नोटबंदी के बाद जनवरी से अप्रैल 2017 के बीच देश में कुल नौकरियों की संख्या घटकर 405 मिलियन रह गई थी जो कि सितंबर से दिसंबर 2016 के बीच 406.5 मिलियन थी।
नोटबंदी के बाद भारत में लगभग 15 लाख लोगों को नौकरियां गंवानी पड़ी हैं। एक सर्वे में यह खुलासा हुआ है। अगर एक कमाऊ शख्स पर घर के चार लोग आश्रित हैं तो इस लिहाज से पीएम नरेंद्र मोदी के एक फैसले से 60 लाख से ज्यादा लोगों को रोटी के लिए परेशान होना पड़ा है।
सेन्टर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनोमी (सीएमआईई) ने सर्वे में त्रैमासिक वार नौकरियों का आंकड़ा पेश किया है। सीएमआईई के कंज्यूमर पिरामिड हाउसहोल्ड सर्वे से पता चलता है कि नोटबंदी के बाद जनवरी से अप्रैल 2017 के बीच भारत में कुल नौकरियों की संख्या घटकर 405 मिलियन (40. 5 करोड़) रह गई थी जो कि सितंबर से दिसंबर 2016 के बीच 406.5 मिलियन थी। यानी नोटबंदी के बाद नौकरियों की संख्या में करीब 1.5 मिलियन अर्थात 15 लाख की कमी आई।
पूरे भारत में हुए हाउसहोल्ड सर्वे में जनवरी से अप्रैल 2016 के बीच युवाओं के रोजगार और बेरोजगारी से जुड़े आंकड़े जुटाए गए थे। इस सर्वे में कुल 1 लाख 61 हजार, एक सौ सड़सठ घरों के कुल 5 लाख 19 हजार, 285 युवकों का सर्वे किया गया था। सर्वे में कहा गया है कि तब 401 मिलियन यानी 40.1 करोड़ लोगों के पास रोजगार था। यह आंकड़ा मई-अगस्त 2016 के बीच बढ़कर 403 मिलियन यानी 40.3 करोड़ और सितंबर-दिसंबर 2016 के बीच 406.5 मिलियन यानी 40.65 करोड़ हो गया।
इसके बाद जनवरी 2017 से अप्रैल 2017 के बीच रोजगार के आंकड़े घटकर 405 मिलियन यानी 40.5 करोड़ रह गए। मतलब साफ है कि इस दौरान कुल 15 लाख लोगों की नौकरियां खत्म हो गईं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि आठ नवंबर 2016 को लागू हुई नोटबंदी का व्यापक प्रभाव इन महीनों में पड़ा है। हालांकि, रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि सितंबर से दिसंबर 2016 में खत्म हुई तिमाही में भी नोटबंदी के आंशिक प्रभाव पड़े हैं।
सर्वे रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि जनवरी 2016 से अक्टूबर 2016 तक श्रमिक भागीदारी 46.9 फीसदी थी जो फरवरी 2017 तक घटकर 44.5 फीसदी, मार्च तक 44 फीसदी और अप्रैल 2017 तक 43.5 फीसदी रह गई। यानी कल-कारखानों और उद्योगों में आई मंदी की वजह से श्रमिकों को काम नहीं मिले।
रिपोर्ट में कहा गया है कि सितंबर से दिसंबर 2016 के अंतिम तिमाही में रोजगार के आंकड़ों में कम गिरावट की वजह अच्छी खरीफ फसल का उत्पादन होना है।
सर्वे में कहा गया है कि नवंबर के बाद बाजार में आई कैश की किल्लत से श्रमिक वर्ग को खासी परेशानियां उठानी पड़ीं।
बिहार की सियासत में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के खिलाफ राजनैतिक गोलबंदी शुरू हो चुका है। इसमें जनता दल यूनाइटेड के अध्यक्ष और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सबसे ज्यादा प्रभावित होने की खबरें हैं। ऐसी खबरें हैं कि नीतीश कुमार के सत्ता जा सकती है। यही वजह है कि मुख्यमंत्री का पद जाने के डर से नीतीश कुमार ने तेजस्वी यादव से इस्तीफा लेने के मामले में फिलहाल चुप्पी साध ली है।
सूत्रों के अनुसार, तेजस्वी से इस्तीफा मांगने के बाद अगर सरकार गिरती है तो नीतीश कुमार बीजेपी के साथ जाकर सरकार बना सकते हैं। लेकिन सूत्र बता रहे हैं कि नीतीश की इस कोशिश को उनके ही दल के विधायकों ने जोरदार झटका दिया है।
सूत्रों के मुताबिक, जेडीयू के अधिकांश मुस्लिम और यादव विधायकों ने बीजेपी के साथ जाने की बजाय अलग रास्ता अपनाने का मन बना लिया है।
जदयू के अंदर चल रही हलचल की बानगी केरल से पार्टी के एकमात्र सांसद वीरेंद्र कुमार ने जगजाहिर कर दी। वीरेंद्र कुमार ने बीजेपी से गठबंधन की खबरों को खारिज किया है। साथ ही, उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव में पार्टी द्वारा एनडीए के राष्ट्रपति उम्मीदवार रामनाथ कोविंद को समर्थन देने के फैसले को भी नजरअंदाज कर दिया।
एचटी मीडिया ने जेडीयू के एक वरिष्ठ नेता के हवाले से लिखा है कि अगर नीतीश कुमार बीजेपी का दामन थामते हैं तो जदयू के कई विधायक खासकर सीमांचल-कोशी इलाके से चुनकर आने वाले विधायक अलग राह अपना सकते हैं। यानी पार्टी में फूट हो सकती है।
सूत्र बताते हैं कि जेडीयू के अधिकांश मुस्लिम और यादव विधायक बीजेपी से किसी तरह के गठबंधन के सख्त खिलाफ हैं। ऐसे में अगर नीतीश कुमार महागठबंधन तोड़कर एनडीए में शामिल होने की कोशिश करते हैं तो उन्हें अपनी ही पार्टी में सबसे ज्यादा चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है और नीतीश कुमार की मुख्यमंत्री की कुर्सी जा सकती है।
सूत्र बताते हैं कि जेडीयू के वरिष्ठ नेता और पूर्व अध्यक्ष शरद यादव का भी बीजेपी की तरफ झुकाव नहीं है। अगर नीतीश कुमार इसके बाद भी बीजेपी से मोहभंग नहीं करते हैं तो उनकी पार्टी में बँटवारा हो सकता है।
माना जा रहा है कि एनडीए में शामिल होने की दशा में 71 में से करीब 20 विधायक नीतीश के खिलाफ जा सकते हैं। जेडीयू के 12 सांसदों में से 6 भी इसी तरह की मुखालफत कर सकते हैं।
एचटी मीडिया के मुताबिक, सरफराज आलम, मुजाहिद आलम, सरफुद्दीन आलम और नौशाद आलम कुछ ऐसे नाम हैं जो जेडीयू के एनडीए में शामिल होने की दशा में नीतीश से बगावत कर सकते हैं।
पिछले कुछ दिनों से तेजस्वी यादव के इस्तीफे को लेकर महागठबंधन के दो दलों राजद और जेडीयू के बीच तल्खी देखने को मिल रही है। जेडीयू जहां तेजस्वी यादव से बेनामी संपत्ति मामले में सीबीआई के आरोपों पर सफाई मांगी थी, वहीं राजद की ओर से स्पष्ट कहा गया था कि तेजस्वी यादव पद से इस्तीफा नहीं देंगे।
इस बीच मंगलवार शाम को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के बीच उपजे राजनीतिक हालातों पर करीब 45 मिनट तक बातचीत हुई थी।
भारत में बौद्ध धर्म मानने वाले लोगों की संख्या 84 लाख के करीब है जिसमें 87 फीसदी लोगों ने धर्म परिवर्तन किया है। धर्म परिवर्तन करके बौद्ध धर्म अपनाने वालों में अधिकांश लोग दलित समुदाय के हैं जो हिंदू धर्म के जातिगत उत्पीड़न से बचने के लिए बौद्ध बने। शेष 13 फीसदी बौद्ध आबादी पूर्वोत्तर राज्यों और उत्तरी हिमालय के इलाकों में रहने वाली पारंपरिक बौद्ध समुदाय से आती है।
धर्म परिवर्तन करके बौद्ध धर्म अपनाने वाले ऐसे लोगों को नव-बौद्ध कहा जाता है और यह नव-बौद्ध समुदाय साक्षरता दर, नौकरियों में हिस्सेदारी तथा लिंगानुपात के मामले में आज हिंदू दलित समुदाय से बेहतर स्थिति में है। इंडिया स्पेंड द्वारा जनगणना-2011 के आंकड़ों के विश्लेषण में यह खुलासा हुआ है।
भारत में बौद्ध समुदाय का 87 फीसदी हिस्सा धर्म परिवर्तन करके बौद्ध बनी आबादी है और उसमें भी अधिकांश हिस्सा हिन्दू दलित समुदाय से आता है जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि बौद्ध धर्म के लोगों का विकास वास्तव में दलित समुदाय का विकास है।
भारत में बौद्ध धर्म मानने वालों का साक्षरता दर 81.29 फीसदी है जो 72.98 फीसदी के राष्ट्रीय दर से अधिक है। वहीं हिंदुओं में साक्षरता दर 73.27 फीसदी है, जबकि अनुसूचित जातियों में साक्षरता दर इससे काफी नीचे 66.07 फीसदी ही है।
सहारनपुर में पांच मई, 2017 को हुई सांप्रदायिक हिंसा में आरोपी संगठन भीम आर्मी के नेता सतपाल तंवर का कहना है, ''संगठन में मौजूद शीर्ष स्तर के अधिकतर दलित नेता बौद्ध हैं।''
भीम आर्मी बीते दिनों बड़ी संख्या में दलितों का धर्म परिवर्तन करा के बौद्ध धर्म अपनाने की मुहिम के चलते चर्चा में रही थी। तंवर कहते हैं, ''ऐसा इसलिए है क्योंकि जाति व्यवस्था की अपेक्षा बौद्ध धर्म उन्हें आत्मविश्वास प्रदान करता है।''
छत्तीसगढ़ में रहने वाली बौद्ध आबादी में साक्षरता 87.34 फीसदी है, जबकि महाराष्ट्र में 83.17 फीसदी और झारखंड में 80.41 फीसदी है।
गौरतलब है कि धर्म परिवर्तन करके बौद्ध बनाने वालों की सर्वाधिक संख्या महाराष्ट्र में है और इसके बाद मध्य प्रदेश, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश का नंबर आता है।
इस मामले में महाराष्ट्र का उदाहरण सबसे अनूठा है। महाराष्ट्र की कुल आबादी का 5.81 फीसदी हिस्सा बौद्ध है, जिनकी कुल जनसंख्या 65 लाख के करीब है और इस मामले में महाराष्ट्र सभी राज्यों से आगे है।
उल्लेखनीय है कि भारतीय संविधान के निर्माता बी. आर. अंबेडकर महाराष्ट्र के ही रहने वाले थे और उन्होंने 1956 में महाराष्ट्र में ही 60,000 समर्थकों के साथ धर्म परिवर्तन करके बौद्ध धर्म अपना लिया था।
जाति व्यवस्था के खिलाफ इस तरह का विरोध आज भी जारी है, हालांकि धर्म परिवर्तन कराने वालों की संख्या में जरूर गिरावट आई है। उत्तर प्रदेश में बौद्ध समुदाय के बीच साक्षरता 68.59 फीसदी है जो राज्य की औसत साक्षरता (67.68 फीसदी) से अधिक है और राज्य में निवास करने वाली अनुसूचित जातियों की साक्षरता (60.88 फीसदी) से काफी अधिक है। बौद्ध समुदाय में महिलाओं की साक्षरता दर (74.04 फीसदी) भी काफी अच्छी है जो पूरे देश में महिलाओं की साक्षरता दर 64.63 से काफी बेहतर है।
2011 में बौद्ध समुदाय के बीच लिंगानुपात प्रति 1,000 व्यक्ति पर 965 था, जबकि देशभर में अनुसूचित जातियों के बीच लिंगानुपात 945 था, वहीं लिंगानुपात का राष्ट्रीय दर 943 थी।
सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक नितिन तगाड़े ने कहा, ''कृषि भूमि की कमी या पारंपरिक पेशे की कमी के चलते महाराष्ट्र के दलितों ने नौकरियां हासिल करने के लिए शिक्षा का रास्ता चुना। इसलिए शिक्षा हासिल करने और शहरों की ओर रुख करने के मामले में वे दूसरे समुदायों से आगे रहे।''
पूरे भारत में (जम्मू-कश्मीर को छोड़कर) एक टैक्स सिस्टम जीएसटी यानी गुड्स एंड सर्विस टैक्स 1 जुलाई से लागू हो गया है। जीएसटी परिषद ने सभी वस्तुओं और सेवाओं को चार टैक्स स्लैब (5 प्रतिशत, 12 प्रतिशत, 18 प्रतिशत और 28 प्रतिशत) में विभाजित किया है। जीएसटी परिषद ने 12011 वस्तुओं को इन चार वर्गों में रखा है।
आम जनता के लिए उपयोगी करीब 80 वस्तुओं पर शून्य टैक्स (कर मुक्त ) लगेगा। सिगरेट, शराब, बिजली और पेट्रोलियम उत्पादों (पेट्रोल, डीजल इत्यादि) को अभी जीएसटी से बाहर रखा गया है।
लेकिन जीएसटी लागू करने के अलावा मोदी सरकार के एक कदम ने आम जनता को दोहरा तमाचा मारा है। दरअसल जीएसटी के बाद बैंकिंग सर्विसेज महंगी हो गई हैं क्योंकि अभी इन पर 15 प्रतिशत टैक्स देना पड़ता था, जबकि जीएसटी में 18 प्रतिशत टैक्स तय किया गया है।
यानी 1 जुलाई से डिमांड ड्राफ्ट, फंड ट्रांसफर जैसी सेवाएं महंगी हो गई हैं। इसी तरह, टर्म पॉलिसीज, एंडोमेंट पॉलिसीज और यूलिप्स आदि के इंश्योरेंस प्रीमियम भी महंगे हो गए हैं।
इसके अलावा टेलिफोन बिल पर मौजूदा 15 प्रतिशत की बजाय 18 प्रतिशत जीएसटी लगेगा इसलिए फोन का बिल भी ज्यादा आएगा।
वहीं दूसरी ओर मोदी सरकार ने छोटे निवेशकों को झटका देते हुए स्मॉल सेविंग स्कीम के तहत आने वाले पब्लिक प्रॉविडेंट फंड (पीपीएफ) अकाउंट, किसान विकास पत्र (केवीपी) और राष्ट्रीय बचत पत्र (एनएससी) पर मिलने वाले ब्याज में कटौती की है।
30 जून को सरकार ने इन छोटे निवेशों पर 10 बेसिस प्वाइंट ब्याज दर में कटौती की है। अब पीपीएफ और एनएससी पर 7.8 फीसदी ब्याज मिलेगा, जबकि केवीपी पर 7.5 फीसदी ब्याज मिलेंगे। इनके अलावा वरिष्ठ नागरिकों की बचत योजनाओं और सुकन्या समृद्धि योजना की ब्याज दरें भी फिर से निर्धारित की गई हैं। ये व्यवस्था भी एक जुलाई से ही लागू हो गई है।
इसका सीधा-सीधा मतलब यह हुआ कि आपको सर्विसेज के लिए ज्यादा पैसा देना होगा और जो पैसा आप बचत के लिए निवेश कर रहे हैं, उस पर आपको कम ब्याज दर से पैसा मिलेगा।
गोवंश से जुड़ी हिंसा के मामले केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद बहुत तेजी से बढ़े हैं। डाटा वेबसाइट इंडिया स्पेंड की रिपोर्ट के अनुसार, साल 2010 से 2017 के बीच गोवंश को लेकर हुई हिंसा में 57 प्रतिशत पीड़ित मुसलमान थे। इस दौरान गोवंश से जुड़ी हिंसा में मारे जाने वालों में 86 प्रतिशत मुसलमान थे। इन आठ सालों में ऐसी 63 घटनाएं हुई जिनमें 28 भारतीयों की जान चली गई। गोवंश से जुड़ी हिंसा के 97 प्रतिशत मामले केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार के आने के बाद हुए हैं। नरेंद्र मोदी ने मई 2014 में केंद्र की सत्ता संभाली थी। इंडिया स्पेंड ने 25 जून 2017 तक के आंकड़ों के आधार पर ये विश्लेषण किया है।
गुरुवार (29 जून) को मोदी ने गुजरात के अहमदाबाद में कहा कि 'गौ-भक्ति के नाम पर हत्या को स्वीकार नहीं किया जा सकता और किसी को अपने हाथ में कानून लेने का अधिकार नहीं है।'
इस दौरान गोवंश से जुड़ी हिंसा के मामलों में मारे गए 28 लोगों में से 24 मुसलमान (करीब 86 प्रतिशत) थे। इन घटनाओं में 124 लोग घायल हुए थे। गाय से जुड़ी हिंसा के आधे से ज्यादा मामले (करीब 52 प्रतिशत) झूठी अफवाहों की वजह से हुए थे।
रिपोर्ट के अनुसार, केंद्र सरकार या राज्य सरकार द्वारा दिए जाने वाले अपराध से जुड़े आकंडो़ं में गोवंश या भीड़ द्वारा की गई हिंसा और हत्या के मामले अलग से नहीं दर्शाए जाते। गाय से जुड़ी हिंसा के 63 मामलों में 32 बीजेपी शासित प्रदेशों में दर्ज किए गए। आठ मामले कांग्रेस शासित प्रदेशों में हुए। बाकी मामले दूसरी पार्टियों द्वारा शासित प्रदेशों में हुए।
इंडिया स्पेंड की रिपोर्ट के अनुसार, साल 2017 में गाय से जुड़ी हिंसा के मामलों में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हुई है। इस साल के पहले छह महीनों में गाय से जुड़े 20 मामले हुए जो साल 2016 में हुई कुल हिंसा के दो-तिहाई से ज्यादा हैं। साल 2010 से इस साल तक सबसे ज्यादा गोवंश से जुड़ी हिंसा साल 2016 में हुई थी। इन मामलों में भीड़ द्वारा हमला करने, गौरक्षकों द्वारा हमला करने, हत्या, हत्या की कोशिश, उत्पीड़न, सामूहिक बलात्कार इत्यादि के मामले शामिल हैं। दो मामलों में पीड़ितों को जंजीर से बांधकर नंगा करके घुमाया और पीटा गया था। दो मामलों में पीड़ितों को फांसी से लटका दिया गया था।
गोवंश से जुड़ी हिंसा के सबसे ज्यादा मामले उत्तर प्रदेश (10) में दर्ज किए गए। उसके बाद हरियाणा (9), गुजरात (6), कर्नाटक (6), मध्य प्रदेश (4), दिल्ली (4) और राजस्थान (4) में दर्ज किए गए। इनमें से 21 प्रतिशत मामले ही दक्षिण या पूर्वी भारत (बंगाल और ओडिशा समेत) में दर्ज किए गए। पूर्वोत्तर भारत में इस दौरान गोवंश से जुड़ी हिंसा का केवल एक मामला दर्ज हुआ। बीजेपी के सत्ता में आने के बाद 30 अप्रैल 2017 को असम में दो लोगों की गोवंश को लेकर हुए विवाद में हत्या कर दी गई थी।
पिछले आठ साल में गाय से जुड़ी हिंसा के 63 मामलों में 61 मामले केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार बनने के बाद हुए हैं। साल 2016 में गोवंश से जुड़ी हिंसा के 26 मामले दर्ज किए गए। 25 जून 2017 तक ऐसी हिंसा के अब तक 20 मामले दर्ज किए जा चुके हैं। करीब पांच प्रतिशत मामलों में आरोपियों के गिरफ्तारी की कोई सूचना नहीं है। वहीं 13 मामलों (करीब 21 प्रतिशत) में पुलिस ने पीड़ितों या भुक्तभोगियों के खिलाफ भी केस दर्ज किया।
भारत में मोदी सरकार के केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि सरकार एअर इंडिया का विनिवेश करेगी। यानी अपना हिस्सा बेच देगी। इस पर सिद्धांतत: सरकार सहमत है। आगे की प्रक्रिया के लिए पैनल बनाया जाएगा।
बुधवार को कैबिनेट की बैठक के बाद जेटली ने संवाददाताओं को यह जानकारी दी। एअर इंडिया का घाटा लगातार बढ़ रहा है और तमाम प्रयासों के बावजूद इस पर काबू नहीं पाया जा सका है। उल्टे सरकार इसे लगातार आर्थिक मदद देकर जनता के पैसे से कुछ लोगों को हवाई सफर करा रही है। ऐसे में इसके विनिवेश की मांग काफी समय से उठ रही है।
बता दें एअर इंडिया की वित्तीय स्थिति 2007 से ही खराब है। दरअसल 2007 में एअर इंडिया और डोमेस्टिक एयरलाइंस कंपनी इंडियन एयरलाइन्स का नेशनल एविएशन कंपनी लिमिटेड ने विलय कर दिया था। इस विलय के बाद दोनों कंपनियों की देनदारी नेशनल एविएशन कंपनी लिमिटेड पर आ गई। 2010 में नेशनल एविएशन कंपनी लिमिटेड का नाम बदलकर एअर इंडिया लिमिटेड कर दिया गया था। वित्त वर्ष 2007 से ही एयरलाइंस की माली हालत नेगेटिव रही। इस स्थिति से निपटने के लिए एक प्लान तैयार किया गया जिसके तहत सरकार को 22 सालों के भीतर 42,182 करोड़ रुपये एयरलाइंस कंपनी में लगाने थे। हालांकि इस निवेश में देरी देखने को भी मिली है।
बीते पांच सालों (वित्त वर्ष 2012-2016) में जहां 22,609 करोड़ रुपये की इक्विटि प्लान की जानी थी वहीं अभी तक यह सिर्फ 22,280 करोड़ रुपये ही हो पाई थी। ऐसे में केंद्र सरकार ने आज कैबिनेट बैठक में कर्ज में चल रही एअर इंडिया की हिस्सेदारी बेचने का फैसला ले लिया है।
रिपोर्ट्स के मुताबिक, कंपनी लगभग 52,000 करोड़ रुपये का घाटा झेल रही है। नीति आयोग ने इसके विनिवेश से होने वाली कमाई को शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में लगाने की सिफारिश, पीएमओ को अपनी चौथी रिपोर्ट में दी थी।
सरकार को इस विनिवेश से लगभग 25-27 हजार करोड़ रुपये की कमाई होने का अनुमान है। एअर इंडिया का डोमेस्टिक मार्केट में शेयर लगभग 14 पर्सेंट का है जो इंडिगो और जेट एयरवेज से काफी कम है। गौरतलब है एअर इंडिया को 1932 में जमशेद टाटा ने शुरू किया था जिसका 1948 में राष्ट्रीयकरण किया गया था।
भारत में प्रोडक्ट क्वालिटी टेस्ट में फेल होने के बाद अब पतंजलि उत्पादों को पड़ोसी देश नेपाल में भी बड़ा झटका लगा है।
खबर के अनुसार, नेपाल में पतंजलि आयुर्वेद के छह मेडिकल प्रोडक्ट लैब टेस्ट में फेल हो गए हैं। क्वालिटी टेस्ट में फेल होने के बाद सरकार ने पतंजलि उत्पादों की नेपाल में खपत पर तत्काल रोक लगा दी है।
वहीं नेपाल के स्वास्थ्य मंत्रालय ने पतंजलि से अपने छह उत्पादों को वापस भारत भेजने को कहा हैं। दूसरी तरफ नेपाल सरकार ने देशभर में दुकानदारों से इन उत्पादों को ना बेचने की अपील की है। टेस्ट में फेल होने वाले छह मेडिकल उत्पादों में दिव्या गाशर चूर्ण, बकुची चूर्ण, आमला चूर्ण, त्रिफाला चूर्ण, अदिव्या चूर्ण और अस्वागंधा चूर्ण शामिल हैं।
सूत्रों के अनुसार, कुल सात उत्पादों का प्रोडक्ट क्वालिटी टेस्ट किया गया जिसमें महज एक उत्पाद को नेपाल में बेचनी की हरी झंडी मिल सकी है।
हाल ही में कनक मानी दिक्षित ने ट्वीट करते हुए बताया कि पतंजलि का आमला चूर्ण बैच नंबर AMC067, दिव्या गाशर चूर्ण बैच नंबर A-GHCI31, बकुची चूर्ण बैच नंबर BKC 011, त्रिफाला चूर्ण बैच नंबर A-TPC151, अस्वागंधा बैच नंबर AGC 081, अदिव्या चूर्ण बैंच नंबर DYC 059 माइक्रोबियल टेस्ट में फेल हो गए हैं।
इससे पहले सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत मिली जानकारी के अनुसार, बाबा रामदेव की कंपनी पतंजलि के कई उत्पाद उत्तराखंड की एक लैब द्वारा किए गए क्वालिटी टेस्ट में फेल हो गए थे।
हिन्दुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत मिले जवाब में यह जानकारी दी गई। इसके अनुसार, हरिद्वार की आयुर्वेद और यूनानी कार्यालय में हुई जांच में करीब 40 फीसदी आयुर्वेद उत्पाद, जिनमें पतंजलि के उत्पाद भी शामिल हैं, मानक के मुताबिक नहीं पाए गए।
साल 2013 से 2016 के बीच इकट्ठा किए गए 82 सैम्पल्स में से 32 उत्पाद क्वालिटी टेस्ट पास नहीं कर सके। पतंजलि का 'दिव्य आंवला जूस' और 'शिवलिंगी बीज' उन उत्पादों में शामिल है जिनकी गुणवत्ता मानकों के अनुसार नहीं पाई गई।
बता दें कि पिछले महीने सेना की कैंटीन ने भी पतंजलि के आंवला जूस पर प्रतिबंध लगा दिया था। सेना ने यह कार्रवाई पश्चिम बंगाल स्वास्थ्य प्रयोगशाला द्वारा की गई एक गुणवत्ता जांच में पतंजलि के उत्पाद के फेल होने पर की थी।
उत्तराखंड सरकार की लैब रिपोर्ट के अनुसार, आंवला जूस में तय की गई सीमा से कम पीएच मात्रा मिला। पीएच की मात्रा 7 से कम होने पर एसिडिटी व अन्य स्वास्थ्य समस्याएं पैदा होती हैं।
आरटीआई के जवाब से यह भी पता चला कि शिवलिंगी बीज का 31.68 फीसदी हिस्सा विदेशी था। हालांकि रामदेव के सहयोगी और पतंजलि के मैनेजिंग डायरेक्टर आचार्य बालकृष्ण ने लैब रिपोर्ट को खारिज कर दिया है। उन्होंने एचटी से बातचीत में कहा, ''शिवलिंगी बीज एक प्राकृतिक बीज है। हम इसमें छेड़छाड़ कैसे कर सकते हैं?''
विज्ञापनों पर नजर रखने वाली संस्था एडवर्टाइंजिंग स्टैंडर्ड्स काउंसिल ऑफ इंडिया (एएससीआई) की कंज्यूमर कंप्लेंट काउंसिल (सीआईसी) ने माना है कि पतंजलि का दंतकांति टूथपेस्ट, पतंजलि जूस और अमूल एपिक चोको आइसक्रीम सहित 98 उत्पाद ग्राहकों को भ्रमित करते हैं।
अमेरिका की एक टॉप मैगजीन ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नोटबंदी के फैसले पर सवाल उठाए हैं। मैगजीन ने अपनी रिपोर्ट में दावा किया है कि प्रधानमंत्री मोदी द्वारा नोटबंदी के विघटनकारी प्रयोग की वजह से भारत की अर्थव्यवस्था में ठहराव आ गया है।
रिपोर्ट में ये भी कहा गया कि भारत की कैश आधारित अर्थव्यस्था के चलते मोदी के फैसले से भारतीय अर्थव्यवस्था के इतिहास में सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा है।
बता दें कि पीएम मोदी ने 8 नवंबर (2016) को देशभर में 500 और 1000 के नोट चलन से बाहर होने का ऐलान कर दिया था।
फॉरेन अफेयर्स मैगजीन ने अपने ताजा संस्करण में राइटर जेम्स क्रेबट्री के हवाले से लिखा, ''नोटबंदी ने साबित कर दिया कि ये सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाला एक्सपेरिमेंट था। मोदी प्रशासन को अब अपनी गलतियों से सीख लेनी चाहिए।''
सिंगापुर के ली कुआन यू स्कूल ऑफ पब्लिक पॉलिसी एनयूएस में सीनियर रिसर्च फेलो क्रेबट्री भारत में नोटबंदी की काफी आलोचना करते रहे हैं।
क्रेबट्री लिखते हैं, ''पीएम मोदी की आर्थिक उपलब्धियां तो सही है, मगर उनके ग्रोथ लाने वाले बदलाव ने लोगों को एक तरह से निराश किया है। नोटबंदी के लिए सरकार ने जितने पर बड़े स्तर पर काम किया। उसने अर्थव्यवस्था पर उतना असर नहीं डाला। 2019 के चुनावों को देखते हुए मोदी सरकार को अपने पिछले कदम से सीखने की जरूरत है।''
क्रेबट्री आगे लिखते हैं, ''सच्चाई तो ये है कि छोटे अंतराल में ग्रोथ के लिहाज से मोदी की नोटबंदी बेकार रही। पिछले हफ्ते भारत ने 2017 के पहली तिमाही की जीडीपी के आंकड़े जारी किए। ये वही वक्त है जब नोटबंदी का इस दौरान सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ा।''
रिपोर्ट में आगे कहा गया कि करोड़ों लोगों को 500 और 1000 के नोट बदलने के लिए कैश मशीन और बैंक की लंबी कतारों में लगना पड़ा। इस दौरान गरीब तबकों को सबसे ज्यादा परेशानी का सामना करना पड़ा। भारत की नगदी आधारित अर्थव्यवस्था में कमर्शियल एक्टिविटी ठप हो गईं।
निजी टीवी चैनलों द्वारा किए गए एक स्टिंग ऑपरेशन में दावा किया गया है कि तमिलनाडु के कई विधायकों को विश्वास मत के दौरान वोट देने के लिए नकदी और सोना मिला था। टाइम्स नाउ और मून टीवी के साझा स्टिंग ऑपरेशन में खुफिया कैमरे से विधायकों के बयान रिकॉर्ड किए जाने का दावा किया गया है।
टाइम्स नाउ की रिपोर्ट के अनुसार, ये स्टिंग ऑपरेशन अप्रैल में शुरू हुए और मई के बाद जून में जारी रहे। चैनल ने दावा किया है कि 18 फरवरी 2017 को तमिलनाडु विधान सभा में विश्वास प्रस्ताव में वोट हासिल करने के लिए पैसे का लेन-देन हुआ था।
ई पलानीस्वामी ने 16 फरवरी को तमिलनाडु के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। पलानीस्वामी ने ओ पन्नीरसेल्वम की जगह ली थी।
तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री और एआईएडीएमके की महासचिव जे जयललिता की मृत्यु के बाद उनकी पार्टी दो धड़ों में बंट गई। जयललिता के बीमार रहने के दौरान पार्टी के वरिष्ठ नेता ओ पन्नीरसेल्वम को राज्य का मुख्यमंत्री बनाया गया था। बाद में जयललिता की सहयोगी शशिकला नटराजन के साथ उनके रिश्तों में दरार आ गई। शशिकला के पार्टी का महासचिव बनने के बाद उन्होंने ई पलानीस्वामी को मुख्यमंत्री बनवा दिया।
पलनीस्वामी को विश्वास मत में जीत दिलाने के लिए करीब 100 विधायकों को एक रिसॉर्ट में रखा गया था।
स्टिंग के अनुसार, दो विधायकों मदुरई दक्षिण के विधायक सर्वनन और सुलुर के विधायक कनकराज ने खुफिया कैमरों के सामने स्वीकार किया कि उन्होंने विश्वासमत के दौरान वोट देने के लिए पैसा लिया था।
स्टिंग में दावा किया गया है कि विधायकों को धमकी भी दी गयी थी।
स्टिंग में एक विधायक ने आरोप लगाया है कि विश्वास मत के दौरान वोट देने के लिए हर विधायक को दो-छह करोड़ रुपये दिए गए।
विधायक ने दावा किया कि कुछ लोगों को नकदी की कमी के कारण सोना दिया गया।
डीएमके नेता एमके स्टालिन ने विश्वास प्रस्ताव में गड़बड़ी को लेकर शिकायत भी की है।
भारत में केन्द्र की नरेंद्र मोदी सरकार रेलवे के सभी जोन से करीब 11000 लोगों की नौकरियां खत्म करेगी। इसे खर्च में कटौती के तौर पर देखा जा रहा है।
रेलवे बोर्ड ने खर्च कटौती की कवायद तेज करते हुए सभी 17 रेल मंडलों से 10 हजार 900 पदों को खत्म करने का पत्र जारी किया है। रेलवे बोर्ड के फैसले और सभी महाप्रबंधकों को लिखी चिट्ठी में लिखा गया है कि वर्ष 2017-18 के लिए सालाना पदों की कटौती के फैसले को लागू किया जाए।
फिलहाल भारतीय रेल में कार्यरत कर्मचारियों की संख्या 15 लाख के करीब है।
बता दें कि लोकसभा चुनाव 2014 के चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार और मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हर साल एक करोड़ नौकरियां देने का ऐलान किया था, लेकिन तीन साल बाद भी ऐसा होता नहीं दिख रहा है। उल्टे सरकार कर्मचारियों की नौकरी ख़त्म कर रही है।
पत्र के मुताबिक, 25 मई को केंद्रीय रेलवे बोर्ड के निदेशक (ई एंड आर) अमित सरन ने इस आशय का आदेश पत्र सभी जोन मुख्यालयों को भेजा है। इससे रेल कर्मचारियों में हड़कंप है।
हालांकि रेलवे प्रशासन इसे सामान्य प्रक्रिया बता रहा है। अधिकारियों के मुताबिक, रेलवे हर साल एक फीसदी पद समाप्त करता है। हालांकि, मौजूदा आदेश पर अधिकारी सफाई दे रहे हैं कि समीक्षा के बाद यह तय किया जाएगा कि कौन से अनुपयोगी पद समाप्त किए जाएंगे। अधिकारी का यह भी दावा है कि ऐसे पद समाप्त करने से रेलवे का कामकाज पर कोई असर नहीं पड़ेगा।
रेलवे बोर्ड के निदेशक (ई एंड आर) अमित सरन ने इस आशय का आदेश पत्र सभी जोन मुख्यालयों को भेजा है।
पत्र के मुताबिक, दक्षिण-पूर्व-मध्य रेलवे जोन को 400 पद समाप्त करने के लिए कहा गया है जबकि सेंट्रल और ईस्टर्न रेलवे को 1-1 हजार पद, ईस्ट कोस्ट रेलवे को 700, नॉर्दन रेलवे को 1500, नॉर्थ सेंट्रल रेलवे को 150, नॉर्थ ईस्टर्न रेलवे को 700, नॉर्थ वेस्टर्न रेलवे को 300, ईस्ट सेंट्रल रेलवे को 300, नॉर्थ ईस्टफ्रंटियर रेलवे को 550 पद खत्म करने को कहा गया है। इसी तरह सदर्न रेलवे को 1500, साउथ सेंट्रल रेलवे को 800, साउथ ईस्ट सेंट्रल और साउथ ईस्टर्न रेलवे को 400-400 पद, साउथ वेस्टर्न रेलवे को 200, वेस्टर्न रेलवे को 700 और वेस्ट सेंट्रल रेलवे को 300 पद खत्म करने को कहा गया है।
रेल मंत्रालय देशभर के 23 स्टेशनों को प्राइवेट कंपनियों के हाथों में सौंपने की योजना पर काम कर रही है। सरकार इन्हें पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) के तहत निजी कंपनियों को देने जा रही है। इसके लिए 28 जून को ऑनलाइन नीलामी का आयोजन किया जाएगा। नीलामी में उत्तर प्रदेश का कानपुर जंक्शन और इलाहाबाद जंक्शन शामिल हैं, जबकि राजस्थान का उदयपुर रेलवे स्टेशन भी शामिल है। नीलामी के लिए कानपुर जंक्शन की शुरुआती कीमत 200 करोड़ रुपए जबकि इलाहाबाद जंक्शन के लिए 150 करोड़ रुपए रखी गई है। नीलामी के परिणाम का ऐलान 30 जून को किया जाएगा। सूत्रों के अनुसार केंद्र सरकार ने देश के कुल 23 रेलवे स्टेशनों को निजी हाथों में सौंपने का फैसला लिया है।