भारत ने इस्लामिक देशों के संगठन ऑर्गेनाइजेशन ऑफ़ इस्लामिक कोऑपरेशन (ओआईसी) के सदस्य देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक में पास किए गए प्रस्ताव को ख़ारिज कर दिया है। इस प्रस्ताव में कश्मीर का भी ज़िक्र किया गया है।
भारतीय विदेश मंत्रालय ने कहा कि ओआईसी में पास किए गए प्रस्ताव में भारत का संदर्भ तथ्यात्मक रूप से ग़लत, अकारण और अनुचित है।
नाइजर की राजधानी नियामे में 27 और 28 नवंबर 2020 को ओआईसी के काउंसिल ऑफ फॉरन मिनिस्टर्स (सीएफ़एम) की बैठक थी और इसी बैठक में जो प्रस्ताव पास किया गया है उसमें कश्मीर का भी ज़िक्र है।
पाकिस्तान भी ओआईसी का सदस्य है। इस बैठक में पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी शामिल हुए और उन्होंने कश्मीर का मुद्दा ज़ोर-शोर से उठाया था।
पाकिस्तान ओआईसी के विदेश मंत्रियों की बैठक में पास किए गए प्रस्ताव में कश्मीर के ज़िक्र से ख़ुश है। इस प्रस्ताव को नियामे डेक्लरेशन कहा जा रहा है और पाकिस्तान ने इसका स्वागत किया है।
भारत ने पाँच अगस्त 2019 को कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म कर दिया था। तब से पाकिस्तान अंतराराष्ट्रीय मंच पर इस मुद्दे को उठा रहा है लेकिन अब तक कोई ठोस सफलता नहीं मिली है। ओआईसी भी इसे लेकर अब तक बहुत सक्रिय नहीं रहा है।
ओआईसी के सीएफ़एम में पास किए गए प्रस्ताव को लेकर भारत के विदेश मंत्रालय ने अपने बयान ने कहा है, ''हम नाइजर की राजधानी नियामे में ओआईसी के 47वें सीएफ़एम में तथ्यात्मक रूप से ग़लत, अनुचित और अकारण रूप से पास किए गए प्रस्ताव में भारत के ज़िक्र को ख़ारिज करते हैं। हमने हमेशा से कहा है कि ओआईसी को भारत के आंतरिक मामलों पर बोलने का कोई हक़ नहीं है। जम्मू-कश्मीर भी भारत का अभिन्न अंग है और ओआईसी को इस पर बोलने का कोई अधिकार नहीं है।''
भारत ने अपने बयान में कहा है, ''यह खेदजनक है कि ओआईसी किसी एक देश को अपने मंच का दुरुपयोग करने की अनुमति दे रहा है। जिस देश को ओआईसी ऐसा करने दे रहा है, उसका धार्मिक सहिष्णुता, अतिवाद और अल्पसंख्यकों के साथ नाइंसाफ़ी का घिनौना रिकॉर्ड है। वो देश हमेशा भारत विरोधी प्रॉपेगैंडा में लगा रहा है। हम ओआईसी को गंभीरता से सलाह दे रहे हैं कि वो भविष्य में भारत को लेकर ऐसी बात कहने से बचे।''
नियामे में ओआईसी के सदस्य देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक में पास किए गए प्रस्ताव में कश्मीर को भी शामिल किया गया है।
हालांकि कश्मीर ओआईसी के सीएफ़म के एजेंडे में शामिल नहीं था। कहा जा रहा है कि पाकिस्तान की ज़िद के कारण इसमें महज़ शामिल किया गया है। प्रस्ताव में कहा गया है कि कश्मीर विवाद पर ओआईसी का रुख़ हमेशा से यही रहा है कि इसका शांतिपूर्ण समाधान संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव के अनुसार होना चाहिए।
हालांकि ये बात भी कही जा रही है कि ओआईसी के प्रस्ताव में कश्मीर का ज़िक्र रस्मअदायगी भर है और ये भारत के लिए हैरान करने वाला नहीं है। पाकिस्तान के भारी दबाव के बावजूद इस बैठक में कश्मीर को एक अलग एजेंडे के तौर पर शामिल नहीं किया गया।
ओआईसी में सऊदी अरब और यूएई का दबदबा है। पाकिस्तान के इन दोनों देशों से रिश्ते ख़राब चल रहे हैं। सऊदी अरब चाहता है कि पाकिस्तान उसके क़र्ज़ों का भुगतान जल्दी करे। ख़ास करके तब से जब पाकिस्तानी पीएम इमरान ख़ान ने ओआईसी के समानांतर तुर्की, ईरान और मलेशिया के साथ मिलकर एक संगठन खड़ा करने की कोशिश की थी। पिछले हफ़्ते यूएई ने पाकिस्तानी नागिरकों के लिए नया वीज़ा जारी करने पर अस्थायी रूप से प्रतिबंध लगा दिया था।
पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी ने इस मुद्दे को भी ओआईसी की बैठक में अलग से यूएई के विदेश मंत्री के सामने उठाया लेकिन अभी तक कोई ठोस आश्वासन नहीं मिला है।
नियामे डेक्लरेशन में कश्मीर का ज़िक्र क्या पाकिस्तान की जीत है?
मार्च 2019 में अबू धाबी में यह बैठक हुई थी। इस बैठक में भारत की तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को भी यूएई ने बुलाया था।
पाकिस्तान ने सुषमा स्वराज के बुलाए जाने का विरोध किया था और उसने उद्घाटन समारोह का बहिष्कार किया था। सुषमा स्वराज ने तब ओआईसी के सीएफएम की बैठक को संबोधित किया था।
इस बैठक में जो प्रस्ताव पास किया गया था उसमें कश्मीर का कोई ज़िक्र नहीं था। इसमें पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के उस फ़ैसले का स्वागत किया गया था जिसमें उन्होंने भारत के विंग कमांडर अभिनंदन को वापस भेजा था।
ओआईसी के विदेश मंत्रियों की बैठक के बाद आने वाले प्रस्ताव में कश्मीर का ज़िक्र कोई नई बात नहीं है। इसे पहले भी ज़िक्र होता रहा है। इस बार के प्रस्ताव को नियामे डेक्लेरेशन कहा जा रहा है। इसके ऑपरेटिव पैराग्राफ़ आठ में कहा गया है कि ओआईसी जम्मू-कश्मीर विवाद का समाधान यूएन सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव के हिसाब से शांतिपूर्ण चाहता है और उसका यही रुख़ हमेशा से रहा है।
पाँच अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म किए जाने के बाद ओआईसी के विदेश मंत्रियों की यह पहली बैठक थी। पाकिस्तान को उम्मीद थी कि इस बार भारत के ख़िलाफ़ कश्मीर को लेकर कोई कड़ा बयान जारी किया जाएगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
भारत में पाकिस्तान के राजदूत रहे अब्दुल बासित ने ट्विटर पर एक वीडियो पोस्ट किया है और उन्होंने इसमें नियामे डेक्लरेशन को लेकर कई बातें कही हैं।
बासित ने कहा है, ''पाँच अगस्त के बाद ओआईसी के विदेश मंत्रियों की यह पहली बैठक थी और हमें उम्मीद थी कि भारत को लेकर कुछ कड़ा बयान जारी किया जाएगा। हमें लगा था कि भारत के फ़ैसले की निंदा की जाएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। डेक्लरेशन में पाकिस्तान के लिए बहुत ख़ुश करने वाली बात नहीं है।''
उन्होंने कहा, ''जिस तरह से इस डेक्लरेशन में फ़लस्तीन, अज़रबैजान और आतंकवाद को लेकर ज़िक्र है वैसा कश्मीर का नहीं है। पिछले साल की तुलना में इस बात से ख़ुश हो सकते हैं कि चलो इस बार कम से कम ज़िक्र तो हुआ। पाँच अगस्त को भारत ने जो किया उसकी निंदा होनी चाहिए थी लेकिन ये ऐसा नहीं हुआ। नाइजर के भारत के साथ अच्छे ताल्लुकात हैं और जिस कन्वेंशन सेंटर में यह कॉन्फ़्रेंस हुई है वो भारत की मदद से ही बना है।''
मालदीव भी ओआईसी का सदस्य है। इस बैठक में मालदीव के विदेश मंत्री अब्दुल्ला शाहिद शामिल हुए। अब्दुल्ला ने 27 नंवबर 2020 को एक ट्वीट किया था जिसमें नियामे के उस कॉन्फ़्रेंस सेंटर की तस्वीरें पोस्ट की थीं। इन तस्वीरों के साथ अब्दुल्ला ने अपने ट्वीट में लिखा है, ''ओआईसी की 47वीं सीएफ़एम की बैठक नियामे के ख़ूबसूरत महात्मा गाँधी इंटरनेशनल कॉन्फ़्रेंस सेंटर में हो रही है। जब दुनिया कई चुनौतियों और संकट से जूझ रही है ऐसे में साथ मिलकर ही इनका सामना किया जा सकता है।''
हालांकि पाकिस्तान कश्मीर का ज़िक्र भर होने से अपनी जीत के तौर पर देख रहा है। पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने ट्वीट कर कहा है, ''नियामे डेक्लरेशन में जम्मू-कश्मीर विवाद को शामिल किया जाना बताता है कि ओआईसी कश्मीर मुद्दे पर हमेशा से साथ खड़ा है।''
भारत ने कश्मीर का विशेष दर्जा जब से ख़त्म किया है तब से पाकिस्तान ओआईसी के सदस्य देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक बुलाने की मांग कर रहा था लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ था।
पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी ने अगस्त 2020 में ओआईसी से अलग होकर कश्मीर का मुद्दा उठाने की धमकी दे डाली थी। इससे सऊदी अरब नाराज़ हो गया था और पाकिस्तान को स्पष्टीकरण जारी करना पड़ा था। लेकिन तब तक बात बिगड़ गई थी और इसे संभालने के लिए पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा को सऊदी का दौरा करना पड़ा था।
भारत में भारतीय रिज़र्व बैंक की ओर से गठित एक आंतरिक कार्य समूह की हाल की रिपोर्ट चर्चा का विषय बनी हुई है।
इस आंतरिक कार्य समूह (आईडब्ल्यूजी) का गठन भारत के निजी क्षेत्र के बैंकों के लिए मौजूदा स्वामित्व दिशा-निर्देशों और कॉरपोरेट संरचना की समीक्षा करने के लिए किया गया था।
इस कार्य समूह की सिफारिशें इसलिए चर्चा का कारण बनी हुई हैं क्योंकि इसमें सुझाव दिया गया है कि बैंकिंग विनियमन अधिनियम, 1949 में आवश्यक संशोधन के बाद बड़े कॉरपोरेट/ औद्योगिक घरानों को बैंकों के प्रवर्तकों के रूप में अनुमति दी जा सकती है।
इसका मतलब ये है कि अडानी, अंबानी, टाटा, पिरामल और बजाज जैसे बड़े कॉरपोरेट घराने बैंक के लिए लाइसेंस ले सकते हैं और अगर वो उपयुक्त पाए जाते हैं तो वो बैंक भी खोल सकते हैं।
इस बात पर बहस नहीं की जा सकती कि भारतीय बैंकिंग प्रणाली अत्यधिक कमज़ोर है।
आंतरिक कार्य समूह की रिपोर्ट कहती है, ''1947 में भारत की आज़ादी के समय व्यावसायिक बैंक (इनमें से कई बैंक कारोबारी घरानों के नियंत्रण में थे) सामाजिक उद्देश्यों को पूरा करने में पिछड़ गए थे। इसलिए भारत सरकार ने 1969 में 14 और 1980 में 6 बड़े व्यावसायिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था।''
''हालांकि, नब्बे के दशक के प्रारंभ में आर्थिक सुधारों की शुरुआत के साथ, निजी बैंकों की भूमिका को तेज़ी से स्वीकारा गया है।''
रिपोर्ट में इस तथ्य पर भी विचार किया गया है कि ''भारतीय बैंकिंग क्षेत्र में पिछले कुछ वर्षों में काफ़ी वृद्धि हुई है लेकिन भारत में बैंकों की कुल बैलेंस शीट अब भी जीडीपी के 70 फ़ीसद से कम है, जो कि वैश्विक स्तर पर मौजूद समकक्षों के मुक़ाबले बहुत कम है, वो भी एक बैंक-प्रभुत्व वाली वित्तीय प्रणाली के लिए।''
इसका मतलब ये है कि भारतीय बैंक एक विकासशील अर्थव्यवस्था की वित्त की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
वर्तमान में स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया भारत का एकमात्र ऐसा बैंक है जो दुनिया के शीर्ष 100 बैंकों का हिस्सा है। रिपोर्ट बताती है कि निजी क्षेत्र के बैंक सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को पीछे छोड़ रहे हैं क्योंकि वो अधिक कुशल, लाभदायक और जोखिम लेने वाले हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक़, ''सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक निजी बैंकों के हाथों लगातार बाज़ार में हिस्सेदारी खो रहे हैं, ये प्रक्रिया पिछले पाँच सालों में तेज़ हुई है।''
इसमें कोई संदेह नहीं कि अगर भारत पाँच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनना चाहता है, तो उसे अपने बैंकिंग क्षेत्र को बढ़ाना होगा और आईडब्ल्यूजी के सुझाव ज़्यादातर इसी से जुड़े हुए हैं।
लेकिन, आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन और पूर्व डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने इससे आने वाली समस्या को उठाया है। रघुराम राजन ने अपने लिंक्डइन अकाउंट पर इसे लेकर पोस्ट शेयर किया है।
इस तीन पेज के पोस्ट में उन्होंने कहा है कि कॉरपोरेट घरानों को बैंकिंग क्षेत्र में आने की अनुमति देना विस्फोटक है।
उन्होंने इन सिफ़ारिशों के समय को लेकर भी सवाल उठाया है।
राजन और आचार्य ने एक संयुक्त पोस्ट में कहा है, ''क्या हमें ऐसा कुछ पता चला है जो हमें औद्योगिक घरानों को बैंकिंग में अनुमति देने से पहले की सभी सावधानियों की अवहेलना करने की अनुमति देता है? हम बहस नहीं करेंगे। असल में, इसके उलट, आज ये और भी महत्वपूर्ण है कि बैंकिंग में कॉरपोरेट भागीदारी को लेकर आज़माई गईं और परखी हुईं सीमाओं को बनाए रखा जाए।''
राजन और आचार्य का कहना है कि अगर ऐसा करने की अनुमति दी जाती है तो आर्थिक ताक़त कुछ ही कॉरपोरेट्स के हाथों में सिमट कर रह जाएगी।
इन कॉरपोरेट्स को ख़ुद भी वित्तपोषण की ज़रूरत होती है और ऐसे में वो अपने ही बैंकों से जब चाहे आसानी से पैसा निकाल लेंगे। उनसे सवाल करना बहुत मुश्किल होगा। ये ऋण की बुरी स्थिति की ओर ले जाएगा।
राजन और आचार्य ने लिखा है, ''ऐसे जुड़े हुए ऋणों का इतिहास बेहद विनाशकारी रहा है। जब क़र्ज़दार ही बैंक का मालिक होगा, तो ऐसे में बैंक ठीक से ऋण कैसे दे पाएंगे? दुनियाभर की सूचनाएं पाने वाले एक स्वतंत्र और प्रतिबद्ध नियामक के लिए भी ख़राब क़र्ज़ वितरण पर रोक लगाने के लिए हर जगह नज़र रखना मुश्किल होता है। ऋण प्रदर्शन को लेकर जानकारी शायद ही कभी समय पर आती है या सटीक होती है। यस बैंक अपने कमज़ोर ऋण जोखिमों को काफ़ी समय तक छुपाने में कामयाब रहा था।''
उन्होंने यह भी कहा कि नियामक इन संस्थाओं के कारण भारी राजनीतिक दबाव में भी आ सकता है।
राजन और आचार्य का कहना था, ''इसके अलावा, अत्यधिक ऋणग्रस्त और राजनीति से जुड़े व्यावसायिक घरानों के पास लाइसेंस के लिए ज़्यादा ज़ोर लगाने की क्षमता होगी। इससे हमारी राजनीति में पैसे की ताक़त का महत्व और अधिक बढ़ जाएगा।''
दोनों ने इस बात पर सहमति जताई है कि भारत को और बैंकों की ज़रूरत है क्योंकि जीडीपी के लिए जमा धन बहुत कम है यानी देश में अपने देयताएं चुकाने की कितनी क्षमता है?
उन्होंने इस पर ज़ोर दिया है कि ''आरबीआई ने पहले औद्योगिक घरानों को पेमेंट बैंकों के साथ आने की अनुमति दी है। ये बैंक रिटेल क़र्ज़ (जैसे पर्सनल लोन, क्रेडिट कार्ड और गिरवी रखना) देने के लिए अन्य बैंकों के साथ गठजोड़ कर सकते हैं।''
उन्होंने कहा है कि जब हमारे पास पहले से ये विकल्प हैं तो हमें औद्योगिक घरानों को पूरा बैंक खोलने का लाइसेंस देने की क्या ज़रूरत है? अभी क्यों? वो भी उस समय पर जब हम आईएलएफएस और यस बैंक की विफलता से सबक़ सीखने की कोशिश कर रहे हैं?
इस सिफ़ारिश के समय और इरादों के अलावा दोनों ने ये सुझाव दिया है कि ख़राब प्रदर्शन करने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को कॉरपोरेट्स के हवाले कर दिया जाना बेहद मूखर्तापूर्ण होगा।
इन सार्वजनिक बैंकों को कॉरपोरेट्स को देने का मतलब है कि हम इन मौजूदा बैंकों के ख़राब प्रशासन को कॉरपोरेट्स के विवादित स्वामित्व के हवाले कर देंगे।
अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी एसएंडपी ग्लोबल रेटिंग्स ने भी इन सिफ़ारिशों को लेकर चिंता ज़ाहिर की है। एजेंसी ने कहा है, "कॉरपोरेट्स को बैंक खोलने की इजाज़त देने में हितों में टकराव, आर्थिक ताक़त का केंद्रीयकरण और वित्तीय स्थिरता से जुड़ी आंतरिक कार्य समूह की चिंताएं संभावित जोखिम हैं।''
इस बात में कोई शक नहीं है कि भारत को वृद्धि करने के लिए वित्त की आवश्यकता है और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक ऐसा करने में सक्षम नहीं हैं।
सरकार कोरोना वायरस महामारी के कारण पहले ही बड़ी चुनौतियों का सामना कर रही है। ऐसे में वित्तीय क्षमता रखने वाले बड़े औद्योगिक घराने भारत में पैसे की कमी को पूरा कर सकते हैं। लेकिन, इन कॉरपोरेट्स को पूरी तरह बैंकों का मालिक बनने देना कितना सुरक्षित है, इस सवाल का जवाब आरबीआई को देना बाक़ी है।
आरबीआई ने समिति की रिपोर्ट पर अपने विचार व्यक्त करने के लिए आमंत्रित किया है जिसे 15 जनवरी, 2021 तक प्रस्तुत किया जा सकता है।
ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी ने कहा है कि देश के वरिष्ठ परमाणु वैज्ञानिक की हत्या से देश के परमाणु कार्यक्रम की रफ्तार धीमी नहीं पड़ेगी।
शीर्ष परमाणु वैज्ञानिक मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह की हत्या के लिए हसन रूहानी ने इसराइल पर आरोप लगाया और कहा कि ये कदम बताता है कि वो कितना परेशान हैं और हमसे कितनी घृणा करते हैं।
इससे पहले ईरान ने संयुक्त राष्ट्र के महासचिव और सुरक्षा परिषद से अपने शीर्ष परमाणु वैज्ञानिक मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह की हत्या की निंदा करने की अपील की थी।
अब तक मिली जानकारी के मुताबिक़ फ़ख़रीज़ादेह पर राजधानी तेहरान से सटे शहर अबसार्ड में बंदूकधारियों ने घात लगाकर हमला किया। हालांकि अब तक किसी हमलावर के पकड़े जाने की कोई ख़बर नहीं मिली है।
ईरान के संयुक्त राष्ट्र के लिए राजदूत माजिद तख्त रवांची ने कहा कि मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह की हत्या अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों का स्पष्ट उल्लंघन है, जिसे क्षेत्र में अशांति फैलाने के मक़सद से अंजाम दिया गया।
वहीं संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेश ने इस मामले में संयम बरतने की अपील की है।
रॉयटर्स के मुताबिक़, गुटेरेश के प्रवक्ता फरहान हक ने 27 नवंबर 2020 को कहा, ''हमने आज तेहरान के पास हुई एक ईरानी परमाणु वैज्ञानिक की हत्या की ख़बरों को नोट किया है। हम संयम बरतने और ऐसी किसी भी कार्रवाई से बचने का आग्रह करते हैं जिससे क्षेत्र में तनाव बढ़ सकता है।''
अन्य ईरानी अधिकारियों ने इसराइल पर हत्या के आरोप लगाए हैं और बदला लेने की चेतावनी दी है।
इसराइल ने अब तक इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है, लेकिन वो पहले मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह पर एक गुप्त परमाणु हथियार कार्यक्रम का मास्टरमाइंड होने का आरोप लगा चुका है।
पूरा मामला क्या है?
ईरान के रक्षा मंत्रालय ने जानकारी दी थी कि उसके एक शीर्ष परमाणु वैज्ञानिक मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह की हत्या कर दी गई है। हमले के बाद फ़ख़रीज़ादेह को स्थानीय अस्पताल में ले जाया गया लेकिन उनकी जान नहीं बचाई जा सकी।
ईरान के विदेश मंत्री मोहम्मद जवाद ज़रीफ़ ने फ़ख़रीज़ादेह की हत्या की निंदा करते हुए इसे 'राज्य प्रायोजित आतंक की घटना क़रार दिया'।
पश्चिमी देशों की ख़ुफ़िया एजेंसियों का मानना है कि ईरान के ख़ुफ़िया परमाणु हथियार कार्यक्रम के पीछे मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह का ही हाथ था।
विदेशी राजनयिक उन्हें 'ईरानी परमाणु बम के पिता' कहते थे। ईरान कहता रहा है कि उसका परमाणु कार्यक्रम शांतिपूर्ण मक़सद के लिए है।
साल 2010 और 2012 के बीच ईरान के चार परमाणु वैज्ञानिकों की हत्या की गई थी और ईरान ने इसके लिए इसराइल को ज़िम्मेदार ठहराया था।
मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह की हत्या कैसे हुई?
ईरान के रक्षा मंत्रालय ने 27 नवंबर 2020 को एक बयान जारी कर कहा, ''हथियारबंद आतंकवादियों ने रक्षा मंत्रालय के शोध और नवोत्पाद विभाग के प्रमुख मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह को ले जा रही कार को निशाना बनाया।''
मंत्रालय के मुताबिक़, ''आतंकवादियों और फ़ख़रीज़ादेह के अंगरक्षकों के बीच हुई झड़प में वो बुरी तरह घायल हो गए और उन्हें स्थानीय अस्पताल ले जाया गया लेकिन दुर्भाग्य से उनको बचाने की मेडिकल टीम की तमाम कोशिशें नाकाम रहीं।''
ईरान की समाचार एजेंसी फ़ारस के अनुसार चश्मदीदों ने पहले धमाके और फिर मशीनगन से फ़ायरिंग की आवाज़ सुनी थी।
एजेंसी के अनुसार चश्मदीदों ने तीन-चार चरमपंथियों के भी मारे जाने की बात कही है।
क्या इस हत्या में इसराइल का हाथ है?
ईरान के विदेश मंत्री जवाद ज़रीफ़ ने ट्वीट कर कहा, ''आतंकवादियों ने आज ईरान के एक प्रमुख वैज्ञानिक की हत्या कर दी है। ये बुज़दिल कार्रवाई, जिसमें इसराइल के हाथ होने के गंभीर संकेत हैं, हत्यारों की जंग करने के इरादे को दर्शाता है।''
ज़रीफ़ ने कहा, ''ईरान अंतरराष्ट्रीय समुदायों, ख़ासकर यूरोपीय संघ से गुज़ारिश करता है कि वो अपने शर्मनाक दोहरे रवैये को ख़त्म करके इस आतंकी कदम की निंदा करें।''
उन्होंने एक अन्य ट्वीट में कहा, ''ईरान एक बार फिर आतंकवाद का शिकार हुआ है। आतंकवादियों ने ईरान के एक महान विद्वान की बर्बरतापूर्वक हत्या कर दी है। हमारे नायकों ने दुनिया और हमारे इलाके में स्थिरता और सुरक्षा के लिए हमेशा आतंकवाद का सामना किया है। ग़लत काम करने वालों की सज़ा अल्लाह का क़ानून है।''
ईरानी सेना के इस्लामिक रेवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (आईआरजीसी) ने कहा है कि ईरान अपने वैज्ञानिक की हत्या का बदला ज़रूर लेगा।
इस्लामिक रेवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स के मेजर जनरल हुसैन सलामी ने कहा, ''परमाणु वैज्ञानिकों की हत्या करके हमें आधुनिक विज्ञान तक पहुँचने से रोकने की स्पष्ट कोशिश की जा रही है।''
मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह कौन थे?
मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह ईरान के सबसे प्रमुख परमाणु वैज्ञानिक थे और आईआरजीसी के वरिष्ठ अधिकारी थे। पश्चिमी देशों के सुरक्षा विशेषज्ञों के अनुसार वो ईरान में बहुत ही ताक़तवर थे और ईरान के परमाणु हथियार कार्यक्रम में उनकी प्रमुख भूमिका थी।
इसराइल ने साल 2018 में कुछ ख़ुफ़िया दस्तावेज़ हासिल करने का दावा किया था जिनके अनुसार मोहसिन ने ही ईरान के परमाणु हथियार कार्यक्रम की शुरुआत की थी।
उस समय नेतन्याहू ने प्रेसवार्ता में मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह को ईरान के परमाणु कार्यक्रम का प्रमुख वैज्ञानिक क़रार देते हए कहा था, ''उस नाम को याद रखें।''
साल 2015 में न्यूयॉर्क टाइम्स ने मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह की तुलना जे रॉबर्ट ओपनहाइमर से की थी। ओपनहाइमर वो वैज्ञानिक थे जिन्होंने मैनहट्टन परियोजना की अगुवाई की थी जिसने दूसरे विश्व युद्ध के दौरान पहला परमाणु बम बनाया था।
इसराइल ने फ़ख़रीज़ादेह की हत्या पर अब तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है।
मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह को निशाना क्यों बनाया गया?
ईरानी रक्षा मंत्रालय में रिसर्च ऐंड इनोवेंशन विभाग के प्रमुख के तौर पर मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह निश्चित तौर पर एक अहम शख़्सियत थे। यही वजह है कि इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू ने दो साल पहले चेतावनी भरे लहजे में कहा था 'उनका नाम याद रखिए'।
जबसे अमेरिका 2015 के ईरान परमाणु समझौते से अलग हुआ है, ईरान तेज़ी से आगे बढ़ा है। ईरान ने कम संवर्धन वाले यूरेनियम का भंडार इकट्ठा किया है और समझौते में तय हुए स्तर से ज़्यादा यूरेनियम का संवर्धन किया है।
ईरानी अधिकारी शुरू से ये कहते आए हैं कि संवर्धित यूरेनियम को नष्ट किया जा सकता है लेकिन शोध और विकास की दिशा में हुए कामों को मिटाना बेहद मुश्किल है।
इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी (आईएईए) में ईरान के पूर्व राजदूत अली असग़र सुत्लानिया ने हाल ही में कहा था, ''हम वापस पीछे नहीं लौट सकते।''
अगर मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह वाक़ई ईरान के परमाणु कार्यक्रम के लिए वाक़ई उतने महत्वपूर्ण थे जितना कि इसराइल अपने आरोपों में बताया आया है, तो उनकी हत्या शायद ये बताती है कि कोई ईरान के आगे बढ़ने की गति पर लगाम लगाने की कोशिश कर रहा है।
अमरीका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडन ने कहा था कि सत्ता में आने के बाद वो ईरान परमाणु समझौते में वापसी करेंगे। मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह की हत्या ऐसी किसी संभावना को मुश्किल बनाने की एक कोशिश भी हो सकती है।
भारत में रिलायंस इंडस्ट्रीज़ ने हाल ही में चेन्नई आधारित ऑनलाइन फ़ार्मेसी कंपनी नेटमेड्स में 620 करोड़ रुपये का निवेश किया है।
रिलायंस रिटेल वेंचर्स ने विटालिक हेल्थ और इसकी सहयोगियों में ये निवेश किया है। इस समूह की कंपनियों को नेटमेड्स के तौर पर जाना जाता है।
रिलायंस इंडस्ट्रीज़ के ऑनलाइन फ़ार्मा कंपनी में इतने बड़े निवेश के साथ ही भारत में ऑनलाइन फ़ार्मेसी या ई-फ़ार्मेसी में ज़बरदस्त प्रतिस्पर्धा शुरू होने का अनुमान लगाया जा रहा है।
इसमें अमेज़न पहले ही प्रवेश कर चुका है। बेंगलुरु में इसकी फ़ार्मा सर्विस का पायलट प्रोजेक्ट शुरू हो चुका है। वहीं, फ्लिपकार्ट भी इस क्षेत्र में आने की तैयारी में है।
नेटमेड्स एक ई-फ़ार्मा पोर्टल है जिस पर प्रिस्क्रिप्शन आधारित दवाओं और अन्य स्वास्थ्य उत्पादों की बिक्री की जाती है। ये कंपनी दवाओं की घर पर डिलवरी कराती है।
इसी तरह ई-फ़ार्मेसी के क्षेत्र में पहले से ही कई स्टार्टअप्स मौजूद हैं। जैसे 1mg, PharamaEasy, Medlife आदि।
इन बड़े प्लेयर्स के आने से पहले से विवादों में रहे ई-फ़ार्मेसी प्लेटफॉर्म को लेकर अब फिर से बहस छिड़ गई है।
रिटेलर्स और फ़ार्मासिस्ट का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्थाओं ने इससे लाखों लोगों का रोज़गार छिनने को लेकर चिंता जताई है। लेकिन, ई-फ़ार्मा कंपनियां इससे इनकार करती हैं।
मुकेश अंबानी को लिखा पत्र
ऑल इंडिया ऑर्गेनाइजेशन ऑफ़ केमिस्ट एंड ड्रगिस्ट एसोसिएशन (एआईओसीडी) ने रिलायंस इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड के चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर मुकेश अंबानी को पत्र लिखकर उनके नेटमेड्स में निवेश को लेकर आपत्ति जताई है।
इस पत्र में लिखा है, ''रिलायंस इंडस्ट्री के स्तर की कंपनी को एक अवैध उद्योग में निवेश करते देखना बेहद दुखद है।'' पत्र कहता है कि ई-फ़ार्मेसी उद्योग औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम (ड्रग्स एंड कॉस्मैटिक्स एक्ट) के तहत नहीं आता, जो दवाइयों के आयात, निर्माण, बिक्री और वितरण को विनियमित करता है।
एआईओसीडी ने ऐसा ही एक पत्र अमेज़न को लिखा है। ये पत्र भारत के पीएम नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, केंद्रीय वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री पीयूष गोयल और अन्य मंत्रालयों को भी भेजा गया है।
वर्किंग मॉडल से नौकरियों पर ख़तरा
बड़ी-बड़ी कंपनियों के ई-फ़ार्मेसी उद्योग में क़दम रखने के साथ ही रिटेलर्स और फ़ार्मासिस्ट की चिंताएं बढ़ गई हैं। उनका प्रतिनिधित्व करने वाले संस्थान ई-फ़ार्मेसी को लेकर दो तरह से आपत्ति जता रहे हैं।
पहला, उनका मानना है कि ई-फ़ार्मेसी प्लेटफ़ॉर्म्स के वर्किंग मॉडल से लाखों रिटेलर्स और फ़ार्मासिस्ट की नौकरियां जा सकती हैं। उनका कारोबार बंद पड़ सकता है।
दूसरा, वो ई-फ़ार्मा कंपनियों के संचालन के क़ानूनी पक्ष को लेकर सवाल उठाते हैं।
इंडियन फ़ार्मासिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष अभय कुमार कहते हैं कि ई-फ़ार्मा प्लेटफ़ॉर्म का जो वर्किंग मॉडल है वो फ़ार्मासिस्ट की नौकरियों को धीरे-धीरे ख़त्म कर देगा।
अभय कुमार कहते हैं, ''ई-फ़ार्मा प्लेटफॉर्म्स अपने स्टोर, वेयरहाउस या इनवेंट्री बनाएंगे, जहां वो सीधे कंपनियों या वितरक से दवाएं लेकर स्टोर करेंगे और फिर ख़ुद वहां से दवाइयां सप्लाई करेंगे। ऐसे में जो स्थानीय केमिस्ट की दुकान है उसकी भूमिका ख़त्म हो जाएगी।''
''फ़ार्मासिस्ट की नौकरियों पर तो पहले ही संकट है। अस्पतालों में फ़ार्मासिस्ट के जो ख़ाली पद हैं वो भरे नहीं जाते। तीन साल की पढ़ाई के बाद युवा ख़ुद को बेरोज़गार पाते हैं। ऐसे में केमिस्ट के तौर पर जो उनके पास कमाई का ज़रिया है क्या आप उसे भी छीन लेना चाहते हैं?"
ई-फ़ार्मा कंपनियों का बहुत ज़्यादा डिस्काउंट देना भी रिटेलर्स के लिए चिंता का कारण बना हुआ है। एआईओसीडी के अध्यक्ष जे.एस. शिंदे कहते हैं कि ई-फ़ार्मा कंपनियां जिस तरह ज़्यादा डिस्काउंट देती हैं एक छोटा रिटेलर उनसे मुक़ाबला नहीं कर पाएगा।
जे.एस. शिंदे ने बताया, ''रिटेलर को 20 प्रतिशत और होलसेलर को 10 प्रतिशत मार्जिन मिलता है। लेकिन, ई-फ़ार्मेसी में आए नए प्लेयर्स 30 से 35 प्रतिशत तक डिस्काउंट दे रहे हैं। ये डीप डिस्काउंट दे सकते हैं, कुछ नुक़सान भी उठा सकते हैं लेकिन, सामान्य रिटेलर के पास इतनी पूंजी नहीं है। इससे ग्राहकों को भी समस्या होगी क्योंकि जब रिटेलर्स बाज़ार से हट जाएंगे तो इनका एकाधिकार हो जाएगा और क़ीमतों पर नियंत्रण मुश्किल होगा।''
वह बताते हैं कि पूरे देश में क़रीब साढ़े आठ लाख रिटेलर्स हैं और डेढ़ लाख स्टॉकिस्ट और सबस्टॉकिस्ट हैं, जिनकी रोज़ी-रोटी छीनने वाली है। इसमें काम करने वाले लोग और उनका परिवार मिलाकर क़रीब 1.9 करोड़ लोग बेसहारा हो जाएंगे। कोरोना वायरस के चलते मंदी की मार झेल रहे लोगों पर ये दोहरी मार होगी।
क्या कहती हैं ई-फ़ार्मा कंपनियां
लेकिन, ई-फ़ार्मा कंपनियां इन सभी आरोपों से पूरी तरह इनकार करती हैं। उनका कहना है कि उनके वर्किंग मॉडल को लेकर लोगों में भ्रांतियां हैं। उनका काम करने का तरीक़ा नौकरियां लेने की बजाय ग्राहकों के लिए सुविधा बढ़ाएगा, दवाइयों तक पहुंच आसान बनाएगा और फ़ार्मासिस्ट के लिए मांग बढ़ाएगा।
दवाओं की ऑनलाइन सेलिंग में दो तरह के बिज़नस मॉडस काम करते हैं। एक मार्केटप्लेस और दूसरा इनवेंट्री लेड हाइब्रिड (ऑनलाइन/ऑफलाइन) मॉडल।
मार्केटप्लेस मॉडल में ई-फ़ार्मेसी प्लेटफॉर्म ग्राहक से ऑनलाइन प्रेसक्रिप्शन लेते हैं। ये प्रेसक्रिप्शन सीधे वेबसाइट या ऐप पर अपलोड करके, व्हाट्सऐपस, ई-मेल या फैक्स के ज़रिए दे सकते हैं। फिर उस प्रेसक्रिप्शन को स्थानीय लाइसेंस प्राप्त फ़ार्मासिस्ट (केमिस्ट) के पास पहुंचाया जाता है, वहां से दवाई लेकर ग्राहक को डिलीवरी की जाती है।
वहीं, इनवेंट्री मॉडल में ई-फ़ार्मेसी प्लटेफॉर्म चलाने वाली कंपनी ख़ुद दवाइयों का स्टॉक रखती हैं और प्रेसक्रिप्शन के आधार पर दवाएं डिलिवर करती हैं। वो ऑनलाइन प्लेटफॉर्म ही एक तरह से केमिस्ट का काम करता है।
कुछ कंपनियां हाइब्रिड मॉडल पर काम कर रही हैं। वो दवाओं के वेयरहाउस या स्टोर भी रखती हैं और स्थानीय केमिस्ट से संपर्क के ज़रिए भी दवाएं पहुंचाती हैं। उनके पास दवाओं का वेयरहाउस या स्टोर बनाने का लाइसेंस होता है।
अब रिटेलर्स और फ़ार्मासिस्ट की चिंताएं इनवेंट्री या हाइब्रिड मॉडल को लेकर है क्योंकि इसमें केमिस्ट की दुकानों की भूमिका ख़त्म हो जाएगी।
लेकिन, प्रमुख ई-फ़ार्मेसी कंपनियों के एसोसिएशन डिजिटल हेल्थ प्लेटफॉर्म का कहना है कि ई-फ़ार्मा प्लेटफॉर्म पूरी तरह मार्केटप्लेस मॉडल पर काम करेंगे।
डिजिटल हेल्थ प्लेटफॉर्म के संयोजक डॉक्टर वरुण गुप्ता ने बताया, ''ई-फार्मेसी मॉडल को लेकर कई तरह की भ्रांतियां हैं। ई-फार्मेसी मार्केटप्लेस मॉडल मौजूदा फार्मेसी को ऑनलाइन सेवाएं देने में मदद करेगा। यह अलग-अलग फार्मेसी को एक प्लेटफॉर्म पर जोड़कर एक नेटवर्क तैयार करेगा। इससे, इंवेंट्री प्रबंधन बेहतर होगा, पहुंच बढ़ेगी, क़ीमतें कम होंगी और ग्राहकों को बेहतर सेवाएं मिलेंगी।''
डॉक्टर वरुण कहते हैं कि कोविड-19 महामारी ने दिखाया है कि कैसे दवाओं की बिक्री में दोनों माध्यम एक साथ काम कर सकते हैं। किसी भी शुरुआत को लेकर लोगों में असुरक्षा और चिंता होती है। नई तकनीक आने पर ऐसा ही विरोध पहले भी देखने को मिला है।
ऑनलाइन फ़ार्मेसी उद्योग से जुड़े एक विशेषज्ञ का ये भी कहना है कि वो बहुत ज़्यादा डिस्काउंट नहीं देते। अगर कोई लगातार इतना डिस्काउंट देगा तो वो बाज़ार में नहीं टिक पाएगा। ई-फ़ार्मेसी प्लेटफॉर्म अपना मार्जिन स्थानीय फार्मासिस्ट के साथ तय करते हैं।
अभय कुमार का कहना है कि अगर कंपनियां मार्केटप्लेस मॉडल अपनाती हैं और फ़ार्मासिस्ट के लिए अवसर पैदा करती हैं तो उन्हें इससे कोई आपत्ति नहीं लेकिन ऐसा होने की संभावना बहुत कम है। अब भी कुछ प्लेटफॉर्म हाइब्रिड मॉडल पर काम कर रहे हैं। इसमें उन्हें ज़्यादा फ़ायदा है। इसलिए हम इसका विरोध करते हैं।
ई-फ़ार्मेसी प्लेटफ़ॉर्म और मौजूदा क़ानून
ई-फ़ार्मा कंपनियां कई सालों से भारतीय बाज़ार में काम कर रही हैं लेकिन अभी बहुत छोटे स्तर पर हैं। कोरोना वायरस के चलते हुए लॉकडाउन में ई-फ़ार्मा प्लेटफ़ॉर्म का इस्तेमाल भी बढ़ा है। ज़्यादातर क्रॉनिक दवाएं यानी लंबे समय से चली आ रही बीमारियों की दवाओं के लिए इनका उपयोग किया जाता है।
आंकड़ों की बात करें तो इकोनॉमिक्स टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में साल 2023 तक ई-फ़ार्मेसीज के लिए दवाओं का बाज़ार 18.1 अरब डॉलर तक पहुँच सकता है। 2019 में ये 9.3 अरब डॉलर था।
लेकिन, ई-फ़ार्मेसी प्लेटफॉर्म की वैधता को लेकर लंबे समय से सवाल उठते रहे हैं। यहां तक कि ये मामला कोर्ट भी पहुँच चुका है।
जे.एस. शिंदे कहते हैं, ''ई-फ़ार्मेसी फ़िलहाल औषधि एवं सौंदर्य प्रसाधन अधिनियम के तहत कवर नहीं होती है इसलिए इन्हें चलाना गैर-क़ानूनी है। इस अधिनियम में दवाओं की ऑनलाइन बिक्री का ज़िक्र नहीं है। इसलिए इन पर निगरानी रखना और नियंत्रित करना मुश्किल है।''
वहीं, ई-फार्मा कंपनियां ये दावा करती आई हैं कि वो क़ानूनी दायरे में काम कर रहे हैं। डॉक्टर वरुण गुप्ता बताते हैं कि ई-फ़ार्मा का बिज़नस मॉडल इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट, 2000 में बिचौलिए की अवधारणा के तहत आता है और लाइसेंस प्राप्त फ़ार्मासिस्ट (जो प्रेसक्रिप्शन से दवाएं देते हैं) ड्रग्स एंड कॉस्मैटिक एक्ट के तहत आते हैं। ई-फ़ार्मा कंपनियां इस मॉडल के तहत ही काम कर रही हैं।
ई-फ़ार्मेसी को लेकर बना ड्राफ़्ट
कई पक्षों के आपत्ति जताने के बाद 28 अगस्त 2018 में दवाओं की ऑनलाइन बिक्री के नियमन यानी उन्हें क़ानून के तहत लाने के लिए नियमों का एक ड्राफ़्ट तैयार किया गया था। इसके आधार पर ड्रग्स एंड कॉस्मैटिक रूल्स, 1945 में संशोधन किया जाना था। इस ड्राफ़्ट पर आम जनता/ हितधारकों से राय माँगी गई थी।
इस ड्राफ़्ट में ई-फ़ार्मा कंपनियों के रिजस्ट्रेशन, ई-फ़ार्मेसी के निरीक्षण, ई-फ़ार्मेसी के माध्यम से दवाओं के वितरण या बिक्री के लिए प्रक्रिया, ई-फ़ार्मेसी के माध्यम से दवाओं के विज्ञापन पर रोक, शिकायत निवारण तंत्र, ई-फ़ार्मेसी की निगरानी, आदि से जुड़े प्रावधान थे। लेकिन, आगे इस पर कुछ ख़ास नहीं हो पाया है।
दिसंबर 2018 में ये मामला दिल्ली हाई कोर्ट पहुँचा तो कोर्ट ने बिना लाइसेंस के दवाओं की ऑनलाइन बिक्री पर रोक लगाने का आदेश दिया। इसके बाद मद्रास की सिंगल बेंच ने ड्राफ़्ट के नियम अधिसूचित होने तक दवाओं का ऑनलाइन कारोबार ना करने के निर्देश दिए। लेकिन, जनवरी 2019 में मद्रास की डिविजन बेंच ने इस निर्देश पर रोक लगा दी।
चर्चा है कि सरकार औषधि एवं सौदर्य प्रसाधन अधिनियम में संशोधन करने पर विचार कर रही है ताकि दवाओं की ऑनलाइन बिक्री को भी उसके दायरे में लाया जा सके।
लेकिन, फ़ार्मासिस्ट और रिटेलर्स एसोसिएशन इसे लेकर सभी पक्षों पर विचार करके इससे जुड़े नियम-क़ानून बनाने की माँग कर रहे हैं।
जे.एस. शिंदे कहते हैं कि जिन देशों में ई-फ़ार्मेसी उद्योग चल रहा है वहां इसके क्या प्रभाव पड़े हैं और उनसे बचने के लिए भारत में क्या किया जाए इसका अध्ययन किया जाना चाहिए। सभी पक्षों पर गौर किए बिना इसकी अनुमति ना दी जाए।
उन्होंने बताया कि हम सरकार को 21 दिनों का नोटिस देंगे कि वो हमारी चिंताएं सुने और कोई क़दम उठाए। अगर सरकार की तरफ़ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आती है तो सभी दवा विक्रेता हड़ताल पर जाएंगे।
संयुक्त राष्ट्र की परमाणु निगरानी एजेंसी ने कहा है कि अंतरराष्ट्रीय परमाणु समझौते के तहत ईरान जितना संवर्धित यूरेनियम रख सकता है, उसने उससे 10 गुना से भी अधिक यूरेनियम इकट्ठा कर लिया है।
इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी (IAEA) ने कहा है कि ईरान के पास एनरिच किये गए यूरेनियम का भंडार अब 2,105 किलो हो गया है, जबकि 2015 के समझौते के तहत यह 300 किलोग्राम से अधिक नहीं हो सकता था।
ईरान ने बीते साल जुलाई में कहा था कि उसने यूरेनियम संवर्धन के लिए नए और उन्नत तकनीक वाले सेंट्रीफ़्यूज उपकरणों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है।
सेंट्रीफ़्यूज का इस्तेमाल यूरेनियम के रासायनिक कणों को एक-दूसरे से अलग करने के लिए किया जाता है।
ईरान में दो जगहों- नतांज़ और फ़ोर्दो में यूरेनियम का संवर्धन किया जाता है।
संवर्धन के बाद इसका उपयोग परमाणु ऊर्जा या फिर परमाणु हथियारों को विकसित करने के लिए भी किया जा सकता है।
ईरान लंबे वक़्त से इस बात पर ज़ोर देता है कि उसका परमाणु कार्यक्रम सिर्फ़ शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए है।
ईरान ने आईएईए के पर्यवेक्षकों को अपने दो पूर्व संदिग्ध परमाणु ठिकानों में से एक की जाँच करने की इजाज़त दी थी।
अब एजेंसी ने कहा है कि वह इसी महीने दूसरे ठिकाने से भी सैंपल लेगी।
पिछले साल ईरान ने जानबूझकर और खुलकर 2015 में हुए परमाणु समझौते के वादों का उल्लंघन शुरू कर दिया था।
इस परमाणु समझौते पर ईरान के साथ अमरीका, ब्रिटेन, रूस, जर्मनी, फ़्रांस और चीन ने भी दस्तख़त किये थे।
ईरान ने 2019 में अनुमति से अधिक यूरेनियम का संवर्धन शुरू कर दिया था। हालांकि, यह परमाणु हथियार बनाने के लिए ज़रूरी स्तर से काफ़ी कम था।
क्या इससे परमाणु हथियार बना सकता है ईरान?
परमाणु हथियार बनाने के लिए ईरान को 3.67 प्रतिशत संवर्धित 1,050 किलो यूरेनियम की ज़रूरत होगी। मगर अमरीका के एक समूह 'आर्म्स कंट्रोल एसोसिएशन' का कहना है कि बाद में इसे 90 प्रतिशत और संवर्धित किया जाना होगा।
कम संवर्धित तीन से पाँच प्रतिशत घनत्व वाले यूरेनियम के आइसोटोप U-235 को ईंधन की तरह इस्तेमाल करके बिजली बनाई जा सकती है।
हथियार बनाने के लिए जो यूरेनियम इस्तेमाल होता है वह 90 प्रतिशत या इससे अधिक संवर्धित होता है।
विशेषज्ञों का कहना है कि अगर ईरान चाहे भी, तो भी उसे एनरिचमेंट की प्रक्रिया पूरी करने में लंबा समय लगेगा।
पिछले सप्ताह ईरान ने कहा था कि उसने 'सद्भाव' में हथियार पर्यवेक्षकों को अपने ठिकानों की जाँच करने दी है, ताकि परमाणु सुरक्षा से जुड़े मसलों का समाधान किया जा सके।
आईएईए ने इस बात को लेकर ईरान की आलोचना की थी कि वह दो ठिकानों की जाँच की अनुमति नहीं दे रहा और गोपनीय ढंग से रखी गई परमाणु सामग्री और इससे जुड़ी गतिविधियों को लेकर सवालों के जवाब नहीं दे रहा।
अब इस अंतरराष्ट्रीय निगरानी एजेंसी ने एक बयान जारी करके कहा है कि ''ईरान ने एजेंसी के पर्यवेक्षकों को सैंपल लेने दिये हैं। इन नमूनों की एजेंसी के नेटवर्क की प्रयोगशालाओं में जाँच होगी।''
ईरान ने पिछले साल अंतरराष्ट्रीय परमाणु समझौते की शर्तों का पालन करना बंद कर दिया था। उसने यह क़दम अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ओर से इस समझौते से हटने का एलान करने के बाद उठाया था।
भारत में अंडमान द्वीप समूह के एक टापू पर रहने वाली दुर्लभ जनजाति के कुछ सदस्य कोरोना से संक्रमित पाए गए हैं।
बीबीसी के मुताबिक, एक स्वास्थ्य अधिकारी ने बताया है कि ग्रेट अंडमानीज़ जनजाति के चार सदस्यों में संक्रमण हुआ है। इनमें से दो को अस्पताल में भर्ती करवाया गया है। अन्य दो को एक केयर सेंटर में क्वारंटीन में रखा गया है।
ऐसा माना जाता है कि ग्रेट अंडमानीज़ जनजाति के अब सिर्फ़ 53 लोग ज़िंदा हैं और अंडमान निकोबार द्वीप समूह के 37 रिहायशी द्वीपों में से एक के निवासी हैं।
अंडमान निकोबार द्वीप समूह के पूर्वी हिस्से में अब तक कोरोना वायरस के संक्रमण के 2985 मामले दर्ज किए गए हैं। इन में से 41 लोगों की जान भी गई है। यहां पहला मामला जून के शुरुआत में दर्ज किया गया था।
बीबीसी के मुताबिक, एक वरिष्ठ स्वास्थ्य अधिकारी डॉक्टर अभिजीत रॉय ने बताया कि ग्रेट अंडमानीज़ जनजाति में संक्रमण का पहला मामला, पिछले हफ़्ते तब सामने आया जब स्ट्रेट आईलैंड पर इस जनजाति के 53 सदस्यों का कोरोना टेस्ट किया गया।
स्वास्थ्य और इमरजेंसी अधिकारियों का एक दल पिछले हफ़्ते स्ट्रेट आईलैंड पर पहुँचा था जहां ये जनजाति रहती है।
बीबीसी के मुताबिक, डॉक्टर अभिजीत रॉय ने बताया, ''वो सभी लोग काफ़ी सहयोग कर रहे थे।''
डॉक्टर रॉय का कहना है कि इनमें से कई लोग अपने अलग-थलग पड़े द्वीप से पोर्ट ब्लेयर आते-जाते रहते हैं। और हो सकता है कि संक्रमण उन्हीं के ज़रिए यहां तक पहुंचा हो।
इन में से कुछ लोग शहर में छोटी-मोटी नौकरियाँ भी करते हैं।
अब स्वास्थ्य अधिकारियों की सबसे बड़ी चुनौती ये है कि संक्रमण बाक़ी द्वीपों की जनजातियों तक न फैले।
डॉक्टर रॉय कहते हैं, ''हम इनकी गतिविधियों पर नज़र रख रहे हैं। साथ ही कुछ और जनजातियों की सामूहिक टेस्टिंग भी कर रहे हैं।''
अंडमान की जनजातियाँ
अंडमान द्वीप समूह पाँच विलुप्त होने की कगार पर खड़ी जनजातियों का घर है। ये हैं - जरावा, नॉर्थ सेंटीनेलीज़, ग्रेट अंडमानीज़, ओंग और शोम्पेन।
इनमें जरावा और नॉर्थ सेंटीनेलीज़ जनजातियाँ, आम लोगों के संपर्क में नहीं आई हैं। नॉर्थ सेंटीनेलीज़ तो बाहर के लोगों के प्रति काफ़ी आक्रामक हैं। इसीलिए उनके द्वीप पर किसी को भी जाने की अनुमति नहीं है।
साल 2018 में जॉन एलेन चाउ नाम के एक अमरीकी ने इनके टापू पर जाने का प्रयास किया था लेकिन उसे इस जनजाति के सदस्यों ने तीरों से मार दिया था।
यहां की जनजातियों के बीच काम करने वाली लंदन स्थित संस्था, सर्वाइवल इंटरनेशनल के मुताबिक़ 1850 में जब ब्रिटेन ने इन द्वीपों को उपनिवेश बनाया था, तब यहां 5,000 के क़रीब ग्रेट अंडमानीज़ थे।
बाहर के लोगों के आने के साथ यहां नई बीमारियाँ भी आईं जिनके कारण इनकी आबादी लगातार घटती चली गई।
इस संस्था की एक शोधकर्ता सोफ़ी ग्रिग ने बताया, ''ये बहुत ही ख़तरनाक ख़बर है कि ग्रेट अंडमानीज़ जनजाति में कुछ लोग संक्रमित पाए गए हैं। उन लोगों को ऐसी बीमारियों के बारे में मालूम है क्योंकि पहले भी उनके पुरखे इनकी चपेट में आकर मर चुके हैं।''
साल 2010 में ग्रेट अंडमानीज़ भाषा बोलने वाले अंतिम बुज़ुर्ग, बोआ सीनियर की क़रीब 85 साल की उम्र में मौत हो गई थी।
अंडमान द्वीप समूह को एंथ्रोपोलॉजी के शोधकर्ताओं का स्वप्न लोक कहा जाता है क्योंकि यहां कि भाषाई विविधता चकित करने वाली है।
जरावा जनजाति की भी फ़िक्र
अधिकारियों का कहना है कि इसी बीच क़रीब 476 सदस्यों वाली जरावा जनजाति के लोगों को, जंगल के एक हिस्से में भेज दिया गया है, ताकि ये संक्रमण से महफ़ूज़ रह सकें। जरावा लोग साउथ और मिडिल अंडमान के बीच के एक फ़ॉरेस्ट रिज़र्व में रहते हैं।
अधिकारियों को डर है कि ये जनजाति कहीं ऐसे लोगों के संपर्क में न आ जाए जो यहां से गुज़रने वाले ग्रेंड अंडमान रोड का इस्तेमाल करते हों।
इन यात्रियों के ज़रिए कोरोना संक्रमण जरावा तक पहुँचने की संभावना को दूर करने के लिए ही उन्हें अलग-थलग कर दिया गया है।
अंडमान ट्रंक रोड 1870 में बना था। ये फॉरेस्ट रिज़र्व के बीचोंबीच 400 गांवो से होकर, बारातांग से दिगलीपुर तक जाता है।
बाक़ी जनजातियाँ भी रडार पर
अब स्वास्थ्य कर्मियों की एक टीम ओंग जनजाति के 115 सदस्यों का टेस्ट करने जाएगी। इसके अलावा शोंपेन जनजाति के लोगों की भी टेस्टिंग की जाएगी।
जो भी स्वास्थ्यकर्मी ग्रेट अंडमानीज़ ट्राइब की टेस्टिंग में शामिल थे, उनका पहले कोरोना टेस्ट किया गया था और वापस लौटने पर उन्हें एक सप्ताह तक क्वारंटीन में रखा गया था।
डॉक्टर रॉय ने बताया कि अंडमान द्वीप समूह के अब तक दस द्वीपों पर संक्रमण पाया गया है।
अंडमान में कोविड से लड़ने के लिए दो अस्पताल, तीन स्वास्थ्य केंद्र और दस केयर सेंटर हैं। यहां भारत के बाक़ी हिस्सों की तुलना में टेस्टिंग रेट भी काफ़ी अधिक है।
ब्राज़ील और पेरु में भी जनजातियाँ कोविड 19 की चपेट में आई हैं। ब्राज़ील के अमेज़न के जंगलों में रहने वाली जनजातियों के 280 से अधिक लोग कोरोनावायरस की वजह से मारे गए हैं।
रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने ख़ुद ही मंगलवार को कोरोना वायरस की दुनिया की पहली वैक्सीन बनाने की घोषणा की थी। रूस ने इस वैक्सीन का नाम स्पूतनिक 5 रखा है।
जब पूरी दुनिया कोरोना वायरस से त्रस्त है ऐसे में वैक्सीन बनने को लेकर जश्न मनाया जाना चाहिए था लेकिन इतनी उदासीनता क्यों है?
ऐसा इसलिए है कि वैक्सीन बनाने की दौड़ में दुनिया के कई देश शामिल थे। ऐसे में रूस का बाज़ी मार जाना कई देशों को नागवार गुजरा। ऐसा इसलिए है कि कई देश कोरोना महामारी को भी अवसर के रूप के देखते है। उनके लिए कोरोना महामारी व्यापार का बड़ा अवसर लेकर आया है।
रूस के द्वारा सबसे पहले वैक्सीन बनाने की घोषणा से इन देशों को इस महामारी से खरबों डॉलर कमाने के मंसूबों पर पानी फिरता नज़र आ रहा है। दूसरी तरफ़ रूस अपनी वैक्सीन की आपूर्ति करने के लिए तैयार है। जो इन देशों के जले पर नमक छिड़कने के समान है। अब वैक्सीन के दौड़ में पिछड़ने के बाद ये देश रूस के वैक्सीन में तरह-तरह का कमी निकालने की कोशिश करेंगे।
भारत में कोरोना के कारण हालात लगातार बद से बदतर हो रहे हैं। कोरोना से मरने वालों की संख्या के हिसाब से भारत चौथे नंबर पर पहुँच गया है। तब भी रूस की वैक्सीन को लेकर कोई उत्साह नहीं है। भारत में गुरुवार तक कोरोना वायरस के मामलों का आंकड़ा 24,61,190 तक पहुंच गया है। भारत में एक दिन में 64,553 नए मामले सामने आए और 1,007 लोगों की मौत हो गई।
अब तक कोरोना वायरस से होने वाली मौतों की संख्या 48,040 हो गई है। देश में कोरोना वायरस के 6,61,595 एक्टिव मामले मौजूद हैं और 17,51,555 लोग डिस्चार्ज हो चुके हैं।
राज्यों के स्तर पर देखें तो सबसे ज़्यादा मामले महाराष्ट्र में हैं। यहां अब तक 56,01,26 मामले आ चुके हैं। सबसे कम 649 मामले मिजोरम में हैं।
भारत को समझना होगा कि या तो वह खुद जल्द से जल्द अपना वैक्सीन बना ले। या उसे जहाँ से भी वैक्सीन मिले, उसे खरीद कर पूरे देश में लोगों को वैक्सीन दे। भारत को यह समझना होगा कि उसे वैक्सीन कोई भी देश मुफ्त में तो देगा नहीं, फिर किसी देश का इंतजार क्यों? भारत को सिर्फ अपने नागरिकों के बारे में सोचना होगा, अन्यथा जिस तेजी से भारत में कोरोना महामारी फ़ैल रही है, उससे भारत को गंभीर परिणाम भुगतने होंगे।
भारत की तुलना में ब्राज़ील कोरोना वायरस की महामारी में बुरी तरह से जकड़ा हुआ है। यहां एक लाख से ज़्यादा लोगों की मौत भी हो चुकी है। इसके बावजूद ब्राज़ील रूसी वैक्सीन को लेकर संदेहग्रस्त और उदासीन है। ब्राज़ील ने कहा है कि रूसी वैक्सीन ख़रीदने से पहले उसे और सूचना चाहिए।
ब्राज़ील के स्वास्थ्य मंत्री ने गुरुवार को कहा कि रूसी वैक्सीन को लेकर वो अभी और बात करेंगे। कोरोना वायरस की चपेट में सबसे बुरी तरह से आने वालों देशों में ब्राज़ील दूसरे नंबर पर है।
ब्राज़ील अपने यहां कई वैक्सीन का ट्रायल भी करवा रहा है। ब्राज़ील के स्वास्थ्य मंत्री एडुअर्डो पाज़ेउलो ने कहा कि रूसी वैक्सीन अभी शुरुआती चरण में है।
उन्होंने कहा, ''अभी तो यह वैक्सीन आई ही है। इसके बारे में मेरे पास ऐसी कोई विस्तृत जानकारी नहीं है जिसके आधार पर कुछ कह सकूं। हमलोग इसके डेटा की निगरानी नहीं कर रहे हैं। अभी इसके बारे में बहुत कुछ बात करने की ज़रूरत है।''
सीएनएन के अनुसार रूस ने अमरीका को कोविड 19 से निपटने के लिए अपनी वैक्सीन देने का प्रस्ताव रखा था लेकिन अमरीका ने ऐसी कोई भी मदद लेने से इनकार कर दिया है।
सीएनएन से एक रूसी अधिकारी ने कहा, ''दोनों देशों में भरोसे की कमी है ऐसे में टेक्नोलॉजी, वैक्सीन, टेस्टिंग और इलाज में सहयोग शायद ही संभव है।''
गुरुवार को व्हाइट हाउस की प्रेस सेक्रेटरी काइली मैकनानी ने कहा था कि राष्ट्रपति ट्रंप को रूस की वैक्सीन के बारे में जानकारी दी गई है। काइली ने कहा कि अमरीका में वैक्सीन का काम चल रहा है और सब कुछ सकारात्मक है।
उन्होंने कहा कि अमरीका की वैक्सीन तीसरे चरण के ट्रायल में है और बहुत ही मानक स्तर का है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी रूस की वैक्सीन के बारे में कहा है कि उसे इसके बारे में बहुत जानकारी नहीं है इसलिए वो कोई मूल्यांकन नहीं कर सकता।
रूस की वैक्सीन पर भारत ने अभी आधिकारिक रूप से कुछ नहीं कहा है।
जम्मू-कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान को सऊदी अरब का साथ नहीं मिला तो पाकिस्तान ने सऊदी अरब को आड़े हाथों ले लिया।
पिछले दिनों पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी ने कश्मीर के मुद्दे पर भारत के ख़िलाफ़ इस्लामिक देशों के संगठन ऑर्गनाइज़ेशन ऑफ़ इस्लामिक कॉपरेशन (ओआईसी) के खड़े नहीं होने को लेकर सऊदी अरब की सार्वजनिक तौर पर आलोचना की थी।
एक टीवी शो के दौरान शाह महमूद क़ुरैशी ने कहा था, ''मैं एक बार फिर सम्मान के साथ ओआईसी को विदेश मंत्रियों की काउंसिल की बैठक बुलाने का अनुरोध कर रहा हूँ। अगर आप इसे योजित नहीं करते हैं, तो मैं प्रधानमंत्री इमरान ख़ान को उन इस्लामी देशों की बैठक बुलाने को कहने के लिए मजबूर हो जाऊँगा, जो कश्मीरे के मुद्दे पर हमारे साथ हैं और उत्पीड़ित कश्मीरियों का समर्थन करते हैं।''
सऊदी अरब ने पहले ही कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने को भारत का अंदरूनी मामला बताया है।
हालाँकि जून के महीने में ओआईसी के कॉन्टैक्ट ग्रुप के विदेश मंत्रियों की आपातकालीन बैठक में 5 अगस्त, 2019 के बाद भारत के जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकार की स्थिति और हालात पर चिंता ज़ाहिर की गई थी।
बैठक में यह भी कहा गया था कि भारत सरकार की ओर से 5 अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर को लेकर जो फ़ैसला किया गया है और नए डोमिसाइल नियम लागू किए गए हैं, वो संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव और अंतरराष्ट्रीय क़ानून (जिसमें चौथा जिनेवा कन्वेंशन भी शामिल है) का उल्लंघन है।
साथ ही संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव को मानने की भारत की प्रतिबद्धता का भी उल्लंघन है।
ओआईसी मुख्य तौर पर सऊदी अरब के पूर्ण नियंत्रण में है। सऊदी अरब जो चाहता है, वही ओआईसी में होता है। ओआईसी में सऊदी अरब की मर्जी के खिलाफ एक पत्ता भी नहीं हिलता है। ओआईसी मुस्लिम देशों का संगठन होने के बजाय सऊदी अरब का बपौती बन गया है।
पाकिस्तान की आलोचनात्मक टिप्पणी के बाद सऊदी अरब ने उससे एक बिलियन डॉलर का क़र्ज़ चुकाने को कहा है।
साल 2018 में सऊदी अरब ने पाकिस्तान को 3.2 बिलियन डॉलर का क़र्ज़ दिया था। क़र्ज़ नहीं चुका पाने की वजह से सऊदी अरब ने मई से ही पाकिस्तान को तेल देना बंद कर रखा है।
पाकिस्तान की मीडिया में भी शाह महमूद कुरैशी के बयान की आलोचना हो रही है, क्योंकि इससे पाकिस्तान पर क़र्ज़ लौटाने का दबाव बढ़ गया है।
विशेषज्ञ इसे पाकिस्तान को लेकर सऊदी अरब के रुख़ में बड़े बदलाव के तौर पर देख रहे हैं।
पाकिस्तान को लेकर सऊदी अरब के रवैए में आए इस बदलाव पर जेएनयू में दक्षिण एशिया अध्ययन केंद्र के प्रोफेसर संजय भारद्वाज कहते हैं, ''इसे वैश्विक स्तर पर हो रहे बदलावों के तौर पर देखना होगा। यह एशियाई देशों के बीच बदल रहे समीकरणों की वजह से है। अमरीका और चीन एशियाई देशों में अपने अलग-अलग समीकरण बना रहे हैं।''
''सऊदी अरब परंपरागत रूप से अमरीका का सहयोगी रहा है और सऊदी अरब का इस्लामी दुनिया में एक तरह से दबदबा है। अब इस वक़्त जब अमरीका और चीन के बीच एक नए शीतयुद्ध की स्थिति बनी हुई है, तो चीन अपनी पैठ एशियाई देशों में बनाने की कोशिश में लगा हुआ है और इसके लिए नए समीकरण बना रहा है।''
वो आगे बताते हैं, ''चीन ईरान के साथ एक बड़ा डील करने जा रहा है। पाकिस्तान में भी चीन का बड़ा निवेश ग्वादर बंदरगाह और चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कोरिडॉर (सीपीईसी) के रूप में हो रहा है। इस तरह पाकिस्तान और ईरान दोनों ही चीन के नज़दीक हो रहे हैं, फिर चाहे मामला निवेश या भूराजनीतिक संबंधों का हो।''
''वास्तव में चीन इस्लामी दुनिया में सऊदी अरब का विकल्प खड़ा करना चाहता है। इसके लिए वो ईरान, मलेशिया और पाकिस्तान जैसे देशों की ओर देख रहा है। मलेशिया में एक बड़ा इस्लामी शिखर सम्मेलन भी हुआ है, जिसमें पाकिस्तान और ईरान ने बढ़चढ़ कर शिरकत की है और इसमें सऊदी अरब मौजूद नहीं था।''
इसके अलावा पाकिस्तान सरकार ने 2018 में चीन के साथ साल 2013 में हुए तकरीबन 50 अरब डॉलर के आर्थिक समझौते सीपीईसी में सऊदी अरब को शामिल करने की घोषणा की थी। इस मसले पर इमरान सरकार को विपक्षी दलों की आलोचना का सामना भी करना पड़ा था।
लेकिन बाद में पाकिस्तान की सरकार ने अपने इस फ़ैसले पर यू-टर्न लेते हुए स्पष्टीकरण दिया था कि सीपीईसी द्विपक्षीय समझौता ही रहेगा।
पिछले कई सालों में खाड़ी देशों ख़ास तौर पर सऊदी अरब के साथ भारत की नज़दीकियाँ बढ़ी हैं। भारत, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब के बीच आर्थिक संबंधों के अलावा अब सुरक्षा नीति को लेकर भी संबंध गहरा रहे हैं।
प्रोफेसर संजय भारद्वाज बताते हैं, ''इन बदलते समीकरणों में भारत, अमरीका और संयुक्त अरब अमीरात स्वाभाविक पार्टनर बनते जा रहे हैं। सऊदी अरब और ईरान कभी साथ आ नहीं सकते और सऊदी अरब के अमरीका के नज़दीक होने की वजह से वो भारत के भी क़रीब होता जा रहा है। वास्तव में ये बदलते समीकरण वैश्विक पैमाने पर हो रहे बदलावों का नतीजा है।''
लेकिन क्या चीन पाकिस्तान और ईरान से बढ़ती नज़दीकियों की वजह से खाड़ी देशों के बाज़ार में अपने हितों से समझौता करने को तैयार है?
प्रोफेसर संजय भारद्वाज बताते हैं कि चीन निश्चित तौर पर खाड़ी देशों के बाज़ार में अपनी संभावनाएँ तलाशने में लगा है, लेकिन जहाँ तक भूरणनीतिक सवाल है, तो ईरान और पाकिस्तान उसके लिए सऊदी अरब से ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं। चीन सऊदी अरब को ज़रूर थोड़ा अमरीका के प्रभाव से बाहर निकालना चाहता है, लेकिन वो ये पाकिस्तान और ईरान की क़ीमत पर कभी नहीं करना चाहता है। इसके अलावा चीन पाकिस्तान और बांग्लादेश को साथ लाने की कोशिश में भी लगा हुआ है।
बीबीसी उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार सक़लैन इमाम इस मसले को सिर्फ़ एशिया में अमरीका और चीन के बदलते समीकरणों के लिहाज से ही नहीं देखते और ना ही ये मानते हैं कि सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच कोई शत्रुतापूर्ण रिश्तों की शुरुआत हो गई है। वो फ़िलहाल दोनों देशों के बीच तनाव होने की बात जरूर मानते हैं।
जो मौजूदा समीकरणों में बदलाव हो रहे हैं, इसमें वो इसराइल और ईरान की भूमिका देखते हैं।
वो कहते हैं, ''पहली बार सऊदी अरब में एक ऐसा किंग बनने वाला है जो लंबे समय तक रहने वाला है। तो अमरीका इस लिहाज से इस बदलाव को देखते हुए भविष्य के हिसाब से अपनी रणनीति तय कर रहा है। दूसरी तरफ़ किंग को स्थानीय समर्थन के साथ-साथ हमेशा विदेशी समर्थन की भी ज़रूरत पड़ती है, क्योंकि क़बायली समाज में स्थानीय स्तर पर बग़ावत का ख़तरा बना रहता है और इसलिए विदेशी ताक़त के समर्थन की ज़रूरत रहती है। अमरीका अभी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान को समर्थन कर रहा है। इसके बावजूद उसमें भविष्य में असुरक्षा की भावना बनी हुई है। ये मुख्य तौर पर इसराइल और ईरान की वजह से है।''
वो आगे बताते हैं, ''ये जितने भी देशों के आपसी रिश्तों के समीकरण में बदलाव हो रहे हैं, उसके पीछे इसराइल और ईरान हैं। अमरीका और चीन इनके पीछे से हैं। इन सबमें जो सबसे महत्वपूर्ण और निर्याणक भूमिका निभा रहा है, तो वो इसराइल है। यही वजह है कि मोहम्मद बिन सलमान के आने के बाद सऊदी अरब के रिश्ते इसराइल के साथ इतिहास के सबसे बेहतरीन दौर में है। इससे पहले कभी इतने अच्छे नहीं रहे हैं। लेकिन आज ईरान के ख़िलाफ़ ये दोनों देश एकजुट हैं। इसके साथ ही इसराइल को एक सबसे प्रभावी मुस्लिम देश के तौर पर सऊदी अरब का साथ मिल रहा है।''
वो कहते हैं, ''पहले सऊदी अरब की पहचान एक वहाबी मुल्क के तौर पर थी, ना कि सुन्नी मुल्क के तौर पर, लेकिन अब उसकी पहचान सुन्नी मुल्क के तौर पर बना दी गई है। इससे यह संदेश देने की कोशिश की गई है कि जो भी ईरान के ख़िलाफ़, वो सऊदी अरब का साथी है। इसलिए अब सऊदी अरब, भारत और इसराइल एक तरफ़ हो रहे हैं क्योंकि ये अमरीका के साथ है। तो दूसरी तरफ़ मुशर्रफ़ के ज़माने से ही पाकिस्तान धीरे-धीरे चीन के ज़्यादा नज़दीक होता जा रहा है। इसराइल इस समीकरण को बनाने में बड़ी भूमिका निभा रहा है और वो ईरान के सख़्त ख़िलाफ़ है।''
वैसे एक बात बता दे कि वहाबी भी सुन्नी ही होते हैं।
सऊदी अरब और पाकिस्तान के बदलते रिश्तों पर सक़लैन इमाम बताते हैं कि हमेशा सऊदी अरब के किंगडम की सुरक्षा के लिए पाकिस्तानी फ़ौज साठ के दशक से जाती रही है।
सऊदी अरब के साथ ये सैन्य ताल्लुकात आज भी क़ायम है। सिर्फ़ फ़र्क ये आया कि मोहम्मन बिन सलमान अपने भविष्य को सुरक्षित करने के लिए पश्चिम के ज़्यादा नज़दीक हो गए हैं लेकिन उन्होंने आज भी पाकिस्तान की आर्मी को बेदखल नहीं किया है।
इसलिए इन दोनों देशों के बीच एक तनाव की स्थिति तो ज़रूर बनी है लेकिन यह कोई दुश्मनी जैसी बात नहीं है।
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के मुताबिक़, कोरोना वायरस महामारी से हुए नुकसान से निबटने के लिए भारत को तत्काल तीन क़दम उठाने चाहिए।
बड़े तौर पर भारत में आर्थिक सुधार कार्यक्रम का श्रेय डॉ. मनमोहन सिंह को दिया जाता है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस हफ़्ते बीबीसी से ईमेल के ज़रिए बातचीत की है। कोरोना वायरस के चलते आमने-सामने बैठकर चर्चा की गुंजाइश नहीं थी। हालांकि, डॉ. सिंह ने एक वीडियो कॉल के ज़रिए इंटरव्यू से इनकार कर दिया।
ईमेल के ज़रिए हुई बातचीत में मनमोहन सिंह ने कोरोना वायरस संकट को रोकने और आने वाले वर्षों में आर्थिक स्थितियां सामान्य करने के लिए ज़रूरी तीन क़दमों का ज़िक्र किया है।
डॉ. सिंह के सुझाए तीन क़दम क्या हैं?
वे कहते हैं, पहला क़दम यह है कि सरकार को ''यह सुनिश्चित करना चाहिए कि लोगों की आजीविका सुरक्षित रहे और अच्छी-ख़ासी सीधे नक़दी मदद के ज़रिए उनके हाथ में खर्च लायक पैसा हो।''
दूसरा, सरकार को कारोबारों के लिए पर्याप्त पूंजी उपलब्ध करानी चाहिए। इसके लिए एक ''सरकार समर्थित क्रेडिट गारंटी प्रोग्राम चलाया जाना चाहिए।''
तीसरा, सरकार को ''सांस्थानिक स्वायत्तता और प्रक्रियाओं'' के ज़रिए वित्तीय सेक्टर की समस्याओं को हल करना चाहिए।
महामारी शुरू होने से पहले से ही भारत की अर्थव्यवस्था सुस्ती की चपेट में थी। 2019-20 में भारत की जीडीपी (ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट यानी सकल घरेलू उत्पाद) महज 4.2 फ़ीसदी की दर से बढ़ी है। यह बीते क़रीब एक दशक में इसकी सबसे कम ग्रोथ रेट है।
लंबे और मुश्किल भरे लॉकडाउन के बाद भारत ने अब अपनी अर्थव्यवस्था को धीरे-धीरे खोलना शुरू किया है। लेकिन, संक्रमितों की संख्या लगातार बढ़ रही है और ऐसे में भविष्य अनिश्चित जान पड़ रहा है।
गुरुवार को कोविड-19 केसों के लिहाज से भारत 20 लाख का आँकड़ा पार करने वाला तीसरा देश बन गया।
गहरी और लंबी चलने वाली आर्थिक सुस्ती
अर्थशास्त्री तब से ही चेतावनी दे रहे हैं कि वित्तीय वर्ष 2020-21 के लिए भारत की जीडीपी ग्रोथ में गिरावट आ सकती है और इसके चलते 1970 के दशक के बाद की सबसे बुरी मंदी देखने को मिल सकती है।
पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह कहते हैं, ''मैं 'डिप्रेशन' जैसे शब्द का इस्तेमाल नहीं करना चाहता, लेकिन एक गहरी और लंबी चलने वाली आर्थिक सुस्ती तय है।''
वे कहते हैं, ''मानवीय संकट की वजह से यह आर्थिक सुस्ती आई है। इसे महज़ आर्थिक आँकड़ों और तरीक़ों की बजाय हमारे समाज की भावना के नज़रिए से देखने की ज़रूरत है।''
पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. सिंह कहते हैं कि अर्थशास्त्रियों के बीच में भारत में आर्थिक संकुचन (इकनॉमिक कॉन्ट्रैक्शन यानी आर्थिक गतिविधियों का सुस्त हो जाना) को लेकर सहमति बन रही है। वे कहते हैं, ''अगर ऐसा होता है तो आज़ादी के बाद भारत में ऐसा पहली बार होगा।''
वे कहते हैं, ''मैं आशा करता हूं कि यह सहमति ग़लत साबित हो।''
बिना विचार किए लॉकडाउन लागू किया गया
भारत ने मार्च के अंत में ही लॉकडाउन लागू कर दिया था ताकि कोरोना वायरस को फैलने से रोका जा सके। कई लोगों का मानना है कि लॉकडाउन को हड़बड़ाहट में लागू कर दिया गया और इसमें इस बात का अंदाज़ा नहीं लगाया गया कि लाखों प्रवासी मज़दूर बड़े शहरों को छोड़कर अपने गाँव-कस्बों के लिए चल पड़ेंगे।
डॉ. सिंह का मानना है कि भारत ने वही किया जो कि दूसरे देश कर रहे थे और ''शायद उस वक़्त लॉकडाउन के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था।''
वे कहते हैं, ''लेकिन, सरकार के इस बड़े लॉकडाउन को अचानक लागू करने से लोगों को असहनीय पीड़ा उठानी पड़ी है। लॉकडाउन के अचानक किए गए ऐलान और इसकी सख़्ती के पीछे कोई विचार नहीं था और यह असंवेदनशील था।''
डॉ. सिंह के मुताबिक़, ''कोरोना वायरस जैसी सार्वजनिक स्वास्थ्य आपात स्थितियों से सबसे अच्छी तरह से स्थानीय प्रशासन और स्वास्थ्य अफसरों के ज़रिए निबटा जा सकता है। इसके लिए व्यापक गाइडलाइंस केंद्र की ओर से जारी की जातीं। शायद हमें कोविड-19 की जंग राज्यों और स्थानीय प्रशासन को कहीं पहले सौंप देनी चाहिए थी।''
डॉ. मनमोहन सिंह 90 के दशक के आर्थिक सुधारों के अगुवा रहे
एक बैलेंस ऑफ पेमेंट्स (बीओपी यानी किसी एक तय वक़्त में देश में बाहर से आने वाली कुल पूंजी और देश से बाहर जाने वाली पूंजी के बीच का अंतर) संकट के चलते भारत के तकरीबन दिवालिया होने की कगार पर पहुंचने के बाद बतौर वित्त मंत्री डॉ. सिंह ने 1991 में एक महत्वाकांक्षी आर्थिक सुधार कार्यक्रम की अगुआई की थी।
वो कहते हैं कि 1991 का संकट वैश्विक फैक्टर्स के चलते पैदा हुआ एक घरेलू संकट था। डॉ. सिंह के मुताबिक़, ''लेकिन, मौजूदा आर्थिक हालात अपनी व्यापकता, पैमाने और गहराई के चलते असाधारण हैं।''
वे कहते हैं कि यहां तक कि दूसरे विश्व युद्ध में भी ''पूरी दुनिया इस तरह से एकसाथ बंद नहीं हुई थी जैसी कि आज है।''
सरकार पैसों की कमी कैसे पूरी करेगी?
अप्रैल में नरेंद्र मोदी की बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार ने 266 अरब डॉलर के राहत पैकेज का ऐलान किया। इसमें नकदी बढ़ाने के उपायों और अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए सुधार के क़दमों का ऐलान किया गया था।
भारत के केंद्रीय बैंक रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया यानी आरबीआई ने भी ब्याज दरों में कटौती और लोन की किस्तें चुकाने में छूट देने जैसे क़दम उठाए हैं।
सरकार को मिलने वाले टैक्स में गिरावट आने के साथ अर्थशास्त्री इस बात पर बहस कर रहे हैं कि नक़दी की कमी से जूझ रही सरकार किस तरह से डायरेक्ट ट्रांसफर के लिए पैसे जुटाएगी, बीमारू बैंकों को पूंजी देगी और कारोबारियों को क़र्ज़ मुहैया कराएगी।
क़र्ज़ लेना ग़लत नहीं
डॉ. सिंह इसका जवाब उधारी को बताते हैं। वे कहते हैं, ''ज़्यादा उधारी (बौरोइंग) तय है। यहां तक कि अगर हमें मिलिटरी, हेल्थ और आर्थिक चुनौतियों से निबटने के लिए जीडीपी का अतिरिक्त 10 फ़ीसदी भी खर्च करना हो तो भी इससे पीछे नहीं हटना चाहिए।''
वे मानते हैं कि इससे भारत का डेट टू जीडीपी रेशियो (यानी जीडीपी और क़र्ज़ का अनुपात) बढ़ जाएगा, लेकिन अगर उधारी लेने से ''ज़िंदगियां, देश की सीमाएं बच सकती हैं, लोगों की आजीविकाएं बहाल हो सकती हैं और आर्थिक ग्रोथ बढ़ सकती है तो ऐसा करने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए।''
वे कहते हैं, ''हमें उधार लेने में शर्माना नहीं चाहिए, लेकिन हमें इस बात को लेकर समझदार होना चाहिए कि हम इस उधारी को कैसे खर्च करने जा रहे हैं?''
डॉ. सिंह कहते हैं, ''गुज़रे वक़्त में आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक जैसे बहुराष्ट्रीय संस्थानों से क़र्ज़ लेने को भारतीय अर्थव्यवस्था की कमज़ोरी माना जाता था, लेकिन अब भारत दूसरे विकासशील देशों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा मज़बूत हैसियत के साथ लोन ले सकता है।''
वे कहते हैं, ''उधार लेने वाले देश के तौर पर भारत का शानदार ट्रैक रिकॉर्ड है। इन बहुराष्ट्रीय संस्थानों से क़र्ज़ लेना कोई कमज़ोरी की निशानी नहीं है।''
पैसे छापने से बचना होगा
कई देशों ने मौजूदा आर्थिक संकट से उबरने के लिए पैसे छापने का फैसला किया है ताकि सरकारी खर्च के लिए पैसे जुटाए जा सकें। कुछ अहम देशों ने यही चीज़ भारत को भी सुझाई है। कुछ अन्य देशों ने इसे लेकर चिंता जताई है कि इससे महंगाई बढ़ने का ख़तरा पैदा हो जाएगा।
1990 के दशक के मध्य तक फिस्कल डेफिसिट (वित्तीय घाटा) की भरपाई सीधे तौर पर आरबीआई करता था और यह एक आम बात थी।
डॉ. सिंह कहते हैं कि भारत ''वित्तीय अनुशासन, सरकार और रिज़र्व बैंक के बीच संस्थागत स्वतंत्रता लाने और मुक्त पूंजी पर लगाम लगाने'' के साथ अब कहीं आगे बढ़ चुका है।
वे कहते हैं, ''मुझे पता है कि सिस्टम में ज़्यादा पैसे आने से ऊंची महंगाई का पारंपरिक डर शायद विकसित देशों में अब नहीं है। लेकिन, भारत जैसे देशों के लिए आरबीआई की स्वायत्तता को चोट के साथ ही, बेलगाम तरीक़े से पैसे छापने का असर करेंसी, ट्रेड और महंगाई के तौर पर भी दिखाई दे सकता है।''
डॉ. सिंह कहते हैं कि वे घाटे की भरपाई करने के लिए पैसे छापने को ख़ारिज नहीं कर रहे हैं बल्कि वे ''महज़ यह सुझाव दे रहे हैं कि इसके लिए अवरोध का स्तर बेहद ऊंचा होना चाहिए और इसे केवल अंतिम चारे के तौर पर तब इस्तेमाल करना चाहिए जब बाक़ी सभी विकल्पों का इस्तेमाल हो चुका हो।''
संरक्षणवाद से बचे भारत
वे भारत को दूसरे देशों की तर्ज़ पर ज़्यादा संरक्षणवादी (आयात पर ऊंचे टैक्स लगाने जैसे व्यापार अवरोध लगाना) बनने से आगाह करते हैं।
वे कहते हैं, ''गुजरे तीन दशकों में भारत की ट्रेड पॉलिसी से देश के हर तबके को बड़ा फ़ायदा हुआ है।''
एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के तौर पर आज भारत 1990 के दशक की शुरुआत के मुक़ाबले कहीं बेहतर स्थिति में है।
डॉ. सिंह कहते हैं, ''भारत की वास्तविक जीडीपी 1990 के मुक़ाबले आज 10 गुना ज़्यादा मज़बूत है। तब से भारत ने अब तक 30 करोड़ से ज्यादा लोगों को ग़रीबी से बाहर निकाला है।''
लेकिन, इस ग्रोथ का एक अहम हिस्सा भारत का दूसरे देशों के साथ व्यापार रहा है। भारत की जीडीपी में ग्लोबल ट्रेड की हिस्सेदारी इस अवधि में क़रीब पाँच गुना बढ़ी है।
इस संकट ने सबको सकते में डाला
डॉ. सिंह कहते हैं, ''भारत आज दुनिया के साथ कहीं ज़्यादा घुलमिल गया है। ऐसे में दुनिया की अर्थव्यवस्था में घटने वाली कोई भी चीज़ भारत पर भी असर डालती है। इस महामारी में वैश्विक अर्थव्यवस्था पर बुरी चोट लगी है और यह भारत के लिए भी एक चिंता की बात है।''
फ़िलहाल किसी को भी यह नहीं पता कि कोरोना वायरस महामारी का पूरा आर्थिक असर क्या है? न ही किसी को यह पता कि देशों को इससे उबरने में कितना वक़्त लगेगा?
वे कहते हैं, ''पिछले संकट मैक्रोइकनॉमिक संकट थे जिनके लिए आजमाए हुए आर्थिक टूल मौजूद हैं। अब हम एक महामारी से पैदा हुए आर्थिक संकट का सामना कर रहे हैं जिसने समाज में अनिश्चितता और डर भर दिया है। इस संकट से निबटने के लिए मौद्रिक नीति को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करना कारगर साबित नहीं हो रहा है।''
क्या रक्षा उपकरणों के आयात पर प्रतिबंध लगाने से भारत आत्मनिर्भर बन जायेगा? वैसे तो भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने बड़ा ऐलान किया है और 101 रक्षा उपकरणों के आयात पर प्रतिबंध लगाने की बात की है। रक्षा मंत्री ने भारत को रक्षा उपकरणों के उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर बनाने की बात की है और इसका लक्ष्य 2024 रखा है। लेकिन क्या ऐसा हो पायेगा! क्या इसका भी वही हश्र होगा जो मेक इन इंडिया का हुआ?
भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने जिन 101 रक्षा उपकरणों के आयात पर प्रतिबंध लगाने की बात की है, क्या इन उपकरणों के निर्माण की तकनीक भारत के पास है? क्या अगले 4 साल यानि 2024 तक भारत इन रक्षा उपकरणों की तकनीक का अविष्कार कर लेगा? क्या भारत के निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग इन तकनीकों को विदेशी हथियार निर्माता कंपनियों से लाइसेंस समझौता करके इन रक्षा उपकरणों का भारत में निर्माण करेंगे? ये कुछ अहम सवाल हैं जिसका जवाब मिलना जरूरी है।
भारत की कंपनियां रिसर्च एंड डेवलपमेंट पर पैसे खर्च नहीं करती, इसके बदले विदेशी कंपनियों से लाइसेंस समझौता करके तकनीक हासिल करती है और फिर भारत में उत्पादन करती है। अगर ऐसा होता है तो इसे आत्म निर्भरता नहीं कही जाएगी और जो विदेशी हथियार निर्माता कंपनियां भारत को अपना हथियार सीधे बेचती हैं वे भारत की कंपनियों के माध्यम से बेचेगी। सबसे बड़ा सवाल कि घरेलू रक्षा उद्योग को चार लाख करोड़ रुपये का कॉन्ट्रैक्ट देने की बात कही गई है। ये किसे मिलेगा?
फ़िलहाल मोदी शासनकाल में सार्वजनिक रक्षा उद्योगों से कॉन्ट्रैक्ट छीनकर निजी रक्षा उद्योगों को दिया जा रहा है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण भारत सरकार की कंपनी हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड से राफेल लड़ाकू विमान का कॉन्ट्रैक्ट छीनकर रिलायंस नवल एंड इंजीनियरिंग लिमिटेड (रिलायंस डिफेन्स एंड इंजीनियरिंग लिमिटेड) को दे दिया गया जिससे रिलायंस डिफेन्स को राफेल लड़ाकू विमान की बिक्री के कमीशन के तौर पर लगभग 3000 करोड़ रुपये मिले। जब रिलायंस डिफेंस को राफेल का कॉन्ट्रैक्ट मिला था तो इस कंपनी के पास अपनी बिल्डिंग भी नहीं थी। तथाकथित आत्म निर्भरता के इस बड़े खेल को इस छोटे से उदाहरण से समझा जा सकता है। भारत में अभी तो आत्म निर्भरता का खेल शुरू हुआ है। बस देखते रहिये कि आत्म निर्भरता के खेल में आगे क्या-क्या होता है?
वास्तव में आत्म निर्भरता हासिल करनी है तो भारत में रिसर्च और डेवलपमेंट को बढ़ावा दिया जाये और सिर्फ उन्हीं कंपनियों को कॉन्ट्रैक्ट दिया जाये जो भारत में विकसित तकनीकों से ही उत्पादन करें और यह कॉन्ट्रैक्ट देने का अनिवार्य शर्त हो।
आइये भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की घोषणा पर एक नज़र डालते हैं।
भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने घोषणा की है कि रक्षा मंत्रालय अब आत्मनिर्भर भारत पहल में एक बड़ी भूमिका निभाने के लिए तैयार हो रहा है।
रक्षा उत्पादन के मामले में स्वदेशीकरण को बढ़ावा देने और सेना की आत्मनिर्भरता बढ़ाने के मकसद से रक्षा मंत्रालय 101 से ज्यादा वस्तुओं पर एम्बार्गो यानी आयात पर प्रतिबंध लगाएगा।
रक्षा मंत्री ने बताया कि इन वस्तुओं की सूची रक्षा मंत्रालय ने सभी संबंधित पक्षों से कई दफा परामर्श करने के बाद तैयार किया है। इसमें आर्म्ड फोर्सेज, निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग भी शामिल है ताकि वर्तमान और भविष्य में युद्ध उपकरणों को तैयार करने की क्षमता का आकलन किया जा सके।
चर्चा के बाद जो 101 वस्तुओं की सूची तैयार की गई है जिसमें सिर्फ आम चीज़ें ही शामिल नहीं है बल्कि कुछ उच्च तकनीक वाले हथियार भी हैं जैसे आर्टिलरी गन, असॉल्ट राइफल्स, ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट, LCHs रडार और दूसरी चीजें हैं जो देश की रक्षा सेवा की जरूरतों को पूरा करती है।
उन्होंने अगले 6-7 साल के लिए घरेलू रक्षा उद्योग को चार लाख करोड़ के कंट्रैक्ट देने की बात कही है।
इसके अलावा उन्होंने मौजूदा वित्त वर्ष 2020-21 में घरेलू रक्षा उद्योग के लिए 52 हज़ार करोड़ के अलग बजट की घोषणा की है।
उन्होंने कहा कि इन वस्तुओं के आयात पर प्रतिबंध तुरंत लगाने की बजाय धीरे-धीरे 2020 से 2024 के बीच लागू करने की योजना है।
उन्होंने आगे बताया कि इनमें से लगभग 1,30,000 करोड़ रुपये की वस्तुएं सेना और वायु सेना के लिए होगी तो वहीं नौसेना के लिए 1,40,000 करोड़ रुपये की वस्तुएं तैयार की जाएगी।