दिल्ली के रामलीला मैदान में रविवार को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दावा किया कि भारत में कोई डिटेंशन सेंटर नहीं है, उन्होंने इसे अफ़वाह बताया।
मोदी ने कहा "सिर्फ कांग्रेस और अर्बन नक्सलियों द्वारा उड़ाई गई डिटेन्शन सेन्टर वाली अफ़वाहें सरासर झूठ है, बद-इरादे वाली है, देश को तबाह करने के नापाक इरादों से भरी पड़ी है - ये झूठ है, झूठ है, झूठ है।''
उन्होंने कहा, "जो हिंदुस्तान की मिट्टी के मुसलमान हैं, जिनके पुरखे मां भारती की संतान हैं। भाइयों और बहनों, उनसे नागरिकता क़ानून और एनआरसी दोनों का कोई लेना देना नहीं है। देश के मुसलमानों को डिटेंशन सेन्टर में नहीं भेजा जा रहा है, ना हिंदुस्तान में कोई डिटेंशन सेन्टर है। भाइयों और बहनों, ये सफेद झूठ है, ये बद-इरादे वाला खेल है, ये नापाक खेल है। मैं तो हैरान हूं कि ये झूठ बोलने के लिए किस हद तक जा सकते हैं।''
क्या भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी डिटेंशन सेंटर के बारे में सच बोल रहे है? आइये, मोदी के दावे की जाँच करते हैं।
मोदी के दावे के विपरीत बीबीसी संवाददाता नितिन श्रीवास्तव की साल 2018 की एक रिपोर्ट डिटेंशन सेंटर से बाहर आए लोगों की दास्तां बयां करती है।
बीबीसी संवाददाता नितिन श्रीवास्तव की रिपोर्ट के मुताबिक, "जिन लोगों को यहाँ रहना पड़ रहा है या जो लोग यहाँ रह चुके हैं, उनके लिए ये डिटेंशन कैंप एक भयानक सपना है जिसे भुलाने में वे दिन-रात लगे हैं।''
इसी तरह बीबीसी संवाददाता प्रियंका दुबे ने भी असम के डिटेंशन सेंटरों से जुड़ी रिपोर्टिंग की है।
बीबीसी संवाददाता प्रियंका दुबे की रिपोर्ट के मुताबिक, "नागरिकता तय करने की दुरूह क़ानूनी प्रक्रिया में खोए असम के बच्चों का भविष्य फ़िलहाल अंधेरे में डूबा हुआ सा लगता है। कभी डिटेंशन में बंद माँ बाप के जेल की सख़्त माहौल में रहने को मजबूर तो कभी उनके साये के बिना बाहर की कठोर दुनिया को अकेले सहते इन बच्चों की सुध लेने वाला, फ़िलहाल कोई नहीं।''
भारत की संसद में इस साल हुए सवालों और जवाबों को देखा जाए तो पता चलता है कि डिटेंशन सेंटर के बारे में संसद में चर्चा हुई है और केंद्र सरकार ने माना है कि उन्होंने राज्य सरकारों को इस बारे में लिखा है।
राज्यसभा में 10 जुलाई 2019 को पूछे गए एक सवाल के उत्तर में गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने कहा था कि देश में आए जिन अवैध लोगों की नागरिकता की पुष्टि जब तक नहीं हो जाती और उन्हें देश से बाहर नहीं निकला जाता, तब तक राज्यों को उन्हें डिटेंशन सेंटर में रखना होगा। इस तरह के डिटेंशन सेंटर की सही संख्या के बारे में अब तक कोई रिकॉर्ड नहीं रखा गया है।
उन्होंने कहा था कि 9 जनवरी 2019 को केंद्र सरकार ने सभी राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को अपने प्रदेश में डिटेंशन सेंटर बनाने के लिए 'मॉडल डिटेन्शन सेन्टर या होल्डिंग सेन्टर मैनुअल' दिया है।
द हिंदू में इसी साल अगस्त में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार इस साल 2 जुलाई 2019 में लोकसभा में बीजेपी नेता नित्यानंद राय ने कहा था कि राज्य सरकारों को साल 2009, 2012, 2014 और 2018 में अपने प्रदेशों में डिटेंशन सेंटर बनाने के लिए कहा था।
2 जुलाई 2019 को लोकसभा में पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में गृह राज्य मंत्री कृष्ण रेड्डी ने कहा कि गृह मंत्रालय ने एक मॉडल डिटेंशन सेंटर (होल्डिंग सेन्टर मैनुअल) बनाया है जिसे 9 जनवरी 2019 को सभी राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को दिया गया है।
उत्तर में उन्होंने कहा था कि इस मैनुएल के अनुसार डिटेंशन सेंटर में दी जाने वाली ज़रूरी सुविधाओं के बारे में बताया गया है।
16 जुलाई 2019 को लोकसभा में पूछे गए एक सवाल के उत्तर में गृह राज्य मंत्री जी कृष्ण रेड्डी ने कहा था कि असम में डिटेंशन सेंटर बनाए गए हैं।
उन्होंने कहा था कि ये सेंटर फॉरेनर्स एक्ट 1946 की धारा 3(2)(ई) के तहत उन लोगों को रखने के लिए बनाए गए हैं जिसकी नागरिकता की पुष्टि नहीं हो पाई है।
नागरिकता संशोधन विधेयक भारत की संसद से पारित होकर और राष्ट्रपति के मुहर के बाद अब क़ानून की शक्ल ले चुका है।
अब देश भर में लागू हो गया है, लेकिन एक तरफ़ जहां इसे लेकर पूर्वोत्तर राज्यों में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं वहीं कुछ राज्य सरकारें इसे अपने यहां लागू करने से ही इनकार कर रही हैं।
समाचार एजेंसी एएनआई के मुताबिक पाँच राज्यों के मुख्यमंत्री यह कह चुके हैं कि वो इसे अपने यहां लागू नहीं करेंगे।
अपने राज्य में नागरिकता संशोधन क़ानून को लागू नहीं करने देने की बात करने वाले मुख्यमंत्रियों की इस सूची में अब नया नाम पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का जुड़ गया है।
ममता बनर्जी ने कहा है कि वो किसी भी सूरत में इसे अपने राज्य में लागू नहीं करने देंगी।
सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ने शुक्रवार को एक संवाददाता सम्मेलन में कहा, "भारत एक प्रजातंत्रिक देश है और कोई भी पार्टी उसकी इस प्रकृति को बदल नहीं सकती। हमारे राज्य में किसी को भी डरने की ज़रूरत नहीं है। कोई भी आपको बाहर नहीं निकाल सकता है। कोई भी इस क़ानून को मेरे राज्य में लागू नहीं कर सकता।''
ममता से पहले भी दो राज्यों पंजाब और केरल ने कहा कि वो इस संशोधन विधेयक को अपने यहां लागू नहीं करेंगे।
पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने ट्वीट किया, "कोई भी क़ानून जो लोगों को धर्म के आधार पर बाँटता हो, असंवैधानिक और अनैतिक हो, वो गैरक़ानूनी है। भारत की ताक़त इसकी विविधता में है और नागरिकता संशोधन क़ानून इसके आधारभूत सिद्धान्तों का उल्लंघन करता है। लिहाजा, मेरी सरकार इसे पंजाब में नहीं लागू होने देगी।''
वहीं केरल के मुख्यमंत्री पिनरई विजयन ने भी नागरिकता संशोधन विधेयक को असंवैधानिक बताते हुए ट्वीट किया कि वो इसे अपने राज्य में लागू नहीं होने देंगे।
उन्होंने ट्वीट किया कि केंद्र सरकार भारत को धार्मिक तौर पर बाँटने की कोशिश कर रही है। ये समानता और धर्मनिरपेक्षता को तहस-नहस कर देगा।
ट्वीट में उन्होंने लिखा, ''धर्म के आधार पर नागरिकता का निर्धारण करना संविधान को अस्वीकार करना है। इससे हमारा देश बहुत पीछे चला जाएगा। बहुत संघर्ष के बाद मिली आज़ादी दांव पर है।''
दैनिक अख़बार 'द हिंदू' के मुताबिक़ उन्होंने कहा कि इस्लाम के ख़िलाफ़ भेदभाव करने वाले सांप्रदायिक रूप से ध्रुवीकरण क़ानून की केरल में कोई जगह नहीं है।
इसके अलावा जिन दो अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने इस पर बयान दिया है, वो हैं छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश। इन दोनों राज्यों में कांग्रेस की सरकारें हैं।
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने कहा कि वो इस क़ानून पर कांग्रेस पार्टी के फ़ैसले का इंतज़ार कर रहे हैं।
अब ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या राज्य सरकारें नागरिकता संशोधन क़ानून को लागू करने से इनकार कर सकती हैं? संविधान क्या कहता है? और विरोध करने वालों के पास क्या विकल्प हैं?
नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध के स्वर अब तक ग़ैर बीजेपी शासित राज्यों से ही उठे हैं। क्या ये राज्य अगर चाहें तो नागरिकता संशोधन क़ानून को लागू करने से इनकार कर सकती हैं?
संविधान के जानकारों का कहना है कि ऐसा बिल्कुल नहीं हो सकता है।
संविधान विशेषज्ञ चंचल कुमार कहते हैं कि "राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने गुरुवार को नागरिकता संशोधन विधेयक 2019 पर अपनी मुहर लगाकर इसे क़ानून बनाया है। आधिकारिक राजपत्र में प्रकाशित होने के साथ ही यह क़ानून लागू भी हो गया है। अब चूंकि यह क़ानून संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत संघ की सूची में आता है। तो यह संशोधन सभी राज्यों पर लागू होता है और राज्य चाहकर भी इस पर कुछ ज़्यादा नहीं कर सकते है।''
वो बताते हैं, "संविधान की सातवीं अनुसूची राज्यों और केंद्र के अधिकारों का वर्णन करती है। इसमें तीन सूचियां हैं - संघ, राज्य और समवर्ती सूची। नागरिकता संघ सूची के तहत आता है। लिहाजा इसे लेकर राज्य सरकारों के पास कोई अधिकार नहीं है।''
यही बात केंद्र सरकार का भी कहना है कि राज्य के पास ऐसा कोई भी अधिकार नहीं है कि वह केंद्र की सूची में आने वाले विषय 'नागरिकता' से जुड़ा कोई अपना फ़ैसला कर सकें।
गृह मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक़ केंद्रीय सूची में आने वाले विषयों के तहत बने क़ानून को लागू करने से राज्य इनकार नहीं कर सकते।
अगर राज्य सरकारें इस क़ानून के ख़िलाफ़ नहीं जा सकतीं तो फिर इस पर विरोध करने वालों के सामने क्या विकल्प हैं? क्या इस क़ानून को कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है?
चंचल कुमार कहते हैं कि कोई राज्य सरकार, संस्था या ट्रस्ट इस क़ानून पर सवाल नहीं उठा सकते। वो कहते हैं कि मसला नागरिकता का है और नागरिकता किसी व्यक्ति विशेष को दी जाती है, लिहाजा वही इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठा सकता है। इसे चुनौती देने के लिए कोर्ट की शरण में जा सकता है।
क़ानूनी मामलों के जानकार फ़ैज़ान मुस्तफ़ा ने बीबीसी को बताया कि संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत राज्य नागरिकों और ग़ैर-नागरिकों, दोनों को ही क़ानून के तहत समान संरक्षण देने से इनकार नहीं करेगा।
वो कहते हैं कि, "संविधान धर्म के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव और वर्गीकरण को ग़ैर क़ानूनी समझता है।''
उनके मुताबिक़, "पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान के प्रवासी मुसलमानों को भी अनुच्छेद 14 के तहत संरक्षण प्राप्त है। इसमें इस्लाम और यहूदी धर्म के लोगों को छोड़ देना इसकी मूल भावना के ख़िलाफ़ है। यानी कोई व्यक्ति इसके ख़िलाफ़ कोर्ट जा सकता है और उसे वहां यह साबित करना होगा कि किस तरह यह क़ानून संविधान के मूलभूत ढांचे को बदल सकता है।''
नागरिकता संशोधन विधेयक के राज्यसभा में पारित होने से पहले ही इसे चुनौती देने इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग सुप्रीम कोर्ट पहुंची थी।
क़ानून बनने के बाद जन अधिकार पार्टी के जनरल सेक्रेटरी फ़ैज़ अहमद ने भी शुक्रवार को याचिका दायर की।
इसके अलावा पीस पार्टी ने भी सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की है। उसका कहना है कि यह क़ानून अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है और संविधान की मूल संरचना/प्रस्तावना के ख़िलाफ़ है। उनका कहना है कि धर्म के आधार पर नागरिकता नहीं दी जा सकती।
इसी तरह वकील एहतेशाम हाशमी, पत्रकार जिया-उल सलाम और क़ानून के छात्र मुनीब अहमद ख़ान, अपूर्वा जैन और आदिल तालिब भी सुप्रीम कोर्ट में गए हैं।
उन्होंने अपनी याचिका में इस क़ानून को असंवैधानिक बताते हुए रद्द करने की मांग की है। उन्होंने कहा है कि यह क़ानून धर्म और समानता के आधार पर भेदभाव करता है और सर्वोच्च न्यायालय मुस्लिम समुदाय के जीवन, निजी स्वतंत्रता और गरिमा की रक्षा करे।
शुक्रवार को ही तृणमूल कांग्रेस की नेता महुआ मोइत्रा ने भी सुप्रीम कोर्ट में इस संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ अपनी याचिका दायर की।
अपनी याचिका में मोइत्रा ने कहा कि इस क़ानून के तहत मुस्लिमों को बाहर रखने की बात भेदभाव को प्रदर्शित करता है, इसलिए यह संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है।
उन्होंने यह भी कहा कि यह क़ानून हमारे संविधान के आधारभूत स्वरूप धर्मनिरपेक्षता का भी उल्लंघन करता है। लेकिन इन याचिकाओं का कोर्ट में क्या होगा? क्या ये साबित कर सकेंगे कि यह संविधान के मूलभूत स्वरूप के ख़िलाफ़ है?
मुस्तफ़ा कहते हैं कि जो व्यक्ति इसे चुनौती देगा उसी पर ये साबित करने का बोझ होगा कि वो बताए ये कैसे और किस तरह से असंवैधानिक है।
वे कहते हैं कि इस तरह के मामले कई बार सांवैधानिक बेंच के पास चले जाते हैं और बेंच के पास बहुत से मामले पहले से ही लंबित हैं जिसकी वजह से इसकी सुनवाई जल्दी नहीं होगी।
नागरिकता अधिनियम 1955 में नागरिकता संशोधन क़ानून 2019 के तहत कुछ अनुबंध जोड़ दिए गए हैं।
इसके तहत 31 दिसंबर 2014 या उससे पहले भारत आए बांग्लादेश, अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान के उन छह अल्पसंख्यक समुदायों (हिंदू, बौद्ध, जैन, पारसी, ईसाई और सिख) को जिन्हें अपने देश में धार्मिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है, उन्हें गैरक़ानूनी नहीं माना जाएगा बल्कि भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान किया जाएगा।
लेकिन यह पूर्वोत्तर के अधिकांश राज्यों और असम के कुछ ज़िलों में लागू नहीं होगा। क्योंकि इसमें शर्त रखी गई है कि ऐसे व्यक्ति असम, मेघालय, और त्रिपुरा के उन हिस्सों में जहां संविधान की छठीं अनुसूची लागू हो और इनर लाइन परमिट के तहत आने वाले अरुणाचल प्रदेश, मिज़ोरम और नागालैंड में न रह रहे हों।
नागरिकता संशोधन विधेयक को पेश करने के दौरान ही मणिपुर को भी इनर लाइन परमिट में शामिल करने का प्रस्ताव किया गया।
इनर लाइन परमिट एक ट्रैवल डॉक्यूमेंट है, जो भारत सरकार अपने किसी संरक्षित क्षेत्र में एक निर्धारित अवधि की यात्रा के लिए अपने नागरिकों के लिए जारी करती है।
सुरक्षा उपायों और स्थानीय जातीय समूहों के संरक्षण के लिए वर्ष 1873 के रेग्यूलेशन में इसका प्रावधान किया गया था।
छठी अनूसूची में आने वाले पूर्वोत्तर भारत के राज्यों को भी नागरिकता संशोधन विधेयक के दायरे से बाहर रखा गया है।
इसका मतलब हुआ कि 31 दिसंबर 2014 से पहले अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से आए हिंदू, सिख, बौद्ध, पारसी, जैन और ईसाई लोग भारत की नागरिकता हासिल करके के बावजूद मेघालय और मिज़ोरम में किसी तरह की ज़मीन या क़ारोबारी अधिकार हासिल नहीं कर पाएंगे।
नागरिकता संशोधन क़ानून शुरू से ही विवादों में रहा है। संशोधन से पहले इस क़ानून के अनुसार किसी भी व्यक्ति को भारतीय नागरिकता लेने के लिए कम से कम 11 साल भारत में रहना अनिवार्य था।
संशोधित क़ानून में जिन तीन पड़ोसी देशों के छह अल्पसंख्यकों की बात की गई है उनके लिए यह समयावधि 11 से घटाकर छह साल कर दी गई है।
साथ ही नागरिकता अधिनियम, 1955 में ऐसे संशोधन भी किए गए हैं कि इन लोगों को नागरिकता देने के लिए उनकी क़ानूनी मदद की जा सके।
नागरिकता अधिनियम, 1955 में पहले भारत में अवैध तरीक़े से दाख़िल होने वाले लोगों को नागरिकता नहीं देने और उन्हें वापस उनके देश भेजने या हिरासत में रखने के प्रावधान था।
जापानी प्रधानमंत्री शिंज़ो आबे ने भारत दौरा रद्द किया। नागरिकता संशोधन क़ानून को लेकर हो रहे विरोध प्रदर्शनों के बीच शुक्रवार को ये ख़बर भी भारतीय मीडिया में छाई रही।
इससे ठीक एक दिन पहले यानी गुरुवार को बांग्लादेश के विदेश मंत्री अब्दुल मोमिन और गृह मंत्री असदुज़्ज़मां ख़ान ने अपना भारत दौरा रद्द कर दिया था। वजह थी भारत के नागरिकता संशोधन क़ानून को लेकर बांग्लादेश की नाराज़गी।
भारत के अलग-अलग हिस्सों में नागरिकता संशोधन क़ानून का विरोध हो रहा है। ख़ासकर पूर्वोत्तर राज्यों में। इस क़ानून को लेकर मचे घमासान, बहस और प्रदर्शनों का असर भारत का दूसरे देशों के साथ संबंधों पर भी दिखा।
शिंज़ो आबे रविवार को भारत आने वाले थे। उनका दौरा 15-17 दिसंबर तक के लिए प्रस्तावित था और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनकी मुलाकात पूर्वोत्तर राज्य असम के गुवाहाटी में होनी थी।
वो भारत-जापान शिखरवार्ता में हिस्सा लेने वाले थे। असम नागरिकता संशोधन क़ानून को लेकर हो रहे विरोध प्रदर्शनों का केंद्र है।
ये दौरा रद्द होने के बाद भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने ट्वीट करके कहा कि दोनों देश मुलाकात के लिए जल्दी ही एक दूसरी सुविधाजनक तारीख़ तय करेंगे। हालांकि ये मुलाक़ात अब कब होगा, इस बारे में अभी कोई जानाकारी नहीं है।
शिंज़ो आबे का दौरा रद्द होने से जुड़ी ख़बरें और विश्लेषण जापानी मीडिया में भी प्रमुखता से छाई हैं। जापान मैगज़ीन 'निक्केई एशियन रिव्यू' ने इस पूरे मसले पर एक लगभग 800 शब्दों का ओपीनियन लेख प्रकाशित किया है।
नागरिकता संशोधन क़ानून पर केंद्रित इस लेख का शीर्षक है: भारत के ये बदलाव अनैतिक और ख़ुद को हराने वाले हैं।
लेख में शिंज़ो आबे के रद्द दौरे का ज़िक्र करते हुए नागरिकता संशोधन क़ानून की कड़ी आलोचना की गई है।
इसमें कहा गया है कि इसमें तो कोई शक ही नहीं है कि तथाकथित अवैध प्रवासियों से निबटने का भारतीय रणनीति का वास्ता धार्मिक भेदभाव से है। इतना ही नहीं, विदेश नीति और सुरक्षा पर भी इसका गंभीर असर होगा।
लेख में चेताया गया है कि भारत को इस बात से डरना चाहिए कि अगर दूसरे देश भी उसकी प्रवासी नीतियों को अपनाने लगें तो क्या होगा। क्योंकि भारत की एक बड़ी आबादी क़ानूनी और ग़ैरक़ानूनी तरीक़ों से दूसरे देशों में रहती है।
टोक्यो से छपने वाले 'द जापान टाइम्स' की ख़बर में लिखा है कि गुवाहाटी में भीड़ और पुलिस के बीच हिंसक संघर्ष हो रहे हैं और स्थानीय हालात को ध्यान में रखते हुए शिंज़ो आबे का दौरा स्थगित करने का निर्णय लिया गया है।
ख़बर के मुताबिक़ जापान चीन को क़ाबू में रखने के लिए भारत के साथ कूटनीतिक और सामरिक रिश्ते मज़बूत करने की कोशिश कर रहा है।
जापान टाइम्स लिखता है कि इस शिखरवार्ता में दोनों देशों के प्रतिनिधि सुरक्षा और आर्थिक विकास के मुद्दों पर चर्चा करने वाले थे।
ख़बर में असम की चिंताजनक स्थिति और भारतीय मीडिया की रिपोर्ट्स का भी ज़िक्र है। अख़बार लिखता है कि राज्य में हज़ारों स्थानीय लोग विरोध प्रदर्शन के लिए सड़कों पर उतर आए हैं क्योंकि उन्हें डर है कि नए क़ानून से बड़ी संख्या में विदेशी प्रवासी वहां आ जाएंगे।
जापान के प्रमुख अख़बार 'असाही शिनबुन' और समाचार वेबसाइट जापान टुडे ने भी इस ख़बर को प्रमुखता से जगह दी है। जापान टाइम्स में वहां के चीफ़ कैबिनेट सेक्रेटरी का बयान छपा है।
चीफ़ कैबिनेट सेक्रेटरी योशिहिदे सुगा ने कहा है, ''भारत से ज़मीनी रिपोर्ट के आधार पर प्रधानमंत्री का दौरा स्थगित करने का फ़ैसला किया गया। इस दौरे की रूपरेखा आगे तैयार होगी लेकिन अभी इस पर कोई ठोस फ़ैसला नहीं लिया गया है।''
दोनों देशों में सैन्य सहयोग पर एक समझौते को लेकर बातचीत चल रही है। शिंज़ो आबे इस दौरे में पीएम मोदी के साथ मणिपुर की राजधानी इंफाल भी जाने वाले थे। पीएम आबे इंफाल के मेमोरियल हॉल जाते।
इसे 1941 के इंफाल बैटल के नाम से जाना जाता है, जहां 30 हज़ार से ज़्यादा जापानी सैनिक मारे गए थे। इसे शाही जापानी सेना के सबसे ख़राब ऑपरेशन के तौर पर देखा जाता है। यह भी कहा जा रहा था कि पीएम मोदी से शिंज़ो आबे आरसीईपी में शामिल नहीं होने के फ़ैसले पर विचार करने के लिए कह सकते थे।
अभी एक महीने पहले ही जापान ने कहा था कि अगर भारत आरसीईपी (क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी) में शामिल नहीं होता है तो जापान भी इसका हिस्सा नहीं बनेगा।
5G तकनीक हाई स्पीड इंटरनेट सर्विस का वादा करती है और इसकी मदद से यूजर किसी फ़िल्म को महज कुछ सेकेंड में डाउनलोड कर लेते हैं। दुनिया के कई हिस्सों में इसकी शुरुआत हो चुकी है।
4G ने लोगों के अनुभवों को बहुत बदल दिया, ख़ासकर मोबाइल वीडियो और गेमिंग के अनुभव को। 5G और बदलाव लाएगा।
अमरीका और ब्रिटेन में 5G नेटवर्क की शुरुआत पर ख्वावे पर लगे प्रतिबंधों का भी असर पड़ा है।
सुरक्षा कारणों का हवाला देते हुए अमेरिका ने चीनी कंपनी ख्वावे के उपकरणों का 5G नेटवर्क में इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया है और अपने सहयोगियों को भी ऐसा करने की सलाह दी है।
अमरीकी कंपनियां ख्वावे को क्या बेच सकती हैं, इस पर भी नियंत्रण रखा जा रहा है। यही कारण है कि दुनियाभर में ख्वावे के फोन की बिक्री में गिरावट आई है।
वित्तीय सेवा समूह जेफरीज के विश्लेषक और इंडस्ट्री के जानकार एडिसन ली इसे दुनिया के 5G बाजार पर अमरीका के प्रभुत्व जमाने की कोशिश के रूप में देखते हैं।
वो मानते हैं कि ख्वावे पर अमरीका ने दबाव इसलिए बनाया है ताकि चीन को इस क्षेत्र में बादशाह बनने से रोका जा सके।
वो कहते हैं, "इस टेक वॉर के पीछे अमरीका का तर्क है कि चीन बौद्धिक संपदा की चोरी कर तकनीक के क्षेत्र में आगे बढ़ रहा है और सरकार इस पर बेतहाशा ख़र्च कर रही है। उसका मानना है कि चीनी दूरसंचार उपकरण सुरक्षित नहीं हैं। यह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा है।''
वो आगे जोड़ते हैं, "जैसे-जैसे दूरसंचार उपकरण के वैश्विक बाजार में ख्वावे और ZTE का दखल बढ़ता जाएगा, पश्चिम के देश जासूसी का मुद्दा जोर-शोर से उठाएंगे।''
ख्वावे ने हमेशा इन आरोपों को खारिज किया है कि उसकी तकनीक का इस्तेमाल जासूसी के लिए किया जा सकता है।
एक ओर जहां पश्चिम के देश ख्वावे को लेकर चिंतित हैं, वहीं दूसरी ओर चीन इस क्षेत्र में काफी आगे बढ़ गया है।
31 अक्तूबर को चीन की दूरसंचार कंपनियों ने 50 से ज़्यादा शहरों में 5G सेवा की शुरुआत की, जिसके बाद यहां दुनिया का सबसे बड़ा 5G नेटवर्क अस्तित्व में आया। इसका क़रीब 50 फ़ीसदी हिस्सा ख्वावे ने तैयार किया है।
चीन के सूचना मंत्रालय का दावा है कि महज 20 दिनों में इस सेवा से 8 लाख से ज़्यादा लोग जुड़े हैं। विश्लेषकों का अनुमान है कि चीन में 2020 तक 11 करोड़ 5G यूजर होंगे।
चीन अब इस नई तकनीक के नई तरह के इस्तेमाल पर काम कर रहा है।
उत्तरी हॉन्गकॉग के एक बड़े भूभाग पर शोधकर्ता वैसी गाड़ियां विकसित कर रहे हैं, जो 5G की मदद से खुद चलेंगी।
हॉन्गकॉन्ग एप्लाइड साइंस एंड टेक्नोलॉजी रिसर्च इंस्टीट्यूशन के शोधकर्ता चीन की सबसे बड़ी दूरसंचार कंपनी चाइना मोबाइल के साथ मिल कर यह काम कर रहे हैं।
वे मानते हैं कि सेल्फ ड्राइविंग कार यानी खुद से चलने वाली कारों के लिए 5G उपयोगी साबित हो सकती है। इसके ज़रिए सड़कों पर गाड़ियां एक-दूसरे से बेहतर संपर्क स्थापित कर पाएंगी, साथ में इसका भी सटीक पता चल पाएगा कि आसपास क्या चल रहा है।
5G की शुरुआत करने वाला चीन दुनिया का पहला देश नहीं है। कई अन्य देश इसकी शुरुआत पहले कर चुके हैं, लेकिन इसने जिस तेज़ी से वैश्विक बाजार में अपना प्रभुत्व जमाया है, पश्चिम के देश इसे लेकर खासा चिंता में हैं।
ख्वावे और ZTE जैसी कंपनियां इसका भरपूर फायदा उठा रही हैं और विदेशी बाज़ारों में अमरीका को टक्कर दे रही हैं।
नवंबर में बीजिंग में हुए 5G सम्मेलन में चीन के उद्योग और सूचना मंत्री ने आरोप लगाया था कि अमरीका साइबर सिक्योरिटी का इस्तेमाल अपनी कंपनियों को संरक्षण देने के लिए कर रही है।
मियाओ वी ने कहा था, "किसी भी देश को इसके 5G नेटवर्क के विस्तार में किसी कंपनी को सिर्फ़ आरोपों के आधार पर रोका नहीं जाना चाहिए, जो कभी सिद्ध नहीं किए गए हों।''
भारत में सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या में मंदिर-मस्जिद विवाद में फ़ैसला देते हुए विवादित जगह रामलला को सौंप दी और मंदिर बनाने के लिए सरकार से तीन महीने के भीतर एक ट्रस्ट के गठन को कहा है, लेकिन अब साधु और संतों के विभिन्न संगठनों में इस ट्रस्ट में शामिल होने को लेकर विवाद शुरू हो गया है।
ये विवाद इस स्तर तक पहुंच गया है कि साधु अपने विरोधियों के ख़िलाफ़ न सिर्फ़ अपशब्द बोल रहे हैं, बल्कि दो समूहों के बीच तो हिंसक संघर्ष तक की नौबत आ गई।
राम जन्मभूमि न्यास के महंत नृत्यगोपालदास पर कथित तौर पर अभद्र टिप्पणी के बाद उनके समर्थकों ने तपस्वी छावनी के संत परमहंसदास पर हमला बोल दिया और भारी संख्या में पुलिस बल पहुँचने के बाद ही परमहंसदास को वहाँ से सुरक्षित निकाला जा सका।
वहीं परमहंसदास को तपस्वी छावनी ने ये कहते हुए निष्कासित कर दिया गया है कि उनका आचरण अशोभनीय था और जब वो अपने आचरण में परिवर्तन लाएंगे तभी छावनी में उनकी दोबारा वापसी हो पाएगी।
लेकिन इस विवाद में सिर्फ़ यही दो पक्ष नहीं हैं बल्कि मंदिर निर्माण के मक़सद से पहले से चल रहे तीन अलग-अलग ट्रस्ट के अलावा अयोध्या में रहने वाले दूसरे रसूख़दार संत भी शामिल हैं।
दरअसल अयोध्या विवाद अदालत में होने के बावजूद रामलला विराजमान का भव्य मंदिर बनाने के लिए पिछले कई साल से तीन ट्रस्ट सक्रिय थे।
इनमें सबसे पुराना ट्रस्ट श्रीरामजन्मभूमि न्यास है जो साल 1985 में विश्व हिंदू परिषद की देख-रेख में बना था और यही ट्रस्ट कारसेवकपुरम में पिछले कई सालों से मंदिर निर्माण के लिए पत्थर तराशने का काम कर रहा है।
दूसरा ट्रस्ट रामालय ट्रस्ट है जो बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद साल 1995 में बना था और इसके गठन के पीछे भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव की भी भूमिका बताई जाती है।
जबकि तीसरा ट्रस्ट जानकीघाट बड़ा स्थान के महंत जन्मेजय शरण के नेतृत्व में बना श्रीरामजन्मभूमि मंदिर निर्माण न्यास है।
ये तीनों ही ट्रस्ट अब यह कह रहे हैं कि जब पहले से ही मंदिर निर्माण के लिए ट्रस्ट मौजूद है तो सरकार को किसी अन्य ट्रस्ट के गठन की क्या ज़रूरत है? ये सभी ट्रस्ट अपने नेतृत्व में मंदिर निर्माण ट्रस्ट बनाने के लिए दबाव बना रहे हैं।
वीएचपी के नेतृत्व वाले श्रीरामजन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष और मणिरामदास छावनी के संत महंत नृत्यगोपाल दास हैं।
राम मंदिर आंदोलन के दौरान मंदिर निर्माण के लिए जो चंदा इकट्ठा किया गया, करोड़ों रुपये की वह धनराशि भी इसी ट्रस्ट के पास है।
चूंकि वीएचपी ने ही मंदिर निर्माण के लिए चलाए गए आंदोलन का नेतृत्व किया था इसलिए फ़ैसले के बाद वीएचपी के नेता और उससे जुड़े धर्माचार्य इसी ट्रस्ट के माध्यम से मंदिर बनाने का दावा कर रहे हैं और इसके लिए अभियान चला रहे हैं।
जबकि रामालय ट्रस्ट का गठन साल 1995 में द्वारका पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती समेत 25 धर्माचार्यों की मौजूदगी में अयोध्या में रामजन्मभूमि पर राम मंदिर निर्माण के लिए किया गया था। इसके गठन में श्रृंगेरीपीठ के धर्माचार्य स्वामी भारती भी शामिल थे।
सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद रामालय ट्रस्ट के सचिव स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद ने मंदिर बनाने का क़ानूनी अधिकार उन्हीं के पास होने का दावा ठोंक दिया। इसके लिए पिछले हफ़्ते दिल्ली में उन्होंने एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस भी की थी।
स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद ने कहा, "अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद रामालय ट्रस्ट मंदिर निर्माण के ही निमित्त बना है। मंदिर निर्माण धर्माचार्यों के ही माध्यम से होना चाहिए। इसके लिए हमें किसी सरकारी मदद और हस्तक्षेप की ज़रूरत नहीं है। सरकार के इसमें किसी तरह का हस्तक्षेप करने पर हम कोर्ट भी जा सकते हैं।''
रामालय ट्रस्ट का दावा ठीक वैसा ही है जैसा कि श्रीरामजन्मभूमि न्यास का। दोनों का कहना है कि उन्हें मंदिर निर्माण की ज़िम्मेदारी सौंपी जाए और नया ट्रस्ट बनाने की ज़रूरत नहीं है।
रामालय ट्रस्ट का तर्क है कि उनका गठन बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हुआ है और उससे पहले बने ट्रस्ट अवैध हैं जबकि वीएचपी और श्रीरामजन्मभूमि न्यास का कहना है कि मंदिर निर्माण के लिए अदालती लड़ाई उन्होंने लड़ी है, इसलिए मंदिर बनाने का भी अधिकार उन्हीं को है।
जबकि इस विवाद में मुख्य पक्षकार रहे निर्मोही अखाड़े का कहना है कि नया ट्रस्ट जो भी बने, उसमें उसकी अहम भूमिका हो। निर्मोही अखाड़े की भूमिका की बात सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में भी की है।
वहीं श्रीरामजन्मभूमि मंदिर निर्माण न्यास के अध्यक्ष जन्मेजय शरण कहते हैं, "सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को ट्रस्ट बनाने के लिए अधिकृत किया है, इसलिए यह अधिकार केंद्र सरकार को ही है कि वह कोई नया ट्रस्ट बनाए जो मंदिर निर्माण करे। यदि यह काम अकेले विश्व हिन्दू परिषद को दिया जाता है तो हम इसका विरोध करेंगे। सभी को निजी हितों को छोड़कर केवल मंदिर निर्माण पर ध्यान देना चाहिए। सरकार को चाहिए कि सभी न्यासों से प्रतिनिधियों को शामिल करके एक नया ट्रस्ट बनाए और इसकी निगरानी सरकार करे।''
इन सबके अतिरिक्त, रामलला विराजमान के मुख्य पुजारी आचार्य सत्येंद्र दास कहते हैं कि ट्रस्ट का गठन सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार ही हो, न कि किसी पुराने ट्रस्ट को ये ज़िम्मा दिया जाए।
उनके मुताबिक, "सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को ट्रस्ट बनाने का आदेश दिया है। इसी आदेश के तहत नया ट्रस्ट बने। पहले से जो ट्रस्ट राम मंदिर के निर्माण के नाम पर बने हैं, उन्हें भी अपनी संपत्तियां और इसके लिए इकट्ठा किए गए चंदे इसी सरकारी ट्रस्ट को सौंप देना चाहिए। सरकार को चाहिए कि जो लोग ऐसा न करें, उनसे ज़बरन लिया जाए।''
सत्येंद्र दास किसी का नाम तो नहीं लेते लेकिन निर्मोही अखाड़े के महंत दिनेंद्र दास सीधे तौर पर कहते हैं कि विश्व हिन्दू परिषद को मंदिर निर्माण के नाम पर इकट्ठा किए गए ईंट, शिलाएं और यहां तक कि नकदी भी सरकार को सौंप देनी चाहिए।
लेकिन विश्व हिन्दू परिषद इसे इतनी आसानी से सौंप देगा, ऐसा लगता नहीं है।
वीएचपी प्रवक्ता शरद शर्मा कहते हैं कि केंद्र सरकार उनके काम की उपेक्षा नहीं कर सकती है।
शरद शर्मा कहते हैं, ''हम वर्षों से मंदिर निर्माण में लगे हुए हैं, हमारे संगठन ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया है। देश-विदेश के सभी हिन्दुओं का हमें समर्थन और सहयोग मिला है। मैं इस बात को लेकर आश्वस्त हूं कि प्रधानमंत्री मोदी हमसे सलाह लेंगे।''
मंदिर निर्माण के लिए बनने वाले ट्रस्ट को लेकर चल रहे इस विवाद में दो महंतों के बीच हुई एक बातचीत के वायरल ऑडियो क्लिप ने आग में घी का काम कर दिया।
अयोध्या में संत समुदायों के बीच प्रसारित हो रहे एक ऑडियो क्लिप में राम मंदिर आंदोलन में सक्रिय रहे वीएचपी नेता और बीजेपी के पूर्व सांसद रामविलास वेदांती कह रहे हैं कि वह मंदिर ट्रस्ट का प्रमुख बनना चाहते हैं।
हालांकि हम इस ऑडियो क्लिप की पुष्टि नहीं करते हैं लेकिन इस क्लिप ने अयोध्या के संतों में काफ़ी हलचल पैदा कर दी है।
यह ऑडियो क्लिप कथित रूप से रामविलास वेदांती और तपस्वी छावनी के प्रमुख महंत परमहंसदास के बीच बातचीत का है।
इसी ऑडियो क्लिप में महंत परमहंसदास कथित रूप से राम जन्मभूमि न्यास के प्रमुख महंत नृत्यगोपाल दास के लिए अशोभनीय शब्दों का इस्तेमाल करते हैं और इसी से नाराज़ होकर नृत्यगोपालदास के समर्थक साधुओं ने उनके घर पर हमला बोल दिया था।
नृत्यगोपाल दास ने ट्रस्ट में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भी शामिल करने की मांग कर चुके हैं और अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरि भी उनकी मांग का समर्थन कर चुके हैं जबकि इस ऑडियो क्लिप में रामविलास वेदांती और परमहंसदास ने योगी आदित्यनाथ को इसमें शामिल करने का विरोध किया है क्योंकि वो रामानंद संप्रदाय से नहीं आकर नाथ संप्रदाय से आते हैं।
हालांकि रामविलास वेदांती इस बातचीत से साफ़ इनकार करते हैं जबकि परमहंसदास इस मुद्दे पर कुछ नहीं बोल रहे हैं लेकिन महंत नृत्यगोपालदास के ऊपर परमहंसदास कई गंभीर आरोप लगा रहे हैं।
अयोध्या में वर्षों से मंदिर आंदोलन को क़रीब से देखने वाले स्थानीय पत्रकार महेंद्र त्रिपाठी कहते हैं, ''सुप्रीम कोर्ट ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच के विवाद को भले ही ख़त्म करने की कोशिश की है लेकिन अब अयोध्या में साधु और संतों के बीच विवाद और टकराव बढ़ेंगे। इस बात की आशंका पहले से ही थी कि ट्रस्ट का हिस्सा बनने के लिए हिंदूवादी संगठनों के बीच आपसी टकराव होगा लेकिन अब जिस तरीक़े से स्टिंग ऑपरेशन और एक-दूसरे पर ज़ुबानी हमले हो रहे हैं उससे इस विवाद के बढ़ने की ही आशंका है। अभी तो और भी कई संत हैं जो इस फ़ैसले का लंबे समय से इंतज़ार कर रहे थे, अब वो भी मांग करेंगे कि उन्हें भी ट्रस्ट में शामिल किया जाए।''
नेपाल में बढ़ते विरोध-प्रदर्शन के बीच प्रधानमंत्री के पी ओली ने रविवार को कहा कि कालापानी नेपाल, भारत और तिब्बत के बीच का ट्रि जंक्शन है और यहां से भारत को तत्काल अपने सैनिक हटा लेने चाहिए।
नेपाल के प्रधानमंत्री के पी ओली ने कहा कि कालापानी नेपाल का हिस्सा है। यह पहली बार है जब नेपाल के प्रधानमंत्री ने भारत के नए आधिकारिक नक्शे से पैदा हुए विवाद पर सार्वजनिक प्रतिक्रिया दी है।
भारत ने नए नक्शे में कालापानी को अपना हिस्सा बताया है। कालापानी नेपाल के पश्चिमी छोर पर स्थित है। प्रधानमंत्री के पी ओली के बयान पर भारत की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है। हालांकि भारत का कहना है कि नेपाल से लगी सीमा पर भारत के नए नक्शे में कोई छेड़छाड़ नहीं की गई है।
रविवार को नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के यूथ विंग नेपाल युवा संगम को संबोधित करते हुए केपी ओली ने कहा, ''हमलोग अपनी एक इंच ज़मीन भी किसी के क़ब्ज़े में नहीं रहने देंगे। भारत यहां से तत्काल हटे।''
हालांकि नेपाली पीएम ने उस सलाह को ख़ारिज कर दिया जिसमें कहा जा रहा था कि नेपाल को एक संशोधित नक्शा जारी करना चाहिए। ओली ने कहा, ''भारत हमारी ज़मीन से सेना हटा लेगा तो हम इसे लेकर बातचीत करेंगे।''
कालापानी को भारत के नक्शे में दिखाए जाने को लेकर नेपाल में हफ़्तों से विरोध प्रदर्शन हो रहा है। इसे लेकर सत्ताधारी पार्टी से लेकर विपक्ष तक एकजुट है। नेपाल के विदेश मंत्रालय ने छह नवंबर को एक प्रेस रिलीज़ जारी किया था और कहा था कि कालापानी नेपाल का हिस्सा है।
नेपाली कांग्रेस के प्रवक्ता विश्व प्रकाश शर्मा ने ट्विटर पर लिखा कि पार्टी प्रमुख शेर बहादुर देउबा ने सर्वदलीय बैठक में कहा है कि जिस नेपाली ज़मीन पर भारतीय सैनिक हैं वहां से उन्हें जाने के लिए कहा जाए।
समाजवादी पार्टी नेपाल के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टरई ने भी कहा है कि कालापानी को लेकर पीएम ओली भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बात करें।
जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को दो केंद्र शासित प्रदेश बनाने के बाद भारत ने नया नक्शा जारी किया था। इस नक्शे में पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर के गिलगित-बाल्टिस्तान और कुछ हिस्सों को शामिल किया गया था।
नेपाली पीएम ने रविवार को कहा कि वो अपने पड़ोसी के साथ शांति से रहना चाहते हैं। ओली ने कहा, ''सरकार इस सीमा विवाद को संवाद के ज़रिए सुलझा लेगी। हमारी ज़मीन से विदेशी सैनिकों को वापस जाना चाहिए। यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम अपनी ज़मीन की रक्षा करें। हमें किसी और की ज़मीन नहीं चाहिए तो हमारे पड़ोसी भी हमारी ज़मीन से सैनिकों को वापस बुलाए।''
ओली ने कहा, ''कुछ लोग कह रहे हैं कि नक्शे को सही किया जाए। ये तो हम अभी कर सकते हैं। हम यहीं पर कर सकते हैं। यह नक्शे का मसला नहीं है। मामला अपनी ज़मीन वापस लेने का है। हमारी सरकार ज़मीन वापस लेगी। मानचित्र तो प्रेस में प्रिंट हो जाएगा। लेकिन मामला मानचित्र प्रिंट कराने का नहीं है। नेपाल अपनी ज़मीन वापस लेने में सक्षम है। हमने इस मुद्दे को साथ मिलकर उठाया है और ये साथ बहुत ज़रूरी है।''
इससे पहले ओली की आलोचना हो रही थी कि वो कालापानी के मसले पर कुछ बोल नहीं रहे हैं।
नेपाली पीएम केपी ओली ने कहा, ''इन मुद्दों का समाधान तनाव से नहीं हो सकता। कुछ लोग इस मुद्दे को ख़ुद को हीरो तो कुछ लोग ख़ुद को ज़्यादा देशभक्त दिखाने के लिए कर रहे हैं। लेकिन सरकार ऐसा नहीं करेगी। नेपाल की सरकार नेपाली जनता की है और हम अपनी ज़मीन का एक इंच भी किसी को नहीं लेने देंगे।''
नेपाल के अधिकारियों के अनुसार, ''भारत ने 1962 में चीन से हुए युद्ध के बाद अपनी सभी सीमा चौकियों को नेपाल के उत्तरी बेल्ट से हटा लिया था, लेकिन कालापानी से नहीं। और लेपु लेख को लेकर 2014 में विवाद उस समय शुरू हुआ जब भारत और चीन ने नेपाल के दावे का विरोध करते हुए लिपु लेख के माध्यम से द्विपक्षीय व्यापार गलियारे का निर्माण करने पर सहमति जताई थी। नेपाल ने ये मुद्दा चीन और भारत दोनों से उठाया था लेकिन इस पर कभी औपचारिक रूप से चर्चा नहीं हो सकी है।''
कालापानी पर विवाद क्या है?
कालापानी उत्तराखंड के पिथौड़ागढ़ ज़िले में 35 वर्ग किलोमीटर ज़मीन है। यहां इंडो-तिब्बत बॉर्डर पुलिस के जवान तैनात हैं। भारतीय राज्य उत्तराखंड की नेपाल से 80.5 किलोमीटर सीमा लगती है और 344 किलोमीटर चीन से। काली नदी का उद्गम स्थल कालापानी ही है। भारत ने इस नदी को भी नए नक्शे में शामिल किया है।
1816 में ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल के बीच सुगौली संधि हुई थी। तब काली नदी को पश्चिमी सीमा पर ईस्ट इंडिया और नेपाल के बीच रेखांकित किया गया था। 1962 में भारत और चीन में युद्ध हुआ तो भारतीय सेना ने कालापानी में चौकी बनाई।
नेपाल का दावा है कि 1961 में यानी भारत-चीन युद्ध से पहले नेपाल ने यहां जनगणना करवाई थी और तब भारत ने कोई आपत्ति नहीं जताई थी। नेपाल का कहना है कि कालापानी में भारत की मौजूदगी सुगौली संधि का उल्लंघन है।
यूरोप के एक ग़ैर सरकारी फ़ैक्ट चेक एनजीओ ईयू डिसइंफ़ो लैब का दावा है कि एक भारतीय नेटवर्क दुनिया के 65 देशों में 265 'फ़ेक मीडिया आउटलेट' के ज़रिए पाकिस्तान विरोधी प्रोपेगैंडा फ़ैलाने का काम कर रहा है। इन सभी 'फ़ेक मीडिया आउटलेट्स' के तार दिल्ली के श्रीवास्तव ग्रुप से जुड़े हुए हैं।
ये वही श्रीवास्तव ग्रुप है जिसके इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर नॉन-अलाइंड स्ट्डीज़ (आईआईएनएस) ने इस साल अक्टूबर में 23 ईयू सांसदों के ग़ैर-सरकारी कश्मीर दौरे और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाक़ात की सारी व्यवस्था की थी।
यूरोपीय संघ ने रूस की ओर से फ़ैलाए जा रहे फ़ेक न्यूज़ से निपटने के लिए एक फ़ोरम बनाया है। ये स्वतंत्र फ़ैक्ट चेक यूरोप में फ़ेक प्रोपेगैंडा की पहचान करने के लिए काम कर रही है। इन सभी 265 आउटलेट का ज़्यादातर कंटेंट पाकिस्तान-विरोधी ख़बरों से भरा हुआ है।
ईयू की डिसइंफ़ो लैब ने अपनी परत-दर-परत पड़ताल में पाया है कि कैसे दिल्ली का श्रीवास्तव ग्रुप विदेश में चल रहे ''फ़ेक लोकल न्यूज़ आउटलेट'' से जुड़ा है।
डिसइंफ़ो लैब ने पाया कि कई लोग रूस की ओर से फैलाए जा रहे झूठ को ईपी टुडे वेबसाइट के हवाले से शेयर कर रहे हैं। इसके बाद लैब ने इस वेबसाइट की पड़ताल शुरू की तो सामने आया कि ये वेबसाइट भारत से जुड़ी हुई है। इसके बाद पड़ताल में एक के बाद एक कई विदेशी वेबसाइट सामने आईं जिनके तार दिल्ली से जुड़े मिले।
बीबीसी के मुताबिक, इस पूरे मामले पर श्रीवास्तव ग्रुप का रुख़ जानने के लिए हम आधिकारिक वेबसाइट पर दिए गए पते A2/59 सफ़दरजंग पहुंचे। इस पते पर एक घर मिला जिसके गेट पर खड़े सिक्योरिटी गार्ड ने हमे अंदर जाने से रोक दिया। उसने हमें बताया कि यहां कोई ऑफ़िस नहीं है। इस वेबसाइट पर कोई ईमेल आईडी नहीं दी गई है जिससे संपर्क किया जा सके। हमने दिए गए नंबर पर फोन किया तो जवाब मिला कि ''सर आपको फ़ोन कर लेंगे।''
इस मामले पर हमने भारत के विदेश मंत्रालय को एक मेल के ज़रिए पूछा है कि क्या ऐसी वेबसाइट्स की जानकारी मंत्रालय के पास है। और क्या किसी भी तरीके से इसका ताल्लुक भारत सरकार से है? ये रिपोर्ट लिखे जाने तक हमें मंत्रालय की ओर से कोई जवाब नहीं मिला है।
9 अक्टूबर को ईयू के डिसइंफ़ो लैब ने ट्विटर पर सिलसिलेवार तरीके से बताया कि उसकी पड़ताल में कैसे भारत के श्रीवास्तव ग्रुप की भूमिका सामने आई?
- ईपी टुडे की ऑफ़िशियल वेबसाइट पर इसका पता ब्रसेल्स, बेल्जियम का दिया गया है। इसके बाद श्रीवास्तव ग्रुप की आधिकारिक वेबसाइट छानी। इस ग्रुप का मुख्यालय दिल्ली में है और एक कार्यालय बेल्जियम, स्विट्ज़रलैंड और कनाडा में है। खास बात ये है कि ईपी टुडे और श्रीवास्तव ग्रुप का बेल्जियम स्थित दफ़्तर एक ही पते पर है।
- डिसइंफ़ो लैब का कहना है कि ईपी टुडे की आईपी हिस्ट्री सर्च करने पर पता चला कि इसे उसी सर्वर पर होस्ट किया गया था जिस पर श्रीवास्तव ग्रुप को होस्ट किया गया था। यानी पहले दोनों ही वेबसाइट को एक सर्वर पर होस्ट किया गया था।
- http://eptoday.com का ओरिजनल रजिस्ट्रेशन http://UIWNET.COM से जुड़ा हुआ था। UIWNET.COM और श्रीवास्तव ग्रुप का होस्ट सर्वर एक है।
- इस साल अक्टूबर में आई एक रिपोर्ट में बताया गया कि ईपी टुडे के फ़ेसबुक पेज को चार लोग दिल्ली से चला रहे है। जब बीबीसी ने इसकी पड़ताल की तो पाया कि इसका फ़ेसबुक पेज सस्पेंड किया जा चुका है।
- ये भारतीय ग्रुप जेनेवा में भी काम कर रहा है, जहां संयुक्त राष्ट्र की रिफ़्यूजी एजेंसी है। टाइम्स ऑफ़ जेनेवा (timesofgeneva.com) नाम से एक ऑनलाइन न्यूज़पेपर चलाया जा रहा है। इस वेबसाइट पर दावा किया जा रहा है कि ''35 साल से वो इस बिज़नेस में हैं।''
- टाइम्स ऑफ़ जेनेवा पर वहीं कटेंट है जो ईपी टुडे पर छापा जा रहा है। टाइम्स ऑफ़ जेनेवा की साइट पर वीडियो भी है, जो या तो पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों के हालत की बात करता है या फिर गिलगित-बल्तिस्तान पर फ़ोकस है। टाइम्स ऑफ़ जेनेवा पर पाकिस्तानी अल्पसंख्यकों के प्रदर्शन पर काफ़ी कवरेज की गई।
- डिसइंफ़ो लैब का दावा है कि टाइम्स ऑफ़ जेनेवा के सर्वर पर एक एनजीओ की वेबसाइट pakistaniwomen.org भी चल रही है। लैब की पड़ताल वेबसाइट से होते हुए यूरोपीय ऑर्गनाइजेशन फॉर पाकिस्तानी माइनॉरिटी (ईओपीएम) के ट्विटर हैंडल तक पहुंची। इस संस्था का पता, ईपी टुडे का पता और श्रीवास्तव ग्रुप के ब्रसेल्स दफ्तर का पता एक ही है।
- अब इस मामले में एक तीसरा प्लेयर सामने आता है 4NewsAgency। इसकी वेबसाइट पर दी जानकारी के मुताबिक ये बेल्जियम, स्विट्ज़रलैंड, थाइलैंड और अबू धाबी की चार न्यूज़ एजेंसियों का एक समूह है। हालांकि ये नहीं बताया गया है कि ये चार एजेंसियां हैं कौन-कौन सी।
- दावा ये है कि इसकी टीम 100 देशों में काम कर रही है लेकिन वेबसाइट पर बेल्जियम और जेनेवा के दो दफ़्तरों का ही पता दिया गया है। एक बात जो इनमें एक है कि ईपी टुडे, जेनेवा टाइम्स, 4newsagency और श्रीवास्तव ग्रुप इन सभी का दफ़्तर बेल्जियम और जेनेवा में ही है।
- 4newsagency, ईपी टुडे, जेनेवा टाइम्स और श्रीवास्तव ग्रुप के बीच लिंक को विस्तार से समझने के लिए बीबीसी ने डिसइंफ़ो लैब को ईमेल लिखा जिसके जवाब में पता चला कि ये सभी फ़ेक मीडिया आउटलेट इस एजेंसी से जुड़े हुए हैं। इन वेबसाइट पर एक ही तरह के कंटेंट का इस्तेमाल हो रहा है।
- डिसइंफ़ो लैब का कहना है कि 21 ऐसे डोमेन हैं जो एक सर्वर से चल रहे हैं और इसमें श्रीवास्तव ग्रुप का नाम शामिल है।
- डिसइंफ़ो लैब को 2018 में लिखा गया एक लेटर मिला है। माडी शर्मा के ही ग़ैर सरकारी संगठन WESTT ने आधिकारिक रूप से यूरोपीय संसद के पूर्व अध्यक्ष एंटोनियो ताजानी को पत्र लिखा था कि वह पाकिस्तानी अल्पसंख्यकों पर EP टुडे के ऑप-एड का समर्थन करें। माडी शर्मा के ही इस संगठन ने 23 ईयू सांसदों का भारत दौरा आयोजित किया था।
- बीबीसी ने अपनी पड़ताल में पाया है कि माडी शर्मा ईपी टुडे पर लेख लिखती हैं।
- एक ही नाम का शख़्स ईपी टुडे पर लेख भी लिख रहा है और माडी शर्मा के थिंकटैंक WESTT के लिए काम भी कर रहा है।
ये वेबसाइट काम क्या करती हैं?
- डिसइंफ़ो लैब का दावा है कि ये '265 फ़ेक लोकल न्यूज़ आउटलेट' अंतराष्ट्रीय संस्थाओं को प्रभावित करने का काम करते हैं।
- अपनी विश्वसनीयता को मज़बूत बनाने के लिए एनजीओ को खास तरह के विरोध प्रदर्शनों की प्रेस रिलीज़ मुहैया करती हैं।
- ये सभी मीडिया आउटलेट एक दूसरे को कोट करते हैं, एक ही रिपोर्ट को अपने प्लेटफॉर्म पर छापते हैं। ये इस तरह किया जाता है कि पढ़ने वाला खबरों के साथ होने वाले हेर-फ़ेर को समझ ही नहीं पाता। इसका काम भारत के लिए अंतराष्ट्रीय सपोर्ट को बढ़ाना है।
- खबरों-संपादकीयों के ज़रिए लोगों के बीच पाकिस्तान की छवि को तोड़-मरोड़ कर पेश करना।
श्रीवास्तव ग्रुप तब चर्चा में आया जब इस साल अक्टूबर में 23 ईयू सांसद ग़ैर सरकारी दौरे पर भारत आए। माडी शर्मा का एनजीओ विमेंस इकोनॉमिक एंड सोशल थिंक टैंक (WESTT) यूरोपीय सांसदों को भारत लेकर आया था। सांसदों को भेजे अपने निमंत्रण में कहा था कि आने जाने का ख़र्च भारत स्थित इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ नॉन अलाइड स्टडीज़ (आईआईएनएस) उठाएगा।
इंस्टीट्यूट ऑफ नॉन अलाइड स्टडीज़ ग़ैर सरकारी संगठन है जिसकी स्थापना 1980 में की गई थी। श्रीवास्तव ग्रुप की वेबसाइट पर बताया गया है कि आई आई एन एस उनकी संस्था है। इसके अलावा इस समूह के कुछ अखबार डेल्ही टाइम्स (अंग्रेजी), नई दिल्ली टाइम्स (हिंदी) भी छपते हैं। हालांकि इन समाचार पत्रों का सर्कुलेशन कितना है इसकी कोई जानकारी वेबसाइट पर नहीं दी गई है।
द वायर में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक श्रीवास्तव ग्रुप की कई कंपनियां हैं। लेकिन रजिस्ट्रार ऑफ़ कंपनी के पास दाखिल किए गए दस्तावेज़ों से पता चलता है कि इसकी ज़्यादतर कंपनी बिजनेस नहीं कर रही हैं। उनके पास पैसे ही नहीं हैं।
इस ग्रुप की कुल सात कंपनियां चल रही हैं, जिसके बोर्ड में नेहा श्रीवास्तव और अंकित श्रीवास्तव का नाम कॉमन है।
रिपोर्ट के मुताबिक A2N ब्रॉडकास्टिंग ने पिछले साल 2000 रुपये का घाटा दर्ज किया। इस कंपनी की कोई कमाई नहीं है। इसके पास 10 हज़ार रुपये का बैलेंस सिटी बैंक में है और 10 हज़ार ओरिएंटल बैंक में।
इस कंपनी के पास कोई बड़े मुनाफ़े का कारोबार नहीं है।
बीबीसी के मुताबिक, सफ़दरजंग एन्क्लेव में A2/59 पते को हमने खंगालना शुरू किया तो साल 2018 की इंडियन इस्लामिक कल्चर सेंटर की एक इलेक्टोरल लिस्ट मिली, जिसके मुताबिक़ इस पते पर अंकित श्रीवास्तव और नेहा श्रीवास्तव रहते हैं।
ये दोनों ही श्रीवास्तव समूह से जुड़े हैं। डॉ. अंकित श्रीवास्तव इस समूह के वाइस चेयरमैन है। वहीं, नेहा श्रीवास्तव वाइस चेयरपर्सन है। लेकिन इस पते पर एक दफ़्तर होने का दावा किया जा रहा है।
बीबीसी के मुताबिक, इसके बाद हमने इनके सोशल मीडिया अकाउंट खंगाले तो अंकित श्रीवास्तव की ट्विटर प्रोफ़ाइल मिली। इस प्रोफ़ाइल पर 10 हज़ार से ज्यादा फॉलोअर हैं और उन्होंने ख़ुद को न्यू डेल्ही टाइम्स का एडिटर इन चीफ़ बताया है। अंकित श्रीवास्तव की लिंक्डइन प्रोफ़ाइल पर भी यही जानकारी दी गई है।
बीबीसी के मुताबिक, कई कोशिशों के बाद भी श्रीवास्तव ग्रुप के किसी भी प्रतिनिधि से हमारी बात नहीं हो सकी।
भारत में सुप्रीम कोर्ट ने नौ नवंबर को अयोध्या में विवादित ज़मीन पर फ़ैसला सुनाते हुए मंदिर बनाने का रास्ता साफ़ कर दिया है।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पाँच जजों की बेंच ने सर्वसम्मति से फैसला मंदिर के पक्ष में सुनाया लेकिन साथ में यह भी कहा कि बाबरी मस्जिद तोड़ना एक अवैध कृत्य था।
फैसला में सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि मस्जिद के नीचे एक संरचना थी जो इस्लामी नहीं थी, लेकिन यह भी कहा है कि मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाए जाने का दावा भारतीय पुरातत्वविदों ने नहीं किया।
जब यह फ़ैसला आया तो अलग-अलग तरह से व्याख्या शुरू हुई। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस गांगुली उन पहले लोगों में थे जिन्होंने अयोध्या फ़ैसले पर कई सवाल खड़े किए। जस्टिस गांगुली का मुख्य सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने जिस आधार पर हिन्दू पक्ष को विवादित ज़मीन देने का फ़ैसला किया है, वो उनकी समझ में नहीं आया।
इन्हीं तमाम मुद्दों पर बीबीसी की भारतीय भाषाओं की संपादक रूपा झा ने जस्टिस गांगुली से बात की और उनसे पूछा कि इस फ़ैसले पर उनकी आपत्ति क्या और क्यों है? जस्टिस गांगुली का कहना है कि जिस तरह से ये फ़ैसला दिया गया वो उन्हें परेशान करता है।
उन्होंने कहा, ''बाबरी मस्जिद लगभग 450-500 सालों से वहां थी। यह मस्जिद 6 दिसंबर 1992 में तोड़ दी गई। मस्जिद का तोड़ा जाना सबने देखा है। इसे लेकर आपराधिक मुक़दमा भी चल रहा है। सुप्रीम कोर्ट की इस बेंच ने भी मस्जिद तोड़े जाने को अवैध कहा है और इसकी आलोचना की है। इसके साथ ही अदालत ने ये फ़ैसला दिया कि मस्जिद की ज़मीन रामलला यानी हिन्दू पक्ष की है। इसका कोई प्रमाण नहीं है कि मस्जिद जहां थी वहां मंदिर था और उसे तोड़कर बनाया गया था। कहा गया कि मस्जिद के नीचे कोई संरचना थी लेकिन इसके कोई सबूत नहीं हैं कि वो मंदिर ही था।''
जस्टिस गांगुली कहते हैं ये उनकी पहली आपत्ति है। दूसरी आपत्ति बताते हुए कहते हैं, ''विवादित ज़मीन देने का आधार पुरातात्विक साक्ष्यों को बनाया गया है। लेकिन यह भी कहा गया है कि पुरातात्विक सबूतों से ज़मीन के मालिकाना हक़ का फ़ैसला नहीं हो सकता। ऐसे में सवाल उठता है कि फिर किस आधार पर ज़मीन दी गई?''
सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या पर इस फ़ैसले में पुरातात्विक सबूतों के अलावा यात्रा वृतांतों का भी ज़िक्र किया है। इस पर जस्टिस गांगुली कहते हैं, ''यात्रा वृतांत सबूत नहीं हो सकता। इतिहास भी सबूत नहीं हो सकता। अगर हम पुरातात्विक खुदाई के आधार पर सबूतों का सहारा लेंगे कि वहां पहले कौन सी संरचना थी तो इसके ज़रिए हम कहां जाएंगे?''
''यहां तो मस्जिद पिछले 500 सालों से थी और जब से भारत का संविधान अस्तित्व में आया तब से वहां मस्जिद थी। संविधान के आने के बाद से सभी भारतीयों का धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार मिला हुआ है। अल्पसंख्यकों को भी अपने धार्मिक आज़ादी मिली हुई है। अल्पसंख्यकों का यह अधिकार है कि वो अपने धर्म का पालन करें। उन्हें अधिकार है कि वो उस संरचना का बचाव करें। बाबरी मस्जिद विध्वंस का क्या हुआ?''
जस्टिस गांगुली कहते हैं, ''2017 में स्टेट बनाम कल्याण सिंह के पैरा 22 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि बाबरी विध्वंस एक ऐसा अपराध था जिससे भारतीय संविधान की धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों को आघात पहुंचा है। ये मुक़दमा अभी चल रहा है और जिसने अपराध किया है उसे दोषी ठहराया जाना बाक़ी है। अपराध हुआ है इसमें कोई संदेह नहीं है और इससे भारतीय संविधान में लिखित धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों का गंभीर उल्लंघन हुआ है। ये बात सुप्रीम कोर्ट ने कही है। इसे अभी तय करना बाक़ी है कि किसने यह जुर्म किया था?''
क्या बाबरी विध्वंस का मामला अब तार्किक निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाएगा? इस सवाल के जवाब में जस्टिस गांगुली कहते हैं, ''मुझे नहीं पता कि इसका अंत क्या होगा। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी विध्वंस की कड़ी निंदा की है। सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा पहले भी किया था और इस फ़ैसले में भी किया है। अब आप वो ज़मीन हिन्दू पक्ष को दे रहे हैं और उसके आधार हैं पुरातात्विक सबूत, यात्रा वृतांत और आस्था।''
''क्या आप आस्था को आधार बनाकर फ़ैसला देंगे? एक आम आदमी इसे कैसे समझेगा? ख़ास करके उनके लिए जो क़ानून का दांव पेच नहीं समझते हैं। लोगों ने यहां वर्षों से एक मस्जिद देखी। अचानक से वो मस्जिद तोड़ दी गई। यह सबको हैरान करने वाला था। यह हिन्दुओं के लिए भी झटका था। जो असली हिन्दू हैं वो मस्जिद विध्वंस में भरोसा नही कर सकते। यह हिंदुत्व के मूल्यों के ख़िलाफ़ है। कोई हिन्दू मस्जिद तोड़ना नहीं चाहेगा। जो मस्जिद तोड़ेगा वो हिन्दू नहीं है। हिन्दूइज़म में सहिष्णुता है। हिन्दुओं के प्रेरणास्रोत चैतन्य, रामकृष्ण और विवेकानंद रहे हैं।''
जस्टिस गांगुली कहते हैं, ''मस्जिद तोड़ दी गई और अब कोर्ट ने वहां मंदिर बनाने की अनुमति दे दी है। जिन्होंने मस्जिद तोड़ी थी उनकी तो यही मांग थी और मांग पूरी हो गई है। दूसरी तरफ़, बाबरी विध्वंस के मामले पेंडिंग हैं। जिन्होंने क़ानून-व्यवस्था तोड़ी और संविधान के ख़िलाफ़ काम किया उन्हें कोई सज़ा नहीं मिली और विवादित ज़मीन पर मंदिर बनाने का फ़ैसला आ गया।''
''मैं सुप्रीम कोर्ट का हिस्सा रहा हूं और उसका सम्मान करता हूं लेकिन यहां मामला संविधान का है। संविधान के मौलिक कर्तव्य में यह लिखा है कि वैज्ञानिक तर्कशीलता और मानवता को बढ़ावा दिया जाए। इसके साथ ही सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा की जाए, मस्जिद सार्वजनिक संपत्ति ही थी, यह संविधान के मौलिक कर्तव्य का हिस्सा है। मस्जिद तोड़ना एक हिंसक कृत्य था।''
अगर जस्टिस गांगुली को यह फ़ैसला देना होता तो वो क्या करते?
इस सवाल के जवाब में जस्टिस गांगुली कहते हैं, ''यह एक काल्पनिक सवाल है। फिर मैं कहता सकता हूं अगर मुझे फ़ैसला देना होता तो पहले मस्जिद बहाल करता और साथ ही लोगों को भरोसे में लेता ताकि न्याय की प्रक्रिया में निष्पक्षता और संविधान के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की अहमियत स्थापित हो। अगर ये नहीं हो पाता तो मैं किसी के भी पक्ष में किसी निर्माण का फ़ैसला नहीं देता। यहां कोई सेक्युलर इमारत बनाने का आदेश दे सकता था जिनमें स्कूल, संग्रहालय या यूनिवर्सिटी हो सकती थी। मंदिर और मस्जिद कहीं और बनाने का आदेश देता, जहां विवादित ज़मीन नहीं होती।''
अयोध्या पर पाँच जजों के जजमेंट में अलग से एक परिशिष्ट जोड़ा गया है और उसमें किसी जज का हस्ताक्षर नहीं है। इस पर जस्टिस गांगुली क्या सोचते हैं? जस्टिस गांगुली ने कहा कि यह असामान्य है लेकिन वो इस पर नहीं जाना चाहते। इस फ़ैसले का गणतांत्रिक भारत और न्यायिक व्यवस्था पर क्या असर पड़ेगा?
इस सवाल के जवाब में जस्टिस गांगुली कहते हैं, ''इस फ़ैसले से जवाब कम और सवाल ज़्यादा खड़े हुए हैं। मैं इस फ़ैसले से हैरान और परेशान हूं। इसमें मेरा कोई निजी मामला नहीं है।''
इस फ़ैसले का असर बाबरी विध्वंस केस पर क्या पड़ेगा? जस्टिस गांगुली ने कहा कि वो उम्मीद करते हैं कि इसकी जांच स्वतंत्र रूप से हो और मामला मुकाम तक पहुंचे।''
भारत में अयोध्या विवाद में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को दी जाने वाली पांच एकड़ ज़मीन को लेकर चर्चा काफ़ी गरम हो रही हैं।
एक ओर सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड पर इस ज़मीन को न लेने का दबाव पड़ रहा है तो दूसरी ओर ये चर्चा भी है कि यह ज़मीन कहां मिलेगी?
इस मामले में मुस्लिम समुदायों और संगठनों के बीच असहमति के स्वर भी सुनाई पड़ रहे हैं।
सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड ने जहां फ़ैसला सुनाए जाने के तुरंत बाद इसे स्वीकार करने और आगे कहीं चुनौती न देने की घोषणा की और जिसका कई मुस्लिम धर्म गुरुओं ने भी समर्थन किया, वहीं ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को चुनौती देने की तैयारी कर रहा है।
पर्सनल लॉ बोर्ड इस विवाद में अन्य पक्षकारों की ओर से पैरोकार रहा है।
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड आगामी 17 नवंबर को लखनऊ में एक बैठक करने जा रहा है जिसमें इस बात पर फ़ैसला लिया जाएगा कि इसे आगे चुनौती देनी है या फिर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर आगे कोई और क़दम उठाना है।
बोर्ड के सदस्य और वकील ज़फ़रयाब जिलानी कहते हैं, "हमारा यही कहना है कि मुस्लिम पक्ष ने सुप्रीम कोर्ट से किसी अन्य स्थान पर ज़मीन मांगी नहीं थी। हम तो विवादित स्थल पर मस्जिद की ज़मीन वापस मांग रहे थे। अगर हम लोगों ने पुनर्विचार याचिका दायर की तो उसमें यह बिंदु भी शामिल होगा।''
वहीं मुस्लिम समुदाय में इस बात की भी चर्चा है कि सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को सुप्रीम कोर्ट के इस प्रस्ताव को स्वीकार करना चाहिए या नहीं।
इस चर्चा की शुरुआत एआईएमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी ने की जिसका कई और लोग समर्थन कर रहे हैं।
ओवैसी ने तो साफ़तौर पर इसे ख़ैरात बताते हुए कहा, "भारत के मुसलमान इतने सक्षम हैं कि वो कि ज़मीन ख़रीद कर मस्जिद बना सकते हैं। मेरा मानना है कि सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को इस प्रस्ताव को इनकार कर देना चाहिए।''
वहीं सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड के चेयरमैन ज़फ़र फ़ारूकी ओवैसी की बात को तो तवज्जो नहीं देते लेकिन कहते हैं कि इसका फ़ैसला वक़्फ़ बोर्ड की बैठक के बाद किया जाएगा।
बीबीसी से बातचीत में फ़ारूक़ी कहते हैं, "हम बोर्ड की जल्द ही बैठक बुला रहे हैं और उसमें तय करेंगे कि सुप्रीम कोर्ट की ये पेशकश स्वीकार करें या न करें। यदि बोर्ड यह ज़मीन स्वीकार करेगा तो उसके बाद ही यह तय होगा कि उस पांच एकड़ ज़मीन पर क्या बनेगा, मस्जिद या फिर कुछ और।''
"ज़मीन कहां दी जाएगी यह केंद्र और राज्य सरकार को तय करना है, इस बारे में हम किसी ख़ास स्थान पर ज़मीन देने की मांग नहीं करेंगे लेकिन सरकार चाहे तो अधिग्रहीत स्थल में ही यह ज़मीन दे सकती है।''
हालांकि मुस्लिम समुदाय में इस बात की भी चर्चा ख़ासतौर पर हो रही है कि यह पांच एकड़ ज़मीन आख़िर मिलेगी कहां क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश में यह स्पष्ट नहीं है।
दूसरी ओर, कुछ हिन्दू संगठन अभी भी इस बात पर अड़े हैं कि अयोध्या के भीतर मस्जिद बनाने के लिए ज़मीन बिल्कुल नहीं देने दी जाएगी।
एक हिन्दू संगठन के पदाधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, "चौदह कोसी के बाहर ही पांच एकड़ ज़मीन दी जा सकती है। यदि सरकार अयोध्या में जन्म भूमि के आस-पास यह ज़मीन देने की कोशिश करेगी तो हिन्दू संगठन इसके ख़िलाफ़ सड़कों पर भी उतर सकते हैं।''
"अधिग्रहीत ज़मीन वाले इलाक़े में देने का तो सवाल ही नहीं उठता है क्योंकि इससे तो भविष्य में फिर से विवाद खड़ा हो सकता है।''
लेकिन अयोध्या के कुछ मुसलमान युवकों से बातचीत में यही लगा कि वो फ़ैसले से भले ही ख़ुश न हों लेकिन यदि अधिग्रहीत परिसर के भीतर ज़मीन मिलती है तो शायद उन्हें इस फ़ैसले का अफ़सोस कुछ कम हो जाए।
अयोध्या के ही निवासी बबलू ख़ान कहते हैं, "सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला दिया है, न्याय नहीं किया है। हम इसमें अब कुछ कर भी नहीं सकते हैं लेकिन यदि उसी जगह पर ज़मीन मिलती है तो मस्जिद दोबारा बनाई जा सकती है।''
मुस्लिम समुदाय के कुछ और लोगों की भी मांग है कि यह ज़मीन उसी 67 एकड़ के एरिया में मिलनी चाहिए, जिसका केंद्र सरकार ने अधिग्रहण किया था।
बताया जा रहा है कि सरकार मस्जिद बनाने के लिए अयोध्या के भीतर किसी भी जगह ज़मीन दे सकती है।
पंचकोसी या चौदह कोसी सीमा के भीतर ज़मीन देने का कुछ हिन्दू संगठन विरोध कर सकते हैं लेकिन इसमें सरकार को शायद इसलिए कोई समस्या न हो क्योंकि अब अयोध्या का दायरा भी काफ़ी बढ़ गया है।
पहले अयोध्या सिर्फ़ एक क़स्बा था लेकिन अब फ़ैज़ाबाद ज़िले का नाम ही अयोध्या हो गया है। तो क्या फ़ैज़ाबाद जिला का नाम बदलकर अयोध्या करने के पीछे यह रणनीति थी !
भारत ने आसियान देशों के प्रस्तावित मुक्त व्यापार समझौते आरसीईपी यानी रीजनल कॉम्प्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप में शामिल नहीं होने का फ़ैसला किया है।
भारत सरकार का कहना है कि आरसीईपी में शामिल होने को लेकर उसकी कुछ मुद्दों पर चिंताएं थीं, जिन्हें लेकर स्पष्टता न होने के कारण देश हित में यह क़दम उठाया गया है।
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे 'अपनी आत्मा की आवाज़' पर लिया फ़ैसला बताया है, जबकि कांग्रेस इसे अपनी जीत के तौर पर पेश कर रही है।
सोमवार को जब नरेंद्र मोदी ने बैंकॉक में आरसीईपी सम्मेलन में हिस्सा लिया तो सबकी निगाहें इस बात पर टिकी थीं कि वह भारत को इस समझौते में शामिल करेंगे या नहीं।
माना जा रहा था कि भारत इस व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर कर देगा और इसी बात को लेकर कई किसान और कारोबारी संगठन विरोध कर रहे थे।
मगर आरसीईपी सम्मेलन के बाद शाम को भारत के विदेश मंत्रालय के सचिव (पूर्व) विजय ठाकुर सिंह ने बताया कि शर्तें अनुकूल न होने के कारण राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए भारत ने आरसीईपी में शामिल नहीं होने का फ़ैसला किया है।
उन्होंने कहा कि आरसीईपी को लेकर भारत के मसलों और चिंताओं का समाधान न होने के कारण इसमें शामिल होना संभव नहीं है।
उन्होंने सम्मेलन में नरेंद्र मोदी की ओर से दिया गया बयान भी पढ़ा, जिसमें उन्होंने महात्मा गांधी के जंतर और अपनी अंतरात्मा के कारण यह फैसला लेने की बात कही थी।
विजय ठाकुर सिंह ने कहा, "इस विषय पर टिप्पणी करते हुए प्रधानमंत्री ने बताया कि भारतीयों और ख़ासकर समाज के कमज़ोर वर्गों के लोगों और उनकी आजीविका पर होने वाले प्रभाव के बारे में सोचकर उन्होंने यह फ़ैसला लिया है। प्रधानमंत्री को महात्मा गांधी की उस सलाह का ख्याल आया, जिसमें उन्होंने कहा था कि सबसे कमज़ोर और सबसे ग़रीब शख़्स का चेहरा याद करो और सोचो कि जो कदम तुम उठाने जा रहे हो, उसका उन्हें कोई फ़ायदा पहुंचेगा या नहीं।''
"भारत आरसीईपी की चर्चाओं में शामिल हुआ और उसने अपने हितों को सामने रखते हुए मज़बूती से मोलभाव किया। अभी के हालात में हमें लगता है कि समझौते में शामिल न होना ही भारत के लिए सही फैसला है। हम इस क्षेत्र के साथ कारोबार, निवेश और लोगों के रिश्तों को प्रगाढ़ करना जारी रखेंगे।''
आरसीईपी एक व्यापार समझौता है, जो इसके सदस्य देशों के लिए एक-दूसरे के साथ व्यापार करने को आसान बनाता है।
इस समझौते के तहत सदस्य देशों को आयात-निर्यात पर लगने वाला टैक्स या तो भरना ही नहीं पड़ता या फिर बहुत कम भरना पड़ता है।
आरसीईपी में 10 आसियान देशों के अलावा भारत, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड के शामिल होने का प्रावधान था। अब भारत इससे दूर रहेगा।
आरसीईपी को लेकर भारत में लंबे समय से चिंताएं जताई जा रही थीं। किसान और व्यापारी संगठन इसका यह कहते हुए विरोध कर रहे थे कि अगर भारत इसमें शामिल हुआ तो पहले से परेशान किसान और छोटे व्यापारी तबाह हो जाएंगे।
अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति से जुड़े स्वराज पार्टी के नेता योगेंद्र यादव ने आरसीईपी से बाहर रहने के भारत के फैसले को अहम बताते हुए कहा कि प्रधानमंत्री ने जनमत का सम्मान किया है।
योगेंद्र यादव ने कहा, "बहुत बड़ा और गंभीर फैसला है। और बहुत अच्छा फैसला है। इसके लिए भारत सरकार को और प्रधानमंत्री को बधाई दी जानी चाहिए।''
''आरसीईपी में शामिल होना भारत के किसानों के लिए, भारत के छोटे व्यापारियों के लिए बड़े संकट का विषय बन सकता था।''
''आगे चलकर इसका परिणाम बहुत बुरा हो सकता था। इसके बारे में तमाम तरह के सवाल उठाए जा रहे थे। सरकार इन सब सवालों के बावजूद आगे बढ़ी। ऐसा लग रहा था कि जाकर हस्ताक्षर कर देंगे। लेकिन आखिर में जनमत का सम्मान करते हुए प्रधानमंत्री ने ऐसा ना करने का फैसला किया। कुल मिलाकर राष्ट्रीय हित में फैसला हुआ।''
योगेंद्र यादव ने कहा कि देश के तमाम किसान संगठनों ने एक स्वर में इस समझौते का विरोध किया था। बीजेपी और आरएसएस के साथ जुड़े किसान संगठन भी विरोध करने वालों में शामिल थे।
वो कहते हैं, "यहां तक कि सरकार के नज़दीक मानी जानी वाली अमूल डेयरी ने भी इसका विरोध किया था। बीजेपी के खुद के मंत्री दबे स्वर में इसकी आलोचना कर चुके थे। कई राज्य सरकारें इस पर सवाल उठा चुकी थीं। कुछ दिन पहले कांग्रेस ने अपनी नीति बदलते हुए और यूटर्न लेते हुए इसका विरोध किया था। ये सब बातें कहीं ना कहीं प्रधानमंत्री के ज़हन में होंगी और उन्हें अहसास होगा कि वापस आकर इस समझौते को देश की जनता के सामने रखना कोई आसान काम नहीं होगा।''
योगेंद्र यादव कहते हैं कि दो-तीन वर्गों पर इस समझौते के विनाशकारी परिणाम होते। उनके मुताबिक भारत अगर ये समझौता कर लेता तो न्यूज़ीलैंड से दूध के पाउडर के आयात के चलते भारत का दूध का पूरा उद्योग ठप पड़ जाता।
किसान और खेती की बात करें तो इस समझौते के बाद नारियल, काली मिर्च, रबर, गेहूं और तिलहन के दाम गिर जाने का खतरा था। छोटे व्यापारियों का धंधा चौपट होने का खतरा था।
वो कहते हैं, "प्रधानमंत्री को इतना अहसास रहा होगा कि एक तरफ भारत की अर्थव्यवस्था में मंदी छाई हुई है, नोटबंदी की मार से देश अब तक उभरा नहीं है। कुल मिलाकर देश की अर्थव्यवस्था की हालत खराब है और अगर एक और झटका लग गया तो सरकार को उसके लिए ज़िम्मेदार ठहराया जायेगा, ऐसे स्थिति में सरकार को जनता के सामने खड़ा होना बहुत कठिन हो जाएगा। ये सब बातें निश्चित ही प्रधानमंत्री के मन में रही होगी।''
आरसीईपी को लेकर केंद्र सरकार के उच्च-स्तरीय सलाहकार समूह ने अपनी राय देते हुए कहा था कि भारत को इसमें शामिल होना चाहिए।
इस समूह का कहना था अगर भारत आरसीईपी से बाहर रहता है तो वो एक बड़े क्षेत्रीय बाज़ार से बाहर हो जाएगा।
दूसरी तरफ़ भारत के उत्पादकों और किसानों की चिंता थी कि मुक्त व्यापार समझौतों को लेकर भारत का अनुभव पहले ठीक नहीं रहा है और आरसीईपी में भारत जिन देशों के साथ शामिल होगा, उनसे भारत आयात अधिक करता है और निर्यात कम।
साथ ही चीन आरसीईपी का ज़्यादा समर्थन कर रहा है, जिसके साथ भारत का व्यापारिक घाटा पहले ही अधिक है। ऐसे में आरसीईपी भारत की स्थिति को और ख़राब कर सकता है।
क्रिसिल के अर्थशास्त्री सुनील सिन्हा ने बीबीसी को बताया कि काफी दिनों से आरसीईपी को लेकर चर्चा हो रही थी, मगर भारत ने यह देखकर इससे दूर रहने का फ़ैसला किया कि इससे फ़ायदा कम, नुक़सान ज़्यादा हो सकता है।
सुनील सिन्हा ने कहा, "इस तरह के समझौतों में सबसे महत्वपूर्ण बात होती है कि किसी भी देश के लिए इस तरह के सहयोग में क्या फायदा है। लेकिन आरसीईपी का देश में विरोध हो रहा था और कहा जा रहा था कि ये भारत के लिए ज़्यादा फायदेमंद नहीं है।
''मुझे लगता है कि जब इस पर बातचीत हुई तो भारत के अधिकारियों को ऐसा लगा कि भारत को जितना फायदा होगा, उसे कहीं अधिक नुकसान हो जाएगा। इस वजह से भारत ने इस समझौते पर आगे बढ़ने से मना कर दिया होगा।''
सुनील सिन्हा कहते हैं कि जहां तक चीन का सवाल है, वो पहले से आर्थिक रूप से ज़्यादा समृद्ध देश है और पूर्व-एशियाई देशों में उसकी पहुंच भारत से ज़्यादा है।
उन्होंने कहा, ''जब भी इस तरह की व्यापारिक बातचीत होगी तो चीन यहां फायदे की स्थिति में होगा, जबकि भारत के पास वो फायदा नहीं है।''
''पूर्व-एशियाई देशों से हमारे उस तरह के व्यापारिक रिश्ते नहीं है। भारत उस क्षेत्रीय सहयोग का हिस्सा बनने की कोशिश कर रहा है, जबकि चीन पहले से वहां पहुंच चुका है।''
आर्थिक पहलू से अलग इस मामले में अब राजनीति भी शुरू हो गई है। भारतीय जनता पार्टी जहां इसे प्रधानमंत्री का दूरदर्शिता भरा फैसला बता रही है, वहीं कांग्रेस इसे अपनी जीत के तौर पर प्रचारित कर रही है।
भारतीय जनता पार्टी के कार्यकारी राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने आरसीईपी में शामिल नहीं होने को सरकार का बड़ा कदम बताते हुए प्रधानमंत्री को इस बात की बधाई दी है कि वो पहले की कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकारों की तरह ग्लोबल दबाव के आगे नहीं झुके।
मगर पहले से ही आरसीईपी में शामिल होने का विरोध कर रही कांग्रेस के प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने ट्वीट करके कहा है कि यह राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए लड़ने वालों की जीत है। उन्होंने भारत के आरसीईपी में शामिल न होने के क़दम के लिए कांग्रेस और राहुल गांधी के विरोध को श्रेय दिया है।









