नरेंद्र मोदी सरकार जहां मुंबई से अहमदाबाद के बीच बुलेट ट्रेन चलाने की योजना पर आगे बढ़ रही है, वहीं एक आरटीआई (सूचना का अधिकार) आवेदन के जरिए यह जानकारी मिली है कि इस क्षेत्र की ट्रेनों में 40 फीसदी सीटें खाली रहती हैं, और इससे पश्चिम रेलवे को भारी नुकसान हो रहा है।
मुंबई के कार्यकर्ता अनिल गलगली को मिले आरटीआई के जवाब में पश्चिम रेलवे ने कहा है कि इस क्षेत्र में पिछले तीन महीनों में 30 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है, यानी हर महीने 10 करोड़ रुपए का नुकसान।
गलगली ने कहा कि यह बुलेट ट्रेन परियोजना की व्यवहार्यता पर गंभीर प्रश्न खड़े करता है, चाहे जब भी इसका निर्माण किया जाए।
उन्होंने कहा, ''भारत सरकार अतिउत्साह में बुलेट ट्रेन परियोजना पर एक लाख करोड़ रुपए से अधिक खर्च करने जा रही है, लेकिन उसने अपना होमवर्क ठीक से नहीं किया है।''
भारतीय रेलवे ने यह भी स्वीकार किया कि इस क्षेत्र में उसकी कोई नई ट्रेन चलाने की योजना नहीं है क्योंकि यह पहले ही घाटे में है।
गलगली ने प्रश्न पूछा था कि दोनों शहरों के बीच की ट्रेनों की कितनी सीटें भरी होती हैं? पश्चिम रेलवे ने बताया कि पिछले तीन महीनों में मुंबई-अहमदाबाद क्षेत्र की सभी ट्रेनों में 40 फीसदी सीटें खाली रही हैं, जबकि अहमदाबाद-मुंबई के बीच चलने वाली ट्रेनों की 44 फीसदी सीटें खाली रही हैं।
पश्चिम रेलवे के मुख्य वाणिज्यिक प्रबंधक मनजीत सिंह ने आरटीआई के जवाब में मुंबई-अहमदाबाद-मुंबई मार्ग की सभी प्रमुख ट्रेनों की सीटों की जानकारी दी। इसमें दुरंतो, शताब्दी एक्सप्रेस, लोकशक्ति एक्सप्रेस, गुजरात मेल, भावनगर एक्सप्रेस, सुरक्षा एक्सप्रेस, विवेक-भुज एक्सप्रेस और अन्य ट्रेनें शामिल हैं। इस क्षेत्र की सबसे लोकप्रिय ट्रेन 12009 शताब्दी एक्सप्रेस की मुंबई-अहमदाबाद मार्ग की क्षमता 72,696 सीटों की है, जिसमें से जुलाई-सिंतबर के दौरान केवल 36,117 सीटें ही भरी गईं, जबकि इसी ट्रेन की अहमदाबाद-मुंबई मार्ग पर कुल 67,392 सीटों में से केवल 22,982 सीटों की ही बुकिंग हुई।
यह ट्रेन कभी सभी सीजन में भरी हुई होती थी, लेकिन अब यह घाटे में चल रही है। गलगली ने ध्यान दिलाया कि वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए, जहां लोग विमान से अधिक सफर कर रहे हैं, दोनों शहरों के बीच सड़क मार्ग से सफर करना आसान हो गया है। केंद्र और गुजरात सरकार को बुलेट ट्रेन जैसे महंगे विकल्प की समीक्षा करनी चाहिए, ताकि यह भारतीय करदाताओं के लिए सफेद हाथी साबित नहीं हो।
भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने बुधवार (25 अक्टूबर) को कर्नाटक विधानसभा को संबोधित करते हुए कहा कि टीपू सुल्तान अंग्रेजों के खिलाफ जंग लड़ते हुए शहीद होने वाले योद्धा हैं। उन्होंने मैसूर रॉकेट के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया और युद्ध के दौरान इनका बेहतरीन इस्तेमाल किया।
कर्नाटक विधानसभा और विधान परिषद की 60वीं वर्षगांठ पर संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए उन्होंने ये बात कही।
गौरतलब है कि बीते दिनों 18वीं सदी में मैसूर के बादशाह की जयंती मनाने पर तब विवाद हो गया, जब मोदी सरकार के केंद्रीय मंत्री और बीजेपी नेता ने उन्हें 'मास रेपिस्ट' कहा था। केंद्रीय कौशल विकास राज्य मंत्री अनंत कुमार ने ना सिर्फ कार्यक्रम में शामिल होने से इनकार दिया बल्कि कर्नाटक सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों को पत्र लिखकर इस आयोजन में उन्हें भी शामिल होने से रोकने की कोशिश की।
टीपू सुल्तान के वंशजों ने अनंत कुमार के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की तैयारी शुरू कर दी है।
केंद्रीय मत्री के इस बयान पर कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने उनकी आलोचना करते हुए कहा है कि केंद्रीय मंत्री होने के नाते उन्हें इस तरह की टिप्पणी और पत्र नहीं लिखना चाहिए था।
उन्होंने बताया कि टीपू सुल्तान जयंती कार्यक्रम में राज्य के सभी मंत्रियों, केंद्रीय मंत्रियों और अन्य गणमान्यों को पत्र भेजा जाता है, समारोह में शामिल होना या न होना उनकी मर्जी पर निर्भर करता है। सीएम सिद्धारमैया ने कहा कि इसे राजनीतिक मुद्दा नहीं बनाया जाना चाहिए।
उन्होंने कहा कि अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ टीपू सुल्तान ने चार युद्ध लड़े थे।
जानकारी के लिए बता दें कि सरकार ने 10 नवंबर को टीपू सुल्तान की जयंती का आयोजन किया है। कर्नाटक सरकार साल 2015 से टीपू सुल्तान की जयंती मना रही है।
टीपू सुल्तान 18वीं सदी में मैसूर साम्राज्य के महान शासक थे। प्रजा के तकलीफों का उन्हें काफी ध्यान रहता था। अत: उनके शासन काल में किसान खुश थे, वह कट्टर मुसलमान होते हुए भी धर्मनिरपेक्ष थे। वह हिन्दुओं और मुस्लमानों को एक नजर से देखते थे। वह बहुत बड़े सुधारक भी थे और उन्होंने शासन के प्रत्यक्ष क्षेत्र में सुधार लाने की चेष्टा की। टीपू सुल्तान मैसूर के सबसे महान शासक थे।
टीपू को मैसूर के शेर के रूप में जाना जाता है। योग्य शासक के अलावा टीपू एक विद्वान, कुशल़ योग्य सेनापति और कवि भी थे। टीपू सुल्तान ने कई हिंदू मन्दिरों को तोहफ़े दिए।
अंग्रेज उनसे काफी भयभीत रहते थे। टीपू की आकृति में अंग्रेजों को नेपोलियन की तस्वीर दिखाई पड़ती थी।
टीपू जैसे महान शासक की आरएसएस और बीजेपी द्वारा छवि ख़राब करने की कोशिश की जा रही है। चूँकि टीपू सुल्तान एक महान मुस्लिम शासक थे इसलिए उनको आरएसएस और बीजेपी टारगेट कर रही है ताकि कर्नाटक में हिन्दुओं को गोलबंद करके चुनाव जीतकर राज्य की सत्ता पर कब्ज़ा कर सके।
पिछले कुछ सप्ताह में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ट्विटर पर बेहद लोकप्रिय हो गये हैं। राहुल के कुछ ट्वीट्स को सबसे ज्यादा लोगों ने रिट्वीट किया है। ट्विटर पर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की बढ़ती लोकप्रियता की वजह से बीजेपी परेशान हो गई है।
कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी के ट्विटर अकाउंट पर एएनआई की प्रायोजित रिपोर्ट के हवाले से सवाल उठाया जा रहा है। एएनआई की इस प्रायोजित रिपोर्ट को लेकर कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच बहस छिड़ गई है।
एएनआई ने कहा है कि राहुल गांधी के OfficeofRG ट्विटर हैंडल देखने के बाद कुछ सवाल खड़े होते हैं। इस रिपोर्ट में सवाल खड़ा किया गया है कि क्या राहुल को ट्विटर पर लोकप्रिय बनाने के लिए 'बोट्स' का इस्तेमाल किया जा रहा है?
उधर, कांग्रेस ने आरोप लगाया है कि राहुल गांधी को निशाना बनाकर कहानी गढ़ी जा रही है।
ट्विटरबोट एक प्रकार का सॉफ्टवेयर है जो ट्विटर अकाउंट को ट्विटर एपीआई के ज़रिए नियंत्रित करता है। बोट सॉफ्टवेयर ख़ुद से रीट्वीट, लाइक्स, फॉलो और अनफॉलो की गतिविधियों को बढ़ा सकता है।
इसके ज़रिए किसी दूसरे अकाउंट पर सीधे मैसेज भी भेजा जाता है। किसी भी शख्स के ट्विटर अकाउंट में लाइक्स, रीट्वीट और फॉलोअर्स का ऐसा बड़ा हिस्सा हो सकता है जिसमें इंसानी हाथ की कोई भूमिका नहीं हो।
एएनआई की प्रायोजित रिपोर्ट के ज़रिये भारतीय जनता पार्टी की तरफ़ से कांग्रेस पर तंज कसा जा रहा है। केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने एएनआई की रिपोर्ट का हवाला देते हुए ट्वीट किया, ''शायद राहुल गांधी रूस, इंडोनेशिया और कज़ाखस्तान में चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं?''
बीजेपी के इस हमले का कांग्रेस नेता शहज़ाद पूनावाला ने जवाब दिया है। स्मृति पर कांग्रेस नेता तहसीन पूनावाला ने सवालिया लहजे में हमला बोला है। पूनावाला ने स्मृति ईरानी को टैग करते हुए पूछा है कि पीएम नरेंद्र मोदी के ट्वीट को 'प्रॉस्टिट्यूशन एजेंसी' क्यों रिट्वीट कर रही है। ( Namaskar @BJP4India SM cell & respected @smritiirani ji ma'am. Why are " escort agencies" re-tweeting my hon @narendramodi ji ? 15th oct )
एएनआई ने राहुल के ट्वीट में जैसा उदाहरण दिया है, वैसा ही पूनावाला ने भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ट्वीट को रीट्वीट करने वालों को पेश किया है।
पूनावाला ने भी मोदी के ट्वीट को रीट्वीट करने वाले कुछ ऐसे लोगों को सामने रखा है जिनके अकाउंट संदिग्ध मालूम पड़ते हैं।
रेल मंत्री पीयूष गोयल ने भी इस मामले में राहुल गांधी पर निशाना साधते हुए उन्हें फ़र्ज़ी युवराज कहा है। गोयल की इस टिप्पणी पर कांग्रेस प्रवक्ता संजय झा ने कहा कि रेल मंत्री ट्विटर गेम खेल रहे हैं और आम आदमी एक टिकट के लिए मोहताज है।
संजय झा ने दूसरे ट्वीट में कहा है, ''एक ऊटपटांग और प्रायोजित रिपोर्ट का सहारा लेकर पूरी मोदी सरकार राहुल गांधी पर हमले में लगी है। बीजेपी, मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि आपके अंत की शुरुआत हो गई है?''
वहीं एक और कांग्रेस प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी ने ट्वीट कर कहा, ''क्यों नहीं मोदी सरकार राहुल गांधी पर हमला करने के लिए एक पूर्णकालिक मंत्री बना देती है, ऐसे में दूसरे मंत्री अपना काम कर पाएंगे।''
पूनावाला के समर्थन में और स्मृति ईरानी के ट्वीट के खिलाफ कई कांग्रेस समर्थकों ने तीखी प्रतिक्रिया दी है।
कांग्रेस की सोशल मीडिया का प्रभार देख रही कन्नड़ अभिनेत्री और नेता राम्या ने स्मृति ईरानी पर हमला करते हुए लिखा है कि हमें उनकी जरूरत क्यों पड़ेगी, जब आप हों?
दूसरे ट्वीट में राम्या ने लिखा है, ''स्टोरी तथ्यात्मक रूप से गलत है। मैं आपकी उत्सुकता और बोट्स जनता पार्टी की मजबूरी समझती हूं।'' (Story is factually wrong. Can understand your eagerness to please the I&B ministry and the Bots Janata Party.)
कई अन्य यूजर्स ने भी स्मृति पर तंज कसा है।
भारतीय जनता पार्टी पिछले कुछ समय से अपने ही वरिष्ठ नेताओं और पूर्व नेताओं की आलोचनाओं से घिरी हुई है। इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी पर वार करने वाले गुजरात की बीजेपी सरकार में मुख्यमंत्री रह चुके हैं।
सुरेश मेहता अक्टूबर 1995 से सितंबर 1996 तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे थे। लेकिन उन्हें लगता है कि आगामी गुजरात चुनाव में बीजेपी की स्थिति डांवाडोल हो सकती है।
मेहता के अनुसार, गुजरात की बीजेपी सरकार किसान विरोधी और कार्पोरेट हित वाले फैसले लेती रही है। समाचार वेबसाइट 'द वायर' को दिए इंटरव्यू में सुरेश मेहता ने दावा किया कि ''गुजरात में इस बार विकास का गुजरात मॉडल नहीं बिकेगा ... गुजरात मॉडल केवल शब्दों की बाजीगरी है। गुजरात की जमीनी सच्चाई कुछ और ही कहानी बयाँ करती है।''
नरेंद्र मोदी को जब केशुभाई पटेल की जगह गुजरात का मुख्यमंत्री बनाया गया तो मेहता उनके मंत्रिमंडल में थे।
सुरेश मेहता ने द वायर से कहा, ''साल 2004 में भारत के नियंत्रक और महालेखा परिक्षक (कैग) ने गुजरात की वित्तीय स्थिति की समीक्षा की थी। उस समय राज्य सरकार पर चार से छह हजार करोड़ के बीच कर्ज था। इसलिए कैग ने राज्य को आगाह किया था कि वो कर्ज की दुष्चक्र में न फंसे। लेकिन सरकार ने कैग की बात को नजरअंदाज किया। राज्य सरकार द्वारा पेश किए गये ताजा बज़ट के अनुसार, साल 2017 में गुजरात पर कर्ज बढ़कर एक लाख 98 हजार करोड़ हो चुका है। ये मेरे आंकड़े नहीं हैं। ये सरकार के अपने आंकड़े हैं। जिसे फरवरी 2017 में राज्य सरकार ने गुजरात फिस्कल रिस्पांसबिलिटी एक्ट 2005 के तहत जारी बयान में घोषित किया है।''
सुरेश मेहता ने गुजरात की बीजेपी सरकार पर किसानों को मिलने वाली छूट में कमी करने का भी आरोप लगाया। मेहता ने द वायर से कहा, ''.... उसी दस्तावेज से पता चलता है कि गुजरात सरकार की प्राथमिकता क्या है। कृषि मद में दी जाने वाली छूट (सब्सिडी) जिसका लाभ किसानों को मिलता है वित्त वर्ष 2006-07 से लगातार कम होती जा रही है। वित्त वर्ष 2006-07 में 195 करोड़ रुपये और वित्त वर्ष 2007-08 में 408 करोड़ रुपये की छूट दी गयी थी जो वित्त वर्ष 2016-17 में घटकर 80 करोड़ रुपये रह गयी है।''
मेहता ने आरोप लगाया कि गुजरात की बीजेपी सरकार किसानों की छूट कम करने के साथ ही अडानी और अंबानी जैसे कारोबारियों को फायदा पहुँचाने वाली ऊर्जा और पेट्रोकेमिकल सेक्टर में छूट बढ़ाती जा रही है।
मेहता ने द वायर से कहा, ''.... इस (किसानों की) छूट की तुलना ऊर्जा और पेट्रोकेमिकल सेक्टर को दी जा रही छूट से करिए, जो अडानी और अंबानी चलाते हैं। वित्त वर्ष 2006-07 में इन सेक्टर को मिलने वाली 1873 करोड़ की छूट वित्त वर्ष 2016-17 में बढ़कर 4471 करोड़ रुपये (संशोधित आंकड़े) हो गयी।''
मेहता ने दावा किया कि गरीब और आम लोगों को प्रभावित करने वाला खाद्य एवं आपूर्ति का बजट भी बीजेपी सरकार ने 130 करोड़ रुपये से घटाकर 52 करोड़ रुपये कर दिया।
मेहता ने आरोप लगाया कि पीएम नरेंद्र मोदी ने घोषणा की थी कि सरदार वल्लभभाई पटेल की मूर्ति स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के लिए भी नर्मदा परियोजना फंड से पैसा दिया जा रहा है।
मेहता ने दावा किया कि गुजरात के वित्त मंत्री ने विधान सभा में बताया कि नर्मदा प्रोजेक्ट फंड से तीन हजार करोड़ रुपये सरदार पटेल की मूर्ति बनाने के लिए दिए गए हैं।
मेहता ने पूछा कि सरकार सिंचाई और किसानों के हित के लिए बनाए गए फंड का पैसा मूर्ति बनाने में कैसे खर्च कर सकती है?
मेहता ने नरेंद्र मोदी को घेरते हुए कहा कि उनके शीर्ष पर आने से पहले बीजेपी अलग तरह की पार्टी थी।
मेहता ने द वायर से कहा कि उन्होंने नरेंद्र मोदी से साल 2002 में शुरू हुए मतभेदों के चलते ही साल 2007 बीजेपी छोड़ी थी।
चुनाव आयोग ने गुजरात में होने वाले विधान सभा चुनाव की तारीखों का ऐलान नहीं किया है, लेकिन उससे पहले ही गुजरात इलेक्शन मोड में आ चुका है।
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी बार-बार गुजरात का दौरा कर रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी एक महीने में तीन बार गुजरात का दौरा कर चुके हैं।
माना जा रहा है कि साल 2014 के लोकसभा चुनाव में गुजरात समेत पूरे भारत में जो लहर थी, वैसी लहर आज बीजेपी के पक्ष में नहीं है।
2014 के आम चुनावों में गुजरात की सभी 26 लोकसभा सीटों पर बीजेपी की जीत हुई थी। इसके साथ ही बीजेपी की झोली में 60 फीसदी वोट गए थे, लेकिन मौजूदा दौर में बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में काफी कमी आई है।
शायद यही वजह है कि प्रधानमंत्री मोदी को अपने गृह राज्य का दौरा बार-बार करना पड़ रहा है ताकि अपने गढ़ को वो बचा सकें।
दरअसल, नरेंद्र मोदी के गुजरात से दिल्ली जाने के बाद गुजरात बीजेपी में एक रिक्तता आई है। साथ ही राज्यस्तरीय शासन-तंत्र में भी मोदी की कमी महसूस हुई है। उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद तीन साल में ही गुजरात में दो बार मुख्यमंत्री बदलने पड़े हैं। पहले आनंदीबेन पटेल और अब विजय रुपाणी
गुजरात में हाल के दिनों में पाटीदार समाज के आरक्षण आंदोलनों ने भी पाटीदारों को बीजेपी से दूर करने में बड़ी भूमिका निभाई है। नौकरियों में आरक्षण की मांग को लेकर साल 2015 से ही पाटीदार समाज बीजेपी सरकार के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं।
केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने नोटबंदी और जीएसटी लागू की जिससे भारत के आर्थिक विकास दर में गिरावट आई। इससे भी बीजेपी और पीएम मोदी की लोकप्रियता में कमी आई है।
वर्ल्ड बैंक समेत कई अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों ने आगामी समय में भी अर्थव्यवस्था की रफ्तार कम रहने की आशंका जताई है। इसके अलावा बेरोजगारी और महंगाई की वजह से भी बीजेपी सरकार की लोकप्रियता और जनाधार में कमी आई है।
चूंकि गुजरात एक व्यापार प्रधान राज्य है, इसलिए अर्थव्यवस्था की रफ्तार का सीधा-सीधा असर यहां के जनमानस पर पड़ता है।
जानकार बताते हैं कि मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों की वजह से गुजरात के व्यापारियों को घाटा उठाना पड़ा है। लिहाजा, उनका रुझान भी बीजेपी से हटकर कांग्रेस की तरफ हो सकता है।
इसके अलावा बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के बेटे जय शाह पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप भी चुनावों में बीजेपी को नुकसान पहुंचा सकता है।
पिछले कुछ सालों में गुजरात के अलग-अलग हिस्सों में दलितों पर हुई हिंसा की वजह से भी दलित समाज का बीजेपी से मोहभंग होना स्वभाविक है। ऊना और बड़ोदरा में बड़े पैमाने पर दलित इसकी दस्तक पहले ही दे चुके हैं।
आदिवासी समाज भी बीजेपी सरकार की नीतियों और कार्यों से गुस्से में है क्योंकि अभी तक उन्हें विकास के 'गुजरात मॉडल' का कोई लाभ हासिल नहीं हो सका है।
गुजरात में आबादी के हिसाब से पांचवा स्थान रखने वाले आदिवासी समाज बीजेपी को ही समर्थन देता रहा है।
लिहाजा, विधानसभा की कुल 182 सीटों में से अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 27 में से 14 सीटों पर बीजेपी के उम्मीदवार जीतते रहे हैं, लेकिन इस बार नर्मदा पर बने सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाए जाने से डूब क्षेत्र में सबसे ज्यादा आदिवासी बहुल गांव ही आए हैं। उनका सही ढंग से विस्थापन नहीं हो सका है, इससे जनजातीय समुदाय में बीजेपी के खिलाफ आक्रोश है। इस वजह से माना जा रहा है कि उनका रुझान कांग्रेस की तरफ हो सकता है।
इन्हीं वजहों से 22 सालों से सत्ता से दूर रहने वाली कांग्रेस को गुजरात में परिवर्तन की उम्मीद दिखाई दे रही है। राज्यसभा चुनाव में अहमद पटेल की जीत, गिरती अर्थव्यवस्था पर चौतरफा घिरी मोदी सरकार, दलित-आदिवासियों का बीजेपी से होता मोहभंग देख कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ताबड़तोड़ गुजरात दौरे कर रहे हैं। बीजेपी की तरह ही कांग्रेस सोशल मीडिया को हथियार के रूप में प्रयोग रही है। कांग्रेस गुजरात में धार्मिक, जातीय और अन्य लामबंदी कर सत्ता में वापसी की उम्मीद कर रही है।
भारत एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। इस अर्थव्यवस्था में ई-कॉमर्स कंपनियां मुनाफे की सीढ़ियां चढ़ने से अभी भी काफी दूर हैं।
इन कंपनियों में करोड़ों डॉलर निवेश करने वाले निवेशक अब अच्छे रिजल्ट का दबाव बना रहे हैं, ऐसे में फ्लिपकार्ट और अमेजन जैसी कंपनियां ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए अभी भी आक्रामक तरीके से विज्ञापन पर काफी पैसे खर्च कर रही हैं और भारी डिस्काउंट दे रही हैं।
अमेजन ने कहा कि वित्तवर्ष 2015-16 के दौरान उसे भारत में 3,572 करोड़ रुपये (52.5 करोड़ डॉलर) का नुकसान हुआ है। यह आंकड़ा पिछले साल से दोगुना है।
इसका कारण भी स्पष्ट है। अमेजन ने भारत में इंफ्रास्ट्रक्चर और टेक्नोलॉजी पर बहुत अधिक निवेश किया है क्योंकि अमेरिका के बाद अमेजन के लिए भारत दूसरा सबसे बड़ा बाजार है।
आजकल ई-कॉमर्स शब्द का प्रचलन बहुत बढ़ गया है। हर कोई इसके बारे में बात कर रहा है क्योंकि निवेशकों ने अमेजन, फ्लिपकार्ट और स्नैपडील में खरबों डॉलर का निवेश किया है, जबकि इस सेक्टर ने भारत में अभी तक मुनाफा कमाने का कोई संकेत नहीं दिया है। हर कोई यही अनुमान लगा रहा है कि यह सेक्टर मुनाफा कमाने वाला कब बनेगा?
ऐसा क्यों है कि अमेजन यूएसए ने लगातार आठ तिमाही तक मुनाफा कमाया, लेकिन अमेजन इंडिया ने अभी तक मुनाफा कमाने का कोई संकेत नहीं दिया है, जबकि अमेजन इंडिया में पैरंट कंपनी ने दो अरब डॉलर का निवेश किया।
यह स्थिति इसलिए है क्योंकि अमेरिका की तुलना में भारत का रिटेल मार्केट अलग तरह का है।
दशकों से अमेरिका को एक व्यापक रूप से संगठित मॉडर्न रिटेल मार्केट के रूप में देखा जाता है। यहां ऑनलाइन कारोबार की हर श्रेणी में कुछ लीडर हैं, जिनका मार्केट शेयर पर खासा कब्जा रहता है।
इसकी जगह भारतीय रिटेल मार्केट का संचालन एक करोड़ 20 लाख खानदानी कारोबारियों के मॉम एंड पॉप स्टोर की ओर से किया जाता है। इस बड़े अंतर को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
अमेरिका का आधुनिक रिटेल मार्केटिंग का मॉडल काफी विशाल और विस्तृत है, जिसमें शॉपिंग मॉल के अलग-अलग फ्लोर्स पर शानदार स्टोर्स है, जिसका खर्च काफी ज्यादा है। वहां दुकानों के मालिकों को दुकान के किराए और दूसरी आधारभूत लागत, ऑनलाइन वस्तुओं की लिस्ट को मेंटेंन रखना, कस्टमर सर्विस के लिए हर श्रेणी में कर्मचारियों की नियुक्ति पर काफी खर्च करना पड़ता है। यह लिस्ट काफी लंबी है और रिटेलर को मुनाफा कमाने से पहले प्रॉडक्ट की लागत के अलावा अन्य काफी खर्चे पूरे करने होते हैं।
वहीं दूसरी तरफ अमेजन का ऑनलाइन मॉडल पर खर्च काफी कम आता है क्योंकि प्रॉडक्ट्स को उच्च रूप से स्वचालित गोदाम में रखा जाता है, जिनका किराया किसी अच्छी जगह की तुलना में काफी कम है। इससे दूसरे खर्च भी काफी कम होते हैं। उपभोक्ताओं को कोई शिकायत या सवाल होने पर उनका ऑनलाइन ही समाधान किया जाता है। कहने की जरूरत नहीं है कि अमेरिका में फिजिकल रिटेल मार्केट की तुलना में अमेजन का ऑनलाइन कारोबार करना काफी सस्ता पड़ता है और इसलिए वह बेहतर ढंग से तरक्की कर रहा है। इसके नतीजे काफी स्पष्ट हैं।
अब भारत के परिदृश्य पर नजर डालें, जो इसके ठीक विपरीत है। भारत में खानदानी कारोबारियों (मॉम एंड पॉप स्टोर्स) का 90 फीसदी रिटेल मार्केट पर कब्जा है। इन स्टोरों का संचालन इनके मालिकों द्वारा खुद ही किया जाता है। वह मॉल में मौजूद शोरूम की अपेक्षा काफी कम किराया चुकाते हैं। इनमें कम कर्मचारी रखे जाते हैं। इन कर्मचारियों के वेतन काफी कम होते है। इन शोरूम में काफी कम मार्जिन लेकर काम किया जाता है। उनमें अपेक्षाकृत कम सामान ही रहता है और ग्राहक होने पर सामान का प्रबंध कर दिया जाता है। उनकी कोई ऑनलाइन मौजूदगी नहीं होती। इन्हें डिजिटलीकरण और ऑनलाइन सामान की सूची बनाने का भी काम नहीं करना पड़ता। इसीलिए इनके खर्चे कम हैं और यह काफी कम मार्जिन पर भी काम कर लेते हैं।
इसके अलावा एक अतिरिक्त परेशानी यह है कि मल्टीब्रैंड रिटेल पर एफडीआई पर सरकार के दिशा-निर्देशों के अनुसार मार्केट प्लेस के ऑपरेटर विक्रेता नहीं हो सकते। इसका मतलब यह है कि वह सीधे विक्रेताओं से सामान खरीदकर नहीं बेच सकते। वह सिर्फ मार्केट प्लेस का संचालन कर सकते हैं, जो विक्रेताओं को खरीदारों से जोड़ता है।
इसलिए आखिर में कोई रिटेलर या डिस्ट्रिब्यूटर ही ऑनलाइन पोर्टल पर सामान बेचता है, पर ऑनलाइन कॉमर्स के मौजूदा मॉडल ने खर्चो में काफी बढ़ोत्तरी की है। इसमें प्रॉडक्ट को पिक करने, उन्हें गोदाम में रखने, डिलिवरी, कैश ऑन डिलिवरी (सी ओ डी) मैनेजमेंट और ऑनलाइन और ऑफलाइन ब्रांडिंग के कई खर्च जुड़े होते हैं।
इन खर्चो को कौन पूरा करेगा? मौजूदा ऑनलाइन मॉडल से रिटेल चेन की क्षमताएं नहीं बढ़ रही है और न ही इन खर्चो को पूरा करने के लिए लागत पर कोई बचत की जा सकती है। वेंचर कैपिटल से ही सारे खर्चे पूरे करने पड़ते हैं और इसीलिए भारत में दशकों के संचालन के बाद भी ऑनलाइन कारोबार को लगातार घाटा झेलना पड़ रहा है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि पश्चिमी देशों का ई-कॉमर्स मॉडल हू-ब-हू अपनाने और कट और पेस्ट करने की जगह भारत को अपना नया ई-कॉमर्स मॉडल विकसित करने की जरूरत है, जिससे 1 करोड़ 20 लाख रिटेलर्स को इससे लाभ उठाने का मौका मिले और वे ऑनलाइन खरीदारों तक बिना कोई ज्यादा खर्च किए हुए पहुंच सके।
हमें डिजिटल विभाजन की खाई को पाटना है। इसे बढ़ाना नहीं है। हमें उस मॉडल की जरूरत है, जिससे ज्यादा से ज्यादा नौकरियां पैदा की जा सकें और रिटेल इंडस्ट्री पर निर्भर हर भागीदार को इससे लाभ कमाने का मौका मिले। केवल उन थोड़े से लोगों को इसका लाभ नहीं मिलना चाहिए, जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों से भारी मात्रा में फंड प्राप्त होता है और जो अपनी मनमर्जी से संसाधन जुटाने के लिए पैसा फिजूल खर्च करते हों।
भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह के बेटे जय शाह की कंपनी विवादों में फंस गई है।
उनकी कंपनी टेम्पल इन्टरप्राइजेज प्राइवेट लिमिटेड का टर्नओवर साल 2015-16 में 16 हजार गुना बढ़ा है।
यह बढ़ोत्तरी तब हुई, जब केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी और उनके पिता अमित शाह बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए।
इससे पहले टेम्पल इन्टरप्राइजेज प्राइवेट लिमिटेड का टर्नओवर न के बराबर था।
'द वायर' के मुताबिक, जय शाह की कंपनी के टर्नओवर में उछाल की वजह 15.78 करोड़ रुपये का अनसेक्योर्ड लोन है जिसे राजेश खंडवाल की KIFS फिनांशियल सर्विसेज फर्म ने उपलब्ध कराया है, लेकिन हैरत की बात ये है कि लोन देने वाली KIFS फिनांशियल सर्विसेज ने जिस साल जय शाह की कंपनी को लोन दिया, उस साल उसकी कुल आय 7 करोड़ रुपये थी।
दूसरी बड़ी बात आरओसी के दस्तावेज से यह बात सामने आई है कि KIFS फिनांशियल सर्विसेज की एनुअल रिपोर्ट में टेम्पल इन्टरप्राइजेज को दिए गए 15.78 रुपये के अनसेक्योर्ड लोन का कोई जिक्र नहीं है।
बता दें कि राजेश खंडवाल बीजेपी के राज्यसभा सांसद और रिलायंस इंडस्ट्रीज के टॉप एग्जिक्यूटिव परिमल नथवानी के समधी हैं।
जय शाह की कंपनी की बैलेंस शीट में बताया गया है कि मार्च 2013 और मार्च 2014 तक उनकी कंपनी में कुछ खास कामकाज नहीं हुए और इस दौरान कंपनी को क्रमश: कुल 6,230 रुपये और 1,724 रुपये का घाटा हुआ।
लेकिन जैसे ही केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी और उनके पिता बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने जय शाह की कंपनी के टर्नओवर में आश्चर्यजनक रूप से इजाफा हुआ है।
साल 2014-15 के दौरान उनकी कंपनी को कुल 50,000 रुपये की इनकम पर कुल 18,728 रुपये का लाभ हुआ। मगर 2015-16 के वित्त वर्ष के दौरान जय की कंपनी का टर्नओवर लंबी छलांग लगाते हुए 80.5 करोड़ रुपये का हो गया। यह 2014-15 के मुकाबले 16 हजार गुना ज्यादा है।
जय शाह के वकील ने 'द वायर' को बताया है कि राजेश खंडवाल शाह परिवार के पुराने मित्र हैं। इसके अलावा वो पिछले कई सालों से शाह परिवार के शेयर ब्रोकिंग का कामकाज देख रहे हैं। इसके अलावा उनकी एन बी एफ सी फर्म पिछले कई सालों से जय शाह और जीतेंद्र शाह के बिजनेस को लोन देते रहे हैं।
दस्तावेजों से यह भी खुलासा हुआ है कि साल 2015 में राजेश खंडवाल और जय शाह ने मिलकर सत्वा ट्रेडलिंक नाम का लिमिटेड लायबलिटी पार्टनरशिप (एल एल पी) बनाया था, लेकिन जल्द ही उसे बंद कर दिया गया।
जय शाह की तरफ से उनके वकील ने 'द वायर' को बताया कि दोनों ने मिलकर एल एल पी खोला था, लेकिन बाजार में विपरीत परिस्थितियों की वजह से उसमें कोई कारोबार नहीं हो सका। इसके बाद उसे बंद कर दिया गया और आरओसी के रिकॉर्ड से भी हटवा दिया गया।
आरओसी के दस्तावेजों से यह भी खुलासा हुआ है कि जय की कंपनी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि उसकी आय का 95 फीसदी कृषि उत्पादों की बिक्री से आया है, जबकि उनकी कंपनी के पास न तो कोई स्टॉक की डिटेल है और न ही इन्वेंटरीज। इसके अलावा उनकी कंपनी की चल-अचल संपत्ति का भी कोई विवरण नहीं है।
भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर यज्ञ वेणुगोपाल रेड्डी ने देश की आर्थिक वृद्धि के लिए गठबंधन सरकारों को बेहतर बताया क्योंकि पिछले तीन दशक में इन्होंने बहुमत की सरकारों की अपेक्षा भारत को बेहतर आर्थिक वृद्धि दी है।
रेड्डी ने कहा, ''यह रोचक बात है कि भारत में सबसे अधिक आर्थिक वृद्धि 1990 से 2014 के बीच गठबंधन सरकारों के दौरान ही रही। एक तरह से देखा जाए तो आम सहमति के आधार पर भारतीय परिस्थितियों में एक गठबंधन सरकार किसी मजबूत (पूर्ण बहुमत) वाली सरकार की अपेक्षा बेहतर आर्थिक परिणाम देती है।''
वर्ष 1991 में भारत के भुगतान संकट का उल्लेख करते हुए रेड्डी ने कहा, ''उस दौर की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि अस्थिर राजनीतिक हालातों के बावजूद उन्होंने, जो कदम उठाए जाने की जरुरत थी, उनके लिए एक आम राजनीतिक सहमति बनायी और इसका सफलतापूर्वक प्रबंधन किया।''
वह अमेरिका के प्रमुख थिंक टैंक हडसन इंस्टीट्यूट में बोल रहे थे। रेड्डी वर्ष 2003 से 2008 तक रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे।
उन्होंने कहा कि वर्ष 2008 का विश्व आर्थिक संकट अभी तक टला नहीं है।
रेड्डी ने कहा, ''लघु अवधि में निश्चित तौर पर स्थिति बेहतर हुई है, लेकिन मध्यम अवधि में अभी भी प्रश्नचिन्ह लगे हुए हैं।''
उन्होंने कहा कि वह अगले 10 साल में भू-राजनैतिक परिस्थितयों में महत्वपूर्ण बदलाव देखते हैं। पूंजी के वैश्वीकरण की वर्तमान प्रक्रिया में कई सरकारों का मानना है कि लोगों की उम्मीदों के अनुरूप नीतियां बनाने की उनकी क्षमता पर वैश्वीकरण ने अंकुश लगाया है।
रेड्डी ने कहा, ''अब हम वैश्विक और राष्ट्रीय, राज्य और बाजार, वित्त और गैर-वित्त के बीच नए संतुलन की खोज में हैं। यह खोज जारी है।''
उन्होंने कहा कि अगले 10-15 साल में होने वाले जनांकिकीय और तकनीकी परिवर्तन पर्यावरण मुद्दों के लिए भी चिंता का विषय है और यह तीन विषय वैश्विक अर्थव्यवस्था के सामने सबसे बड़ी चुनौती हैं।
एक सवाल के जवाब में पूर्व गवर्नर ने कहा कि दिवाला एवं शोधन अक्षमता संहिता एक अच्छा कदम है और सभी इस बात से इत्तेफाक रखते हैं।
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आर्थिक सलाहकर परिषद का गठन किया है। इस परिषद में जाने-माने अर्थशास्त्रियों को शामिल किया गया है जिनका काम प्रधानमंत्री को आर्थिक मामलों पर सलाह देना होगा।
पिछली आर्थिक सलाहकार परिषद का कार्यकाल पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल के साथ ही ख़त्म हो गया था। नई सरकार बनने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस परिषद का गठन नहीं किया था।
मगर अब लगभग साढ़े तीन साल बाद उन्होंने अर्थशास्त्रियों के एक समूह को अपना परामर्शदाता बनाया है।
सवाल उठता है कि क्या वजह हो सकती है कि शुरू में इसका गठन नहीं किया गया। अब मोदी ने इस परिषद को क्यों बनाया गया?
इस पर पटना स्थित एन एन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज़ में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर डीएम दिवाकर ने बीबीसी से कहा, ''जब नोटबंदी का ऐलान हुआ था, देश-दुनिया में अर्थशास्त्र की समझ रखने वालों ने इसे नकारा था।
उसी वक्त लग रहा था कि प्रधानमंत्री मोदी के पास अच्छे आर्थिक सलाहकर होते तो ऐसी ग़लती नहीं होती।
आज जब अर्थव्यवस्था लुढ़कती जा रही है, उस दौर में बिना किसी तैयारी के जिस तरह से जीएसटी लागू किया गया, आशंका है कि इसके कारण अर्थव्यवस्था और लुढ़केगी।
चारों तरफ इसका आकलन हो रहा है। ऐसे में अब अगर अर्थशास्त्रियों का दल तैयार किया गया है तो बहुत देर हो चुकी है।
दूसरी बात यह है कि 2019 में चुनाव होने वाले हैं। डेढ़ साल के वक़्त में अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना चुनौती भरा काम होगा।
आज इनफॉर्मल सेक्टर के पूरे कारोबार क़रीब-क़रीब बैठ गए हैं। इसके बावजूद अगर अर्थशास्त्री अपनी बात कहना शुरू करें तो हमें दूसरी आशंका है।
रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया के गवर्नर रघुराम राजन और नीति आयोग के वाईस चेयरमैन अरविंद पनगढ़िया जिस तरह से गए हैं, सबने देखा है।
प्रधानमंत्री मोदी के काम करने का जो तरीका है, उसके आधार पर उम्मीद नहीं है कि अर्थशास्त्रियों के सुझावों पर कुछ अमल किया जाएगा।
अच्छा लगेगा, अगर सुविचारित मतों के साथ नई नीतियां बनें और कोई इकनॉमिक पॉलिसी तैयार हो।
उसमें अगर इकनॉमिक्स के बुनियादी सिद्धांतों को ध्यान में रखा जाए तो अर्थव्यवस्था और ख़राब नहीं होगी।
इस परिषद के प्रमुख बिबेक देबरॉय होंगे जो नीति आयोग के सदस्य भी हैं। उन्होंने नीतिगत्र पत्र तैयार किया था।
कृषि पर आधारित उस पत्र से नहीं लगता कि वह अर्थव्यवस्था के भारतीय मौलिक चिंतन को साथ लेकर चलते हैं।
आज जिस तरह से बिबेक देबरॉय चल रहे हैं, बिबेक देबरॉय कॉरपोरेट गवर्नेंस के पक्ष में चलने वाले लोग हैं और बड़े उद्योगों की बात करेंगे।
मगर भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़, असंगठित क्षेत्र के कारोबार और उद्योगों की दिशा में बिबेक देबरॉय का चिंतन अभी की अर्थव्यवस्था को सूट नहीं करेगा।
अध्यक्ष (बिबेक देबरॉय) के नाते अगर उनकी ही बात को समझने के लिए बाकी लोगों को रखा गया है तो इस परिषद से कोई उम्मीद नहीं है।
मगर लोकतांत्रिक प्रक्रिया से बाकी लोगों की बात भी सुनी जाएगी तो शायद कुछ होगा।
अगर अर्थशास्त्र के बुनियादी सिद्धांतों की बात होगी तो अभी तक हुए नुकसान से अलग हटकर निराकरण का रास्ता ढूंढा जा सकता है।
ज़रूरत इस बात की है कि भारत में अर्थशास्त्रियों के समूह के बीच बहस तेज़ करवाई जाए।
मोदी सरकार ने यह धारणा बनाई कि 70 साल में कुछ नहीं हुआ। इसके आधार पर आनन-फ़ानन में योजना आयोग खत्म किया गया।
योजना आयोग में कम से कम इतनी बात तो थी कि विचारों की असहमति की इज्ज़त होती थी। सरकार अपने विरोध में खड़े लोगों की बात भी इस मंच पर सुनती थी।
योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे मोंटेक सिंह अहलूवालिया के अपनी ही सरकार की पॉलिसी के ख़िलाफ़ आर्टिकल छपते थे।
नीति आयोग बनने के बाद योजना आयोग का यह पहलू ख़त्म हो गया। शायद सोचा होगा कि योजना आयोग किसी काम का नहीं है। हम लोग सब कुछ समझते हैं या हमारे लोग सब जानते हैं या फिर हमारा राजनीतिक एजेंडा ही फ़ाइनल है।
वजह जो भी रही हो, इसके बारे में वही बेहतर बता सकते हैं।
मगर योजना आयोग और आर्थिक सलाहकार परिषद का कार्यकाल ख़त्म होने के बाद जिस तरह का स्वरूप बना, वह सुविचारित प्रयास था। अपने हिसाब से चलाने का और वह देश के हित में नहीं था।
योजना आयोग की तरह या आर्थिक सलाहकर समिति की तरह इनके पास थिंक टैंक होता तो नोटबंदी की कतई सलाह नहीं देता।
आज दुनिया के देश भी आश्चर्य से देख रहे हैं कि जो देश वैश्विक मंदी के बाद अपने सर्वाधिक ग्रोथ रेट के साथ चल रहा था, नोटबंदी के बाद ऐसे लुढ़का दिया गया और उसके बाद जैसे आनन-फ़ानन में जीएसटी लागू हो गया, इसके परिणाम भयावह आने वाले हैं।
मोदी सरकार ने समीक्षा तो की है और ख़ासकर नौजवानों को लेकर। चिंता इस बात की भी है कि ग्रोथ रेट तेज़ी से नीचे जा रहा है तो सरकार की ज़रूरत के खर्चे कहां से निकलेंगे?
हालांकि इसके लिए इन्होंने प्लान और नॉन प्लान के खर्च को एकसाथ कर दिया है, जिससे पता नहीं चलता कि डिवेलपमेंट पर क्या खर्च होना है और मेनटेंनेंस पर क्या?''
बिहार में भागलपुर के कहलगाँव के बटेश्वर स्थान पर गंगा पंप नहर योजना का बांध उदघाट्न से 15 घंटे पहले टूट गया।
बुधवार को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भागलपुर जिले के कहलगांव में करीब 40 साल बाद पूरी हुई बटेश्वर स्थान गंगा पंप नहर परियोजना का उद्घाटन करना था।
मंगलवार को पटना से प्रकाशित होने वाले कई अखबारों में इस उद्घाटन समारोह से संबंधित विज्ञापन भी प्रकाशित हुए थे। नहर परियोजना की दीवार टूटने के बाद यह कार्यक्रम स्थगित कर दिया गया है।
बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव इस घटना के बाद ट्वीट कर नीतीश कुमार पर निशाना साध रहे हैं। एक ट्वीट में उन्होंने कहा, ''जल संसाधन विभाग भ्रष्टाचार का अड्डा है। मुख्यमंत्री जी इस विभाग के भ्रष्टाचार पर ना जाने क्यों चुप रहते है?''
एक अन्य ट्वीट में उन्होंने तंज किया, ''नीतीश जी बताएं, 828 करोड़ की लागत से बनी इस परियोजना को भी चूहे कुतर गए हैं क्या, जो बाँध टूट गया? इसका सेहरा भी चूहों के सिर बांधना चाहिए।''
तेजस्वी यादव ने एक अन्य ट्वीट में नीतीश की कड़ी आलोचना करते हुए कहा, ''CM नीतीश जी के लिए इससे बड़ी प्रशासनिक विफलता क्या होगी कि उद्घाटन से चंद घंटों पहले ही 828 करोड़ रुपये का बाँध भ्रष्टाचार रुपी गंगा में बह जाता है।''
बांध की टूट के लिए वहां के कांग्रेसी विधायक सदानंद सिंह ने इंजीनियरों और ठेकेदारों की घोर लापरवाही को जिम्मेदार करार दिया है।
राजद कार्यकर्ताओं ने इस नहर निर्माण को भ्रष्टाचार की जीती जागती मिसाल बताई है। और इसके खिलाफ जांच की मांग को लेकर बुधवार को एक दिवसीय धरना पर बैठे है।
कांग्रेस विधायक ने तंज कसा कि करप्शन पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का जीरो टालरेंस कहां गया?
पीरपैंती के राजद विधायक रामविलास पासवान ने इस घटना के लिए इंजीनियरों और ठेकेदारों की मिलीभगत को जिम्मेदार बताया है।
बुधवार सुबह 10 बजे 40 साल से बेसब्री से इंतजार हो रही नहर का विधिवत उद्धाटन होना था। मंगलवार शाम को ट्रायल के तौर पर पंप को जैसे ही चालू कर पानी नहर में छोड़ा गया, वैसे ही कहलगांव एनटीपीसी के पास बने बांध की दीवार करीब छह फीट टूट गई और पानी का बहाव इतना तेज था कि देखते ही देखते सीआईएसएफ कालोनी की 150 मीटर दीवार बह गई।
पानी लोगों के क्वार्टर में घुस कर गया। और आसपास का इलाका जलमग्न हो गया।
मंगलवार को नहर में हुई टूट से एनटीपीसी टाउनशिप के साथ-साथ कहलगांव के सिविल जज और सब-जज के आवास में पानी प्रवेश कर गया था।
अकबरपुर और रानी लघरिया गांवों में पानी प्रवेश कर गया। वहीं कहलगांव के सत्कार चौक और मुरकटिया चौक की तरफ आने जाने वाला रास्ता भी पानी में डूब गया।
रात में ही डीएम आदेश तितमारे और एसएसपी मनोज कुमार मौके पर पहुंचे। एस डी आर एफ की टीम बचाव काम में लगाई गई। नहर के पंप को बंद कराया।
जानकारी के मुताबिक, इलाके से पानी लगभग निकल चुका है, लेकिन कुछ रास्तों पर गाद (मिट्टी) जमा हो गई है।
जल संसाधन के प्रधान सचिव अरुण कुमार सिंह ने बुधवार को दोपहर में फोन पर बताया कि इस बाबत न तो जांच कमिटी बनाने की जरूरत है और न ही किसी के खिलाफ कार्रवाई की गई है। पटना जाने के बाद कार्रवाई के बिंदु पर सलाह की जाएगी। नहर के पास गलत कलवर्ट बनाने की वजह से यह हालात पैदा हुए। जिसकी मरम्मत का निर्देश दिया गया है।
दो महीने के अंदर परियोजना की तमाम खामियों और रिसाव को दुरुस्त करा लेने का भरोसा प्रधान सचिव ने दिया है। पुल के पास बना कलवर्ट एनटीपीसी ने 1994-95 में बनवाया था जो बगैर एनओसी के चालू कर दिया गया।
जबकि कहलगांव एनटीपीसी के कार्यपालक निदेशक राकेश सैमुअल ने एनओसी लेकर ही ओवर ब्रिज चालू करने की बात पत्रकारों से कहीं।
हैरत की बात यह है कि राज्य सरकार के इंजीनियर और अधिकारियों ने ऐसे कमजोर कलवर्ट को नजरदांज कैसे कर दिया? साथ ही उद्घाटन की पूर्व संध्या पर ही ट्रायल क्यों किया गया? इन सवालों के जवाब आने बाकी हैं।
इससे पहले भी 7, 11 और 19 जुलाई को इस परियोजना के उद्घाटन की तारीख टल चुकी है।
अब तो बांध की दीवार ही टूट गई।
हालात देखने पर लगता है अभी नहर के बांध को दुरुस्त कर चालू करने में थोड़ा और वक्त लगेगा।