़लीलज़ाद ने हाल ही में अमरीका के दौरे पर गए प्रधानमंत्री इमरान ख़ान से मुलाक़ात की थी। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि पाकिस्तान में वे तालिबानी नेताओं से मिलेंगे या नहीं।
अगर यह बैठक होती है, तो पाकिस्तानी धरती पर तालिबान प्रतिनिधिमंडल के साथ अमरीकी प्रतिनिधिमंडल की पहली बैठक होगी।
तालिबान ने पहले कहा था कि वो पाकिस्तान में प्रधानमंत्री इमरान ख़ान से मिलेंगे। इसके प्रवक्ता सोहेल शाहीन ने कहा था कि प्रतिनिधिमंडल इस दौरे पर केवल पाकिस्तान के विदेश विभाग के शीर्ष अधिकारियों से मुलाक़ात करेगा।
जुलाई में अपनी अमरीकी दौरे के दौरान प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने कहा था कि वह लौट कर तालिबानी नेताओं से बैठक करेंगे और उन्हें अफ़ग़ान सरकार के साथ बातचीत करने को कहेंगे।
इसके जवाब में, तालिबान के प्रवक्ता सोहेल शाहीन ने बीबीसी से कहा था कि अगर प्रधानमंत्री इमरान ख़ान उन्हें आमंत्रित करते हैं तो वे पाकिस्तान जाकर उनसे मुलाक़ात करेंगे।
यह पहली बार नहीं था जब अफ़ग़ान शांति प्रक्रिया को लेकर किसी तालिबान प्रतिनिधिमंडल के पाकिस्तान आने की बात की गई थी।
इस साल फ़रवरी में, अफ़ग़ानिस्तानी तालिबान के प्रवक्ता ज़बीहुल्लाह मुजाहिद ने एक बयान में कहा कि उनके ऑफिस का एक प्रतिनिधिमंडल 18 फ़रवरी को पाकिस्तान का दौरा करेगा, लेकिन बाद में तालिबान ने कहा कि उसे संयुक्त राष्ट्र में बुलाया गया था।
इसी संबंध में, प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने तब कहा था कि उन्होंने अफ़ग़ान सरकार की चिंताओं पर तालिबान नेताओं के साथ बैठक स्थगित कर दी थी।
अफ़ग़ानिस्तान में युद्ध विराम और अमरीका के साथ बातचीत शुरू होने के बाद से यह तालिबान प्रतिनिधिमंडल की चौथी विदेशी यात्रा है।
इससे पहले तालिबान का यह प्रतिनिधिमंडल रूस, चीन और ईरान का दौरा कर चुका है। इसी वर्ष सितंबर में अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने ट्विटर पर तालिबान के साथ बातचीत के ख़त्म किए जाने की घोषणा की थी।
इससे पहले दोनों पक्षों के बीच बीते 11 महीने से बातचीत चल रही थी लेकिन अचानक ही ट्रंप ने इस वार्ता को समाप्त कर दिया।
मुल्ला बरादर को 2010 में पाकिस्तान के कराची में एक ऑपरेशन के दौरान गिरफ़्तार किया गया था, आठ साल जेल में रखने के बाद उन्हें 2018 में रिहा किया गया। उसके बाद से यह पाकिस्तान का उनका पहला दौरा है।
इमरान ख़ान ने हाल ही में उनके बारे में कहा, "हम अमरीका से बातचीत के लिए तालिबान को क़तर लेकर आए हैं।''
सूत्रों के मुताबिक़ पाकिस्तान ने अमरीका के अनुरोध पर ही मुल्ला बरादर को रिहा किया था ताकि वे बातचीत में अहम भूमिका निभा सकें।
मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर तालिबान के संस्थापक मुल्ला उमर के क़रीबी सहयोगी और शीर्ष कमांडर में उनके बाद नंबर दो पर थे।
अल जज़ीरा के पत्रकार कार्लोटा बाल्स की एक डॉक्युमेंट्री में अफ़ग़ानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई ने कहा था कि मुल्ला बरादर और कई तालिबान नेता 2010 में अफ़ग़ान सरकार से बातचीत के लिए तैयार थे।
हालांकि, उनके अनुसार तब अमरीका और पाकिस्तान उनसे बातचीत के पक्ष में नहीं था और इसके बाद ही मुल्ला बरादर को गिरफ़्तार कर लिया गया।
करज़ई के मुताबिक़ उन्होंने तब मुल्ला बरादर की गिरफ़्तारी का विरोध भी किया था।









