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कोरोना वायरस से संक्रमित मरीजों को हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्विन देने से ज़्यादा मौतें हुई: स्टडी

अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने कहा था कि वो कोविड 19 बीमारी से बचने के लिए मलेरिया की दवाई हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्विन ले रहे हैं।

साइंस जर्नल 'लैंसेट' ने अपनी स्टडी में पाया है कि कोरोना वायरस से संक्रमितों के इलाज में जहां हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्विन दवाई दी जा रही है, वहां मौत का ख़तरा ज़्यादा है।

स्टडी में पाया गया है कि मलेरिया की इस दवाई से कोरोना संक्रमितों को कोई फ़ायदा नहीं हो रहा है। भारत में यह दवाई बड़े पैमाने पर बनती है।  भारत ने मार्च में इस दवाई के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया था लेकिन अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप चाहते थे कि भारत ये प्रतिबंध हटाए और अमरीका में आपूर्ति करे। ट्रंप के कहने के बाद भारत ने ये प्रतिबंध आंशिक रूप से हटा दिया था।

ट्रंप ने इसी हफ़्ते कहा था कि वो इस दवाई का सेवन कर रहे हैं जबकि स्वास्थ्य अधिकारियों ने चेताया था कि इससे हृदय रोग की समस्या बढ़ सकती है।

ट्रंप मेडिकल स्टडी की उपेक्षा करते हुए इस दवाई के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करते रहे हैं।

हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्विन मलेरिया के रोगियों के लिए सुरक्षित है और लुपस या आर्थ्राइटिस के कुछ मामलों में भी ये लाभकारी है।

लेकिन कोरोना संक्रमितों को लेकर कोई क्लिनिकल ट्रायल ने इस दवाई के इस्तेमाल की सिफ़ारिश नहीं की है।

द लैंसेट की स्टडी में कोरोना वायरस से संक्रमित 96,000 मरीज़ों को शामिल किया गया।

इनमें से 15,000 लोगों को हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्विन दी गई या इससे मिलती जुलती क्लोरोक्विन दी गई। ये या तो किसी एंटिबायोटिक के साथ दी गई या फिर केवल यही।

इस स्टडी से पता चलता है कि दूसरे कोविड मरीज़ों की तुलना में क्लोरोक्विन खाने वाले मरीज़ों की हॉस्पिटल में ज़्यादा मौत हुई और हृदय रोग की समस्या भी उत्पन्न हुई।

जिन्हें हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्विन दी गई उनमें मृत्यु दर 18% रही, क्लोरोक्विन लेने वालों में मृत्यु दर 16.4% और जिन्हें ये दवाई नहीं दी गई उनमें मृत्यु दर नौ फ़ीसदी रही।

जिनका इलाज हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्विन या क्लोरोक्विन किसी एंटिबायोटिक के साथ दी गई उनमें मृत्यु दर और ज़्यादा थी।

रिसर्चरों ने कहा है कि हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्विन क्लिनिकल ट्रायल से बाहर लेना ख़तरनाक है।

ट्रंप ने कहा था कि कोविड टेस्ट में वो निगेटिव आए हैं क्योंकि वो हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्विन ले रहे हैं और इसका सकारात्मक फ़ायदा मिला है।

इसे लेकर ट्रायल चल रहा है कि हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्विन कोविड 19 में प्रभावी है या नहीं।

यूरोप, एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमरीका के 40 हज़ार से ज़्यादा स्वास्थ्यकर्मियों को इस ट्रायल में हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्विन की खुराक दी जाएगी।

लैंसेट की स्टडी के बारे में पूछे जाने पर 'व्हॉइट हाउस कोरोना वायरस टास्क फोर्स ' के को-ऑर्डिनेटर डॉक्टर डेबोराह बर्क्स ने कहा कि कोविड-19 की बीमारी के इलाज या उससे बचाव के लिए हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्विन के इस्तेमाल से जुड़ी चिंताओं को लेकर सरकारी एजेंसी 'यूएस फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन' का रुख बहुत स्पष्ट रहा है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन से जुड़े संगठन 'पैन अमरीकन हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन' के निदेशक डॉक्टर मार्कोस एस्पिनाल ने ये बात जोर देकर कही है कि किसी भी क्लिनिकल ट्रायल में कोरोना वायरस के इलाज के नाम पर हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्विन के इस्तेमाल की सिफारिश नहीं की गई है।

इसराइल एक ट्यूमर है जिसे हटाना है: ईरान

ईरान के सुप्रीम लीडर अयातुल्लाह अली ख़ामेनेई ने शुक्रवार को कहा कि इसराइल एक ट्यूमर है जिसे हटाया जाना है।

साथ ही उन्होंने फ़लस्तीन को ईरान से हथियार भेजने का भी समर्थन किया है। दूसरी तरफ़, अमरीका, यूरोपीय संघ और इसराइल ने ईरान के इस बयान की कड़ी आलोचना की है।

इसराइल का विरोध शिया बहुल ईरान में एक बड़ा मुद्दा है। इसराइल के साथ शांति का विरोध करने वाले फ़लस्तीनी और लेबनान के सशस्त्र गुटों को ईरान का समर्थन हासिल रहा है। ईरान ने आज तक इसराइल को मान्यता नहीं दी है।

समाचार एजेंसी रॉयटर्स के मुताबिक़ अयातुल्लाह अली ख़ामनेई ने कहा, ''क्षेत्र में यहूदियों की हुकूमत एक ट्यूमर की तरह है जो जानलेवा और नासूर बन गया है। बेशक इसे एक दिन नेस्तनाबूद कर दिया जाएगा।''

ख़ामेनेई ने रमज़ान के आख़िरी जुमे के दिन एक ऑनलाइन खुतबा में ये बात कही।

अमरीका, यूरोपीय संघ और इसराइल ने ईरान की इस टिप्पणी पर कड़ी प्रतिक्रिया दी है।

इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू ने ईरान को आगाह करते हुए कहा, ''इसराइल को बर्बाद करने की धमकी देने वाली ताक़तों का भी वही परिणाम होगा।''  

अमरीकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने ख़ामेनेई के बयान को ख़ारिज करते हुए उसे घृणित और यहूदी विरोधी टिप्पणी करार दिया।

उन्होंने कहा कि ये बातें ईरान के आम लोगों की सहिष्णुता की परंपरा से मेल नहीं खाती हैं।

यूरोपीय संघ की विदेश नीति के प्रमुख जोसेफ़ बोरेल ने कहा कि ख़ामेनेई की टिप्पणी पूरी तरह से अस्वीकार्य हैं और ये चिंता का सबब भी है।

हालांकि गज़ा में सक्रिय 'हमास' और 'इस्लामिक जिहाद' जैसे फ़लस्तीनी सशस्त्र गुट ईरान की तरफ़ से मिलने वाले पैसे और हथियारों की मदद की तारीफ़ करते रहे हैं।

लेकिन शुक्रवार से पहले ख़ामनेई ने कभी भी सार्वजनिक तौर पर ये बात नहीं कबूल की थी कि ईरान इन सशस्त्र गुटों को हथियारों की आपूर्ति करता है।

ख़ामनेई ने कहा, ''ईरान को इस बात का एहसास है कि फ़लस्तीनी लड़ाकों की केवल एक समस्या है और वो है हथियारों की कमी। अल्लाह की मर्जी और मदद से हमने योजना बनाई और फ़लस्तीन में सत्ता का संतुलन बदल गया और गज़ा पट्टी यहूदी दुश्मनों के हमलों के ख़िलाफ़ खड़ी हो सकती है और उन्हें हरा सकती है।''

इसराइल के रक्षा मंत्री बेनी गैंट्ज़ ने इस पर कहा, ''इसराइल के सामने कई बड़ी चुनौतियां हैं। ख़ामेनेई का बयान इसे पूरी तरह से स्पष्ट कर देता है।''

बेनी गैंट्ज़ ने फ़ेसबुक पर लिखा, ''मैं किसी को ये सलाह नहीं दे सकता कि वो हमारा इम्तेहान ले ले ... हम किसी भी किस्म के ख़तरे का सामना करने के लिए हर तरह से तैयार हैं।''

ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता ने शुक्रवार को अपने संबोधन में इसराइल के ख़िलाफ़ बयान देने के अलावा भी बहुत कुछ कहा।

समाचार एजेंसी एएफ़पी के अनुसार ख़ामेनेई ने इस मौके पर कहा, ''फ़लस्तीन की आज़ादी हमारी इस्लामी ज़िम्मेदारी है। इस संघर्ष का मक़सद पूरे फ़लस्तीनी इलाक़े की आज़ादी है और फ़लस्तीनियों को उनका मुल्क वापस दिलाना है। अमरीका चाहता है कि इस इलाक़े में यहूदियों की सरकार की मौजूदगी को सामान्य बात बना दी जाए। कुछ अरब देशों की अमरीका परस्त सरकारें इसके लिए हालात तैयार कर रही हैं।''

फ़लस्तीन के मुद्दे को समर्थन देने के लिए ईरान हर साल रमज़ान के आख़िरी जुमे के दिन 'क़ुड्स (यरूशलम) दिवस' मनाता है। साल 1979 की क्रांति के बाद से ही ईरान में ये परंपरा चली आ रही है।

पिछले 30 सालों में ये पहला मौक़ा है जब ईरान के सुप्रीम लीडर की हैसियत से ख़ामेनेई इस मौक़े पर संबोधित कर रहे थे। हालांकि वे लगातार ये कहते रहे हैं कि फ़लस्तीन का मुद्दा मुस्लिम जगत की सबसे बड़ी समस्या है।

इस साल कोविड-19 की महामारी के कारण ईरान ने 'क़ुड्स डे' से जुड़ी रैलियां स्थगित कर दी थीं।

अमेरिका के इशारे पर भारत को तालिबान से क्यों बात करनी चाहिए?

अफ़ग़ानिस्तान के लिए अमरीका के विशेष प्रतिनिधि ज़ल्मे ख़लीलज़ाद ने भारतीय दैनिक इंग्लिश समाचार पत्र 'द हिन्दू' को दिए एक इंटरव्यू में कहा है कि भारत को तालिबान के साथ सीधे बात करनी चाहिए।

ये शायद पहली बार है कि किसी अमरीकी अधिकारी ने भारत को तालिबान के साथ सीधे बातचीत करने के लिए कहा हो। एशियाई देशों में सिर्फ़ भारत अकेला ऐसा देश है, जिसके तालिबान के साथ औपचारिक संबंध नहीं हैं।

हालांकि चीन, ईरान और रूस ने भी अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के दौर में उनकी सरकार को स्वीकार करने से इनकार किया था लेकिन अब तीनों देश तालिबान के साथ संपर्क में हैं। रूस ने अफ़ग़ानिस्तान शांति प्रक्रिया के सिलसिले में नवंबर 2018 में अंतर्राष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस की मेज़बानी भी की थी।

भारत ने पिछले 20 सालों में अफ़ग़ानिस्तान में अरबों रुपयों का निवेश किया है और अफ़ग़ानिस्तान ने भी भारत के साथ अपनी दोस्ती को हर मुमकिन तौर पर बनाए रखने की भरपूर कोशिश की है।

काबुल में मौजूद भारतीय दूतावास के अनुसार अब तक भारत अफ़ग़ानिस्तान में दो अरब अमरीकी डॉलर से ज़्यादा का निवेश कर चुका है।

नई दिल्ली और अफ़ग़ानिस्तान की दोस्ती इसलिए भी मज़बूत होती गई कि दोनों ही अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान पर तालिबान और कश्मीर में लड़ने वालों की मदद करने का आरोप लगा रहे हैं।

अफ़ग़ानिस्तान मामलों के विश्लेषकों के अनुसार दो बड़े कारण हैं जिसकी वजह से अब तक भारत ने तालिबान के साथ संपर्क नहीं रखा।  पहला, कुछ साल पहले तक अफ़ग़ानिस्तान सरकार का विरोध करने वाले तालिबान का पाकिस्तान के साथ नज़दीकी संबंध या फिर समर्थन का आरोप, दूसरा तालिबान का कश्मीर में भारत के ख़िलाफ़ लड़ने वालों का समर्थन करना।

2001 में अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के ख़ात्मे के साथ ही भारत ने पांच साल के बाद फिर से अफ़ग़ानिस्तान के लिए अपने राजनयिक स्टाफ़ भेजा था।

अफ़ग़ानिस्तान में पूर्व भारतीय राजदूत गौतम मुखोपाध्याय उन राजदूतों में से एक थे जिन्होंने अफ़ग़ानिस्तान में भारतीय मिशन को दोबारा खोला।

गौतम मुखोपाध्याय ने बीबीसी से बात में कहा कि ये भारत के लिए एक फ्रेंडली मैसेज है जिसमें ये संकेत है कि कि तालिबान जल्द ही अफ़ग़ानिस्तान की राजनीति में आ सकते हैं और भारत को भी ऑन-बोर्ड आना चाहिए।

अफ़ग़ानिस्तान पर तीन किताबें लिख चुके अमरीकी लेखक बार्नेट आर रुबेन का कहना है कि ख़लीलज़ाद ने ये नहीं कहा है कि भारत तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान सरकार की तरह मान ले, बल्कि उनका कहना है कि जिस तरह दूसरे देशों के तालिबान और दूसरे धड़ों के साथ संपर्क है।  इसी तरह भारत भी तालिबान के साथ संपर्क में रहे और उन्हें हथियार छोड़ कर सक्रिय राजनीति में आने के लिए कहे।

लेकिन सवाल उठता है कि क्या तालिबान सक्रिय राजनीति में आने के लिए हथियार डाल देगा? ऐसा कहना न केवल जल्दबाजी होगी बल्कि यह एक बचकाना बात होगी। रुबेन शायद तालिबान के इतिहास को भूल गए है या नजरअंदाज कर रहे हैं या प्रभावित करने वाले बयान दे रहे हैं। रूबेन को याद होगा कि अमेरिका पिछले 20 सालों में अपने सैन्य अभियानों में तालिबान को हरा नहीं सका और अमेरिका को मजबूरी में तालिबान के सामने घुटने टेकते हुए तालिबान के साथ समझौते करने के लिए मजबूर होना पड़ा। तालिबान एक ताकतवर सैन्य बल समूह है, हथियार उसकी ताकत है। तलिबान ने हथियार के बल पर आधे से ज्यादा अफगानिस्तान पर कब्ज़ा कर रखा है और कई प्रांतों पर तालिबान का शासन है। ऐसे में तालिबान हथियार क्यों डालेगा?  तालिबान सक्रिय राजनीति में आने के बाद भी अपने सैन्य बल को बरकरार रखेगा।

रुबेन के अनुसार, ''अब जब तालिबान अफ़ग़ानिस्तान की राजनीति में दाख़िल हो गया है तो ये भारत के लिए अच्छा यही होगा कि वो उनके साथ वैसे ही संबंध बनाए जैसे वो जमाते इस्लामी, जनरल दोस्तम या फिर पश्तों क़ौम परस्तों के साथ रखता है।''

रुबेन के अनुसार तालिबान के लिए भारत की नीति पहले ही बदल चुकी है। वो कहते हैं जब भारत ने नवंबर 2018 में मॉस्को में होने वाली अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में दो पूर्व राजदूत भेजे थे तभी इसका संकेत मिल गया था।

हालांकि भारतीय विदेश मंत्रालय ने उस समय कहा था कि ये दो राजदूत 'अनौपचारिक' तौर पर इस कॉन्फ्रेंस में शरीक हो रहे हैं।

दोहा में अफ़ग़ानिस्तान तालिबान के राजनीतिक कार्यालय के प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने बीबीसी को बताया कि तालिबान का राजनीतिक कार्यालय इसलिए बनाया गया है कि दुनिया के देशों के साथ उनकी पॉलिसी शेयर कर सकें।

वो कहते हैं, "जो भी हमसे संपर्क करेगा हम उन्हें अपनी वर्तमान और भविष्य की नीति के बारे में सूचित करेंगे।''

अफ़ग़ानिस्तान में बतौर पत्रकार काम कर रहे समी यूसुफ़ज़ई के अनुसार तालिबान के दौर में अल-क़ायदा से ज़्यादा कश्मीरी और पंजाबी 'मुजाहिदीन' अफ़ग़ानिस्तान में घुस गए थे और उस समय भारत की चिंता इसी वजह से जायज़ थी।

उनके अनुसार "अब तालिबान भारत के साथ अपनी परेशानी आसानी से हल कर सकते हैं।''

पूर्व भारतीय राजदूत गौतम मुखोपाध्याय के अनुसार भारत ने आज तक तालिबान को औपचारिक तौर पर रिजेक्ट नहीं किया है, ये बात और है कि वो उनसे संपर्क में भी नहीं रहा है।

गौतम बताते हैं कि भारत से बातचीत से पहले तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान सरकार से बात करनी चाहिए और उन्हें मानना चाहिए। वो कहते हैं, "मैं भारत सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर बात नहीं कर रहा हूं लेकिन इतना कहूंगा कि तालिबान को भारत से पहले अफ़ग़ानिस्तान सरकार को स्वीकार करना चाहिए और उनसे बात करनी चाहिए।''

सवाल उठता है कि तालिबान जब अफ़ग़ानिस्तान सरकार को स्वीकार नहीं करता, तो वह भारत से बात क्यों करेगा? तालिबान प्रवक्ता पहले ही कह चुके हैं कि जो भी हमसे संपर्क करेगा हम उन्हें अपनी वर्तमान और भविष्य की नीति के बारे में सूचित करेंगे। यानि तालिबान खुद किसी से बात नहीं करेगा।  

अब अफ़ग़ानिस्तान सरकार का क्या होगा?

सवाल ये है कि जब अमरीका, जर्मनी, रूस, ईरान, चीन और पाकिस्तान समेत कई देशों के तालिबान के साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से संबंध हैं, तो अगर अफ़ग़ानिस्तान का क़रीबी मित्र भारत तालिबान के साथ संबंध रखता है तो अफ़ग़ानिस्तान सरकार को क्यों चिंता होनी चाहिए?

भारत के लिए अफ़ग़ानिस्तान के पूर्व राजदूत शैदा मोहम्मद अब्दाली के अनुसार इस क्षेत्र में भारत अफ़ग़ानिस्तान का ऐसा क़रीबी और सच्चा मित्र देश है जो अगर तालिबान से संबंध रखता भी है तो दूसरे देशों के उलट अपने फ़ायदे से अधिक अफ़ग़ानिस्तान सरकार के फ़ायदों को ही देखेगा।

क्या ऐसा हो सकता है कि भारत अपने हित के ऊपर अफगानिस्तान के हित को रखेगा? अगर अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार बन गई तो क्या होगा?

अब्दाली के अनुसार "हालांकि अभी तक ये साफ़ नहीं है कि भारत किन शर्तों के साथ तालिबान से बात करने पर राज़ी होता है लेकिन भारत और अफ़ग़ानिस्तान की दोस्ती को देखते हुए ये कह सकता हूं कि वो अगर बात करते भी हैं तो अफ़ग़ानिस्तान सरकार की जानकारी के साथ करेंगे।''

फिर सवाल उठता है कि जो तालिबान अफगानिस्तान सरकार से बात नहीं करती, वह भारत से बात क्यों करेगी? वह भी भारत की शर्तों पर!

अब्दाली समझते हैं कि शुरू से ही अफ़ग़ानिस्तान सरकार की ये कोशिश रही है कि अफ़ग़ानिस्तान शांति प्रक्रिया में क्षेत्रीय देश भी अपना किरदार अदा करें और उनके अनुसार इन देशों में से अगर भारत जैसा दोस्त तालिबान से सम्बन्ध रखता है तो अफ़ग़ानिस्तान सरकार को कोई चिंता नहीं रहेगी।

पाकिस्तान की क्या चिंता हो सकती हैं?

एक तरफ़ अगर भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में दो अरब डॉलर से अधिक का निवेश किया है तो दूसरी तरफ पाकिस्तान के पूर्व जिहादी नेताओं के तालिबान और दूसरे देश के साथ अच्छे और दोस्ताना संबंध हैं। कुछ पाकिस्तानी विश्लेषक समझते हैं कि पूर्व मुजाहिदीन और तालिबान, अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान के फ़ायदे का जहां तक हो सकेगा बचाव कर सकते हैं।

2001 के बाद से जैसे-जैसे भारत और अफ़ग़ानिस्तान के ऐतिहासिक संबंध एक बार फिर बढ़ते गए इसे लेकर पाकिस्तान की चिंता भी बढ़ती गईं। पाकिस्तान को चिंता इस बात की है कि भारत अफ़ग़ानिस्तान में अरबों का निवेश क्यों कर रहा है?

पाकिस्तान का मानना है कि अफ़ग़ानिस्तान सरकार को भारत की अपेक्षा पाकिस्तान से अधिक नज़दीक होना चाहिए। हालांकि अफ़ग़ानिस्तान का मानना है कि आज़ाद और आत्मनिर्भर देश की हैसियत से उनके किसी दूसरे देशों के साथ संबंधों पर पाकिस्तान को दख़ल देने का हक़ नहीं है।

पाकिस्तान का आरोप है कि तहरीक़-ए-तालिबान पाकिस्तान के साथ-साथ बलोच प्रदर्शनकारी भी पाकिस्तान के ख़िलाफ़ अफ़ग़ानिस्तान की सरज़मीन का इस्तेमाल कर रहे हैं। दूसरी तरफ अफ़ग़ानिस्तान की जनता में भारत की स्वीकार्यता अधिक है और वहां आज भी चरमपंथ की अधिकतर घटनाओं के पीछे पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी को दोषी ठहराया जाता है।

रूबेन के अनुसार अगर पाकिस्तान ये मानता है कि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान, पाकिस्तान के फ़ायदे का बचाव करेंगे तो ये पाकिस्तान की बड़ी भूल होगी।

उनके अनुसार मजबूरी के कारण तालिबान ने पाकिस्तान में पनाह ली थी, अब जैसे-जैसे वो वापस अफ़ग़ान राजनीति की मुख्यधारा में शामिल होते जायेंगे, पाकिस्तान पर उनकी निर्भरता भी कम होती जाएगी।

रुबेन की बातों से पूरी तरह से सहमत होना मुश्किल है। आज भी तालिबान का अफ़ग़ानिस्तान के आधे से अधिक इलाके पर नियंत्रण और प्रत्यक्ष शासन है। एक और बात अमेरिका-तालिबान समझौता कराने में पाकिस्तान ने अहम भूमिका निभाई है। ऐसे में तालिबान के सक्रिय राजनीति में आने पर भला तालिबान अपने पुराने सहयोगी पाकिस्तान को क्यों छोड़ेगा? तालिबान ने पहले भी अफ़ग़ानिस्तान पर शासन किया है। तब क्या तालिबान ने पाकिस्तान को छोड़ दिया था? तब भी तालिबान और पाकिस्तान के बीच अच्छे सम्बन्ध थे और आज भी है।    

लेकिन भारत अमेरिका के कहने पर तालिबान से बात क्यों करें? अमेरिका ने तालिबान से समझौता कर लिया तो भारत को तालिबान से बात क्यों करना चाहिए? क्या भारत को अमेरिका के इशारे पर नाचना चाहिए? कोरोना वायरस ने जिस तरह से पूरी दुनिया में तबाही मचाई है। इससे अमेरिका, रूस और चीन जैसे ताकतवर मुल्क भी तबाह हो चुके हैं। कोरोना वायरस की तबाही के बाद दुनिया में काफी बदलाव आएगा। हर देश केवल अपने हित के बारे में सोचेंगे। ऐसे में भारत को भी केवल अपने हित के बारे में सोचना चाहिए। 

राहुल गांधी का कोरोना वायरस और इसके आर्थिक प्रभाव पर नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी के साथ बातचीत, एपिसोड - 6

राहुल गांधी: भारत में तो आपको जाति की समस्या से दोचार होना पड़ता है, क्योंकि यहां तो असरदार जातियां पैसे को अपने तरीके से इस्तेमाल कर लेती हैं।

डॉ बनर्जी: हो सकता है, लेकिन दूसरी तरफ, आप इसे रोक भी सकते हैं। ऐसे में मैं कुछ अतिरिक्त पैसा रखूंगा ताकि गांव के पात्र लोगों तक यह पहुंच जाए। बिल्कुल उसी तरह जैसा कि आप कह रहे हैं कि पीडीएस मामले में हो। यानी इसे एक सिद्धांत बना लें। इस तरह इससे बचा जा सकता है।

लेकिन आप लोगों तक पैसा पहुंचाने से अधिक किए जाने की बात कर रहे हैं। कुछ लोगों के जनधन खाते हैं और कुछ के नहीं है। कुछ लोगों का नाम मनरेगा में हैं, यह एक और तरीका है लोगों तक पहुंचने का। कुछ के पास उज्जवला है कुछ के पास नहीं है। एक बार आप सूची देखिए और आपको पता चल जाएगा कि लाखों लोग इनसे वंचित हैं, तो फिर इन तक लाभ कैसे पहुंचाया जाए? हां एक बात साफ है कि स्थानीय प्रशासन के पास पैसा होना चाहिए जो लोगों की पहचान कर उन्हें लाभ दे सके। मैं आपसे सहमत हूं कि प्रभावी जातियां इसका फायदा उठा सकती हैं। हमें इंडोनेशिया में भी ऐसी ही आशंका थी, लेकिन यह बहुत ज्यादा बड़ी नही थी। मुझे लगता है कि हमें कोशिश करनी चाहिए, यह जानते हुए भी इसमें से कुछ तो गड़बड़ होगी ही। अगर कोशिश नहीं करेंगे तो ज्यादा बड़ी दिक्कत होगी।

राहुल गांधी: यानी हिम्मत से आगे बढ़े, जोखिम उठाएं, क्योंकि हम बहुत खराब स्थिति में हैं।

डॉ बनर्जी: जब आप मुसीबत में हों तो हिम्मत से ही काम लेना चाहिए।

राहुल गांधी: आपको क्या लगता है, मानो अगर अब से 6 माह में यह बीमारी खत्म हो गई तो गरीबी के मोर्चे पर क्या होगा? इसका बुरा प्रभाव होगा, लोग दिवालिया होंगे। हम इस सबसे मीडियम टर्म में कैसे निपटें?

डॉ बनर्जी: देखिए यही सब जो हम बात कर रहे हैं। मांग में कमी का मसला है। दो चिंताएं हैं, पहली कि कैसे दिवालिया होने की चेन को टालें, कर्ज माफी एक तरीका हो सकता है, जैसा कि आपने कहा। दूसरा है मांग में कमी का, और लोगों के हाथ में पैसा देकर भारतीय अर्थव्यवस्था का पहिया घुमाया जा सकता है। अमेरिका बड़े पैमाने पर ऐसा कर रहा है। वहां रिपब्लिकन सरकार है जिसे कुछ फाइनेंसर चलाते हैं। अगर हम चाहें तो हम भी ऐसा कर सकते हैं। वहां समाजवादी सोच वाले उदारवादी लोगों की सरकार नहीं है, लेकिन ऐसे लोग हैं जो वित्तीय क्षेत्र में काम करते रहे हैं। लेकिन उन्होंने फैसला किया कि अर्थव्यवस्था बचाने के लिए लोगों के हाथ में पैसा देना होगा। मुझे लगता है हमें इससे सीख लेनी चाहिए।

राहुल गांधी: इससे विश्व में सत्ता संतुलन में भी कुछ हद तक बदलाव की संभावना बनती है, यह भी साफ ही है। आप इस बारे में क्या सोचते हैं?

डॉ बनर्जी: मुझे इटली और फ्रांस जैसे देशों की ज्यादा चिंता है। खासतौर से इटली, जिसने विनाशकारी परिणाम भुगता और आंशिक रूप से इस बात का परिणाम है कि इटली में कई सालों से योग्य शासन नहीं रहा। नतीजतन स्वास्थ्य सेवा बिल्कुल चरमराई हुई थी। अमेरिका ने एक राष्ट्रवादी नजरिया अपनाया है जो कि दुनिया के लिए सही नहीं है। चीन का उभार उसके लिए खतरा है और अगर अमेरिका ने इस पर प्रतिक्रिया करना शुरु कर दिया तो इससे अस्थिरता का खतरा बन जाएगा। यह सबसे चिंताजनक बात है।

राहुल गांधी: यानी मजबूत नेता इस वायरस से निपट सकते हैं। और ऐसा समझाया जा रहा है कि सिर्फ एक आदमी ही इस वायरस को मात दे सकता है।

डॉ बनर्जी: यह घातक होगा। अमेरिका और ब्राजील दो ऐसे देश हैं जो बुरी तरह अव्यवस्था का शिकार हैं। यहां दो कथित मजबूत नेता हैं, और ऐसा दिखाते हैं कि उन्हें सब कुछ पता है, लेकिन वे हर रोज जो भी कहते हैं उस पर हंसी ही आती है। अगर किसी को मजबूत नेता के सिद्धांत में भरोसा है तो उन्हें इसे बारे में सोचना चाहिए।

राहुल गांधी: थैंक यू वेरी मच। जब भी आप भारत में हों, तो प्लीज साथ में चाय पीते हैं। घर में सबको प्रणाम।

डॉ बनर्जी: आपको भी, और अपना ध्यान रखना।

राहुल गांधी का कोरोना वायरस और इसके आर्थिक प्रभाव पर नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी के साथ बातचीत, एपिसोड - 5

राहुल गांधी: मुझे लगता है कि आपको विकल्प तलाशने होंगे। जितना संभव हो विकेंद्रीकरण हो, मुझे लगता है स्थानीय स्तर पर इनसे निपटा जा सकता है, जो कि अच्छी बात है। सोच यह होनी चाहिए कि जो चीजें जिला स्तर पर या राज्य स्तर पर संभल सकती हैं, उन्हें अलग कर देना चाहिए। हां, बहुत सी चीजें हैं जिन्हें कोई जिला कलेक्टर नहीं तय कर सकता, जैसे की एयरलाइंस या फिर रेलवे आदि। तो मेरा मानना है कि बड़े फैसले राष्ट्रीय स्तर पर हों, लेकिन स्थानीय मुद्दों पर फैसले, जैसे कि लॉकडाउन उसे राज्य सरकार के विवेक पर छोड़ना चाहिए। राज्यों के विकल्प को अहमियत मिले और राज्य तय करें कि वे क्या कर सकते हैं क्या नहीं कर सकते। और जब जोखिम राज्यों पर आएगा तो वे इसे बेहतर तरीके से संभाल सकेंगे। लेकिन मुझे लगता है कि मौजूदा सरकार का नजरिया अलग है। वे चीजों को अपने नियंत्रण में रखना चाहते हैं। वे चीजों को देखते हैं और उसका केंद्रीकरण कर देते हैं। यह दो नजरिए हैं। मुझे नहीं लगता कि इसमें से कोई गलत या सही है। मैं तो विकेंद्रीकरण का पक्षधर हूं।

डॉ बनर्जी: मैं सोचता हूं कि मैं क्या करता? मैं जो कुछ भी पैसा मेरे पास है उसके आधार पर कुछ अच्छी योजनाओं का ऐलान करता कि यह पैसा गरीबों तक पहुंचेगा और फिर इसका असर देखते हुए इसमें आगे सुधार करता। मुझे लगता है कि हर राज्य में बहुत से अच्छे एनजीओ हैं जो इसमें मदद कर सकते हैं। जैसा कि आपने कहा कि जिला मजिस्ट्रेट के पास भी कई बार अच्छे आइडिया होते हैं। हमें इन सबका फायदा उठाना चाहिए।

राहुल गांधी: क्या कुछ दूसरे देशों में कुछ ऐसे अनुभव आपने देखे जिनसे फायदा हो सकता हो?

डॉ बनर्जी: मैं आपको बताता हूं कि इंडोनेशिया इस वक्त क्या कर रहा है? इंडोनेशिया लोगों को पैसा देने जा रहा है और यह सब कम्यूनिटी स्तर पर फैसला लेने की प्रक्रिया के तहत हो रहा है। यानी कम्यूनिटी तय कर रही है कि कौन जरूरतमंद है? और फिर उसे पैसा ट्रांसफर किया जा रहा है। हमने इंडोनेशिया की सरकार के साथ काम किया है और देखा कि केंद्रीकृत प्रक्रिया के मुकाबले यह कहीं ज्यादा सही प्रक्रिया है। इससे आप किसी खास हित को सोचे बिना फैसला लेते हो। यहां स्थानीय स्तर पर लोग ही तय कर रहे हैं कि क्या सही है? मुझे लगता है कि यह ऐसा अनुभव है जिससे हम सीख सकते हैं। उन्होंने कम्यूनिटी को बताया कि देखो पैसा है, और इसे उन लोगों तक पहुंचाना है जो जरूरतमंद हैं। आपात स्थिति में यह अच्छी नीति है क्योंकि कम्यूनिटी के पास कई बार वह सूचनाएं और जानकारियां होती हैं तो केंद्रीकृत व्यवस्था में आपके पास नहीं होतीं।

राहुल गांधी: भारत में तो आपको जाति की समस्या से दोचार होना पड़ता है, क्योंकि यहां तो असरदार जातियां पैसे को अपने तरीके से इस्तेमाल कर लेती हैं।

डॉ बनर्जी: हो सकता है, लेकिन दूसरी तरफ, आप इसे रोक भी सकते हैं। ऐसे में मैं कुछ अतिरिक्त पैसा रखूंगा ताकि गांव के पात्र लोगों तक यह पहुंच जाए। बिल्कुल उसी तरह जैसा कि आप कह रहे हैं कि पीडीएस मामले में हो। यानी इसे एक सिद्धांत बना लें। इस तरह इससे बचा जा सकता है।

लेकिन आप लोगों तक पैसा पहुंचाने से अधिक किए जाने की बात कर रहे हैं। कुछ लोगों के जनधन खाते हैं और कुछ के नहीं है। कुछ लोगों का नाम मनरेगा में हैं, यह एक और तरीका है लोगों तक पहुंचने का। कुछ के पास उज्जवला है कुछ के पास नहीं है। एक बार आप सूची देखिए और आपको पता चल जाएगा कि लाखों लोग इनसे वंचित हैं, तो फिर इन तक लाभ कैसे पहुंचाया जाए? हां एक बात साफ है कि स्थानीय प्रशासन के पास पैसा होना चाहिए जो लोगों की पहचान कर उन्हें लाभ दे सके। मैं आपसे सहमत हूं कि प्रभावी जातियां इसका फायदा उठा सकती हैं। हमें इंडोनेशिया में भी ऐसी ही आशंका थी, लेकिन यह बहुत ज्यादा बड़ी नही थी। मुझे लगता है कि हमें कोशिश करनी चाहिए, यह जानते हुए भी इसमें से कुछ तो गड़बड़ होगी ही। अगर कोशिश नहीं करेंगे तो ज्यादा बड़ी दिक्कत होगी।

राहुल गांधी: यानी हिम्मत से आगे बढ़े, जोखिम उठाएं, क्योंकि हम बहुत खराब स्थिति में हैं।

डॉ बनर्जी: जब आप मुसीबत में हों तो हिम्मत से ही काम लेना चाहिए।

राहुल गांधी का कोरोना वायरस और इसके आर्थिक प्रभाव पर नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी के साथ बातचीत, एपिसोड - 4

राहुल गांधी: यानी लॉकडाउन से जितना जल्दी बाहर आ जाएं वह बेहतर होगा। इसके लिए एक रणनीति की जरूरत होगी, इसके लिए कुछ आर्थिक गतिविधियां शुरु करनी होंगी। नहीं तो पैसा भी बेकार ही साबित होगा।

डॉ बनर्जी: लॉकडाउन से कितना जल्दी बाहर आएं यह सब बीमारी पर निर्भर करता है। अगर बहुत सारे लोग बीमार हो रहे हैं तो लॉकडाउन कैसे खत्म होगा? आप ठीक कह रहे हैं कि हमें बीमारी की रफ्तार को काबू करना होगा और इस पर नजर रखनी होगी।

राहुल गांधी: भारत के संबंध में जो दूसरी अहम बात है वह भोजन का मुद्दा, और इसके स्केल की बात। बेशुमार लोग ऐसे हैं जिनके पास राशन कार्ड नहीं हैं। एक तर्क यह है कि गोदामों में जो कुछ भरा हुआ है उसे लोगों को दे दिया जाए, क्योंकि फसल का मौसम है और नई फसल से यह फिर से भर जाएंगे। तो इस पर आक्रामकता के साथ आगे बढ़ने की जरूरत है।

डॉ बनर्जी: दरअसल रघुराम राजन और अमर्त्य सेन के साथ मिलकर मैंने ने एक पेपर लिखा था। इसमें यही बात कही थी कि जिसको भी जरूरत हो उसे अस्थाई राशन कार्ड दे दिया जाए। असल में दूसरे राशन कार्ड को अलग ही कर दिया जाए, सिर्फ अस्थाई राशन कार्ड को ही मान्यता दी जाए। जिसको भी चाहिए उसे यह मिल जाए। शुरु में तीन महीने के लिए और इसके बाद जरूरत हो तो रीन्यू कर दिया जाए, और इसके आधार पर राशन दिया जाए। जो भी मांगने आए उसे राशन कार्ड दे दो और इसे बेनिफिट ट्रांसफर का आधार बना लो। मुझे लगता है कि हमारे पास पर्याप्त भंडार है, और हम काफी समय तक इस योजना को चला सकते हैं। रबी की फसल अच्छी हुई है तो बहुत सा अनाज (गेंहू, चावल) हमारे पास है। कम से कम हम गेहूं और चावल तो दे सकते हैं। मुझे नहीं पता है कि हमारे पास पर्याप्त मात्रा में दाल है या नहीं। लेकिन मुझे लगता है कि सरकार दाल का भी वादा करे। खाने के तेल की भी व्यवस्था हो। लेकिन हां इसके लिए हमें अस्थाई राशन कार्ड हर किसी को जारी करने चाहिए।

राहुल गांधी: सरकार को पैकेज में और क्या-क्या करना चाहिए? हमने छोटे और मझोले उद्योगों की बात की, प्रवासी मजदूरों की बात की, भोजन की बात की। इसके अलावा और क्या हो सकता है जो आप सोचते हैं सरकार को करना चाहिए?

डॉ बनर्जी: आखिरी बात इसमें यह होगी कि हम उन लोगों तक पैसा पहुंचाएं जिन्हें मशीनरी आदि की जरूरत है। हम लोगों तक कैश नहीं पहुंचा सकते। जिन लोगों के जनधन खाते हैं, उन्हें तो पैसा मिल जाएगा। लेकिन बहुत से लोगों के खाते नहीं है। खासतौर से प्रवासी मजदूरों के पास तो ऐसा नहीं है। हमें आबादी के उस बड़े हिस्से के बारे में सोचना होगा जिनकी पहुंच इस सब तक नहीं है। ऐसे में सही कदम होगा कि हम राज्य सरकारों को पैसा दें जो अपनी योजनाओं के जरिए लोगों तक पहुंचे, इसमें एनजीओ की मदद ली जा सकती है। मुझे लगता है कि हमें कुछ पैसा इस मद में भी रखना होगा कि वह गलत लोगों तक पहुंच गया या इधर-उधर हो गया। लेकिन अगर पैसा हाथ में ही रखा रहा, यानी हम कुछ करना ही नहीं चाहते तो बहुत बड़ी गड़बड़ हो जाएगी।

राहुल गांधी: केंद्रीकरण और विकेंद्रीकरण के बीच संतुलन का भी मुद्दा है। हर राज्य की अपनी दिक्कतें और खूबियां हैं। केरल एकदम अलग तरीके से हालात संभाल रहा है। उत्तर प्रदेश का तरीका एकदम अलग है। लेकिन केंद्र सरकार को एक खास भूमिका निभानी है। लेकिन इन दोनों विचारों को लेकर ही मुझे कुछ तनाव दिखता है।

डॉ बनर्जी: आप बिल्कुल सही कह रहे हैं कि तनाव है और प्रवासी मजदूरों के पलायन का मुद्दा सिर्फ राज्य सरकारें नहीं संभाल सकतीं। यह थोड़ा अजीब है कि इस मोर्चे को इतना द्विपक्षीय बनाकर देखा जा रहा है। मुझे लगता है कि यह एक समस्या है। यहां आप विकेंद्रीकरण नहीं करना चाहते क्योंकि आप सूचनाओं को साझा करना चाहते हो। अगर आबादी का यह हिस्सा संक्रमित है तो आप नहीं चाहोगे कि वह देश भर में घूमता फिरे। मुझे लगता है कि लोगों को जिस स्थान से ट्रेन में चढ़ाया जा रहा है उनका टेस्ट वहीं होना चाहिए। यह एक केंद्रीय प्रश्न है और इसका जवाब सिर्फ केंद्र सरकार के पास है। मिसाल के तौर पर उत्तर प्रदेश सरकार को साफ बता दो कि आप अपने यहां के मजदूरों को घर नहीं ला सकते। यानी अगर मजदूर मुंबई में हैं तो यह महाराष्ट्र सरकार की या फिर मुंबई शहर की म्यूनिसिपैलिटी की समस्या है, और केंद्र सरकार इसका हल नहीं निकाल सकती। मुझे लगता है कि आप सही कह रहे हैं। लेकिन फिलहाल इस पर आपकी क्या राय है? ऐसा लगता है कि इस समस्या का कोई हल नहीं है। लेकिन लंबे समय में देखें तो संस्थाएं मजबूत हैं। लेकिन फिलहाल तो ऐसा नहीं हो रहा जो हम कर सकते हैं।

राहुल गांधी: मुझे लगता है कि आपको विकल्प तलाशने होंगे। जितना संभव हो विकेंद्रीकरण हो, मुझे लगता है स्थानीय स्तर पर इनसे निपटा जा सकता है, जो कि अच्छी बात है। सोच यह होनी चाहिए कि जो चीजें जिला स्तर पर या राज्य स्तर पर संभल सकती हैं, उन्हें अलग कर देना चाहिए। हां, बहुत सी चीजें हैं जिन्हें कोई जिला कलेक्टर नहीं तय कर सकता, जैसे की एयरलाइंस या फिर रेलवे आदि। तो मेरा मानना है कि बड़े फैसले राष्ट्रीय स्तर पर हों, लेकिन स्थानीय मुद्दों पर फैसले , जैसे कि लॉकडाउन उसे राज्य सरकार के विवेक पर छोड़ना चाहिए। राज्यों के विकल्प को अहमियत मिले और राज्य तय करें कि वे क्या कर सकते हैं क्या नहीं कर सकते और जब जोखिम राज्यों पर आएगा तो वे इसे बेहतर तरीके से संभाल सकेंगे। लेकिन मुझे लगता है कि मौजूदा सरकार का नजरिया अलग है। वे चीजों को अपने नियंत्रण में रखना चाहते हैं। वे चीजों को देखते हैं और उसका केंद्रीकरण कर देते हैं। यह दो नजरिए हैं। मुझे नहीं लगता कि इसमें से कोई गलत या सही है। मैं तो विकेंद्रीकरण का पक्षधर हूं।

राहुल गांधी का कोरोना वायरस और इसके आर्थिक प्रभाव पर नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी के साथ बातचीत, एपिसोड - 3

डॉ बनर्जी: यही कारण है कि हम जैसे लोग कहते हैं कि प्रोत्साहन पैकेज दिया जाए। अमेरिका यही कर रहा है, जापान और यूरोप यही कर रहे हैं। हमने अभी तक इस बारे में कुछ फैसला नहीं किया है। हम अभी भी सिर्फ जीडीपी के 1% की बात कर रहे हैं। अमेरिका ने जीडीपी के 10% के बराबर पैकेज दिया है। मुझे लगता है कि एमएसएमई सेक्टर के लिए हम आसानी से कर सकते हैं, और वह सही भी होगा कि हम कुछ समय के लिए कर्ज वसूली पर रोक लगा सकते हैं। हम इससे ज्यादा भी कर सकते हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि इस तिमाही के कर्ज की अदायगी रद्द कर दी गई है और सरकार इसका भुगतान करेगी। तो आप इससे ज्यादा भी कर सकते हैं। सिर्फ कर्ज की अदायगी को आगे-पीछे करने के बजाए, इसे माफ ही कर दिया जाना सही रहेगा। लेकिन इससे भी आगे यह साफ नहीं है कि क्या सिर्फ एमएसएमई को ही लक्ष्य बनाना सही रहेगा? जरूरत तो मांग बढ़ाने की है। लोगों के हाथ में पैसा होना चाहिए ताकि वे खरीदारी कर सकें, स्टोर्स में जाएं, कंज्यूमर गुड्स खरीदें। एमएसएमई के काफी उत्पाद हैं जिन्हें लोग खरीदते हैं, लेकिन वे खरीद नहीं रहे हैं। अगर उनके पास पैसा हो और आप पैसे देने का वादा करो तो यह संभव है। पैसा है नहीं। अगर आप रेड जोन में हो, या जहां भी लॉकडाउन हटाया जा रहा है, तो अगर आपके खाते में 10,000 रुपए हैं तो आप खर्च कर सकते हो। अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए खर्च कराना सबसे आसान तरीका है। क्योंकि इससे एमएसएमई के हाथ में भी पैसा आएगा, वे भी खर्च करेंगे, और इस तरह एक चेन बन जाएगी।

राहुल गांधी: यानी हम एक तरह से न्याय योजना की बात कर रहे हैं यानी डायरेक्ट कैश ट्रांसफर जो लोगों तक सीधे पहुंचे।

डॉ बनर्जी: बिल्कुल। यह सिर्फ गरीबों के लिए ही हो, इस पर बहस हो सकती है। मैं तो बड़ी बात कह रहा हूँ ... मेरा मानना है कि टारगेटिंग ही सबसे अहम होगी। आप एक झमेले के बीच लक्ष्य तय कर रहे हो। ऐसे भी लोग होंगे जिनकी दुकान 6 सप्ताह से बंद है और वह गरीब हो गया है। मुझे नहीं पता कि ऐसे लोगों की पहचान कैसे होगी? मैं तो कहूंगा कि आबादी के निचले 60 फीसदी को लक्ष्य मानकर उन्हें पैसे देने चाहिए, इससे कुछ बुरा नहीं होगा। हम उन्हें पैसा देंगे, उन्हें जरूरत है, वे खर्च करेंगे, इसका एक प्रभावी असर होगा। मैं आपके मुकाबले इसमें कुछ और आक्रामकता चाहता हूं, मैं चाहता हूं कि पैसा गरीबों से आगे जाकर भी लोगों को दिया जाए।

राहुल गांधी: तो आप लोगों की बड़े पैमाने पर ग्रुपिंग की बात कर रहे हैं सीधे-सीधे। यानी जितना जल्दी संभव हो मांग को बढ़ाना चाहिए।

डॉ बनर्जी: बिल्कुल। मैं यही कह रहा हूं। संकट से पहले से मैं यही कह रहा हूं कि मांग की समस्या हमारे सामने है। और अब तो यह और बड़ी समस्या हो गई है, क्योंकि यह असाधारण है। मेरे पास पैसा नहीं है, मैं खरीदारी नहीं करूंगा क्योंकि मेरी तो दुकान बंद हो चुकी है। और मेरी दुकान बंद हो चुकी है तो मैं आपसे भी कुछ नहीं खरीदूंगा।

राहुल गांधी: मुझे लगता है कि आप कह रहे हैं कि जो भी करना है, उसे तेजी से करने की जरूरत है। जितना जल्दी कर पाएंगे उतना ही यह प्रभावी होगा। यानी हर सेकेंड जो जा रहा है वह नुकसान को बढ़ा रहा है।

डॉ बनर्जी: आप बिल्कुल सही कह रहे हैं। मैं नहीं चाहता कि हम मदद से पहले हर किसी की योग्यता देखें कि वह पात्र है कि नहीं। मैं मानता हूं कि हम सप्लाई और डिमांड की एक बेमेल चेन खड़ी कर लेंगे, क्योंकि पैसा तो हमने दे दिया लेकिन रेड जोन में होने के कारण रिटेल सेक्टर तो बंद है। इसलिए हमें बेहतर ढंग से सोचना होगा कि जब आप खरीदारी के लिए बाहर जाएं तभी आपको पैसा मिले न कि पहले से। या फिर सरकार वादा करे कि आप परेशान न हों, आपको पैसा मिलेगा और भूखे मरने की नौबत नहीं आएगी, ताकि आपके पास कुछ बचत रह सके। अगर लोगों को यह भरोसा दिया जाए कि दो महीने या जब तक लॉकडाउन है, उनके हाथ में पैसा रहेगा, तो वे परेशान नहीं होंगे और खर्च करना चाहेंगे। इनमें से कुछ के पास अपनी बचत होगी। इसलिए जल्दबाजी करना भी ठीक नहीं होगा, क्योंकि अभी तो सप्लाई ही नहीं है। ऐसे में पैसा दे भी दें तो वह बेकार होगा, महंगाई अलग बढ़ेगी। इस अनुरोध के साथ, हां जल्दी फैसला लेना होगा।

राहुल गांधी: यानी लॉकडाउन से जितना जल्दी बाहर आ जाएं वह बेहतर होगा। इसके लिए एक रणनीति की जरूरत होगी, इसके लिए कुछ आर्थिक गतिविधियां शुरु करनी होंगी। नहीं तो पैसा भी बेकार ही साबित होगा।

डॉ बनर्जी: लॉकडाउन से कितना जल्दी बाहर आएं यह सब बीमारी पर निर्भर करता है। अगर बहुत सारे लोग बीमार हो रहे हैं तो लॉकडाउन कैसे खत्म होगा? आप ठीक कह रहे हैं कि हमें बीमारी की रफ्तार को काबू करना होगा और इस पर नजर रखनी होगी।

राहुल गांधी का कोरोना वायरस और इसके आर्थिक प्रभाव पर नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी के साथ बातचीत, एपिसोड - 2

डॉ बनर्जी: मेरी नजर में यह दो अलग बातें हैं। एक तरह से मैं सोचता हूं कि असली समस्या जो तुरंत है वह है कि यूपीए ने जो अच्छी नीतियां बनाई थीं, वह इस समय नाकाफी हैं। सरकार ने एक तरह से उन्हें अपनाया है। ऐसा नहीं है कि इस पर कोई भेदभाव वाली असहमति थी। यह एकदम स्पष्ट है कि जो कुछ भी हो सकता था उसके लिए यूपीए की नीतियां ही काम आतीं।

मुश्किल काम यह है कि आखिर उन लोगों के लिए क्या किया जाए जो इन नीतियों या योजनाओं का हिस्सा नहीं है। और ऐसे बहुत से लोग हैं। खासतौर से प्रवासी मजदूर। यूपीए शासन के आखिरी साल में जो योजना लाई गई थी कि आधार को देशभर में लागू किया जाए और इसका इस्तेमाल पीडीएस और दूसरी योजनाओं के लिए किया जाए। आधार से जुड़े लाभ आपको मिलेंगे, आप कहीं भी हों। इस योजना को इस समय लागू करने की सबसे बड़ी जरूरत है। अगर हम पीछे मुड़कर देखें तो इससे बहुत सारे लोगों को मुसीबत से बचाया जा सकता था। अगर ऐसा होता तो लोग स्थानीय राशन की दुकान पर जाते और अपना आधार दिखाकर कहते कि मैं पीडीएस का लाभार्थीं हूं। मसलन भले ही मैं मालदा या दरभंगा या कहीं का भी रहने वाला हूं, लेकिन मैं मुंबई में इसका लाभ ले सकता हूं। भले ही मेरा परिवार मालदा या दरभंगा में रहता हो। लेकिन यहां मेरा दावा है। और ऐसा नहीं हुआ तो इसका अर्थ यही है कि बहुत से लोगों के लिए कोई सिस्टम ही नहीं है। वे मनरेगा के भी पात्र नहीं रहे क्योंकि मुंबई में तो मनरेगा है नहीं, और पीडीएस का भी हिस्सा नहीं बन पाए क्योंकि वे स्थानीय निवासी नहीं हैं।

दरअसल समस्या यह है कि कल्याणकारी योजनाओं का ढांचा बनाते वक्त सोच यह थी कि अगर कोई अपने मूल स्थान पर नहीं है तो मान लिया गया कि वह काम कर रहा है और उसे आमदनी हो रही है। और इसी कारण यह सिस्टम धराशायी हो गया।

इसके बाद सवाल है गरीबी का। मुझे नहीं पता कि अगर अर्थव्यवस्था सुधरती भी है तो इसका गरीबी पर कोई टिकाऊ असर होगा। बड़ी चिंता यह है कि क्या अर्थव्यवस्था उबरेगी? और खासतौर से जिस तरह यह बीमारी समय ले रही है और जो प्रक्रियाएं अपनाई जा रही हैं उसमें। मेरा मानना है कि हमें आशावादी होना चाहिए कि देश की आर्थिक स्थिति सुधरेगी, बस यह है कि सही फैसले लिए जाएं।

राहुल गांधी: लेकिन इसमें से अधिकतर को छोटे और मझोले उद्योगों और कारोबारों में काम मिलता है। इन्हीं उद्योगों और कारोबारों के सामने नकदी की समस्या है। इनमें से बहुत से काम-धंधे इस संकट में दिवालिया हो सकते हैं। ऐसे में इन काम-धंधों के आर्थिक नुकसान का इनसे सीधा संबंध है क्योंकि इन्हीं में से बहुत से कारोबार इन लोगों को रोजगार-नौकरी देते हैं।

डॉ बनर्जी: यही कारण है कि हम जैसे लोग कहते हैं कि प्रोत्साहन पैकेज दिया जाए। अमेरिका यही कर रहा है, जापान और यूरोप यही कर रहे हैं। हमने अभी तक इस बारे में कुछ फैसला नहीं किया है। हम अभी भी सिर्फ जीडीपी के 1% की बात कर रहे हैं। अमेरिका ने जीडीपी के 10% के बराबर पैकेज दिया है। मुझे लगता है कि एमएसएमई सेक्टर के लिए हम आसानी से कर सकते हैं, और वह सही भी होगा कि हम कुछ समय के लिए कर्ज वसूली पर रोक लगा सकते हैं। हम इससे ज्यादा भी कर सकते हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि इस तिमाही के कर्ज की अदायगी रद्द कर दी गई है और सरकार इसका भुगतान करेगी। तो आप इससे ज्यादा भी कर सकते हैं। सिर्फ कर्ज की अदायगी को आगे-पीछे करने के बजाए, इसे माफ ही कर दिया जाना सही रहेगा। लेकिन इससे भी आगे यह साफ नहीं है कि क्या सिर्फ एमएसएमई को ही लक्ष्य बनाना सही रहेगा। जरूरत तो मांग बढ़ाने की है। लोगों के हाथ में पैसा होना चाहिए ताकि वे खरीदारी कर सकें, स्टोर्स में जाएं, कंज्यूमर गुड्स खरीदें। एमएसएमई के काफी उत्पाद हैं जिन्हें लोग खरीदते हैं, लेकिन वे खरीद नहीं रहे हैं। अगर उनके पास पैसा हो और आप पैसे देने का वादा करो तो यह संभव है। पैसा है नहीं। अगर आप रेड जोन में हो, या जहां भी लॉकडाउन हटाया जा रहा है, तो अगर आपके खाते में 10,000 रुपए हैं तो आप खर्च कर सकते हो। अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए खर्च कराना सबसे आसान तरीका है। क्योंकि इससे एमएसएमई के हाथ में भी पैसा आएगा, वे भी खर्च करेंगे, और इस तरह एक चेन बन जाएगी।

राहुल गांधी: यानी हम एक तरह से न्याय योजना की बात कर रहे हैं यानी डायरेक्ट कैश ट्रांसफर जो लोगों तक सीधे पहुंचे।

राहुल गांधी का कोरोना वायरस और इसके आर्थिक प्रभाव पर नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी के साथ बातचीत, एपिसोड - 1

इंडियन नेशनल कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी और नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री डॉ अभिजीत बनर्जी के बीच कोरोना महामारी, इसके कारण पैदा होने वाली भविष्य की आर्थिक चुनौतियों और इन आर्थिक चुनौतियों से कैसे निपटा जाये पर महत्वपूर्ण संवाद।

राहुल गांधी: सबसे पहले तो आपका बहुत-बहुत धन्यवाद अपना समय देने के लिए। आप बहुत बिजी रहते हैं।

डॉ बनर्जी: नहीं...नहीं...आपसे ज्यादा नहीं।

राहुल गांधी: यह थोड़ा सपने जैसा नहीं लगता कि सबकुछ बंद है।

डॉ बनर्जी: हां ऐसा ही है, सपने जैसा, लेकिन भयावह, दरअसल यह ऐसा है कि किसी को कुछ पता नहीं है कि आगे क्या होने वाला है?

राहुल गांधी: आपके तो बच्चे हैं, तो उन्हें इस सबको देखकर कैसा लग रहा है?

डॉ बनर्जी: मेरी बेटी थोड़ा परेशान है। वह अपने दोस्तों के साथ जाना चाहती है। मेरा बेटा छोटा है और वह तो खुश है कि हर वक्त उसके मां-बाप साथ में हैं। उसके लिए तो यह कुछ भी गलत नहीं है।

राहुल गांधी: लेकिन वहां भी पूरा ही लॉकडाउन है। तो वे बाहर तो जा नहीं सकते?

डॉ बनर्जी: नहीं, नहीं, ऐसा नहीं है, हम बाहर जा सकते हैं। टहलने पर कोई बाबंदी नहीं है, साइक्लिंग और ड्राइव करने पर भी रोक नहीं है। बस इतना है कि साथ-साथ नहीं जा सकते, शायद इस पर पाबंदी है।

राहुल गांधी: इससे पहले कि मैं शुरु करूं, मेरी एक उत्सुकता है। आपको नोबेल पुरस्कार मिला। क्या आपको उम्मीद थी? या फिर यह एकदम अचानक हो गया?

डॉ बनर्जी: एकदम अचानक था यह। मुझे लगता है कि यह ऐसी चीज है कि जिसके बारे में सोचते रहो तो आप इसे बहुत ज्यादा मन में लेकर बैठ जाते हो। और मैं चीजों को मन में लेकर बैठने वाला व्यक्ति नहीं हूं, खासतौर से उन चीजों के लिए जिनका मेरे जीवन पर कोई तात्कालिक प्रभाव नहीं पड़ता है। मुझे किसी चीज की उम्मीद नहीं रहती है ... यह एकदम से सरप्राइज था मेरे लिए।

राहुल गांधी: भारत के लिए यह एक बड़ी बात थी, आपने हमें गौरवान्वित किया है।

डॉ बनर्जी: थैंक यू ...  हां यह बड़ी बात है। मैं यह नहीं कह रहा कि यह बड़ी बात नहीं है, मेरा मानना है कि आप इसे मन में लेकर बैठ जाते हो, लेकिन ऐसा नहीं है कि कोई प्रक्रिया है जो हर किसी को समझ आए। तो, हो जाती हैं चीजें।

राहुल गांधी: तो जो कुछ अहम बातें जिन पर मैं आपके साथ चर्चा करना चाहता हूं उनमें से एक है कोविड और लॉकडाउन का असर और इससे गरीब लोगों की आर्थिक तबाही। हम इसे कैसे देखें? भारत में कुछ समय से एक पॉलिसी फ्रेमवर्क है, खासतौर से जब हम यूपीए में थे तो हम गरीब लोगों को एक मौका देते थे, मसलन मनरेगा, भोजन का अधिकार आदि ...  और अब ये बहुत सारा काम जो हुआ था, उसे दरकिनार किया जा रहा है क्योंकि महामारी बीच में आ गई है और लाखों-लाखों लोग गरीबी में ढहते जा रहे हैं। यह बहुत बड़ी बात है ... इसके बारे में क्या किया जाए?

डॉ बनर्जी: मेरी नजर में यह दो अलग बातें हैं। एक तरह से मैं सोचता हूं कि असली समस्या जो तुरंत है वह है कि यूपीए ने जो अच्छी नीतियां बनाई थीं, वह इस समय नाकाफी हैं। सरकार ने एक तरह से उन्हें अपनाया है। ऐसा नहीं है कि इस पर कोई भेदभाव वाली असहमति थी। यह एकदम स्पष्ट है कि जो कुछ भी हो सकता था उसके लिए यूपीए की नीतियां ही काम आतीं।

मुश्किल काम यह है कि आखिर उन लोगों के लिए क्या किया जाए जो इन नीतियों या योजनाओं का हिस्सा नहीं है। और ऐसे बहुत से लोग हैं। खासतौर से प्रवासी मजदूर। यूपीए शासन के आखिरी साल में जो योजना लाई गई थी कि आधार को देश भर में लागू किया जाए और इसका इस्तेमाल पीडीएस और दूसरी योजनाओं के लिए किया जाए। आधार से जुड़े लाभ आपको मिलेंगे, आप कहीं भी हों। इस योजना को इस समय लागू करने की सबसे बड़ी जरूरत है। अगर हम पीछे मुड़कर देखें तो इससे बहुत सारे लोगों को मुसीबत से बचाया जा सकता था। अगर ऐसा होता तो लोग स्थानीय राशन की दुकान पर जाते और अपना आधार दिखाकर कहते कि मैं पीडीएस का लाभार्थीं हूं। मसलन भले ही मैं मालदा या दरभंगा या कहीं का भी रहने वाला हूं, लेकिन मैं मुंबई में इसका लाभ ले सकता हूं। भले ही मेरा परिवार मालदा या दरभंगा में रहता हो। लेकिन यहां मेरा दावा है। और ऐसा नहीं हुआ तो इसका अर्थ यही है कि बहुत से लोगों के लिए कोई सिस्टम ही नहीं है। वे मनरेगा के भी पात्र नहीं रहे क्योंकि मुंबई में तो मनरेगा है नहीं, और पीडीएस का भी हिस्सा नहीं बन पाए क्योंकि वे स्थानीय निवासी नहीं हैं।

दरअसल समस्या यह है कि कल्याणकारी योजनाओं का ढांचा बनाते वक्त सोच यह थी कि अगर कोई अपने मूल स्थान पर नहीं है तो मान लिया गया कि वह काम कर रहा है और उसे आमदनी हो रही है। और इसी कारण यह सिस्टम धराशायी हो गया।

रघुराम राजन के साथ राहुल गांधी की कोरोना वायरस और इसका आर्थिक प्रभाव पर बातचीत, एपिसोड - 4

राहुल गांधी: मैं यह देखकर हैरान हूं कि माहौल और भरोसा अर्थव्यवस्था के लिए कितना अहम है। कोरोना महासंकट के बीच जो चीज मैं देख रहा हूं वह यह कि विश्वास का मुद्दा असली समस्या है। लोगों को समझ ही नहीं आ रहा कि आखिर आगे क्या होने वाला है। इससे एक डर है पूरे सिस्टम में। आप बेरोजगारी की बात कर लो, बहुत बड़ी समस्या है, बड़े स्तर पर बेरोजगारी है, जो अब और विशाल होने वाली है। बेरोजगारी के लिए हम आगे कैसे बढ़ें, जब इस संकट से मुक्ति मिलेगी तो अगले 2-3 महीने में बेरोजगारी से कैसे निपटेंगे?

रघुराम राजन: आंकड़े बहुत ही चिंतित करने वाले हैं। सीएमआइई के आंकड़े देखों तो पता चलता है कि कोरोना संकट के कारण करीब 11 करोड़ और लोग बेरोजगार हो जाएंगे। 5 करोड़ लोगों की तो नौकरी ख़त्म हो जाएगी, करीब 6 करोड़ लोग श्रम बाजार से बाहर हो जाएंगे। आप किसी सर्वे पर सवाल उठा सकते हो, लेकिन हमारे सामने तो यही आंकड़े हैं और यह आंकड़ें बहुत व्यापक हैं। इससे हमें सोचना चाहिए कि नाप-तौल कर हमें अर्थव्यवस्था खोलनी चाहिए, लेकिन जितना तेजी से हो सके, उतना तेजी से यह करना होगा जिससे लोगों को नौकरियां मिलना शुरु हों। हमारे पास सभी वर्गों की मदद की क्षमता नहीं है। हम तुलनात्मक तौर पर गरीब देश हैं, लोगों के पास ज्यादा बचत नहीं है।

लेकिन मैं आपसे एक सवाल पूछता हूं। हमने अमेरिका में बहुत सारे उपाय देखें और जमीनी हकीकत को ध्यान में रखते हुए यूरोप ने भी ऐसे कदम उठाए। भारत सरकार के सामने एकदम अलग हकीकत है जिसका वह सामना कर रही है। आपकी नजर में पश्चिम के हालात और भारत की जमीनी हकीकत से निपटने में क्या अंतर है?

राहुल गांधी: सबसे पहले स्केल, समस्या की विशालता और इसके मूल में वित्तीय व्यवस्था समस्या है। असमानता और असमानता की प्रकृति। जाति की समस्या, क्योंकि भारतीय समाज जिस व्यवस्था वाला है वह अमेरिकी समाज से एकदम अलग है। भारत को जो विचार पीछे छकेल रहे हैं वह समाज में गहरे पैठ बनाए हुए हैं और छिपे हुए हैं। ऐसे में मुझे लगता है कि बहुत सारे सामाजिक बदलाव की भारत को जरूरत है, और यह समस्या हर राज्य में अलग है। तमिलनाडु की राजनीति, वहां की संस्कृति, वहां की भाषा, वहां के लोगों की सोच उत्तर प्रदेश वालों से एकदम अलग है। ऐसे में आपको इसके आसपास ही व्यवस्थाएं विकसित करनी होंगी। पूरे भारत के लिए एक ही फार्मूला काम नहीं करेगा, काम नहीं कर सकता।

इसके अलावा, हमारी सरकार अमेरिका से एकदम अलग है, हमारी शासन पद्धति में, हमारे प्रशासन में नियंत्रण की एक सोच है। एक उत्पादक के मुकाबले हमारे पास एक डीएम (डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट) है। हम सिर्फ नियंत्रण के बारे में सोचते हैं, लोग कहते हैं कि अंग्रेजों के जमाने से ऐसा है। मेरा ऐसा मानना नहीं है। मेरा मानना है कि यह अंग्रेजों से भी पहले की व्यवस्था है।

भारत में शासन का तरीका हमेशा से नियंत्रण का रहा है और मुझे लगता है कि आज हमारे सामने यही सबसे बड़ी चुनौती है। कोरोना बीमारी को हम नियंत्रित नहीं कर पा रहे, इसलिए जैसा कि आपने कहा, इसे रोकना होगा।

एक और चीज है जो मुझे परेशान करती है, वह है असमानता। भारत में बीते कई दशकों से ऐसा है। जैसी असमानता भारत में है, अमेरिका में नहीं दिखेगी। तो मैं जब भी सोचता हूं तो यही सोचता हूं कि असमानता कैसे कम हो क्योंकि जब कोई सिस्टम अपने हाइ प्वाइंट पर पहुंच जाता है तो वह काम करना बंद कर देता है। आपको गांधी जी का यह वाक्य याद होगा कि कतार के आखिर में जाओ और देखो कि वहां क्या हो रहा है? एक नेता के लिए यह बहुत बड़ी सीख है, इसका इस्तेमाल नहीं होता, लेकिन मुझे लगता है कि यहीं से काफी चीजें निकलेंगी।

असमानता से कैसे निपटें आपकी नजर में? कोरोना संकट में भी यह दिख रहा है। यानी जिस तरह से भारत गरीबों के साथ व्यवहार कर रहा है, किस तरह हम अपने लोगों के साथ रवैया अपना रहे हैं? प्रवासी बनाम संपन्न की बात है, दो अलग-अलग विचार हैं। दो अलग-अलग भारत हैं। आप इन दोनों को एक साथ कैसे जोड़ेंगे?

रघुराम राजन: देखिए, आप पिरामिड की तली को जानते हैं। हम गरीबों के जीवन को बेहतर करने के कुछ तरीके जानते हैं, लेकिन हमें एहतियात से सोचना होगा जिससे हम हर किसी तक पहुंच सकें। मेरा मानना है कि कई सरकारों ने भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा और बेहतर नौकरियों के लिए काम किया है लेकिन चुनौतियों के बारे में मुझे लगता है कि प्रशासनिक चुनौतियां है सब तक पहुंचने में। मेरी नजर में बड़ी चुनौती निम्न मध्य वर्ग से लेकर मध्य वर्ग तक है। उनकी जरूरतें हैं, नौकरियां, अच्छी नौकरियां ताकि लोग सरकारी नौकरी पर आश्रित न रहें।

मेरा मानना है कि इस मोर्चे पर काम करने की जरूरत है और इसी के मद्देनजर अर्थव्यवस्था का विस्तार करना जरूरी है। हमने बीते कुछ सालों में हमारे आर्थिक विकास को गिरते हुए देखा है, बावजूद इसके कि हमारे पास युवा कामगारों की फौज है।

इसलिए मैं कहूंगा कि सिर्फ संभावनाओं पर न जाएं, बल्कि अवसर सृजित करें जो फले फूलें। अगर बीते सालों में कुछ गलतियां हुईं भी तो, यही रास्ता है आगे बढ़ने का। उस रास्ते के बारे में सोचें जिसमें हम कामयाबी से बढ़ते रहे हैं, सॉफ्टवेयर और ऑउटसोर्सिंग सेवाओं में आगे बढ़ें। कौन सोच सकता था कि ये सब भारत की ताकत बनेगा, लेकिन यह सब सामने आया है और कुछ लोग तर्क देते हैं कि यह इसलिए सामने आया क्योंकि सरकार ने इसकी तरफ ध्यान नहीं दिया। मैं ऐसा नहीं मानता। लेकिन हमें किसी भी संभावना के बारे में विचार करना चाहिए, लोगों की उद्यमिता को मौका देना चाहिए।

राहुल गांधी: थैंक्यू, थैंक्यू डॉ. राजन

रघुराम राजन: थैंक्यू वेरी मच, आपसे बात करके बहुत अच्छा लगा।

राहुल गांधी: आप सुरक्षित तो हैं न ?

रघुराम राजन: मैं सुरक्षित हूं, गुडलक

राहुल गांधी: थैंक्यू, बाय