भारत और चीन के बीच गलवानी घाटी में हुई हिंसक झड़प के बाद दोनों तरफ से शांति बहाल करने की कोशिशों के बीच भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और चीन के विदेश मंत्री वांग यी के बीच रविवार को टेलिफ़ोन पर बातचीत हुई।
भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और चीन के विदेश मंत्री वांग यी के बीच हुई बातचीत का ब्यौरा भारत स्थित चीनी दूतावास ने बयान जारी दिया है।
भारत में चीनी राजदूत सुन वायडोंग ने अपने बयान में दोनों विशेष प्रतिनिधियों के आपस में बातचीत का ब्यौरा दिया है। उन्होंने कहा है कि चीनी विदेश मंत्री ने अजीत डोभाल को बताया कि भारत और चीन के आपसी रिश्ते 70 साल पुराने हैं।
चीनी विदेश मंत्री के मुताबिक़ भारत और चीन के बीच वेस्टर्न सेक्टर सीमा के गलवान घाटी में जो कुछ हुआ है, उसमें सही क्या है और ग़लत क्या हुआ है - ये स्पष्ट है।
चीनी विदेश मंत्री ने यह भी कहा कि चीन अपनी संप्रभुता की रक्षा करने के साथ-साथ इलाके में शांति भी बहाल करना चाहता है।
वांग यी ने अपनी बातचीत में इस बात पर भी ज़ोर दिया कि चीन और भारत दोनों की शीर्ष प्राथमिकता विकास है, ऐसे में दोनों देशों को तनाव कम करने पर ध्यान देना चाहिए।
चीनी राजदूत के मुताबिक़ दोनों प्रतिनिधियों के बीच विस्तार से बातचीत हुई। इस बातचीत में मोटे तौर पर चार बातों पर सहमति बनी है -
- दोनों देश के शीर्ष नेताओं के बीच बनी सहमति को लागू किया जाएगा। दोनों नेताओं के बीच सीमावर्ती इलाकों में शांति के साथ विकास के लिए लंबे समय तक साथ काम करने की सहमति है।
- दोनों देश आपसी समझौते के मुताबिक सीमा पर तनातनी को कम करने के लिए संयुक्त रूप से कोशिश करेंगे।
- विशेष प्रतिनिधियों के बीच होने वाली बातचीत के ज़रिए दोनों पक्ष आपसी संवाद को बेहतर बनाएंगे। भारत चीन के बीच सीमा मामलों में सलाह और संयोजन के लिए वर्किंग मैकेनिज्म की व्यवस्था को नियमित करके उसे बेहतर बनाया जाएगा। इससे दोनों पक्षों के बीच भरोसा मज़बूत होगा।
दोनों पक्ष ने हाल में हुई कमांडर स्तर की बैठक में जिन बातों पर सहमति जताई गई है, उसका स्वागत किया है। पहली जुलाई को कमांडर स्तर की बैठक में दोनों पक्षों ने सीमा पर तनातनी को कम करने पर सहमति जताई थी।
इससे पहले भारतीय विदेश मंत्रालय की ओर से बयान जारी कर कहा गया था कि भारत और चीन के बीच वेस्टर्न सेक्टर की सीमा पर हाल की गतिविधियों को लेकर डोभाल और वांग यी के बीच स्पष्ट और विस्तार से बात हुई है।
दोनों पक्षों में इस बात पर सहमति जताई गई है कि द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने के लिए दोनों देशों को सीमा पर शांति बहाल करनी होगी और मतभेदों को विवाद का रूप लेने से रोकना होगा।
इस दिशा में दोनों पक्ष सीमा पर तनातनी कम करने की प्रक्रिया पर काम कर चुके हैं, यानी अब वैसी स्थिति नहीं है जैसी कि दोनों पक्षों के सैनिकों के आमने सामने आ जाने से उत्पन्न हो गई थी। दोनों पक्षों ने इसे चरणबद्ध तरीके से कदम दर कदम करने पर सहमति जताई है।
बयान में ये भी कहा गया है कि दोनों विशेष प्रतिनिधियों की इस बातचीत में दोनों देशों के सैन्य और राजनयिक अधिकारियों के बीच भी बातचीत जारी रखने पर सहमति जताई गई है।
इसके अलावा डोभाल और वांग यी के बीच आपसी बातचीत को नियमित रखने पर भी सहमति बनी है।
वहीं समाचार एजेंसी एएफ़पी के मुताबिक चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता झाओ लिजियान ने सोमवार को बीजिंग में पत्रकारों से कहा, ''दोनों पक्षों में सीमा पर तनातनी कम करने को लेकर साकारात्मक प्रगति हुई है।''
लिजियान ने उम्मीद जताई है कि भारतीय पक्ष चीन के साथ मिलकर उन बातों को लागू करने की दिशा में कदम बढ़ाएगा जिन बातों को लेकर आपसी सहमति बन गई है।
भारत-चीन सीमा विवाद पर नज़र रख रहे अधिकारियों ने बीबीसी को बताया है कि सीमा पर तनातनी को कम करने की प्रक्रिया सोमवार सुबह से शुरू हो गई है।
अधिकारियों ने बताया कि यह काम तीन जगहों पर चल रहा है, ये जगहें हैं - गलवान, गोगरा और हॉट स्प्रिंग्स। बीबीसी को जानकारी देने वाले अधिकारी ने स्पष्ट किया कि वे देपसांग या पैंगोंग त्सो झील की बात नहीं कर रहे हैं।
एक अन्य अधिकारी ने बताया, "तंबू और अस्थायी ढांचे दोनों तरफ़ से हटाए जा रहे हैं और सैनिक पीछे हट रहे हैं। लेकिन इसका मतलब वापसी या प्रकरण का अंत नहीं है।''
भारतीय अधिकारियों ने बताया कि इन गतिविधियों की लगातार निगरानी की जा रही है जिसके लिए सैटेलाइट तस्वीरों और ऊँचे प्लेटफॉर्म्स की मदद ली जा रही है।
कई मीडिया रिपोर्टों में बताया गया है कि चीनी सैनिक कितने पीछे हटे हैं, इस सवाल के जवाब में अधिकारी ने कोई दूरी बताने से इनकार किया।
उन्होंने इतना ही कहा, ''यह उस प्रक्रिया की शुरूआत है जो 30 जून को चुसुल में हुई दोनों पक्षों के कमांडरों की बैठक के बाद तय की गई थी।''
हालांकि मीडिया में आ रही रिपोर्ट्स के अनुसार गलवान में जहां पर हिंसा हुई थी चीनी सैनिक वहां से दो किलोमीटर पीछे की ओर जा रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि बीते 15 जून को गलवान घाटी में भारत और चीन के सैनिकों के बीच हिंसक झड़प हुई थी, जिसमें 20 भारतीय सैनिकों की मौत हो गई थी।
इसके बाद बीते एक जुलाई को दोनों देशों की सेनाओं के बीच कमांडर स्तर की बातचीत हुई और उस बातचीत में भी भारत-चीन एलएसी पर तनातनी को कम करने पर सहमति जताई गई थी।
इसके बाद सप्ताह भर पहले भारत सरकार ने 59 ऐसे मोबाइल ऐप्स बंद करने की घोषणा की जिनमें जाने माने सोशल प्लेटफ़ॉर्म टिकटॉक, वीचैट अली बाबा ग्रुप का यूसी ब्राउज़र भी शामिल थे।
हालांकि भारत के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने चीन का नाम नहीं लिया लेकिन स्पष्ट कहा कि शिकायत मिली थी कि एंड्रॉयड और आईओएस पर ये ऐप्स लोगों के निजी डेटा में भी सेंध लगा रहे थे। इन ऐप्स पर पाबंदी से भारत के मोबाइल और इंटरनेट उपभोक्ता सुरक्षित होंगे। यह भारत की सुरक्षा, अखंडता और संप्रभुता के लिए ज़रूरी है।
क्या बहिष्कार फ़ेसबुक को नुक़सान पहुंचा सकता है? इसका जवाब 'हां' है।
18वीं शताब्दी में हुए 'उन्मूलनवादी आंदोलन' (एबोलिशनिस्ट मूवमेंट) ने ब्रिटेन के लोगों को ग़ुलामों की बनाई हुई वस्तुओं को ख़रीदने से रोका।
इस आंदोलन का बड़ा असर हुआ। लगभग तीन लाख लोगों ने चीनी ख़रीदनी बंद कर दी, जिससे ग़ुलामी प्रथा को ख़त्म किए जाने का दबाव बढ़ा।
'स्टॉप हेट फ़ॉर प्रॉफ़िट' वो ताज़ा अभियान है जिसमें 'बहिष्कार' को राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है। इस मुहिम का दावा है कि फ़ेसबुक अपने प्लेटफ़ॉर्म पर नफ़रत से भरी और नस्लवादी सामग्री (कॉन्टेंट) हटाने की पर्याप्त कोशिश नहीं करता।
'स्टॉप हेट फ़ॉर प्रॉफ़िट' मुहिम ने कई बड़ी कंपनियों को फ़ेसबुक और कुछ अन्य सोशल मीडिया प्लैटफ़ॉर्म्स से अपने विज्ञापन हटाने के लिए राज़ी कर लिया है।
फ़ेसबुक से अपने विज्ञापन हटाने वालों में कोका-कोला, यूनीलीवर और स्टारबक्स के बाद अब फ़ोर्ड, एडिडास और एचपी जैसी नामी कंपनियां भी शामिल हो गई हैं।
समाचार वेबसाइट 'एक्सियस' के अनुसार माइक्रोसॉफ़्ट ने भी फ़ेसबुक और इंस्टाग्राम पर मई में ही विज्ञापन देना बंद कर दिया था। माइक्रोसॉफ़्ट ने अज्ञात 'अनुचित सामग्री' की वजह से फ़ेसबुक पर विज्ञापन देने बंद किए हैं।
इस बीच रेडिट और ट्विच जैसे अन्य ऑनलाइन प्लंटफ़ॉर्म्स ने भी अपने-अपने स्तर पर नफ़रत-विरोधी क़दम उठाए हैं और फ़ेसबुक पर दबाव बढ़ा दिया है।
तो क्या इस तरह के बहिष्कार से फ़ेसबुक को भारी नुक़सान हो सकता है?
इस सवाल का छोटा सा जवाब है - हां। क्योंकि फ़ेसबुक के रेवेन्यू का एक बड़ा हिस्सा विज्ञापनों से ही आता है।
अवीवा इन्वेस्टर्स के डेविड कमिंग ने बीबीसी से कहा कि फ़ेसबुक से लोगों का भरोसा उठ गया है और यूज़र्स को फ़ेसबुक के रवैये में नैतिक मूल्यों की कमी नज़र आई है। डेविम कमिंग का मानना है कि ये धारणाएं फ़ेसबुक के कारोबार को बुरी तरह नुक़सान पहुंचा सकती हैं।
शुक्रवार को फ़ेसबुक के शेयर की कीमतों में आठ फ़ीसदी गिरावट दर्ज की गई थी। नतीजन, कंपनी के सीईओ मार्क ज़करबर्ग को कम से कम साढ़े पांच खरब रुपयों का नुक़सान हुआ।
लेकिन क्या ये नुक़सान और बड़ा हो सकता है? क्या इससे आने वाले दिनों में फ़ेसबुक के अस्तित्व को ख़तरा पैदा हो सकता है? इन सवालों के स्पष्ट जवाब मिलने अभी बाकी हैं।
पहली बात तो ये है कि फ़ेसबुक बहिष्कार का सामना करने वाली पहली सोशल मीडिया कंपनी नहीं है।
साल 2017 में कई बड़े ब्रैंड्स ने ऐलान किया कि वो यूट्यूब पर विज्ञापन नहीं देंगे। ऐसा इसलिए हुआ था क्योंकि एक ख़ास ब्रैंड का विज्ञापन किसी नस्लभेदी और होमोफ़ोबिक (समलैंगिकता के प्रति नफ़रत भरा) वीडियो के बाद दिखाया गया था।
इस ब्रैंड के बहिष्कार को अब लगभग पूरी तरह भुला दिया गया है। यूट्यूब ने अपनी विज्ञापन नीतियों में बदलाव किया और अब यूट्यूब की पेरेंट कंपनी गूगल भी इस सम्बन्ध में ठीक काम कर रही है।
हो सकता है कि इस बहिष्कार का फ़ेसबुक को बहुत ज़्यादा नुक़सान न हो। इसके कुछ और कारण भी हैं।
पहली बात तो ये कि कई कंपनियों ने सिर्फ़ जुलाई महीने के लिए फ़ेसबुक का बहिष्कार करने की बात कही है। दूसरी बात ये कि फ़ेसबुक के रेवेन्यू का एक बड़ा हिस्सा छोटे और मध्यम कंपनियों के विज्ञापन से भी आता है।
सीएनएन की रिपोर्ट के अनुसार पिछले साल सबसे ज़्यादा ख़र्च करने वाले 100 ब्रैंड्स से फ़ेसबुक को तकरीबन तीन खरब रुपये की कमाई हुई थी और यह विज्ञापन से होने वाली कुल कमाई का महज़ छह फ़ीसदी था।
एडवर्टाइज़िंग एजेंसी डिजिटल ह्विस्की के प्रमुख मैट मॉरिसन ने बीबीसी को बताया कि बहुत-सी छोटी कंपनियों के लिए 'विज्ञापन न देना संभव नहीं है।'
मॉरिसन कहते हैं, "जो कंपनियां टीवी पर विज्ञापन के लिए भारी-भरकम राशि नहीं चुका सकतीं, उनके लिए फ़ेसबुक एक ज़रूरी माध्यम है। कारोबार तभी सफल हो सकता है जब कंपनियां अपने संभावित ग्राहकों तक पहुंच पाएं। इसलिए वो विज्ञापन देना जारी रखेंगी।''
इसके अलावा, फ़ेसबुक का ढांचा ऐसा है कि ये मार्क ज़करबर्ग को किसी भी तरह के बदलाव करने की ताक़त देता है। अगर वो कोई नीति बदलना चाहते हैं तो बदल सकते हैं। इसके लिए सिर्फ़ उनके विचारों को बदला जाना ज़रूरी है। अगर ज़करबर्ग कार्रवाई न करना चाहें तो नहीं करेंगे।
हालांकि पिछले कुछ दिनों में मार्क ज़करबर्ग ने बदलाव के संकेत दिए हैं। फ़ेसबुक ने शुक्रवार को ऐलान किया कि वो नफ़रत भरे कमेंट्स को टैग करना शुरू करेगा।
दूसरी तरफ़, बाकी कंपनियां ख़ुद से अपने स्तर पर कार्रवाई कर रही हैं।
सोमवार को सोशल न्यूज़ वेबसाइट रेडिट ने ऐलान किया कि वो 'द डोनाल्ड ट्रंप फ़ोरम' नाम के एक समूह पर प्रतिबंध लगा रहा है। इस समूह के सदस्यों पर नफ़रत और धमकी भरे कमेंट करने का आरोप है। ये समूह सीधे तौर पर राष्ट्रपति ट्रंप से नहीं जुड़ा था लेकिन इसके सदस्य उनके समर्थन वाले मीम्स शेयर करते थे।
इसके अलावा ऐमेज़न के स्वामित्व वाले वीडियो स्ट्रीमिंग प्लेटफ़ॉर्म ट्विच ने भी 'ट्रंप कैंपेन' द्वारा चलाए जाने वाले एक अकाउंट पर अस्थायी रूप से पाबंदी लगा दी है। ट्विच ने कहा है कि राष्ट्रपति ट्रंप की रैलियों के दो वीडियो में कही गई बातें नफ़रत को बढ़ावा देने वाली थीं।
इसमें से एक वीडियो साल 2015 (ट्रंप के राष्ट्रपति चुने जाने से पहले) का था। इस वीडियो में ट्रंप ने कहा था कि मेक्सिको बलात्कारियों को अमरीका में भेज रहा है।
ट्विच ने अपने बयान में कहा, "अगर किसी राजनीतिक टिप्पणी या ख़बर में भी नफ़रत भरी भावना है तो हम उसे अपवाद नहीं मानते। हम उसे रोकते हैं।''
ये साल सभी सोशल मीडिया कंपनियों के लिए चुनौती भरा होने वाला है और फ़ेसबुक भी इन चुनौतियों के दायरे से बाहर नहीं है। हालांकि कंपनियां हमेशा अपनी बैलेंस शीट को ध्यान में रखकर फ़ैसले लेती हैं। इसलिए अगर ये बहिष्कार लंबा खिंचता है और ज़्यादा कंपनियां इसमें शामिल हो जाती हैं तो ये साल फ़ेसबुक के लिए काफ़ी कुछ बदल देगा।
प्रवासियों को लेकर कुवैत में तैयार हो रहे क़ानून ने खाड़ी देश में रह रहे भारतीयों के मन में उन चिंताओं को फिर से जगा दिया है जब दो साल पहले नियमों में बदलाव के चलते सैकड़ों भारतीय इंजीनियरों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा था।
अंग्रेज़ी अख़बार 'अरब न्यूज़' के मुताबिक़ कुवैत की नेशनल एसेंबली की क़ानूनी समिति ने प्रवासियों पर तैयार हो रहे एक बिल के प्रावधान को विधि सम्मत माना है।
ख़बरों के मुताबिक़ मंज़ूरी के लिए इस प्रस्ताव को दूसरी समितियों के पास भेजा जाने वाला है। इस क़ानून के मसौदे में कहा गया है कि कुवैत में रहने वाले भारतीयों की तादाद को देश की कुल आबादी के 15 फ़ीसद तक सीमित किया जाना चाहिए।
समझा जाता है कि वहां रहने वाले तक़रीबन 10 लाख प्रवासी भारतीयों में से सात लाख लोगों को बिल के पास होने की सूरत में वापस लौटना पड़ सकता है।
सऊदी अरब के उत्तर और इराक़ के दक्षिण में बसे इस छोटे से मुल्क की तक़रीबन पैंतालीस लाख की कुल आबादी में मूल कुवैतियों की जनसंख्या महज़ तेरह-साढ़े तेरह लाख ही है।
यहां मौजूद मिस्र, फिलिपीन्स, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका और दूसरे मुल्कों के प्रवासियों में सबसे अधिक भारतीय हैं।
ख़बरों के मुताबिक़, प्रस्तावित क़ानून में दूसरे मुल्कों से आकर कुवैत में रहने वाले लोगों की तादाद को भी कम करने की बात कही गई है। कहा गया है कि प्रवासियों की तादाद को वर्तमान स्तर से कम करके कुल आबादी के 30 फ़ीसद तक ले जाया जाएगा।
कुवैत की एक मंटीनेशनल कंपनी में काम करने वाले नासिर मोहम्मद (बदला हुआ नाम) को इंजीनयरिंग की डिग्री होते हुए भी मजबूरी में सुपरवाइज़र के तौर पर काम करना पड़ रहा है।
वो कहते हैं, ''यहां रहने वाले हिंदुस्तानी सोच रहे हैं कि अगर बिल क़ानून बन गया तो क्या होगा?''
नासिर मोहम्मद फिर भी ख़ुद को ख़ुशक़िस्मत मानते हैं कि उन्हें पुरानी कंपनी की जगह नई कंपनी में काम मिल गया वर्ना 2018 में आए नए कुवैती नियमों के दायरे से बाहर हो जाने की वजह से आईआईटी और बिट्स पिलानी से पास हुए इंजीनियरों तक की नौकरी बस देखते-देखते चली गई थी।
भारत की पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने इंजीनियरों के मामले को कैवत की सरकार के साथ उठाया भी था लेकिन उसका कोई हल नहीं निकल सका।
नासिर मोहम्मद कहते हैं, "हालात ये हैं कि इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल कर चुके बहुत सारे भारतीय कुवैत में सुपरवाइज़र, फ़ोरमैन वग़ैरह की तनख्वाह और ओहदों पर काम कर रहे हैं जबकि ड्यूटी उन्हें एक इंजीनियर की निभानी पड़ती है।''
कुवैत में रह रहे हैदराबाद निवासी मोहम्मद इलियास कहते हैं कि नए प्रवासी क़ानून जैसे नियम की सुगबुगाहट 2008 की आर्थिक मंदी के बाद से बार-बार होती रही है और ये 2016 में तब और तेज़ हुई थी जब सऊदी अरब ने निताक़त क़ानून को लागू किया था।
निताक़त क़ानून के मुताबिक़ सऊदी अरब के सरकारी विभागों और कंपनियों में स्थानीय लोगों की नौकरी दर को ऊपर ले जाना है।
पिछले साल एक कुवैती सांसद ख़ालिद अल-सालेह ने एक बयान जारी कर सरकार से मांग की थी कि "प्रवासियों के तूफ़ान को रोका जाना चाहिए जिन्होंने नौकरियों और हुकूमत के ज़रिये मिलने वाली सेवाओं पर क़ब्ज़ा जमा लिया है।''
सफ़ा अल-हाशेम नाम की एक दूसरी सांसद ने चंद साल पहले कहा था कि "प्रवासियों को साल भर तक ड्राइविंग लाइसेंस न देने और एक कार ही रखने की इजाज़त दिए जाने के लिए क़ानून लाया जाना चाहिए।''
सफ़ा अल-हाशेम के इस बयान की कुछ हलकों में निंदा भी हुई थी।
कुवैत की नेशनल एसेंबली में 50 सांसद चुनकर आते हैं हालांकि माना जाता है कि वहां अमीर ही फ़ैसला लेने वाली भूमिका में हैं।
हाल में भी जब नए क़ानून की बात चली है तो कुछ स्थानीय लोग इसके ख़िलाफ़ भी बयान देते दिखाई दिए हैं।
19वीं सदी के अंत से 1961 तक ब्रिटेन के 'संरक्षण' में रहे कुवैत में भारतीयों का जाना लंबे समय से शुरु हो गया था। इस समय व्यापार से लेकर तक़रीबन सारे क्षेत्रों में वहां भारतीय मौजूद हैं, कुवैती घरों में ड्राइवर, बावर्ची से लेकर आया (महिला नौकरानी) तक का काम करने वालों की संख्या साढ़े तीन लाख तक बताई जाती है। लोगों का मानना है कि जल्दी-जल्दी में दूसरे लोगों से उनकी जगह भर पाना इतना आसान न होगा।
रीवन डिसूज़ा का परिवार 1950 के दशक में ही भारत से कुवैत चला गया था और उनकी पैदाईश भी वहीं की है।
रीवन डिसूज़ा स्थानीय अंग्रेज़ी अख़बार टाईम्स कुवैत के संपादक हैं।
बीबीसी से बातचीत के दौरान वो कहते हैं, "प्रवासियों पर बिल को अभी महज़ क़ानूनी समिति द्वारा संविधान के अनुकूल माना गया है, अभी इसे कई और कमिटियों जैसे मानव संसाधन समिति और दूसरे चरणों से गुज़रना है। इसके बाद ही ये बिल के तौर पर पेश हो सकेगा। इसके क़ानून बनने की बात उसके बाद ही मुमकिन है।''
रीवन डिसूज़ा इसे एक दूसरे नज़रिए से भी देखते हैं।
वो कहते हैं कि कोविड-19 से उपजे संकट और उसके बीच भारत सरकार के ज़रिये वहां रह रहे ग़ैर-क़ानूनी लोगों को वापस ले जाने की स्थानीय सरकार की मांग की अनदेखी करने को लेकर कुवैती हुकूमत के कुछ हलक़ों में नाराज़गी है और वो अब किसी एक देश के काम करने वालों पर आश्रित नहीं रहना चाहते हैं।
भारत में कोरोना वायरस की वैक्सीन 15 अगस्त तक बना लेने की अंतिम तारीख़ तय करने से जुड़े मामले पर इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) ने अब सफ़ाई जारी की है। आईसीएमआर ने कहा है कि वैश्विक रूप से स्वीकृत नियमों के तहत ही फ़ास्ट ट्रैक वैक्सीन बनाई जाएगी।
आईसीएमआर ने अपना दो पन्नों का बयान ट्वीट करते हुए लिखा है कि भारत के लोगों की सुरक्षा और हित सर्वोच्च प्राथमिकता है।
दरअसल 15 अगस्त की तारीख़ पर बहस आईसीएमआर के महानिदेशक डॉक्टर बलराम भार्गव के इस हफ़्ते लिखे गए एक मेमो के बाद शुरू हुई थी। इसमें उन्होंने भारत की शीर्ष क्लीनिकल रिसर्च एजेंसियों से स्वतंत्रता दिवस तक कोरोना वायरस की वैक्सीन लॉन्च करने की बात कही थी।
अब आईसीएमआर ने महानिदेशक के बयान पर सफ़ाई जारी करते हुए कहा है, ''डीजी-आईसीएमआर का पत्र क्लीनिकल ट्रायल कर रहे अनुसंधानकर्ताओं से बेवजह की लाल-फ़ीताशाही से बचने के लिए था ताकि ज़रूरी प्रक्रियाएं भी न छूटें और नए प्रतिभागियों की भर्ती भी हो सके।''
''साथ ही नए स्वदेशी टेस्टिंग किट या कोविड-19 से संबंधित दवाई को बाज़ार में उतारने के लिए फ़ास्ट ट्रैक अनुमति में लाल-फ़ीताशाही बाधा न बने। स्वदेशी वैक्सीन विकसित करने की प्रक्रिया में धीमी गति से भी बचने को कहा गया था ताकि इस चरण को जल्द पूरा कर लिया जाए और जनसंख्या आधारित ट्रायल की शुरुआत की जा सके।''
आईसीएमआर ने कहा है कि फ़ास्ट ट्रैक वैक्सीन विकसित करने की प्रक्रिया वैश्विक रूप से स्वीकृत नियमों के तहत हो रही है।
आईसीएमआर का कहना है कि वैक्सीन का जानवरों और इंसानों पर एक साथ परीक्षण किया जा सकता है।
साथ ही वैक्सीन का ट्रायल मुश्किल से मुश्किल प्रयोगों के साथ होगा और ज़रूरत पड़ने पर डाटा सेफ़्टी मॉनिटरिंग बोर्ड इसकी समीक्षा कर सकता है।
भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने उम्मीद जताई है कि भारत में बन रही कोरोना वैक्सीन 15 अगस्त तक लॉन्च हो जानी चाहिए। आईसीएमआर ने इस वैक्सीन के ट्रायल से जुड़े संस्थानों को ख़त लिखकर ये बात कही।
इस स्वदेशी वैक्सीन को आईसीएमआर और हैदराबाद स्थित भारत बायोटेक कंपनी मिलकर बना रही है।
आईसीएमआर का कहना है कि एक बार क्लीनिकल ट्रायल पूरा हो जाए तो 15 अगस्त यानी भारत की आज़ादी के दिन इस वैक्सीन को आम लोगों के लिए लॉन्च किया जा सकता है।
क्लीनिकल ट्रायल के लिए भारत के 12 संस्थानों को चुना गया है। आईसीएमआर के निदेशक डॉक्टर बलराम भार्गव ने दो जुलाई को इन 12 संस्थानों को ख़त लिखकर कहा कि उन्हें सात जुलाई तक क्लीनिकल ट्रायल की इजाज़त ले लेनी चाहिए।
अपने पत्र में डॉक्टर भार्गव ने लिखा, ''कोरोना को रोकने के लिए आईसीएमआर के ज़रिए बनाई गई वैक्सीन के फ़ास्ट-ट्रैक ट्रायल के लिए भारत बायोटेक कंपनी के साथ एक समझौता किया गया है। कोरोनावायरस से एक स्ट्रेन निकालकर इस वैक्सीन को बनाया गया है।
''क्लीनिकल ट्रायल के बाद आईसीएमआर 15 अगस्त तक लोगों को ये वैक्सीन उपलब्ध कराना चाहता है। भारत बायोटेक भी युद्ध स्तर पर काम कर रही है। लेकिन इस वैक्सीन की सफलता उन संस्थानों के सहयोग पर निर्भर है जिन्हें क्लीनिकल ट्रायल के लिए चुना गया है।''
भारत-चीन सीमा तनाव के बीच अमरीका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो का एक नया बयान सामने आया है।
माइक पॉम्पियो ने ब्रसेल्स फ़ोरम में कहा कि चीन से भारत और दक्षिण-पूर्वी एशिया में बढ़ते ख़तरों को देखते हुए अमरीका ने यूरोप से अपनी सेना की संख्या कम करने का फ़ैसला किया है।
भारत-चीन लद्दाख सीमा पर 15-16 जून को गलवान घाटी में दोनों देशों के सैनिकों के बीच हिंसक झड़प हुई थी, जिसमें भारत के 20 सैनिक मारे गए थे। दोनों देशों के बीच इस विवाद को सुलझाने के लिए बैठकों का दौर जारी है। लेकिन पूरे विश्व में इसकी चर्चा हो रही है।
इस तनाव पर अमरीकी विदेश मंत्री माइक पहले भी संवेदना जता चुके हैं। अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा था कि वो भारत और चीन के बीच जारी तनाव पर नज़र रखे हुए हैं और मदद करना चाहते हैं।
ऐसे में अमरीकी विदेश मंत्री के नए बयान ने दोबारा से भारत-चीन सीमा विवाद को सुर्ख़ियों में ला दिया है।
माइक पॉम्पियो ने कहा, ''हम इस बात को सुनिश्चित करना चाहते हैं कि हम चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी का सामना करने के लिए तैयार रहें। हमें लगता है कि हमारे वक़्त की यह चुनौती है और हम इसे सुनिश्चित करने जा रहे हैं कि हमारी तैयारी पूरी है।''
अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल ही में घोषणा की थी कि अमरीका, जर्मनी में अपनी सेना की तादाद घटाएगा। राष्ट्रपति ट्रंप के इस फ़ैसले से यूरोपीय यूनियन ने नाराज़गी ज़ाहिर की थी।
अमरीका में डोनाल्ड ट्रंप के विरोधी इस प्रस्ताव का विरोध कर रहे हैं। वहाँ की राजनीति में इसे अमरीका को सैन्य रूप से कमज़ोर करने वाले बयान के तौर पर पेश किया जा रहा है। इसी साल नंवबर में वहाँ चुनाव होने हैं। इस लिहाज़ से ये बयान और महत्वपूर्ण हो जाता है।
लेकिन भारत में भी चीन के साथ सीमा विवाद के मद्देनज़र इस बयान को काफ़ी अहमियत दी जा रही है।
माइक पॉम्पियो ने सिर्फ़ भारत के संदर्भ में ऐसा नहीं कहा है। वैसे इस इलाके़ में भारत अमरीका के लिए एक महत्वपूर्ण पार्टनर है।
भारत-चीन सीमा विवाद के बाद अमरीका की तरफ़ से सबसे पहले माइक पॉम्पियो ने ही बयान दिया था। चाहे अमरीका में नवंबर में होने वाले चुनाव की बात हो या फिर रक्षा मामलों की या फिर क्वॉड समूह की बात। भारत अमरीका के रिश्ते हर मोर्चे पर दोस्ताना रहे हैं। यही वजह है कि चुनाव से पहले डोनाल्ड ट्रंप भारत का दौरा भी कर चुके हैं।
आर्थिक क्षेत्र में भी दोनों देशों के बीच अच्छे संबंध है। लेकिन हाल के दिनों में भारत को अमरीका की व्यापार की वरियता सूची से बाहर कर दिया गया था। दोनों देशों के बीच सामाजिक संबंध भी अच्छे हैं। यही वजह है कि एच1बी वीज़ा लेने वालों में भी भारतीयों की तादाद सबसे ज़्यादा है। अमरीका जानता है कि चीन के विश्व में बढ़ते दबाव को रोकने के लिए भारत का साथ ज़रूरी है।
अमरीका इस बयान के साथ दो हित एक साथ साध रहा है। पहला जर्मनी को इसके ज़रिए संदेश देना चाहता है।
दूसरी बात ये कि जब चीन का बर्ताव भारत, वियतनाम, इंडोनेशिया, मलेशिया, ताइवान और फिलीपीन्स के साथ बदतर हो रहे थे, तो अमरीका को लगा कि ये सही मौक़ा है।
तब अमेरिका को लगता है कि सैन्य शक्ति का इस्तेमाल जर्मनी से हटा कर इन देशों की तरफ़ किया जाए। यहाँ याद रखने वाली बात है कि ये सभी देश अमरीका के अलायंस पार्टनर या स्ट्रैटेजिक पार्टनर हैं। अगर चीन इन सभी देशों पर हावी होगा तो उसको आर्थिक तौर पर नुक़सान होगा, साथ ही पार्टनरशिप पर भी असर पड़ेगा।
इसलिए अमरीका के इस बयान को एशिया में चीन के बढ़ते प्रसार के ख़तरे से अमरीका की बढ़ती चिंता के तौर पर देखना चाहिए।
नेल पॉलिश से लेकर लिपस्टिक तक, अभ्रक सौंदर्य प्रसाधन में पाया जाता है जो हर दिन लाखों लोग उपयोग करते हैं।
लेकिन उपभोक्ताओं के लिए अज्ञात, खनिज जो इन उत्पादों को अपनी चमक देता है, अक्सर दुनिया के सबसे गरीब क्षेत्रों में से एक गुलाम जैसी स्थितियों में पुरातन तरीकों का उपयोग करके निकाला जाता है।
झारखंड, भारत की धूल भरी पहाड़ियों में, गहरी दरारें कठोर पृथ्वी में समा गई हैं। पुरुष, महिलाएं और बच्चे गंदगी के माध्यम से अपने नंगे हाथों और कुछ अल्पविकसित साधनों का उपयोग करके जमीन को खुरचते हैं।
वे भूस्खलन और जहरीली धूल के निरंतर खतरे के तहत काम करते हैं, इस उम्मीद में अपने जीवन को खतरे में डालते हैं कि वे जीवित रहने के लिए पर्याप्त अभ्रक पाएंगे और बेचेंगे।
"मैं भुखमरी से मरने के बजाय खानों में काम करूंगी," एक महिला कहती है कि वह पृथ्वी से गुजरती है।
एक अन्य खदान में, 25 वर्षीय, अनिल अपनी पत्नी और अपने दो छोटे बच्चों के साथ मलबे के माध्यम से खोज कर रहा है। वे खानों के तल पर एक गाँव में रहते हैं, जहाँ कोई बहता पानी या बिजली नहीं है। अनिल एक किसान हुआ करते थे, लेकिन एक गंभीर सूखा ने अधिकांश भूमि को बंजर कर दिया।
"मीका हमारे लिए एकमात्र विकल्प है," वे कहते हैं। "हम सभी यहाँ काम करने आए हैं ... इसलिए हम चावल खरीद सकते हैं और खुद को खाना खिला सकते हैं।"
गरीब खनिकों से लेकर खदान मालिकों और निर्यातकों तक, जो चौंकाने वाली स्थिति में हैं, 101 ईस्ट प्रोग्राम में यूरोप में प्रमुख कॉस्मेटिक ब्रांडों की प्रयोगशालाओं में भारतीय देहात से अभ्रक आपूर्ति श्रृंखला का पता लगाते हैं।
कोरोनावायरस महामारी दुनिया भर के शरणार्थियों पर एक विनाशकारी प्रभाव डाल रही है।
भीड़-भाड़ वाले शिविरों में सामाजिक सुरक्षा और लगातार हाथ धोने जैसे निवारक उपायों को लागू करना अक्सर मुश्किल होता है।
शरणार्थियों की मदद करने वाली सहायता एजेंसियां संघर्ष कर रही हैं।
यूरोप, उत्तरी अमेरिका और मध्य पूर्व में अमीर राष्ट्र दान को कम कर रहे हैं, और उस पैसे को घर पर रखने से महामारी के आर्थिक संकट से निपटने के लिए।
दुनिया के सबसे बड़े चैरिटी में से एक ऑक्सफैम ने करीब 1,500 कर्मचारियों को नौकरी से निकाला और पिछले महीने 18 देशों में से निकाला।
हाल के एक सर्वेक्षण में अनुमान लगाया गया है कि 2021 तक वैश्विक सरकारी सहायता 25 बिलियन डॉलर घट जाएगी।
तो हम दुनिया के कुछ सबसे कमजोर लोगों के लिए सुरक्षा कैसे सुनिश्चित करते हैं?
प्रस्तुतकर्ता: इमरान खान
मेहमान:
हेबा एली - द न्यू ह्यूमैनिटेरियन के निदेशक, एक गैर-लाभकारी पत्रकारिता संगठन जो मानवीय संकटों पर केंद्रित है।
ओले सोलवांग - नार्वे शरणार्थी परिषद में भागीदारी और नीति के निदेशक।
नासिर यासीन - अमेरिकन यूनिवर्सिटी ऑफ़ बेरूत में नीति और योजना के एसोसिएट प्रोफेसर और AUB4Refugees पहल के अध्यक्ष।
कोरोना वायरस तुर्की में देर से आया। यहां संक्रमण का पहला मामला 19 मार्च को दर्ज किया गया था। लेकिन जल्द ही यह तुर्की के हर कोने में फैल गया। महीने भर के भीतर ही तुर्की के सभी 81 प्रांतों में कोरोना वायरस फैल चुका था।
तुर्की में दुनिया में सबसे तेज़ी से कोरोना संक्रमण फैल रहा था। हालात चीन और ब्रिटेन से भी ज़्यादा ख़राब थे। आशंकाएं थी कि बड़े पैमानों पर मौतें होंगी और तुर्की इटली को भी पीछे छोड़ देगा। उस समय इटली सबसे ज़्यादा प्रभावित देश था।
तीन महीने गुज़र गए हैं, लेकिन ऐसा नहीं है, वो भी तब जब तुर्की ने पूर्ण लॉकडाउन लागू ही नहीं किया।
तुर्की में आधिकारिक तौर पर 4397 लोगों की कोरोना संक्रमण से मौत की पुष्टि की गई है। दावे किए जा रहे हैं कि वास्तविक संख्या इसके दो गुना तक हो सकती है क्योंकि तुर्की में सिर्फ़ उन लोगों को ही मौत के आंकड़ों में शामिल किया गया है जिनकी टेस्ट रिपोर्ट पॉज़िटिव थीं।
लेकिन अगर दूसरे देशों की तुलना में देखा जाए तो सवा आठ करोड़ की आबादी वाले इस देश के लिए ये संख्या कम ही है।
विशेषज्ञ चेताते हैं कि कोरोना संक्रमण को लेकर किसी नतीजे पर पहुंचना या दो देशों के आंकड़ों की तुलना करना मुश्किल है, वो भी तब जब कई देशों में मौतें जारी हैं।
लेकिन यूनिवर्सिटी आफ़ केंट में वायरलॉजी के लेक्चरर डॉ. जेरेमी रॉसमैन के मुताबिक़ 'तुर्की ने बर्बादी को टाल दिया है।'
उन्होंने बीबीसी से कहा, ''तुर्की उन देशों में शामिल है जिसने बहुत जल्द प्रतिक्रिया दी। ख़ासकर टेस्ट करने, पहचान करने, अलग करने और आवागमन को रोकने के मामले में। तुर्की उन चुनिंदा देशों में शामिल है जो वायरस की गति को प्रभावी तरीक़े से कम करने में कामयाब रहे हैं।''
जब वायरस की रफ़्तार बढ़ रही थी, अधिकारियों ने रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए। कॉफ़ी हाउस जाने पर रोक लग गई, शापिंग बंद हो गई, मस्जिदों में सामूहिक नमाज़ रोक दी गई।
पैंसठ साल से ऊपर और बीस साल से कम उम्र के लोगों को पूरी तरह लॉकडाउन में बंद कर दिया गया। सप्ताहांत में कर्फ्यू लगाए गए और मुख्य शहरों को सील कर दिया गया।
इस्तांबुल तुर्की में महामारी का केंद्र था। इस शहर ने अपनी रफ़्तार खो दी, जैसे कोई दिल धड़कना बंद कर दे।
अब प्रतिबंधों में धीरे-धीरे ढील दी जा रही है, लेकिन डॉ. मेले नूर असलान अभी भी चौकन्नी रहती हैं। वो फ़तीह ज़िले की स्वास्थ्य सेवाओं की निदेशक हैं। ये इस्तांबुल के केंद्र में एक भीड़भाड़ वाला इलाक़ा है। ऊर्जावान और बातूनी डॉ. असलान कांटेक्ट ट्रेसिंग अभियान का नेतृत्व कर रही हैं। पूरे तुर्की में कांटेक्ट ट्रेसिंग अभियान की छह हज़ार टीमें हैं।
वो बताती हैं, ऐसा लगता है जैसे हम युद्धक्षेत्र में हों। मेरी टीम के लोग घर जाना ही भूल जाते हैं, आठ घंटे के बाद भी वो काम करते रहते हैं। वो घर जाने की परवाह नहीं करते क्योंकि वो जानते हैं कि वो अपनी ड्यूटी निभा रहे हैं।
डॉ. मेले नूर असलान कहती हैं कि उन्होंने मार्च 11, यानी पहले दिन से ही वायरस को ट्रैक करना शुरू कर दिया था, इसमें ख़सरे की बीमारी को ट्रैक करने का उनका अनुभव काम आया।
वो कहती हैं, ''हमारी योजना तैयार थी। हमने सिर्फ़ अलमारी से अपनी फ़ाइलें निकालीं और हम काम पर लग गए।''
फ़तीह की तंग गलियों में हम दो डॉक्टरों के साथ हो लिए। पीपीई किटें पहने ये डॉक्टर एक एप का इस्तेमाल कर रहे थे। वो एक अपार्टमेंट में एक फ्लैट में गए जहां दो युवतियां क्वारंटीन में थीं। उनका दोस्त कोविड पॉज़िटिव है।
अपार्टमेंट के गलियारे में ही दोनों महिलाओं के कोविड के लिए परीक्षण किए गए, उन्हें रिपोर्ट चौबीस घंटों के भीतर मिल जाएगी। एक दिन पहले उन्हें हल्के लक्षण दिखने शुरु हुए हैं। 29 वर्षीया मज़ली देमीरअल्प शुक्रगुज़ार हैं कि उन्हें तुरंत रेस्पांस मिला है।
वो कहती हैं, ''हम विदेशों की ख़बरें सुनते हैं। शुरू में जब हमें वायरस के बारे में पता चला तो हम बेहद डर गए थे लेकिन जितना हमने सोचा था तुर्की ने उससे तेज़ काम किया। यूरोप या अमरीका के मुक़ाबले बहुत तेज़ काम किया।''
तुर्की में विश्व स्वास्थ्य संगठन के कार्यकारी प्रमुख डॉ. इरशाद शेख कहते हैं कि तुर्की के पास सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर दुनिया के लिए कई सबक़ हैं।
उन्होंने बीबीसी से कहा, ''शुरुआत में हम चिंतित थे। रोज़ाना साढ़े तीन हज़ार तक नए मामले आ रहे थे। लेकिन टेस्टिंग ने बहुत काम किया। और नतीजों के लिए लोगों को पांच-छह दिनों का इंतेज़ार नहीं करना पड़ा।''
उन्होंने तुर्की की कामयाबी का श्रेय कांटेक्ट ट्रेसिंग, क्वारंटीन और तुर्की की अलग-थलग करने की नीति को भी दिया।
तुर्की में मरीज़ों को हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन भी दी गई। अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने इसकी जमकर तारीफ़ की थी लेकिन अंतरराष्ट्रीय शोध ने इस दवा को खारिज कर दिया है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोरोना के इलाज के तौर पर इस दवा का ट्रायल रोक दिया है। मेडिकल जर्नल लेंसेट में प्रकाशित एक शोध पत्र में दावा किया गया है कि इस दवा से कोविड-19 के मरीज़ों में कार्डिएक अरेस्ट का ख़तरा बढ़ जाता है और इससे फ़ायदे से ज़्यादा नुकसान हो सकता है।
हमें उन अस्पतालों में जाने की अनुमति दी गई जहां हज़ारों लोगों को दवा के रूप में हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन दी गई है। दो साल पहले बना डॉ. सेहित इल्हान वारांक अस्पताल कोविड के ख़िलाफ़ लड़ाई का केंद्र बना हुआ है।
यहां की चीफ़ डॉक्टर नुरेत्तिन यीयीत कहते हैं कि शुरू में ही हाड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन इस्तेमाल करना अहम है। डॉ यीयीत के बनाए चित्र इस नए चमकदार अस्पताल की दीवारों पर लगे हैं।
वो कहती हैं, ''दूसरे देशों ने इस दवा का इस्तेमाल देरी से शुरू किया है, ख़ासकर अमरीका ने, हम इसका इस्तेमाल सिर्फ़ शुरुआती दिनों में करते हैं, हमें इस दवा को लेकर कोई झिझक नहीं है। हमें लगता है कि ये प्रभावशाली है क्योंकि हमें नतीजे मिल रहे हैं।''
अस्पताल का दौरा कराते हुए डॉ, यीयीत कहते हैं कि तुर्की ने वायरस से आगे रहने की कोशिश की है। हमने शुरू में ही इलाज किया है और आक्रामक रवैया अपनाया है।
यहां डॉक्टर हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन के अलावा दूसरी दवाओं, प्लाज़्मा और बड़ी मात्रा में ऑक्सीजन का इस्तेमाल करते हैं।
डॉ. यीयीत को गर्व है कि उनके अस्पताल में कोविड से मरने वालों की दर एक प्रतिशत से भी कम रही है। यहां कि इंटेसिव केयर यूनिट यानी आईसीयू में बिस्तर खाली हैं। वो मरीज़ों को यहां से बाहर और वेंटिलेटर के बिना ही रखने की कोशिश करते हैं।
हम चालीस साल के हाकिम सुकूक से मिले जो इलाज कराने के बाद अब अपने घर लौट रहे हैं। वो डॉक्टरों के शुक्रगुज़ार हैं।
वो कहते हैं, ''सभी ने मेरा बहुत ध्यान रखा है। ऐसा लग रहा था जैसे मैं अपनी मां की गोद में हूं।''
तुर्की मेडिकल एसोसिएशन ने अभी महामारी पर सरकार के रेस्पांस को क्लीन चिट नहीं दी है। एसोसिएशन कहती है कि सरकार ने जिस तरह से महामारी को लेकर क़दम उठाए उनमें कई कमियां थीं।
इनमें सीमाओं को खुला छोड़ देना भी शामिल है।
हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन तुर्की को कुछ श्रेय दे रहा है। डॉ शेख कहते हैं, ''ये महामारी अपने शुरुआती दिनों में है। हमें लगता है कि और भी बहुत से लोग गंभीर रूप से बीमार होंगे। कुछ तो है जो ठीक हो रहा है।''
कोरोना महामारी के ख़िलाफ़ लड़ाई में तुर्की के पक्ष में भी कई चीज़ें हैं। जैसे, युवा आबादी और आईसीयू के बिस्तरों की अधिक संख्या। लेकिन अभी भी रोज़ाना लगभग एक हज़ार नए मामले सामने आ ही रहे हैं।
तुर्की को कोरोना के ख़िलाफ़ लड़ाई में कामयाबी की कहानी के तौर पर देखा जा रहा है, लेकिन अभी भी सावधानी बरतने की ज़रूरत है क्योंकि अभी ये कहानी ख़त्म नहीं हुई है।
रेटिंग एजेंसी मूडीज़ ने भारत की रेटिंग गिरा दी है। रेटिंग का अर्थ क्रेडिट रेटिंग है जिसे आसान भाषा में साख भी कहा जा सकता है।
बाज़ार में किसी की साख ख़राब होने का जो मतलब है एकदम वही मतलब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में देश की रेटिंग गिर जाने का है। यानी क़र्ज़ मिलना मुश्किल होगा और जो क़र्ज़ पहले से ले रखे हैं उनकी वापसी का दबाव बढ़ेगा। मूडीज़ दुनिया की तीसरी बड़ी रेटिंग एजेंसी है जिसने भारत को डाउनग्रेड किया है। दो अन्य एजेंसियाँ फ़िच और स्टैंडर्ड एंड पूअर पहले ही ये रेटिंग गिरा चुकी थीं।
मूडीज़ के रेटिंग गिराने का अर्थ यह है कि भारत सरकार विदेशी बाज़ारों या घरेलू बाज़ारों में क़र्ज़ उठाने के लिए जो बॉंड जारी करती है अब उन्हें कम भरोसेमंद माना जाएगा। ये रेटिंग पिछले बाईस सालों में सबसे निचले स्तर पर पहुँच गई है। इससे पहले 1998 में रेटिंग गिराई गई थी, और वो इसी स्तर पर पहुँची थी। जब भारत के परमाणु परीक्षणों के बाद अमेरिका ने भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए थे।
ग़नीमत सिर्फ़ इतनी है कि मूडीज़ ने रेटिंग गिराकर Baa3 पर पहुंचाई है जिसे इन्वेस्टमेंट ग्रेड का सबसे निचला पायदान कहा जा सकता है। इसका अर्थ ये है कि भारत सरकार की तरफ से जारी होने वाले लंबी अवधि के बॉंड अभी निवेश के लायक माने जाएंगे, बस इनमें जोख़िम बढ़ा हुआ मानकर।
पिछले साल नवंबर में भी आशंका थी कि मूडीज़ रेटिंग गिरा सकता है, लेकिन तब उसने रेटिंग इससे एक पायदान ऊपर यानी Baa2 पर बरकरार रखी थी। हालाँकि उस वक़्त उसने भारत पर अपना नज़रिया बदल दिया था। यानी उसे समस्या की आशंका दिख रही थी। उसने भारत पर अपना आउटलुक बदलकर स्टेबल से निगेटिव कर दिया था।
तब विश्लेषकों ने कहा था कि ज़्यादा फ़िक्र की बात नहीं है क्योंकि अर्थव्यवस्था रफ़्तार पकड़ेगी और मूडीज़ का मूड भी बिगड़ने के बजाय सुधर जाएगा। लेकिन अब ये उम्मीद तो बहुत दूर की कौड़ी साबित हो रही है। और फ़िक्र की बात ये है कि रेटिंग गिराने के बाद भी मूडीज ने अपना आउटलुक निगेटिव ही रखा है। इसका सीधा मतलब यह है कि उसे यहाँ से हालात और ख़राब होने का डर है।
मूडीज़ ने रेटिंग गिराने के जो कारण बताए हैं उन पर भी नज़र डालना ज़रूरी है। उनके हिसाब से 2017 के बाद से देश में आर्थिक सुधार लागू करने का काम काफ़ी सुस्त पड़ा है। लंबे समय से आर्थिक तरक़्क़ी यानी जीडीपी ग्रोथ में बढ़त की रफ़्तार कमजोर दिख रही है। सरकारों के ख़ज़ाने की हालत काफ़ी ख़स्ता हो रही है, केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों का हाल ऐसा है। और भारत के वित्तीय क्षेत्र में लगातार स्ट्रेस या तनाव बढ़ रहा है। यहाँ तनाव का मतलब है क़र्ज़ दिया हुआ या लगाया हुआ पैसा वापस न आने या डूबने का ख़तरा।
और आउटलुक ख़राब होने का अर्थ है कि एजेंसी को भारत की अर्थव्यवस्था और वित्तीय ढाँचे में एक साथ जुड़े हुए कई खतरे दिख रहे हैं जिनके असर से भारत सरकार की माली हालत उससे भी कहीं और कमजोर हो सकती है जैसा अंदाज़ा एजेंसी अभी लगा रही है।
और सबसे ख़तरनाक या चिंताजनक बात यह है कि मूडीज़ के इस डाउनग्रेड की वजह कोरोना से पैदा हुआ आर्थिक संकट क़तई नहीं है। उसका कहना है कि इस महामारी ने सिर्फ़ उन ख़तरों को बड़ा करके दिखा दिया है जो भारतीय अर्थव्यवस्था में पहले से ही पनप रहे थे। इन्हीं ख़तरों को देखकर मूडीज़ ने पिछले साल अपना आउटलुक बदला था।
यहाँ यह याद रखना चाहिए कि उससे दो साल पहले नवंबर 2017 में मूडीज़ ने भारत की क्रेडिट रेटिंग बढ़ाई थी। उस वक़्त उसे उम्मीद थी कि भारत में कुछ ज़रूरी आर्थिक सुधार लागू किए जाएँगे जिनसे देश की माली हालत धीरे धीरे मज़बूत होगी। लेकिन अब उसे शिकायत है कि उस वक़्त के बाद से सुधारों की रफ़्तार भी धीमी रही है और जो हुए भी उनका ख़ास असर नहीं दिखता।
अब समझना ज़रूरी है कि रेटिंग गिरने का नुक़सान क्या है और इसका असर क्या हो सकता है? यह भी रेटिंग का फ़ैसला करते वक़्त जोड़ा जाता है।
भारत सरकार और राज्य सरकारें अनेक अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों से क़र्ज़ लेती हैं। मूडीज़ का ही कहना है कि कोरोना संकट आने से पहले ही सरकारों का क़र्ज़ देश की जीडीपी का बहत्तर परसेंट था और अब बदली परिस्थिति में यानी कोरोना संकट के बाद जब सरकारों को ख़र्च के लिए और पैसे की ज़रूरत पड़ रही है तो ऐसा अनुमान है कि यह बोझ बढ़कर जीडीपी के 84 परसेंट तक जा सकता है।
आप अपने बजट से हिसाब लगाइए। जब आप घर या कार के लिए बैंक से लोन लेने जाते हैं तो बैंक अफ़सर कहते हैं कि कुल मिलाकर आपके सारे क़र्ज़ों की ईएमआई आपकी कमाई के चालीस परसेंट से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए। अगर आप इससे ज़्यादा लोन लेना चाहते हैं तो फिर कोई प्राइवेट बैंक मिल जाता है या कोई एनबीएफसी मिल जाती है जो बाज़ार के रेट से ऊँचे रेट पर आपको लोन देते हैं। मुसीबत के मारों को पर्सनल लोन देने वाले कुछ प्राइवेट फाइनेंसर भी होते हैं जो तीन से चार गुना तक ब्याज वसूलते हैं और लेने वाले पहले से बड़ी मुसीबत में फँस जाते हैं।
इसी तरह रेटिंग गिरने के बाद जब कोई देश बॉंड जारी करता है या सीधे क़र्ज़ लेना चाहता है तो उसे ऊँचा ब्याज चुकाना पड़ता है क्योंकि उसको क़र्ज़ देना जोखिम का काम माना जाता है। देश की क्रेडिट रेटिंग गिरने के साथ ही देश की सभी कंपनियों की रेटिंग की अधिकतम सीमा भी वही हो जाती है। किसी भी रेटिंग एजेंसी के हिसाब में किसी भी निजी या सरकारी कंपनी की रेटिंग उस देश की सॉवरेन रेटिंग से ऊपर नहीं हो सकती। यानी अब प्राइवेट कंपनियों के लिए भी क़र्ज़ उठाना मुश्किल और महँगा हो जाता है। जिनके बॉंड या डिबेंचर पहले से बाज़ार में हैं उनके भाव गिर जाते हैं और उन पर रक़म वापस करने का दबाव बढ़ने लगता है।
अभी भारत की रेटिंग जहां पहुँची है वहाँ वो इन्वेस्टमेंट ग्रेड की आख़िरी पायदान पर है। यानी अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान अभी इसमें पैसा लगा सकते हैं। लेकिन अगर ये रेटिंग इससे नीचे खिसक गई तो दुनिया भर के बड़े वित्तीय संस्थानों में से बहुत सारे मजबूर हो जाएँगे कि वो भारत सरकार के या भारत की कंपनियों के जो भी बॉंड उनके पास हैं उनका पैसा तुरंत वापस माँगे या इन्हें औने-पौने भाव पर बाज़ार में बेच दें। ऐसा इसलिए क्योंकि इन फंड मैनेजरों के सामने ये निर्देश साफ़ है कि वो इन्वेस्टमेंट ग्रेड से नीचे के किसी भी इंस्ट्रुमेंट में पैसा नहीं लगाएँगे।
इसके बाद पैसा लगाने वाले कुछ फंड मिलते हैं लेकिन वो बिलकुल सूदखोर महाजनों की ही तरह होते हैं। ऐसी ही स्थिति में देश क़र्ज़ के जाल में फँसते हैं। इसीलिए ये रेटिंग गिरना बहुत फ़िक्र की बात है।
हालाँकि सिक्के का एक दूसरा पहलू भी है। इस वक़्त अगर रेटिंग की चिंता में सरकार ने खर्च रोकना शुरू कर दिया तो फिर इकोनॉमी को पटरी पर लाना बहुत मुश्किल होता जाएगा। यानी बिलकुल एक तरफ़ कुआँ और दूसरी तरफ खाई। लेकिन अनेक जानकार राय दे रहे हैं कि सरकार को कुछ समय तक रेटिंग की चिंता छोड़कर पूरा दम लगाकर इकोनॉमी में जान फूंकनी चाहिए और एक बार इकोनॉमी चल पड़ी तो रेटिंग सुधरने में भी बहुत वक़्त नहीं लगेगा।
मूडीज़ का भी अनुमान है कि इस वित्त वर्ष में क़रीब चार परसेंट की गिरावट के बाद भारत की अर्थव्यवस्था अगले साल तेज़ उछाल दिखाएगी। फिर भी उसे डर है कि आगे कई साल तकलीफ़ बनी रहेगी इसीलिए उसका नज़रिया कमजोर है। अब अगर सरकार कुछ ऐसा कर दे कि तस्वीर पलट जाए तो यह नज़रिया अपने आप ही बदल जाएगा।
जलवायु परिवर्तन पर शोध करने वाले लंबे समय से चेतावनी देते आ रहे हैं कि साल 2070 तक पृथ्वी का तापमान इतना बढ़ जाएगा कि यहां रहना लगभग मुमकिन नहीं होगा।
लेकिन साइंस एडवांसेज़ जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कई जगहों पर ऐसी घटनाएं सामने आ रही हैं जिनके बारे में अब तक चेतावनी दी जाती थी।
इस अध्ययन के लेखक कहते हैं कि वे ख़तरनाक स्थितियां जिनमें गर्मी और उमस एक साथ सामने आती हैं, वे पूरी दुनिया में होती दिख रही हैं।
हालांकि, ये स्थितियां बस कुछ घंटों के लिए रहती हैं लेकिन इनके होने की संख्या और गंभीरता बढ़ती जा रही है।
इन शोधार्थियों ने साल 1980 से 2019 के बीच मौसम की जानकारी देने वाले 7877 अलग-अलग स्टेशनों के प्रति घंटे के डेटा का विश्लेषण किया है।
इस विश्लेषण में ये सामने आया है कि कुछ उप-उष्णकटिबंधीय तटीय इलाकों में बेहद गर्मी और उमस मिश्रित मौसम की आवृतियां दुगनी हो गई हैं।
इस तरह की हर एक घटना में गर्मी और उमस मिली होती है जो कि एक लंबे समय तक ख़तरनाक साबित हो सकती है।
इस तरह की घटनाएं लगातार भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, उत्तरी-पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया, लाल सागर के तटीय क्षेत्र और केलिफॉर्निया की खाड़ी में नज़र आ रही हैं।
इनमें से सबसे ज़्यादा ख़तरनाक आंकड़े सऊदी अरब में धहरान/दमान, क़तर के दोहा और संयुक्त अरब अमीरात के रस अल खमैया में 14 बार दर्ज किए गए। इन शहरों में बीस लाख से ज़्यादा लोग रह रहे हैं।
दक्षिण पूर्वी एशिया, दक्षिणी चीन, उप - उष्णकटिबंधीय अफ्रीका और केरिबियाई क्षेत्र भी इससे प्रभावित हुआ था।
अमरीका के दक्षिण पूर्वी में काफ़ी गंभीर स्थितियां देखी गईं। और ये स्थितियां मुख्यत: गल्फ़ कोस्ट के पास पूर्वी टेक्सस, लुइसियाना, मिसीसिपी, अलाबामा और फ़्लोरिडा पेनहैंडल में देखी गई हैं। न्यू ओरेलॉन्स और बिलोक्सी शहर भी बुरी तरह प्रभावित हुए हैं।
दुनिया भर में ज़्यादातर मौसम विज्ञान केंद्र दो थर्मामीटरों से तापमान का आकलन करते हैं।
पहला ड्राई बल्ब उपकरण हवा का तापमान हासिल करता है।
ये वो आंकड़ा है जो कि आप अपने फोन या टीवी पर अपने शहर के तापमान के रूप में देखते हैं।
एक अन्य उपकरण वेट बल्ब थर्मामीटर होता है। ये उपकरण हवा में उमस को रिकॉर्ड करता है।
इसमें एक थर्मामीटर को कपड़े में लपेट कर तापमान लिया जाता है। सामान्यत: ये तापमान खुली हवा के तापमान से कम होता है।
इंसानों के लिए बहुत तेज उमस भरी गर्मी जानलेवा साबित हो सकती है। इसी वजह से वेट बल्ब की रीडिंग जिसे 'फील्स लाइक' कहा जाता है, उसकी रीडिंग बहुत अहम होती है।
हमारे शरीर का सामान्य तापमान 37 डिग्री सेल्सियस होता है। और हमारे शरीर का तापमान सामान्यत: 35 डिग्री सेल्सियस होता है। इस अलग अलग तापमान हमें पसीना निकालकर हमारे शरीर को ठंडा रखने में मदद करता है।
शरीर से पसीना निकलकर भाप बनते हुए अपने साथ गर्मी भी लेकर उड़ जाता है।
ये प्रक्रिया रेगिस्तानों में बिलकुल ठीक ढंग से काम करती है। लेकिन उमस वाली जगहों पर ये प्रक्रिया ठीक ढंग से काम नहीं करती है। क्योंकि हवा में पहले से इतनी नमी होती है कि वह इस प्रक्रिया में पसीने को भाप के रूप में उठा नहीं पाती है।
ऐसे में अगर उमस बढ़ती है और वेट बल्ब तापमान को बढ़ाकर 35 डिग्री सेल्सियस या इससे ऊपर तक ले आती है तो पसीने के भाप बनने की प्रक्रिया धीमी होगी जिससे हमारी गर्मी झेलने की क्षमता पर असर पड़ेगा।
कुछ गंभीर मामलों में ये भी हो सकता है कि ये प्रक्रिया पूरी तरह रुक जाए। ऐसे में किसी व्यक्ति को एक एयर-कंडीशंड कमरे में जाना पड़ेगा क्योंकि शरीर का अंदरूनी तापमान ये गर्मी बर्दाश्त करने की सीमा के पार चला जाएगा जिसके बाद शारीरिक अंग काम करना बंद कर देंगे।
ऐसी स्थिति में बेहद फिट लोग भी लगभग छह घंटे में दम तोड़ देंगे।
अब तक ये माना जाता था कि पृथ्वी पर वेट बल्ब तापमान दुर्लभ स्थितियों में 31 डिग्री सेल्सियस के पार जाता है।
लेकिन 2015 में ईरान के पोर्ट सिटी बंदार अब्बास में मौसम विज्ञानियों ने वेट बल्ब के तामपान को 35 डिग्री सेल्सियस तक जाता हुआ देखा।
उस समय हवा का तामपान 43 डिग्री सेल्सियस था। लेकिन इस नए अध्ययन के बाद पता चला है कि फ़ारस की खाड़ी के शहरों में एक से दो घंटे के समय में वेट बल्ब टेंपरेचर एक दर्जन से ज़्यादा बार 35 डिग्री सेल्सियस तक गया।
कोलंबिया यूनिवर्सिटी में लेमॉन्ट डोहर्टी अर्थ ऑब्जर्वेटरी में शोधार्थी और इस अध्ययन में प्रमुख लेखक कॉलिन रेमंड कहते हैं, ''फारस की खाड़ी में जो उमस भरी गर्मी है वो गर्मी मुख्यत: नमी की वजह से है। लेकिन ऐसी स्थितियां पैदा होने के लिए तापमान को भी औसत से ज़्यादा होना चाहिए। हम जिन आंकड़ों का अध्ययन कर रहे हैं वो अभी भी काफ़ी दुर्लभ हैं। लेकिन 2000 के बाद काफ़ी बार सामने आ चुके हैं।''
अब तक जलवायु परिवर्तन पर जितने भी अध्ययन हुए हैं, वे सब इस तरह की गंभीर घटनाओं को दर्ज करने में असफल रहे हैं। ये अध्ययन इस बारे में बताता है क्योंकि शोधार्थी सामान्यत: बड़े क्षेत्र और लंबे अंतराल में गर्मी और उमस के औसत को देखते हैं। लेकिन कॉलिन रेमंड और उनके साथियों ने पूरी दुनिया के मौसम विज्ञान केंद्रों पर आने वाले प्रति घंटे के हिसाब से आ रहे डेटा पर नज़र रखी। इससे उन्हें उन घटनाओं के बारे में पता चल पाया जिसकी वजह से काफ़ी कम समय में काफ़ी छोटे जगह पर असर दिख रहा है।
कॉलिन कहते हैं, ''हमारा अध्ययन पिछले अध्ययनों से पूरी तरह सहमत है कि किसी मेट्रोपॉलिटन क्षेत्र के स्तर पर 35 डिग्री सेल्सियस वेट बल्ब तापमान 2100 तक एक सामान्य बात होगी। हमने इसमें सिर्फ ये जोड़ा है कि ये घटनाएं छोटी जगहों पर कम समय पर होना शुरू हो गई हैं। ऐसे में हाई रिज़ॉल्युशन डेटा बेहद ज़रूरी है।''
ऐसी घटनाएं ज़्यादातर तटीय क्षेत्रों, खाड़ियों और जलसंधियों में हो रही हैं जहां पर भाप बनकर उड़ रहा समुद्री जल गर्म हवा में मिलने की संभावना पैदा करता है।
अध्ययन बताते हैं कि ज़्यादातर भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश में 2100 तक ऐसा तापमान बना रहेगा जिसमें ज़िंदा रहा जा सकता है। ये समुद्री जलस्तर के अत्यधिक तापमान और महाद्विपीय गर्मी का संगम है जो कि उमस भरी गर्मी पैदा कर सकता है।
कोलिन कहते हैं, ''हाई रिज़ॉल्युशन डेटा हमें ये समझने में मदद कर सकता है कि किन जगहों पर लोगों पर सबसे ज़्यादा असर पड़ सकता है और अगर ऐसी स्थिति पैदा होने वाली हो तो हम लोगों को किस तरह चेतावनी दे सकते हैं। इससे उन्हें एयर-कंडीशन, घर के बाहर रहकर काम नहीं करने और दीर्घकालिक कदम उठाने के लिए तैयार होने में मदद मिल सकती है।''
ये अध्ययन उन आर्थिक रूप से कमजोर इलाकों के बारे में चिंता व्यक्त करता है जहां पर तापमान तेजी से बढ़ रहा है। क्योंकि ये लोग गर्मी से बचाव करने में असमर्थता महसूस करेंगे।
इसी अध्ययन के एक अन्य लेखक और वैज्ञानिक राडले हॉर्टन कहते हैं, ''ग़रीब देशों में जिन लोगों पर ख़तरा ज़्यादा मंडरा रहा है, वे बिजली भी इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं, एयर कंडीशन तो भूल जाइए। ज़्यादातर लोग अपने जीविकापार्जन के लिए खेती किसानी पर निर्भर हैं। ये तथ्य कुछ क्षेत्रों को रहने के लिए अयोग्य बना देंगे।''
अगर कार्बन उत्सर्जन में कमी नहीं लाई गई तो इस तरह की घटनाओं का बढ़ना लाज़मी है।
ऑस्ट्रेलिया की न्यू साउथ वेल्स यूनिवर्सिटी में क्लाइमेटेलॉजिस्ट स्टीवन शेरवुड कहते हैं, ''ये आकलन बताते हैं कि पृथ्वी के कुछ क्षेत्रों में जल्द ही इतनी ज्यादा गर्मी हो जाएगी कि वहां रहना मुमकिन नहीं होगा। पहले ये माना जाता था कि हमारे पास काफ़ी सेफ़्टी ऑफ़ मार्जिन यानि जोख़िम काफ़ी दूर है।''