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कोराना संकट: क्या ग़रीबों का मामला अदालत में ले जाने का यह सही समय है?

भारत सरकार के सॉलिसिटर जनरल का कहना है कि देश पर संकट है, इसलिए ''पेशेवर जनहित याचिकाओं की दुकानें बंद हों''।  

उन्होंने यह बात सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस नागेश्वर राव और दीपक गुप्ता की अदालत के सामने टेलीकॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए कही।

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने याचिका दायर करने वालों को 'जनहित का पेशेवर दुकानदार' कहा। उन्होंने याचिका को सुनवाई के लिए स्वीकार किए जाने पर आपत्ति व्यक्त की। अदालत ने केंद्र सरकार को जवाब देने के लिए सात अप्रैल का समय दिया है।

याचिका क्या थी? याचिका ये थी कि सरकार शहरों से पलायन करने पर मजबूर ग़रीबों को वहीं आर्थिक सहायता दे, जहाँ वे हैं। याचिका दायर करने वाले पूर्व आईएएस अधिकारी हर्ष मंदर, वकील अंजलि भारद्वाज और सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश का कहना था कि ग़रीबों के लिए सरकार ने पर्याप्त क़दम नहीं उठाए हैं।

सॉलिसिटर जनरल सरकार के प्रतिनिधि के रूप में ही पेश हुए थे इसलिए जो कुछ उन्होंने कहा है वह सरकार का ही रुख़ है। एक बुनियादी बात सरकार कह रही है कि इस याचिका को ख़ारिज हो जाना चाहिए क्योंकि अभी देश पर संकट है।

क्या कोरोना वायरस को लेकर चीन आँकड़े छुपा रहा है?

पिछले साल नवंबर महीने में चीन में कोरोना वायरस का संक्रमण शुरू हुआ। चीन का कहना है कि तब से लेकर अब तक कोरोना वायरस के कारण उसके यहां 3,300 लोगों की मौत हुई। अब पूरी दुनिया में कोरोना वायरस का संक्रमण फैल चुका है। यहां तक कि चीन में हुई मौतों से ज़्यादा इटली, स्पेन और अमरीका में मौतें हो चुकी हैं। चीन में मौत के आँकड़े पर चौतरफ़ा सवाल उठ रहे हैं।

कहा जा रहा है कि कोरोना से मौत और तबाही के आँकड़े चीनी प्रशासन की ओर से जो दिए जा रहे हैं, उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता।

बीबीसी न्यूज़ के चाइना संवाददाता रॉबिन ब्रैंट चीन के आँकड़ों पर कहते हैं, ''चीन की सरकार की तरफ़ से दिए जाने वाले डेटा पर दुनिया संदेह करती रही है। इस मामले में चीन का रिकॉर्ड बहुत ख़राब रहा है। ये डेटा अधूरे नहीं होते बल्कि जानबूझकर डिजाइन किए जाते हैं। यहां की कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार कई बार अपने लक्ष्य के हिसाब से काम करती है। अगर वो अपने टारगेट तक नहीं पहुँच पाती है तो सच को छुपाती है। नाकामियों को बताने से बचती है। ऐसे में आँकड़ों के मामले में चीन की सरकार की विश्वसनीयता संदिग्ध रही है। चीन जीडीपी डेटा को लेकर भी वास्तविक ग्रोथ बताने से बचता रहा है।''

ब्रैंट कहते हैं, ''चीन में कोरोना वायरस से होने वाली मौतों और संक्रमण के मामलों के आँकड़े पर भी उसी तरह के संदेह हैं। इसे जारी करने में तीन हफ़्तों की देरी की गई और संक्रमण फैलने के बाद भी बताने में देरी हुई।  जो संख्या बताई गई उस पर आसानी से भरोसा नहीं किया जा सकता।  संक्रमण फैलने के कुछ दिन बाद ही चीन के हूबे प्रांत में अधिकारियों ने कहा कि उन्होंने कोरोना वायरस के संक्रमण के उन मामलों की गिनती नहीं की है जिनके स्पष्ट लक्षण सामने नहीं मिले हैं। एक सवाल और उठ रहा है कि चीन के हूबे प्रांत के बाहर क्या वाक़ई कोरोना वायरस के संक्रमण का कोई मामला नहीं था?''

अमरीका का भी कहना है कि कोरोना वायरस को लेकर चीन से सही सूचना नहीं दी गई। ट्रंप प्रशासन आरोप लगा रहा है कि चीन ने कोरोना वायरस को लेकर सूचनाओं को बाहर नहीं आने दिया। अमरीका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने कहा था कि कोरोना की महामारी से लड़ने के लिए चीन में पारदर्शिता और सही सूचना की ज़रूरत है। पॉम्पियो ने कहा कि चीन अब ख़ुद को अच्छा दिखाने के लिए मेडिकल सप्लाई भेजने का दिखावा कर रहा है।

क्या पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान में अल्पसंख्यक चुनाव लड़ सकते?

भारत में नागरिकता संशोधन अधिनियम को देश भर में विरोध प्रदर्शनों का सामना करना पड़ रहा है। परिणामस्वरूप भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह बार-बार इस अधिनियम के पक्ष में झूठे दावे पेश कर रहे हैं।

शनिवार को गृह मंत्री अमित शाह ने कर्नाटक के हुबली में रैली के दौरान कहा, ''अफ़ग़ानिस्तान में बुद्ध के पुतले को तोप से गोले दाग़ कर उड़ा दिया गया। उन्हें (हिंदू-सिख) वहां (अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान) चुनाव लड़ने का अधिकार नहीं दिया, स्वास्थ्य की सुविधाएं नहीं दी गई, शिक्षा की व्यवस्था उनके लिए नहीं की। जो सारे शरणार्थी थे हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध और ईसाई वो भारत के अंदर शरण लेने आए।''

दरअसल अमित शाह नागरिकता संशोधन अधिनियम की वकालत में ये बता रहे थे कि कैसे अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से आने वाले सिख, हिंदू शरणार्थी को उनके देश में सताया जा रहा है और उन्हें मौलिक अधिकार नहीं दिए जा रहे।

ये नया कानून पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान और बांग्लादेश से भारत आए गैर-मुस्लिम समुदाय को नागरिकता देने की बात करता है।  अधिनियम के इस प्रावधान का ही लोग विरोध कर रहे हैं।

अमित शाह ने दावा किया कि पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान में अल्पसंख्यक चुनाव नहीं लड़ सकते? क्या अमित शाह का यह दावा सही है? क्या वाक़ई अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के पास चुनाव लड़ने या वोट देने का अधिकार नहीं है?

यह जानने के लिए बीबीसी ने पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों के चुनावी अधिकारों को समझने की कोशिश की। साथ ही ये पड़ताल की कि वर्तमान समय में उनको चुनावी प्रक्रिया के क्या-क्या अधिकार दिए गए हैं?

पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के चुनावी अधिकार

पाकिस्तान के संविधान के अनुच्छेद 51 (2A) के मुताबिक़ पाकिस्तान की संसद के निचले सदन नेशनल असेंबली में 10 सीटें अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित हैं। साथ ही चार प्रांतों की विधानसभा में 23 सीटों पर आरक्षण दिया गया है।

पाकिस्तान में कुल 342 सीटें हैं और जिनमें से 272 सीटों पर सीधे जनता चुनकर अपने प्रतिनिधि भेजती है। 10 सीटें अल्पसंख्यकों के लिए और 60 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं।

अल्पसंख्यकों के लिए संसद में पहुंचने के दो तरीके हैं:

इन आरक्षित 10 सीटों का विभाजन राजनीतिक पार्टियों को उन्हें 272 में से कितनी सीटों पर जीत मिली है इसके आधार पर होता है। इन सीटों पर पार्टी खुद अल्पसंख्यक उम्मीदवार तय करती है और संसद में भेजती है।

दूसरा विकल्प ये है कि कोई भी अल्पसंख्यक किसी भी सीट पर चुनाव लड़ सकता है। ऐसे में उसकी जीत जनता से सीधे मिले वोटों पर आधारित होगी।

कोई भी अल्पसंख्यक अपने चुनावी क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे किसी भी उम्मीदवार को वोट करने के लिए स्वतंत्र है। यानी वोटिंग का अधिकार सभी के लिए समान है।

आज़ादी के बाद पाकिस्तान का संविधान 1956 में बना फिर इसे रद्द करके 1958 में दूसरा संविधान आया और इसे भी रद्द कर दिया गया और 1973 में तीसरा संविधान बना जो अब तक मान्य है। ये संविधान पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों को समान अधिकार देने की बात करता है।

यानी पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के लिए सीटें तो आरक्षित हैं ही, साथ ही वो अन्य सीटों से चुनाव भी लड़ सकते हैं।

2018 के चुनाव में महेश मलानी, हरीराम किश्वरीलाल और ज्ञान चंद असरानी सिंध प्रांत से संसदीय और विधानसभा की अनारक्षित सीटों से चुनाव लड़े और संसद पहुंचे।

अफ़गानिस्तान में हिंदू-सिख के चुनावी अधिकार क्या हैं?

अब बात अफ़गानिस्तान की। 1988 से अफ़गानिस्तान गृह युद्ध और तालिबान की हिंसा का शिकार है। चरमपंथी संगठन अल-क़ायदा का ठिकाना भी अफ़गानिस्तान रहा। साल 2002 में यहां अंतरिम सरकार बनाई गई और हामिद करज़ई राष्ट्रपति बने। इसके बाद साल 2005 के चुनाव में देश की निचली सदन और ऊपरी सदन में प्रतिनिधि चुन कर पहुंचे और अफ़गानिस्तान की संसद मज़बूत बनी।

अफ़गानिस्तान की आबादी कितनी है? इसका सही आधिकारिक आंकड़ा मौजूद नहीं है क्योंकि 70 के दशक के बाद यहां जनगणना नहीं हो सकी।  लेकिन वर्ल्ड बैंक के मुताबिक यहां की आबादी 3.7 करोड़ है।

वहीं अमरीका के डिपार्टमेंट ऑफ़ जस्टिस की रिपोर्ट की मानें तो जिसमें हिंदू-सिख अल्पसंख्यकों की संख्या यहां महज़ 1000 से 1500 के बीच हैं।

अफ़ग़ानिस्तान की निचली सदन यानी जहां प्रतिनिधियों का सीधा चुनाव जनता करती है वहां 249 सीट हैं। यहां अल्पसंख्यकों को चुनाव लड़ने की आज़ादी है। लेकिन नियमों के मुताबिक अफ़ग़ानिस्तान में संसदीय चुनाव में नामकरण भरते वक़्त कम से कम 5000 लोगों को अपने समर्थन में दिखाना पड़ता था।

ये नियम सभी के लिए एक समान थे लेकिन इससे अल्पसंख्यक समुदाय के लिए अपना प्रतिनिधि संसद में भेजना मुश्किल था। 2014 में अशरफ़ ग़नी सत्ता में आए और उन्होंने हिंदू-सिख अल्पसंख्यकों के समीकरण को देखते हुए निचले सदन में एक सीट रिज़र्व की है।

इस वक़्त इस सीट पर नरिंदर सिंह खालसा सांसद हैं। इसके अलावा अफ़गानिस्तान की ऊपरी सदन में एक सीट धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए रिज़र्व है। इस वक़्त अनारकली कौर होनयार इस सदन में सांसद हैं।  अल्पसंख्यक समुदाय की ओर से ये नाम तय किए जाते हैं जिसे राष्ट्रपति की ओर से सीधे संसद में भेजा जाता है।

इसके अलावा कोई भी अल्पसंख्यक अपने चुनावी क्षेत्र के उम्मीदवार को वोट कर सकता है। साथ ही अल्पसंख्यक किसी भी सीट से चुनाव भी लड़ सकते हैं बशर्ते वो अपने लिए पांच हज़ार लोगों का समर्थन जुटा लें।

बीबीसी ने अफ़ग़ानिस्तान के सांसद नरिंदर सिंह खालसा से बात की और जानना चाहा कि अफ़गानिस्तान के अल्पसंख्यक सिख-हिंदुओं के पास कैसे चुनावी अधिकार हैं?

उन्होंने कहा, ''अल्पसंख्यकों को चुनाव लड़ने की आज़ादी है और वोट देने की भी आज़ादी है। रोक तो कभी नहीं थी लेकिन पिछले तीस सालों में तालिबान की हिंसा के कारण तेजी से पलायन हुआ और हमारी संख्या घटती गई। चार साल पहले हमें रिज़र्व सीट मिली क्योंकि हम पांच हज़ार का समर्थन जुटा नहीं सकते थे। और बात सुनी गई। सरकार से नहीं हमें तालिबान से परेशानी है। आज भी कोई भी हिंदू-सिख चाहे तो मुझे वोट दे या किसी अपने पसंदीदा उम्मीदवार को कोई रोक नहीं है मतदाताओं पर। अगर समर्थन हासिल कर लिया जाए तो हम एक से ज़्यादा सीटों पर चुनाव भी लड़ सकते हैं।''

लंदन में स्थित बीबीसी पश्तो के पत्रकार एमाल पशर्ली बताते हैं कि ''साल 2005 से देश में स्थिर सरकार बन रही है। लेकिन कभी अल्पसंख्यकों को वोटिंग या चुनाव लड़ने के अधिकार से वंचित नहीं किया गया। पिछले तीन दशकों में हिंदू-सिख ही नहीं अन्य धार्मिक मान्यताओं को मानने वाले लोगों ने भी पलायन किया है। गृह युद्ध इसकी वजह रही है।''

बांग्लादेश में कोई भी अल्पसंख्यक लड़ सकता है चुनाव

बांग्लादेश में संसदीय चुनाव में किसी भी अल्पसंख्यक समुदाय के लिए सीटें आरक्षित नहीं की गई हैं बल्कि महिलाओं के लिए 50 सीटें ही आरक्षित की गई हैं।

बांग्लादेश संसद में 350 सीटें हैं जिसमें से 50 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। 2018 में हुए संसदीय चुनाव में 79 अल्पसंख्यक उम्मीदवारों में से 18 उम्मीदवार जीतकर संसद पहुंचे थे।

इससे पहले बांग्लादेश की 10वीं संसद में इतने ही अल्पसंख्यक सांसद थे। स्थानीय अख़बार ढाका ट्रिब्यून के मुताबिक बांग्लादेश की नौंवी संसद में 14 सांसद अल्पसंख्यक समुदाय से थे, जबकि आठवीं संसद में आठ सांसद अल्पसंख्यक थे।

यानी बांग्लादेश की राजनीति में अल्पसंख्यकों को समान चुनावी अधिकार दिए गए हैं।

भारतीय संसद में आरक्षण पाकिस्तान और अफगनिस्तान से अलग कैसे है?

भारत के संविधान के अनुच्छेद 334 (क) में लोकसभा और राज्यों की विधान सभाओं में अनुसूचित जातियों (हिन्दू) और अनुसूचित जनजातियों (हिन्दू) के लिए आरक्षण संबंधी प्रावधान है। वर्तमान में लोकसभा और राज्यों की विधानसभा में केवल यही आरक्षण है जिसमें अनुसूचित जाति (हिन्दू) एवं अनुसूचित जनजाति (हिन्दू) के लिए सीटें आरक्षित रहती हैं। भारत में लोकसभा और राज्यों की विधानसभा में अल्पसंख्यकों के लिए कोई सीट आरक्षित नहीं है।

भारत के राष्ट्रपति की 1950 की अधिसूचना के अनुसार केवल हिन्दू जातियां ही अनुसूचित जाति होगी।

लोकसभा की 543 में से 79 सीटें अनुसूचित जाति (हिन्दू) और 41 सीटें अनुसूचित जनजाति (हिन्दू) के लिए रिज़र्व हो जाती हैं। वहीं, विधानसभाओं की 3,961 सीटों में से 543 सीटें अनुसूचित जाति (हिन्दू)  और 527 सीटें अनुसूचित जनजाति (हिन्दू) के लिए सुरक्षित हो जाती हैं। इन सीटों पर वोट तो सभी डालते हैं, लेकिन कैंडिडेट सिर्फ एससी या एसटी का होता है।

भारत में आरक्षित सीट का मतलब है कि इस सीट पर उम्मीदवार तय वर्ग से ही होगा। सभी राजनीतिक पार्टियां ऐसे उम्मीदवार को ही टिकट देंगी लेकिन उनका चुनाव जनता के वोट के आधार पर ही होगा।

भारत में पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान की तरह अल्पसंख्यकों के लिए कोई सीट आरक्षित नहीं है।

मोदी सरकार ने पिछले साल संसद के निचले सदन लोक सभा में एंग्लो-इंडियन के लिए आरक्षित दो सीट को ख़त्म कर दिया।

अमित शाह का दावा कि पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान में अल्पसंख्यक चुनाव नहीं लड़ सकते? उनका  यह दावा पूरी तरह से झूठ है।

सुप्रीम कोर्ट ने सीसीए पर स्टे लगाने से क्यों इंकार किया?

भारत में बुधवार को देशभर में हो रहे विरोध-प्रदर्शनों के बीच सुप्रीम कोर्ट में नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) से जुड़ी 144 याचिकाओं पर सुनवाई हुई जिसके बाद अदालत ने कहा कि सीएए पर बिना सुनवाई के रोक नहीं लगाई जा सकती।

सीएए के ख़िलाफ़ कोर्ट में 141 याचिकाएं दायर की गयी थीं, जबकि इसके पक्ष में तीन।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अगर वो संवैधानिक पीठ बनाएंगे तो वही पीठ अंतरिम आदेश देगी।

इस क़ानून को लेकर लोगों में जो बेचैनी और विरोध है, उसे देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इस क़ानून पर स्टे क्यों नहीं लगाया?

इस बारे में संविधान विशेषज्ञ और हैदराबाद की नालसार लॉ यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर फ़ैज़ान मुस्तफ़ा ने कहा कि देश में मची अफ़रा-तफ़री को देखते हुए बेहतर तो ये होता कि ख़ुद सरकार ही अदालत से यह कहती कि हमें एतराज़ नहीं है कि आप इस पर स्टे लगा दें, पर सरकार ने स्टे का विरोध किया इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने इस पर स्टे नहीं लगाया।

फ़ैज़ान मुस्तफ़ा ने कहा, ''अगर आज सरकार ख़ुद स्टे पर राज़ी हो जाती तो आज ही सारा प्रोटेस्ट और विरोध प्रदर्शन ख़त्म हो जाता।''

लेकिन सवाल ये है कि सरकार स्टे के लिए ख़ुद क्यों सामने आती? फ़ैज़ान मुस्तफ़ा कहते हैं, "स्टे का मतलब होता कि जब तक अदालत इसको सुनकर फ़ैसला नहीं कर देती तब तक इसे लागू नहीं किया जाएगा।''

वे आगे कहते हैं, "ऐसे मामले जहाँ संविधान की व्याख्या का मामला होता है, स्टे कम ही मिलता है।''

वहीं क़ानून विशेषज्ञ आलोक प्रसन्ना का कहना है कि आज अदालत में जो बातें कही गईं, इसका मतलब ये नहीं निकालना चाहिए कि सरकार को राहत मिली है और क़ानून के ख़िलाफ़ याचिका दायर करने वालों को मायूसी हाथ लगी है।

उन्होंने कहा, "अभी नतीजा कुछ नहीं आया है। सरकार को चार सप्ताह में जवाब देना होगा।''

"पहले जो 60 याचिकाएं दायर की गयी थीं वो सीएए के ख़िलाफ़ थीं। बाद में 80 याचिकाएं दायर की गयीं जिनमें से कई एनपीआर के ख़िलाफ़ हैं और कुछ असम में सीएए को लागू होने से रोकने के लिए हैं। मामला अब थोड़ा बड़ा हो गया है। इसलिए सरकार का जवाब दूसरे उठाये गए मुद्दों पर भी आना चाहिए।''

आलोक प्रसन्ना के मुताबिक़ अदालत के आज के बयान से किसी को ख़ुश या किसी को मायूस नहीं होना चाहिए।

वे कहते हैं, ''अगर किसी को आज ही राहत मिलने की उम्मीद थी तो वैसा सोचना ग़लत था। अभी तो मामला शुरू हुआ है।''

असम के हवाले से दायर की गईं याचिकाओं को अलग करने के अदालत के फ़ैसले पर आलोक प्रसन्ना कहते हैं, "इसका कोई गहरा मतलब निकालने की ज़रुरत नहीं है। असम के लोगों की नाराज़गी इस बात पर है कि सीएए की समय सीमा 2014 है जो असम समझौते के ख़िलाफ़ है, जहाँ समय सीमा 1971 रखी गई है।''

विशेषज्ञों का कहना है कि असम में एनआरसी लागू है इसलिए भी इसकी याचिकाओं की अलग से सुनवाई सही फ़ैसला है।

कांग्रेस नेता जयराम रमेश, तृणमूल कांग्रेस की महुआ मोइत्रा, असदुद्दीन ओवैसी समेत कई अन्य लोगों और संगठनों ने ये याचिकाएं दायर की हैं।

9 जनवरी को अदालत ने नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ हो रहे विरोध प्रदर्शन के दौरान हो रहीं हिंसक घटनाओं पर नाराज़गी जताते हुए कहा था कि इस मामले से जुड़ी सभी याचिकाओं पर सुनवाई तभी होगी जब हिंसक घटनाएं बंद हो जाएंगी।

इन याचिकाओं पर मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे की अध्यक्षता में जस्टिस एस अब्दुल नज़ीर और जस्टिस संजीव खन्ना की तीन सदस्यीय पीठ ने नौ जनवरी को सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब माँगा था।

याचिकाकर्ताओं ने इस क़ानून को संविधान की मूल भावना के ख़िलाफ़ और विभाजनकारी बताते हुए रद्द करने का आग्रह किया है।

क्या डोनाल्ड ट्रंप ईरान के हमले से डर गए हैं?

3 जनवरी के तड़के बग़दाद हवाई अड्डे के बाहर एक ड्रोन हमला हुआ।  मीडिया की शुरुआती रिपोर्टों में इसे किसी बड़ी कार्रवाई से जोड़कर नहीं देखा जा रहा था। लेकिन जब यह सच सामने आया कि मरने वालों में ईरान के शीर्ष कमांडरों में से एक क़ासिम सुलेमानी भी शामिल  हैं तो उसने पूरे मध्य पूर्व में खलबली मच गई।

इसके बाद अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने ट्वीट करके साफ़ किया कि अमरीकी कार्रवाई में क़ासिम सुलेमानी मारे गए हैं जिसे अमरीका 'आतकंवादी' मानता था। इस कार्रवाई में ईरान समर्थित मिलिशिया कताइब हिज़बुल्लाह के कमांडर अबू महदी अल-मुहांदिस भी मारे गए थे।

सुलेमानी ईरान के अल-क़ुद्स फ़ोर्स के प्रमुख थे। ईरान का यह सुरक्षा बल देश के बाहर अपनी कार्रवाइयों के लिए जाना जाता है। इसको अमरीका ने आतंकी संगठन घोषित किया हुआ था।

इस कार्रवाई के बाद ईरान और अमरीका में तनाव अपने शीर्ष स्तर पर पहुंच गया और वो इराक़ में अमरीका के सैन्य बेस पर कई मिसाइल हमले कर चुका है लेकिन इन हमलों में अब तक कोई भी अमरीकी जवान नहीं मारा गया है।  

ईरानी मिसाइल हमलों के बाद अमरीका ने कोई जवाबी कार्रवाई नहीं की। अमरीका के कार्रवाई न करने को कई चीज़ों से जोड़कर देखा गया इनमें से सबसे बड़ी वजह इस साल होने वाले अमेरिकी आम चुनावों को बताया जा रहा है।

विशेषज्ञों का मानना है कि चुनावी साल में अमरीका युद्ध में नहीं जाना चाहेगा वहीं ईरान अगर युद्ध करता है तो उसकी अर्थव्यवस्था तबाह हो जाएगी। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या ईरान अमरीकी चुनावों को प्रभावित कर सकता है?

इस पर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फ़ॉर कनाडा, अमरीका एंड लैटिन अमरीकन स्टडीज़ में प्रोफ़ेसर चिंतामणि महापात्रा कहते हैं कि अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव के मुद्दे भी दूसरे देशों के चुनावों की तरह ही होते हैं। इस चुनाव पर अमेरिका की आर्थिक, सामाजिक स्थिति और विदेश नीति बहुत बड़ा असर डालती है।

प्रोफ़ेसर चिंतामणि महापात्रा कहते हैं, "2020 के राष्ट्रपति चुनावों में ट्रंप प्रशासन को आर्थिक नीति, रोज़गार और महंगाई का मुद्दा फ़ायदा देंगे।  दूसरी तरफ़ सामाजिक मुद्दे भी हैं। सामाजिक स्थिरता और अल्पसंख्यकों की स्थिति कैसी है, नस्लवाद का मुद्दा कितना हावी है। यह सब भी चुनावों पर असर डालते हैं।''

अमरीका का इतिहास देखा जाए तो राष्ट्रपति चुनावों के दौरान युद्ध या किसी बड़ी कार्रवाई का फ़ायदा तत्कालीन राष्ट्रपतियों को मिलता रहा है।

अलक़ायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन के मारे जाने का लाभ तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा को मिला। अफ़ग़ानिस्तान में घुसने पर जॉर्ज बुश जूनियर को अपने दूसरे कार्यकाल में लाभ मिला। उनके अफ़ग़ानिस्तान में जाने पर यह संदेश गया कि वो बहुत मज़बूत नेता हैं।

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जिस तरह से फ्रेंकलिन डी. रुज़वेल्ट ने युद्ध लड़ा उसकी वजह से वो लगातार तीन बार अमरीका के राष्ट्रपति बने।

ईरान के साथ युद्ध करने से क्या डोनल्ड ट्रंप को चुनावों में लाभ मिलेगा? इस सवाल पर प्रोफ़ेसर चिंतामणि महापात्रा कहते हैं कि विदेश और रक्षा नीति का अधिक असर चुनावों पर नहीं होता लेकिन अगर चुनावों के समय में कोई लड़ाई छिड़ गई है और उसमें अमरीकी सैनिक शामिल हैं तो प्रेसिडेंशियल डिबेट में यह मुद्दा निकलकर आ जाएगा। आतंकवाद के ख़िलाफ़ अमरीका की लड़ाई में लोगों का समर्थन मिलता है।

वो कहते हैं, "ईरान पर अमरीका के हमले से राष्ट्रपति ट्रंप को कोई लाभ नहीं होगा क्योंकि इस मुद्दे पर अमरीका में ही राजनीतिक विभाजन शुरू हो गया है। डेमोक्रेटिक पार्टी ने ट्रंप की नीति का खंडन किया है और हाउस ऑफ़ रिप्रेज़ेंटेटिव में ग़ैर-बाध्यकारी प्रस्ताव लाया गया है जिसका उद्देश्य राष्ट्रपति की युद्ध शक्तियों पर अंकुश लगाना और युद्ध शुरू करने से पहले कांग्रेस की अनुमति ली जाए।''

"मगर अमरीका की आम जनता में यह भय ज़रूर है कि क़ासिम सुलेमानी के मारे जाने के बाद ईरान की क्या कार्रवाई होगी? वहीं, दूसरी ओर यूरोपीय संघ के देशों (जर्मनी, फ़्रांस) को देखें तो वो ट्रंप की ईरान नीति का समर्थन नहीं करते हैं। वो चाहते हैं कि ईरान के साथ परमाणु समझौता बना रहे। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो जो मतदाता राजनीतिक रूप से जागरुक हैं और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों को समझते हैं, वो मतदाता रोनाल्ड ट्रम्प के खिलाफ ही वोट डालेंगे।''  

क़ासिम सुलेमानी के मारे जाने के बाद ईरान ने इराक़ में अमरीकी एयरबेस पर कई बार हमले किए हैं लेकिन अमरीका ने उस पर कोई जवाबी कार्रवाई नहीं की है।

पेंटागन से आई रिपोर्टों में कहा गया कि जनरल सुलेमानी को मारने का फ़ैसला ऑन द स्पॉट लिया गया। डोनल्ड ट्रंप मध्य पूर्व में युद्ध के ख़िलाफ़ रहे हैं। 2015-16 के अपने चुनाव प्रचार के दौरान वो कह चुके हैं कि जंग लड़ने से पैसा बर्बाद होगा।

अमरीका की डेलावेयर यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान कहते हैं कि जनरल सुलेमानी को मारने के बाद एक लाभ डोनल्ड ट्रंप को यह हुआ है कि उनके ख़िलाफ़ महाभियोग के मामले को टीवी कवरेज नहीं मिल रही है।

वो कहते हैं, "अब टीवी का ध्यान सिर्फ़ ईरान पर है। इसके साथ ही रिपब्लिकन पार्टी में डोनल्ड ट्रंप को लेकर स्वीकृति 95 फ़ीसदी हो गई है।  वहीं, यूक्रेनी विमान को मार गिराने के बाद ईरान में विरोध प्रदर्शन तेज़ हो गया है। इसके कारण ईरान अमरीका के साथ नया समझौता करने के लिए मजबूर हो सकता है। अगर पिछले परमाणु समझौते से भी मज़बूत समझौता इस बार हो जाता है तो यह अमरीका के लिए एक जीत की तरह होगा।''

"अगर यह समझौता भी नहीं होता है तो इसका लाभ ट्रंप चुनाव प्रचार में लेने की कोशिश करेंगे। वो कहेंगे कि ओबामा ने लादेन को मारा था लेकिन उन्होंने सुलेमानी और बग़दादी दोनों को मारा है। जो वर्ग सुरक्षा को लेकर बहुत चिंतित है, उसको कहने के लिए ट्रंप के पास बहुत कुछ है।''

वहीं, प्रोफ़ेसर महापात्रा कहते हैं कि ईरान की तरह अमरीका भी युद्ध नहीं चाहता है क्योंकि उससे उसे चुनावों में लाभ नहीं मिलेगा।

वो कहते हैं, "अगर ईरान की कार्रवाई में कोई अमरीकी सैनिक मारा जाता तो उस पर कार्रवाई का दबाव बढ़ जाता और इसका असर अमरीका की राजनीति में भी आता कि ट्रंप की वजह से उनके सैनिक मारे गए इसलिए ट्रंप को डर है कि ईरान परिस्थितियों को न बिगाड़े जिससे चुनावों पर असर न पड़े।''

अमरीका की इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में जंग अभी भी जारी है।  अमरीका का मानना था कि इराक़ में उसकी जंग चार-पांच हफ़्ते में ख़त्म हो जाएगी लेकिन 17 साल में इसमें एक अनुमान के मुताबिक़ अमरीका के ढाई ट्रिलियन डॉलर ख़र्च हो चुके हैं। साथ ही अमरीका का क़र्ज़ 21 ट्रिलियन डॉलर है, उस पर क़र्ज़ ज़रूर है लेकिन अमरीका की आर्थिक स्थिति काफ़ी अच्छी है।

प्रोफ़ेसर मुक़्तदर खान कहते हैं कि ईरान के साथ केवल 25 फ़ीसदी अमरीकी युद्ध चाहते हैं जबकि 75 फ़ीसदी चाहते हैं कि इस मुद्दे को कूटनीति या आर्थिक प्रतिबंधों से सुलझाया जाना चाहिए।

वो कहते हैं, "पैसे ख़र्च होने के अलावा दूसरी ओर अमरीका का डर यह है कि युद्ध होता है तो ईरान वापस हमला करेगा और सऊदी अरब या यूएई पर हमला कर सकता है। उनके तेल के कुओं को तबाह कर सकता है। इस वजह से वैश्विक अर्थव्यवस्था ठप्प हो जाएगी। अमरीका के पास एक साल का तेल है जबकि जापान और यूरोपीय देशों के पास एक सप्ताह का ही तेल है। अगर तेल का निर्यात रुक जाएगा तो इससे कई अर्थव्यवस्थाएं तबाह हो जाएंगी।''

"इसके साथ ही ईरान के पास हिज़बुल्ला जैसे कई मिलिशिया बल हैं जो ईरान को मज़बूती दे सकते हैं। इसको इस मिसाल से समझा जा सकता है कि अगर इन मिलिशिया सेना का कोई आत्मघाती हमलावर किसी दूतावास में ख़ुद को उड़ा लेता है तो आत्मघाती हमला से ईरान को लाभ होगा।''

रिपब्लिकन समर्थकों के ट्रंप अभी भी दुलारे बने हुए हैं और वो उन्हें फिर से चुनावी मैदान में देखना चाहते हैं। दूसरी ओर अन्य लोकतांत्रिक देशों की तुलना में अमरीका में मतदान प्रतिशत बहुत कम होता है।

प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान कहते हैं कि ट्रंप का 43-45 फ़ीसदी वोट हिलने का नाम नहीं ले रहा है, वहीं विपक्ष 53 फ़ीसदी पर टिका हुआ है, देश में जितने लोग वोट डाल सकते हैं उसमें से सिर्फ़ 60 फ़ीसदी लोग मतदान के लिए पंजीकृत हैं। पंजीकृत मतदाताओं में से सिर्फ़ 60 फ़ीसदी लोग वोट डालते हैं। इनके आधे वोट मिले तो एक व्यक्ति अमरीकी राष्ट्रपति बन सकता है।

वो कहते हैं, "ट्रंप का चुनाव परिणाम मतदान प्रतिशत पर निर्भर करता है।  डेमोक्रेट्स अगर ऐसा उम्मीदवार ढूंढ लेते हैं जो लोगों को मतदान कराने के लिए प्रेरित करे तो ट्रंप हार जाएंगे। ऐतिहासिक रूप से कंज़र्वेटिव या रिपब्लिकन बड़े ईमानदार मतदाता होते हैं जो लगातार मतदान करते हैं लेकिन डेमोक्रेटिक मतदाता लगातार वोट नहीं करते हैं।''

वहीं, दूसरी ओर महाभियोग का मामला भी ट्रंप को चुनावों में ज्यादा नुक़सान नहीं पहुंचाता दिख रहा है। डोनल्ड ट्रंप के ख़िलाफ़ महाभियोग का मामला सीनेट में गिरना तय है क्योंकि वहां रिपब्लिकन बहुमत हैं और वो ट्रंप के साथ मज़बूती से खड़े हैं। सीनेट में अगर ट्रंप हारते हैं तो उन्हें सीट छोड़नी होगी लेकिन ऐसा होना मुश्किल है।

मुक़्तदर ख़ान महाभियोग की प्रक्रिया को उदारवादी डेमोक्रेट्स नेताओं की एक पहल बताते हैं।

वो कहते हैं, "52-55 फ़ीसदी अमरीकी ट्रंप से नफ़रत करते हैं और शायद ही इतनी नफ़रत किसी और नेता से की गई हो। इन्हीं लोगों को मतदान के लिए प्रेरित करने के लिए डेमोक्रेट्स यह कर रहे हैं। अगर डेमोक्रेट्स महाभियोग पर आगे नहीं बढ़ते तो यह मतदाता प्रेरित नहीं होते। ट्रंप भी अपने मतदाताओं को प्रेरित करते रहते हैं।''

ट्रंप को डेमोक्रेट उम्मीदवार से कितनी तगड़ी टक्कर मिलेगी? यह डेमोक्रेट उम्मीदवार पर भी तय करेगा कि वो किस तरह से अपनी नीतियों को जनता तक ले जाता है।  दूसरी ओर अभी यह भी साफ़ नहीं है कि रिपब्लिकन पार्टी की ओर से कोई नेता ट्रंप को चुनौती देगा या नहीं।

ट्रंप को चुनौती देने के लिए कोई आगे नहीं आता है तो वो वर्तमान राष्ट्रपति होते हुए अपने आप ही रिपब्लिकन के उम्मीदवार बन जाएंगे। लेकिन अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव की दौड़ बहुत लंबी है और लगभग एक साल तक चलने वाली चुनावी प्रक्रिया में पल-पल मुद्दे और परिस्थितियां बदलती रहती हैं।

भारत और मलेशिया में क्यों बढ़ा तनाव?

मलेशिया और भारत में पहले कश्मीर और बाद में एनआरसी-सीएए को लेकर शुरू हुआ गतिरोध और बढ़ता दिख रहा है।

मलेशियाई प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद ने जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म करने और एनआरसी-सीएए पर भारत की कड़ी आलोचना की थी।

इसके बाद भारत ने जवाब में मलेशिया से पाम तेल के आयात पर लगभग पाबंदी लगा दी। मलेशिया ने भारत के इस रुख़ को लेकर चिंता जताई है लेकिन प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद ने एक बार फिर से कहा है कि भले उनके देश को वित्तीय नुक़सान उठाना पड़े लेकिन वो 'ग़लत चीज़ों' के ख़िलाफ़ बोलते रहेंगे।

भारत खाने वाले तेल का सबसे बड़ा आयातक देश है। समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार पिछले हफ़्ते से भारत के कारोबारियों ने मलेशिया से रिफाइंड पाम तेल का आयात प्रभावी तरीक़े से रोक दिया है। इंडोनेशिया के बाद मलेशिया दुनिया का दूसरा बड़ा पाम तेल उत्पादक और निर्यातक देश है।

हाल के दिनों में महातिर ने भारत और सऊदी अरब दोनों को जमकर निशाने पर लिया है। जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा जब भारत ने ख़त्म किया था तो महातिर मोहम्मद ने कहा था कि भारत ने कश्मीर पर हमला कर उसे अपने क़ब्ज़े में रखा है।  

भारत के आयात रोकने से मलेशिया के पाम तेल रिफ़ाइनरी को बड़ा नुक़सान होने वाला है। महातिर ने कहा है कि उनकी सरकार इसे लेकर कोई समाधान निकालेगी।

महातिर ने पत्रकारों से कहा, ''हम इसे लेकर चिंतित हैं क्योंकि भारत हमारे पाम तेल का बड़ा ख़रीदार रहा है। लेकिन दूसरी तरफ़ अगर कुछ ग़लत हो रहा है तो हमें स्पष्ट रहने की ज़रूरत है। हम ग़लत को ग़लत कहेंगे। अगर हम फ़ायदे को देखते हुए ग़लत होने देंगे और कुछ नहीं बोलेंगे तो कई चीज़ें ग़लत दिशा में जाएंगी। फिर हम भी ग़लत करना शुरू कर देंगे और बाक़ियों को भी बर्दाश्त करेंगे।''  

रॉयटर्स के अनुसार मार्च महीने के लिए भारत में पाम तेल की डिलीवरी का कॉन्ट्रैक्ट गिरकर 0.9 फ़ीसदी पर आ गया है। भारत की सरकार ने ट्रेडर्स को अनौपचारिक रूप से आदेश दिया था कि वे मलेशिया के पाम तेल की ख़रीदारी से दूर रहें। भारतीय कारोबारी अब मलेशिया के बदले इंडोनेशिया से प्रति टन 10 डॉलर ज़्यादा की क़ीमत पर पाम तेल ख़रीद रहे हैं।

भारत के विदेश मंत्रालय ने गुरुवार को कहा था कि पाम तेल की ख़रीदारी किसी ख़ास देश से नहीं जोड़ा जा सकता। विदेश मंत्रालय ने कहा था कि किसी भी तरह का कारोबार दोनों देशों के संबधों पर निर्भर करता है और इसी आधार पर व्यापारिक रिश्ते भी बनते हैं।

2019 में मलेशिया के पाम तेल का भारत सबसे बड़ा ख़रीदार था। 2019 में भारत ने मलेशिया से 40.4 लाख टन पाम तेल ख़रीदा था। भारतीय कारोबारियों का कहना है कि अगर दोनों देशों में रिश्ते ठीक नहीं हुए तो 2020 में मलेशिया से भारत का पाम तेल आयात 10 लाख टन से भी नीचे आ जाएगा।  

मलेशिया के अधिकारियों का कहना है कि भारत के इस रुख़ से मलेशिया को भारी नुक़सान होगा। मलेशिया इस नुक़सान की भरपाई पाकिस्तान, फ़िलीपीन्स, म्यांमार, वियतनाम, इथियोपिया, सऊदी अरब, मिस्र, अल्जीरिया और जॉर्डन से करने की कोशिश कर रहा है।

लेकिन कहा जा रहा है कि शीर्ष आयातक के हटने से उसकी भरपाई आसान नहीं है। ऐसे में मलेशियाई ट्रेड यूनियन कांग्रेस, जिसमें पाम वर्कर्स भी शामिल हैं, ने आग्रह किया है कि भारत से बातचीत कर मामले को सुलझाया जाए।

मलेशियाई ट्रेड यूनियन कांग्रेस ने अपने बयान में कहा है, ''हम दोनों सरकारों से आग्रह करते हैं कि निजी और डिप्लोमैटिक अहम को किनारे रख कोई समाधान निकालें।''

मलेशिया के प्राथमिक उद्योग मंत्रालय जो कि विदेश मंत्रालय के अधीन काम करता है, ने कहा है कि मसले को सुलझाने के लिए भारत से बात करने की कोशिश हो रही है।

महातिर मोहम्मद 1981 से 2003 तक मलेशिया के प्रधानमंत्री रह चुके हैं और 2018 में वो एक बार फिर से पीएम चुने गए। दोबारा चुने जाने के बाद पाकिस्तान और मलेशिया क़रीब आए हैं।

मलेशिया अब कोशिश कर रहा है कि भारत में पाम तेल की ख़रीदारी कम होने के बाद अब वो इसकी भरपाई पाकिस्तान से करे। मलेशिया की प्राथमिक उद्योग मंत्री टेरेसा कोक ने रविवार को कहा था, ''पाकिस्तान हमारे पाम तेल का नियमित ख़रीदार है और वो हम पर निर्भर है।''

कोक ने पाकिस्तान के आधिकारिक दौरे पर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के वाणिज्य, टेक्स्टाइल, इंडस्ट्री, उत्पादन और निवेश सलाहकार अब्दुल रज़ाक़ दाऊद से भी मुलाक़ात की थी।

मलेशिया के प्राथमिक उद्योग मंत्रालय की ओर से जारी बयान में कहा गया है, ''2018 में पाकिस्तान ने 10.16 लाख टन पाम तेल का आयात किया था। यह कारोबार 73 करोड़ डॉलर का था। हम पाकिस्तान से आयात और बढ़ाने की मांग कर रहे हैं।''

भारत और मलेशिया में तनातनी पर सिंगापुर इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंटरनेशनल अफ़ेयर्स के राजनीतिक विश्लेषक डॉ ओह ई सुन ने अरब न्यूज़ से कहा है, ''इस गतिरोध से दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंध और बिगड़ेंगे। मलेशिया के प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद कश्मीर और नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ बोल रहे थे और पाम तेल पर भारत की पाबंदी को इसी के पलटवार के रूप में देखा जा रहा है।''

मोदी सरकार इस्लामिक स्कॉलर ज़ाकिर नाइक को भारत लाना चाहती थी लेकिन वो अब भी मलेशिया में ही हैं। महातिर ने ज़ाकिर नाइक के मामले में भी कोई मदद नहीं की। डॉ ओह का कहना है कि भारत मलेशिया के पाम तेल का बड़ा ख़रीदार था और उसके दूर हटने से मलेशिया की पाम तेल इंडस्ट्री पर बुरा असर पड़ेगा।

भारत में खाने में इस्तेमाल किए जाने वाले तेलों में पाम तेल का हिस्सा दो तिहाई है। भारत हर साल 90 लाख टन पाम तेल आयात करता है और मुख्य रूप से मलेशिया और इंडोनेशिया से होता है।

साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट से नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ मलेशिया में स्ट्रैटिजिक स्टडीज के एक्सपर्ट रविचंद्रन दक्षिणमूर्ति ने कहा, ''मलेशिया और पाकिस्तान के बीच लंबे समय से अच्छे रिश्ते रहे हैं। 1957 में मलेशिया की आज़ादी के बाद पाकिस्तान उन देशों में शामिल था, जिसने सबसे पहले संप्रभु देश के रूप में उसे मान्यता दी थी।''

रविचंद्रन ने कहा, ''पाकिस्तान और मलेशिया दोनों कई इस्लामिक संगठन और सहयोग से जुड़े हुए हैं। इन दोनों के संबंध में चीन का मामला बिल्कुल अलग है। मलेशिया और चीन के रिश्ते बिल्कुल सामान्य हैं लेकिन पाकिस्तान और चीन का संबंध बेहद ख़ास है। चीन पाकिस्तान में सबसे बड़ा हथियार आपूर्तिकर्ता देश है और चीन और पाकिस्तान के रिश्ते भारत से अच्छे नहीं हैं। जब तक सत्ता में महातिर मोहम्मद रहे तब तक पाकिस्तान से संबंध अच्छा रहा।''

क्या मुस्लिम देशों का संगठन ओआईसी भारत के ख़िलाफ़ जाएगा?

पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी ने रविवार को कहा कि भारत का नया नागरिकता क़ानून मुसलमान विरोधी है और इस पर ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन (ओआईसी) को प्रभावी आवाज़ उठानी चाहिए।

ओआईसी इस्लामिक देशों का संगठन है और इसमें सऊदी अरब का दबदबा है।

पाकिस्तान के मुल्तान में एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस को संबोधित करते हुए क़ुरैशी ने कहा कि ओआईसी कश्मीर में मानवाधिकारों के उल्लंघन और भारत के नागरिकता संशोधन क़ानून का प्रभावी तरीके से विरोध करे।

पाकिस्तानी विदेश मंत्री ने कहा कि उन्होंने इन मामलों को लेकर अन्य इस्लामिक देशों से बात की है और ओआईसी के सदस्य देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक का प्रस्ताव दिया है। क़ुरैशी ने कहा कि उन्हें इस मामले में सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली है।

रेडियो पाकिस्तान ने रविवार को अपनी रिपोर्ट में बताया है कि ओआईसी ने भारत प्रशासित कश्मीर में मानवाधिकारों के उल्लंघन और भारत के नागरिकता संशोधन क़ानून को लेकर एक बैठक करने का फ़ैसला लिया है। कहा जा रहा है कि इस तरह की बैठक अगले साल अप्रैल में इस्लामाबाद में होगी।  

पाकिस्तानी विदेश मंत्री ने इस प्रेस कॉन्फ़्रेंस में दावा किया कि भारत नरेंद्र मोदी के शासनकाल में सेक्युलरिज़म और हिन्दुत्व की विचारधारा में स्पष्ट तौर पर बँट गया है।

उन्होंने कहा, ''भारत के अल्पसंख्यक और पढ़ी-लिखी हिन्दू आबादी मुस्लिम विरोधी नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ हैं। 11 दिसंबर को यह क़ानून बनने के बाद से भारत में विरोध-प्रदर्शन के दौरान अब तक 25 लोगों की मौत हो चुकी है। इस क़ानून के आलोचकों का कहना है कि यह मुसलमानों के साथ भेदभाव करता है। दुनिया भर के अंतर्राष्ट्रीय अख़बारों ने इस क़ानून को आड़े हाथों लिया है।''

क़ुरैशी ने कहा, ''भारत के कम से कम पाँच राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने इस क़ानून को लागू करने से इनकार कर दिया है। मैंने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को कश्मीर के मामले में भी कई पत्र लिखे हैं।''

सऊदी अरब के विदेश मंत्री प्रिंस फ़ैसल बिन फ़रहान अल साउद पिछले हफ़्ते पाकिस्तान आए थे। पाकिस्तानी अख़बार द एक्सप्रेस ट्रिब्यून के अनुसार इसी दौरे में सहमति बनी है कि कश्मीर और विवादित नागरिकता संशोधन क़ानून पर ओआईसी अपने सदस्य देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक करेगा।

पाकिस्तान और सऊदी के रिश्तों में पिछले कुछ हफ़्तों से तनाव की बात कही जा रही थी क्योंकि सऊदी ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान को मलेशिया में 19-20 दिसंबर को आयोजित कुआलालंपुर समिट में जाने से रोक दिया था।  

इसके बाद ही सऊदी के विदेश मंत्री पाकिस्तान के दौरे पर आए।  पाकिस्तान ने कुआलालंपुर समिट में नहीं जाने के फ़ैसले का बचाव करते हुए कहा था कि वो इस्लामिक दुनिया में सेतु बनाना चाहता है न कि टकराव बढ़ाने की मंशा रखता है।

हाल ही में बाबरी मस्जिद, नागरिकता संशोधन क़ानून और कश्मीर को लेकर ओआईसी ने एक बयान जारी किया था। इस बयान में ओआईसी ने कहा था, ''भारत के हालिया घटनाक्रम को हम क़रीब से देख रहे हैं। कई चीज़ें ऐसी हुई हैं, जिनसे अल्पसंख्यक प्रभावित हुए हैं। नागरिकता के अधिकार और बाबरी मस्जिद केस को लेकर हमारी चिंताएं हैं। हम फिर से इस बात को दोहराते हैं कि भारत में मुसलमानों और उनके पवित्र स्थल की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए।''

ओआईसी ने कहा था कि संयुक्त राष्ट्र के सिद्धांतों और दायित्वों के अनुसार बिना किसी भेदभाव के अल्पसंख्यकों को सुरक्षा मिलनी चाहिए।  ओआईसी ने कहा कि अगर इन सिद्धांतों और दायित्वों की उपेक्षा हुई तो पूरे इलाक़े की सुरक्षा और स्थिरता पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा।

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान भी कश्मीर मुद्दे पर वैश्विक स्तर पर समर्थन जुटाने की कोशिश कर रहे हैं। शनिवार को इमरान ख़ान ने कहा था, ''अमरीका में अभी भारत की लॉबी पाकिस्तान की तुलना में मज़बूत है। भारत की मज़बूत लॉबीइंग के कारण पाकिस्तान का पक्ष हमेशा दब जाता है और इसका नतीजा ये होता है कि अमरीकी नीतियों में हम पर भारत भारी पड़ जाता है।''  

जम्मू-कश्मीर का जब भारत ने विशेष दर्जा ख़त्म किया था तो ओआईसी लगभग ख़ामोश था। ओआईसी में सऊदी अरब और उसके सहयोगी देशों का दबदबा है। सऊदी ने भी अनुच्छेद 370 हटाने के मामले में पाकिस्तान का साथ नहीं दिया था और संयुक्त अरब अमीरात ने इसे भारत का आंतरिक मामला कहा था।

इसी साल मार्च में यूएई ने ओआईसी के विदेश मंत्रियों की बैठक में भारत की तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को आमंत्रित किया था। इसे लेकर पाकिस्तान ने कड़ी आपत्ति जताई थी। इसके बाद पाँच अगस्त को भारत ने जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म किया तो ओआईसी ने भारत की आलोचना नहीं की थी। हालांकि तुर्की और मलेशिया ने इस मामले में भारत की खुलकर आलोचना की थी।

पाकिस्तान के नीति निर्माताओं के बीच यह आम सोच है कि सऊदी के नेतृत्व वाले ओआईसी ने कश्मीर के मामले में भारत के ख़िलाफ़ बिल्कुल समर्थन नहीं दिया। दूसरी तरफ़ ईरान, तुर्की और मलेशिया ओआईसी को सीधे चुनौती देना चाहते हैं कि वो इस्लामिक दुनिया के सेंटिमेंट को समझने और मंच देने में नाकाम रहा है।

वहीं सऊदी अरब ओआईसी के ज़रिए मुस्लिम वर्ल्ड में राजनीतिक और राजनयिक प्रभाव क़ायम रखना चाहता है। अगर मलेशिया, तुर्की और ईरान की कोशिश सफल रही तो आने वाले महीनों में ओआईसी की प्रासंगिकता को गंभीर चुनौती मिलेगी। कहा जा रहा है कि मलेशिया, तुर्की, ईरान और पाकिस्तान इस समिट में जम्मू-कश्मीर पर भी चर्चा करने वाले थे।

मलेशिया और तुर्की कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म किए जाने के बाद संयुक्त राष्ट्र की आम सभा में खुलकर भारत के ख़िलाफ़ बोले भी थे।  सऊदी को लेकर पाकिस्तान के भीतर कहा जा रहा है कि भारत के साथ उसके अपने हित जुड़े हैं इसलिए कश्मीर मामले में वो ख़ुद बोल नहीं रहा।

14 अगस्त को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर के मुज़फ़्फ़राबाद में असेंबली को संबोधित करते हुए कहा था कि कश्मीर पर दुनिया के सवा अरब मुसलमान एकजुट हैं लेकिन दुर्भाग्य से शासक चुप हैं।

कश्मीर पर इमरान ख़ान मुस्लिम देशों से लामबंद होने की अपील लगातार कर रहे हैं लेकिन इसी बीच मुकेश अंबानी ने घोषणा कर दी थी कि सऊदी अरब की तेल कंपनी अरामको अब तक का सबसे बड़ा निवेश भारत में रिलायंस में करने जा रही है।

यह सऊदी की सरकारी कंपनी है और इस पर नियंत्रण किंग सलमान का है। यह घोषणा इमरान ख़ान की चाहत के बिल्कुल उलट थी।

असम डिटेंशन कैंप: क्या मोदी का दावा सही है?

दिल्ली के रामलीला मैदान में रविवार को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दावा किया कि भारत में कोई डिटेंशन सेंटर नहीं है, उन्होंने इसे अफ़वाह बताया।

मोदी ने कहा "सिर्फ कांग्रेस और अर्बन नक्सलियों द्वारा उड़ाई गई डिटेन्शन सेन्टर वाली अफ़वाहें सरासर झूठ है, बद-इरादे वाली है, देश को तबाह करने के नापाक इरादों से भरी पड़ी है - ये झूठ है, झूठ है, झूठ है।''

उन्होंने कहा, "जो हिंदुस्तान की मिट्टी के मुसलमान हैं, जिनके पुरखे मां भारती की संतान हैं। भाइयों और बहनों, उनसे नागरिकता क़ानून और एनआरसी दोनों का कोई लेना देना नहीं है। देश के मुसलमानों को डिटेंशन सेन्टर में नहीं भेजा जा रहा है, ना हिंदुस्तान में कोई डिटेंशन सेन्टर है।  भाइयों और बहनों, ये सफेद झूठ है, ये बद-इरादे वाला खेल है, ये नापाक खेल है। मैं तो हैरान हूं कि ये झूठ बोलने के लिए किस हद तक जा सकते हैं।''

क्या भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी डिटेंशन सेंटर के बारे में सच बोल रहे है? आइये, मोदी के दावे की जाँच करते हैं।

मोदी के दावे के विपरीत बीबीसी संवाददाता नितिन श्रीवास्तव की साल 2018 की एक रिपोर्ट डिटेंशन सेंटर से बाहर आए लोगों की दास्तां बयां करती है।

बीबीसी संवाददाता नितिन श्रीवास्तव की रिपोर्ट के मुताबिक, "जिन लोगों को यहाँ रहना पड़ रहा है या जो लोग यहाँ रह चुके हैं, उनके लिए ये डिटेंशन कैंप एक भयानक सपना है जिसे भुलाने में वे दिन-रात लगे हैं।''

इसी तरह बीबीसी संवाददाता प्रियंका दुबे ने भी असम के डिटेंशन सेंटरों से जुड़ी रिपोर्टिंग की है।

बीबीसी संवाददाता प्रियंका दुबे की रिपोर्ट के मुताबिक, "नागरिकता तय करने की दुरूह क़ानूनी प्रक्रिया में खोए असम के बच्चों का भविष्य फ़िलहाल अंधेरे में डूबा हुआ सा लगता है। कभी डिटेंशन में बंद माँ बाप के जेल की सख़्त माहौल में रहने को मजबूर तो कभी उनके साये के बिना बाहर की कठोर दुनिया को अकेले सहते इन बच्चों की सुध लेने वाला, फ़िलहाल कोई नहीं।''

भारत की संसद में इस साल हुए सवालों और जवाबों को देखा जाए तो पता चलता है कि डिटेंशन सेंटर के बारे में संसद में चर्चा हुई है और केंद्र सरकार ने माना है कि उन्होंने राज्य सरकारों को इस बारे में लिखा है।

राज्यसभा में 10 जुलाई 2019 को पूछे गए एक सवाल के उत्तर में गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने कहा था कि देश में आए जिन अवैध लोगों की नागरिकता की पुष्टि जब तक नहीं हो जाती और उन्हें देश से बाहर नहीं निकला जाता, तब तक राज्यों को उन्हें डिटेंशन सेंटर में रखना होगा। इस तरह के डिटेंशन सेंटर की सही संख्या के बारे में अब तक कोई रिकॉर्ड नहीं रखा गया है।

उन्होंने कहा था कि 9 जनवरी 2019 को केंद्र सरकार ने सभी राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को अपने प्रदेश में डिटेंशन सेंटर बनाने के लिए 'मॉडल डिटेन्शन सेन्टर या होल्डिंग सेन्टर मैनुअल' दिया है।

द हिंदू में इसी साल अगस्त में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार इस साल 2 जुलाई 2019 में लोकसभा में बीजेपी नेता नित्यानंद राय ने कहा था कि राज्य सरकारों को साल 2009, 2012, 2014 और 2018 में अपने प्रदेशों में डिटेंशन सेंटर बनाने के लिए कहा था।

2 जुलाई 2019 को लोकसभा में पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में गृह राज्य मंत्री कृष्ण रेड्डी ने कहा कि गृह मंत्रालय ने एक मॉडल डिटेंशन सेंटर (होल्डिंग सेन्टर मैनुअल) बनाया है जिसे 9 जनवरी 2019 को सभी राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को दिया गया है।

उत्तर में उन्होंने कहा था कि इस मैनुएल के अनुसार डिटेंशन सेंटर में दी जाने वाली ज़रूरी सुविधाओं के बारे में बताया गया है।

16 जुलाई 2019 को लोकसभा में पूछे गए एक सवाल के उत्तर में गृह राज्य मंत्री जी कृष्ण रेड्डी ने कहा था कि असम में डिटेंशन सेंटर बनाए गए हैं।

उन्होंने कहा था कि ये सेंटर फॉरेनर्स एक्ट 1946 की धारा 3(2)(ई) के तहत उन लोगों को रखने के लिए बनाए गए हैं जिसकी नागरिकता की पुष्टि नहीं हो पाई है।

क्या भारत में राज्य सरकारें नागरिकता संशोधन क़ानून को लागू करने से इनकार कर सकती हैं?

नागरिकता संशोधन विधेयक भारत की संसद से पारित होकर और राष्ट्रपति के मुहर के बाद अब क़ानून की शक्ल ले चुका है।

अब देश भर में लागू हो गया है, लेकिन एक तरफ़ जहां इसे लेकर पूर्वोत्तर राज्यों में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं वहीं कुछ राज्य सरकारें इसे अपने यहां लागू करने से ही इनकार कर रही हैं।

समाचार एजेंसी एएनआई के मुताबिक पाँच राज्यों के मुख्यमंत्री यह कह चुके हैं कि वो इसे अपने यहां लागू नहीं करेंगे।

अपने राज्य में नागरिकता संशोधन क़ानून को लागू नहीं करने देने की बात करने वाले मुख्यमंत्रियों की इस सूची में अब नया नाम पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का जुड़ गया है।

ममता बनर्जी ने कहा है कि वो किसी भी सूरत में इसे अपने राज्य में लागू नहीं करने देंगी।  

सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ने शुक्रवार को एक संवाददाता सम्मेलन में कहा, "भारत एक प्रजातंत्रिक देश है और कोई भी पार्टी उसकी इस प्रकृति को बदल नहीं सकती। हमारे राज्य में किसी को भी डरने की ज़रूरत नहीं है। कोई भी आपको बाहर नहीं निकाल सकता है। कोई भी इस क़ानून को मेरे राज्य में लागू नहीं कर सकता।''

ममता से पहले भी दो राज्यों पंजाब और केरल ने कहा कि वो इस संशोधन विधेयक को अपने यहां लागू नहीं करेंगे।

पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने ट्वीट किया, "कोई भी क़ानून जो लोगों को धर्म के आधार पर बाँटता हो, असंवैधानिक और अनैतिक हो, वो गैरक़ानूनी है। भारत की ताक़त इसकी विविधता में है और नागरिकता संशोधन क़ानून इसके आधारभूत सिद्धान्तों का उल्लंघन करता है।  लिहाजा, मेरी सरकार इसे पंजाब में नहीं लागू होने देगी।''

वहीं केरल के मुख्यमंत्री पिनरई विजयन ने भी नागरिकता संशोधन विधेयक को असंवैधानिक बताते हुए ट्वीट किया कि वो इसे अपने राज्य में लागू नहीं होने देंगे।

उन्होंने ट्वीट किया कि केंद्र सरकार भारत को धार्मिक तौर पर बाँटने की कोशिश कर रही है। ये समानता और धर्मनिरपेक्षता को तहस-नहस कर देगा।

ट्वीट में उन्होंने लिखा, ''धर्म के आधार पर नागरिकता का निर्धारण करना संविधान को अस्वीकार करना है। इससे हमारा देश बहुत पीछे चला जाएगा। बहुत संघर्ष के बाद मिली आज़ादी दांव पर है।''

दैनिक अख़बार 'द हिंदू' के मुताबिक़ उन्होंने कहा कि इस्लाम के ख़िलाफ़ भेदभाव करने वाले सांप्रदायिक रूप से ध्रुवीकरण क़ानून की केरल में कोई जगह नहीं है।

इसके अलावा जिन दो अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने इस पर बयान दिया है, वो हैं छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश। इन दोनों राज्यों में कांग्रेस की सरकारें हैं।

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने कहा कि वो इस क़ानून पर कांग्रेस पार्टी के फ़ैसले का इंतज़ार कर रहे हैं।

अब ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या राज्य सरकारें नागरिकता संशोधन क़ानून को लागू करने से इनकार कर सकती हैं? संविधान क्या कहता है? और विरोध करने वालों के पास क्या विकल्प हैं?

नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध के स्वर अब तक ग़ैर बीजेपी शासित राज्यों से ही उठे हैं। क्या ये राज्य अगर चाहें तो नागरिकता संशोधन क़ानून को लागू करने से इनकार कर सकती हैं?

संविधान के जानकारों का कहना है कि ऐसा बिल्कुल नहीं हो सकता है।

संविधान विशेषज्ञ चंचल कुमार कहते हैं कि "राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने गुरुवार को नागरिकता संशोधन विधेयक 2019 पर अपनी मुहर लगाकर इसे क़ानून बनाया है। आधिकारिक राजपत्र में प्रकाशित होने के साथ ही यह क़ानून लागू भी हो गया है। अब चूंकि यह क़ानून संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत संघ की सूची में आता है। तो यह संशोधन सभी राज्यों पर लागू होता है और राज्य चाहकर भी इस पर कुछ ज़्यादा नहीं कर सकते है।''

वो बताते हैं, "संविधान की सातवीं अनुसूची राज्यों और केंद्र के अधिकारों का वर्णन करती है। इसमें तीन सूचियां हैं - संघ, राज्य और समवर्ती सूची। नागरिकता संघ सूची के तहत आता है। लिहाजा इसे लेकर राज्य सरकारों के पास कोई अधिकार नहीं है।''

यही बात केंद्र सरकार का भी कहना है कि राज्य के पास ऐसा कोई भी अधिकार नहीं है कि वह केंद्र की सूची में आने वाले विषय 'नागरिकता' से जुड़ा कोई अपना फ़ैसला कर सकें।

गृह मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक़ केंद्रीय सूची में आने वाले विषयों के तहत बने क़ानून को लागू करने से राज्य इनकार नहीं कर सकते।

अगर राज्य सरकारें इस क़ानून के ख़िलाफ़ नहीं जा सकतीं तो फिर इस पर विरोध करने वालों के सामने क्या विकल्प हैं? क्या इस क़ानून को कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है?

चंचल कुमार कहते हैं कि कोई राज्य सरकार, संस्था या ट्रस्ट इस क़ानून पर सवाल नहीं उठा सकते। वो कहते हैं कि मसला नागरिकता का है और नागरिकता किसी व्यक्ति विशेष को दी जाती है, लिहाजा वही इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठा सकता है। इसे चुनौती देने के लिए कोर्ट की शरण में जा सकता है।

क़ानूनी मामलों के जानकार फ़ैज़ान मुस्तफ़ा ने बीबीसी को बताया कि संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत राज्य नागरिकों और ग़ैर-नागरिकों, दोनों को ही क़ानून के तहत समान संरक्षण देने से इनकार नहीं करेगा।

वो कहते हैं कि, "संविधान धर्म के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव और वर्गीकरण को ग़ैर क़ानूनी समझता है।''

उनके मुताबिक़, "पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान के प्रवासी मुसलमानों को भी अनुच्छेद 14 के तहत संरक्षण प्राप्त है। इसमें इस्लाम और यहूदी धर्म के लोगों को छोड़ देना इसकी मूल भावना के ख़िलाफ़ है।  यानी कोई व्यक्ति इसके ख़िलाफ़ कोर्ट जा सकता है और उसे वहां यह साबित करना होगा कि किस तरह यह क़ानून संविधान के मूलभूत ढांचे को बदल सकता है।''

नागरिकता संशोधन विधेयक के राज्यसभा में पारित होने से पहले ही इसे चुनौती देने इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग सुप्रीम कोर्ट पहुंची थी।

क़ानून बनने के बाद जन अधिकार पार्टी के जनरल सेक्रेटरी फ़ैज़ अहमद ने भी शुक्रवार को याचिका दायर की।

इसके अलावा पीस पार्टी ने भी सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की है।  उसका कहना है कि यह क़ानून अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है और संविधान की मूल संरचना/प्रस्तावना के ख़िलाफ़ है। उनका कहना है कि धर्म के आधार पर नागरिकता नहीं दी जा सकती।

इसी तरह वकील एहतेशाम हाशमी, पत्रकार जिया-उल सलाम और क़ानून के छात्र मुनीब अहमद ख़ान, अपूर्वा जैन और आदिल तालिब भी सुप्रीम कोर्ट में गए हैं।

उन्होंने अपनी याचिका में इस क़ानून को असंवैधानिक बताते हुए रद्द करने की मांग की है। उन्होंने कहा है कि यह क़ानून धर्म और समानता के आधार पर भेदभाव करता है और सर्वोच्च न्यायालय मुस्लिम समुदाय के जीवन, निजी स्वतंत्रता और गरिमा की रक्षा करे।

शुक्रवार को ही तृणमूल कांग्रेस की नेता महुआ मोइत्रा ने भी सुप्रीम कोर्ट में इस संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ अपनी याचिका दायर की।

अपनी याचिका में मोइत्रा ने कहा कि इस क़ानून के तहत मुस्‍लिमों को बाहर रखने की बात भेदभाव को प्रदर्शित करता है, इसलिए यह संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्‍लंघन करता है।

उन्होंने यह भी कहा कि यह क़ानून हमारे संविधान के आधारभूत स्वरूप धर्मनिरपेक्षता का भी उल्‍लंघन करता है। लेकिन इन याचिकाओं का कोर्ट में क्या होगा? क्या ये साबित कर सकेंगे कि यह संविधान के मूलभूत स्वरूप के ख़िलाफ़ है?

मुस्तफ़ा कहते हैं कि जो व्यक्ति इसे चुनौती देगा उसी पर ये साबित करने का बोझ होगा कि वो बताए ये कैसे और किस तरह से असंवैधानिक है।

वे कहते हैं कि इस तरह के मामले कई बार सांवैधानिक बेंच के पास चले जाते हैं और बेंच के पास बहुत से मामले पहले से ही लंबित हैं जिसकी वजह से इसकी सुनवाई जल्दी नहीं होगी।

नागरिकता अधिनियम 1955 में नागरिकता संशोधन क़ानून 2019 के तहत कुछ अनुबंध जोड़ दिए गए हैं।

इसके तहत 31 दिसंबर 2014 या उससे पहले भारत आए बांग्लादेश, अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान के उन छह अल्पसंख्यक समुदायों (हिंदू, बौद्ध, जैन, पारसी, ईसाई और सिख) को जिन्हें अपने देश में धार्मिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है, उन्हें गैरक़ानूनी नहीं माना जाएगा बल्कि भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान किया जाएगा।

लेकिन यह पूर्वोत्तर के अधिकांश राज्यों और असम के कुछ ज़िलों में लागू नहीं होगा। क्योंकि इसमें शर्त रखी गई है कि ऐसे व्यक्ति असम, मेघालय, और त्रिपुरा के उन हिस्सों में जहां संविधान की छठीं अनुसूची लागू हो और इनर लाइन परमिट के तहत आने वाले अरुणाचल प्रदेश, मिज़ोरम और नागालैंड में न रह रहे हों।

नागरिकता संशोधन विधेयक को पेश करने के दौरान ही मणिपुर को भी इनर लाइन परमिट में शामिल करने का प्रस्ताव किया गया।

इनर लाइन परमिट एक ट्रैवल डॉक्यूमेंट है, जो भारत सरकार अपने किसी संरक्षित क्षेत्र में एक निर्धारित अवधि की यात्रा के लिए अपने नागरिकों के लिए जारी करती है।

सुरक्षा उपायों और स्थानीय जातीय समूहों के संरक्षण के लिए वर्ष 1873 के रेग्यूलेशन में इसका प्रावधान किया गया था।

छठी अनूसूची में आने वाले पूर्वोत्तर भारत के राज्यों को भी नागरिकता संशोधन विधेयक के दायरे से बाहर रखा गया है।

इसका मतलब हुआ कि 31 दिसंबर 2014 से पहले अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से आए हिंदू, सिख, बौद्ध, पारसी, जैन और ईसाई लोग भारत की नागरिकता हासिल करके के बावजूद मेघालय और मिज़ोरम में किसी तरह की ज़मीन या क़ारोबारी अधिकार हासिल नहीं कर पाएंगे।

नागरिकता संशोधन क़ानून शुरू से ही विवादों में रहा है। संशोधन से पहले इस क़ानून के अनुसार किसी भी व्यक्ति को भारतीय नागरिकता लेने के लिए कम से कम 11 साल भारत में रहना अनिवार्य था।

संशोधित क़ानून में जिन तीन पड़ोसी देशों के छह अल्पसंख्यकों की बात की गई है उनके लिए यह समयावधि 11 से घटाकर छह साल कर दी गई है।

साथ ही नागरिकता अधिनियम, 1955 में ऐसे संशोधन भी किए गए हैं कि इन लोगों को नागरिकता देने के लिए उनकी क़ानूनी मदद की जा सके।

नागरिकता अधिनियम, 1955 में पहले भारत में अवैध तरीक़े से दाख़िल होने वाले लोगों को नागरिकता नहीं देने और उन्हें वापस उनके देश भेजने या हिरासत में रखने के प्रावधान था।

जापानी प्रधानमंत्री शिंज़ो आबे ने भारत का दौरा क्यों रद्द किया?

जापानी प्रधानमंत्री शिंज़ो आबे ने भारत दौरा रद्द किया। नागरिकता संशोधन क़ानून को लेकर हो रहे विरोध प्रदर्शनों के बीच शुक्रवार को ये ख़बर भी भारतीय मीडिया में छाई रही।

इससे ठीक एक दिन पहले यानी गुरुवार को बांग्लादेश के विदेश मंत्री अब्दुल मोमिन और गृह मंत्री असदुज़्ज़मां ख़ान ने अपना भारत दौरा रद्द कर दिया था। वजह थी भारत के नागरिकता संशोधन क़ानून को लेकर बांग्लादेश की नाराज़गी।

भारत के अलग-अलग हिस्सों में नागरिकता संशोधन क़ानून का विरोध हो रहा है। ख़ासकर पूर्वोत्तर राज्यों में। इस क़ानून को लेकर मचे घमासान, बहस और प्रदर्शनों का असर भारत का दूसरे देशों के साथ संबंधों पर भी दिखा।

शिंज़ो आबे रविवार को भारत आने वाले थे। उनका दौरा 15-17 दिसंबर तक के लिए प्रस्तावित था और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनकी मुलाकात पूर्वोत्तर राज्य असम के गुवाहाटी में होनी थी।

वो भारत-जापान शिखरवार्ता में हिस्सा लेने वाले थे। असम नागरिकता संशोधन क़ानून को लेकर हो रहे विरोध प्रदर्शनों का केंद्र है।

ये दौरा रद्द होने के बाद भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने ट्वीट करके कहा कि दोनों देश मुलाकात के लिए जल्दी ही एक दूसरी सुविधाजनक तारीख़ तय करेंगे। हालांकि ये मुलाक़ात अब कब होगा, इस बारे में अभी कोई जानाकारी नहीं है।

शिंज़ो आबे का दौरा रद्द होने से जुड़ी ख़बरें और विश्लेषण जापानी मीडिया में भी प्रमुखता से छाई हैं। जापान मैगज़ीन 'निक्केई एशियन रिव्यू' ने इस पूरे मसले पर एक लगभग 800 शब्दों का ओपीनियन लेख प्रकाशित किया है।

नागरिकता संशोधन क़ानून पर केंद्रित इस लेख का शीर्षक है: भारत के ये बदलाव अनैतिक और ख़ुद को हराने वाले हैं।

लेख में शिंज़ो आबे के रद्द दौरे का ज़िक्र करते हुए नागरिकता संशोधन क़ानून की कड़ी आलोचना की गई है।

इसमें कहा गया है कि इसमें तो कोई शक ही नहीं है कि तथाकथित अवैध प्रवासियों से निबटने का भारतीय रणनीति का वास्ता धार्मिक भेदभाव से है। इतना ही नहीं, विदेश नीति और सुरक्षा पर भी इसका गंभीर असर होगा।

लेख में चेताया गया है कि भारत को इस बात से डरना चाहिए कि अगर दूसरे देश भी उसकी प्रवासी नीतियों को अपनाने लगें तो क्या होगा।  क्योंकि भारत की एक बड़ी आबादी क़ानूनी और ग़ैरक़ानूनी तरीक़ों से दूसरे देशों में रहती है।

टोक्यो से छपने वाले 'द जापान टाइम्स' की ख़बर में लिखा है कि गुवाहाटी में भीड़ और पुलिस के बीच हिंसक संघर्ष हो रहे हैं और स्थानीय हालात को ध्यान में रखते हुए शिंज़ो आबे का दौरा स्थगित करने का निर्णय लिया गया है।

ख़बर के मुताबिक़ जापान चीन को क़ाबू में रखने के लिए भारत के साथ कूटनीतिक और सामरिक रिश्ते मज़बूत करने की कोशिश कर रहा है।

जापान टाइम्स लिखता है कि इस शिखरवार्ता में दोनों देशों के प्रतिनिधि सुरक्षा और आर्थिक विकास के मुद्दों पर चर्चा करने वाले थे।

ख़बर में असम की चिंताजनक स्थिति और भारतीय मीडिया की रिपोर्ट्स का भी ज़िक्र है। अख़बार लिखता है कि राज्य में हज़ारों स्थानीय लोग विरोध प्रदर्शन के लिए सड़कों पर उतर आए हैं क्योंकि उन्हें डर है कि नए क़ानून से बड़ी संख्या में विदेशी प्रवासी वहां आ जाएंगे।

जापान के प्रमुख अख़बार 'असाही शिनबुन' और समाचार वेबसाइट जापान टुडे ने भी इस ख़बर को प्रमुखता से जगह दी है। जापान टाइम्स में वहां के चीफ़ कैबिनेट सेक्रेटरी का बयान छपा है।

चीफ़ कैबिनेट सेक्रेटरी योशिहिदे सुगा ने कहा है, ''भारत से ज़मीनी रिपोर्ट के आधार पर प्रधानमंत्री का दौरा स्थगित करने का फ़ैसला किया गया।  इस दौरे की रूपरेखा आगे तैयार होगी लेकिन अभी इस पर कोई ठोस फ़ैसला नहीं लिया गया है।''

दोनों देशों में सैन्य सहयोग पर एक समझौते को लेकर बातचीत चल रही है। शिंज़ो आबे इस दौरे में पीएम मोदी के साथ मणिपुर की राजधानी इंफाल भी जाने वाले थे। पीएम आबे इंफाल के मेमोरियल हॉल जाते।

इसे 1941 के इंफाल बैटल के नाम से जाना जाता है, जहां 30 हज़ार से ज़्यादा जापानी सैनिक मारे गए थे। इसे शाही जापानी सेना के सबसे ख़राब ऑपरेशन के तौर पर देखा जाता है। यह भी कहा जा रहा था कि पीएम मोदी से शिंज़ो आबे आरसीईपी में शामिल नहीं होने के फ़ैसले पर विचार करने के लिए कह सकते थे।

अभी एक महीने पहले ही जापान ने कहा था कि अगर भारत आरसीईपी (क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी) में शामिल नहीं होता है तो जापान भी इसका हिस्सा नहीं बनेगा।