भारत में रक्षा मंत्रालय ने देशभर की 39 सैन्य फर्म को बंद करने का आदेश दिया है। हालांकि मोदी सरकार के इस फैसले पर अब सवाल उठाए जा रहे हैं क्योंकि इन फर्म में जो गाय पाली जा रही हैं, वो देश की सबसे अच्छी नस्ल की गाय हैं।
ये गाय देशभर की अन्य गायों की तुलना में भी सबसे ज्यादा दूध देती हैं। इन गोशालाओं में करीब 20 हजार गाय पाली जाती हैं।
मोदी सरकार के इस फैसले से करीब 2,500 कर्मचारियों के रोजगार ख़त्म हो जायेंगे।
गौरतलब है कि 20 जुलाई (2017) को कैबिनेट कमेटी ने आर्मी को निर्देश देते हुए कहा कि तीन महीने के भीतर इन गोशालाओं को बंद किया जाए।
कमेटी ने आगे कहा कि सेना के जवानों के लिए दूध डेयरी से खरीदा जाए।
समझा जा रहा है कि सेना को अब गोशालाएं रखने की जरूरत नहीं है। वहीं सैन्य गोशालाओं में भ्रष्टाचार से जुड़े मामले सामने आने के बाद भी इस फैसले को मुख्य वजह माना जा रहा है। दूसरी तरफ मोदी सरकार के इस फैसले को निजी मिल्क और डेयरी उद्योग को बढ़ावा देने के रूप में देखा जा रहा है।
हालांकि ऑल इंडिया फेडरेशन ऑफ डिफेंस वर्कर ने इस पर चिंता जाहिर की है क्योंकि गोशालाओं में काम रह रहे कर्मचारी अब बेरोजगार होने की कगार पर आ गए हैं।
जानकारी के लिए बता दें कि इन सैन्य गोशालाओं की शुरुआत ब्रिटिश काल में हुई थी। सबसे पहली सैन्य गोशाला 1889 में इलाहबाद में खोली गई थी। वर्तमान सैन्य गोशालाएं अंबाला (हरियाणा), बैंगडुबी (उत्तरी बंगाल), झांसी, कानपुर, लखनऊ, मेरठ (उत्तर प्रदेश) पिमप्री (महाराष्ट्र), पानागढ़ (बंगाल) और रांची (झारखण्ड) के साथ अन्य स्थानों पर हैं।
फेडरेशन ने कहा कि मोदी सरकार के इस फैसले से अब भारत की सबसे अच्छी नस्ल की गायों के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। ये गाय सबसे ज्यादा दूध देती हैं।
बता दें कि मोदी सरकार का फैसला ऐसे समय में आया है जब मोदी सरकार गायों की सुरक्षा को लेकर सवालों के घेरे में बनी हुई है। वहीं दूसरी तरफ आई सी ए आर के वैज्ञानिकों ने कहा कि हमें नहीं पता सैन्य गोशालाएं बंद होने के बाद इन गायों का क्या होगा। क्योंकि देश में दूसरी ऐसी कोई फर्म नहीं है, जहां बीस हजार गायों को पाला जा सके।
भारत में केंद्र की मोदी सरकार ने जामिया मिल्लिया इस्लामिया के अल्पसंख्यक दर्जा पर अदालत में अपने पहले स्टैंड को वापस लेने का फैसला किया है। अब मोदी सरकार कोर्ट में हलफनामा देगी कि जामिया मिल्लिया इस्लामिया एक अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय दिल्ली उच्च न्यायालय के पास लंबित याचिकाओं में एक नया हलफनामा दर्ज करेगा। 22 फरवरी, 2011 को राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शिक्षा आयोग (एन सी एम आई) के आदेश का समर्थन किया गया था जिसमें जामिया मिल्लिया इस्लामिया को एक धार्मिक अल्पसंख्यक संस्थान घोषित किया गया था।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय न्यायालय का कहना है कि जामिया मिल्लिया इस्लामिया का उद्देश्य कभी भी अल्पसंख्यक संस्था का नहीं था क्योंकि इसे संसद के एक अधिनियम द्वारा स्थापित किया गया था और इसे केंद्र सरकार द्वारा वित्त पोषित किया गया है।
पिछले साल जब स्मृति ईरानी एच आर डी मिनिस्टर थीं तब अटॉर्नी जनरल ने अदालत में अपना विचार बदलने की सलाह दी थी कि जामिया मिल्लिया इस्लामिया एक अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है।
तब अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी थे। उन्होंने कहा था कि सरकार 1968 के अजीज बाशा बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर निर्भर करती है ताकि वह अपने रुख में बदलाव का समर्थन कर सके।
अजीज बाशा मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी एक अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय नहीं है क्योंकि यह ब्रिटिश विधायिका द्वारा स्थापित किया गया था, इसे मुस्लिम समुदाय ने स्थापित नहीं किया था। जब स्मृति ईरानी मानव संसाधन विकास मंत्री थी तब अटॉर्नी जनरल की सलाह को स्वीकार कर लिया गया।
जामिया मिल्लिया इस्लामिया पर रिट याचिकाओं की सुनवाई की तारीख अभी नहीं आई है। जब याचिकाओं की सुनवाई होगी, तब केंद्र सरकार एक नया हलफनामा दाखिल करेगी। जामिया मिल्लिया इस्लामिया के वीसी ने इस मामले पर कुछ नहीं कहा है।
एन सी एम आई के मुताबिक, मुसलमानों के लाभ के लिए जामिया मिल्लिया इस्लामिया की स्थापना मुसलमानों द्वारा की गई थी। इसे अपनी मुस्लिम अल्पसंख्यक शिक्षा संस्था की पहचान कभी नहीं खोनी चाहिए। 2011 के एन सी एम आई के आदेश पर जामिया मिल्लिया इस्लामिया ने अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के विद्यार्थियों के लिए आरक्षण खत्म दिया था। जामिया मिल्लिया इस्लामिया में मुस्लिम स्टूडेंट्स के लिए सभी कोर्सों में आधी सीटें रिजर्व कर दी गई थीं।
जीएसटी लागू होने का असर सेवा क्षेत्र पर भी दिखाई दे रहा है। जुलाई में जीएसटी लागू होने के बाद सेवा क्षेत्र की गतिविधियां पिछले चार साल के निम्न स्तर पर पहुंच गई।
एक मासिक सर्वेक्षण में यह निष्कर्ष सामने आया है। मासिक आधार पर सेवा क्षेत्र की गतिविधियों का आकलन करने वाला 'दि निक्केई इंडिया सर्विसेज पर्चेजिंग मैनेजर्स इंडेक्स' (पी एम आई) जुलाई माह में गिरकर 45.9 पर आ गया। यह आंकड़ा सितंबर 2013 के बाद सबसे कम है। एक महीना पहले जून में यह आठ माह के उच्चस्तर 53.1 अंक पर था। जुलाई के सेवा क्षेत्र के पीएमआई आंकड़े इस कैलेंडर वर्ष में आने वाली पहली गिरावट को भी दर्शाते हैं।
आईएचएस मार्किट की प्रधान अर्थशास्त्री पॉलीयाना डी लीमा ने रिपोर्ट में कहा है, ''जुलाई के पीएमआई आंकड़े पूरे भारत में गतिविधियों में गिरावट को दर्शाते हैं, जून में गतिविधियों में तेजी आने के बाद जुलाई में अर्थव्यवस्था वापसी के रुख में आ गई।''
सर्वेक्षण में कहा गया है कि जीएसटी लागू होने के बाद सेवा क्षेत्र की कंपनियों का कहना है कि नये काम के आर्डर कम आये है जिससे गतिविधियां सुस्त पड़ गईं।
विनिर्माण क्षेत्र में आई गिरावट के बाद सेवा क्षेत्र में भी जुलाई में गिरावट का रुख रहा। जुलाई में नये आर्डर और उत्पादन घटने से विनिर्माण क्षेत्र में भी गिरावट रही। इसके साथ ही निक्केई इंडिया कंपोजिट पीएमआई आउटपुट इंडेक्स (जो विनिर्माण और सेवा क्षेत्र दोनों को मापता है) जुलाई माह में तेजी से गिरकर 46.0 अंक रह गया। एक माह पहले जून में यह 52.7 अंक पर था।
लीमा का कहना है कि नोटबंदी के झटके के बाद निजी क्षेत्र की गतिविधियों में पहली बार इतनी गिरावट आई है। वर्ष 2009 के बाद यह पहली बड़ी गिरावट है, इससे बाजार में बिक्री गतिविधियों का पता चलता है। बहरहाल, सेवा प्रदाता आगामी 12 माह के परिदृश्य को लेकर आशावादी हैं।
निक्केई इंडिया मैनुफैक्चरिंग पीएमआई रिपोर्ट के मुताबिक, विनिर्माण क्षेत्र में सबसे ज्यादा गिरावट देखी गई है।
वही, दूसरी तरफ इस रिपोर्ट में कहा गया है कि उत्पादन के लिए 12 महीने का दृष्टिकोण जुलाई में सकारात्मक रहा, जिसमें कंपनियों को जीएसटी के बारे में अधिक स्पष्टता की उम्मीद थी, ताकि उनकी विकास दर बनी रहे।
विश्व राजनीति के बाद अब भारत में भी वोटिंग मशीन की सत्यता पर सवाल उठाए जाने लगे हैं। बीते दिनों भारत में कई विपक्षी पार्टियों ने सत्तापक्ष के खिलाफ वोटिंग मशीन से छेड़छाड़ का आरोप लगाया था।
हालांकि जांच पड़ताल के दौरान ऐसा कोई सबूत नहीं मिला जिससे स्पष्ट रूप से कहा जा सके कि वोटिंग मशीन के साथ छेड़छाड़ या इसे हैक किया जा सकता है।
हालांकि विश्व के सबसे बड़े हैकर्स ग्रुप में से एक डीईएफसीओएन (DEFCON) ने अमेरिकी वोटिंग मशीन को हैक करने का दावा किया है।
ग्रुप का दावा है कि वो एक घंटे में वोटिंग मशीन को हैक कर सकते हैं। खबर के अनुसार, ग्रुप ने साल 2015 से पहले के चुनावों में इस्तेमाल की गईं वोटिंग मशीन को हैक करने की इच्छा जताई। जिसके बाद डीईएफसीओएन के दावे को जानने के लिए ग्रुप को वोटिंग मशीनें मुहैया कराई गईं।
लेकिन बाद में जो नतीजे सामने आए, वो काफी चौंकाने वाले थे। हैकर्स ने महज तीस मिनट में वोटिंग मशीन को हैक कर दिया।
गौरतलब है कि पूरे मामले का वीडियो फुटेज भी सामने आया है जिसे 'Hackers target 30 voting machines at Defcon' शीर्षक से सीएनईटी ने अपने यूट्यूब चैनल पर पोस्ट किया है।
वीडियो में दिखाया गया है कि वोटिंग मशीन को हैक करने का सबसे गुप्त हिस्सा उसके पीछे की तरफ होता है। जिसे यूएसबी पोर्ट कहा जाता है। वोटिंग मशीन में इनकी संख्या दो होती है। दोनों ही मशीन के पिछले हिस्से की तरफ होते हैं। हैकर्स ने इन पोर्ट की मदद से मशीन को आसानी से एक्सेस कर लिया।
वीडियो में हैकर्स कहते नजर आ रहे हैं कि इन्हीं यूएसबी पोर्ट में मालवेयर अपलोड किया जिसके बाद मनचाहे नतीजे निकाले जा सकते थे।
वीडियो में हैकर्स कहते नजर आ रहे हैं कि क्या आप जानना चाहते हो, वोटिंग मशीन को कितनी देर में हैक किया गया है? एक हैकर ने 35 मिनट में वोटिंग मशीन हैक कर ली।
बिहार में गौ वध पर साल 1955 से ही पूर्ण रोक लगी है। अब नीतीश कुमार किसे बेवकूफ बना रहे है?
बिहार में नीतीश सरकार अब हिन्दूवादी एजेंडे पर चल पड़ी है। पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश की तर्ज पर नीतीश सरकार गठन के बाद राज्य में गौ हत्या पर प्रतिबंध लगाने का दावा किया है। ऐसा दावा करके नीतीश सरकार झूठ बोल रही है क्योंकि बिहार में गौ वध पर साल 1955 से ही पूर्ण रोक लगी है। अब नीतीश कुमार किसे बेवकूफ बना रहे है?
बिहार के पशुपालन मंत्री पशुपति कुमार पारस ने पदभार संभालते ही राज्य में गौ हत्या पर प्रतिबंध लगाने का दावा दिया। साथ ही नए बूचड़खाने खोलने पर भी रोक लगा दी है। एचटी मीडिया के मुताबिक, पारस ने मीडिया से बातचीत करते हुए कहा कि उनका विभाग अब कोई नया पशु वधशाला स्थापित करने का लाइसेंस जारी नहीं करेगा।
हालांकि, आधिकारिक सूत्रों के मुताबिक, बिहार में गौ वध पर साल 1955 से ही पूर्ण रोक लगी है।
इस साल के शुरुआत में बीजेपी ने राज्य में गौ कशी पर रोक लगाने की मांग नीतीश सरकार से की थी। साल 2015 के विधान सभा चुनाव में भी गौ मांस पर सियासत छिड़ी थी। तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने इस मुद्दे को भुनाने की कोशिश की थी, लेकिन उन्हें कुछ हाथ नहीं लग सका था।
उस समय के बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मीडिया से कहा था कि बिहार में गौ वध पर साल 1955 से ही पूर्ण रोक लगी है, अब बीजेपी यह माँग लोगों को गुमराह करने के लिए कर रही है।
सवाल उठता है कि नीतीश बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाते ही बिहार में गौ वध पर रोक लगाने की बात कर रही है। जबकि बिहार में गौ वध पर पूर्ण रोक पहले से ही लगी है। अब नीतीश कुमार किसे बेवकूफ बना रहे है? उन हिन्दुओं को जो आरएसएस और बीजेपी की साम्प्रदायिकता की राजनीति के शिकार है। अब नीतीश भी उन हिन्दुओं को अपना शिकार बनाना चाहते है। इसके लिए जरूरी है कि झूठ बोला जाये और लोगों को गुमराह किया, अब नीतीश इसी रास्ते पर चल पड़े है। भारत में गाय राजनीति की शिकार हो चुकी है। आज गाय एक वोट बैंक बन चुका है जिसे नीतीश भी भुनाने की कोशिश कर रही है।
अब मुस्लिम वोट नीतीश को मिलेगा नहीं, रही बात सेक्युलर हिन्दुओं की तो, वो भी नीतीश को वोट नहीं देंगे। ये विचारधारा की लड़ाई है, सेक्युलर हिन्दू इस मोर्चे पर समझौता नहीं कर सकते। अब नीतीश को कट्टर और सांप्रदायिक हिन्दुओं का ही आसरा है। इसलिए आने वाले वक़्त में नीतीश कट्टर हिन्दुओं को लुभाने के लिए ऊंटपटांग हिंदूवादी एजेंडे को लागू करने की कोशिश करे तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए।
छठी बार बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेने से पहले और गठबंधन सरकार से इस्तीफा देने के बाद नीतीश कुमार ने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि लोकतंत्र लोक-लाज से चलता है। यानी लोकतंत्र में राजनैतिक शूचिता और पारदर्शिता आवश्यक है।
इसके साथ ही यह भी कहा गया कि नीतीश कुमार का सुशासन बेदाग रहा है। लिहाजा, दागी लोगों का उसमें कोई स्थान नहीं होना चाहिए। उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव पर लगे करप्शन के दाग की वजह से ही उन्होंने गठबंधन तोड़ते हुए नई सरकार बनाई, लेकिन अब उनके बेदाग और लोक-लाज की राजनीति के दावों पर सवाल उठने लगे हैं।
जानकारों का कहना है कि नीतीश कुमार ने सिर्फ राजनीतिक फायदे के लिए गठबंधन तोड़ा है क्योंकि उनकी नई सरकार में नया कुछ भी नहीं है, जिससे कहा जा सके कि उन्होंने राजनैतिक पारदर्शिता, शूचिता और सुशासन की बेदाग छवि गढ़ी है।
नीतीश की नई सरकार पर परिवारवाद को बढ़ावा देने, दागियों को मंत्री बनाने, अवसरवाद को हवा देने, जनादेश का अपमान करने और सोशल इंजीनियरिंग को ध्वस्त करने के आरोप लग रहे हैं, जबकि नीतीश हमेशा से इन सबों का विरोध करते रहे हैं।
नीतीश कुमार की सबसे ज्यादा आलोचना परिवारवाद को बढ़ावा देने के लिए हो रही है। उन्होंने लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) अध्यक्ष रामविलास पासवान के छोटे भाई पशुपति कुमार पारस को मंत्रिमंडल में जगह दी है, जबकि पारस किसी भी सदन के सदस्य नहीं हैं।
हालांकि, लोजपा कोटे से किसे मंत्री बनाना है या किसे नहीं, यह लोजपा का आंतरिक विषय है, लेकिन मुख्यमंत्री का यह विशेषाधिकार भी है कि वो किसे अपनी टीम में रखना चाहते हैं और किसे नहीं। सीएम चाहते तो पारस के नाम को रिजेक्ट कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, जबकि रालोसपा कोटे से सुझाए गए नाम को उन्होंने रिजेक्ट कर दिया था।
नीतीश कुमार ने जिस सबसे बड़े आरोप के चलते गठबंधन सरकार तोड़ी और बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाई, वह है दागी होना। तेजस्वी यादव को आपराधिक मामलों में दागी बताकर नीतीश ने इस्तीफा दे दिया, जबकि उनके नए मंत्रिमंडल में करीब दर्जन भर मंत्री ऐसे हैं जो किसी ना किसी मामले में दागी हैं।
खुद सीएम नीतीश पर मर्डर का केस है और पटना हाईकोर्ट से उन्होंने उस पर स्टे ले रखा है।
नीतीश के नए उप मुख्यमंत्री और लालू परिवार पर सबसे ज्यादा आरोप लगाने वाले सुशील कुमार मोदी भी बेदाग नहीं हैं। 2012 के एमएलसी चुनावों के दौरान सौंपे हलफनामे में सुशील मोदी ने खुद उल्लेख किया है कि उन पर भागलपुर के नौगछिया कोर्ट में आईपीसी की धारा 500, 501, 502 (मानहानि), 504 (शांति भंग) और 120B (आपराधिक साजिश) के तहत केस दर्ज हैं।
नीतीश कुमार ने राजनैतिक अवसरवाद की नई परिभाषा बिहार में गढ़ी है। वो जिन दलों और जिन लोगों का पिछले तीन-चार वर्षों से विरोध कर रहे थे। वे सभी अचानक उन्हें अच्छे लगने लगे।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि नीतीश कुमार ने कुर्सी के खातिर राजनैतिक शूचिता और राजनैतिक सिद्धांत दोनों को तिलांजलि दे दी है।
नीतीश पर साम्प्रदायिक दलों के साथ गठजोड़ के आरोप लग रहे हैं। अल्पसंख्यकों के मन में जो सम्मान नीतीश के लिए था, वो अब पहले जैसा नहीं रहा। लोगों का कहना है कि 2013 में जिस नरेंद्र मोदी के नाम पर उन्होंने एनडीए से किनारा कर लिया था, अब वही मोदी उन्हें अचानक अच्छे लगने लगे हैं।
तेजस्वी यादव लगातार आरोप लगा रहे हैं कि नीतीश कुमार ने बिहार के जनादेश का अपमान किया है। जानकारों का भी कहना है कि बिहार की जनता ने बीजेपी के खिलाफ महागठबंधन को जनादेश दिया था, लेकिन नीतीश ने उसका अपमान कर विपक्षी दलों के साथ हाथ मिला लिया, जिसे जनता ने नकार दिया था।
नीतीश जिस सोशल इंजनीयरिंग का पहरुआ बने थे, अब उसकी सिर्फ रस्म अदायगी कर रहे हैं। उन्होंने नई सरकार में सिर्फ एक महिला और एक मुस्लिम को मंत्री बनाया है, जबकि पिछली सरकारों में ऐसा नहीं था। सामाजिक सदभाव का ख्याल रखते हुए नीतीश कई मुस्लिम चेहरों को तरजीह देते रहे हैं, लेकिन इस बार उन्होंने सिर्फ रस्मअदायगी की है। जातीय समीकरणों को साधने में भी नीतीश ने कई जातियों को प्रतिनिधित्व नहीं दिया है। किसी भी कायस्थ को मंत्री नहीं बनाया गया है। उनकी सरकार के स्वरूप में दलित-महादलित अभी भी बहुत पीछे हैं।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तेजस्वी यादव प्रकरण में सुशासन, बेदाग छवि और लोकतंत्र में लोक-लाज की बात कहकर गठबंधन तोड़ते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया था, लेकिन उनके मौजूदा मंत्रिमंडल के कई ऐसे मंत्री हैं जिनपर हत्या समेत कई आपराधिक मामले दर्ज हैं।
खुद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का भी एक मर्डर केस में नाम है। लालू परिवार पर लगातार आरोपों की बौछार करने वाले उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी भी दागी हैं। ये सभी दावे इन्हीं नेताओं ने अपने-अपने चुनावी हलफनामे में किया है।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर साल 1991 के एक मर्डर केस में उन पर हत्या (आईपीसी की धारा 302), हत्या की कोशिश (आईपीसी की धारा- 307), दंगा भड़काने, बलवा करने (आईपीसी की धारा-147, 148, 149) और आर्म्स एक्ट का मामला दर्ज है। बाढ़ की अदालत ने इन मामलों पर संज्ञान लिया है। नीतीश कुमार ने अपने चुनावी हलफनामे में इसका जिक्र खुद किया है।
बिहार के उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने 2012 के एमएलसी चुनावों के दौरान सौंपे हलफनामे में उल्लेख किया है कि उन पर भागलपुर के नौगछिया कोर्ट में आईपीसी की 500, 501, 502 (मानहानि), 504 (शांति भंग) और 120B (आपराधिक साजिश) के तहत केस दर्ज हैं। राष्ट्रीय नेता आर के राणा द्वारा दर्ज 1999 के इस मामले को खत्म कराने के लिए पटना हाई कोर्ट में दायर की गई अपील पर सुशील कुमार मोदी को स्टे ऑर्डर मिला हुआ है।
प्रेम कुमार जो नीतीश मंत्रिमंडल में बीजेपी कोटे से कृषि मंत्री बनाए गए है। प्रेम कुमार पर दंगा भड़काने (आईपीसी की धारा-147), जान बूझकर किसी को नुकसान पहुंचाने (आईपीसी की धारा-323), दूसरों की जान को जोखिम में डालने (आईपीसी की धारा-337) और सरकारी कर्मचारी को सरकारी काम में बाधा डालने (आईपीसी की धारा-353) जैसे आरोप हैं। कोर्ट ने इन मामलों में संज्ञान ले लिया है।
प्रमोद कुमार जो बीजेपी कोटे से पर्यटन मंत्री बने है। प्रमोद कुमार पर चोरी के दो मामले (आईपीसी की धारा-379), धर्म, जाति, लिंगभेद के आधार पर सामाजिक सद्भाव बिगाड़ने (आईपीसी की धारा- 153ए), घर में घुसकर चोरी करने समेत आईपीसी की धारा- 380, 332, 131, 171एच, 171एफ, 188, 147, 327, 461 के तहत मामले दर्ज हैं। इनमें से कई पर कोर्ट ने संज्ञान ले लिया है, कई पर आरोप तय हो चुके हैं।
जय कुमार सिंह: नीतीश सरकार के उद्योग मंत्री जय कुमार सिंह का नाम भी दागियों की सूची में है। रोहतास के दिनारा से जनता दल यूनाइटेड के विधायक जय कुमार सिंह पर हत्या की कोशिश (आईपीसी की धारा 307) के दो मामले दर्ज हैं। इसके अलावा उन पर चोरी समेत आईपीसी की धारा 147, 148, 149, 323, 313, 120बी, 504, 216, 386 (रंगदारी), 341 के तहत भी मामले दर्ज हैं। जय कुमार सिंह ने अपने चुनावी हलफनामे में इनका खुलासा खुद किया है।
खुर्शीद उर्फ फिरोज अहमद: नीतीश कैबिनेट में अकेले मुस्लिम मंत्री खुर्शीद उर्फ फिरोज अहमद पर धोखाधड़ी और बेईमानी कर संपत्ति हड़पने (आईपीसी की धारा- 420), आपराधिक धमकी देने के तीन मामले (आईपीसी की धारा- 506), चोरी (379), जालसाजी (467) के आरोप समेत करीब डेढ़ दर्जन मामले दर्ज हैं। इसका खुलासा खुर्शीद ने खुद अपने चुनावी हलफनामे में किया है। बेतिया की अदालत में कई मुकदमों में आरोप तय हो चुका है, जबकि कई पर कोर्ट ने संज्ञान लिया है।
इन मंत्रियों के अलावा राम नारायण मंडल, कृष्ण कुमार ऋषि, शैलेश कुमार, संतोष कुमार निराला, रमेश ऋषिदेव और अन्य पर भी आपराधिक मामले दर्ज हैं।
गुजरात को छोड़कर पूरे भारत के रोजगार केंद्रों द्वारा 2015 में नौकरी दिलाने का औसत 0.57 प्रतिशत रहा यानी रोजगार केंद्र में नौकरी की तलाश में पंजीकरण कराने वाले हर 500 में से केवल तीन को रोजगार मिल पाया। गुजरात में ये औसत पिछले कई सालों से 30 प्रतिशत से अधिक रहा है।
गुजरात और गोवा को छोड़ दें तो भारत का कोई भी राज्य एक प्रतिशत लोगों (अभ्यर्थियों) को भी रोजगार नहीं दिला पाया। हालांकि साल 2015 के पहले नौ महीने में श्रम एवं रोजगार मंत्रालय के अधीन काम करने वाले रोजगार केंद्रों में पंजीकरण कराने वालों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ था। पिछले चार सालों से रोजगार केंद्रों में पंजीकरण कराने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है।
नेशनल करियर सर्विस के तहत पूरे भारत में चलने वाले रोजगार केंद्रों में 53 सेक्टरों में तीन हजार लोगों को प्राइवेट और सरकारी नौकरी दिलायी गयी। नेशनल करियर सर्विस के पोर्टल पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार, इस दौरान कुल 14.85 लाख लोगों ने नौकरी के लिए पंजीकरण कराया था। पोर्टल नौकरी मेला भी लगवाता है जिससे नियोक्ता और अभ्यर्थी आपस में संवाद कर सकें। श्रम मंत्रालय के सालाना रिपोर्ट के अनुसार, रोजगार केंद्र द्वारा दिलाई गई ज्यादातर नौकरियां प्राइवेट सेक्टर की थीं। श्रम एवं रोजगार मंत्रालय द्वारा साल 2012 से सितंबर 2015 तक के आंकड़े इकट्ठा किए गए हैं।
रोजगार केंद्र द्वारा नौकरी दिलाने के मामले में गुजरात देश में अव्वल है, लेकिन नौकरी खोजने वालों की संख्या सबसे ज्यादा तमिलनाडु में रही। तमिलनाडु में साल 2015 के पहले नौ महीनों में रोजगार केंद्र में 80 लाख लोगों ने पंजीकरण कराया। वहीं गुजरात में केवल 6.88 लाख लोगों ने नौकरी के लिए पंजीकरण कराया।
नौकरी के लिए पंजीकरण के मामले में तमिलनाडु के बाद पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, केरल और महाराष्ट्र का स्थान रहा। 2015 में नौकरी के लिए पंजीकरण कराने वाले करीब 60 प्रतिशत उम्मीदवार (2.71 करोड़) इन पांच राज्यों के थे। इन पांच राज्यों में 27,600 लोगों को रोजगार केंद्र से नौकरी मिली। यानी इन राज्यों में 0.1 प्रतिशत लोगों को रोजगार केंद्रों के माध्यम से रोजगार मिल सका।
आंकड़ों के अनुसार, पिछले कुछ सालों में रोजगार केंद्र में पंजीकरण कराने वालों की संख्या बढ़ी है। साल 2012 में 4.4 करोड़ लोगों ने पंजीकरण कराया था तो साल 2014 में 4.82 करोड़ लोगों ने। वहीं साल 2015 के पहले नौ महीनों में 4.48 करोड़ लोग पंजीकरण करा चुके थे। अगर शुरुआती नौ महीने के औसत के आधार पर गणना करें तो साल 2015 में रोजगार केंद्रों में पंजीकरण कराने वालों की संख्या करीब 5.98 करोड़ हो सकती है।
आंकड़ों के अनुसार, पिछले कुछ सालों में नौकरी की तलाश करने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है तो नौकरी मिलने की दर कम होती जा रही है।
नौकरी दिलाने के मामले में गुजरात का रिकॉर्ड अविश्वसनीय है। साल 2015 के नौ महीनों में रोजगार केंद्रों द्वारा दिलाए गए 2.53 लाख नौकरियों में से 83.3 प्रतिशत (2.11 लाख) गुजरात में दिलाई गईं। अगर बात केवल संख्या की करें तो नौकरी दिलाने के मामले में दूसरे स्थान पर महाराष्ट्र रहा, जहां 2015 के पहले नौ महीनों में 13,400 लोगों को नौकरी दिलायी।
पूरे भारत में कुल 997 रोजगार केंद्र हैं। सबसे ज्यादा 99 रोजगार केंद्र उत्तर प्रदेश में हैं। उत्तर प्रदेश के बाद केरल (89), पश्चिम बंगाल (77), हरियाणा (59), असम (52), मध्य प्रदेश (49), गुजरात (48), छ्त्तीसगढ़ (47) और महाराष्ट्र (47) का स्थान है। गोवा, अंडमान निकोबार द्वीप समूह, दादर एवं नगर हवेली, लक्षद्वीप और पुदुच्चेरी में केवल एक-एक रोजगार केंद्र हैं।
नोटबंदी के बाद जनवरी से अप्रैल 2017 के बीच देश में कुल नौकरियों की संख्या घटकर 405 मिलियन रह गई थी जो कि सितंबर से दिसंबर 2016 के बीच 406.5 मिलियन थी।
नोटबंदी के बाद भारत में लगभग 15 लाख लोगों को नौकरियां गंवानी पड़ी हैं। एक सर्वे में यह खुलासा हुआ है। अगर एक कमाऊ शख्स पर घर के चार लोग आश्रित हैं तो इस लिहाज से पीएम नरेंद्र मोदी के एक फैसले से 60 लाख से ज्यादा लोगों को रोटी के लिए परेशान होना पड़ा है।
सेन्टर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनोमी (सीएमआईई) ने सर्वे में त्रैमासिक वार नौकरियों का आंकड़ा पेश किया है। सीएमआईई के कंज्यूमर पिरामिड हाउसहोल्ड सर्वे से पता चलता है कि नोटबंदी के बाद जनवरी से अप्रैल 2017 के बीच भारत में कुल नौकरियों की संख्या घटकर 405 मिलियन (40. 5 करोड़) रह गई थी जो कि सितंबर से दिसंबर 2016 के बीच 406.5 मिलियन थी। यानी नोटबंदी के बाद नौकरियों की संख्या में करीब 1.5 मिलियन अर्थात 15 लाख की कमी आई।
पूरे भारत में हुए हाउसहोल्ड सर्वे में जनवरी से अप्रैल 2016 के बीच युवाओं के रोजगार और बेरोजगारी से जुड़े आंकड़े जुटाए गए थे। इस सर्वे में कुल 1 लाख 61 हजार, एक सौ सड़सठ घरों के कुल 5 लाख 19 हजार, 285 युवकों का सर्वे किया गया था। सर्वे में कहा गया है कि तब 401 मिलियन यानी 40.1 करोड़ लोगों के पास रोजगार था। यह आंकड़ा मई-अगस्त 2016 के बीच बढ़कर 403 मिलियन यानी 40.3 करोड़ और सितंबर-दिसंबर 2016 के बीच 406.5 मिलियन यानी 40.65 करोड़ हो गया।
इसके बाद जनवरी 2017 से अप्रैल 2017 के बीच रोजगार के आंकड़े घटकर 405 मिलियन यानी 40.5 करोड़ रह गए। मतलब साफ है कि इस दौरान कुल 15 लाख लोगों की नौकरियां खत्म हो गईं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि आठ नवंबर 2016 को लागू हुई नोटबंदी का व्यापक प्रभाव इन महीनों में पड़ा है। हालांकि, रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि सितंबर से दिसंबर 2016 में खत्म हुई तिमाही में भी नोटबंदी के आंशिक प्रभाव पड़े हैं।
सर्वे रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि जनवरी 2016 से अक्टूबर 2016 तक श्रमिक भागीदारी 46.9 फीसदी थी जो फरवरी 2017 तक घटकर 44.5 फीसदी, मार्च तक 44 फीसदी और अप्रैल 2017 तक 43.5 फीसदी रह गई। यानी कल-कारखानों और उद्योगों में आई मंदी की वजह से श्रमिकों को काम नहीं मिले।
रिपोर्ट में कहा गया है कि सितंबर से दिसंबर 2016 के अंतिम तिमाही में रोजगार के आंकड़ों में कम गिरावट की वजह अच्छी खरीफ फसल का उत्पादन होना है।
सर्वे में कहा गया है कि नवंबर के बाद बाजार में आई कैश की किल्लत से श्रमिक वर्ग को खासी परेशानियां उठानी पड़ीं।
बिहार की सियासत में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के खिलाफ राजनैतिक गोलबंदी शुरू हो चुका है। इसमें जनता दल यूनाइटेड के अध्यक्ष और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सबसे ज्यादा प्रभावित होने की खबरें हैं। ऐसी खबरें हैं कि नीतीश कुमार के सत्ता जा सकती है। यही वजह है कि मुख्यमंत्री का पद जाने के डर से नीतीश कुमार ने तेजस्वी यादव से इस्तीफा लेने के मामले में फिलहाल चुप्पी साध ली है।
सूत्रों के अनुसार, तेजस्वी से इस्तीफा मांगने के बाद अगर सरकार गिरती है तो नीतीश कुमार बीजेपी के साथ जाकर सरकार बना सकते हैं। लेकिन सूत्र बता रहे हैं कि नीतीश की इस कोशिश को उनके ही दल के विधायकों ने जोरदार झटका दिया है।
सूत्रों के मुताबिक, जेडीयू के अधिकांश मुस्लिम और यादव विधायकों ने बीजेपी के साथ जाने की बजाय अलग रास्ता अपनाने का मन बना लिया है।
जदयू के अंदर चल रही हलचल की बानगी केरल से पार्टी के एकमात्र सांसद वीरेंद्र कुमार ने जगजाहिर कर दी। वीरेंद्र कुमार ने बीजेपी से गठबंधन की खबरों को खारिज किया है। साथ ही, उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव में पार्टी द्वारा एनडीए के राष्ट्रपति उम्मीदवार रामनाथ कोविंद को समर्थन देने के फैसले को भी नजरअंदाज कर दिया।
एचटी मीडिया ने जेडीयू के एक वरिष्ठ नेता के हवाले से लिखा है कि अगर नीतीश कुमार बीजेपी का दामन थामते हैं तो जदयू के कई विधायक खासकर सीमांचल-कोशी इलाके से चुनकर आने वाले विधायक अलग राह अपना सकते हैं। यानी पार्टी में फूट हो सकती है।
सूत्र बताते हैं कि जेडीयू के अधिकांश मुस्लिम और यादव विधायक बीजेपी से किसी तरह के गठबंधन के सख्त खिलाफ हैं। ऐसे में अगर नीतीश कुमार महागठबंधन तोड़कर एनडीए में शामिल होने की कोशिश करते हैं तो उन्हें अपनी ही पार्टी में सबसे ज्यादा चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है और नीतीश कुमार की मुख्यमंत्री की कुर्सी जा सकती है।
सूत्र बताते हैं कि जेडीयू के वरिष्ठ नेता और पूर्व अध्यक्ष शरद यादव का भी बीजेपी की तरफ झुकाव नहीं है। अगर नीतीश कुमार इसके बाद भी बीजेपी से मोहभंग नहीं करते हैं तो उनकी पार्टी में बँटवारा हो सकता है।
माना जा रहा है कि एनडीए में शामिल होने की दशा में 71 में से करीब 20 विधायक नीतीश के खिलाफ जा सकते हैं। जेडीयू के 12 सांसदों में से 6 भी इसी तरह की मुखालफत कर सकते हैं।
एचटी मीडिया के मुताबिक, सरफराज आलम, मुजाहिद आलम, सरफुद्दीन आलम और नौशाद आलम कुछ ऐसे नाम हैं जो जेडीयू के एनडीए में शामिल होने की दशा में नीतीश से बगावत कर सकते हैं।
पिछले कुछ दिनों से तेजस्वी यादव के इस्तीफे को लेकर महागठबंधन के दो दलों राजद और जेडीयू के बीच तल्खी देखने को मिल रही है। जेडीयू जहां तेजस्वी यादव से बेनामी संपत्ति मामले में सीबीआई के आरोपों पर सफाई मांगी थी, वहीं राजद की ओर से स्पष्ट कहा गया था कि तेजस्वी यादव पद से इस्तीफा नहीं देंगे।
इस बीच मंगलवार शाम को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के बीच उपजे राजनीतिक हालातों पर करीब 45 मिनट तक बातचीत हुई थी।