अयोध्या फ़ैसले से बाबरी मस्जिद तोड़ने वालों की मांग पूरी
भारत में सुप्रीम कोर्ट ने नौ नवंबर को अयोध्या में विवादित ज़मीन पर फ़ैसला सुनाते हुए मंदिर बनाने का रास्ता साफ़ कर दिया है।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पाँच जजों की बेंच ने सर्वसम्मति से फैसला मंदिर के पक्ष में सुनाया लेकिन साथ में यह भी कहा कि बाबरी मस्जिद तोड़ना एक अवैध कृत्य था।
फैसला में सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि मस्जिद के नीचे एक संरचना थी जो इस्लामी नहीं थी, लेकिन यह भी कहा है कि मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाए जाने का दावा भारतीय पुरातत्वविदों ने नहीं किया।
जब यह फ़ैसला आया तो अलग-अलग तरह से व्याख्या शुरू हुई। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस गांगुली उन पहले लोगों में थे जिन्होंने अयोध्या फ़ैसले पर कई सवाल खड़े किए। जस्टिस गांगुली का मुख्य सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने जिस आधार पर हिन्दू पक्ष को विवादित ज़मीन देने का फ़ैसला किया है, वो उनकी समझ में नहीं आया।
इन्हीं तमाम मुद्दों पर बीबीसी की भारतीय भाषाओं की संपादक रूपा झा ने जस्टिस गांगुली से बात की और उनसे पूछा कि इस फ़ैसले पर उनकी आपत्ति क्या और क्यों है? जस्टिस गांगुली का कहना है कि जिस तरह से ये फ़ैसला दिया गया वो उन्हें परेशान करता है।
उन्होंने कहा, ''बाबरी मस्जिद लगभग 450-500 सालों से वहां थी। यह मस्जिद 6 दिसंबर 1992 में तोड़ दी गई। मस्जिद का तोड़ा जाना सबने देखा है। इसे लेकर आपराधिक मुक़दमा भी चल रहा है। सुप्रीम कोर्ट की इस बेंच ने भी मस्जिद तोड़े जाने को अवैध कहा है और इसकी आलोचना की है। इसके साथ ही अदालत ने ये फ़ैसला दिया कि मस्जिद की ज़मीन रामलला यानी हिन्दू पक्ष की है। इसका कोई प्रमाण नहीं है कि मस्जिद जहां थी वहां मंदिर था और उसे तोड़कर बनाया गया था। कहा गया कि मस्जिद के नीचे कोई संरचना थी लेकिन इसके कोई सबूत नहीं हैं कि वो मंदिर ही था।''
जस्टिस गांगुली कहते हैं ये उनकी पहली आपत्ति है। दूसरी आपत्ति बताते हुए कहते हैं, ''विवादित ज़मीन देने का आधार पुरातात्विक साक्ष्यों को बनाया गया है। लेकिन यह भी कहा गया है कि पुरातात्विक सबूतों से ज़मीन के मालिकाना हक़ का फ़ैसला नहीं हो सकता। ऐसे में सवाल उठता है कि फिर किस आधार पर ज़मीन दी गई?''
सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या पर इस फ़ैसले में पुरातात्विक सबूतों के अलावा यात्रा वृतांतों का भी ज़िक्र किया है। इस पर जस्टिस गांगुली कहते हैं, ''यात्रा वृतांत सबूत नहीं हो सकता। इतिहास भी सबूत नहीं हो सकता। अगर हम पुरातात्विक खुदाई के आधार पर सबूतों का सहारा लेंगे कि वहां पहले कौन सी संरचना थी तो इसके ज़रिए हम कहां जाएंगे?''
''यहां तो मस्जिद पिछले 500 सालों से थी और जब से भारत का संविधान अस्तित्व में आया तब से वहां मस्जिद थी। संविधान के आने के बाद से सभी भारतीयों का धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार मिला हुआ है। अल्पसंख्यकों को भी अपने धार्मिक आज़ादी मिली हुई है। अल्पसंख्यकों का यह अधिकार है कि वो अपने धर्म का पालन करें। उन्हें अधिकार है कि वो उस संरचना का बचाव करें। बाबरी मस्जिद विध्वंस का क्या हुआ?''
जस्टिस गांगुली कहते हैं, ''2017 में स्टेट बनाम कल्याण सिंह के पैरा 22 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि बाबरी विध्वंस एक ऐसा अपराध था जिससे भारतीय संविधान की धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों को आघात पहुंचा है। ये मुक़दमा अभी चल रहा है और जिसने अपराध किया है उसे दोषी ठहराया जाना बाक़ी है। अपराध हुआ है इसमें कोई संदेह नहीं है और इससे भारतीय संविधान में लिखित धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों का गंभीर उल्लंघन हुआ है। ये बात सुप्रीम कोर्ट ने कही है। इसे अभी तय करना बाक़ी है कि किसने यह जुर्म किया था?''
क्या बाबरी विध्वंस का मामला अब तार्किक निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाएगा? इस सवाल के जवाब में जस्टिस गांगुली कहते हैं, ''मुझे नहीं पता कि इसका अंत क्या होगा। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी विध्वंस की कड़ी निंदा की है। सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा पहले भी किया था और इस फ़ैसले में भी किया है। अब आप वो ज़मीन हिन्दू पक्ष को दे रहे हैं और उसके आधार हैं पुरातात्विक सबूत, यात्रा वृतांत और आस्था।''
''क्या आप आस्था को आधार बनाकर फ़ैसला देंगे? एक आम आदमी इसे कैसे समझेगा? ख़ास करके उनके लिए जो क़ानून का दांव पेच नहीं समझते हैं। लोगों ने यहां वर्षों से एक मस्जिद देखी। अचानक से वो मस्जिद तोड़ दी गई। यह सबको हैरान करने वाला था। यह हिन्दुओं के लिए भी झटका था। जो असली हिन्दू हैं वो मस्जिद विध्वंस में भरोसा नही कर सकते। यह हिंदुत्व के मूल्यों के ख़िलाफ़ है। कोई हिन्दू मस्जिद तोड़ना नहीं चाहेगा। जो मस्जिद तोड़ेगा वो हिन्दू नहीं है। हिन्दूइज़म में सहिष्णुता है। हिन्दुओं के प्रेरणास्रोत चैतन्य, रामकृष्ण और विवेकानंद रहे हैं।''
जस्टिस गांगुली कहते हैं, ''मस्जिद तोड़ दी गई और अब कोर्ट ने वहां मंदिर बनाने की अनुमति दे दी है। जिन्होंने मस्जिद तोड़ी थी उनकी तो यही मांग थी और मांग पूरी हो गई है। दूसरी तरफ़, बाबरी विध्वंस के मामले पेंडिंग हैं। जिन्होंने क़ानून-व्यवस्था तोड़ी और संविधान के ख़िलाफ़ काम किया उन्हें कोई सज़ा नहीं मिली और विवादित ज़मीन पर मंदिर बनाने का फ़ैसला आ गया।''
''मैं सुप्रीम कोर्ट का हिस्सा रहा हूं और उसका सम्मान करता हूं लेकिन यहां मामला संविधान का है। संविधान के मौलिक कर्तव्य में यह लिखा है कि वैज्ञानिक तर्कशीलता और मानवता को बढ़ावा दिया जाए। इसके साथ ही सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा की जाए, मस्जिद सार्वजनिक संपत्ति ही थी, यह संविधान के मौलिक कर्तव्य का हिस्सा है। मस्जिद तोड़ना एक हिंसक कृत्य था।''
अगर जस्टिस गांगुली को यह फ़ैसला देना होता तो वो क्या करते?
इस सवाल के जवाब में जस्टिस गांगुली कहते हैं, ''यह एक काल्पनिक सवाल है। फिर मैं कहता सकता हूं अगर मुझे फ़ैसला देना होता तो पहले मस्जिद बहाल करता और साथ ही लोगों को भरोसे में लेता ताकि न्याय की प्रक्रिया में निष्पक्षता और संविधान के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की अहमियत स्थापित हो। अगर ये नहीं हो पाता तो मैं किसी के भी पक्ष में किसी निर्माण का फ़ैसला नहीं देता। यहां कोई सेक्युलर इमारत बनाने का आदेश दे सकता था जिनमें स्कूल, संग्रहालय या यूनिवर्सिटी हो सकती थी। मंदिर और मस्जिद कहीं और बनाने का आदेश देता, जहां विवादित ज़मीन नहीं होती।''
अयोध्या पर पाँच जजों के जजमेंट में अलग से एक परिशिष्ट जोड़ा गया है और उसमें किसी जज का हस्ताक्षर नहीं है। इस पर जस्टिस गांगुली क्या सोचते हैं? जस्टिस गांगुली ने कहा कि यह असामान्य है लेकिन वो इस पर नहीं जाना चाहते। इस फ़ैसले का गणतांत्रिक भारत और न्यायिक व्यवस्था पर क्या असर पड़ेगा?
इस सवाल के जवाब में जस्टिस गांगुली कहते हैं, ''इस फ़ैसले से जवाब कम और सवाल ज़्यादा खड़े हुए हैं। मैं इस फ़ैसले से हैरान और परेशान हूं। इसमें मेरा कोई निजी मामला नहीं है।''
इस फ़ैसले का असर बाबरी विध्वंस केस पर क्या पड़ेगा? जस्टिस गांगुली ने कहा कि वो उम्मीद करते हैं कि इसकी जांच स्वतंत्र रूप से हो और मामला मुकाम तक पहुंचे।''