भारत की दिग्गज आईटी कंपनियों में कर्मचारियों को निकालने और सैलरी में कटौती का सिलसिला लगातार जारी है। केवल जूनियर लेवल पर ही नहीं, कंपनियों के टॉप लेवल में भी सैलरी की कटौती की गई है। जिन बड़े लोगों को कम सैलरी-पैकेज मिला है, उनमें इंफोसिस के सीईओ विशाल सिक्का, विप्रो के अजीम प्रेमजी और आइडिया के कुमार मंगलम बिड़ला शामिल हैं।
वित्तीय वर्ष 2017 में उनके सैलरी में कटौती देखी गई है। कम सैलरी भुगतान के लिए आईटी क्षेत्र में उथल-पुथल और कंपनी के खराब प्रदर्शन को जिम्मेदार ठहराया गया है।
इंफोसिस के सीईओ विशाल सिक्का और विप्रो के चेयरमैन अज़ीम प्रेमजी के कम्पन्सेशन में FY17 में 60 प्रतिशत से अधिक का कटौती हुई है। ऐसा आईटी सेक्टर में वैश्विक मंदी, कड़े आव्रजन निमय तथा ऑटोमेशन में बदलाव के कारण हुआ।
हाल ही में आई रिपोर्ट के मुताबिक, सिक्का की सैलरी 67 फीसदी तक कम हो गई है। ऐसा कम बोनस मिलने की वजह से हुआ है। इंफोसिस की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक, वित्त वर्ष 2016-17 में सिक्का की सैलरी का कैश कम्पोनेंट 16.01 करोड़ रुपए था, जो कि पिछले वित्त वर्ष (2015-16) में 48.73 करोड़ रुपए से कम है।
इसी तरह से, विप्रो के चेयरमैन अज़ीम प्रेमजी की सैलरी में 63 फीसदी तक की कटौती हुई है। उनकी सैलरी कम्पन्सेशन में पिछले वित्त वर्ष 63 प्रतिशत की कटौती की गई है। यूएस सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज कमीशन को कंपनी की ओर से दी गई जानकारी के मुताबिक, प्रेमजी को वित्त विर्ष 2016-17 में कम्पन्सेशन के रूप में 108,026 डॉलर (करीब 71.4 लाख रुपए) मिले, जबकि इससे पिछले साल उन्हें $292,991 (1.93 करोड़ रुपए) मिले थे।
इसी तरह, आदित्य बिड़ला ग्रुप के स्वामित्व वाली आइडिया सेल्युलर के चेयरमैन कुमार मंगलम बिड़ला की सैलरी में कई गुना गिरावट आई है। टेलिकॉम ऑपरेटर आइडिया ने हाल ही में बताया था कि उसे मार्केट में लिस्टेड कंपनी बनने के बाद पहली बार घाटा उठाना पड़ा है। वित्त वर्ष 2016 में आइडिया के चेयरमैन बिड़ला की सैलरी 13.15 करोड़ रुपए थी, लेकिन अगले वित्त वर्ष में यह कई गुना गिरकर 3.30 लाख रुपए तक पहुंच गई। आदित्य बिड़ला ग्रुप ने अपने चेयरमैन और अन्य एग्जिक्युटिव्स को कोई कमिशन भी नहीं दिया है।
बता दें कि आईटी सेक्टर इस समय वैश्विक मंदी की दौर से गुजर रहा है। इसे देखते हुए काफी समय से छंटनी की भी खबरें आ रही हैं। कंपनियों का कहना है कि वो ऐसा अपनी लागत को कम करने के लिए कर रही हैं। भारत की दूसरी सबसे बड़ी कंपनी इंफोसिस ने भी अपने सीनियर और मिड लेवल के कर्मचारियों की छंटनी की थी।
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मंगलवार को कहा कि देश का विकास धीमा पड़ा है जिसका मुख्य कारण नोटबंदी है तथा अर्थव्यवस्था केवल सार्वजनिक व्यय के इंजन पर चल रही है।
उन्होंने स्थिति विशेषकर रोजगार सृजन पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर गहरी चिंता जतायी। उन्होंने मंगलवार को कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में अपने संबोधन में आर्थिक विकास में आयी गिरावट पर चिंता जतायी जो गत तिमाही के जीडीपी आंकड़ों में झलक रही है।
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के आवास पर हुई कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में मनमोहन ने कहा, ''भारत के गत वित्त वर्ष की चौथी तिमाही और पूरे वित्त वर्ष 2016 - 17 के जीडीपी आंकड़े कुछ दिन पहले जारी किये गये। भारत के आर्थिक विकास में भारी गिरावट आयी है, मुख्यत: नवंबर 2016 में की गयी नोटबंदी घोषणा के कारण।''
उन्होंने कहा, ''आर्थिक गतिविधियों को बताने वाला वास्तविक उप माप सकल मूल्य वर्धन (जीवीए) में भारी और निरंतर कमी आयी है। निजी क्षेत्र का निवेश ध्वस्त हो गया है तथा अर्थव्यवस्था एकमात्र सार्वजनिक व्यय के इंजन पर चल रही है। उद्योगों का जीवीए जो मार्च 2016 में 10.7 प्रतिशत था वह मार्च 2017 में घटकर 3.8 प्रतिशत रह गया। इसमें करीब सात प्रतिशत की गिरावट आयी।''
पूर्व प्रधानमंत्री ने रोजगार सृजन को सबसे चिंताजनक पहलु बताया। उन्होंने कहा, ''इसमें सबसे चिंताजनक बात रोजगार सृजन का प्रभाव है। देश के युवाओं के लिए रोजगार मिलना बहुत कठिन हो गया है। देश में सबसे अधिक रोजगार सृजन करने वाला निर्माण उद्योग सिकुड़ रहा है। इसका मतलब है कि देश में लाखों नौकरियां खत्म हो रही हैं।''
ऐसे समय में जब भारत के हिंदू दक्षिणपंथी समूह भारत में मुगल शासकों के योगदान पर सवाल उठा रहे हैं, मुगल बादशाह बाबर की जन्मस्थली उज्बेकिस्तान के विशेषज्ञ बाबर और उस युग के बारे में अध्ययन के लिए यहां आए हैं ताकि दोनों देशों के बीच ऐतिहासिक संबंधों का पता लगाया जा सके।
मध्य एशियाई देश के शोधकर्ताओं के एक दल ने राष्ट्रीय संग्रहालय का दौरा किया जिसमें बाबर के बारे में दुर्लभ पांडुलिपि समेत मुगल शासकों के बारे में सूचनाओं का विशाल संग्रह है।
बाबर ने मुगल साम्राज्य की स्थापना की थी जो तीन सदियों से अधिक समय तक चली।
विशेषज्ञ 'कल्चरल लीगैसी ऑफ उज्बेकिस्तान इन द आर्ट कलेक्शंस ऑफ द वर्ल्ड' परियोजना पर काम कर रहे हैं, जहां टीम दुनियाभर से उज्बेकी ऐतिहासिक सामग्री एकत्र कर रही है।
राष्ट्रीय संग्रहालय के महानिदेशक डॉ. बी आर मणि ने कहा, ''दल अप्रैल में आया था और उनका लक्ष्य मुख्य रूप से मुगल युग से संबंधित सामग्री का दस्तावेजीकरण है।''
उन्होंने कहा, ''बाबर का जन्म अंदीजान (उज्बेकिस्तान के फरगना प्रांत के शहर) में हुआ था और हमारे पास उनके बारे में और भारत में मुगल वंश के बारे में काफी सामग्री है। दूसरी टीम भी संग्रहालय जाएगी और हम उनकी मदद करके खुश हैं।''
बाबर ने दरअसल भारत आने के बाद उज्बेकिस्तान की यात्रा कभी नहीं की। संग्रहालय में उज्बेक विशेषज्ञों की खासतौर पर पवित्र कुरान की पांडुलिपियों में दिलचस्पी है जिसे मुगल शासकों को दिया गया था और यह कवर पेज पर शाही मुहर से भी स्पष्ट है। इस कुरान को उज्बेकिस्तान में लिखा गया था।
मुगल बादशाह बाबर ने पानीपत की पहली लड़ाई लोदी वंश के बादशाह इब्राहिम लोदी को हरा कर जीती थी और भारत में मुगल वंश की स्थापना की थी। बाबर के बेटे हुमायूं ने भारत में मुगल वंश को मजबूती दी और अकबर के आते-आते मुगल वंश अच्छी तरह से भारत में जड़ें जमा चुका था।
मवेशियों को मारने के नरेंद्र मोदी सरकार के नए नियम पर केरल हाई कोर्ट ने हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया है। सरकार के फैसले को खारिज किए जाने को लेकर दायर की गई एक जनहित याचिका कोर्ट ने रद्द कर दी।
हाई कोर्ट ने कहा कि प्रदर्शनकारियों ने केंद्र के नए नियम को गलत समझ लिया है। टाइम्स नाउ के मुताबिक, हाई कोर्ट ने कहा कि केंद्र का आदेश किसी को बीफ खाने से नहीं रोकता।
कोर्ट ने कहा कि मवेशियों को मारने या मांस खाने पर कोई पाबंदी नहीं है। केवल बड़े पशु बाजारों में मवेशियों की बिक्री पर रोक लगाई गई है।
राजस्थान हाई कोर्ट ने गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने को कहा है। न्यूज एजेंसी एएनआई के मुताबिक, हाई कोर्ट ने राजस्थान सरकार से कहा है कानून में बदलाव कर गाय का वध करने वालों को आजीवन उम्रकैद की सजा होनी चाहिए।
हाई कोर्ट ने हिंनगोनिया गौशाला में गायों की मौत मामले पर सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की। हाई कोर्ट ने वन विभाग को आदेश दिया है कि हर साल गौशालाओं में 5000 पौधे लगाए जाएं। फिलहाल गौहत्या करने पर 3 साल की सजा का प्रावधान है।
26 मई को नरेंद्र मोदी सरकार ने वध के लिये पशु बाजारों में मवेशियों की खरीद-फरोख्त पर प्रतिबंध लगा दिया था। पर्यावरण मंत्रालय ने पशु क्रूरता निरोधक अधिनियम के तहत सख्त पशु क्रूरता निरोधक (पशुधन बाजार नियमन) नियम, 2017 को अधिसूचित किया था।
लेकिन मद्रास हाई कोर्ट ने 4 हफ्ते के लिए केंद्र सरकार के इस फैसले पर रोक लगा दी है और इस संबंध में उससे जवाब मांगा है।
मद्रास हाईकोर्ट की मदुरै बेंच ने कहा था कि लोगों की 'फूड हैबिट' तय करना सरकार का काम नहीं है। इस संबंध में केन्द्र के फैसले के खिलाफ दायर एक याचिका पर सुनवाई करते हुए जस्टिस एमवी मुरलीधरन और जस्टिस सीवी कार्तिकेयन ने कहा था कि अपने पसंद का खाना चुनना सभी का व्यक्तिगत मामला है और इस अधिकार में कोई दखल दे नहीं सकता।
वध के लिए मंडियों और बाजार में पशुओं की बिक्री पर रोक लगाने के फैसले का कई राज्य सरकारों ने विरोध किया था।
पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी ने कहा था कि केन्द्र सरकार ने फैसला राज्यों से बिना पूछे लिया है। इस मामले में बड़ा विवाद तब छिड़ गया था, जब केरल के कन्नूर में इस फैसले के विरोध में यूथ कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने सार्वजनिक रुप से एक बछड़े को काटा और उसके मीट को लोगों के बीच में बाँटा था।
यूथ कांग्रेस के इस कार्यक्रम का देश भर में विरोध हुआ था। खुद कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने भी इसकी निंदा की थी।
हालांकि कांग्रेस ने इस मामले में कार्रवाई करते हुए अपने पार्टी के दो सदस्यों को बाहर का रास्ता दिखा दिया था।
आईआईटी मद्रास में भी स्टूडेंट्स ने सरकार के इस फैसले के खिलाफ बीफ फेस्टिवल का आयोजन किया था।
वहीं केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने भी केंद्र सरकार के इस फैसले को लेकर उन पर निशाना साधा है। उन्होंने कहा कि यह किसी भी शख्स के संवैधानिक और मूलभूल अधिकारियों का हनन है।
विजयन ने कहा, ''यह देखना होगा कि क्या केंद्र सरकार के पास यह आदेश देने का अधिकार है या नहीं।''
नरेंद्र मोदी सरकार के द्वारा वध के लिये पशु बाजारों में मवेशियों की खरीद-फरोख्त पर प्रतिबंध लगाने से केंद्र-राज्य सम्बन्ध ख़राब होंगे।
पहले सिर्फ कश्मीर में आज़ादी की माँग उठ रही थी। लेकिन अब मोदी सरकार के मवेशियों की खरीद-फरोख्त पर प्रतिबंध लगाने के बाद ट्विटर पर द्रविड़नाडु की माँग उठने लगी है जिसमें केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक और तेलंगाना को मिलाकर अलग देश बनाने की माँग की जा रही है।
द्रविड़नाडु की माँग 1940 में पेरियार ने अंग्रेजों से की थी। 1947 में आज़ादी के बाद द्रविड़नाडु की माँग को लोग भूल गए थे, लेकिन मोदी सरकार के मवेशियों की खरीद-फरोख्त पर प्रतिबंध लगाने के बाद द्रविड़नाडु की माँग फिर से की जाने लगी है।
योग गुरु से लेकर साबुन, तेल और दंत मंजन जैसे रोजमर्रा उत्पाद लाकर भारतीय बाजार में छा जाने वाले बाबा रामदेव आज किसी ब्रांड आइकन से कम नहीं हैं। उन्होंने अपना सिक्का कैसे जमाया, इसकी बुनियाद समझने के लिए हमें कुछ पीछे चलना पड़ेगा। साल था 2014। लोकसभा चुनाव के पहले की बात है। देश का पीएम चुना जाना था। नरेंद्र मोदी और भाजपा जीत के लिए जुगत लगा रही थी। ऐसे में बाबा ने अपने समर्थक मोदी के रथ की रफ्तार बढ़ाने के लिए सड़कों पर उतार दिए थे। जैसे-जैसे मोदी और उनके सिपाहसलारों का जनाधार मजबूत हुआ। ठीक वैसे ही बाबा भी कंज्यूमर प्रोडक्ट्स में पैठ जमाते गए। घर-घर में उनके पतंजलि प्रोडक्ट्स इस्तेमाल किए जाने लगे। भगवा चोला ओढ़े ही वह देश के सफल आंतरप्रिन्योर की श्रेणी में शुमार हो गए।
कहानी यहां से शुरू होती है। 23 मार्च 2014 की भरी दोपहर थी। लोकसभा चुनाव होने में दो हफ्ते बचे थे। मोदी एक जनसभा रैली में थे। उनके साथ यहां बाबा रामदेव भी मंच पर बैठे थे। वह मोदी के कान में कुछ फुसफुसाए। चंद मिनटों बाद उन्होंने जनता से मोदी के लिए वोट की अपील की। इस रैली के दो महीने बाद नतीजे आए। कांग्रेस का सफाया हो चुका था। मोदी के नेतृत्व में भाजपा सत्ता में आई।
न्यूज़ एजेंसी रायटर में प्रकाशित 'एस मोदी एंड हिस राइट विंग बेस राइज़, सो टू डज़ ए सेलेब्रिटी योगा टायकून' इन्वेस्टिगेटिव रिपोर्ट के मुताबिक, नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद बाबा रामदेव की कंपनी को भाजपा शासित राज्यों में भूमि अधिग्रहण में तकरीबन 46 मिलियन डॉलर (करीब 300 करोड़ रुपए) की छूट मिली थी।
दिल्ली में एक रैली के तीन हफ्ते बाद रामदेव के ही एक ट्रस्ट ने यूट्यूब पर वीडियो जारी किया था। उसमें भाजपा के कुछ वरिष्ठ नेता हस्ताक्षर किए हुए शपथ पत्र के साथ पोज़ देते दिखे थे। पत्र में गाय की रक्षा और भारत में चीज़ें स्वदेशी बनाने पर जोर देने जैसी बातें शामिल थीं। इस पर विदेश मंत्री, वित्त मंत्री और परिवहन मंत्री के हस्ताक्षर थे, जो वीडियो में भी है।
रामदेव उस वीडियो में कहते दिख रहे हैं कि उन्होंने जो करोड़ों लोगों में बदलाव की उम्मीद जगाई है। लोग उन्हें पूरा होते देखना चाहते हैं। इसी कारण भाजपा नेताओं ने शपथपत्र पर दस्तखत किए। वरिष्ठ भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने भी उस पर हस्ताक्षर किए थे। आडवाणी के पीए दीपक चोपड़ा का कहना था कि वह पार्टी का कार्यक्रम था और भाजपा के सभी वरिष्ठ नेताओं ने उस पर दस्तखत किए थे। वहीं, पंतजलि के जानकार ने इस बाबत बताया कि वह रामदेव के समर्थन की बात थी, इसिलए वरिष्ठ भाजपा नेताओं ने अपने नाम दिए थे।
हरिद्वार में बीते साल एक इंटरव्यू में बाबा रामदेव ने कहा था कि 200 साल तक ईस्ट इंडिया कंपनी ने देश को लूटा। उसी तरह ये मल्टीनेशनल कंपनियां हमारे देश में अपने नुकसानदेह केमिकल प्रोडक्ट्स बेच रही हैं। उनसे बच कर रहें। रामदेव पीएम का जिक्र आते ही बेहद भावुक हो जाते हैं। वह मोदी से अपने संबंधों की चर्चा करते हुए कहते हैं कि मोदी जी मेरे करीबी मित्र हैं। हालांकि, पीएमओ में जब इस स्टोरी के लिए संपर्क किया गया, तो जवाब न मिल सका। 2014 में मोदी की सफलता में अपनी भूमिका के बारे में पूछे जाने पर रामदेव ने बताया कि यह अच्छा नहीं कि आप अपनी तारीफ करें। मैं ज्यादा कुछ नहीं कहूंगा, लेकिन जो बड़े राजनीतिक बदलाव हुए हैं, उनकी पृष्ठभूमि मैंने तैयार की थी।
भाजपा शासित राज्यों में जमीन से जुड़े सरकारी दस्तावेज और अधिकारियों से इंटरव्यू के अनुसार, नरेंद्र मोदी के पीएम बनने के बाद से पंतजलि ने फैक्ट्रियां, शोध सुविधाओं और जड़ी-बूटी की सप्लाई चेन लगाने के लिए करीब 2000 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया। जबकि कांग्रेस के शासन में कंपनी ने अपनी काफी जमीन बेची थी। चार अधिग्रहण के मामलों में से दो में 100 एकड़ से अधिक अधिग्रहण किया गया था (भाजपा शासित राज्यों में)। भाजपा शासित राज्यों में पतंजलि को जमीन खरीदने में तकरीबन 77 फीसदी का फायदा मिला। कंपनी ने तब नई फैक्ट्रियां स्थापित करने और नई नौकरियों का सृजन करने का वादा किया था।
नागपुर में बीते साल सितंबर में पतंजलि फूड प्रोसेसिंग प्लांट की आधारशिला रखे जाने के दौरान परिवहन मंत्री नितिन गडकरी भी मौजूद थे। कार्यक्रम की रिकॉर्डिंग में पंतजलि के एमडी आचार्य बालकृष्ण मंत्री से कहते नजर आए कि उन्हें फैक्ट्री के लिए एक सड़क की मांग उठाई थी। जवाब में गडकरी ने उसे नेशनल हाईवे बनाने का फैसला कर दिया था। पतंजलि ने 234 एकड़ जमीन के लिए 59 करोड़ रुपए चुकाए थे। यह जमीन राज्य के स्पेशल इकनॉमिक जोन से सटी थी, जिसकी बाजार में कीमत 260 करोड़ रुपए से अधिक थी। जमीन सस्ते में पतंजलि को इसलिए दी गई, क्योंकि वह विकसित नहीं थी। वहां तक पहुंचने के लिए सड़क भी नहीं थी।
सबसे बड़ा ट्रांजैक्शन 2014 में अक्टूबर और दिसंबर में असम के पूर्वी हिस्से में हुआ था। इसमें 1200 एकड़ जमीन ट्रांसफर की गई थी। दस्तावेज बताते हैं कि यह जमीन पतंजलि योगपीठ को गाय का संरक्षण करने की शर्त पर मुफ्त में दे दी गई थी।
एक अन्य क्षेत्र में रायटर की इन्वेस्टिगेशन में पाया गया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवी संघ उस अभियान में जुटा था, जो बीज बनाने वाली दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी मोनास्टो को. के खिलाफ ऐसी भारतीय कंपनियों और उसके सहयोगियों को खड़ा करने में जुटा हुआ था। सत्ता में आने के आधे साल बाद ही मोदी सरकार ने अपने मंत्रालय के तहत पारंपरिक भारतीय औषधि का विभाग बनाया, जो योग और आयुर्वेदिक उत्पादों के इस्तेमाल पर जोर देने लगा। यही कारण है कि पतंजलि आज मार्केट लीडर बना बैठा है। मंत्रायल इस समय पंतजलि के कई उत्पादों को नियंत्रित करता है।
पीएम मोदी अगर स्टेशन पर चाय बेचने वाले के बेटे हैं, तो रामदेव भी किसान के बेटे हैं। साठ के दशक में उनका जन्म हरियाणा में हुआ था। 1995 में बालकृष्ण के साथ मिलकर उन्होंने अपने उद्योग और आयुर्वेदिक दवाएं बनाने की शुरुआत की थी। तब उनके पास 3500 रुपए थे। काम जमाने के लिए दोनों ने किसी से 10000 हजार रुपए उधार लिए थे।
रामदेव 2011 में भ्रष्टाचार विरोधी प्रदर्शनों में शामिल होते-होते राजनीति में आए। 2013 में उन्होंने मोदी को देश का नेतृत्वकर्ता बताया। यहीं से उन्होंने मोदी का समर्थन करना शुरू कर दिया था।
पतंजलि के अंतर्गत सोशल रेवोल्यूशन मीडिया एंड रिसर्च प्राइवेट लिमिटेड नाम की एक कम्यूनिकेशन फर्म भी दो डायरेक्टर्स ने मिलकर खोली थी। फर्म के सीईओ शांतनू गुप्ता के मुताबिक, भाजपा के आईटी डिविजन से ट्विटर और बाकी सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म्स पर मैसेज कॉर्डिनेट के लिए तब हफ्ते में बैठकें हुआ करती थीं।
रामदेव के संगठन के तमाम सदस्यों ने वॉलंटियर्स द्वारा मोदी के लिए वोट जुटाने की बात मानी है। हरिद्वार में इस साल मई में पतंजलि के रिसर्च इंस्टीट्यूट के उद्घाटन के मौके पर पीएम मोदी रामदेव की तरफ सम्मानजनक अंदाज में ताली बजाते हुए देखे गए थे। रामदेव ने भी सिर झुका कर उनका अभिवादन किया।
कुलभूषण जाधव की फाँसी की सजा पर इंटरनेशनल कोर्ट द्वारा रोक लगा दिये जाने के बावजूद पाकिस्तान के रवैये के प्रति भारत की चिंता बरकरार है। भारत को इस बात की चिंता सता रही है कि पाकिस्तान में कुलभूषण जाधव के साथ अनहोनी हो सकती है।
भारत को इस बात की भी आशंका है कि पाकिस्तान अंतर्राष्ट्रीय कोर्ट के फैसले का सम्मान नहीं भी कर सकता है। भारत की इस आशंका की वजह भारत के खिलाफ जहर उगलने वाले पाकिस्तान के कुछ सुरक्षा विशेषज्ञों का वो बयान है जो उन्होंने इंटरनेशनल कोर्ट के फैसले के बाद दिया है।
पाकिस्तान के सुरक्षा विशेषज्ञ ने सैयद तारिक पीरजादा ने कहा है कि हमें इंटरनेशनल कोर्ट के फैसले की परवाह नहीं है, हम कुलभूषण जाधव को फांसी पर जरूर चढ़ाएंगे।
अंग्रेजी न्यूज चैनल टाइम्स नाउ से बातचीत में पीरजादा ने कहा, ''हमें इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस की परवाह नहीं है, हम जाधव को फाँसी पर चढ़ा देंगे।''
बता दें कि सैयद तारिक पीरजादा पाकिस्तान के न्यूज़ चैनलों पर आने वाले सुरक्षा विशेषज्ञ हैं और अक्सर भारत के खिलाफ बयानबाजी करते रहते हैं।
बता दें कि कश्मीर के राजनीतिक विश्लेषक सुशील पंडित ने भी कहा है कि हम वैसे देश के साथ डील कर रहे हैं जहां प्रधानमंत्री को भी फांसी दे दी जाती है। लिहाजा भारत को काफी सावधान रहना पड़ेगा।
बता दें कि पाकिस्तान के पूर्व पीएम जुल्फिकार अली भुट्टो को पाकिस्तान में फांसी दे दी गई थी। जुल्फिकार अली भुट्टो 1973 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री थे। जनरल जिया उल हक ने उनका तख्तापलट कर दिया था और उन पर विरोधी नेता की हत्या का आरोप लगाकर मुकदमा चलाया गया और उन्हें मौत की सजा सुनाई गई। पाकिस्तान ने तमाम अंतर्राष्ट्रीय दबावों की परवाह ना करते हुए जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी पर लटका दिया था।
तीन तलाक़ पर आज सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) से पूछा कि क्या महिलाओं को निकाहनामा के समय तीन तलाक को ना कहने का विकल्प दिया जा सकता है। प्रधान न्यायाधीश जेएस खेहर की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने यह भी कहा कि क्या सभी काजियों से निकाह के समय इस शर्त को शामिल करने के लिए कहा जा सकता है।
संविधान पीठ में न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ, न्यायमूर्ति आरएफ नरीमन, न्यायमूर्ति यूयू ललित और न्यायमूर्ति अब्दुल नजीर भी शामिल हैं।
सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस खेहर ने सुनवाई के दौरान एआईएमपीएलबी के वकील कपिल सिब्बल से पूछा कि क्या निकाह के समय निकाहनामा में किसी महिला को तीन तलाक के लिए ना कहने का विकल्प दिया जा सकता है।
कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि ट्रिपल तलाक की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने से एक मरणासन्न परंपरा पुनर्जीवित हो सकती है।
सिब्बल ने कहा कि ट्रिपल तलाक की परंपरा अब मुस्लिम समुदाय के एक छोटे से हिस्से में चल रही है और खत्म होने के कगार पर है।
कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि अगर धर्मनिरपेक्ष सुप्रीम कोर्ट ट्रिपल तलाक की समीक्षा करना चाहता है और केंद्र की इसे बैन लगाने पर सुनवाई करता है तो मुस्लिम समुदाय इस मुद्दे पर कड़ा रुख अपना सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने एआईएमपीएलबी से कहा कि क्या निकाहनामा में महिलाओं की ट्रिपल तलाक के मुद्दे पर उनके कबूलनामा को शामिल करने पर सभी काजियों को एक दिशा-निर्देश जारी किया जा सकता है?
कोर्ट के सवाल कि क्या एआईएमपीएलबी की सलाह सभी काजी ग्राउंड लेवल तक मानेंगे। इस पर एआईएमपीएलबी के वकीलों में से एक यूसुफ मुचला ने कोर्ट को बताया कि बोर्ड की सलाह सभी काजियों के पालन करने के लिए अनिवार्य नहीं है। वकील ने यह भी कहा कि बोर्ड आए सुझावों को विनम्रता से स्वीकार करते हैं और इस पर गौर भी करेंगे।
एआईएमपीएलबी ने 14 अप्रैल 2017 को पारित एक दस्तावेज भी कोर्ट को दिखाया, जिसमें कहा गया है कि तीन तलाक एक पाप है और समुदाय को यह करने का बहिष्कार करना चाहिए।
तीन तलाक, बहुविवाह और निकाह हलाला को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर पीठ के समक्ष चल रही सुनवाई का आज पांचवां दिन है। पीठ में हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी सहित विभिन्न धार्मिक समुदायों के सदस्य जज शामिल हैं।
मंगलवार को एआईएमपीएलबी ने कहा था कि तीन तलाक ऐसा ही मामला है जैसे यह माना जाता है कि भगवान राम अयोध्या में पैदा हुए थे। इसने कहा था कि ये धर्म से जुड़े मामले हैं और इन्हें संवैधानिक नैतिकता के आधार पर नहीं परखा जा सकता।
बता दें कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) ने मंगलवार को सर्वोच्च न्यायालय से कहा कि तीन तलाक एक 'गुनाह और आपत्तिजनक' प्रथा है, फिर भी इसे जायज ठहराया गया है और इसके दुरुपयोग के खिलाफ समुदाय को जागरूक करने का प्रयास जारी है।
वरिष्ठ वकील यूसुफ मुचला ने न्यायालय से तीन तलाक के मामले में हस्तक्षेप न करने के लिए कहा, क्योंकि यह आस्था का मसला है और इसका पालन मुस्लिम समुदाय 1,400 साल पहले से करते आ रहा है, जब इस्लाम अस्तित्व में आया था।
उन्होंने कहा कि तीन तलाक एक 'गुनाह और आपत्तिजनक' प्रथा है, फिर भी इसे जायज ठहराया गया है और इसके दुरुपयोग के खिलाफ समुदाय को जागरूक करने का प्रयास जारी है।
एआईएमपीएलबी की कार्यकारिणी समिति के सदस्य यूसुफ मुचला ने यह सुझाव पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ को तब दिया, जब पीठ ने उनसे पूछा कि तीन तलाक को निकाह नामा से अलग क्यों किया गया और तलाक अहसान तथा हसन को अकेले क्यों शामिल किया गया?
एआईएमपीएलबी की तरफ से ही पेश हुए वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने कहा कि कुछ लोगों का मानना है कि भगवान राम का जन्म अयोध्या में हुआ था और यह आस्था का मामला है और इस पर सवाल नहीं उठाया जा सकता। उसी तरह, मुस्लिम पर्सनल लॉ भी आस्था का विषय है और न्यायालय को इस पर सवाल उठाने से बचना चाहिए।
सिब्बल पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ के समक्ष अपनी दलील पेश कर रहे थे, जिसमें प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति जगदीश सिंह केहर, न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ, न्यायमूर्ति रोहिंटन फली नरीमन, न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित तथा न्यायमूर्ति एस. अब्दुल नजीर शामिल हैं जो तीन तलाक की संवैधानिक मान्यता को चुनौती देने वाली कई याचिकाओं की सुनवाई कर रही है।
जब सिब्बल ने जोर दिया कि पर्सनल लॉ आस्था का मामला है और न्यायालय को इसमें दखल नहीं देना चाहिए, तो न्यायमूर्ति जोसेफ ने कहा, ''हो सकता है। लेकिन फिलहाल 1,400 वर्षो बाद कुछ महिलाएं हमारे पास इंसाफ मांगने के लिए आई हैं।''
सिब्बल ने कहा, ''पर्सनल लॉ कुरान व हदीस से लिया गया है और तीन तलाक 1,400 साल पुरानी प्रथा है। हम यह कहने वाले कौन होते हैं कि यह गैर-इस्लामिक है। यह विवेक या नैतिकता का सवाल नहीं, बल्कि आस्था का सवाल है। यह संवैधानिक नैतिकता का सवाल नहीं है।"
सिब्बल ने महान्यायवादी मुकुल रोहतगी द्वारा न्यायालय के समक्ष सोमवार को की गई उस टिप्पणी पर चुटकी ली जिसमें उन्होंने कहा था कि न्यायालय मुस्लिमों में तलाक के तीनों रूपों को अमान्य करार दे और केंद्र सरकार तलाक के लिए नया कानून लाएगी।
जब सिब्बल ने कहा कि सरकार सर्वोच्च न्यायालय से नहीं कह सकती कि आप पहले तलाक़ के तीनों रूपों को अमान्य करार दीजिए, उसके बाद हम एक नया कानून लाएंगे, तब प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति केहर ने कहा, ''पहली बार आप हमारे साथ हैं।''
सिब्बल ने कहा, ''आस्था को कानून की कसौटी पर नहीं कसा जा सकता।''
उन्होंने कहा, हम बेहद जटिल दुनिया में प्रवेश कर चुके हैं, जहां क्या गलत है और क्या सही, इसकी खोज करने के लिए हमें 1,400 साल पहले इतिहास में जाना होगा।
ब्रिटिश इतिहासकार लुईस डे एसिस कोरैया ने मुगल बादशाह अकबर की जिंदगी पर सबसे अहम खुलासा किया है। कोरैया कहते हैं कि जोधाबाई को अकबर की पत्नी बताया जाता है, लेकिन वास्तव में अकबर की पत्नी जोधाबाई नहीं थी। कोरैया कहते हैं, असल में जोधाबाई जहांगीर की पत्नी थी।
लंदन के ब्रिटिश इतिहासकार लुईस डे एसिस कोरैया पिछले कई वर्षों से भारत में रहकर स्वतंत्र रूप से पुर्तगाल और ईसाईयों पर रिसर्च कर रहे हैं। उन्होंने अब तक 6 किताबें लिखी हैं जिसमें से हाल ही में उन्होंने 'पुर्तगाल भारत और मुगल रिश्ते (1510-1735)' नाम की एक किताब रिलीज की है।
इस किताब में अकबर और पुर्तगाली मारिया मार्करनहस के बीच वैवाहिक गठबंधन के बारे में काफी विस्तार से बताया गया है।
वह कहते हैं कि इस संबंध का मुगल, पुर्तगाली और अंग्रेजी स्रोतों में भी जिक्र नहीं है।
मारिया मार्करनहस के बारे में कोरैया लिखते हैं, वह अपनी छोटी बहन जुलियाना के साथ लिस्बन से गोवा सितंबर 1558 में आई थीं।
किताब में कैरैया लिखते हैं, उस जमाने में पुर्तगाल के राजा की यह जिम्मेदारी थी कि वह राज्य के लिए बलिदान देने वालों के अनाथों की रक्षा करें और शादी की उम्र वाली लड़कियों को कॉलोनियों में भेजा जाए। लेकिन बीच में उनके जहाज पर डाकू ने हमला कर दिया और दोनों लड़कियों को गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह के दरबार में लाया गया। सुल्तान बहादुर शाह ने दोनों लड़कियों को मुगल दरबार में पेश किया।
वह लिखते हैं, जैसे ही अकबर की नजर 17 साल की मारिया मार्करनहस पर पड़ी, उन्हें उससे मोहब्बत हो गई और अकबर ने जल्द से जल्द उसे अपनी पत्नी बनाने का फैसला कर लिया।
कोरैया कहते हैं, यूं तो अकबर के हरम में उनके बारे में काफी सामान उपलब्ध है, लेकिन फिर भी मुगल सूत्र इस रिश्ते के बारे में खामोश रहे।
उन्होंने कहा, अकबर के जीवन के बारे में सबसे भरोसेमंद दस्तावेज अबुल फजल द्वारा लिखा गया 'अकबरनामा' माना जाता है इसमें भी इस बारे में कुछ लिखा नहीं गया है।
वहीं मुगल स्रोत्र 'अल बदायूनी' में भी मारिया का कोई जिक्र नहीं मिलता।
कोरैया के मुताबिक, मुगल और पुर्तगालियों के बीच तल्ख रिश्ते होने के कारण उन्होंने यह नहीं कहा कि अकबर की एक ईसाई बीवी थी।
कोरैया ने बताया कि जोधाबाई वह महिला नहीं हैं जिसका जिक्र वह मारिया के तौर पर कर रहे हैं।
कोरैया कहते हैं कि न तो अकबरनामा में और न ही कभी जहांगीर की मां के तौर पर जोधाबाई का जिक्र मिलता है।
उन्होंने कहा, इस अवधि में फारसी रिकॉर्ड में भी इस नाम (जोधाबाई) के किसी शख्स का जिक्र नहीं आता।
जो इतिहासकार जोधाबाई का जिक्र करते हैं वे हैं इतिहासकार जेम्स टॉड। लेकिन वह उनका (जोधाबाई) जिक्र जहांगीर की पत्नी और शाहजहां की मां के तौर पर करते हैं।
कोरैया ने दावा किया कि जहांगीर की मां पुर्तगाली ईसाई (मारिया मार्करनहस) थीं जिसे मरियम-उज़-ज़मानी कहा जाता था।
कोरैया कहते हैं कि जहांगीर हमेशा क्रॉस की एक गोल्ड की चेन पहनकर रहते थे जिसे उन्होंने कभी नहीं उतारा।
कोरैया कहते हैं कि जहांगीर आधा ईसाई थे और उनके महल में यीशु की एक तस्वीर थी और वह आगरा के जेसुइट हाउस में हफ्ते में एक दिन जरूर बिताते थे।
(परवेज़ अनवर नई दिल्ली स्थित जामिया मिल्लिया इस्लामिया के इतिहास विभाग के छात्र रहे हैं तथा आईबीटीएन ग्रुप के फाउंडर, सीईओ, डायरेक्टर और एडिटर-इन-चीफ हैं।)
भारत-पाकिस्तान बॉर्डर और जम्मू-कश्मीर में फैली अशांति के बीच बड़ी खबर है कि बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स (बीएसएफ) में राजपत्रित अधिकारियों की भारी कमी है। इस साल चुने गए कुल लोगों में से 60 प्रतिशत ने ज्वॉइन करने से मना कर दिया है।
यह सब भारत-पाकिस्तान बॉर्डर पर फैली अशांति और बीएसफ जवान तेज बहादुर यादव द्वारा पोस्ट किए गए वीडियो के बाद हुआ है।
2015 में हुई यूपीएससी की परीक्षा में कुल 28 लोग सिलेक्ट किए गए थे। उन्हें 2017 में बीएसएफ में असिस्टेंट कमांडेंट की पोस्ट पर ज्वॉइन करना था। लेकिन 16 लोगों ने मना कर दिया।
पिछले कुछ सालों से ऐसे हालात बनने लगे हैं। 2016 में जिसके लिए 2014 में परीक्षा हुई थी उसमें कुल 31 लोग सिलेक्ट हुए थे जिसमें से 17 ने ही ट्रेनिंग लेनी शुरू की थी। लेकिन 14 लोगों ने ज्वाइन नहीं किया।
वहीं 2013 में परीक्षा में बैठे लोगों में से 110 सिलेक्ट हुए जिसमें से 69 ने ट्रेनिंग लेनी शुरू की, फिर इनमे से 15 ने ट्रेनिंग के दौरान छोड़ दिया।
गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, बीएसएफ में राजपत्रित अधिकारियों की कुल 5,309 पोस्ट हैं जिनमें से 522 खाली हैं।
उनमें से कुछ ने कहा कि उनकी पहली च्वॉइस बीएसएफ नहीं थी। इसलिए वे लोग आगे पढ़कर सीआईएसएफ की तैयारी करना चाहते हैं।
कुछ ने कहा कि आईएएस बनना उनका लक्ष्य है। इसके पीछे की वजह बताते हुए एक ने कहा कि सीआईएसएफ में शहरों में पोस्टिंग होगी जिससे आगे की पढ़ाई भी करने में आसानी होगी।
कुछ लोगों को यह भी डर था कि बीएसएफ में तरक्की में रोड़े अटकाए जाते हैं।
एक शख्स ने तो यह भी कहा कि लोगों की नजरों में आर्मी की इज्जत बीएसएफ के जवान से ज्यादा होती है।
दूसरे ने कहा कि लड़का खोज रहे परिवार की पहली पसंद भी आर्मी वाला होता है, बीएसएफ का जवान नहीं।
इस मामले पर बात करते हुए बीएसफ के एक सीनियर अधिकारी ने कहा कि बीएसएफ, सीआरपीएफ और आईटीबीपी में काफी कठिन जगहों पर पोस्टिंग होती है। इसलिए लोग इसमें आने से कतराते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि जो लोग इसमें आने के लिए मानसिक तौर पर तैयार नहीं हैं उनको ज्वॉइन नहीं करना चाहिए।
भारत और पाकिस्तानी मीडिया में कई लोग, भारत के मुक़ाबले पाकिस्तानी मीडिया के ताक़तवर होने के सबूत के तौर पर देखते हैं।
ठीक इसी दौरान, भारत के उदारवादी माने जाने वाले चैनलों में से एक एनडीटीवी ने राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देते हुए भारत के पूर्व गृह मंत्री पी चिदंबरम का इंटरव्यू ड्रॉप कर दिया।
एनडीटीवी की सह-संस्थापक और चेयरमैन राधिका रॉय ने ऑनलाइन प्रकाशन 'द वायर' को दिए एक स्टेटमेंट में कहा, ''सर्जिकल स्ट्राइक के मसले पर राजनीतिक छींटाकशी, जो बिना सबूत के की जा रही थी, उससे हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा को नुकसान हो रहा था।''
पाकिस्तानी पत्रकारों को भी लगता है कि वो ज़्यादा साहसी हैं और वो सरकार का समर्थन करने वाले भारतीय पत्रकारों की तुलना में अपनी सरकार के पक्ष से अलग पक्ष रख सकते हैं।
हालांकि इस बहस का कोई नतीजा नहीं निकल सकता है। इतना ज़रूर साबित होता है कि दोनों देशों में प्रेस की आज़ादी की स्थिति बहुत ख़राब है।
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, बावजूद इसके 'रिपोर्टर्स बिदाउट बॉर्डर्स' संस्था की ओर से 2017 में प्रकाशित वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स के मुताबिक, प्रेस की स्वतंत्रता के पैमाने पर भारत निचले पायदानों पर है।
2017 में प्रकाशित वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स के मुताबिक, 180 देशों की सूची में भारत का 136 वां स्थान दर्शाता है कि भारत में प्रेस की आज़ादी की स्थिति लगातार बिगड़ रही है।
भारत ज़िम्बॉब्वे और म्यांमार जैसे देशों से भी पीछे है।
निर्भीक पत्रकारिता करने के मामले में नॉर्वे, स्वीडन और फिनलैंड अव्वल हैं।
इस मामले में चीन 176वें और पाकिस्तान 139 वें नंबर पर है।
'रिपोर्टर्स बिदाउट बॉर्डर्स' ने अपनी रिपोर्ट में कहा है, ''भारत में प्रेस की स्वतंत्रता को मोदी के राष्ट्रवाद से ख़तरा है और मीडिया डर की वजह से ख़बरें नहीं छाप रही है।''
रिपोर्ट में कहा गया है, ''भारतीय मीडिया में सेल्फ़ सेंसरशिप बढ़ रही है और पत्रकार कट्टर राष्ट्रवादियों के ऑनलाइन बदनाम करने के अभियानों के निशाने पर हैं। सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकारों को रोकने के लिए मुक़दमे तक किए जा रहे हैं।''
भारत में 2015 में चार पत्रकारों की हत्या हुई और हर महीने कम से कम एक पत्रकार पर हमला हुआ है। कई मामलों में पत्रकारों पर आपराधिक मानहानि के मुकदमे दर्ज किए गए। इसका नतीजा रहा है कि पत्रकारों ने ख़ुद पर सेंशरशिप लगा ली।
मीडिया पर नजर रखने वाली वेबसाइट द हूट डॉट ओआरजी की गीता सेशू कहती हैं, ''इन हमलों का दायरा चौंकाने वाला है। राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर कश्मीर में इंटरनेट और समाचार पत्रों पर पाबंदी लगाई गई। कारपोरेट धोखाधड़ी पर मानहानि के मुकदमे, स्थानीय माफिया के भ्रष्टाचार की ख़बर करने पर पत्रकारों की हत्याओं से लकर छत्तीसगढ़ में सुरक्षा बल का स्वतंत्र पत्रकारों को प्रताड़ित करना और जेल भेजने की घटनाएं भी हुई हैं।''
भारत के कश्मीर में मौजूदा तनाव को देखते हुए सरकार ने प्रेस की आज़ादी पर कई तरह के अंकुश लगाए हैं। पत्रकारों को कर्फ्यू के दौरान पास नहीं दिया गया, पत्रकारों पर हमले हुए, राज्य में समाचार पत्रों के प्रसार को रोक दिया गया और कश्मीर रीडर नामक अख़बार पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी गई।
दुनिया के किसी दूसरे हिस्से में अगर एक अख़बार पर पाबंदी लगाई जाती तो इस पर हंगामा मच जाता, लेकिन भारतीय मीडिया ने बड़े पैमाने पर इसको नज़रअंदाज़ किया।
वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई इस पर लिखते हैं, ''आज विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस है। भारत 136वें और पाकिस्तान 139वें नंबर पर है। बहुत कुछ कहा जा चुका है। उन चुनिंदा लोगों को सलाम जो अब भी आवाज़ उठा रहे हैं।''
अपने अगले ट्वीट में राजदीप ने लिखा, ''सच ये है कि भारत में प्रेस स्वतंत्रता की महान परंपरा रही है। बिज़नेस मॉडलों और निजी हितों की वजह से इस स्वतंत्रता का दुरुपयोग हुआ है।''
वहीं पूर्व जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने फ़ेसबुक पर लिखा, ''विश्व प्रेस स्वंत्रता दिवस दुनिया का सबसे बड़ा छलावा है। प्रेस स्वतंत्रता एक मिथक और जनता के साथ एक क्रूर मज़ाक है।''
उन्होंने लिखा, ''दुनियाभर में मीडिया कार्पोरेट के हाथ में है जिसका एकमात्र उद्देश्य अधिक से अधिक फ़ायदा कमाना है। वास्तव में कोई प्रेस स्वतंत्रता है ही नहीं।''
काटजू ने लिखा, ''बड़े पत्रकार मोटा वेतन लेते हैं और इसी वजह से वो फैंसी जीवनशैली के आदी हो गए हैं। वो इसे खोना नहीं चाहेंगे और इसलिए ही आदेशों का पालन करते हैं और तलवे चाटते हैं।''
पाकिस्तान में लोकतंत्र की स्थिति भी डांवांडोल रही है, बड़े पैमाने पर पाकिस्तान में चरमपंथ भी फैला हुआ है, इसलिए प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में पाकिस्तान का 139 वें पायदान पर होना बहुत चौंकाता नहीं है। ये रैंकिंग पाकिस्तान के मुक्त मीडिया के दावे से मेल नहीं खाती है।
2016 की रिपोर्टर्स बिदाउट बॉर्डर्स की रिपोर्ट पाकिस्तान के बारे में कहती है, ''पत्रकारों को जो निशाना बनाते हैं, उनमें चरमपंथी समूह, इस्लामिक संगठन, ख़ुफ़िया एजेंसियां शामिल है। ये प्रेस की आज़ादी में बाधा पहुंचाते हैं। ये सब एक-दूसरे से भले लड़ रहे हों, लेकिन जैसे हमेशा मीडिया को चोट पहुँचाने के लिए तैयार रहते हैं। ऐसे में समाचार संगठनों ने सेल्फ-सेंसरशिप को अपना लिया है।''
पाकिस्तान में 2014 में हत्या की नीयत से किए गए हमले में बाल बाल बचे और अब अमरीका में रह रहे पाकिस्तानी पत्रकार रज़ा रूमी कहते हैं, ''जहां तक पाकिस्तान की राष्ट्रीय सुरक्षा की बात है, अंग्रेजी अख़बारों में थोड़ी जगह अलग विचार व्यक्त करने के लिए हो सकती है, लेकिन टीवी न्यूज़ में सत्ता प्रतिष्ठान का विरोध काफी ख़तरनाक है। संस्थाएं इसकी अनुमति नहीं देती हैं।''
रूमी एक टीवी शो होस्ट करते थे और उन्होंने पाकिस्तान की विदेश नीति से मतभेद जताए थे और अल्पसंख्यकों के अधिकार के मुद्दे को उठाया था।
बलूचिस्तान में मानवाधिकार के मुद्दे पर रिपोर्टिंग करने के दौरान 2014 में पाकिस्तान के जाने माने एंकर और पत्रकार हामिद मीर पर भी जानलेवा हमला हुआ था। तब मीर के भाई ने टीवी चैनल पर आकर इस हमले के लिए पाकिस्तानी सेना को जिम्मेदार ठहराया था।
वैसे शारीरिक हमला और सीधी सेंसरशिप- समस्या का छोटा हिस्सा भर हैं, भारत और पाकिस्तान में मीडिया पर अंकुश लगाने की कोशिशें बढ़ती जा रही हैं।
टेलीग्राफ़ अख़बार में मानिनी चटर्जी ने लिखा है, ''सेंसरशिप-सेल्फ सेंसरशिप, सच-प्रोपागैंडा और पत्रकारिता-अंधराष्ट्र भक्ति के बीच अंतर को शायद ही कोई जानता समझता हो।''
इतना ही नहीं, भारत में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने ख़बर तक पत्रकारों की पहुंच के तरीके कम कर दिए हैं और पीआर को बढ़ावा दिया है ताकि मीडिया की ख़बरों को बेहतर ढ़ंग से नियंत्रित किया जा सके।
पाकिस्तान में सेना की ओर से दबाव ज़्यादा होता है। पाकिस्तान की सुरक्षा संबंधी नीतियों पर लगातार लिखने वाली आयशा सिद्दिका के लेख पाकिस्तान में कई बार रिजेक्ट कर दिए जाते हैं और वो भारत में कहीं ज़्यादा छपती हैं।
आयशा सिद्दिका ने पाकिस्तानी अख़बार द न्यूज़ में लिखा है, ''मौजूदा समय में इंटर सर्विस पब्लिक रिलेशन के मुखिया लेफ्टिनेंट जनरल हैं, सेना की पीआर एजेंसी आज बड़े पैमाने पर रेडियो चैनल चला रही है, कई टीवी चैनलों में हिस्सेदारी है। फ़िल्म और थिएटर को फ़ाइनेंस करते हैं। यह केवल संस्थागत विस्तार भर नहीं है, बल्कि यह देश (पाकिस्तान) के मीडिया की आवाज़ को आकार देने जैसा मामला है।"
पाकिस्तान के बलूचिस्तान में पत्रकारों को स्वतंत्र रूप से जाने की इज़ाजत नहीं है। ऐसे में किस देश का मीडिया ज़्यादा स्वतंत्र है, इस बहस का कोई नतीजा नहीं निकल सकता।
भारत और पाकिस्तान, दोनों देशों में प्रेस की आज़ादी गंभीर ख़तरे के दौर से ज़रूर गुजर रही है।