सीरिया में अमरीका की सैन्य नीति में बदलाव से भारी उठापटक की बात कही जा रही है। अमरीका ने उत्तर-पूर्वी सीरिया से अपने सैनिकों को बुलाने का फ़ैसला किया है।
हालांकि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का यह फ़ैसला पेंटागन के अधिकारियों की सोच के उलट है, जो चाहते थे कि उत्तर-पूर्वी सीरिया में अमरीकी सैनिकों की छोटी संख्या मौजूद रहे। पेंटागन चाहता है कि उत्तर-पूर्वी सीरिया में अमरीका का इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ अभियान ख़त्म नहीं हो।
कहा जा रहा है कि अमरीका के इस क़दम से सीरिया में रूस और ईरान का प्रभाव बढ़ेगा। इस इलाक़े में अमरीका कुर्दों के साथ मिलकर इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ अभियान चलाता रहा है। दूसरी तरफ़ तुर्की कुर्द बलों को आतंकवादी कहता है। तुर्की लंबे समय से चाहता था कि अमरीका कुर्दों के साथ सहयोग बंद करे।
कुर्दिश लड़ाका सीरियाई डेमोक्रेटिक फ़ोर्सेज यानी एसडीएफ़ के हिस्सा रहे हैं और यह धड़ा सीरिया में इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ अमरीका का सबसे विश्वसनीय साथी रहा है।
अमरीका के अधिकारियों का कहना है कि राष्ट्रपति ट्रंप ने तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन से सीधे बात की है। तुर्की सीरिया में कुर्दों के ख़िलाफ़ सैन्य ऑपरेशन चला सकता है लेकिन अभी तक स्पष्ट नहीं है कि इसका दायरा कितना बड़ा होगा।
अगर तुर्की की सेना अमरीका समर्थित कुर्दों से टकराती है तो इस इलाक़े में काफ़ी उलट-पुलट हो सकता है।
पिछले साल दिसंबर में ट्रंप ने सीरिया से अपने सैनिको को बुलाने की घोषणा की थी लेकिन देश के भीतर विरोध के बाद पीछे हटना पड़ा था। ट्रंप के इस फ़ैसले से अमरीका के यूरोप के सहयोगी भी ख़ुश नहीं थे।
वॉशिंगटन इंस्टिट्यूट में टर्किश रिसर्च प्रोग्राम के निदेशक सोनेर कैगप्टे 'अर्दोआन्स एम्पायर: टर्की एंड द पॉलिटिक्स ऑफ़ मिडल ईस्ट' किताब के लेखक हैं।
उन्होंने न्यूयॉर्क टाइम्स से टेलिफ़ोन इंटरव्यू में कहा है, ''अमरीका के विरोध के बिना तुर्की उत्तरी सीरिया में हमला कर कुर्दिश नियंत्रण वाले सीरियाई इलाक़े में अपनी मौजूदगी बना लेगा। ऐसे में अर्दोआन यहां हजारों सीरियाई शरणार्थियों को भेज सकते हैं और वो दावा करेंगे कि सीरिया में ट्रंप की नीतियों में उनका भी दख़ल है। यह एक अहम प्रगति है।''
ये आशंका भी जताई जा रही है कि इसकी आड़ में तुर्की वहां पर मौजूद कुर्द लड़ाकों पर हमले कर सकता है। लेकिन ट्रंप ने धमकी दी है कि तुर्की ऐसा करेगा तो उसकी अर्थव्यवस्था को वो तबाह कर देंगे।
व्हाइट हाउस ने रविवार को कहा कि राष्ट्रपति ट्रंप ने तुर्की की सेना को सीरिया से लगी सीमा में सीमित ऑपरेशन की अनुमति दे दी है। अमरीका ने कहा है कि तुर्की के इस ऑपरेशन से अमरीका समर्थित कुर्द बल अलग रहेंगे। सीरियाई विशेषज्ञ व्हाइट हाउस के इस फ़ैसले की आलोचना कर रहे हैं।
इनका कहना है कि अमरीका का कुर्दों को छोड़ देने से आठ सालों से जारी सीरियाई संकट का दायरा और बढ़ सकता है। ये भी संभव है कि कुर्द सीरियाई सरकार बशर अल-असद के साथ आ सकते हैं। बशर अल-असद की सेना तुर्की से लड़ने के लिए तैयार बैठी है।
अरिज़ोना के डेमोक्रेट रिप्रेजेंटेटिव और इराक़ युद्ध में नौसेना के हिस्सा रहे रुबेन गैलेगो ने ट्वीट कर लिखा है कि उत्तरी सीरिया में तुर्की की दस्तक मध्य-पूर्व को अस्थिर करने वाला क़दम साबित होगा।
उन्होंने ट्वीट कर कहा, ''इसके बाद कुर्द अमरीका पर कभी भरोसा नहीं करेंगे। वे नए सहयोगी की ओर देखेंगे ताकि वो अपनी आज़ादी और सुरक्षा को सुनिश्चित कर सकें।''
अमरीका की यह घोषणा एसडीएफ़ के लिए चौंकाने वाली है। एसडीएफ़ की तरफ़ से जारी बयान में कहा गया है कि अमरीका के इस फ़ैसले से इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ लड़ाई और शांति को झटका लगेगा।
तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन पूर्व में तुर्की-सीरियाई सीमा से 300 मील तक सेफ़ ज़ोन की मांग कर रहे हैं। वो इस इलाक़े को 10 लाख सीरियाई शरणार्थियों के लिए चाहते हैं।
ये शरणार्थी अभी तुर्की में हैं। अर्दोआन ने धमकी दे रखी है अगर अंतर्राष्ट्रीय समर्थन नहीं मिला तो वो इन शरणार्थियों को यूरोप में भेजना शुरू कर देंगे। अर्दोआन चाहते हैं कि सीरियाई शरणार्थी अब वापस जाएं।
अगस्त महीने की शुरुआत से अमरीकी और तुर्की सेना साथ मिलकर काम कर रही है। ये 300 मील लंबे सीमाई इलाक़े के 75 मील क्षेत्र में साथ में गश्ती लगाने का काम भी कर रहे थे।
अमरीका समर्थित कुर्द बल कई मील पीछे गए और अपने क़िलेबंदी को भी नष्ट किया। अर्दोआन के लिए यह प्रगति अब भी नाकाफ़ी है। पिछले हफ़्ते ही उन्होंने संकेत दिए थे कि सीमाई इलाक़े में तुर्की हमला कर सकता है।
अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि टर्किश बॉर्डर अमरीकन फ़ोर्स को इस ऑपरेशन में अमरीका की ओर से क्या मदद मिलेगी? न्यूयॉर्क टाइम्स के अनुसार उत्तरी सीरिया में अमरीका के एक हज़ार सैनिक हैं और इनके साथ कुल 60 हज़ार कुर्द लड़ाके हैं।
कई विशेषज्ञ मान रहे हैं कि अमरीका सीरिया से बाहर होकर फिर जगह नहीं बना पाएगा। तुर्की नेटो का बड़ा सदस्य देश है लेकिन कुर्द इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ अमरीका की लड़ाई के पार्टनर रहे हैं।
न्यूयॉर्क टाइम्स से एक अमरीकी अधिकारी ने नाम नहीं बताने की शर्त पर कहा, ''हमलोग न तो तुर्क का समर्थन करने जा रहे और न ही एसडीएफ़ का। अगर ये आपस में लड़ेंगे तो हमलोग बिल्कुल अलग रहेंगे।''
दिसंबर 2018 में अमरीका के विदेश मंत्री जिम मैटिस ने सीरिया से सभी 2000 सैनिकों की वापसी के आदेश को लेकर इस्तीफ़ा दे दिया था।
हालांकि तुर्की पूरे मामले को बिल्कुल अलग तरीक़े से देख रहा है। तुर्की में यह समझ है कि इस मसले पर राष्ट्रपति ट्रंप और सेना के अधिकारियों में सहमति नहीं है।
अर्दोआन सीरिया को लेकर अमरीका भी गए थे। राष्ट्रपति ट्रंप की ओर से आयोजित ग्रुप डिनर पार्टी में अर्दोआन शामिल हुए थे। ट्रंप ने कहा था कि अर्दोआन उनके दोस्त बन गए हैं। हालांकि दोनों के बीच प्राइवेट मीटिंग नहीं हो पाई थी।
एक समय उस्मानी साम्राज्य के केंद्र रहे तुर्की में कुर्दों की आबादी 20 फ़ीसदी है। कुर्द संगठन आरोप लगाते हैं कि उनकी संस्कृति पहचान को तुर्की में दबाया जा रहा है। ऐसे में कुछ संगठन 1980 के दशक से ही छापामार संघर्ष कर रहे हैं।
अमरीका की डेलावेयर यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान कहते हैं कि इस मामले को समझने के लिए इतिहास में जाना होगा।
वह बताते हैं, "तुर्की में दो नस्लीय पहचानें हैं- तुर्क और कुर्द. कुर्द आबादी लगभग 20 प्रतिशत है। पहले वे सांस्कृतिक स्वतंत्रता की मांग कर रहे थे मगर अब कई सालों से वे आज़ादी की मांग कर रहे हैं। वे कुर्दिस्तान बनाना चाहते हैं।''
मध्य-पूर्व के नक्शे में नज़र डालें तो तुर्की के दक्षिण-पूर्व, सीरिया के उत्तर-पूर्व, इराक़ के उत्तर-पश्चिम और ईरान के उत्तर- पश्चिम में ऐसा हिस्सा है, जहां कुर्द बसते हैं।
कुर्द हैं तो सुन्नी मुस्लिम, मगर उनकी भाषा और संस्कृति अलग है। प्रोफ़ेसर मुक़्तरदर ख़ान बताते हैं कि कुर्द मांग करते है कि संयुक्त राष्ट्र के आत्मनिर्णय के अधिकार पर उन्हें भी अलग कुर्दिस्तान बनाने का हक़ मिले। ध्यान देने वाली बात यह है कि अमरीका ने 2003 में इराक़ पर हमला किया था। तभी से उत्तरी इराक़ में कुर्दिस्तान लगभग स्वतंत्र राष्ट्र की तरह काम कर रहा है।
अमरीका के डेलेवेयर यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर मुक़्तदर ख़ान कहते हैं, "तुर्की इस बात से डरा हुआ है कि कुर्दों का एक राष्ट्र सा लगभग बना हुआ है, ऊपर से कुर्द लड़ाकों को आईएस के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए अमरीका से हथियार भी मिले हैं। ऐसा भी सकता है कि कुर्द इतने शक्तिशाली हो जाएं कि सीरिया में इस्लामिक स्टेट से जीते हुए हिस्से को इराक़ के कुर्दिस्तान से जोड़कर बड़ा सा कुर्द राष्ट्र बना लें। ऐसा हुआ तो तुर्की के लिए ख़तरा पैदा हो जाएगा।''
तुर्की को यह चिंता पहले भी थी। शुरू में जब आईएस के ख़िलाफ़ अमरीका ने क़ुर्दों से सहयोग लेना चाहा था, तब भी तुर्की ने इसका विरोध किया था। ऐसे में यह आशंका बनी हुई है कि जैसे ही अमरीका सीरिया से अपनी सेनाएं हटाएगा, तुर्की वहां पर कार्रवाई करके कुर्द इलाक़ों को ख़त्म कर देगा और उनके नियंत्रण वाली ज़मीन छीन लेगा।
क्या अमरीका भारत पर प्रतिबंध लगा सकता है? भारत रूस से मिसाइल सिस्टम एस-400 ख़रीदने वाला है। लेकिन अमरीकी अधिकारियों का कहना है कि अगर भारत ने ये मिसाइल खरीदी तो उस पर अमेरिका प्रतिबंध लगा सकता है।
अमरीका दौरे पर गए भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा था कि उन्हें लगता है कि वो इस सौदे के लिए अमरीका को मना लेंगे, लेकिन उसी दिन अमरीकी विदेश मंत्रालय ने द हिंदू अख़बार को ईमेल के ज़रिए बताया कि ऐसा कोई भी सौदा भारत के लिए मुसीबत बन सकता है और अमरीका उस पर प्रतिबंध लगा सकता है।
इस ईमेल में अमरीकी विदेश मंत्रालय के एक प्रवक्ता ने लिखा, "हम अपने सहयोगियों से अपील करते हैं कि वो रूस के साथ कोई भी ऐसा सौदा करने से बचें, जिसकी वजह से उन पर काउंटरिंग अमरीकाज़ अडवर्सरीज थ्रु सैंक्शंस एक्ट (CAATSA) के तहत प्रतिबंध लगने का ख़तरा हो।''
ये प्रतिबंध हर उस देश पर लागू होंगे जो अमरीका के सीएएटीएसए क़ानून का उल्लंघन करेगा।
रूस के मामले में अमरीका का यह क़ानून उन देशों को रोकता है जो रूस के साथ हथियारों का सौदा करते हैं।
डोनल्ड ट्रंप के सत्ता में आने के बाद अमरीकी संसद ने 2017 में इस क़ानून को पास किया था।
2 अगस्त 2017 को जब से ये क़ानून लागू हुआ है तब से ही भारत में ये अटकलें लगाई जा रही हैं कि इससे भारत रूस के रक्षा संबंधों, ख़ास तौर पर एस-400 मिसाइल सिस्टम की संभावित ख़रीद पर क्या असर पड़ेगा।
इससे पहले अमरीका ने इस क़ानून के तहत चीन के सेंट्रल मिलिट्री कमिशन के इक्विपमेंट डेवेलपमेंट डिपार्टमेंट और उसके निदेशकों पर प्रतिबंध लगा दिया था। चीन पर ये प्रतिबंध इसलिए लगाए गए थे, क्योंकि उसने रूस से एसयू-35 एयरक्राफ्ट और एस-400 सिस्टम ख़रीदा था।
रूस में बनने वाले एस-400 लॉन्ग रेंज सरफेस टू एयर मिसाइल सिस्टम है। जिसे भारत सरकार ख़रीदना चाहती है।
एस-400 को दुनिया का सबसे प्रभावी एयर डिफेंस सिस्टम माना जाता है। इसमें स्टैंड ऑफ़ जैमर एयरक्राफ्ट, एयरबोर्न वॉर्निंग और कंट्रोल सिस्टम एयरक्राफ्ट है। यह बैलिस्टिक और क्रूज़ मिसाइलों को टारगेट को हिट करने से पहले ही नष्ट कर देगा। एस-400 को सड़क के रास्ते कहीं भी ले जाया जा सकता है। इसे पांच से 10 मिनट के भीतर तैनात किया जा सकता है।
रक्षा विश्लेषकों का मानना है कि एस-400 के आने से भारतीय वायु सेना की ताक़त बढ़ेगी। लेकिन रूस ने चीन को पहले ही एस- 400 दे दिया है। अब भारत को रूस ने एस- 400 की आपूर्ति करने का कॉन्ट्रैक्ट किया है। रूस पाकिस्तान को भी एस- 400 दे सकता है क्योंकि रूस का अब पाकिस्तान से अच्छा रिश्ता है।
भारतीय वायु सेना के लिए भारत सरकार ने रूस से पांच एस-400 सिस्टम मांगे हैं। भारत का रूस के साथ एस-400 सिस्टम की आपूर्ति के लिए कॉन्ट्रेक्ट हो चुका है।
इस डिफेंस सिस्टम के लिए भारत को कितनी क़ीमत चुकानी होगी, इसकी कोई आधिकारिक घोषणा अभी नहीं की गई है। लेकिन कुछ रिपोर्ट्स में बताया गया है कि भारत को इसके लिए 5.4 अरब डॉलर से अधिक ख़र्च करने होंगे।
जैसे ही इस मिसाइल सिस्टम की पहली किश्त चुकाई जाएगी, वैसे ही भारत पर अमरीका के प्रतिबंध लागू हो सकते हैं।
इन प्रतिबंधों से बचने का एक तरीक़ा है, वो ये कि अमरीका के राष्ट्रपति भारत को इससे छूट दे दें।
लेकिन अमरीकी अधिकारी लगातार ये कहते रहे हैं कि भारत को ये नहीं सोचना चाहिए कि उसे ये छूट अपने-आप मिल जाएगी। अमरीका ये तय करेगा कि क्या करना है?
सीएएटीएसए की धारा 235 में 12 तरह के प्रतिबंधों का ज़िक्र है। अगर भारत रूस के साथ लेन-देन करता है तो अमरीका के राष्ट्रपति इनमें से पांच या उससे ज़्यादा प्रतिबंध भारत पर लगा सकते हैं। जैसे -
- जिस पर प्रतिबंध लगा है, उसे लोन नहीं दिया जाएगा
- जिस पर प्रतिबंध लगा है, वहां कोई सामान एक्सपोर्ट करने के लिए एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट बैंक से सहायता नहीं मिलेगी।
- जिस पर प्रतिबंध लगा है, अमरीकी सरकार वहां से कोई सामान या सेवा नहीं लेगी।
- उससे क़रीब से जुड़े किसी व्यक्ति को वीज़ा नहीं दिया जाएगा।
इनमें से दस प्रतिबंधों का तो भारत-अमरीका और भारत-रूस संबंधों पर ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। लेकिन दो प्रतिबंध आपसी रिश्तों पर बड़ा असर डाल सकते हैं।
इनमें से एक है कि 'बैंकिग ट्रांसेक्शन्स पर प्रतिबंध' लगा दिया जाएगा। जिससे भारत एस-400 के लिए रूस को अमरीकी डॉलर में भुगतान नहीं कर पाएगा।
दूसरे प्रतिबंध का भारत-अमरीका रिश्तों पर गहरा असर होगा। इसके तहत 'निर्यात पर प्रतिबंध' लगा दिया जाएगा। मतलब जिस पर प्रतिबंध लगा है, अमरीका उससे किसी चीज़ का आयात नहीं करेगा और ना ही इसके लिए लाइसेंस देगा।
इन दो प्रतिबंधों की वजह से भारत और अमरीका के बीच की रणनीतिक और रक्षा साझेदारी बुरी तरह प्रभावित होगी।
ब्रिटेन की विपक्षी लेबर पार्टी ने कश्मीर पर बुधवार को एक आपात प्रस्ताव पारित करते हुए पार्टी के नेता जेरेमी कोर्बिन से अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों को क्षेत्र में जाने देने और वहां के लोगों के आत्म निर्णय के अधिकार की मांग करने के लिए कहा है।
भारतीय समुदाय के प्रतिनिधियों ने इसकी आलोचना करते हुए इसे 'ग़लत विचार पर आधारित' और 'भ्रामक जानकारी' देने वाला बताया।
इस बीच, भारत ने कश्मीर मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप की मांग करने वाली ब्रिटेन की लेबर पार्टी के प्रस्ताव की आलोचना की है।
भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने लेबर पार्टी के क़दम को 'वोट बैंक हितों को साधने' वाला बताया।
इस्लामी सहयोग संगठन (ओआईसी) ने भारत से कश्मीर में अपनी कार्रवाई बंद करने के लिए कहा है।
मुस्लिम देशों के एक संगठन, इस्लामी सहयोग संगठन ने बुधवार को संयुक्त राष्ट्र महासभा के 74 वें सत्र से इतर एक बैठक के दौरान कश्मीर मुद्दे पर चर्चा की।
ओआईसी ने भारत से कश्मीर में अपनी कार्रवाई बंद करने और नई दिल्ली के जम्मू-कश्मीर से विशेष राज्य का दर्जा वापस लेने के निर्णय के बाद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों का पालन करने का अनुरोध किया।
कश्मीर पर इस्लामी सहयोग संगठन (ओआईसी) कांटैक्ट ग्रुप के विदेश मंत्रियों ने एक बैठक के दौरान जम्मू-कश्मीर से भारत सरकार के अनुच्छेद 370 हटाए जाने और राज्य को दो केन्द्र शासित प्रदेशों में विभाजित करने पर चर्चा की। यह बैठक संयुक्त राष्ट्र महासभा के 74वें सत्र से इतर बुधवार को आयोजित की गई।
संगठन ने बाद में जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में कश्मीर में मानवाधिकार की स्थिति पर चिंता व्यक्त की।
उन्होंने कश्मीर में संचार पर लगे प्रतिबंधों पर भी चर्चा की।
इस समय, ओआईसी में 57 देश शामिल हैं।
इस बीच, तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने मंगलवार को संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) में जम्मू-कश्मीर का मुद्दा उठाते हुए विवाद का समाधान करने के लिए भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत करने की अपील की।
अब तक तुर्की एकमात्र देश है जिसने यूएनजीए में कश्मीर का मुद्दा उठाया है। यह पहली बार नहीं है जब तुर्की ने कश्मीर पर कुछ कहा है। इससे पहले छह अगस्त को तुर्की के विदेश मंत्री ने अनुच्छेद 370 को निरस्त करने पर चिंता व्यक्त की थी और कहा था कि इससे "मौजूदा तनाव और बढ़ सकता है।''
रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने मंगलवार को कहा कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय कश्मीर संघर्ष पर पर्याप्त ध्यान देने में विफल रहा है जहां 72 साल से समाधान नहीं हो सका है।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने महासभा में कश्मीर मुद्दा उठाने के लिए तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन को मंगलवार को धन्यवाद दिया।
दुनिया के सबसे बड़े तेल संयंत्र पर ड्रोन हमले से तेल की क़ीमतों में उछाल आ गया है। बीते कुछ दशकों में ये सबसे तेज़ उछाल है और इसने मध्य-पूर्व में एक नए संघर्ष का ख़तरा पैदा कर दिया है।
लेकिन इसका असर कई हज़ार किलोमीटर दूर तक महसूस किया जा रहा है।
शनिवार 14 सितंबर को कई ड्रोन के ज़रिए सऊदी अरब के बक़ीक़ तेल संयंत्र और ख़ुरैस तेल क्षेत्र में हमला किया गया। इस हमले से सऊदी अरब के कुल उत्पादन और दुनिया की 5 प्रतिशत तेल आपूर्ति पर बुरा असर पड़ा।
यमन के हूती विद्रोहियों ने इस हमले की ज़िम्मेदारी ली है।
भारत क़रीब 83 प्रतिशत तेल आयात करता है। भारत विश्व में तेल के सबसे बड़े आयातकों में से एक है।
भारत में ज़्यादातर कच्चा तेल और कुकिंग गैस इराक़ और सऊदी अरब से आता है।
अपने तेल का 10 प्रतिशत से ज़्यादा हिस्सा वो ईरान से आयात करता था।
हालांकि, साल की शुरुआत में अमरीका ने परमाणु समझौते से अलग होने के बाद भारत पर दबाव बनाया कि वो ईरान से तेल ख़रीदना बंद कर दे।
भारत अमरीका जैसे दूसरे देशों से भी आयात करता है, लेकिन ज़्यादा दामों पर।
बीजेपी प्रवक्ता और ऊर्जा विशेषज्ञ नरेंद्र तनेजा ने कहा, "भारत की दो बड़ी चिंताएं हैं। पहला, हम मानते हैं कि सऊदी अरब एक बहुत ही विश्वसनीय आपूर्तिकर्ता है। भारत, सऊदी अरब को दुनिया में सुरक्षित सप्लायर के तौर पर देखता है।''
लेकिन जिस तरह ये हमले किए गए, ऐसा लगने लगा है कि सऊदी के संयंत्र अब पहले की तरह सुरक्षित नहीं रहे हैं। इसने भारत जैसे दूसरे बड़े आयातकों को चिंतित कर दिया है।
"दूसरा ये कि भारत की अर्थव्यवस्था और यहां के लोग क़ीमतों को लेकर बहुत संवेदनशील रहते हैं इसलिए आज क़ीमत को लेकर चिंता ज़्यादा है।''
इसके अलावा, तेल के वैश्विक बाज़ार में ड्रोन हमले के बाद तेल की क़ीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है। कुवैत पर इराक के हमले वाले वक़्त के बाद से पहली बार क़ीमते इस क़दर बढ़ी हैं। पिछले 28 साल में कच्चे तेल की क़ीमतों में ऐसी उथल-पुथल नहीं हुई थी।
सऊदी अरब ने अब तक पूरी तरह से इस हमले का जवाब नहीं दिया है। इसलिए हम नहीं जानते कि सऊदियों के दिमाग़ में क्या चल रहा है? क्या वो सैन्य तरीक़े से जवाब देंगे? अगर हां, तो इससे क्षेत्र में तनाव बढ़ेगा, जिससे इराक़ और ईरान समेत खाड़ी के पूरे क्षेत्र से आपूर्ति बाधित होगी।
तो बहुत से अनकहे सवाल हैं, जिनके जवाब मिलने अभी बाकी हैं।
भारत की 2/3 मांग इस क्षेत्र से पूरी होती है और किसी भी तरह का तनाव भारत पर एक नकारात्मक असर डालेगा।
अगर आप सबसे तेज़ी से उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं और उनकी आयातित तेल पर निर्भरता को देखें। कोई भी आयात पर निर्भरता के मामले में भारत जैसी कमज़ोर स्थिति में नहीं है और ये सारी उथल-पुथल निश्चित तौर पर भारत पर असर डालेगी।
ये अब इस पर निर्भर करेगा कि उत्पादन कब तक बाधित रहता है। सऊदी अरब का कहना है कि संयंत्रों को ठीक करने में उसे कुछ दिन लगेंगे। लेकिन अगर और ज़्यादा वक़्त लगता है तो इससे तेल की क़ीमतों पर और असर पड़ेगा और हो सकता है इससे भारत में आयात की क़ीमत और बढ़ जाए।
भारत सरकार पहले ही अर्थव्यवस्था के मामले में बुरे दौर से गुज़र रही है और अगर क़ीमतें बढ़ती हैं तो भारत की मुश्किलें भी बढ़ेंगी।
अगर वैश्विक स्तर पर कच्चे तेल की क़ीमतें और बढ़ती हैं तो पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमतें भी बढ़ेंगी। ईंधन की क़ीमतें बढ़ेंगी तो इससे मैन्युफेक्चरिंग और एविएशन समेत कई उद्योगों पर असर पड़ेगा, इससे महंगाई और बढ़ जाएगी।
कच्चे तेल के बाय-प्रोडक्ट, प्लास्टिक और टायर जैसे उत्पादों में इस्तेमाल होते हैं, ये चीज़ें भी और महंगी हो जाएंगी।
तेल की बढ़ती क़ीमतों का असर मुद्रा पर भी पड़ता है। अगर कच्चे तेल का डॉलर प्राइज़ बढ़ेगा तो भारत को उतने ही तेल के लिए और डॉलर ख़रीदने होंगे। इससे डॉलर के मुक़ाबले रुपए की क़ीमत गिरेगी।
भारत के शेयर बाज़ार में और कमज़ोरी पहले ही देखी जा चुकी है। बढ़ती तेल क़ीमतों से अर्थव्यवस्था को और नुक़सान होने के डर से उसमें लगातार दूसरी बार गिरावट आई।
केयर रेटिंग लिमिटेड के प्रमुख अर्थशास्त्री मदन सबनविस कहते हैं, "सरकार अभी ज़्यादा कुछ नहीं कर पाएगी। वो हमारे पास मौजूद भंडार से आपूर्ति कर सकती है, जिससे क़रीब एक महीने के लिए मदद मिल सकती है। अगर संकट बना रहता है तो वो करों में कटौती कर सकती है, लेकिन इससे राजस्व पर और फिर राजकोषीय घाटे पर असर पड़ेगा। लेकिन जब तक क़ीमत 70 डॉलर प्रति बैरल से कम रहती है, तब तक इस झटके को सहा जा सकता है।''
भारत सरकार के कश्मीर का ख़ास दर्जा ख़त्म करने के फ़ैसले को लेकर चीन की भवें तनीं। बीते करीब चार हफ़्ते के दौरान अलग-अलग बयानों के जरिए चीन ने अपना विरोध जाहिर किया है।
बीती पांच अगस्त को भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली भारत सरकार ने तब के जम्मू कश्मीर राज्य को अर्ध स्वायत्ता देने वाले अनुच्छेद 370 को ख़त्म कर दिया।
इसके बाद एक कानून पारित कर राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांट दिया गया।
इनमें से एक केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख है। चीन का इसके एक हिस्से पर नियंत्रण है और वो इस पूरे इलाके पर दावा करता है।
चीन के विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता ख्वा चूनयिंग ने भारत के फ़ैसले को लेकर कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया।
उन्होंने कहा, "चीन-भारत सीमा के पश्चिमी सेक्टर में चीन के क्षेत्र पर भारतीय अधिग्रहण का चीन ने हमेशा विरोध किया है। हमारी इस पुख्ता और निरंतर स्थिति में कोई बदलाव नहीं हुआ है।''
ख्वा चूनयिंग ने आगे कहा, "अपने कानून में बदलाव करके भारत ने हाल में भी चीन की क्षेत्रीय संप्रभुता को अनदेखा करने का सिलसिला जारी रखा है। ये तरीका स्वीकार्य नहीं है और ये अमल में नहीं आएगा।''
इस बीच भारत में राष्ट्रवादी बयानों के साथ बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं ने इस कदम का स्वागत किया। कुछ नेताओं ने उम्मीद जाहिर की कि क्षेत्र का जो हिस्सा चीन और पाकिस्तान के नियंत्रण में है, वो भी भारत के पास आ जाएगा।
इन नेताओं इसमें चीन के नियंत्रण वाले लद्दाख के इलाके अक्साई चिन और पाकिस्तान के कश्मीर, जिसे भारत "पाकिस्तान के कब्ज़े वाला कश्मीर" या "पीओके" बताता है, को शामिल किया।
इंडिया टुडे मैगज़ीन ने भारत के केंद्रीय मंत्री और भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता गिरिराज सिंह के हवाले से लिखा, "200 प्रतिशत यकीन है कि पीओके और अक्साई चिन भी बहुत जल्दी देश के साथ मिल जाएंगे।''
लद्दाख को लेकर चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने कहा, "भारत सरकार की लद्दाख (जिसमें चीन का क्षेत्र शामिल है) को केंद्र शासित प्रदेश बनाने की घोषणा ने चीन की संप्रभुता को चुनौती दी है और सीमा क्षेत्र में शांति और स्थिरता बनाए रखने के लिए दो देशों के बीच हुए समझौते का उल्लंघन किया है।''
कश्मीर के मुद्दे पर ख्वा चूनयिंग ने कहा, "कश्मीर मुद्दे पर चीन की स्थिति साफ और एक जैसी है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इसे लेकर सहमति है कि भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर का मुद्दा अतीत से लंबित है।''
चीन कहता रहा है कि अक्साई चिन समेत लद्दाख इलाक़ा ऐसे सीमाई विवाद का हिस्सा है, जो अभी तय नहीं हुआ है।
फिलहाल, अक्साई चिन को चीन ने अपने शिनजियांग क्षेत्र में शामिल करता है और इसे बेहद अहम मानता है। वजह ये है कि इसके जरिए शिनजियांग और तिब्बत के बीच सैनिकों की आवाजाही हो सकती है।
चीन शिमला समझौते को मान्यता नहीं देता है। ये समझौता साल 1914 में तिब्बत और भारत के ब्रिटिश प्रशासन के बीच हुआ था। जिसमें लद्दाख के भारत का हिस्सा होने को मान्यता दी गई है।
चीन का कहना है कि ये संधि उस वक्त की चीन सरकार के साथ नहीं की गई थी और इसलिए ये अमान्य है।
वांग यी ने कहा, "भारत का कदम चीन को मान्य नहीं है और इससे इस क्षेत्र की संप्रभुता और प्रशासनिक ज्यूरिडिक्शन में चीन की स्थिति में भी कोई बदलाव नहीं होगा।''
चीन सरकार के नियंत्रण वाले अख़बार ग्लोबल टाइम्स ने लिखा, "जब भारत के गृह मंत्री अमित शाह जोर से दावा करते हैं कि भारत उत्तर पश्चिम चीन के शिनजियांग वीगर स्वायत्त क्षेत्र पर शासन स्थापित करना चाहता है तो ये चीन के ख़िलाफ शत्रुता का भाव दिखाता है।''
शंघाई इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनेशनल स्टडीज़ के रिसर्च फेलो झाओ गानचेंग के हवाले से ग्लोबल टाइम्स ने लिखा, "अगर भारत अपने अतार्किक दावों को आगे बढ़ाता है और सैन्य कार्रवाई से हमें उकसाता है तो चीन मजबूती के साथ पलटवार करेगा।''
भारत के विदेश मंत्रालय ने चीन की आलोचनाओं का जवाब दिया है। विदेश मंत्रालय का कहना है, "नए केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख का गठन भारत का आंतरिक मामला है।''
भारत के गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में कहा, "लद्दाख के लोगों की बहुत लंबे वक्त से मांग रही है, इस क्षेत्र को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा देने की, अब वो अपनी आकांक्षाओं को पूरा कर सकेंगे।''
भारत ये भी कहता रहा है कि अक्साई चिन पर चीन का दावा अवैध है और ये शिमला समझौते का उल्लंघन है।
इस विवाद को चीन के करीबी सहयोगी और भारत के प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान ने और उलझा दिया है। पाकिस्तान ने साल 1963 में ट्रांस कराकोरम का एक हिस्सा चीन के सुपुर्द कर दिया था। ये क्षेत्र अक्साई चिन के करीब है। पाकिस्तान के कदम को भारत अवैध बताता है।
लंबे समय से इस मामले पर भारत का जो रुख है, उसे दोहराते हुए अमित शाह ने संसद में कहा, "कश्मीर भारत का अविभाज्य हिस्सा है। इसे लेकर कोई संदेह नहीं है। जब मैं जम्मू कश्मीर की बात करता हूं तो पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर और अक्साई चिन भी इसमें आते हैं।''
चीन ने जो कहा है, वो उस पर अमल भी कर रहा है। पाकिस्तान की गुजारिश पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बंद कमरे में बैठक हुई। पाकिस्तान का कश्मीर को लेकर भारत के साथ विवाद है।
इस बैठक के कुछ ही दिन पहले भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने बीजिंग का दौरा किया था। ग्लोबल टाइम्स के मुताबिक उन्होंने समझौते वाली भाषा का इस्तेमाल करते हुए कहा था, "भारत के संविधान में संशोधन से संप्रभुता के नए दावे की स्थिति नहीं बनेगी। इससे (पाकिस्तान सीमा पर) कश्मीर क्षेत्र में नियंत्रण रेखा पर बदलाव नहीं आएगा और चीन-भारत सीमा पर कंट्रोल लाइन नहीं बदलेगी।''
पाकिस्तान लंबे वक्त से कश्मीर विवाद के अंतरराष्ट्रीयकरण की कोशिश में लगा है। संयुक्त राष्ट्र की बैठक उसी दिशा में प्रयास दिखती है। भारत इस मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय मामला बनाए जाने का विरोध करता है।
लेकिन इस बैठक में राय बंटी हुई रही। रिपोर्टों के मुताबिक रूस ने भारत का समर्थन किया। वहीं ब्रिटेन ने इस मांग में चीन का समर्थन किया कि बैठक के बाद एक सार्वजनिक बयान जारी किया जाए।
चीन के अलावा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के बाकी चार स्थायी सदस्यों ने भारत और पाकिस्तान से अपने विवादों को दोतरफा तरीके से सुलझाने के लिए कहा।
आखिरकार, ये बैठक बिना कोई बयान जारी किए हुए ख़त्म हो गई। हालांकि, चीन और पाकिस्तान ने बाद में अपनी ओर से बयान जारी किए। इसके बाद भारत ने भी बयान जारी किया।
भारत का सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी वित्त वर्ष 2019-20 की पहली तिमाही में बीते वर्ष की इसी अवधि की तुलना में कमज़ोर रहा है।
साल 2019-20 की पहली तिमाही के आंकड़े जारी किये गए हैं। जिनके अनुसार आर्थिक विकास दर 5 फ़ीसदी रह गई है। बीते वित्तीय वर्ष की इसी तिमाही के दौरान विकास दर 8 प्रतिशत थी।
वहीं पिछले वित्तीय साल की आख़िरी तिमाही में ये विकास दर 5.8 प्रतिशत थी।
अर्थशास्त्री विवेक कौल के अनुसार यह पिछली 25 तिमाहियों में सबसे धीमा तिमाही विकास रहा और ये मोदी सरकार के दौर के दौरान की सबसे कम वृद्धि है।
विशेषज्ञ कहते हैं कि देश की अर्थव्यवस्था में तरक़्क़ी की रफ़्तार धीमी हो रही है। ऐसा पिछले तीन साल से हो रहा है।
उनका कहना है कि उद्योगों के बहुत से सेक्टर में विकास की दर कई साल में सबसे निचले स्तर तक पहुंच गई है। देश मंदी की तरफ़ बढ़ रहा है।
भारतीय अर्थव्यवस्था लगातार दूसरी तिमाही में सुस्ती से आगे बढ़ी है। तो क्या लगातार दूसरी तिमाही में अर्थव्यवस्था के विकास दर में सुस्ती से ये माना जाए कि हम आर्थिक मंदी की तरफ़ बढ़ रहे हैं?
आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ, मुंबई-स्थित विवेक कॉल कहते हैं भारत की अर्थव्यवस्था के विकास की रफ़्तार में सुस्ती ज़रूर आयी है लेकिन इसे मंदी नहीं कहेंगे। वो कहते हैं, "मंदी का मतलब लगातार दो तिमाही में नकारात्मक विकास है। भारत की इकॉनमी में सुस्ती आयी है लेकिन नेगेटिव ग्रोथ नहीं हो सकता।''
नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार के अनुसार जून में ख़त्म होने वाली साल की पहली तिमाही में विकास दर में गिरावट से ये मतलब नहीं निकलना चाहिए कि देश की अर्थव्यवस्था मंदी का शिकार हो गयी है।
वो कहते हैं, "भारत में धीमी गति से विकास के कई कारण हैं जिनमे दुनिया की सभी अर्थव्यवस्था में आयी सुस्ती एक बड़ा कारण है।''
राजीव कुमार कहते हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था के फंडामेंटल्स मज़बूत हैं। वे कहते हैं, "वित्त मंत्री ने बीते हफ़्ते कई क़दमों का एलान किया जिसका सकारात्मक असर निवेशकों और ग्राहकों के मूड पर पड़ेगा। हम त्योहारों के सीज़न में प्रवेश कर रहे हैं और हमें उम्मीद है कि दूसरी तिमाही तक विकास दर में वृद्धि नज़र आएगी।''
मंदी की परिभाषा क्या है? यह एक कांटेदार सवाल है जिस पर विशेषज्ञ अभी भी पूरी तरह से एकमत नहीं हैं।
तकनीकी रूप से भारत की अर्थव्यवस्था लगातार दूसरी तिमाही में सुस्ती से आगे बढ़ी है यानी लगातार छह महीने से विकास की दौड़ में कमी आयी है लेकिन अगर इस वित्तीय वर्ष की अगली तीन तिमाही में विकास दर बढ़ती है तो इसे मंदी नहीं कहेंगे।
क्या मंदी के विभिन्न रूप हैं? पूर्ण रूप से। अर्थव्यवस्था लगातार दो तिमाहियों में सिकुड़ सकती है, लेकिन फिर वित्तीय साल की अगली दो तिमाहियों में रिकवर करती है तो वास्तव में पूरे वर्ष के लिए विकास दर में इज़ाफ़ा होगा।
पश्चिमी देशों में इसे हल्की मंदी करार देते हैं। साल-दर-साल आधार पर आर्थिक विकास में पूर्ण गिरावट हो तो इसे गंभीर मंदी कहा जा सकता है।
इससे भी बड़ी मंदी होती है डिप्रेशन, यानी सालों तक नकारात्मक विकास।
अमरीकी अर्थव्यवस्था में 1930 के दशक में सबसे बड़ा संकट आया था जिसे आज डिप्रेशन के रूप में याद किया जाता है। डिप्रेशन में महंगाई, बेरोज़गारी और ग़रीबी अपने चरम सीमा पर होती है।
आर्थिक विशेषज्ञ कहते हैं कि अर्थव्यवस्था मनोवैज्ञानिक मंदी का शिकार भी हो सकती है।
विवेक कॉल के अनुसार अगर ग्राहक सतर्क हो जाए और ख़रीदारी को टालने लगे तो इससे डिमांड में कमी आएगी, जिसके कारण आर्थिक विकास दर में कमी आ सकती है। अगर महंगाई बढ़ने लगे और अनिश्चितता का माहौल हो, तो लोगों को महसूस होता है कि वो मंदी में रह रहे हैं।
भारत में मंदी कब आयी थी? भारतीय अर्थव्यवस्था में सब से बड़ा संकट 1991 में आया था जब आयात के लिए देश का विदेशी मुद्रा रिज़र्व घट कर 28 अरब डॉलर रह गया था। आज ये राशि 491 अरब डॉलर है।
साल 2008-09 में वैश्विक मंदी आयी थी। उस समय भारत की अर्थव्यवस्था 3.1 प्रतिशत के दर से बढ़ी थी जो उसके पहले के सालों की तुलना में कम थी लेकिन विवेक कॉल के अनुसार भारत उस समय भी मंदी का शिकार नहीं हुआ था।
भारतीय रिज़र्व बैंक ने मोदी सरकार को 24.8 अरब डॉलर यानी लगभग 1.76 लाख करोड़ रुपए लाभांश और सरप्लस पूंजी के तौर पर देने का फ़ैसला किया है।
दावा किया जा रहा है कि इससे मोदी सरकार को सार्वजनिक वित्तीय संस्थानों की नाज़ुक हालत को ठीक करने में मदद मिलेगी। लेकिन विपक्षी कांग्रेस पार्टी इस मामले में मोदी सरकार पर उंगली उठा रही है।
मंगलवार को प्रेस कॉन्फेंस करके पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता आनंद शर्मा ने कहा, "आरबीआई के बोर्ड ने जालान कमेटी की सिफ़ारिश पर एक साथ 1.76 लाख करोड़ रुपए भारत सरकार को ट्रांसफ़र कर दिया। ये तमाम जो सर-प्लस था। कंटीजेंसी रिस्क बफ़र यानी सीआरबी आरबीआई का वो ट्रांसफ़र हो गया। इसमें आरबीआई की 2018 और 2019 की सारी कमाई सरकार को दे दी गई।''
आनंद शर्मा ने आगे कहा, "कुछ दिन पहले कमेटी के मुखिया विमल जालान ने कहा था कि ये पैसा चार-पांच साल के अंदर दिया जाएगा। वो पैसा चार-पांच साल की जगह एक ही बार में दे दिया गया। ये आपातकालीन समय के लिए था। जब देश पर कोई आर्थिक संकट आता है उस स्थिति के लिए था। इससे भारत की अर्थव्यवस्था पर गहरे संकट का पुष्टीकरण होता है। जो ये पैसा सरकार को दिया जा रहा है ये आपातकालीन स्थिति के लिए था।''
लेकिन इसके साथ ही रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया की स्वायत्तता को लेकर भी चिंता जताई जा रही है। पिछले साल आरबीआई के तत्कालीन गवर्नर उर्जित पटेल और मोदी सरकार में नीतिगत स्तर पर असहमतियां सामने आई थीं और पटेल ने अपना कार्यकाल ख़त्म होने से पहले ही इस्तीफ़ा दे दिया था।
कनाडा की कार्लटन यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर विवेक दहेजिया ने आरबीआई के इस फ़ैसले पर फ़ाइनैंशियल टाइम्स से कहा, ''केंद्रीय बैंक अपनी कार्यकारी स्वायत्तता खो रहा है और सरकार के लालच को पूरा करने का ज़रिया बनता जा रहा है।'' विवेक दहेजिया की आरबीआई की गतिविधियों पर नज़र बनी रहती है।
उन्होंने कहा, ''इससे रिज़र्व बैंक की विश्वसनीयता कमज़ोर होगी। जो निवेशक भारत की तरफ़ देख रहे हैं वो कहेंगे कि आरबीआई पूरी तरह से सरकार के नियंत्रण में है। मुझे नहीं लगता कि यह अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा है।''
सोमवार को एक बयान जारी कर आरबीआई ने कहा कि पिछले वित्तीय वर्ष में हुई कुल आय 17.3 अरब डॉलर और 7.4 अरब डॉलर की सरप्लस राशि यानी कुल 1.76 लाख करोड़ रुपए वो सरकार को सौंपने जा रहा है। रिज़र्व बैंक ने कहा कि यह ट्रांसफ़र न्यू इकनॉमिक कैपिटल फ़्रेमवर्क के तहत है जिसे हाल ही में स्वीकार किया गया है।
आरबीआई के पूर्व गवर्नर विमल जालान की अध्यक्षता में एक समिति बनी थी और इसी समिति ने न्यू इकनॉमिक फ़्रेमवर्क की सिफ़ारिश की थी। इस समिति की सिफ़ारिशों को आरबीआई ने स्वीकार कर लिया है।
आरबीआई इस बात पर सहमत हो गया है कि वो पिछले वित्तीय वर्ष की पूरी आय सरकार को दे देगा। रिज़र्व बैंक के पास सुरक्षित पैसे के इस्तेमाल को लेकर पिछले साल अक्तूबर में ही विवाद की स्थिति पैदा हो गई थी।
आरबीआई के तत्कालीन उप गवर्नर विरल आचार्य ने सरकार को चेताया था कि सरकार ने आरबीआई में नीतिगत स्तर पर हस्तक्षेप बढ़ाया तो इसके बहुत बुरे नतीजे होंगे। विरल आचार्य ने कहा था कि सरकार आरबीआई के पास सुरक्षित पैसे को हासिल करना चाहती है।
इसके दो महीने बाद ही उर्जित पटेल ने आरबीआई से इस्तीफ़ा दे दिया था। इसके बाद मोदी सरकार ने शक्तिकांत दास को गवर्नर बनाया।
शक्तिकांत दास को गवर्नर बनाए जाने पर बीबीसी से अर्थव्यवस्था में उतार-चढ़ाव को गहराई से समझने वाले वरिष्ठ पत्रकार परंजॉय गुहा ठाकुरता ने कहा, ''जिस दिन शक्तिकांत दास आरबीआई के गवर्नर बने उसी दिन साफ़ हो गया था कि सरकार जो चाहेगी उसे आरबीआई को करना होगा।''
ठाकुरता कहते हैं, ''शक्तिकांत दास आईएएस अधिकारी रहे हैं और वो वित्त मंत्रलाय में प्रवक्ता के तौर पर काम करते थे। जब नोटबंदी हुई तो दास ने समर्थन किया था। शक्तिकांत दास दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज में इतिहास पढ़ रहे थे। दास ने सरकारी अधिकारी के तौर पर काम किया है। रिज़र्व बैंक के पास पैसे का होना बहुत ज़रूरी है क्योंकि विदेशी मार्केट में कुछ होगा तो रुपया और कमज़ोर होगा। सरकार के आंकड़े पहले से ही संदिग्ध हैं। इस बात को मोदी सरकार के पूर्व आर्थिक सलाहकार भी उठा चुके हैं।''
भारतीय अर्थव्यवस्था में आई कमज़ोरी से सरकार दबाव में है। भारतीय मुद्रा रुपया अमरीकी डॉलर की तुलना में 72 के पार चला गया है। लगातार चौथे तिमाही में आर्थिक वृद्धि दर में गति नहीं आ पाई है। लेकिन सवाल अब भी क़ायम है कि क्या मोदी आरबीआई से पैसे लेकर अर्थव्यवस्था में मज़बूती ला पाएंगे। सरकार ने टैक्स कलेक्शन का जो लक्ष्य रखा था उसे पाने में नाकाम रही है।
आरबीआई हर साल सरकार को निवेश से हुई अपनी आय और नोटों की प्रिंटिंग के आधार पर सरकार को लाभांश देता है। पिछले कुछ सालों से वित्त मंत्रालय आरबीआई से बड़ा भुगतान चाह रहा था।
रिज़र्व बैंक का कहना है कि उसके पास ज़रूरत से ज़्यादा पैसे हैं इसलिए सरकार को इतनी बड़ी रक़म दी है। कहा जाता है कि इसी को लेकर पूर्व आरबीआई गवर्नर उर्जित पटेल और सरकार के बीच विवाद की स्थिति बनी थी।
विमल जालान समिति ने सिफ़ारिश की थी कि आरबीआई के पास अपनी बैलेंसशीट के 5.5 से 6.5 फ़ीसदी रक़म होनी चाहिए। इससे पहले यह राशि 6.8 फ़ीसदी थी। सरकार का लक्ष्य है कि 2020 बजट घाटा जीडीपी का 3.3 फ़ीसदी किया जाए।
भारत की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले हफ़्ते ही कहा था कि सरकार जल्द ही 700 अरब रुपए सरकारी बैंकों में डालेगी। भारत का बैंकिंग सेक्टर संकट के दौर के गुज़र रहा है।
विरल आचार्य आरबीआई के डिप्टी गवर्नर के रूप में 26 अक्तूबर, 2018 को चर्चा में आए थे जब उन्होंने आरबीआई की स्वायत्तता से समझौता करने का आरोप लगाते हुए मोदी सरकार को खरी-खोटी सुनाई थी। उनका ये भाषण रिज़र्व बैंक की बोर्ड बैठक के ठीक तीन दिन बाद हुआ था।
अपने क़रीब डेढ़ घंटे के भाषण में तब उन्होंने कहा था कि जो सरकारें अपने केंद्रीय बैंकों की स्वायत्तता का सम्मान नहीं करतीं, उन्हें देर-सबेर वित्तीय बाज़ारों के ग़ुस्से का सामना करना ही पड़ता है।
आचार्य के उस संबोधन को आरबीआई और मोदी सरकार के बीच के रिश्तों में तल्ख़ी के रूप में देखा गया था।
दरअसल, इस भाषण से कुछ समय पहले सरकार और रिज़र्व बैंक के बीच कई मुद्दों पर मतभेद थे। मसलन सरकार ब्याज़ दरों में कमी चाहती थी, ग़ैरबैंकिंग फाइनेंस कंपनियों यानी एनबीएफ़सी को और अधिक नक़दी देने की हिमायत कर रही थी, साथ ही सरकार ये भी चाहती थी कि आरबीआई अपने रिज़र्व का कुछ हिस्सा सरकार को दे।
सुरक्षा बलों ने प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाईं क्योंकि भारत के क्षेत्र की स्वायत्तता छीनने के खिलाफ हजारों लोगों ने श्रीनगर की सड़कों पर प्रदर्शन किया, स्थानीय सूत्रों ने अल जज़ीरा को बताया।
भारतीय के कश्मीर के मुख्य शहर में विरोध प्रदर्शन शुक्रवार की नमाज़ के बाद हुआ, अल जज़ीरा की प्रियंका गुप्ता ने भारतीय राजधानी नई दिल्ली से रिपोर्टिंग की।
"अभूतपूर्व सुरक्षा लॉकडाउन के बावजूद, हजारों लोगों ने श्रीनगर में प्रदर्शन किया और शहर में सूत्रों का हवाला देते हुए कहा," सुरक्षा बालों ने लोगों पर लाइव फायर, आंसू गैस और रबर - कोटेड स्टील बुलेट्स से हमला किया।"
सोमवार को भारत सरकार के कदम के बाद से यह विरोध "अपनी तरह का सबसे बड़ा" था।
अल जज़ीरा की प्रियंका गुप्ता की रिपोर्ट नई दिल्ली से लाइव है।
भारत की सरकार ने संविधान के कुछ हिस्सों को ख़त्म कर दिया है जो भारतीय कश्मीर को महत्वपूर्ण स्वायत्ता प्रदान करते हैं।
कश्मीर की विवादित क्षेत्र को भारत और पाकिस्तान के बीच ब्रिटेन से आजादी के बाद से विभाजित किया गया है।
दोनों देश इस पर अपना दावा मानते हैं और इसके कुछ हिस्सों को नियंत्रित करते हैं।
भारतीय कश्मीर को विशेष स्वायत्तता प्रदान की गई थी जिसने इसे नई दिल्ली के प्रत्यक्ष हस्तक्षेप के बिना बड़े पैमाने पर कार्य करने की अनुमति दी थी।
लेकिन वह अब बदल गया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने विशेष दर्जा रद्द कर दिया है।
और क्षेत्र में अतिरिक्त सैनिकों को भेजा और क्षेत्र को लॉकडाउन पर रखा।
यह एक ऐसा कदम है जिसके व्यापक परिणाम हो सकते हैं।
तो, इस फैसले के पीछे क्या है? और क्या यह क्षेत्र पर लंबे समय तक आम सहमति का पालन करता है?
ब्राजील की सरकारी स्वामित्व वाली ऊर्जा कंपनी पेट्रोब्रास में मनी लॉन्ड्रिंग, रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार देश के इतिहास के सबसे बड़े राजनीतिक भ्रष्टाचार घोटाले में उजागर किए गए कुछ अपराध हैं। 2014 में, जज ने कार वॉश जांच की अध्यक्षता की, जिसे लावा जाटो भी कहा जाता था, सर्जियो मोरो था।
इसके परिणामस्वरूप सैकड़ों राजनेताओं और व्यापारिक हस्तियों की गिरफ्तारी हुई, जिसके परिणामस्वरूप एक राष्ट्रपति - दिल्मा रूसेफ - और एक अन्य पूर्व राष्ट्रपति - लूला दा सिल्वा - सलाखों के पीछे आ गए।
मोरो को ब्राज़ील के ज्यादातर दक्षिणपंथी मीडिया - ग्लोबो और रिकॉर्ड जैसे टीवी चैनल और वेजा जैसी पत्रिकाओं द्वारा शेर किया गया था। और कुछ साल बाद, जब दक्षिणपंथी जायर बोल्सनारो ब्राजील के नेता चुने गए, तो उन्होंने मोरो को अपने न्याय और सार्वजनिक सुरक्षा मंत्री के रूप में चुना।
लेकिन अब मोरो को अपने स्वयं के एक घोटाले का सामना करना पड़ रहा है जो भ्रष्टाचार विरोधी धर्मयुद्ध के रूप में अपनी प्रतिष्ठा को ध्वस्त करता है, ब्राजील को भ्रष्टाचार से मुक्त करता है। द इंटरसेप्ट ब्रासील ने पाठ संदेशों से एक्सपोज़ की एक श्रृंखला प्रकाशित की, जिसमें उन्होंने अभियोजकों के साथ मोरो के संचार को दिखाया जो इंगित करता है कि वह निष्पक्ष न्यायाधीश होने के बजाय उनके साथ साजिश कर रहा था।
रियो डी जेनेरियो स्टेट यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जोआओ फेर्स ने कहा, "सबसे महत्वपूर्ण रहस्योद्घाटन है कि सर्जियो मोरो अभियोजन पक्ष के साथ काहूट में था। परिणामों की व्यवस्था के लिए अभियोजन पक्ष के साथ लगातार बातचीत करने की मनाही है।" अल जज़ीरा को बताता है।
संदेश इस संदेह की पुष्टि करते भी दिखाई देते हैं कि - पूरे कार वॉश की जांच के दौरान - मोरो और अभियोजन पक्ष वामपंथी पीटी पार्टी के सदस्यों के खिलाफ इसे मोड़ने के लिए प्रेस कवरेज में हेरफेर करने और बोल्सनारो का मार्ग प्रशस्त करने की कोशिश कर रहे थे।
"मीडिया प्रचार अभियान के रूप में यह पूरा लावा जाटो अभियान ब्राजील में दलीय राजनीति का एक संस्थागत राजनीति का एक अवमूल्यन था, जिसमें मतदाता इतना संदेहपूर्ण हो गया था कि अंत में, उन्होंने चरम दक्षिणपंथी बाहरी व्यक्ति बोल्सनारो को चुना। इसलिए बोल्सनारो और उनके चुनाव को संस्थागत राजनीति के खिलाफ इस लंबे अभियान के एक उत्पाद के रूप में देखा जाना चाहिए, "फेर्स कहते हैं।
लेकिन सभी मीडिया आउटलेट्स ने इंटरसेप्ट ब्रासील की रिपोर्टिंग का अभियोजकों के साथ मोरो की मिलीभगत के आरोप पर अनुसरण नहीं किया।
द इंटरसेप्ट ब्रासील के डिप्टी एडिटर अलेक्जेंड्रे सैंटी ने कहा, "ब्राजील में, दक्षिणपंथी मीडिया का एक वर्ग मौजूद है जिसने कार वॉश की कहानी में बहुत निवेश किया है और ऐसा कोई तरीका नहीं है कि वे कभी भी इस कथा को जाने दें।" दूसरी ओर, मोरो पर उनके पर्दाफाश के लिए कई अंतरराष्ट्रीय समाचार आउटलेट्स की प्रतिक्रिया "अविश्वसनीय" थी।
देश के सबसे शक्तिशाली ब्रॉडकास्टर, ग्लोबो ने सामग्री के बजाय द इंटरसेप्ट ब्रासील की पत्रकारिता की वैधता पर ध्यान केंद्रित किया। पिछले बुधवार को एक न्यायाधीश ने मोरो का फोन हैक करने के आरोप में चार लोगों को गिरफ्तार करने का आदेश दिया।
अल जज़ीरा की एक टिप्पणी में, ग्लोबो ने अपने रुख का बचाव किया: "यह कतर सहित दुनिया के किसी भी हिस्से में खराब पत्रकारिता माना जाएगा, यह अनदेखा करने के लिए कि अधिकारियों के सेलफोन हैक कर लिए गए थे।"
"#वाज़जातो जैसे ऐसे परिमाण की एक कहानी में, जिसमें कई अधिकारियों की हैकिंग शामिल है - जिसमें ब्राजील के सबसे प्रसिद्ध न्यायाधीश, वर्तमान न्याय मंत्री, सबसे बड़ी खबर जो मुझे विश्वास है कि कथित बातचीत की सामग्री नहीं है, बल्कि हैकिंग है इन वार्तालापों में। यह बहुत गंभीर है, "रोड्रिगो कॉन्स्टेंटिनो, ब्राजील के गज़ेटा डो पोवो के साथ एक स्तंभकार कहते हैं।
लेकिन 2016 के मार्च में, जब मोरो ने डिल्मा रूसेफ और लूला दा सिल्वा के बीच एक निजी फोन कॉल का टेप जारी किया, ग्लोबो पत्रकारिता नैतिकता के बारे में कम चिंतित था। यह उस कहानी के साथ चला, जैसा कि वेजा और ब्राजील के कई अन्य समाचार पत्रों ने किया था।
सिटी यूनिवर्सिटी के मीडिया स्कॉलर कैरोलिना माटोस कहते हैं, "जब मोरो राष्ट्रपतियों के बीच बातचीत को लीक कर रहा था, तो यह बहुत गंभीर था। यह सार्वजनिक हित में नहीं था।" "मोरो को जीवन भर का मौका था कि वे इतिहास में किसी ऐसे व्यक्ति के रूप में जाएं, जिसने भ्रष्टाचार का मुकाबला किया हो। उसके पास अपने निपटान में सारी शक्ति थी ... सभी मीडिया का ध्यान ... सभी जनता का समर्थन। और, नहीं, इसके बजाय, उसने एक राजनीतिक परियोजना को चुना। उसने खुद को एक विशेष समूह में संरेखित करने के लिए चुना।''