भारत एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। इस अर्थव्यवस्था में ई-कॉमर्स कंपनियां मुनाफे की सीढ़ियां चढ़ने से अभी भी काफी दूर हैं।
इन कंपनियों में करोड़ों डॉलर निवेश करने वाले निवेशक अब अच्छे रिजल्ट का दबाव बना रहे हैं, ऐसे में फ्लिपकार्ट और अमेजन जैसी कंपनियां ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए अभी भी आक्रामक तरीके से विज्ञापन पर काफी पैसे खर्च कर रही हैं और भारी डिस्काउंट दे रही हैं।
अमेजन ने कहा कि वित्तवर्ष 2015-16 के दौरान उसे भारत में 3,572 करोड़ रुपये (52.5 करोड़ डॉलर) का नुकसान हुआ है। यह आंकड़ा पिछले साल से दोगुना है।
इसका कारण भी स्पष्ट है। अमेजन ने भारत में इंफ्रास्ट्रक्चर और टेक्नोलॉजी पर बहुत अधिक निवेश किया है क्योंकि अमेरिका के बाद अमेजन के लिए भारत दूसरा सबसे बड़ा बाजार है।
आजकल ई-कॉमर्स शब्द का प्रचलन बहुत बढ़ गया है। हर कोई इसके बारे में बात कर रहा है क्योंकि निवेशकों ने अमेजन, फ्लिपकार्ट और स्नैपडील में खरबों डॉलर का निवेश किया है, जबकि इस सेक्टर ने भारत में अभी तक मुनाफा कमाने का कोई संकेत नहीं दिया है। हर कोई यही अनुमान लगा रहा है कि यह सेक्टर मुनाफा कमाने वाला कब बनेगा?
ऐसा क्यों है कि अमेजन यूएसए ने लगातार आठ तिमाही तक मुनाफा कमाया, लेकिन अमेजन इंडिया ने अभी तक मुनाफा कमाने का कोई संकेत नहीं दिया है, जबकि अमेजन इंडिया में पैरंट कंपनी ने दो अरब डॉलर का निवेश किया।
यह स्थिति इसलिए है क्योंकि अमेरिका की तुलना में भारत का रिटेल मार्केट अलग तरह का है।
दशकों से अमेरिका को एक व्यापक रूप से संगठित मॉडर्न रिटेल मार्केट के रूप में देखा जाता है। यहां ऑनलाइन कारोबार की हर श्रेणी में कुछ लीडर हैं, जिनका मार्केट शेयर पर खासा कब्जा रहता है।
इसकी जगह भारतीय रिटेल मार्केट का संचालन एक करोड़ 20 लाख खानदानी कारोबारियों के मॉम एंड पॉप स्टोर की ओर से किया जाता है। इस बड़े अंतर को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
अमेरिका का आधुनिक रिटेल मार्केटिंग का मॉडल काफी विशाल और विस्तृत है, जिसमें शॉपिंग मॉल के अलग-अलग फ्लोर्स पर शानदार स्टोर्स है, जिसका खर्च काफी ज्यादा है। वहां दुकानों के मालिकों को दुकान के किराए और दूसरी आधारभूत लागत, ऑनलाइन वस्तुओं की लिस्ट को मेंटेंन रखना, कस्टमर सर्विस के लिए हर श्रेणी में कर्मचारियों की नियुक्ति पर काफी खर्च करना पड़ता है। यह लिस्ट काफी लंबी है और रिटेलर को मुनाफा कमाने से पहले प्रॉडक्ट की लागत के अलावा अन्य काफी खर्चे पूरे करने होते हैं।
वहीं दूसरी तरफ अमेजन का ऑनलाइन मॉडल पर खर्च काफी कम आता है क्योंकि प्रॉडक्ट्स को उच्च रूप से स्वचालित गोदाम में रखा जाता है, जिनका किराया किसी अच्छी जगह की तुलना में काफी कम है। इससे दूसरे खर्च भी काफी कम होते हैं। उपभोक्ताओं को कोई शिकायत या सवाल होने पर उनका ऑनलाइन ही समाधान किया जाता है। कहने की जरूरत नहीं है कि अमेरिका में फिजिकल रिटेल मार्केट की तुलना में अमेजन का ऑनलाइन कारोबार करना काफी सस्ता पड़ता है और इसलिए वह बेहतर ढंग से तरक्की कर रहा है। इसके नतीजे काफी स्पष्ट हैं।
अब भारत के परिदृश्य पर नजर डालें, जो इसके ठीक विपरीत है। भारत में खानदानी कारोबारियों (मॉम एंड पॉप स्टोर्स) का 90 फीसदी रिटेल मार्केट पर कब्जा है। इन स्टोरों का संचालन इनके मालिकों द्वारा खुद ही किया जाता है। वह मॉल में मौजूद शोरूम की अपेक्षा काफी कम किराया चुकाते हैं। इनमें कम कर्मचारी रखे जाते हैं। इन कर्मचारियों के वेतन काफी कम होते है। इन शोरूम में काफी कम मार्जिन लेकर काम किया जाता है। उनमें अपेक्षाकृत कम सामान ही रहता है और ग्राहक होने पर सामान का प्रबंध कर दिया जाता है। उनकी कोई ऑनलाइन मौजूदगी नहीं होती। इन्हें डिजिटलीकरण और ऑनलाइन सामान की सूची बनाने का भी काम नहीं करना पड़ता। इसीलिए इनके खर्चे कम हैं और यह काफी कम मार्जिन पर भी काम कर लेते हैं।
इसके अलावा एक अतिरिक्त परेशानी यह है कि मल्टीब्रैंड रिटेल पर एफडीआई पर सरकार के दिशा-निर्देशों के अनुसार मार्केट प्लेस के ऑपरेटर विक्रेता नहीं हो सकते। इसका मतलब यह है कि वह सीधे विक्रेताओं से सामान खरीदकर नहीं बेच सकते। वह सिर्फ मार्केट प्लेस का संचालन कर सकते हैं, जो विक्रेताओं को खरीदारों से जोड़ता है।
इसलिए आखिर में कोई रिटेलर या डिस्ट्रिब्यूटर ही ऑनलाइन पोर्टल पर सामान बेचता है, पर ऑनलाइन कॉमर्स के मौजूदा मॉडल ने खर्चो में काफी बढ़ोत्तरी की है। इसमें प्रॉडक्ट को पिक करने, उन्हें गोदाम में रखने, डिलिवरी, कैश ऑन डिलिवरी (सी ओ डी) मैनेजमेंट और ऑनलाइन और ऑफलाइन ब्रांडिंग के कई खर्च जुड़े होते हैं।
इन खर्चो को कौन पूरा करेगा? मौजूदा ऑनलाइन मॉडल से रिटेल चेन की क्षमताएं नहीं बढ़ रही है और न ही इन खर्चो को पूरा करने के लिए लागत पर कोई बचत की जा सकती है। वेंचर कैपिटल से ही सारे खर्चे पूरे करने पड़ते हैं और इसीलिए भारत में दशकों के संचालन के बाद भी ऑनलाइन कारोबार को लगातार घाटा झेलना पड़ रहा है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि पश्चिमी देशों का ई-कॉमर्स मॉडल हू-ब-हू अपनाने और कट और पेस्ट करने की जगह भारत को अपना नया ई-कॉमर्स मॉडल विकसित करने की जरूरत है, जिससे 1 करोड़ 20 लाख रिटेलर्स को इससे लाभ उठाने का मौका मिले और वे ऑनलाइन खरीदारों तक बिना कोई ज्यादा खर्च किए हुए पहुंच सके।
हमें डिजिटल विभाजन की खाई को पाटना है। इसे बढ़ाना नहीं है। हमें उस मॉडल की जरूरत है, जिससे ज्यादा से ज्यादा नौकरियां पैदा की जा सकें और रिटेल इंडस्ट्री पर निर्भर हर भागीदार को इससे लाभ कमाने का मौका मिले। केवल उन थोड़े से लोगों को इसका लाभ नहीं मिलना चाहिए, जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों से भारी मात्रा में फंड प्राप्त होता है और जो अपनी मनमर्जी से संसाधन जुटाने के लिए पैसा फिजूल खर्च करते हों।
भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह के बेटे जय शाह की कंपनी विवादों में फंस गई है।
उनकी कंपनी टेम्पल इन्टरप्राइजेज प्राइवेट लिमिटेड का टर्नओवर साल 2015-16 में 16 हजार गुना बढ़ा है।
यह बढ़ोत्तरी तब हुई, जब केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी और उनके पिता अमित शाह बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए।
इससे पहले टेम्पल इन्टरप्राइजेज प्राइवेट लिमिटेड का टर्नओवर न के बराबर था।
'द वायर' के मुताबिक, जय शाह की कंपनी के टर्नओवर में उछाल की वजह 15.78 करोड़ रुपये का अनसेक्योर्ड लोन है जिसे राजेश खंडवाल की KIFS फिनांशियल सर्विसेज फर्म ने उपलब्ध कराया है, लेकिन हैरत की बात ये है कि लोन देने वाली KIFS फिनांशियल सर्विसेज ने जिस साल जय शाह की कंपनी को लोन दिया, उस साल उसकी कुल आय 7 करोड़ रुपये थी।
दूसरी बड़ी बात आरओसी के दस्तावेज से यह बात सामने आई है कि KIFS फिनांशियल सर्विसेज की एनुअल रिपोर्ट में टेम्पल इन्टरप्राइजेज को दिए गए 15.78 रुपये के अनसेक्योर्ड लोन का कोई जिक्र नहीं है।
बता दें कि राजेश खंडवाल बीजेपी के राज्यसभा सांसद और रिलायंस इंडस्ट्रीज के टॉप एग्जिक्यूटिव परिमल नथवानी के समधी हैं।
जय शाह की कंपनी की बैलेंस शीट में बताया गया है कि मार्च 2013 और मार्च 2014 तक उनकी कंपनी में कुछ खास कामकाज नहीं हुए और इस दौरान कंपनी को क्रमश: कुल 6,230 रुपये और 1,724 रुपये का घाटा हुआ।
लेकिन जैसे ही केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी और उनके पिता बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने जय शाह की कंपनी के टर्नओवर में आश्चर्यजनक रूप से इजाफा हुआ है।
साल 2014-15 के दौरान उनकी कंपनी को कुल 50,000 रुपये की इनकम पर कुल 18,728 रुपये का लाभ हुआ। मगर 2015-16 के वित्त वर्ष के दौरान जय की कंपनी का टर्नओवर लंबी छलांग लगाते हुए 80.5 करोड़ रुपये का हो गया। यह 2014-15 के मुकाबले 16 हजार गुना ज्यादा है।
जय शाह के वकील ने 'द वायर' को बताया है कि राजेश खंडवाल शाह परिवार के पुराने मित्र हैं। इसके अलावा वो पिछले कई सालों से शाह परिवार के शेयर ब्रोकिंग का कामकाज देख रहे हैं। इसके अलावा उनकी एन बी एफ सी फर्म पिछले कई सालों से जय शाह और जीतेंद्र शाह के बिजनेस को लोन देते रहे हैं।
दस्तावेजों से यह भी खुलासा हुआ है कि साल 2015 में राजेश खंडवाल और जय शाह ने मिलकर सत्वा ट्रेडलिंक नाम का लिमिटेड लायबलिटी पार्टनरशिप (एल एल पी) बनाया था, लेकिन जल्द ही उसे बंद कर दिया गया।
जय शाह की तरफ से उनके वकील ने 'द वायर' को बताया कि दोनों ने मिलकर एल एल पी खोला था, लेकिन बाजार में विपरीत परिस्थितियों की वजह से उसमें कोई कारोबार नहीं हो सका। इसके बाद उसे बंद कर दिया गया और आरओसी के रिकॉर्ड से भी हटवा दिया गया।
आरओसी के दस्तावेजों से यह भी खुलासा हुआ है कि जय की कंपनी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि उसकी आय का 95 फीसदी कृषि उत्पादों की बिक्री से आया है, जबकि उनकी कंपनी के पास न तो कोई स्टॉक की डिटेल है और न ही इन्वेंटरीज। इसके अलावा उनकी कंपनी की चल-अचल संपत्ति का भी कोई विवरण नहीं है।
भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर यज्ञ वेणुगोपाल रेड्डी ने देश की आर्थिक वृद्धि के लिए गठबंधन सरकारों को बेहतर बताया क्योंकि पिछले तीन दशक में इन्होंने बहुमत की सरकारों की अपेक्षा भारत को बेहतर आर्थिक वृद्धि दी है।
रेड्डी ने कहा, ''यह रोचक बात है कि भारत में सबसे अधिक आर्थिक वृद्धि 1990 से 2014 के बीच गठबंधन सरकारों के दौरान ही रही। एक तरह से देखा जाए तो आम सहमति के आधार पर भारतीय परिस्थितियों में एक गठबंधन सरकार किसी मजबूत (पूर्ण बहुमत) वाली सरकार की अपेक्षा बेहतर आर्थिक परिणाम देती है।''
वर्ष 1991 में भारत के भुगतान संकट का उल्लेख करते हुए रेड्डी ने कहा, ''उस दौर की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि अस्थिर राजनीतिक हालातों के बावजूद उन्होंने, जो कदम उठाए जाने की जरुरत थी, उनके लिए एक आम राजनीतिक सहमति बनायी और इसका सफलतापूर्वक प्रबंधन किया।''
वह अमेरिका के प्रमुख थिंक टैंक हडसन इंस्टीट्यूट में बोल रहे थे। रेड्डी वर्ष 2003 से 2008 तक रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे।
उन्होंने कहा कि वर्ष 2008 का विश्व आर्थिक संकट अभी तक टला नहीं है।
रेड्डी ने कहा, ''लघु अवधि में निश्चित तौर पर स्थिति बेहतर हुई है, लेकिन मध्यम अवधि में अभी भी प्रश्नचिन्ह लगे हुए हैं।''
उन्होंने कहा कि वह अगले 10 साल में भू-राजनैतिक परिस्थितयों में महत्वपूर्ण बदलाव देखते हैं। पूंजी के वैश्वीकरण की वर्तमान प्रक्रिया में कई सरकारों का मानना है कि लोगों की उम्मीदों के अनुरूप नीतियां बनाने की उनकी क्षमता पर वैश्वीकरण ने अंकुश लगाया है।
रेड्डी ने कहा, ''अब हम वैश्विक और राष्ट्रीय, राज्य और बाजार, वित्त और गैर-वित्त के बीच नए संतुलन की खोज में हैं। यह खोज जारी है।''
उन्होंने कहा कि अगले 10-15 साल में होने वाले जनांकिकीय और तकनीकी परिवर्तन पर्यावरण मुद्दों के लिए भी चिंता का विषय है और यह तीन विषय वैश्विक अर्थव्यवस्था के सामने सबसे बड़ी चुनौती हैं।
एक सवाल के जवाब में पूर्व गवर्नर ने कहा कि दिवाला एवं शोधन अक्षमता संहिता एक अच्छा कदम है और सभी इस बात से इत्तेफाक रखते हैं।
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आर्थिक सलाहकर परिषद का गठन किया है। इस परिषद में जाने-माने अर्थशास्त्रियों को शामिल किया गया है जिनका काम प्रधानमंत्री को आर्थिक मामलों पर सलाह देना होगा।
पिछली आर्थिक सलाहकार परिषद का कार्यकाल पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल के साथ ही ख़त्म हो गया था। नई सरकार बनने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस परिषद का गठन नहीं किया था।
मगर अब लगभग साढ़े तीन साल बाद उन्होंने अर्थशास्त्रियों के एक समूह को अपना परामर्शदाता बनाया है।
सवाल उठता है कि क्या वजह हो सकती है कि शुरू में इसका गठन नहीं किया गया। अब मोदी ने इस परिषद को क्यों बनाया गया?
इस पर पटना स्थित एन एन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज़ में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर डीएम दिवाकर ने बीबीसी से कहा, ''जब नोटबंदी का ऐलान हुआ था, देश-दुनिया में अर्थशास्त्र की समझ रखने वालों ने इसे नकारा था।
उसी वक्त लग रहा था कि प्रधानमंत्री मोदी के पास अच्छे आर्थिक सलाहकर होते तो ऐसी ग़लती नहीं होती।
आज जब अर्थव्यवस्था लुढ़कती जा रही है, उस दौर में बिना किसी तैयारी के जिस तरह से जीएसटी लागू किया गया, आशंका है कि इसके कारण अर्थव्यवस्था और लुढ़केगी।
चारों तरफ इसका आकलन हो रहा है। ऐसे में अब अगर अर्थशास्त्रियों का दल तैयार किया गया है तो बहुत देर हो चुकी है।
दूसरी बात यह है कि 2019 में चुनाव होने वाले हैं। डेढ़ साल के वक़्त में अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना चुनौती भरा काम होगा।
आज इनफॉर्मल सेक्टर के पूरे कारोबार क़रीब-क़रीब बैठ गए हैं। इसके बावजूद अगर अर्थशास्त्री अपनी बात कहना शुरू करें तो हमें दूसरी आशंका है।
रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया के गवर्नर रघुराम राजन और नीति आयोग के वाईस चेयरमैन अरविंद पनगढ़िया जिस तरह से गए हैं, सबने देखा है।
प्रधानमंत्री मोदी के काम करने का जो तरीका है, उसके आधार पर उम्मीद नहीं है कि अर्थशास्त्रियों के सुझावों पर कुछ अमल किया जाएगा।
अच्छा लगेगा, अगर सुविचारित मतों के साथ नई नीतियां बनें और कोई इकनॉमिक पॉलिसी तैयार हो।
उसमें अगर इकनॉमिक्स के बुनियादी सिद्धांतों को ध्यान में रखा जाए तो अर्थव्यवस्था और ख़राब नहीं होगी।
इस परिषद के प्रमुख बिबेक देबरॉय होंगे जो नीति आयोग के सदस्य भी हैं। उन्होंने नीतिगत्र पत्र तैयार किया था।
कृषि पर आधारित उस पत्र से नहीं लगता कि वह अर्थव्यवस्था के भारतीय मौलिक चिंतन को साथ लेकर चलते हैं।
आज जिस तरह से बिबेक देबरॉय चल रहे हैं, बिबेक देबरॉय कॉरपोरेट गवर्नेंस के पक्ष में चलने वाले लोग हैं और बड़े उद्योगों की बात करेंगे।
मगर भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़, असंगठित क्षेत्र के कारोबार और उद्योगों की दिशा में बिबेक देबरॉय का चिंतन अभी की अर्थव्यवस्था को सूट नहीं करेगा।
अध्यक्ष (बिबेक देबरॉय) के नाते अगर उनकी ही बात को समझने के लिए बाकी लोगों को रखा गया है तो इस परिषद से कोई उम्मीद नहीं है।
मगर लोकतांत्रिक प्रक्रिया से बाकी लोगों की बात भी सुनी जाएगी तो शायद कुछ होगा।
अगर अर्थशास्त्र के बुनियादी सिद्धांतों की बात होगी तो अभी तक हुए नुकसान से अलग हटकर निराकरण का रास्ता ढूंढा जा सकता है।
ज़रूरत इस बात की है कि भारत में अर्थशास्त्रियों के समूह के बीच बहस तेज़ करवाई जाए।
मोदी सरकार ने यह धारणा बनाई कि 70 साल में कुछ नहीं हुआ। इसके आधार पर आनन-फ़ानन में योजना आयोग खत्म किया गया।
योजना आयोग में कम से कम इतनी बात तो थी कि विचारों की असहमति की इज्ज़त होती थी। सरकार अपने विरोध में खड़े लोगों की बात भी इस मंच पर सुनती थी।
योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे मोंटेक सिंह अहलूवालिया के अपनी ही सरकार की पॉलिसी के ख़िलाफ़ आर्टिकल छपते थे।
नीति आयोग बनने के बाद योजना आयोग का यह पहलू ख़त्म हो गया। शायद सोचा होगा कि योजना आयोग किसी काम का नहीं है। हम लोग सब कुछ समझते हैं या हमारे लोग सब जानते हैं या फिर हमारा राजनीतिक एजेंडा ही फ़ाइनल है।
वजह जो भी रही हो, इसके बारे में वही बेहतर बता सकते हैं।
मगर योजना आयोग और आर्थिक सलाहकार परिषद का कार्यकाल ख़त्म होने के बाद जिस तरह का स्वरूप बना, वह सुविचारित प्रयास था। अपने हिसाब से चलाने का और वह देश के हित में नहीं था।
योजना आयोग की तरह या आर्थिक सलाहकर समिति की तरह इनके पास थिंक टैंक होता तो नोटबंदी की कतई सलाह नहीं देता।
आज दुनिया के देश भी आश्चर्य से देख रहे हैं कि जो देश वैश्विक मंदी के बाद अपने सर्वाधिक ग्रोथ रेट के साथ चल रहा था, नोटबंदी के बाद ऐसे लुढ़का दिया गया और उसके बाद जैसे आनन-फ़ानन में जीएसटी लागू हो गया, इसके परिणाम भयावह आने वाले हैं।
मोदी सरकार ने समीक्षा तो की है और ख़ासकर नौजवानों को लेकर। चिंता इस बात की भी है कि ग्रोथ रेट तेज़ी से नीचे जा रहा है तो सरकार की ज़रूरत के खर्चे कहां से निकलेंगे?
हालांकि इसके लिए इन्होंने प्लान और नॉन प्लान के खर्च को एकसाथ कर दिया है, जिससे पता नहीं चलता कि डिवेलपमेंट पर क्या खर्च होना है और मेनटेंनेंस पर क्या?''
बिहार में भागलपुर के कहलगाँव के बटेश्वर स्थान पर गंगा पंप नहर योजना का बांध उदघाट्न से 15 घंटे पहले टूट गया।
बुधवार को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भागलपुर जिले के कहलगांव में करीब 40 साल बाद पूरी हुई बटेश्वर स्थान गंगा पंप नहर परियोजना का उद्घाटन करना था।
मंगलवार को पटना से प्रकाशित होने वाले कई अखबारों में इस उद्घाटन समारोह से संबंधित विज्ञापन भी प्रकाशित हुए थे। नहर परियोजना की दीवार टूटने के बाद यह कार्यक्रम स्थगित कर दिया गया है।
बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव इस घटना के बाद ट्वीट कर नीतीश कुमार पर निशाना साध रहे हैं। एक ट्वीट में उन्होंने कहा, ''जल संसाधन विभाग भ्रष्टाचार का अड्डा है। मुख्यमंत्री जी इस विभाग के भ्रष्टाचार पर ना जाने क्यों चुप रहते है?''
एक अन्य ट्वीट में उन्होंने तंज किया, ''नीतीश जी बताएं, 828 करोड़ की लागत से बनी इस परियोजना को भी चूहे कुतर गए हैं क्या, जो बाँध टूट गया? इसका सेहरा भी चूहों के सिर बांधना चाहिए।''
तेजस्वी यादव ने एक अन्य ट्वीट में नीतीश की कड़ी आलोचना करते हुए कहा, ''CM नीतीश जी के लिए इससे बड़ी प्रशासनिक विफलता क्या होगी कि उद्घाटन से चंद घंटों पहले ही 828 करोड़ रुपये का बाँध भ्रष्टाचार रुपी गंगा में बह जाता है।''
बांध की टूट के लिए वहां के कांग्रेसी विधायक सदानंद सिंह ने इंजीनियरों और ठेकेदारों की घोर लापरवाही को जिम्मेदार करार दिया है।
राजद कार्यकर्ताओं ने इस नहर निर्माण को भ्रष्टाचार की जीती जागती मिसाल बताई है। और इसके खिलाफ जांच की मांग को लेकर बुधवार को एक दिवसीय धरना पर बैठे है।
कांग्रेस विधायक ने तंज कसा कि करप्शन पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का जीरो टालरेंस कहां गया?
पीरपैंती के राजद विधायक रामविलास पासवान ने इस घटना के लिए इंजीनियरों और ठेकेदारों की मिलीभगत को जिम्मेदार बताया है।
बुधवार सुबह 10 बजे 40 साल से बेसब्री से इंतजार हो रही नहर का विधिवत उद्धाटन होना था। मंगलवार शाम को ट्रायल के तौर पर पंप को जैसे ही चालू कर पानी नहर में छोड़ा गया, वैसे ही कहलगांव एनटीपीसी के पास बने बांध की दीवार करीब छह फीट टूट गई और पानी का बहाव इतना तेज था कि देखते ही देखते सीआईएसएफ कालोनी की 150 मीटर दीवार बह गई।
पानी लोगों के क्वार्टर में घुस कर गया। और आसपास का इलाका जलमग्न हो गया।
मंगलवार को नहर में हुई टूट से एनटीपीसी टाउनशिप के साथ-साथ कहलगांव के सिविल जज और सब-जज के आवास में पानी प्रवेश कर गया था।
अकबरपुर और रानी लघरिया गांवों में पानी प्रवेश कर गया। वहीं कहलगांव के सत्कार चौक और मुरकटिया चौक की तरफ आने जाने वाला रास्ता भी पानी में डूब गया।
रात में ही डीएम आदेश तितमारे और एसएसपी मनोज कुमार मौके पर पहुंचे। एस डी आर एफ की टीम बचाव काम में लगाई गई। नहर के पंप को बंद कराया।
जानकारी के मुताबिक, इलाके से पानी लगभग निकल चुका है, लेकिन कुछ रास्तों पर गाद (मिट्टी) जमा हो गई है।
जल संसाधन के प्रधान सचिव अरुण कुमार सिंह ने बुधवार को दोपहर में फोन पर बताया कि इस बाबत न तो जांच कमिटी बनाने की जरूरत है और न ही किसी के खिलाफ कार्रवाई की गई है। पटना जाने के बाद कार्रवाई के बिंदु पर सलाह की जाएगी। नहर के पास गलत कलवर्ट बनाने की वजह से यह हालात पैदा हुए। जिसकी मरम्मत का निर्देश दिया गया है।
दो महीने के अंदर परियोजना की तमाम खामियों और रिसाव को दुरुस्त करा लेने का भरोसा प्रधान सचिव ने दिया है। पुल के पास बना कलवर्ट एनटीपीसी ने 1994-95 में बनवाया था जो बगैर एनओसी के चालू कर दिया गया।
जबकि कहलगांव एनटीपीसी के कार्यपालक निदेशक राकेश सैमुअल ने एनओसी लेकर ही ओवर ब्रिज चालू करने की बात पत्रकारों से कहीं।
हैरत की बात यह है कि राज्य सरकार के इंजीनियर और अधिकारियों ने ऐसे कमजोर कलवर्ट को नजरदांज कैसे कर दिया? साथ ही उद्घाटन की पूर्व संध्या पर ही ट्रायल क्यों किया गया? इन सवालों के जवाब आने बाकी हैं।
इससे पहले भी 7, 11 और 19 जुलाई को इस परियोजना के उद्घाटन की तारीख टल चुकी है।
अब तो बांध की दीवार ही टूट गई।
हालात देखने पर लगता है अभी नहर के बांध को दुरुस्त कर चालू करने में थोड़ा और वक्त लगेगा।
सरदार सरोवर नर्मदा बांध परियोजना की परिकल्पना भारत के प्रथम गृह मंत्री सरदार पटेल ने की थी। बाद में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सरदार सरोवर नर्मदा बांध परियोजना की नींव रखी थी।
लेकिन मोदी ने अपने सम्बोधन में सरदार पटेल का नाम तो लिया, लेकिन सरदार सरोवर नर्मदा बांध परियोजना की नींव रखने वाले भारत के पहले पीएम पंडित जवाहर लाल नेहरू का नाम लेना भूल गए।
सवाल उठता है कि क्या ऐसा मोदी से अनजाने में हुआ? सच्चाई यह है कि मोदी पिछले कई सालों से कहते आ रहे हैं कि कांग्रेस की सरकार ने 60 सालों में कोई काम नहीं किया ! प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब सरदार सरोवर नर्मदा बांध परियोजना का लोकार्पण करते समय पंडित जवाहर लाल नेहरू का नाम किस मुँह से लेते।
वास्तव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने 3 साल के शासन में कोई काम नहीं किया है।
अभी तक कश्मीर में जवाहर टनल (कांग्रेस के मनमोहन सिंह सरकार का प्रोजेक्ट), ब्रह्मपुत्र नदी पर दुनिया का सबसे लम्बा नदी पुल (कांग्रेस के मनमोहन सिंह सरकार का प्रोजेक्ट), सरदार सरोवर नर्मदा बांध परियोजना (कांग्रेस के पंडित जवाहर लाल नेहरू सरकार का प्रोजेक्ट) सहित कई परियोजनाओं का मोदी ने लोकार्पण किया। वे सभी कांग्रेस सरकार की देन है।
अगर आरएसएस और बीजेपी की भाषा में कहा जाए तो मोदी ने केवल तस्वीर खिंचवाने का काम किया है।
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नर्मदा नदी पर बनने वाली महत्वाकांक्षी परियोजना सरदार सरोवर नर्मदा बांध का आज लोकार्पण करते हुए पिछले सात दशकों में इस परियोजना में आई तमाम बाधाओं का उल्लेख किया और उम्मीद जताई कि यह परियोजना नए भारत के निर्माण में सौ करोड़ भारत वासियों के लिए प्रेरणा का काम करेगी।
मोदी ने इस बांध परियोजना के लोकार्पण के बाद यहां एक रैली को संबोधित करते हुए कहा कि विश्व बैंक सहित कई पक्षों ने सरदार सरोवर नर्मदा बांध परियोजना के मार्ग में बाधाएं उत्पन्न की।
उन्होंने कहा कि उनके पास हर उस आदमी का कच्चा चिट्ठा है, जिसके कारण इस बांध परियोजना में विलंब हुआ।
उन्होंने कहा कि एक समय ऐसा भी आया, जब विश्व बैंक ने इस परियोजना के लिए ऋण देने से इंकार कर दिया।
उन्होंने कहा कि इस परियोजना के लिए वह दो लोगों के आभारी हैं- सरदार वल्लभ भाई पटेल और बाबा साहेब अंबेडकर।
लेकिन सरदार सरोवर नर्मदा बांध परियोजना की नींव रखने वाले भारत के पहले पीएम पंडित जवाहर लाल नेहरू का नाम लेना भूल गए।
उन्होंने कहा, ''भारत के लौह पुरुष की आत्मा आज जहां कहीं भी होगी, वह हम पर ढेर सारे आशीर्वाद बरसा रही होगी।''
उन्होंने कहा कि सरदार पटेल ने एक दिव्य दृष्टि की तरह इस गुजरात क्षेत्र में सिंचाई और जल संकट को देखते हुए नर्मदा पर बांध की परिकल्पना की थी।
मोदी ने कहा कि बाबा साहेब अंबेडकर ने मंत्री परिषद में रहते हुए देश के विकास के लिए तमाम योजनाओं की परिकल्पना की थी।
उन्होंने कहा कि अगर ये दोनों महापुरुष अधिक समय तक जीवित रहते तो देश को उनकी प्रतिभा का और भी लाभ मिलता।
नर्मदा बांध का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि यह बांध आधुनिक इंजीनियरिंग विशेषज्ञों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण एक विषय होगा, साथ ही यह देश की ताकत का प्रतीक भी बनेगा।
उन्होंने कहा कि पर्यावरणविदों तथा कुछ अन्य लोगों ने इसका विरोध किया था। साथ ही विश्व बैंक ने इस परियोजना के लिए धन देने से मना कर दिया था।
उन्होंने कहा कि इस बांध परियोजना से मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र के करोड़ों किसानों का भाग्य बदलेगा।
नर्मदा बांध परियोजना में हुए विलंब का उल्लेख करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि वह इसे राजनीति से नहीं जोड़ रहे हैं अन्यथा उनके पास उन सभी लोगों का कच्चा चिट्ठा है जिन्होंने इस परियोजना में बाधाएं उत्पन्न की, आरोप लगाए और षडयंत्र किया।
प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि जब-जब नर्मदा नदी का सम्मान करने वाली सरकारे आईं, तब-तब इस परियोजना के कार्य में काफी गति आई और बाकी समय इस परियोजना का काम तेजी से नहीं बढ़ा।
उल्लेखनीय है कि नरेंद्र मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री रहने के दौरान नर्मदा बांध के लिए अनशन भी किया था।
इससे पहले प्रधानमंत्री मोदी ने सरदार सरोवर नर्मदा बांध परियोजना का लोकार्पण किया। इस बांध की उंचाई को 138..68 मीटर तक बढ़ाया गया है।
सरदार सरोवर नर्मदा बांध परियोजना की परिकल्पना भारत के प्रथम गृह मंत्री सरदार पटेल ने 1946 में की थी। बाद में प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस परियोजना की नींव रखी थी।
इसके बाद से इस परियोजना का काम पिछले सात दशकों से रूक-रूक कर चलता रहा। इस बांध परियोजना से पानी और यहां उत्पादित होने वाली बिजली से चार राज्यों- गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान को लाभ मिलेगा।
भारत में पीएम नरेंद्र मोदी के शासनकाल में व्यापार घाटा बढ़ने से देश का चालू खाते का घाटा बढ़कर चार साल के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया है।
वित्त वर्ष 2017-18 की पहली तिमाही में यह तेजी से बढ़कर 14.3 अरब डॉलर हो गया।
यह सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 2.4 फीसदी है।
वित्त वर्ष 2016-17 की इसी तिमाही में चालू खाते का घाटा (कैड) 0.4 अरब डॉलर या जीडीपी का 0.1 प्रतिशत था। मार्च 2017 को समाप्त तिमाही में यह 3.4 अरब डॉलर (0.6 प्रतिशत) था।
रिजर्व बैंक के अनुसार, ''सालाना आधार पर चालू खाते का घाटा में वृद्धि का मुख्य कारण व्यापार घाटा बढ़ना है। वस्तुओं के निर्यात के मुकाबले आयात बढ़ने के कारण यह 41.2 अरब डॉलर रहा।''
सामान्य रूप से चालू खाते का घाटा विदेशी मुद्रा के प्रवाह और निकासी के अंतर को बताता है।
भारत का निर्यात अगस्त महीने में 10.29 प्रतिशत बढ़कर 23.81 अरब डॉलर रहा। पिछले चार महीने में यह सर्वाधिक वृद्धि है।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, मुख्य रूप से पेट्रोलियम उत्पादों, इंजीनियरिंग और रसायन निर्यात में वृद्धि से कुल निर्यात बढ़ा है।
वाणिज्य मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार, अगस्त में आयात भी 21.02 प्रतिशत बढ़कर 35.46 अरब डॉलर हो गया जो एक साल पहले इसी महीने में 29.3 अरब डॉलर था। आलोच्य महीने में व्यापार घाटा बढ़कर 11.64 अरब डॉलर हो गया।
मुख्य रूप से सोने का आयात बढ़ने से व्यापार घाटा बढ़ा है।
सोने का आयात अगस्त महीने में 69 प्रतिशत बढ़कर 1.88 अरब डॉलर रहा।
अगस्त माह में तेल का आयात भी 14.22 प्रतिशत बढ़कर 7.75 अरब डॉलर हो गया। अप्रैल-अगस्त के दौरान कुल निर्यात 8.57 प्रतिशत बढ़कर 118.57 अरब डॉलर रहा, जबकि आयात 26.63 प्रतिशत बढ़कर 181.71 अरब डॉलर पर पहुंच गया। इससे व्यापार घाटा बढ़कर 63.14 अरब डॉलर पर पहुंच गया।
जापान के प्रधानमंत्री शिंज़ो आबे ने भारत में पहले बुलेट ट्रेन नेटवर्क के निर्माण कार्य का शिलान्यास किया है।
ये ट्रेन अहमदाबाद से मुंबई के बीच दौड़ेगी। इसकी ज़्यादातर फ़ंडिंग जापान के मिलने वाले $17 अरब (क़रीब 1088 अरब रुपये) के कर्ज़ से होगी।
उम्मीद जताई जा रही है कि इससे 500 किलोमीटर की यात्रा करने में अभी लगने वाला 8 घंटे का समय घटकर तीन घंटे का रह जाएगा।
गुजरात में बुलेट ट्रेन के नाम पर जिस तरह से सीक्वेंस में इवेंट का आयोजन चल रहा है, ये पूरे चुनाव अभियान का हिस्सा है।
गुजरात को मेट्रो देने की बात चली थी, तब जब मोदी मुख्यमंत्री बने थे। 2001 में मोदी मुख्यमंत्री बने थे और यहां से 2014 में प्रधानमंत्री बन कर चले गए। गुजरात में मेट्रो ट्रेन आज तक शुरू नहीं हो पाई है।
उसका काम अब जाकर शुरू हुआ है। कोशिश बहुत चल रही है कि लोकसभा चुनाव 2019 से पहले उसका छोटा-सा हिस्सा भी शुरू हो जाए।
मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद कई महीनों तक गुजरात आए भी नहीं, वाइब्रेंट गुजरात में आए थे, लेकिन उसके बाद लंबे समय तक नहीं आए, लेकिन जैसे-जैसे चुनाव का समय नज़दीक आ रहा है उनकी गुजरात की यात्राएं बढ़ती जा रही हैं।
इसकी वजहें भी हैं क्योंकि जैसे विशाल पेड़ के नीचे दूसरा पेड़ नहीं उग पाता है, उसी तरह से मोदी के जाने के बाद जो भी आए, चाहे वो आनंदीबेन पटेल हों या विजय रुपाणी हों- वे लोगों का भरोसा नहीं जीत पाए।
मोदी लोगों को रिझाने की कोशिश बहुत कर रहे हैं, लेकिन ज़मीनी स्थिति और जो दिखाने की कोशिश हो रही है, उसमें काफ़ी फर्क है।
अभी पिछले दिनों अहमदाबाद में बारिश हुई तो सारी सड़कें ध्वस्त हो गईं। ख़बरें लगातार आती रही हैं कि लोग सड़कों पर घायल हो कर अस्पताल पहुंच रहे थे।
इसके बाद ख़बर आई कि शिंजो आबे आ रहे हैं तो उन सड़कों को चमकाया जाने लगा, जिन पर उन्हें जाना था।
आम लोगों को ये लगने लगा है कि हम लोगों के लिए कुछ नहीं करते, लेकिन बाहरी मेहमान के लिए गुजरात का पूरा प्रशासन जुट गया।
मोदी इस आयोजन के बहाने चुनावी राजनीति ही कर रहे हैं। शिद्दी सैयद मस्जिद में फ़ंक्शन हुआ, लेकिन इस मस्जिद से जुड़े लोगों को इसमें शामिल नहीं किया गया। उस मस्जिद के ऐतिहासिक संदर्भ बताने का काम उन्होंने ख़ुद किया। मस्जिद के लोगों को इजाज़त नहीं मिली।
अगर पीछे देखें तो मोदी ने जब सद्भावना का व्रत रखा था, तब उन्होंने मुसलमानी टोपी पहनने से इनकार कर दिया था। तो एक तरफ़ तो दुनिया भर में अपनी छवि मज़बूत करने के लिए दो क़दम आगे चलते हैं, लेकिन भारत के मतदाताओं के लिए वो एक क़दम पीछे चलते हैं।
गुजरात पर दो लाख करोड़ रुपये का कर्ज़ है, उस राज्य पर ऐसी चीज़ लाद रहे हैं जिससे क्या फर्क़ पड़ेगा, कितना फर्क़ पड़ेगा।
नर्मदा बांध के पास सरदार पटेल की मूर्ति लगाई जा रही है, इस मूर्ति को बनाने का चुनावी फ़ायदा लेने के लिए राज्य में यात्रा निकल रही है, लेकिन इस यात्रा में सरदार पटेल की तस्वीर है ही नहीं, केवल नरेंद्र मोदी हैं और राज्य के मुख्यमंत्री हैं।
ये चुनावी अभियान है, इसलिए इसका उद्घाटन गुजरात से हो रहा है, महाराष्ट्र से क्यों नहीं हो रहा है?
इन सबकी वजह से गुजरात के सोशल मीडिया पर लोग अपना ग़ुस्सा ज़ाहिर कर रहे हैं और 'विकास पागल हो गया है' टॉप ट्रेंड बन गया है।
लोग कह रहे हैं कि कांग्रेस इसके पीछे है, लेकिन ये हक़ीकत नहीं है। कांग्रेस तो लोगों के ग़ुस्से पर सवारी करने की कोशिश कर रही है।
मौजूदा समय में अगर भारतीय जनता पार्टी की ताक़त या मज़बूती की बात करें तो नरेंद्र मोदी के समय में गुजरात में बीजेपी कभी उतनी कमज़ोर नहीं रही जितना कि इस समय है।
गुजरात में भारतीय जनता पार्टी की ताक़त की सबसे बड़ी वजह पाटीदारों का सहयोग था।
बीजेपी के सत्ता में आने की सबसे बड़ी वजहों में एक पाटीदारों का साथ था, लेकिन मौजूदा समय में ये समुदाय विद्रोह पर उतारू है।
उनके विरोध को बांटने की कोशिश हो रही है, लेकिन ये समुदाय विद्रोह पर उतारू है। ओबीसी भी बीजेपी से नाराज़ चल रही है।
आम आदमी पार्टी ने गुजरात में शिंज़ो आबे के आने पर कोई प्रदर्शन नहीं किया है, ना ही करने वाली है, लेकिन राज्य प्रशासन, उनके एक छोटे से नेता को घर से निकलने नहीं दे रहा है।
ऐसी ज़रूरत क्यों पड़ रही है? ये समझने की ज़रूरत है। ये सब स्थितियां बताती हैं कि जो बताने की कोशिश हो रही है स्थिति वैसी है नहीं।
इन सबके बीच बीजेपी 182 में से 150 सीटें जीतने का दावा कर रही है। इस मर्म को भी समझने की ज़रूरत है। 1985 में कांग्रेस ने माधव सिंह सोलंकी के नेतृत्व में इतनी सीटें जीती थीं।
नरेंद्र मोदी ने गुजरात में तमाम झंडे गाड़े, लेकिन माधव सिंह सोलंकी का रिकॉर्ड नहीं तोड़ पाए। लिहाज़ा बीजेपी जो भी दावा करे, जो भी बताने की कोशिश करे, लेकिन हक़ीकत यही है कि पार्टी के अंदर चिंता है।
म्यांमार से आए रोहिंग्या मुसलमान शरणार्थियों को अवैध और देश की सुरक्षा के लिए ख़तरा बताते हुए भारत सरकार ने हाल ही में उन्हें भारत से निकालने का फ़ैसला किया है। ये फ़ैसला ऐसे समय में लिया गया है जब म्यांमार से हज़ारों रोहिंग्या मुसलमान म्यांमार के सुरक्षाबलों की कार्रवाई से अपनी जान बचाकर बांग्लादेश सीमा की ओर भाग रहे हैं।
भारत ने उन रोहिंग्या शरणार्थियों को भारत से बाहर निकालने का फ़ैसला किया है जो कई सालों से यहां शरण लिए हुए हैं।
भारत सरकार ने रोहिंग्या विद्रोहियों के ख़िलाफ़ म्यांमार सुरक्षाबलों की कार्रवाई का भी समर्थन किया है।
भारत में ज़्यादातर रोहिंग्या शरणार्थी पांच साल पहले म्यांमार में सुरक्षाबलों और बौद्ध अतिवादियों के अत्याचारों से जान बचाकर भारत आए थे।
शरणार्थियों से संबंधित संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार, भारत में 14 हजार से अधिक रोहिंग्या शरणार्थी हैं।
ताज़ा घटनाक्रम के कारण हज़ारों रोहिंग्या मुसलमान एक बार फिर म्यांमार छोड़कर बांग्लादेश की ओर भाग रहे हैं।
संयुक्त राष्ट्र, अमरीका, ब्रिटेन और यूरोपियन यूनियन ने रोहिंग्या संकट को बेहद चिंताजनक क़रार दिया है।
म्यांमार में आंग सान सू ची की नज़रबंदी और लोकतंत्र समर्थक आंदोलन के दौरान वहां के हज़ारों नागरिकों और राजनीतिक नेताओं ने भारत में शरण ली थी।
अपने आध्यात्मिक गुरु दलाई लामा के नेतृत्व में हजारों तिब्बती हिमाचल प्रदेश, सिक्किम और उत्तरांचल में सालों से रह रहे हैं।
पाकिस्तान और बांग्लादेश के हजारों हिन्दू शरणार्थियों ने भारत में शरण ले रखी है।
नेपाली नागरिकों के लिए भारत खुला है। लाखों नेपाली नागरिक भारत में रहते हैं और यहाँ काम करते हैं।
श्रीलंका में गृहयुद्ध के दौरान लाखों तमिलों ने भारत में शरण ली थी।
ऐसे में सवाल उठता है कि सवा अरब की आबादी वाले भारत में मोदी सरकार को कुछ हज़ार रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थियों से ही दिक्कत क्यों है?
कुछ पर्यवेक्षकों का मानना है कि मोदी सरकार रोहिंग्या शरणार्थियों का विरोध कर 'हिंदू कार्ड' खेल रही है।
टीवी चैनलों पर रोहिंग्या शरणार्थियों को भारत की सुरक्षा के लिए ख़तरा क़रार दिया जा रहा है।
बहस में बताया जाता है कि इन शरणार्थियों के अलकायदा और इस्लामिक स्टेट जैसे चरमपंथी संगठनों से रिश्ते हैं और वे भारत में आतंकवाद का नेटवर्क फैला रहे हैं।
उनकी संख्या बढ़ा-चढ़ाकर बताई जाती है। कुछ चैनल तो अपनी नफ़रतों में इतना खुलकर सामने आए कि उन्होंने 'विदेशी मुसलमानों भारत छोड़ो' का नारा दे डाला है।
रोहिंग्या शरणार्थियों के बारे में मौजूदा मोदी सरकार की नीति कोई हैरत की बात नहीं है।
नरेंद्र मोदी ने साल 2014 में अपने चुनाव अभियान के दौरान असम में कहा था कि वे केवल हिंदू शरणार्थियों को देश में आने देंगे। गैर हिंदू शरणार्थियों को शरण नहीं दी जाएगी और जो ग़ैर-हिंदू अवैध शरणार्थी देश में हैं, उन्हें यहां से निकाल दिया जाएगा।
भारत में कुछ लोगों के द्वारा मुसलमानों को लेकर नफ़रत की भावना बढ़ाने की कोशिश की जा रही है। मीडिया के एक वर्ग का ये सबसे पसंदीदा विषय है। हर शाम कुछ न्यूज़ चैनलों पर घृणा की लहर चल रही होती है।
भारत में जो बातें लोग दिलों में रखते थे, अब वह खुलकर उसे जता रहे हैं। पूरा समाज इस समय बंटा हुआ दिखता है।
रोहिंग्या मुसलमान भी भारत की इसी नफ़रत की राजनीति का शिकार हो गए हैं। उन्हें भारत से निकालना आसान नहीं होगा क्योंकि म्यांमार उन्हें अपना नागरिक ही स्वीकार नहीं करता और शरणार्थियों को जबरन किसी दूसरे देश नहीं भेजा जा सकता है।
लेकिन मोदी सरकार द्वारा उन्हें निर्वासित करने की घोषणा से इन शरणार्थियों का जीवन और भी कठिन हो गया है।
मीडिया के एक वर्ग ने उन्हें जेहादी और उग्रवादी बताकर आम लोगों के दिलोदिमाग में उनके बारे में संदेह पैदा कर दिए हैं।
रोहिंग्या शरणार्थी किसी तरह अपनी जान बचाकर हज़ारों मील का सफर तय करके भारत पहुंचे थे।
यहाँ भी शिविरों में उनका जीवन एक ऐसी मौत की तरह है जिसे जीने के लिए वे मजबूर हैं।
अपने देश (म्यांमार) में उन्हें नस्ल और धर्म के कारण अत्याचार का सामना करना पड़ा। म्यांमार में उनकी बस्तियां जल रही हैं। लाखों लोग सुरक्षित पनाह लेने के लिए हर तरफ़ भाग रहे हैं।
मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि इन स्थितियों में भारत में मौजूद रोहिंग्या शरणार्थियों को निर्वासित करने का मोदी सरकार का फैसला अमानवीय है। इससे जातीय और धार्मिक घृणा का भी पता चलता है।
पत्रकार गौरी लंकेश की कर्नाटक में मंगलवार (पांच सितंबर) को गोली मारकर हत्या कर दी गयी। उनकी हत्या से पत्रकारों समेत समस्त बुद्धिजीवी वर्ग में आक्रोश है।
हिंदुत्ववादी संगठन सोशल मीडिया पर यूजर्स के निशाने पर हैं। गौरी लंकेश अपनी पत्रिका में और सोशल मीडिया पर दक्षिणपंथी संगठनों और बीजेपी सरकार की आलोचना करती रहती थीं।
सामाजिक कार्यकर्ता लंकेश की हत्या और साल 2015 में कर्नाटक में हुई एमएम कलबुर्गी की हत्या के बीच साम्य देख रहे हैं। इससे पहले गोविंद पानसरे और नरेंद्र दाभोलकर की हत्या के तार भी दक्षिणपंथी समूहों से जुड़े बताए गए थे।
एनडीटीवी के पत्रकार रवीश कुमार ने गौरी लंकेश द्वारा अपनी पत्रिका में लिखे आखिरी संपादकीय का अपने मित्र की मदद से अनुवाद किया है। रवीश ने इसे अपने ब्लॉग क़स्बा पर पेश किया है। नीचे रवीश कुमार के इंट्रो के साथ ही लंकेश का संपादकीय।
रवीश कुमार का इंट्रो: गौरी लंकेश नाम है पत्रिका का। 16 पन्नों की यह पत्रिका हर हफ्ते निकलती है। 15 रुपये कीमत होती है। 13 सितंबर का अंक गौरी लंकेश के लिए आख़िरी साबित हुआ। हमने अपने मित्र की मदद से उनके आख़िरी संपादकीय का हिन्दी में अनुवाद किया है ताकि आपको पता चल सके कि कन्नडा में लिखने वाली इस पत्रकार की लिखावट कैसी थी, उसकी धार कैसी थी। हर अंक में गौरी 'कंडा हागे' नाम से कालम लिखती थीं। कंडा हागे का मतलब होता है जैसा मैने देखा। उनका संपादकीय पत्रिका के तीसरे पन्ने पर छपता था। इस बार का संपादकीय फेक न्यूज़ पर था और उसका टाइटल था- फेक (झूठा) न्यूज़ के ज़माने में-
गौरी लंकेश का आखिरी संपादकीय: इस हफ्ते के इश्यू में मेरे दोस्त डॉ वासु ने गोएबल्स की तरह इंडिया में फेक न्यूज़ बनाने की फैक्ट्री के बारे में लिखा है। झूठ की ऐसी फैक्ट्रियां ज़्यादातर मोदी भक्त ही चलाते हैं। झूठ की फैक्ट्री से जो नुकसान हो रहा है मैं उसके बारे में अपने संपादकीय में बताने का प्रयास करूंगी।
अभी परसों ही गणेश चतुर्थी थी। उस दिन सोशल मीडिया में एक झूठ फैलाया गया। फैलाने वाले संघ के लोग थे। ये झूठ क्या है? झूठ ये है कि कर्नाटक सरकार जहां बोलेगी, वहीं गणेश जी की प्रतिमा स्थापित करनी है, उसके पहले दस लाख का डिपाज़िट करना होगा, मूर्ति की ऊंचाई कितनी होगी, इसके लिए सरकार से अनुमति लेनी होगी, दूसरे धर्म के लोग जहां रहते हैं, उन रास्तों से विसर्जन के लिए नहीं ले जा सकते हैं। पटाखे वगैरह नहीं छोड़ सकते हैं।
संघ के लोगों ने इस झूठ को खूब फैलाया। ये झूठ इतना ज़ोर से फैल गया कि अंत में कर्नाटक के पुलिस प्रमुख आर के दत्ता को प्रेस बुलानी पड़ी और सफाई देनी पड़ी कि सरकार ने ऐसा कोई नियम नहीं बनाया है। ये सब झूठ है।
इस झूठ का सोर्स जब हमने पता करने की कोशिश की तो वो जाकर पहुंचा POSTCARD.IN नाम की वेबसाइट पर। यह वेबसाइट पक्के हिन्दुत्ववादियों की है। इसका काम हर दिन फ़ेक न्यूज़ बनाकर बनाकर सोशल मीडिया में फैलाना है।
11 अगस्त को POSTCARD.IN में एक हेडिंग लगाई गई। कर्नाटक में तालिबान सरकार। इस हेडिंग के सहारे राज्य भर में झूठ फैलाने की कोशिश हुई। संघ के लोग इसमें कामयाब भी हुए। जो लोग किसी न किसी वजह से सिद्धारमैया सरकार से नाराज़ रहते हैं, उन लोगों ने इस फ़ेक न्यूज़ को अपना हथियार बना लिया। सबसे आश्चर्य और खेद की बात है कि लोगों ने भी बग़ैर सोचे समझे इसे सही मान लिया। अपने कान, नाक और भेजे का इस्तमाल नहीं किया।
पिछले सप्ताह जब कोर्ट ने राम रहीम नाम के एक ढोंगी बाबा को बलात्कार के मामले में सज़ा सुनाई, तब उसके साथ बीजेपी के नेताओं की कई तस्वीरें सोशल मीडिया में वायरल होने लगी। इस ढोंगी बाबा के साथ मोदी के साथ-साथ हरियाणा के बीजेपी विधायकों की फोटो और वीडियो वायरल होने लगा। इससे बीजेपी और संघ परिवार परेशान हो गए।
इसे काउंटर करने के लिए गुरमीत बाबा के बाज़ू में केरल के सी पी एम के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन के बैठे होने की तस्वीर वायरल करा दी गई। यह तस्वीर फोटोशाप थी।
असली तस्वीर में कांग्रेस के नेता ओमन चांडी बैठे हैं, लेकिन उनके धड़ पर विजयन का सर लगा दिया गया और संघ के लोगों ने इसे सोशल मीडिया में फैला दिया।
शुक्र है संघ का यह तरीका कामयाब नहीं हुआ क्योंकि कुछ लोग तुरंत ही इसका ओरिजनल फोटो निकाल लाए और सोशल मीडिया में सच्चाई सामने रख दी।
एक्चुअली, पिछले साल तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के फ़ेक न्यूज़ प्रोपेगैंडा को रोकने या सामने लाने वाला कोई नहीं था। अब बहुत से लोग इस तरह के काम में जुट गए हैं, जो कि अच्छी बात है। पहले इस तरह के फ़ेक न्यूज़ ही चलती रहती थी, लेकिन अब फ़ेक न्यूज़ के साथ-साथ असली न्यूज़ भी आनी शुरू हो गए हैं और लोग पढ़ भी रहे हैं।
उदाहरण के लिए 15 अगस्त के दिन जब लाल क़िले से प्रधानमंत्री मोदी ने भाषण दिया तो उसका एक विश्लेषण 17 अगस्त को ख़ूब वायरल हुआ। ध्रुव राठी ने उसका विश्लेषण किया था। ध्रुव राठी देखने में तो कालेज के लड़के जैसा है, लेकिन वो पिछले कई महीनों से मोदी के झूठ की पोल सोशल मीडिया में खोल देता है।
पहले ये वीडियो हम जैसे लोगों को ही दिख रहा था, आम आदमी तक नहीं पहुंच रहा था, लेकिन 17 अगस्त को यह वीडियो एक दिन में एक लाख से ज़्यादा लोगों तक पहुंच गया। (गौरी लंकेश अक्सर मोदी को बूसी बसिया लिखा करती थीं जिसका मतलब है जब भी मुंह खोलेंगे झूठ ही बोलेंगे)।
ध्रुव राठी ने बताया कि राज्य सभा में 'बूसी बसिया' की सरकार ने राज्य सभा में महीना भर पहले कहा कि 33 लाख नए करदाता आए हैं। उससे भी पहले वित्त मंत्री जेटली ने 91 लाख नए करदाताओं के जुड़ने की बात कही थी। अंत में आर्थिक सर्वे में कहा गया कि सिर्फ 5 लाख 40 हज़ार नए करदाता जुड़े हैं। तो इसमें कौन सा सच है, यही सवाल ध्रुव राठी ने अपने वीडियो में उठाया है।
आज की मेनस्ट्रीम मीडिया केंद्र सरकार और बीजेपी के दिए आंकड़ों को जस का तस वेद वाक्य की तरह फैलाती रहती है। मेन स्ट्रीम मीडिया के लिए सरकार का बोला हुआ वेद वाक्य हो गया है। उसमें भी जी टीवी न्यूज चैनल हैं, वो इस काम में दस कदम आगे हैं।
उदाहरण के लिए, जब रामनाथ कोविंद ने राष्ट्रपति पद की शपथ ली तो उस दिन बहुत सारे अंग्रज़ी टीवी चैनलों ने ख़बर चलाई कि सिर्फ एक घंटे में ट्वीटर पर राष्ट्रपति कोविंद के फोलोअर की संख्या 30 लाख हो गई है। वो चिल्लाते रहे कि 30 लाख बढ़ गया, 30 लाख बढ़ गया। उनका मकसद यह बताना था कि कितने लोग कोविंद को सपोर्ट कर रहे हैं।
बहुत से टीवी चैनल आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की टीम की तरह हो गए हैं। संघ का ही काम करते हैं। जबकि सच ये था कि उस दिन भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का सरकारी अकाउंट नए राष्ट्रपति के नाम हो गया। जब ये बदलाव हुआ, तब राष्ट्रपति भवन के फोलोअर अब कोविंद के फोलोअर हो गए।
इसमें एक बात और भी गौर करने वाली ये है कि प्रणब मुखर्जी को भी तीस लाख से भी ज्यादा लोग ट्वीटर पर फोलो करते थे।
आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इस तरह के फैलाए गए फ़ेक न्यूज़ की सच्चाई लाने के लिए बहुत से लोग सामने आ चुके हैं। ध्रुव राठी वीडियो के माध्यम से ये काम कर रहे हैं। प्रतीक सिन्हा altnews.in नाम की वेबसाइट से ये काम कर रहे हैं। होक्स स्लेयर, बूम और फैक्ट चेक नाम की वेबसाइट भी यही काम कर रही है।
साथ ही साथ THEWIERE.IN, SCROLL.IN, NEWSLAUNDRY.COM, THEQUINT.COM जैसी वेबसाइट भी सक्रिय हैं। मैंने जिन लोगों के नाम बताए हैं, उन सभी ने हाल ही में कई फ़ेक न्यूज़ की सच्चाई को उजागर किया है। इनके काम से संघ के लोग काफी परेशान हो गए हैं। इसमें और भी महत्व की बात यह है कि ये लोग पैसे के लिए काम नहीं कर रहे हैं। इनका एक ही मकसद है कि फासिस्ट लोगों के झूठ की फैक्ट्री को लोगों के सामने लाना।
कुछ हफ्ते पहले बंगलुरू में ज़ोरदार बारिश हुई। उस टाइम पर संघ के लोगों ने एक फोटो वायरल कराया। कैप्शन में लिखा था कि नासा ने मंगल ग्रह पर लोगों के चलने का फोटो जारी किया है। बंगलुरू नगरपालिका बी बी एम सी ने बयान दिया कि ये मंगल ग्रह का फोटो नहीं है।
संघ का मकसद था, मंगल ग्रह का बताकर बंगलुरू का मज़ाक उड़ाना। जिससे लोग यह समझें कि बंगलुरू में सिद्धारमैया की सरकार ने कोई काम नही किया, यहां के रास्ते खराब हो गए हैं, इस तरह के प्रोपेगैंडा करके झूठी खबर फैलाना संघ का मकसद था।
लेकिन ये आरएसएस को भारी पड़ गया था क्योंकि ये फोटो बंगलुरू का नहीं, महाराष्ट्र का था, जहां बीजेपी की सरकार है।
हाल ही में पश्चिम बंगाल में जब दंगे हुए तो आरएसएस के लोगों ने दो पोस्टर जारी किए। एक पोस्टर का कैप्शन था, बंगाल जल रहा है, उसमें प्रोपर्टी के जलने की तस्वीर थी। दूसरे फोटो में एक महीला की साड़ी खींची जा रही है और कैप्शन है बंगाल में हिन्दु महिलाओं के साथ अत्याचार हो रहा है।
बहुत जल्दी ही इस फोटो का सच सामने आ गया। पहली तस्वीर 2002 के गुजरात दंगों की थी जब मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार गुजरात में थी। दूसरी तस्वीर भोजपुरी सिनेमा के एक सीन की थी।
सिर्फ आरएसएस ही नहीं, बीजेपी के केंद्रीय मंत्री भी ऐसे फ़ेक न्यूज़ फैलाने में माहिर हैं। उदाहरण के लिए, केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने फोटो शेयर किया कि जिसमें कुछ लोग तिरंगे में आग लगा रहे थे। फोटो के कैप्शन पर लिखा था गणतंत्र दिवस पर हैदराबाद में तिरंगे को आग लगाया जा रहा है।
अभी गूगल इमेज सर्च एक नया अप्लिकेशन आया है, उसमें आप किसी भी तस्वीर को डालकर जान सकते हैं कि ये कहां और कब की है? प्रतीक सिन्हा ने यही काम किया और उस अप्लिकेशन के ज़रिये गडकरी के शेयर किए गए फोटो की सच्चाई उजागर कर दी।
पता चला कि ये फोटो हैदराबाद का नहीं है। पाकिस्तान का है जहां एक प्रतिबंधित कट्टरपंथी संगठन भारत के विरोध में तिरंगे को जला रहा है।
इसी तरह एक टीवी पैनल के डिस्कशन में बीजेपी के प्रवक्ता संबित पात्रा ने कहा कि सरहद पर सैनिकों को तिरंगा लहराने में कितनी मुश्किलें आती हैं, फिर जेएनयू जैसे विश्वविद्यालयों में तिरंगा लहराने में क्या समस्या है? यह सवाल पूछकर संबित ने एक तस्वीर दिखाई।
बाद में पता चला कि यह एक मशहूर तस्वीर है। मगर इसमें भारतीय नहीं, अमरीकी सैनिक हैं। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अमरीकी सैनिकों ने जब जापान के एक द्वीप पर क़ब्ज़ा किया, तब उन्होंने अपना झंडा लहराया था।
मगर फोटोशाप के ज़रिये संबित पात्रा लोगों को चकमा दे रहे थे। लेकिन ये उन्हें काफी भारी पड़ गया। ट्वीटर पर संबित पात्रा का लोगों ने काफी मज़ाक उड़ाया।
मोदी सरकार में केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने हाल ही में एक तस्वीर साझा की। लिखा कि भारत सरकार ने 50,000 किलोमीटर रास्तों पर तीस लाख एलईडी बल्ब लगा दिए हैं। मगर जो तस्वीर उन्होंने लगाई, वो फेक निकली।
यह तस्वीर भारत की नहीं, 2009 में जापान के सडकों की तस्वीर थी।
इसी पीयूष गोयल ने पहले भी एक ट्वीट किया था कि कोयले की आपूर्ति में सरकार ने 25,900 करोड़ की बचत की है। उस ट्वीट की तस्वीर भी झूठी निकली।
छत्तीसगढ़ के पी डब्ल्यू डी मंत्री राजेश मूणत ने एक ब्रिज का फोटो शेयर किया। अपनी सरकार की कामयाबी बताई। उस ट्वीट को 2000 लाइक मिले। बाद में पता चला कि वो तस्वीर छत्तीसगढ़ की नहीं, वियतनाम की है।
ऐसे फ़ेक न्यूज़ फैलाने में हमारे कर्नाटक के आरएसएस और बीजेपी लीडर भी कुछ कम नहीं हैं। कर्नाटक के सांसद प्रताप सिम्हा ने एक रिपोर्ट शेयर किया, कहा कि ये टाइम्स आफ इंडिया में आया है। उसकी हेडलाइन ये थी कि हिन्दू लड़की को मुसलमान ने चाकू मारकर हत्या कर दी।
दुनिया भर को नैतिकता का ज्ञान देने वाले प्रताप सिम्हा ने सच्चाई जानने की ज़रा भी कोशिश नहीं की। किसी भी अखबार ने इस न्यूज को नहीं छापा था बल्कि फोटोशाप के ज़रिए किसी दूसरे न्यूज़ में हेडलाइन लगा दिया गया था और हिन्दू-मुस्लिम रंग दिया गया। इसके लिए टाइम्स आफ इंडिया के नाम का इस्तेमाल किया गया।
जब हंगामा हुआ कि ये तो फ़ेक न्यूज़ है तो सांसद ने डिलिट कर दिया, मगर माफी नहीं मांगी। साम्प्रदायिक झूठ फैलाने पर कोई पछतावा ज़ाहिर नहीं किया।
जैसा कि मेरे दोस्त वासु ने इस बार के कॉलम में लिखा है, मैंने भी बिना सोचे समझे एक फ़ेक न्यूज़ शेयर कर दिया। पिछले रविवार को पटना की अपनी रैली की तस्वीर लालू यादव ने फोटोशाप करके साझा कर दी। थोड़ी देर में दोस्त शशिधर ने बताया कि ये फोटो फर्ज़ी है। नकली है। मैंने तुरंत हटाया और ग़लती भी मानी।
यही नहीं, फेक और असली तस्वीर दोनों को एक साथ ट्वीट किया। इस गलती के पीछे सांप्रदायिक रूप से भड़काने या प्रोपेगैंडा करने की मंशा नहीं थी। फासिस्टों के ख़िलाफ़ लोग जमा हो रहे थे, इसका संदेश देना ही मेरा मकसद था। फाइनली, जो भी फ़ेक न्यूज़ को एक्सपोज़ करते हैं, उनको सलाम । मेरी ख़्वाहिश है कि उनकी संख्या और भी ज़्यादा हो।