वैज्ञानिकों पर जल्द-से-जल्द कोरोना वायरस की प्रभावकारी वैक्सीन बनाने का भारी दबाव है।
सोशल डिस्टैंसिंग से वायरस के फैलने की रफ़्तार को क़ाबू किया जा सकता है, मगर जानकारों को लगता है कि महामारी पर रोक लगाने का एकमात्र उपाय वैक्सीन है।
लेकिन, ऐसी बहुत सारी वैक्सीन होती हैं जो आरंभ में तो काफ़ी उम्मीद जगाती हैं, मगर जब ज़्यादा लोगों पर टेस्ट किया जाता है तो नाकाम साबित होती हैं।
इन परीक्षणों में इस कथित थर्ड फ़ेज़ का बड़ा महत्व होता है, क्योंकि ये वो चरण होता है जिसमें पता चलता है कि वैक्सीन का कोई साइड इफ़ेक्ट हो रहा है कि नहीं।
वैक्सीन करता क्या है? वो दरअसल इंसानों की प्रतिरोधी क्षमता को बढ़ा देता है जिससे वो बीमारियाँ पैदा करने वाले वायरस पर हमला कर उसे नष्ट कर देता है।
लेकिन, प्रतिरोधी क्षमता अगर ग़लत तरीक़े से बढ़ी तो उससे समस्याएँ सुलझने की जगह और बढ़ सकती हैं।
यही वजह है कि वैक्सीनों के परीक्षण को लेकर सख़्त नियम और दिशानिर्देश बनाए गए हैं, और इनकी अवहेलना करना ख़तरनाक हो सकता है।
ब्रिटेन में, ऐसा विचार चल रहा है कि अगर नए साल से पहले कोई वैक्सीन आ जाती है, तो बग़ैर लाइसेंस के ही उसके इस्तेमाल किए जाने को लेकर नए नियम लाए जाएँ। लेकिन तब भी, सुरक्षा के सख़्त मानदंडों का पालन करना होगा।
बिना ठीक से परीक्षण किए किसी वैक्सीन के इस्तेमाल के ख़तरे क्या हो सकते हैं, इसका उदाहरण 2009 की एक घटना से मिलता है, जब एचवनएनवन स्वाइन फ़्लू के लिए पैन्डेमरिक्स नाम के एक जल्दी से बनाए गए टीके का इस्तेमाल हुआ और इससे लोगों को नार्कोलेप्सी नाम की नींद की बीमारी होने लगी।
टीके को लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दिया बड़ा बयान
विश्व स्वास्थ्य संगठन को उम्मीद नहीं है कि अगले साल यानी साल 2021 तक भी कोविड 19 से सुरक्षा के लिहाज़ से बड़े स्तर पर टीकाकरण हो सकेगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्रवक्ता ने शुक्रवार को जांच कराने के महत्व पर विशेष बल दिया।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्रवक्ता मार्गरेट हैरिस ने कहा कि अभी तक एडवांस क्लीनिकल स्टेज के किसी भी टीके के लिए यह नहीं कहा जा सकता है कि यह पूरी तरह प्रभावी है। किसी भी टीके ने अब तक पचास फ़ीसदी प्रभावकारिता के संकेत भी नहीं दिये हैं।
जेनेवा में एक ब्रीफ़िंग के दौरान उन्होंने कहा कि हम वास्तव में अगले साल के मध्य तक व्यापक टीकाकरण देखने की उम्मीद नहीं कर रहे हैं।
कोरोना वायरस: बारह मिनट में आएगा कोरोना टेस्ट का नतीजा
स्कॉटलैंड स्वास्थ्य सेवा ने लुमिराडीएक्स नाम की एक कंपनी से करार किया है जिसके बाद अब वो ऐसे ख़ास टेस्टिंग किट इस्तेमाल कर सकेगी जिनमें कोरोना वायरस टेस्ट का नतीजा बाहर मिनट में ही आ जाएगा।
इसके लिए सरकार 300 रैपिड टेस्टिंग मशीनों और पांच लाख टेस्ट पर 67 लाख पाउंड खर्च करेगी।
स्वास्थ्य उपकरण बनाने वाली कंपनी लुमिराडीएक्स इस करार के तहत स्टरलिंग में मौजूद अपने कारखाने में ख़ास टेस्टिंग स्ट्रिप बनाएगी।
इस कोरोना टेस्ट में इस्तेमाल होने वाली मशीनों को आसानी से एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जा सकेगा और छोटे क्लिनिक और मोबाइल अस्पतालों में इस्तेमाल किया जा सकेगा।
कोविड-19 बीमारी पैदा करने वाले SARS-CoV-2 वायरस की टेस्टिंग को मान्यता अमरीकी फ़ेडरल ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन तय करती है और फिलहाल स्कॉटलैंड और यूरोप के लिए ये आख़िरी चरण में है।
स्कॉटलैंड सरकार में मंत्री इवान मैक्की कहते हैं, ''लुमिराडीएक्स के साथ जो करार हुआ है उसके तहत कंपनी हमारी स्वास्थ्य सेवा एजेंसी के लिए 12 मिनट में होने वाले कोरोना टेस्टिंग का उपकरण देगी। वायरस के ख़िलाफ़ जंग में ये महत्वपूर्ण है।''
''इस टेस्ट में टेस्टिंग डिवाइस में ख़ास तरह के स्ट्रिप का इस्तेमाल होगा जो स्कॉटलैंड में ही बनाए जाएंगे। इससे यहां लोगों के लिए रोज़गार के मौक़े बनेंगे और इसके साथ ही हमारी इंडस्ट्री भी मज़बूत होगी।''
इस टेस्ट में नाक से लिए गए एक स्वैब का परीक्षण कोविड-19 एंटीजन प्रोटीन के लिए किया जाएगा। टेस्ट का नतीजा बारह मिनट में आएगा।
माना जा रहा है दूसरे रैपिड एंटीजन की तुलना में इसका नतीजा जल्दी आएगा। ये टेस्टिंग डिवाइस क्लाउड सिस्टम से जुड़ा रहेगा ताकि स्वास्थ्य अधिकारी वायरस के विस्तार के बारे में जल्द जानकारी प्राप्त कर सकें।
लुमिराडीएक्स के चीफ़ एग्ज़ीक्यूटिव रॉन ज़्वानज़िगर ने कहा है कि ''न केवल इस टेस्ट का नतीजा जल्दी आएगा बल्कि नतीजा सटीक होगा और इसके आधार पर डॉक्टर जल्दी मरीज़ का इलाज शुरू कर सकते हैं। मोटे लोगों पर कम असरदार हो सकती है कोरोना वैक्सीन: शोध
मोटे लोगों पर कम असरदार हो सकती है कोरोना वैक्सीन: शोध
एक अध्ययन के मुताबिक़, कोरोना संक्रमित होने पर इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती होने की नौबत आने का ख़तरा उन लोगों को ज़्यादा है, जो मोटापे के शिकार हैं। उन्हें यह ख़तरा सामान्य लोगों की तुलना में दोगुना ज़्यादा है।
यूनिवर्सिटी ऑफ़ नॉर्थ कैरोलिना की एक टीम ने दुनिया भर में क़रीब चार लाख लोगों पर किए गए 75 शोधों के डेटा का अध्ययन किया है।
अमरीकी शोधकर्ताओं का कहना है कि मोटापे के कारण डायबिटीज़ और हाई ब्लड प्रेशर का ख़तरा बढ़ जाता है। अगर इम्यून सिस्टम कमज़ोर हो तो संक्रमित व्यक्ति गंभीर रूप से बीमार पड़ सकता है।
ऐसी आशंका भी जताई गई है कि मोटे लोगों पर संभावित वैक्सीन भी कम असरदार हो सकती है। ऐसा इसलिए क्योंकि फ्लू का टीका भी 30 से अधिक बीएमआई वाले लोगों पर सही से काम नहीं करता।
कोरोना वायरस को ख़त्म करने में प्रभावी है ओज़ोन: शोध
जापानी शोधकर्ताओं का कहना है कि ओज़ोन की मदद से कोरोना वायरस को ख़त्म किया जा सकता है और इस तरीके से अस्पतालों को सुरक्षित बनाया जा सकता है।
समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार, जापान की फुजिता हेल्थ यूनिवर्सिटी ने बताया है कि उन्होंने यह साबित किया है कि कम घनत्व वाली ओज़ोन गैस (0.05 to 0.1 पीपीएम) से वायरस को नष्ट किया जा सकता है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि कम घनत्व वाला ओज़ोन का यह स्तर इंसानों के लिए सुरक्षित है।
हॉन्गकॉन्ग के वैज्ञानिकों के आगे कोरोना वायरस से दोबारा संक्रमित हुए व्यक्ति का मामला सामने आया है।
30 साल से अधिक आयु का यह व्यक्ति पहली बार साढ़े चार महीने पहले कोरोना वायरस से संक्रमित हुआ था।
वैज्ञानिकों का कहना है कि वायरस के जीनोम में दो चीज़ें 'बिलकुल अलग' हैं, यह दोबारा संक्रमण होने का दुनिया का पहला मामला है।
हालांकि, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि एक मरीज़ के मामले से सीधा निष्कर्ष पर नहीं पहुंचना चाहिए।
वहीं, विशेषज्ञों का कहना है कि दोबारा संक्रमण होना बेहद दुर्लभ है और यह अधिक गंभीर हो ऐसा भी नहीं है।
हॉन्गकॉन्ग विश्वविद्यालय की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि संक्रमण से ठीक होने से पहले यह व्यक्ति 14 दिनों तक अस्पताल में रहा था लेकिन एयरपोर्ट पर स्क्रीनिंग के दौरान वो दोबारा कोरोना वायरस संक्रमित पाया गया है। हालांकि, उसमें इसके कोई लक्षण नहीं थे।
लंदन स्कूल ऑफ़ हाइजीन और ट्रोपिकल साइंस के प्रोफ़ेसर ब्रेंडन रेन कहते हैं कि यह दोबारा संक्रमण का बेहद दुर्लभ मामला है।
वो कहते हैं कि इसकी वजह से कोविड-19 की वैक्सीन बेहद ज़रूरी हो जाती है और ऐसी आशंका है कि वायरस समय के साथ ख़ुद को बदलेगा।
जो लोग कोरोना वायरस से संक्रमित होते हैं उनके शरीर में वायरस से लड़ने के लिए इम्यून सिस्टम विकसित हो जाता है जो वायरस को दोबारा लौटने से रोकता है।
सबसे मज़बूत इम्यून उन लोगों का पाया जाता है जो गंभीर रूप से कोविड-19 से बीमार हुए हों। हालांकि, यह अभी भी साफ़ नहीं है कि यह सुरक्षा कितनी लंबी है और इम्युनिटी कब तक रह सकती है?
चीन के एक वरिष्ठ स्वास्थ्य अधिकारी ने बताया है कि चीन की सरकार कुछ चुनिंदा क्षेत्रों में काम करने वालों को जुलाई से वो कोरोना वैक्सीन दे रहा है जिस पर अभी पूरी तरह से मुहर नहीं लगी है।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य आयोग के विज्ञान और तकनीक केंद्र के प्रमुख चेंग चोंगेई ने सरकारी मीडिया संस्था सीसीटीवी से बातचीत में कहा कि सरकार ने सार्स-कोविड-2 (यानी कोविड-19) की वैक्सीन स्वास्थ्य कर्मियों और सीमा पर तैनात अधिकारियों को 'आपातकालीन इस्तेमाल' के तौर पर देने की अनुमति दी थी।
चेंग वैक्सीन विकसित करने वाली टास्क-फ़ोर्स का नेतृत्व कर रहे हैं।
उन्होंने बाताया कि सात दिनों से चीन में कोई भी स्थानीय संक्रमण का नया मामला सामने नहीं आया है।
सीमा पर काम करने वालों के बारे में माना जाता है कि उन्हें जोख़िम ज़्यादा है।
चीन में क्लीनिकल ट्रायल के बाहर वैक्सीन इस्तेमाल करने का यह पहला ऐसा मामला है जिसकी पुष्टि हुई है।
इस बात की अभी पूरी जानकारी नहीं है कि इन लोगों को कौन सी वैक्सीन दी गई और कितने लोगों को दी गई, मगर चेंग का कहना है कि यह पूरी तरह क़ानून का पालन करते हुए किया गया जिसके तहत गंभीर स्वास्थ्य संकट को देखते हुए ग़ैर-प्रमाणित वैक्सीन के सीमित उपयोग की अनुमति होती है।
चेंग ने सीसीटीवी से कहा, ''हमने एक पूरी योजना की श्रृंखला तैयार की है जिसमें मेडिकल सहमति-पत्र, साइड इफ़ेक्ट मॉनिटरिंग प्लान, बचाव की योजना और मुआवज़े को लेकर योजना शामिल है ताकि यह निश्चित किया जा सके कि यह आपातकालीन इस्तेमाल पूरी तरह से व्यवस्थित और निगरानी के दायरे में है।''
उन्होंने बताया कि पतझड़ और सर्दियों से पहले इसे दूसरे समूहों पर टेस्ट करने की भी योजना बनाई गई है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन दुनिया भर में 170 संभावित वैक्सीनों को लेकर चल रहे काम पर नज़र रखे हुए है।
चीन में कई वैक्सीन तीसरे चरण के परीक्षण के दौर में पहुँच चुके हैं। इस चरण में हज़ारों लोगों को वैक्सीन देकर इसके सुरक्षित और प्रभावी होने का परीक्षण किया जाएगा।
जून में चीनी सरकार ने सरकारी कंपनियों में काम करने वालों को दो वैक्सीन के परीक्षण के लिए वॉलिंटियर बनने को कहा था। ये वो कर्मचारी हैं जिन्हें हमेशा दूसरे देशों की यात्राएं करनी पड़ती हैं।
सरकारी कंपनी चाइना नेशनल बायोटेक ग्रुप को अपने वैक्सीन के इंसानों पर परीक्षण के लिए संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, पेरू, मोरक्को और अर्जेंटीना में इजाज़त मिल गई है।
कंपनी ने बताया है कि बीस हज़ार लोग बाहर के इन देशों में परीक्षण में हिस्सा ले रहे हैं।
चीन की दूसरी कंपनियाँ सीनोवैक और कैनसीनो बायोलॉजिक्स भी रूस, इंडोनेशिया और ब्राज़ील में परीक्षण कर रही हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक कोरोना वायरस की वैक्सीन को तैयार करने के लिए दुनिया भर में 170 से ज़्यादा जगहों पर कोशिश चल रही है।
इन 170 जगहों में 138 कोशिशें अभी प्री क्लिनिकल दौर में हैं। लेकिन कईयों का क्लिनिकल ट्रायल चल रहा है। 25 वैक्सीन का ट्रायल बहुत छोटे दायरे वाले फेज वन में चल रहा है। जबकि थोड़े बड़े दायरे में 15 वैक्सीन का ट्रायल चल रहा है।
लेकिन दुनिया की नज़रें उन कोशिशों पर टिकी हैं जहां फेज तीन का ट्रायल चल रहा है। यह मौजूदा समय में सात जगहों पर चल रहा है।
इन सबके बीच शनिवार को भारतीय मीडिया में 73 दिनों के भीतर कोरोना वैक्सीन उपलब्ध होने की ख़बर सुर्खियों में आ गई।
भारतीय मीडिया रिपोर्ट्स के दावे के मुताबिक ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में तैयार हो रही वैक्सीन को भारत में मुहैया कराने वाली सीरम इंस्टीट्यूट की ओर से यह दावा किया गया, हालांकि रविवार को सीरम इंस्टीट्यूट ने इसको लेकर स्पष्टीकरण जारी करते हुए 73 दिनों की बात को मिसलिडिंग बताया।
सीरम इंस्टीट्यूट की ओर से बताया गया है कि इस वैक्सीन के तीसरे चरण का ट्रायल किया जा रहा है और अभी केवल इसके भविष्य को ध्यान में रखते हुए उत्पादन की मंजूरी मिली है। वैक्सीन बनाने के लिए दुनिया की शीर्ष कंपनियों में शुमार सीरम इंस्टीट्यूट ने यह भी कहा है कि जब वैक्सीन के ट्रायल पूरी तरह संपन्न हो जाएगा, वैक्सीन को मानकों से मंजूरी मिलेगी तब उसकी उपलब्धता की जानकारी दी जाएगी।
इससे पहले 15 अगस्त को लाल क़िले से अपने संबोधन में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि देश में तीन कोरोना वैक्सीन के ट्रायल की बात कही है। सीरम इंस्टीट्यूट के अलावा भारत में दो वैक्सीन पर काम चल रहा है।
भारत बायोटैक इंटरनेशनल लिमिटेड की वैक्सीन का नाम कोवैक्सीन है। दूसरा वैक्सीन प्रोजेक्ट ज़ाइडस कैडिला हेल्थकेयर लिमिटेड का है। कोवैक्सीन के डेवलपमेंट प्रोजेक्ट में सरकारी एजेंसी इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ वायरोलॉजी शामिल हैं।
इसके ह्यूमन ट्रायल के लिए भारत में 12 संस्थाओं को चुना गया है, जिनमें रोहतक की पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज़, हैदराबाद की निज़ाम इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज़ शामिल हैं।
आईसीएमआर के महानिदेशक डॉक्टर बलराम भार्गव ने पिछले दिनों इन 12 संस्थाओं के प्रिंसिपल इन्वेस्टीगेटर्स से कोवैक्सीन ह्यूमन क्लीनिकल ट्रायल की रफ़्तार में तेज़ी लाने की बात कही थी। उन्होंने कहा था कि ये शीर्ष प्राथमिकता वाली परियोजनाओं में से एक है, जिस पर सरकार के शीर्ष स्तर से निगरानी रखी जा रही है।
लेकिन हेल्थ एक्सपर्ट्स इस पर सवाल उठा रहे हैं कि वैक्सीन तैयार करने के लिए जितने समय की ज़रूरत होती है और जिन प्रक्रियाओं से गुजरना होता है, क्या उनका पालन किया गया है?
वैसे मोटे तौर पर अनुमान लगाया जा रहा है कि अगर जल्दी से वैक्सीन मिला भी तो भी इस साल के अंत तक ही मिल पाएगा। भारत के केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने भी साल के अंत तक कोरोना वैक्सीन मिलने की उम्मीद जताई है।
बहरहाल, कोरोना वैक्सीन को लेकर अब तक की सबसे बड़ी कामयाबी का एलान 11 अगस्त, 2020 को रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने किया। रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने दावा किया है कि उनके वैज्ञानिकों ने कोरोना वायरस की ऐसी वैक्सीन तैयार कर ली है जो कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ कारगर है।
पुतिन ने कहा कि इस टीके का इंसानों पर दो महीने तक परीक्षण किया गया और ये सभी सुरक्षा मानकों पर खरा उतरा है। इस वैक्सीन को रूस के स्वास्थ्य मंत्रालय ने भी मंजूरी दे दी है। लेकिन यह वैक्सीन अभी तक वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन के मानकों पर स्वीकृत नहीं हुआ है।
गेमलया इंस्टीट्यूट में विकसित इस वैक्सीन के बारे में उन्होंने कहा कि उनकी बेटी को भी यह टीका लगा है। इस वैक्सीन को गेमलया इंस्टीट्यूट के साथ रूसी रक्षा मंत्रालय ने विकसित किया है। माना जा रहा है कि रूस में अब बड़े पैमाने पर लोगों को यह वैक्सीन देनी की शुरुआत होगी। रूसी मीडिया के मुताबिक़ 2021 में जनवरी महीने से पहले दूसरे देशों के लिए ये उपलब्ध हो सकेगी।
न्यूज़ एजेंसी रायटर्स के अनुसार, रूस में सितंबर से इस वैक्सीन स्पुतनिक फाइव का अद्यौगिक उत्पादन शुरू किया जाएगा। इसी रिपोर्ट में दावा किया गया है कि दुनिया भर के 20 देशों से इस वैक्सीन के एक अरब से ज़्यादा डोज के लिए अनुरोध रूस को मिल चुका है। रूस हर साल 50 करोड़ डोज बनाने की तैयारियों में जुटा है।
हालाँकि रूस ने जिस तेज़ी से कोरोना वैक्सीन विकसित करने का दावा किया है, उसको देखते हुए वैज्ञानिक जगत में इसको लेकर चिंताएँ भी जताई जा रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन समेत दुनिया के कई देशों के वैज्ञानिक अब खुल कर इस बारे में कह रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि उसके पास अभी तक रूस के ज़रिए विकसित किए जा रहे कोरोना वैक्सीन के बारे में जानकारी नहीं है कि वो इसका मूल्यांकन करें।
पिछले हफ़्ते विश्व स्वास्थ्य संगठन ने रूस से आग्रह किया था कि वो कोरोना के ख़िलाफ़ वैक्सीन बनाने के लिए अंतरराष्ट्रीय गाइड लाइन का पालन करे।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के तहत जिन सात वैक्सीन का तीसरे चरण का ट्रायल चल रहा हैं, उनमें रूस की वैक्सीन का ज़िक्र नहीं है। विश्व के दूसरे देश इसलिए भी रूस की वैक्सीन को लेकर थोड़े आशंकित हैं।
दरअसल जिस कोरोना वैक्सीन को बना लेने का दावा रूस कर रहा है, उसके पहले फेज़ का ट्रायल इसी साल जून में शुरू हुआ था।
रूस में विकसित इस वैक्सीन के ट्रायल के दौरान के सेफ़्टी डेटा अभी तक जारी नहीं किए गए हैं। इस वज़ह से दूसरे देशों के वैज्ञानिक ये स्टडी नहीं कर पाए हैं कि रूस का दावा कितना सही है।
रूस ने कोरोना के अपने टीके को लेकर उठी अंतरराष्ट्रीय चिंताओं को ख़ारिज करते हुए इसे बिल्कुल बेबुनियाद बताया है। जानकारों ने रूस के इतनी तेज़ी से टीका बना लेने के दावे पर संदेह जताया। जर्मनी, फ़्रांस, स्पेन और अमरीका में वैज्ञानिकों ने इसे लेकर सतर्क रहने के लिए कहा।
इसके बाद रूस के स्वास्थ्य मंत्री मिखाइल मुराश्को ने रूसी समाचार एजेंसी इंटरफ़ैक्स से कहा, ''ऐसा लगता है जैसे हमारे विदेशी साथियों को रूसी दवा के प्रतियोगिता में आगे रहने के फ़ायदे का अंदाज़ा हो गया है और वो ऐसी बातें कर रहे हैं जो कि बिल्कुल ही बेबुनियाद हैं।''
अमरीका में देश के सबसे बड़े वायरस वैज्ञानिक डॉक्टर एंथनी फ़ाउची ने भी रूसी दावे पर शक जताया है। डॉक्टर फ़ाउची ने नेशनल जियोग्राफ़िक से कहा, ''मैं उम्मीद करता हूँ कि रूसी लोगों ने निश्चित तौर पर परखा है कि ये टीका सुरक्षित और असरकारी है। मुझे पूरा संदेह है कि उन्होंने ये किया है।''
रूस की इस वैक्सीन से इतर इस समय कोरोना महामारी के ख़िलाफ़ दुनिया भर में वैक्सीन विकसित की लगभग 23 परियोजनाओं पर काम चल रहा है। लेकिन इनमें से कुछ ही ट्रायल के तीसरे और अंतिम चरण में पहुँच पाई हैं और अभी तक किसी भी वैक्सीन के पूरी तरह से सफल होने का इंतज़ार ही किया जा रहा है। इनमें ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, मॉडर्ना फार्मास्युटिकल्स, चीनी दवा कंपनी सिनोवैक बॉयोटेक के वैक्सीन डेवलपमेंट प्रोजेक्ट्स अहम हैं।
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के वैक्सीन प्रोजेक्ट ChAdOx1 में स्वीडन की फार्मा कंपनी एस्ट्राज़ेनेका भी शामिल है। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की कोविड वैक्सीन के ट्रायल का काम दुनिया के अलग-अलग देशों में चल रहा है।
मई के महीने में विश्व स्वास्थ्य संगठन की चीफ़ साइंटिस्ट सौम्या विश्वनाथन ने ऑक्सफोर्ड के प्रोजेक्ट को सबसे एडवांस कोविड वैक्सीन कहा था। इंग्लैंड में अप्रैल के दौरान इस वैक्सीन प्रोजेक्ट के पहले और दूसरे चरण के ट्रायल का काम एक साथ पूरा किया गया।
18 से 55 साल के एक हज़ार से ज़्यादा वॉलिंटियर्स पर किए गए ट्रायल में वैक्सीन की सुरक्षा और लोगों की प्रतिरोधक क्षमता का जायजा लिया गया था। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी का ये वैक्सीन प्रोजेक्ट अब ट्रायल और डेवलपमेंट के तीसरे और अंतिम चरण में है।
ऑक्सफोर्ड कोविड वैक्सीन के ट्रायल के इस चरण में क़रीब 50 हज़ार वॉलिंटियर्स के शामिल होने की संभावना है। दक्षिण अफ्रीका, अमरीका, ब्रिटेन और ब्राज़ील जैसे देश ट्रायल के अंतिम चरण में भाग ले रहे हैं।
भारत की सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया ने भी ऑक्सफोर्ड कोविड वैक्सीन के भारत में इंसानों पर परीक्षण की तैयारी में है।
अगर अंतिम चरण के नतीजे भी सकारात्मक रहे, तो ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की रिसर्च टीम साल के आख़िर तक ब्रिटेन की नियामक संस्था मेडिसिंस एंड हेल्थकेयर प्रोडक्ट्स रेगुलेटरी एजेंसी (एमएचआरए) के पास रजिस्ट्रेशन के लिए साल के आख़िर तक आवेदन करेगी।
बीते 15 जुलाई से अमरीका में टेस्ट की जा रही कोविड-19 वैक्सीन से लोगों के इम्युन को वैसा ही फ़ायदा पहुंचा है जैसा कि वैज्ञानिकों को उम्मीद थी। हालांकि अभी इस वैक्सीन का अहम ट्रायल होना बाक़ी है।
चीन की प्राइवेट फार्मा कंपनी सिनोवैक बॉयोटेक जिस कोविड वैक्सीन प्रोजेक्ट पर काम कर रही है, वो ट्रायल के तीसरे और आख़िरी चरण में पहुँच चुकी है। सरकारी मंजूरी से पहले किसी वैक्सीन को इंसानों पर परीक्षण में खरा उतरना होता है।
मॉडर्ना और ऑक्सफोर्ड के बाद ट्रायल के अंतिम चरण में पहुँचने वाला ये दुनिया का तीसरा वैक्सीन डेवलपमेंट प्रोजेक्ट है। CoronaVac नाम की इस वैक्सीन का फ़िलहाल ब्राज़ील में नौ हज़ार वॉलिंटियर्स पर ट्रायल चल रहा है।
चीन में तीन अन्य जगहों पर भी कोरोना वैक्सीन को लेकर चल रहा ट्रायल तीसरे दौर में पहुंच गया है। इसमें एक ट्रायल वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ़ बायोलॉजिकल प्रॉडक्टस में सिनोफ़ार्म कंपनी के साथ संयुक्त तौर पर चल रहा है।
सीनोफॉर्म कंपनी की ओर से एक कोशिश बीजिंग इंस्टीट्यूट ऑफ़ बायोलाजिकल प्राडक्टस में भी हो रही है। बीजिंग के ही एक अन्य इंस्टीट्यूट बीजिंग इंस्टीट्यूट ऑफ़ बायोटैक्नालॉजी में कैनसिनो बायोलॉजिकल इंक भी कोरोना वैक्सीन बनाने की कोशिशों में जुटा है। यहां दो चरण का ट्रायल पूरा हो चुका है और तीसरे चरण का ट्रायल शुरू होने वाला है।
वैक्सीन बनाने को लेकर अब तक कितनी प्रगति हुई है?
जिन सात जगहों पर तीसरे चरण का ट्रायल चल रहा है उसमें प्राइवेट कंपनियों की ओर से की जा रही कोशिश भी है। अमरीकी फार्मा कंपनी 'फ़ाइज़र' और जर्मन कंपनी 'बॉयोएनटेक' मिलकर एक कोविड वैक्सीन प्रोजेक्ट BNT162b2 पर काम कर रही हैं। दोनों कंपनियों ने एक साझा बयान जारी कर बताया है कि वैक्सीन प्रोजेक्ट इंसानों पर परीक्षण के आख़िरी चरण में पहुँच गई है। अगर ये परीक्षण सफल रहे, तो अक्तूबर के आख़िर तक वे सरकारी मंज़ूरी के लिए आवेदन दे सकेंगे। कंपनी की योजना साल 2020 के आख़िर तक वैक्सीन की 10 करोड़ और साल 2021 के आख़िर तक 1.3 अरब खुराक की आपूर्ति सुनिश्चित करने की है।
इसके अलावा शीर्ष दवा कंपनियां सनफई और जीएसके ने भी वैक्सीन विकसित करने के लिए आपस में तालमेल किया है। ऑस्ट्रेलिया में भी दो संभावित वैक्सीन का नेवलों पर प्रयोग शुरू हुआ है। माना जा रहा है कि इसका इंसानों पर ट्रायल अगले साल तक शुरू हो पाएगा।
जापानी की मेडिकल स्टार्टअप एंजेस ने कहा है कि उसने कोरोना वायरस की संभावित वैक्सीन का इंसानों पर परीक्षण शुरू कर दिया है। जापान में इस तरह का यह पहला परीक्षण है। कंपनी ने कहा है कि ओसाका सिटी यूनिवर्सिटी हॉस्पिटल में अगले साल 31 जुलाई तक ट्रायल जारी रहेंगे।
लेकिन कोई यह नहीं जानता है कि इनमें से कोई सी कोशिश कारगर होगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रमुख भी कई बार वैक्सीन बनाए जाने को लेकर नाउम्मीदी भी ज़ाहिर कर चुके हैं।
बीते छह महीनों से कुछ चीज़ों को लेकर लोगों की आदतें बदल चुकी हैं। कोरोना वायरस महामारी ने लोगों को मास्क, सेल्फ़-आइसोलेशन और सोशल डिस्टेंसिंग के महत्व के बारे में बताया लेकिन अभी भी बहुत महत्वपूर्ण चीज़ को कम करके आंका जा रहा है और वो है हाथ धोना।
फ़रवरी में जब पूरी दुनिया में कोरोना वायरस महामारी फैली तो स्वास्थ्य एजेंसियों ने लोगों को सलाह दी कि वो नए वायरस से ख़ुद को कैसे सुरक्षित रख सकते हैं?
एक सुझाव को लगातार हर दिन विशेषज्ञों ने सबके लिए महत्वपूर्ण बताया और वो था गर्म पानी से कम से कम 20 सेकंड तक हाथ धोना।
बॉस्टन, मैसाच्युसेट्स के नॉर्थ-ईस्टर्न विश्वविद्यालय में रसायन विज्ञान और रासायनिक जीव विज्ञान के एसोसिएट प्रोफ़ेसर थॉमस गिलबर्ट कहते हैं कि कोरोना वायरस को सिर्फ़ एक सस्ते साबुन और गर्म पानी से भी हटाया जा सकता है।
वो कहते हैं, ''इस वायरस के चारों ओर आनुवंशिक कण की झिल्ली है जिसे लिपिड मेंबरेन कहा जाता है क्योंकि यह तैलीय और चिकनी संरचना है। इस तरह की संरचना को साबुन और पानी से प्रभावहीन किया जा सकता है।''
वायरस के इस बाहरी 'खोल' को मिटाते ही वायरस की आनुवंशिक सामग्री टूट जाती है। इसके कारण आरएनए भी नष्ट हो जाता है जो मानवीय शरीर में सेल के ज़रिए इस वायरस की कई कॉपियां बनाता है।
गिलबर्ट कहते हैं कि साबुन से हाथों को ख़ूब रगड़ना चाहिए और हर कोने तक ले जाना चाहिए जिससे वक़्त मिलता है और लिपिड मेंबरेन और साबुन के बीच संपर्क होता है।
वो कहते हैं कि इससे साबुन को उस वायरस को मिटाने में मदद मिलती है। गिलबर्ट गर्म पानी पर कहते हैं कि यह वायरस से लड़ने में तेज़ी लाता है।
ब्रिटेन के केंट विश्वविद्यालय में मॉलिक्यूलर साइंस के प्रोफ़ेसर मार्टिन मिशलिस कहते हैं कि सिर्फ़ पानी से वायरस को प्रभावहीन नहीं किया जा सकता है।
वो कहते हैं, ''जब आप खाना पका रहे हों और आपके हाथ में ज़ैतून का तेल हो तो उसे पानी से हटा पाना बहुत मुश्किल है। आपको साबुन की ज़रूरत होती है। इसी तरह से कोरोना वायरस के मामले में साबुन की ज़रूरत होती है।''
संक्रामक रोगों के एक प्रमुख विशेषज्ञ का कहना है कि यूरोप, उत्तरी अमरीका और एशिया के कुछ हिस्सों में कोरोना वायरस में जो म्यूटेशन (वायरस के जीन में बदलाव) देखा जा रहा है, वो अधिक संक्रामक हो सकते हैं, लेकिन वो कम जानलेवा मालूम पड़ते हैं।
समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ सिंगापुर के वरिष्ठ चिकित्सक और इंटरनेशनल सोसाइटी ऑफ़ इन्फ़ेक्शस डिज़ीज़ के नव-निर्वाचित अध्यक्ष पॉल टैम्बिया ने कहा, ''सुबूत बताते हैं कि दुनिया के कुछ इलाक़ों में कोरोना के D614G म्यूटेशन (वायरस के जीन में बदलाव) के फैलाव के बाद वहां मौत की दर में कमी देखी गई, इससे पता चलता है कि वो कम घातक हैं।''
डॉक्टर टैम्बिया ने रॉयटर्स से बातचीत में कहा कि वायरस का ज़्यादा संक्रामक लेकिन कम घातक होना अच्छी बात है। उन्होंने कहा कि ज़्यादातर वायरस जैसे-जैसे म्यूटेट करते हैं यानी कि उनके जीन में बदलाव आता है, वैसे-वैसे वो कम घातक होते जाते हैं।
उनका कहना था, ''ये वायरस के हित में होता है कि वो अधिक से अधिक लोगों को संक्रमित करे लेकिन उन्हें मारे नहीं क्योंकि वायरस भोजन और आसरे के लिए लोगों पर ही निर्भर करता है।''
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि वैज्ञानिकों ने फ़रवरी में ही इस बात की खोज कर ली थी कि कोरोना वायरस में म्यूटेशन हो रहा है और वो यूरोप और अमरीका में फैल रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का ये भी कहना था कि इस बात के कोई सुबूत नहीं हैं कि वायरस में बदलाव के बाद वो और घातक हो गया है।
रविवार को मलेशिया के स्वास्थ्य विभाग के डीजी नूर हिशाम अब्दुल्लाह ने हाल के दो हॉट-स्पॉट में कोरोना वायरस के D614G म्यूटेशन पाए जाने के बाद लोगों से और अधिक सतर्क रहने का आग्रह किया।
सिंगापुर के विज्ञान, टेक्नोलॉजी और शोध संस्थान के सेबास्टियन मॉरर-स्ट्रोह ने कहा कि कोरोना वायरस का ये रूप सिंगापुर में पाया गया है लेकिन वायरस की रोकथाम के लिए उठाए गए क़दमों के कारण वो बड़े पैमाने पर फैलने में नाकाम रहा है।
मलेशिया के नूर हिशाम ने कहा कि कोरोना का D614G वर्जन जो वहां पाया गया था वो 10 गुना ज़्यादा संक्रामक था और अभी जो वैक्सीन विकसित की जा रही है। हो सकता है वो कोरोना वायरस के इस वर्जन (D614G) के लिए उतनी प्रभावी ना हो।
लेकिन टैम्बिया और मॉरर-स्ट्रोह ने कहा कि म्यूटेशन के कारण कोरोना वायरस में इतना बदलाव नहीं होगा कि उसकी जो वैक्सीन बनाई जा रही है उसका असर कम हो जाएगा।
मॉरर-स्ट्रोह ने कहा, ''वायरस में बदलाव तक़रीबन एक जैसे हैं और उन्होंने वो जगह नहीं बदली है जो कि आम तौर पर हमारा इम्युन सिस्टम पहचानता है, इसलिए कोरोना की जो वैक्सीन विकसित की जा रही है, उसमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा।''
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने मंगलवार को रूस की वैक्सीन को लेकर संदेह जताया है। रूस अक्टूबर महीने से कोरोना वायरस की वैक्सीन का उत्पादन शुरू करने जा रहा है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा कि वैक्सीन उत्पादन के लिए कई गाइडलाइन्स बनाई गई हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रवक्ता क्रिस्टियन लिंडमियर से यूएन प्रेस ब्रीफिंग के दौरान पूछा गया कि अगर किसी वैक्सीन का तीसरे चरण का ट्रायल किए बगैर ही उसके उत्पादन के लिए लाइसेंस जारी कर दिया जाता है तो क्या संगठन इसे ख़तरनाक मानेगा?
रूस के स्वास्थ्य मंत्री ने शनिवार को कहा था कि उनका देश अक्टूबर महीने से कोविड-19 के ख़िलाफ़ बड़े स्तर पर वैक्सीन कैंपेन शुरू करने की तैयारी कर रहा है।
रूस के स्वास्थ्य मंत्री मिख़ाइल मुराश्को ने संवाददाताओं से बातचीत में कहा था कि वैक्सीन की कोई फीस नहीं ली जाएगी और सबसे पहले इसे डॉक्टर्स और अध्यापकों को दिया जाएगा।
रूसी स्वास्थ्य मंत्री ने कहा था कि उत्पादन के साथ-साथ वैक्सीन का क्लीनिकल ट्रायल भी जारी रहेगा और इसे बेहतर बनाने की कोशिश की जाएगी।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रवक्ता क्रिस्टियन लिंडमियर ने कहा, ''जब भी ऐसी ख़बरें आएं या ऐसे क़दम उठाए जाएं तो हमें सावधान रहना होगा। ऐसी ख़बरों के तथ्यों की जांच सतर्कता के साथ की जानी चाहिए।''
क्रिस्टियन लिंडमियर ने कहा, ''कई बार ऐसा होता है कि कुछ शोधकर्ता दावा करते हैं कि उन्होंने कोई खोज कर ली है जो कि वाक़ई बहुत अच्छी ख़बर होती है। लेकिन कुछ खोजने या वैक्सीन के असरदार होने के संकेत मिलने और क्लीनिकल ट्रायल के सभी चरणों से गुजरने में बहुत बड़ा फ़र्क़ होता है। हमने आधिकारिक तौर पर ऐसा कुछ नहीं देखा है। अगर आधिकारिक तौर पर कुछ होता तो यूरोप के हमारे दफ़्तर के सहयोगी ज़रूर इस पर ध्यान देते।''
विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रवक्ता ने कहा, ''एक सुरक्षित वैक्सीन बनाने को लेकर कई नियम बनाए गए हैं और इसे लेकर गाइडलाइन्स भी हैं। इनका पालन किया जाना ज़रूरी है ताकि हम जान सकें कि वैक्सीन या कोई भी इलाज किस पर असरदार है और किस बीमारी के ख़िलाफ़ लड़ाई में मदद कर सकती है।''
उन्होंने कहा, ''गाइडलाइन का पालन करने से हमें ये भी पता चलता है कि क्या किसी इलाज या वैक्सीन के साइड इफेक्ट हैं या फिर कहीं इससे फायदे के बजाय नुकसान तो ज्यादा नहीं हो रहा है।''
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी वेबसाइट पर क्लीनिकल ट्रायल से गुजर रहीं 25 वैक्सीन को सूचीबद्ध किया है जबकि 139 वैक्सीन अभी प्री-क्लीनिकल स्टेज में हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के प्रमुख डॉ टेड्रोस एडोनोम गेब्रिएसस ने कहा कि उम्मीद है कि कोविड-19 की वैक्सीन मिल जाए, लेकिन अभी इसकी कोई अचूक दवाई नहीं है और संभव है कि शायद कभी ना हो।
टेड्रोस इससे पहले भी कई बार कह चुके हैं कि शायद कोरोना कभी ख़त्म ही ना हो और इसी के साथ जीना पड़े। इससे पहले टेड्रोस ने कहा था कि कोरोना दूसरे वायरस से बिल्कुल अलग है क्योंकि वह ख़ुद को बदलता रहता है। डब्ल्यूएचओ प्रमुख ने कहा था कि मौसम बदलने से कोरोना पर कोई असर नहीं पड़ेगा क्योंकि कोरोना मौसमी नहीं है।
डॉ टेड्रोस ने कहा कि दुनिया भर के लोग कोरोना के संक्रमण से बचने के लिए सोशल डिस्टेंसिंग, हाथ का अच्छे से धोना और मास्क पहनने को नियम की तरह ले रहे हैं और इसे आगे भी जारी रखने की ज़रूरत है।
दुनिया भर में अब तक एक करोड़, 81 लाख से ज़्यादा लोग संक्रमित हो चुके हैं। मरने वालों की तादाद भी छह लाख, 89 हज़ार पहुंच गई है।
डॉ टेड्रोस ने कहा, ''कई वैक्सीन तीसरे चरण के ट्रायल में हैं और हम सबको उम्मीद है कि कोई एक वैक्सीन लोगों को संक्रमण से बचाने में कारगर साबित होगी। हालांकि अभी इसकी कोई अचूक दवाई नहीं है और संभव है कि शायद यह कभी नहीं मिले। ऐसे में हम कोरोना को टेस्ट, आइसोलेशन और मास्क के ज़रिए रोकने का काम जारी रखें।''
डॉ टेड्रोस ने ये भी कहा कि जो माताएं कोरोना संदिग्ध हैं या कोरोना से संक्रमित होने की पुष्टि हो चुकी है उन्हें स्तनपान कराना नहीं रोकना चाहिए।
डॉक्टर टेड्रोस ने इससे पहले जून महीने में भी कहा था, ''हम ये जानते हैं कि बड़ों के मुक़ाबले बच्चों में कोविड-19 का जोखिम कम होता है, लेकिन दूसरी ऐसी कई बीमारियां हैं जिससे बच्चों को अधिक ख़तरा हो सकता है और स्तनपान से ऐसी बीमारियों को रोका जा सकता है। मौजूदा प्रमाण के आधार पर संगठन ये सलाह देता है कि वायरस संक्रमण के जोखिम से स्तनपान के फ़ायदे अधिक हैं।''
उन्होंने कहा था, ''जिन माँओं के कोरोना संक्रमित होने का शक है या फिर जिनके संक्रमित होने की पुष्टि हो गई है उन्हें बच्चे को दूध पिलाने के लिए उत्साहित किया जाना चाहिए। अगर मां की तबीयत वाक़ई में बहुत ख़राब नहीं है तो नवजात को मां से दूर नहीं किया जाना चाहिए।''
ऐसी संभावना है कि इंसानों को संक्रमित करने वाला कोरोना वायरस चमगादड़ों के शरीर में दशकों से मौजूद रहा हो, लेकिन इसका पता नहीं लगाया जा सका हो।
हाल में हुए एक शोध से पता चला है कि कोविड-19 बीमारी के लिए ज़िम्मेदार कोरोना वायरस, करीबी ज्ञात वायरस से 40 और 70 साल पहले चमगादड़ में पाया गया था। वैज्ञानिक मानते है कि हो सकता है कि यही वायरस अब इंसानों तक पहुंच गया हो।
उन्होंने ये ही कहा है कि इसके साथ ही इस वायरस की उत्पत्ति को लेकर चल रही ये कॉन्सिपीरेसी थ्योरी भी शक के घेरे में आ गई है कि इस वायरस को लैब में तैयार किया गया था या फिर वहीं से फैलना शुरू हुआ था।
नेचर माइक्रोबायोलॉजी पत्रिका में प्रकाशित हुए एक शोध पर काम करने वाले यूनिवर्सिटी ऑफ़ ग्लासगो के प्रोफ़ेसर डेविड रॉबर्टसन कहते हैं कि महामारी के लिए ज़िम्मेदार Sars-CoV2 वायरस आनुवंशिक तौर पर चमगादड़ों में पाए जाने वाले वायरस के नज़दीक है लेकिन दोनों में कई दशकों के वक्त का फर्क है।
वो कहते हैं, ''इसका मतलब है कि इंसानों को संक्रमित करने वाला वायरस कुछ वक्त से मौजूद था। लेकिन हमें अब तक नहीं पता कि ये कब और कैसे इंसानों में आया? अगर हम ये मानते हैं कि ये चमगादड़ों में पाया जाने वाला आम वायरस है तो इस मामले में हमें और पैनी नज़र की ज़रूरत है, हमें इसकी और निगरानी करनी होगी।''
प्रोफ़ेसर डेविड कहते हैं कि भविष्य में और महामारी न फैले इसके लिए हमें न केवल इंसानों में होने वाले संक्रमण का सर्विलांस करना होगा बल्कि जंगली चमगादड़ों का भी सेम्पलिंग करना होगा। वो कहते हैं अगर ये वायरस दशकों से मौजूद थे तो उन्हें अपने पैर फैलाने के लिए यानी संक्रमित करने के लिए दूसरे जानवर भी मिले होंगे।
इस शोध के लिए शोधकर्ताओं ने कोविड-19 बीमारी पैदा करने वाले Sars-CoV2 वायरस के जेनेटिक कोड का मिलान इसी से मिलते-जुलते चमगादड़ों में पाए जाने वाले RaTG13 से किया था।
शोधकर्ताओं ने पाया कि इन दोनों के पूर्वज एक ही हैं लेकिन इवोल्यूशन की प्रक्रिया में दशकों पहले दोनों एक-दूसरे से अलग होते गए थे।
यूनिवर्सिटी ऑफ़ रीडिंग के प्रोफ़ेसर मार्क पेजल इस शोध का हिस्सा नहीं हैं। वो कहते हैं कि इस शोध का इशारा इस तरफ है कि इंसानों को संक्रमित करने वाला कोरोना वायरस चमगादड़ों में 40 से 70 साल पहले से ही मौजूद था लेकिन इसका पता नहीं लगाया जा सका था।
वो कहते हैं, ''इस शोध से पता चलता है कि जानवरों से इंसानों को होने वाले संक्रमण का दायरा कितना बड़ा है। हो सकता है कि इंसानों में बीमारी पैदा करने वाले कई वायरस जानवर के शरीर में मौजूद हों लेकिन हमें उनका पता ही न हो।''
हो सकता है कि ये वायरस एक जानवर से दूसरे जानवरों में फैलते रहे हों और इनसे जंगली जनवरों के व्यवसाय से जुड़े लोग संक्रमित हुए हों।
इससे पहले हुए शोध में पता चला था कि Sars-CoV2 की उत्पत्ति में पैन्गोलिन की बड़ी भूमिका हो सकती है लेकिन ताज़ा शोध के अनुसार ऐसा नहीं है।
हो सकता है कि पैन्गोलिन को भी ये वायरस जंगली जनवरों के व्यवसाय के दौरान दूसरे जानवरों के संपर्क में आने से मिला हो।