क्या भारत में राज्य सरकारें नागरिकता संशोधन क़ानून को लागू करने से इनकार कर सकती हैं?
नागरिकता संशोधन विधेयक भारत की संसद से पारित होकर और राष्ट्रपति के मुहर के बाद अब क़ानून की शक्ल ले चुका है।
अब देश भर में लागू हो गया है, लेकिन एक तरफ़ जहां इसे लेकर पूर्वोत्तर राज्यों में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं वहीं कुछ राज्य सरकारें इसे अपने यहां लागू करने से ही इनकार कर रही हैं।
समाचार एजेंसी एएनआई के मुताबिक पाँच राज्यों के मुख्यमंत्री यह कह चुके हैं कि वो इसे अपने यहां लागू नहीं करेंगे।
अपने राज्य में नागरिकता संशोधन क़ानून को लागू नहीं करने देने की बात करने वाले मुख्यमंत्रियों की इस सूची में अब नया नाम पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का जुड़ गया है।
ममता बनर्जी ने कहा है कि वो किसी भी सूरत में इसे अपने राज्य में लागू नहीं करने देंगी।
सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ने शुक्रवार को एक संवाददाता सम्मेलन में कहा, "भारत एक प्रजातंत्रिक देश है और कोई भी पार्टी उसकी इस प्रकृति को बदल नहीं सकती। हमारे राज्य में किसी को भी डरने की ज़रूरत नहीं है। कोई भी आपको बाहर नहीं निकाल सकता है। कोई भी इस क़ानून को मेरे राज्य में लागू नहीं कर सकता।''
ममता से पहले भी दो राज्यों पंजाब और केरल ने कहा कि वो इस संशोधन विधेयक को अपने यहां लागू नहीं करेंगे।
पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने ट्वीट किया, "कोई भी क़ानून जो लोगों को धर्म के आधार पर बाँटता हो, असंवैधानिक और अनैतिक हो, वो गैरक़ानूनी है। भारत की ताक़त इसकी विविधता में है और नागरिकता संशोधन क़ानून इसके आधारभूत सिद्धान्तों का उल्लंघन करता है। लिहाजा, मेरी सरकार इसे पंजाब में नहीं लागू होने देगी।''
वहीं केरल के मुख्यमंत्री पिनरई विजयन ने भी नागरिकता संशोधन विधेयक को असंवैधानिक बताते हुए ट्वीट किया कि वो इसे अपने राज्य में लागू नहीं होने देंगे।
उन्होंने ट्वीट किया कि केंद्र सरकार भारत को धार्मिक तौर पर बाँटने की कोशिश कर रही है। ये समानता और धर्मनिरपेक्षता को तहस-नहस कर देगा।
ट्वीट में उन्होंने लिखा, ''धर्म के आधार पर नागरिकता का निर्धारण करना संविधान को अस्वीकार करना है। इससे हमारा देश बहुत पीछे चला जाएगा। बहुत संघर्ष के बाद मिली आज़ादी दांव पर है।''
दैनिक अख़बार 'द हिंदू' के मुताबिक़ उन्होंने कहा कि इस्लाम के ख़िलाफ़ भेदभाव करने वाले सांप्रदायिक रूप से ध्रुवीकरण क़ानून की केरल में कोई जगह नहीं है।
इसके अलावा जिन दो अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने इस पर बयान दिया है, वो हैं छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश। इन दोनों राज्यों में कांग्रेस की सरकारें हैं।
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने कहा कि वो इस क़ानून पर कांग्रेस पार्टी के फ़ैसले का इंतज़ार कर रहे हैं।
अब ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या राज्य सरकारें नागरिकता संशोधन क़ानून को लागू करने से इनकार कर सकती हैं? संविधान क्या कहता है? और विरोध करने वालों के पास क्या विकल्प हैं?
नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध के स्वर अब तक ग़ैर बीजेपी शासित राज्यों से ही उठे हैं। क्या ये राज्य अगर चाहें तो नागरिकता संशोधन क़ानून को लागू करने से इनकार कर सकती हैं?
संविधान के जानकारों का कहना है कि ऐसा बिल्कुल नहीं हो सकता है।
संविधान विशेषज्ञ चंचल कुमार कहते हैं कि "राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने गुरुवार को नागरिकता संशोधन विधेयक 2019 पर अपनी मुहर लगाकर इसे क़ानून बनाया है। आधिकारिक राजपत्र में प्रकाशित होने के साथ ही यह क़ानून लागू भी हो गया है। अब चूंकि यह क़ानून संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत संघ की सूची में आता है। तो यह संशोधन सभी राज्यों पर लागू होता है और राज्य चाहकर भी इस पर कुछ ज़्यादा नहीं कर सकते है।''
वो बताते हैं, "संविधान की सातवीं अनुसूची राज्यों और केंद्र के अधिकारों का वर्णन करती है। इसमें तीन सूचियां हैं - संघ, राज्य और समवर्ती सूची। नागरिकता संघ सूची के तहत आता है। लिहाजा इसे लेकर राज्य सरकारों के पास कोई अधिकार नहीं है।''
यही बात केंद्र सरकार का भी कहना है कि राज्य के पास ऐसा कोई भी अधिकार नहीं है कि वह केंद्र की सूची में आने वाले विषय 'नागरिकता' से जुड़ा कोई अपना फ़ैसला कर सकें।
गृह मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक़ केंद्रीय सूची में आने वाले विषयों के तहत बने क़ानून को लागू करने से राज्य इनकार नहीं कर सकते।
अगर राज्य सरकारें इस क़ानून के ख़िलाफ़ नहीं जा सकतीं तो फिर इस पर विरोध करने वालों के सामने क्या विकल्प हैं? क्या इस क़ानून को कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है?
चंचल कुमार कहते हैं कि कोई राज्य सरकार, संस्था या ट्रस्ट इस क़ानून पर सवाल नहीं उठा सकते। वो कहते हैं कि मसला नागरिकता का है और नागरिकता किसी व्यक्ति विशेष को दी जाती है, लिहाजा वही इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठा सकता है। इसे चुनौती देने के लिए कोर्ट की शरण में जा सकता है।
क़ानूनी मामलों के जानकार फ़ैज़ान मुस्तफ़ा ने बीबीसी को बताया कि संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत राज्य नागरिकों और ग़ैर-नागरिकों, दोनों को ही क़ानून के तहत समान संरक्षण देने से इनकार नहीं करेगा।
वो कहते हैं कि, "संविधान धर्म के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव और वर्गीकरण को ग़ैर क़ानूनी समझता है।''
उनके मुताबिक़, "पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान के प्रवासी मुसलमानों को भी अनुच्छेद 14 के तहत संरक्षण प्राप्त है। इसमें इस्लाम और यहूदी धर्म के लोगों को छोड़ देना इसकी मूल भावना के ख़िलाफ़ है। यानी कोई व्यक्ति इसके ख़िलाफ़ कोर्ट जा सकता है और उसे वहां यह साबित करना होगा कि किस तरह यह क़ानून संविधान के मूलभूत ढांचे को बदल सकता है।''
नागरिकता संशोधन विधेयक के राज्यसभा में पारित होने से पहले ही इसे चुनौती देने इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग सुप्रीम कोर्ट पहुंची थी।
क़ानून बनने के बाद जन अधिकार पार्टी के जनरल सेक्रेटरी फ़ैज़ अहमद ने भी शुक्रवार को याचिका दायर की।
इसके अलावा पीस पार्टी ने भी सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की है। उसका कहना है कि यह क़ानून अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है और संविधान की मूल संरचना/प्रस्तावना के ख़िलाफ़ है। उनका कहना है कि धर्म के आधार पर नागरिकता नहीं दी जा सकती।
इसी तरह वकील एहतेशाम हाशमी, पत्रकार जिया-उल सलाम और क़ानून के छात्र मुनीब अहमद ख़ान, अपूर्वा जैन और आदिल तालिब भी सुप्रीम कोर्ट में गए हैं।
उन्होंने अपनी याचिका में इस क़ानून को असंवैधानिक बताते हुए रद्द करने की मांग की है। उन्होंने कहा है कि यह क़ानून धर्म और समानता के आधार पर भेदभाव करता है और सर्वोच्च न्यायालय मुस्लिम समुदाय के जीवन, निजी स्वतंत्रता और गरिमा की रक्षा करे।
शुक्रवार को ही तृणमूल कांग्रेस की नेता महुआ मोइत्रा ने भी सुप्रीम कोर्ट में इस संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ अपनी याचिका दायर की।
अपनी याचिका में मोइत्रा ने कहा कि इस क़ानून के तहत मुस्लिमों को बाहर रखने की बात भेदभाव को प्रदर्शित करता है, इसलिए यह संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है।
उन्होंने यह भी कहा कि यह क़ानून हमारे संविधान के आधारभूत स्वरूप धर्मनिरपेक्षता का भी उल्लंघन करता है। लेकिन इन याचिकाओं का कोर्ट में क्या होगा? क्या ये साबित कर सकेंगे कि यह संविधान के मूलभूत स्वरूप के ख़िलाफ़ है?
मुस्तफ़ा कहते हैं कि जो व्यक्ति इसे चुनौती देगा उसी पर ये साबित करने का बोझ होगा कि वो बताए ये कैसे और किस तरह से असंवैधानिक है।
वे कहते हैं कि इस तरह के मामले कई बार सांवैधानिक बेंच के पास चले जाते हैं और बेंच के पास बहुत से मामले पहले से ही लंबित हैं जिसकी वजह से इसकी सुनवाई जल्दी नहीं होगी।
नागरिकता अधिनियम 1955 में नागरिकता संशोधन क़ानून 2019 के तहत कुछ अनुबंध जोड़ दिए गए हैं।
इसके तहत 31 दिसंबर 2014 या उससे पहले भारत आए बांग्लादेश, अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान के उन छह अल्पसंख्यक समुदायों (हिंदू, बौद्ध, जैन, पारसी, ईसाई और सिख) को जिन्हें अपने देश में धार्मिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है, उन्हें गैरक़ानूनी नहीं माना जाएगा बल्कि भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान किया जाएगा।
लेकिन यह पूर्वोत्तर के अधिकांश राज्यों और असम के कुछ ज़िलों में लागू नहीं होगा। क्योंकि इसमें शर्त रखी गई है कि ऐसे व्यक्ति असम, मेघालय, और त्रिपुरा के उन हिस्सों में जहां संविधान की छठीं अनुसूची लागू हो और इनर लाइन परमिट के तहत आने वाले अरुणाचल प्रदेश, मिज़ोरम और नागालैंड में न रह रहे हों।
नागरिकता संशोधन विधेयक को पेश करने के दौरान ही मणिपुर को भी इनर लाइन परमिट में शामिल करने का प्रस्ताव किया गया।
इनर लाइन परमिट एक ट्रैवल डॉक्यूमेंट है, जो भारत सरकार अपने किसी संरक्षित क्षेत्र में एक निर्धारित अवधि की यात्रा के लिए अपने नागरिकों के लिए जारी करती है।
सुरक्षा उपायों और स्थानीय जातीय समूहों के संरक्षण के लिए वर्ष 1873 के रेग्यूलेशन में इसका प्रावधान किया गया था।
छठी अनूसूची में आने वाले पूर्वोत्तर भारत के राज्यों को भी नागरिकता संशोधन विधेयक के दायरे से बाहर रखा गया है।
इसका मतलब हुआ कि 31 दिसंबर 2014 से पहले अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से आए हिंदू, सिख, बौद्ध, पारसी, जैन और ईसाई लोग भारत की नागरिकता हासिल करके के बावजूद मेघालय और मिज़ोरम में किसी तरह की ज़मीन या क़ारोबारी अधिकार हासिल नहीं कर पाएंगे।
नागरिकता संशोधन क़ानून शुरू से ही विवादों में रहा है। संशोधन से पहले इस क़ानून के अनुसार किसी भी व्यक्ति को भारतीय नागरिकता लेने के लिए कम से कम 11 साल भारत में रहना अनिवार्य था।
संशोधित क़ानून में जिन तीन पड़ोसी देशों के छह अल्पसंख्यकों की बात की गई है उनके लिए यह समयावधि 11 से घटाकर छह साल कर दी गई है।
साथ ही नागरिकता अधिनियम, 1955 में ऐसे संशोधन भी किए गए हैं कि इन लोगों को नागरिकता देने के लिए उनकी क़ानूनी मदद की जा सके।
नागरिकता अधिनियम, 1955 में पहले भारत में अवैध तरीक़े से दाख़िल होने वाले लोगों को नागरिकता नहीं देने और उन्हें वापस उनके देश भेजने या हिरासत में रखने के प्रावधान था।