कोरोना संक्रमण के मामले में भारत दुनिया में तीसरे नंबर पर आ गया है। संक्रमण के बढ़ते मामलों के बीच उम्मीद की एक ही किरण है इसके वैक्सीन का बनना। लेकिन सबसे बड़ा सवाल कि कोरोना का वैक्सीन कब बनेगा और यह लोगों तक कब पहुंचेगा?
पहले 2 जुलाई का भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद यानी आईसीएमआर का एक सर्कुलर आया, जिसमें कहा गया कि 15 अगस्त तक भारत बायोटेक कोवैक्सीन नाम का वैक्सीन तैयार कर लेगा।
बाद में इस सर्कुलर पर आईसीएमआर ने स्पष्टीकरण जारी किया। स्पष्टीकरण में कहा गया कि केवल सरकारी फाइलें प्रक्रिया में तेज़ी से आगे बढ़ते रहें इसलिए सर्कुलर जारी किया गया था।
लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हुई। अब केन्द्र सरकार के विज्ञान एवं तकनीक मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले संस्थान विज्ञान प्रसार के एक लेख ने दोबारा हड़कंप मचा दिया है।
यह लेख विज्ञान प्रसार के साइंस कम्युनिकेशन ट्रेनिंग विभाग के प्रमुख डॉक्टर टी वी वैंकटेश्वरण ने पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के लिए लिखा है।
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़ इस लेख में जिक्र किया गया था कि कोरोना की वैक्सीन 2021 के पहले नहीं आ सकती। लेकिन कई मीडिया रिपोर्ट्स में ऐसा दावा किया गया है कि पीआईबी की बेबसाइट से आनन-फानन में 2021 वाली लाइन हटा कर दोबारा से लेख को अपलोड किया है।
ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि कोरोना के वैक्सीन को लेकर सरकार हड़बड़ी में क्यों दिख रही है? और क्या पहले से तारीख़ का एलान करके वैक्सीन बनाने की प्रक्रिया सही तरह से पूरी की जा सकती है?
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़ विज्ञान प्रसार के लेख में कहा गया था कि भारत के कोवैक्सिन और जाइकोव-डी के साथ-साथ दुनिया भर में 140 वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों में से 11 ह्यूमन ट्रायल के दौर में हैं, लेकिन इसके इस्तेमाल के लिए लाइसेंस मिलने में 15 से 18 महीने लगेंगे।
इससे पहले बड़े पैमाने पर उपयोग के लिए इनमें से किसी भी वैक्सीन के तैयार होने की संभावना नहीं है।
हालांकि बाद में इस लेख से 'इसके इस्तेमाल के लिए लाइसेंस मिलने में 15 से 18 महीने लगेंगे' वाली लाइन हटा ली।
अब इस लेख में लिखा गया है कि कोविड-19 के लिए भारतीय वैक्सीन, कोवैक्सिन और जाइकोव-डी के इंसानों पर परीक्षण के लिहाज से भारत के दवा महानियंत्रक की ओर से मंजूरी मिलना कोरोना वायरस महामारी के 'अंत की शुरुआत' है।
यह लेख अब भी पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) की वेबसाइट पर मौजूद है। लेख में ये भी दावा किया गया है कि विश्व में जहां कहीं भी कोरोना की वैक्सीन बने, भारत में इसके उत्पादन के बिना पूरे विश्व में इसका मिलना संभव नहीं है।
पीआईबी की वेबसाइट पर प्रकाशित लेख में अब वैक्सीन की कोई समय सीमा नहीं बताई गई है।
इस पूरे विवाद पर बीबीसी संवाददाता सरोज सिंह ने डॉक्टर टीवी वैंकटेश्वर से फ़ोन पर संपर्क किया।
उन्होंने पूरे विवाद पर कुछ भी कमेंट करने से इनकार कर दिया। बीबीसी से फ़ोन पर बातचीत में उन्होंने कहा, ''ये सब पॉलिसी इश्यू हैं। सही लोग ही इस पर कमेंट करेंगे तो बेहतर होगा। जहां तक मेरा सवाल है। मैं पीआईबी पर प्रकाशित रिवाइज़्ड वर्जन के साथ हूं।''
दिल्ली में एम्स के निदेशक डॉक्टर रणदीप गुलेरिया ने भी एक निज़ी न्यूज़ चैनल के साथ साक्षात्कार में ये साफ़ कह दिया है कि 15 अगस्त तक स्वदेशी वैक्सीन के ट्रायल की बात अव्यावहारिक प्रतीत होती है।
उन्होंने साक्षात्कार में स्पष्ट किया कि आईसीएमआर की चिठ्ठी का उद्देश्य मात्र इतना था कि हर संस्थान अपने-अपने काम को तेज़ी से करने की ओर आगे बढ़े।
दिल्ली के एम्स में भी भारत बायटेक द्वारा बनाई गए इस स्वदेशी वैक्सीन का ट्रायल होना है।
वहीं बायोकॉन इंडिया की चेयरपर्सन किरण मजूमदार शॉ ने भी ट्विटर पर लिखा है कि, ''कोविड-19 वैक्सीन के लिए फेज़ एक से तीन तक के ट्रायल 6 महीने में पूरा कर पाना असंभव है।''
आईसीएमआर के ख़त से कुछ घंटों पहले बीबीसी तेलुगु संवाददाता दीप्ति बथिनि ने भारत बायोटेक की मैनेजिंग डायरेक्टर सुचित्रा एला से बात की।
सुचित्रा एला का कहना था, ''ह्यूमन क्लीनिकल ट्रायल के पहले फ़ेज़ में एक हज़ार लोगों को चुना जाएगा। इसके लिए सभी अंतरराष्ट्रीय गाइडलाइन्स का पालन किया जाएगा। वॉलंटियर्स के चुनाव पर भी कड़ी नज़र रखी जाएगी। देश भर से उन लोगों को ट्रायल के लिए चुना जाएगा जो कोविड-फ़्री हों। उन लोगों पर क्या प्रतिक्रिया हुई इसको जानने में कम से कम 30 दिन लगेंगे।''
उन्होंने आगे कहा, ''हमें नहीं पता कि भौगोलिक स्थितियों का भी असर होगा। इसलिए हमने पूरे भारत से लोगों को चुना है। हम ये सुनिश्चित करना चाहते हैं कि इसकी अच्छी प्रतिक्रिया हो। पहले फ़ेज़ के आंकड़ों को जमा करने में 45 से 60 दिन लगेंगे।''
''ब्लड सैंपल ले लेने के बाद टेस्ट की साइकल को कम नहीं किया जा सकता है। टेस्ट के नतीज़ों को हम तक पहुंचने में 15 दिन लगेंगे।''
भारत में कोविड-19 की वैक्सीन को तैयार करने की तमाम कोशिशें चल रही हैं। लेकिन अभी भी इस दिशा में काफ़ी कुछ किए जाने की ज़रूरत है।
वैक्सीन तैयार होने के बाद पहला काम यह पता लगाना होगा कि यह कितनी सुरक्षित है? अगर यह बीमारी से कहीं ज़्यादा मुश्किलें पैदा करने वाली हुईं तो वैक्सीन का कोई फ़ायदा नहीं होगा।
क्लीनिकल ट्रायल में यह देखा जायेगा कि क्या वैक्सीन कोविड-19 को लेकर प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर पा रही है ताकि वैक्सीन लेने के बाद लोग इसकी चपेट में ना आएं।
वैक्सीन तैयार होने के बाद भी इसके अरबों डोज़ तैयार करने की ज़रूरत होगी। वैक्सीन को दवा नियामक एजेंसियों से भी मंजूरी लेनी होगी।
ये सब हो जाए तो भी बड़ी चुनौती बची रहेगी। दुनिया भर के अरबों लोगों तक इसकी खुराक़ पुहंचाने के लिए लॉजिस्टिक व्यवस्थाएं करने का इंतज़ाम भी करना होगा।
भारत में कोरोना वायरस के लिए स्वेदशी वैक्सीन Covaxin और ZyCov-D को ह्युमन क्लीनिकल ट्रायल की अनुमति दिए जाने के बाद सरकार ने कहा है कि यह 'कोरोना के अंत की शुरुआत' है।
भारत में केंद्रीय विज्ञान एवं तकनीकी मंत्रालय ने अपने पत्र में कहा है कि पूरी दुनिया में 100 से अधिक वैक्सीन का परीक्षण चल रहा है और उनमें से सिर्फ़ 11 का इंसानी परीक्षण जारी है।
मंत्रालय के पत्र में लिखा है, ''ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ़ इंडिया से अनुमति मिलने के बाद वैक्सीन का इंसानी परीक्षण शुरू हो जाएगा जो एक अंत की शुरुआत है।''
''कोविड-19 की वैक्सीन पर छह भारतीय कंपनियां काम कर रही हैं। पूरी दुनिया में 140 वैक्सीन में से 11 पर इंसानी परीक्षण हो रहा है जिसमें दो भारतीय वैक्सीन Covaxin और ZyCov-D भी है।''
आमतौर पर किसी दवाई के परीक्षण के शुरुआती दो चरण सुरक्षा को लेकर होते हैं जबकि तीसरा चरण दवा के असर को लेकर होता है।
हर चरण को पूरा होने में महीनों से लेकर सालों तक लग सकते हैं।
मंत्रालय का यह पत्र ऐसे समय में आया है जब आईसीएमआर के वैक्सीन जारी करने की अंतिम तारीख़ 15 अगस्त तय करने पर विवाद हुआ था।
हालांकि, आईसीएमआर ने अब साफ़ कर दिया है कि वैक्सीन वैश्विक नियमों के आधार पर ही बाज़ार में आएगी।
भारत में जिन दो स्वदेशी वैक्सीन को लेकर इंसानी परीक्षण की अनुमति दी गई है, उनमें एक भारत बायोटेक की Covaxin और दूसरी ज़ाएडस कैडिला की ZyCov-D है।
इनके पहले और दूसरे चरण के परीक्षण की अनुमति इस हफ़्ते मिली थी।
कोरोना महामारी से निपटने के लिए हाल ही में दिल्ली में प्लाज़्मा बैंक शुरू किया गया है। प्लाज़्मा थेरेपी को कोरोना वायरस के मरीज़ों के इलाज़ के लिए मंज़ूरी दी गई थी। अब गंभीर हालत वाले मरीज़ों के इलाज में इसका इस्तेमाल भी हो रहा है।
कोरोना के इलाज के लिए ये भारत का पहला प्लाज़्मा बैंक है। यह बैंक इंस्टिट्यूट ऑफ लीवर एंड बिलियरी साइंस (आईएलबीसी) अस्पताल में बनाया गया है। उम्मीद की जा रही है कि प्लाज़्मा बैंक से मरीज़ों को प्लाज़्मा मिलने में आसानी होगी।
ऐसे में कोविड-19 के ठीक हो चुके मरीज़ों से प्लाज़्मा डोनेट करने की अपील भी की जा रही है। लेकिन, कोरोना वायरस का हर मरीज़ प्लाज़्मा डोनेट नहीं कर सकता। इसके लिए कुछ शर्तें रखी गई हैं।
बताया गया है कि अपने जीवन में कभी भी मां बन चुकीं और वर्तमान में गर्भवती महिलाएं प्लाज़्मा डोनेट नहीं कर सकतीं।
आईएलबीएस के निदेशक ए के सरीन ने एक अंग्रेज़ी अख़बार हिंदुस्तान टाइम्स को दिए साक्षात्कार में बताया है कि मां बन चुकीं और गर्भवती महिलाओं से प्लाज़्मा नहीं लिया जा सकता। उनका प्लाज़्मा कोविड-19 के मरीज़ को और नुक़सान पहुंचा सकता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने शनिवार को कहा कि कोरोना संक्रमित मरीज़ों पर हाइ़ड्रोक्सिक्लोरोक्वीन और लोपिनएविर/रिटोनाविर दवा का इस्तेमाल बंद किया जा रहा है।
मलेरिया के इलाज में काम आने वाली हाइ़ड्रोक्सिक्लोरोक्वीन और एचआईवी मरीज़ों को दी जाने वाली लोपिनएविर/रिटोनाविर दवा से कोरोना संक्रमितों की मृत्यु दर रोकने में कामयाबी नहीं मिली, जिसके बाद ये फ़ैसला लिया गया है।
कोरोना के इलाज की खोज में जारी अलग-अलग वैक्सीन और मेडिसिन ट्रायल में इस दवा को एक उम्मीद के तौर पर देखा जा रहा था और ये बुरी ख़बर ऐसे वक्त में आई है जब खुद विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बताया है कि दुनिया भर में पहली बार एक दिन में दो लाख से ज़्यादा कोरोना संक्रमण के मामले रिपोर्ट हुए हैं।
शुक्रवार को दुनिया भर में कोरोना संक्रमण के 212,326 मामले रिपोर्ट हुए जिनमें अकेले अमरीका में 53,213 मामले दर्ज किए गए।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक बयान में कहा, ''मेडिकल ट्रायल से ये नतीजे सामने आए कि हाइ़ड्रोक्सिक्लोरोक्वीन और लोपिनएविर/रिटोनाविर के इस्तेमाल से हॉस्पिटल में भर्ती कोरोना मरीज़ों की मृत्यु दर में बहुत कम या फिर न के बराबर कमी आई। इसलिए इन दवाओं का ट्रायल तत्काल प्रभाव से बंद कर दिया जाएगा।''
दुनिया के अलग-अलग देशों में विश्व स्वास्थ्य संगठन की अगुवाई में इन दवाओं के कोरोना मरीज़ों पर असर को जांचा-परखा जा रहा था।
संयुक्त राष्ट्र की स्वास्थ्य एजेंसी ने बताया कि एक अंतरराष्ट्रीय कमिटी की सिफारिश के आधार पर ये फ़ैसला लिया गया है।
हालांकि डब्ल्यूएचओ ने ये स्पष्ट किया है कि वैसे मरीज़ जो अस्पताल में भर्ती नहीं हैं और रोगनिरोधक के रूप में उन पर इसके इस्तेमाल से जुड़ी स्टडी पर इस फ़ैसले का असर नहीं पड़ेगा।
चीन के कृषि और ग्रामीण मामलों के मंत्रालय ने शनिवार को कहा कि G4 स्वाइन फ्लू वायरस नया नहीं है और ये इंसानों और जानवरों को आसानी से संक्रमित नहीं करता है।
इसी हफ़्ते इस G4 स्वाइन फ्लू वायरस के बारे में एक स्टडी पब्लिश हुई थी जिसे चीन की सरकार ने सिरे से खारिज किया है।
हालांकि G4 स्वाइन फ्लू वायरस के बारे में पहले वाली स्टडी चीन के वैज्ञानिकों की एक टीम ने ही तैयार की थी और इसे अमरीकी साइंस जर्नल प्रोसीडिंग्स ऑफ़ दी नेशनल एकैडमी ऑफ़ साइंसेज़ ने पब्लिश किया था।
इस स्टडी में चेतावनी दी गई थी कि G4 नाम का ये नया स्वाइन फ्लू वायरस इंसानों के लिए संक्रामक है और इसके महामारी वाले वायरस में बदलने का ख़तरा है।
हालांकि चीन के कृषि मंत्रालय ने अपने बयान में कहा है कि इस स्टडी को मीडिया में ग़ैर तथ्यात्मक तरीके से और बढ़ा चढ़ाकर पेश किया गया।
कृषि मंत्रालय के विश्लेषण के मुताबिक़ स्टडी पेपर पब्लिश करने के लिए जुटाए गए सैंपल्स का पैमाना बहुत छोटा था, साथ ही आर्टिकल में इस बात पर पर्याप्त सबूतों का अभाव था जो ये दिखलाते हों कि G4 वायरस सुअरों पर असर डाल रहा है।
भारत में कोरोना वायरस की वैक्सीन 15 अगस्त तक बना लेने की अंतिम तारीख़ तय करने से जुड़े मामले पर इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) ने अब सफ़ाई जारी की है। आईसीएमआर ने कहा है कि वैश्विक रूप से स्वीकृत नियमों के तहत ही फ़ास्ट ट्रैक वैक्सीन बनाई जाएगी।
आईसीएमआर ने अपना दो पन्नों का बयान ट्वीट करते हुए लिखा है कि भारत के लोगों की सुरक्षा और हित सर्वोच्च प्राथमिकता है।
दरअसल 15 अगस्त की तारीख़ पर बहस आईसीएमआर के महानिदेशक डॉक्टर बलराम भार्गव के इस हफ़्ते लिखे गए एक मेमो के बाद शुरू हुई थी। इसमें उन्होंने भारत की शीर्ष क्लीनिकल रिसर्च एजेंसियों से स्वतंत्रता दिवस तक कोरोना वायरस की वैक्सीन लॉन्च करने की बात कही थी।
अब आईसीएमआर ने महानिदेशक के बयान पर सफ़ाई जारी करते हुए कहा है, ''डीजी-आईसीएमआर का पत्र क्लीनिकल ट्रायल कर रहे अनुसंधानकर्ताओं से बेवजह की लाल-फ़ीताशाही से बचने के लिए था ताकि ज़रूरी प्रक्रियाएं भी न छूटें और नए प्रतिभागियों की भर्ती भी हो सके।''
''साथ ही नए स्वदेशी टेस्टिंग किट या कोविड-19 से संबंधित दवाई को बाज़ार में उतारने के लिए फ़ास्ट ट्रैक अनुमति में लाल-फ़ीताशाही बाधा न बने। स्वदेशी वैक्सीन विकसित करने की प्रक्रिया में धीमी गति से भी बचने को कहा गया था ताकि इस चरण को जल्द पूरा कर लिया जाए और जनसंख्या आधारित ट्रायल की शुरुआत की जा सके।''
आईसीएमआर ने कहा है कि फ़ास्ट ट्रैक वैक्सीन विकसित करने की प्रक्रिया वैश्विक रूप से स्वीकृत नियमों के तहत हो रही है।
आईसीएमआर का कहना है कि वैक्सीन का जानवरों और इंसानों पर एक साथ परीक्षण किया जा सकता है।
साथ ही वैक्सीन का ट्रायल मुश्किल से मुश्किल प्रयोगों के साथ होगा और ज़रूरत पड़ने पर डाटा सेफ़्टी मॉनिटरिंग बोर्ड इसकी समीक्षा कर सकता है।
भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने उम्मीद जताई है कि भारत में बन रही कोरोना वैक्सीन 15 अगस्त तक लॉन्च हो जानी चाहिए। आईसीएमआर ने इस वैक्सीन के ट्रायल से जुड़े संस्थानों को ख़त लिखकर ये बात कही।
इस स्वदेशी वैक्सीन को आईसीएमआर और हैदराबाद स्थित भारत बायोटेक कंपनी मिलकर बना रही है।
आईसीएमआर का कहना है कि एक बार क्लीनिकल ट्रायल पूरा हो जाए तो 15 अगस्त यानी भारत की आज़ादी के दिन इस वैक्सीन को आम लोगों के लिए लॉन्च किया जा सकता है।
क्लीनिकल ट्रायल के लिए भारत के 12 संस्थानों को चुना गया है। आईसीएमआर के निदेशक डॉक्टर बलराम भार्गव ने दो जुलाई को इन 12 संस्थानों को ख़त लिखकर कहा कि उन्हें सात जुलाई तक क्लीनिकल ट्रायल की इजाज़त ले लेनी चाहिए।
अपने पत्र में डॉक्टर भार्गव ने लिखा, ''कोरोना को रोकने के लिए आईसीएमआर के ज़रिए बनाई गई वैक्सीन के फ़ास्ट-ट्रैक ट्रायल के लिए भारत बायोटेक कंपनी के साथ एक समझौता किया गया है। कोरोनावायरस से एक स्ट्रेन निकालकर इस वैक्सीन को बनाया गया है।
''क्लीनिकल ट्रायल के बाद आईसीएमआर 15 अगस्त तक लोगों को ये वैक्सीन उपलब्ध कराना चाहता है। भारत बायोटेक भी युद्ध स्तर पर काम कर रही है। लेकिन इस वैक्सीन की सफलता उन संस्थानों के सहयोग पर निर्भर है जिन्हें क्लीनिकल ट्रायल के लिए चुना गया है।''
आज तकनीक ने इंसान की ज़िंदगी को बहुत आसान बना दिया है। दुनिया भर में लागू लॉकडाउन के इस दौर में तो ये तकनीकी उपकरण और भी कारगर साबित हुए हैं।
आज दुनिया के विकसित देशों में कई लोगों के घरों में ऐसे स्मार्ट डिवाइस हैं जो हमारे इशारों पर काम करते हैं।
अलेक्सा से लेकर सिरी और गूगल होम तक, स्मार्ट लाइट बल्ब, सिक्योरिटी कैमरे और घर के तापमान नियंत्रित करने वाले थर्मोस्टेट इसकी मिसाल हैं।
इन्हें तकनीक की भाषा में इंटरनेट ऑफ़ थिंग कहते हैं (IoT)। यहां तक कि हम अपनी रसोई में जिन उपकरण का इस्तेमाल करते हैं उनमें भी कई तरह के सेंसर लगे होते हैं।
लेकिन दुनिया के विकासशील देशों और पिछड़े देशों में ऐसे स्मार्ट डिवाइस की सिर्फ कल्पना की जा सकती है। इन देशों में कुछ लोगों के पास ऐसे स्मार्ट डिवाइस हैं। असल में विकसित देशों में ऐसे स्मार्ट डिवाइस का चलन ज्यादा है।
कहा जा रहा है कि अगले दस साल में इनका इस्तेमाल और बढ़ने की संभावना है। लेकिन बहुत से लोग इन डिवाइस के बढ़ते इस्तेमाल से ख़ौफ़ज़दा हैं।
वो इन्हें जासूस कहते हैं। ऐप, या इंटरनेट से चलने वाली डिवाइस हमारे आदेशानुसार चलते हैं। हम इन्हें जो भी कमांड देते हैं वो इनमें स्टोर हो जाती हैं।
इस जानकारी का इस्तेमाल किसी भी रूप में किया जा सकता है।
एक रिसर्च तो ये भी कहती है कि स्मार्ट डिवाइस का इस्तेमाल घरेलू हिंसा को बढ़ावा दे रहा है और रिश्तों में कड़वाहट ला रहा है।
ख़ासतौर से स्मार्टफ़ोन का इस्तेमाल तो सबसे ज़्यादा ख़तरनाक है। इससे किसी भी इंसान की निजता पूरी तरह ख़त्म हो जाती है।
स्मार्टफ़ोन के लिए कई ऐसे ऐप हैं, जिनसे किसी भी शख़्स की जासूसी उसकी जानकारी के बिना हो सकती है।
बहुत से मां-बाप अपने बच्चों पर नज़र रखने के लिए इनका इस्तेमाल करते हैं। हमारे घरों में लगे कैमरे भी बाहर वालों के साथ-साथ घर वालों पर भी नज़र रखते हैं।
घर में कौन आया, किस कमरे में गया, कितनी देर वहां रहा सब कुछ आपको घर से दूर रहने पर भी पता चल जाता है।
यहां तक कि आप कब घर से बाहर निकले, कब घर के अंदर आए ये जानकारी भी आपके कैमरे में मौजूद रहती है जिसका इस्तेमाल किसी भी रूप में किया जा सकता है।
अगर घर में इंटरनेट से चलने वाले ताले लगे हैं, तो घर से दूर रहने पर भी किसी को घर में बंद किया जा सकता है।
स्मार्ट डिवाइस बनाने वालों ने सोचा भी नहीं होगा कि इनका इस्तेमाल एक दूसरे की ज़िंदगी को नियंत्रित करने और उस पर नज़र रखने के लिए किया जा सकता है।
लेकिन ऐसा हो रहा है। इसकी मिसाल हम एक केस में देख भी चुके हैं।
ब्रिटेन में रॉस केयर्न्स नाम के एक व्यक्ति ने घर में तापमान नियंत्रित करने वाले माइक्रोफ़ोन टेबलेट से अपनी पत्नी की जासूसी की थी, जिसके जुर्म में उसे 11 महीने की सज़ा हुई थी।
ऐसे कई और मामले भी सामने आ चुके हैं। जानकारों का कहना है कि एक-दूसरे को बुरा-भला कहना, मारपीट करना रिश्तों में कड़वाहट लाने के पुराने तरीक़े हैं।
लेकिन स्मार्ट डिवाइस के ज़रिए जिस तरह के अपराध हो रहे हैं वो ज़्यादा ख़तरनाक हैं।
एक ही घर में जब तमाम स्मार्ट डिवाइस का कंट्रोल घर के किसी एक व्यक्ति के हाथ में होता है, तो वहां रहने वाले अन्य व्यक्तियों से नियंत्रण छिन जाता है।
वो जैसे चाहे इसका इस्तेमाल कर सकता है।
डिवाइस के ज़रिए की जाने वाली निगरानी धीरे-धीरे पीछा करने की सूरत अख़्तियार कर लेती है। घर में तकरार शुरू हो जाती है।
फिर ये तकरार किस हद तक पहुंचेगी, कहना मुश्किल है।
दुनिया भर में लगभग एक तिहाई महिलाओं ने अपने साथी से किसी ना किसी रूप में शारीरिक या यौन शोषण का अनुभव किया है।
इस तरह की हरकतें बच्चों में अवसाद, गर्भपात, जन्म के समय बच्चे का कम वज़न और एचआईवी के ख़तरे को बढ़ा देती हैं।
कुछ केस में तो तांक-झांक का सिलसिला क़त्ल पर जाकर रुकता है। चोरी छुपे किसी की ताक-झांक करना उसे मानसिक रूप से परेशान करना है।
दुनिया भर में 38 फ़ीसद महिलाओं का क़त्ल उनके मौजूदा या पुराने साथी के हाथों होता है।
जानकार कहते हैं कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर घरेलू हिंसा हमारी कल्पना से कहीं ज़्यादा होती है। ये एक वायरस की तरह है जो एक दूसरे से फैलता है।
2017 की एक स्टडी बताती है कि जो बच्चे अपने घरों में महिलाओं के साथ हिंसा देखते हैं बड़े होकर वो भी वैसा ही करते हैं।
लॉकडाउन के इस समय में भी घरेलू हिंसा के मामले बहुत ज़्यादा बढ़े हैं।
जानकारों ने ये भी चिंता ज़ाहिर की है कि अगर लॉकडाउन अगले 6 महीने के लिए बढ़ाया गया तो घरेलू हिंसा के मामलों में भयानक उछाल आएगा।
बहुत से लोग तो अभी ये भी नहीं जानते कि तकनीक से किस किस तरह से शोषण किया जा सकता है।
मिसाल के लिए जिस कमरे में आप सो रहे हैं, अचानक वहां का तापमान बढ़ा दिया जाए। इंटरनेट कनेक्टेड लॉक से आपको कमरे में बंद कर दिया जाए।
या आधी रात में आचानक डोर बेल बजा दी जाए। घर में घुसने वाले दरवाज़े का कोड आपको बताए बिना बदल दिया जाए।
ये सभी हरकतें आपको दिमाग़ी तौर पर परेशान करने वाली हैं और घरेलू हिंसा के दायरे में आती हैं। लेकिन अक्सर महिलाएं इस बारीकी को समझ नहीं पातीं।
साइबर सिक्योरिटी एक्सपर्ट का कहना है कि अपने पार्टनर के मैसेज की तांकझांक, फ़ोन की लोकेशन ट्रैक करने वाले ऐप या पार्टनर के कैमरे में घुसने की इजाज़त देने वाली डिवाइस में 35 फ़ीसद का इज़ाफ़ा हुआ है।
दिलचस्प बात है कि जिसकी जासूसी की जाती है उसे पता भी नहीं होता। और उसके फ़ोन में ऐप डाल दिया जाता है।
ये सरासर किसी की निजता के अधिकार का हनन और एक बड़ा जुर्म है। लेकिन अफ़सोस की बात है कि ऐसे लोगों पर लगाम कसने के लिए बहुत कम हेल्पलाइन हैं।
ब्रिटेन में रिफ़्यूजी नाम की एक हेल्पलाइन है, जो ऐसे लोगों पर नज़र रखती है। लेकिन देखा गया है कि ऐसी हेल्पलाइन भी बहुत मददगार नहीं हैं।
वो सबसे पहले पीड़ित को पासवर्ड या डिवाइस बदलने का मशवरा देती हैं। और जब ऐसा होता है तो हालात और बिगड़ जाते हैं।
ऐसे जासूसी करने वाले पार्टनर से रिश्ता ख़त्म करके भी पीछा नहीं छूटता।
दरअसल जो लोग इस तरह की जासूसी करते हैं वो एक तरह के दिमाग़ी मरीज़ होते हैं। अगर किसी शख़्स को अपने साथी पर शक है तो वो किसी भी हद तक जा सकता है।
ऐसे लोग सामने वाले की तकलीफ़ में अपनी ख़ुशी तलाशते हैं। अपने साथी से दूर होने के बाद भी वो उसे परेशान करते ही रहते हैं।
हालांकि ऐसे लोगों पर लगाम कसने के लिए क़ानून में बदलाव की बात हो रही है। ऐसी हरकत करने वालों को उनके अंजाम तक पहुंचाने के लिए कई संस्थाएं भी बन रही हैं।
तकनीक हमारी ज़िंदगी को आसान बनाने के लिए है। उसका इस्तेमाल उसी तरह से करना चाहिए न कि उसे हथियार बनाकर अपने ही रिश्तों को तार-तार किया जाए।
रिश्ते भरोसे की बुनियाद पर टिके होते हैं। अगर अपने ही साथी की जासूसी करनी पड़े तो फिर भरोसा कहां है?
भरोसा नहीं तो रिश्ता कैसा? किसी भी बुरे रिश्ते में क़ैद रहने से बेहतर है उससे जल्द से जल्द आज़ाद हो जाना चाहिए।
हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्विन नाम की मलेरिया की दवा से कोरोना वायरस के संक्रमण का इलाज होने के दावों को एक बड़ा आघात लगा है जब फ़्रांस में कोविड रोगियों के इलाज के लिए इसके इस्तेमाल पर रोक लगा दी गई।
फ़्रांस सरकार ने कहा है कि दो सलाहकार संस्थाओं ने ये पाया कि इस दवा के सेहत से जुड़े गंभीर प्रभाव हो सकते है जिसके बाद वहाँ डॉक्टरों के इस दवा को लेने पर रोक लगा दी गई है जो एहतियात के तौर पर इसका सेवन कर रहे थे।
पर कई देशों में इसका इस्तेमाल हो रहा है और कई देशों में इस पर रिसर्च किया जा रहा है।
अमरीका में सरकार ने अस्पतालों में रोगियों को आपातकाल परिस्थितियों में इस दवा के इस्तेमाल की मंज़ूरी दे दी है। लेकिन उसने चेतावनी दी है कि अस्पतालों के बाहर या शोध से अलग इस दवा का प्रयोग नहीं किया जाए क्योंकि इससे दिल को ख़तरा हो सकता है। हालाँकि अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप खुलकर इस दवा को समर्थन देते रहे हैं और उन्होंने कहा कि वे ख़ुद एहतियात के तौर पर इस दवा का सेवन करते रहे हैं।
ब्राज़ील में भी इस दवा पर लगी पाबंदियों में ढील दी गई है और साधारण मामलों से लेकर अस्पतालों में गंभीर रूप से बीमार रोगियों को ये दवा देने की छूट दे दी गई है। ब्राज़ील के राष्ट्रपति जेर बोल्सोनारो इस दवा के इस्तेमाल के पक्षधर रहे हैं।
भारत सरकार ने इसके इस्तेमाल के दायरे को और बढ़ाकर अब इसे एहतियाती दवा के तौर पर स्वास्थ्यकर्मियों को देना तय किया है।
मगर अब किसी भी रिसर्च में ये नहीं कहा गया है कि ये दवा कोरोना संक्रमण का इलाज है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस सप्ताह सुरक्षा कारणों से इस दवा के परीक्षण पर अस्थायी तौर पर रोक लगा दी।
लेकिन और कुछ जगह अध्ययन हो रहे हैं, जैसे स्विस दवा कंपनी नोवार्टिस अमरीका में परीक्षण कर रही है। ऐसे ही ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के समर्थन से थाईलैंड में महिडोल ऑक्सफ़ोर्ड ट्रॉपिकल मेडिसीन रिसर्च यूनिट में भी एक शोध हो रहा है।
अफ़्रीकी देश नाइजीरिया ने कहा है कि वो इस दवा से जुड़ी एक और दवा क्लोरोक्वीन के क्लीनिकल ट्रायल के लिए दबाव डालेगा।
बीते चार दशकों में पहली बार ऐसा हुआ है जब भारत का कार्बन उत्सर्जन कम हुआ है।
इसकी वजह क्या कोरोना वायरस को फैलने से रोकने के लिए लगाया गया लॉकडाउन ही है?
पर्यावरण वेबसाइट कार्बन ब्रीफ़ की रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में लॉकडाउन लागू होने से पहले ही बिजली की खपत कम होने की वजह से और अक्षय ऊर्जा का इस्तेमाल बढ़ने से ईंधन की मांग कम हो गई थी।
फिर मार्च में लागू लॉकडाउन ने बीते सैंतीस सालों में पहली बार भारत में कार्बन उत्सर्जन की बढ़त के ट्रेंड को पलट दिया।
शोध के मुताबिक़ मार्च में भारत का कार्बन उत्सर्जन 15 प्रतिशत कम हुआ है और अप्रैल में तीस प्रतिशत कम होने की उम्मीद (अभी इसके आंकड़े आना बाक़ी है) ज़ाहिर की गई है। यानि दो महीने में कार्बन उत्सर्जन में 45 प्रतिशत की कमी हुई है।
बिजली की माँग में जो भी कमी हुई है उससे कोयला आधारित जेनरेटर ही प्रभावित हुए हैं। और यही शायद कार्बन उत्सर्जन कम होने की वजह भी है।
कोयले से होने वाला बिजली उत्पादन मार्च में 15 प्रतिशत और अप्रैल के पहले तीन सप्ताह में 31 प्रतिशत कम हुआ।
लेकिन लॉकडाउन से पहले ही कोयले की माँग कम होने लगी थी।
शोध के मुताबिक़ मार्च 2020 में समाप्त होने वाले वित्तीय वर्ष में कोयले की बिक्री दो प्रतिशत कम हुई थी।
यूं तो ये आंकड़ा कम है लेकिन जब इसे बीते वर्षों की तुलना में देखा जाए तो ये काफ़ी बड़ा लगता है।
बीते एक दशक में हर साल कोयले से बिजली के उत्पादन में प्रति वर्ष 7.5 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई थी।
भारत में तेल की खपत में भी इसी तरह की कमी नज़र आती है।
साल 2019 की शुरुआत से ही इसकी ईंधन खपत की रफ़्तार धीमी होने लगी थी।
और इसमें भी कोविड-19 की वजह से लागू लॉकडाउन का असर स्पष्ट है।
मार्च में तेल की खपत में बीते साल के मुक़ाबले 18 प्रतिशत की गिरावट आई।
इसी बीच अक्षय ऊर्जा स्रोतों से बिजली की आपूर्ति बढ़ी है और लॉकडाउन के दौरान स्थिर रही है।
हालांकि लॉकडउन की वजह से माँग में कमी के बावजूद अक्षय ऊर्जा स्रोतों के उत्पादन के स्थिर रहने का ये ट्रेंड भारत तक ही सीमित नहीं है।
इंटरनेशनल इनर्जी एजेंसी (आईईए) की ओर से अप्रैल के अंत में प्रकाशित आंकड़ों के मुताबिक़ दुनियाभर में कोयले की खपत 8 प्रतिशत कम हुई है।
वहीं सौर और वायु ऊर्जा की माँग दुनियाभर में बढ़ी है।
बिजली की माँग में कमी का असर कोयले से होने वाले बिजली उत्पादन पर पड़ने की एक वजह ये भी है कि रोज़मर्रा में कोयले से बिजली उत्पादन महंगा पड़ता है।
वहीं एक बार सौर पैनल या विंड टरबाइन लगने के बाद उसे संचालित करने का ख़र्च कम होता है, और इसी वजह से इन्हें इलेक्ट्रिसिटी ग्रिड में प्राथमिकता दी जाती है।
वहीं तेल, गैस या कोयले से संचालित होने वाले थर्मल पॉवर प्लांट के लिए ईंधन ख़रीदना होता है।
हालांकि विशेषज्ञ ये भी कहते हैं कि जीवाश्म ईंधन की खपत में कमी हमेशा नहीं रहेगी।
विशेषज्ञ कहते हैं कि लॉकडाउन हटने के बाद देश अपनी अर्थव्यवस्थाओं को फिर से चलाने की कोशिश करेंगे और थर्मल पॉवर की खपत बढ़ जाएगी और कार्बन उत्सर्जन भी बढ़ेगा।
अमरीका ने पर्यावरण नियमों में ढील देनी शुरू कर दी है और डर ये है कि दुनिया के बाक़ी देश भी ऐसा ही कर सकते हैं।
हालांकि कार्बन ब्रीफ़ के विश्लेषक मानते हैं कि भारत शायद ऐसा न करे और इसके कारण भी हैं।
कोरोना वायरस महामारी ने भारत के कोयला सेक्टर में लंबे समय से चले आ रहे संकट को फिर रेखांकित किया है।
और भारत सरकार 90 हज़ार करोड़ रुपए का पैकेज तैयार कर रही है।
लेकिन भारत सरकार अक्षय ऊर्जा सेक्टर की मदद करने पर भी विचार कर रही है।
भारत में अक्षय ऊर्जा कोयले के मुक़ाबले काफ़ी सस्ती है।
रिपोर्ट में दावा किया गया है कि सौर ऊर्जा पर 2.55 रुपए प्रति किलोवाट प्रति घंटा ख़र्च आता है जबकि कोयले से उत्पादन होने वाली बिजली पर औसतन 3.38 रुपए प्रति किलोवाट प्रति घंटा ख़र्च आता है।
स्वच्छ ऊर्जा में निवेश भारत के राष्ट्रीय स्वच्छ हवा कार्यक्रम के लिए मुफ़ीद भी है। ये कार्यक्रम साल 2019 में शुरू किया गया था।
पर्यावरणविदों का ये भी मानना है कि लॉकडाउन में साफ़ हुई हवा और आसमान देख रहे भारतीय सरकार पर वायु प्रदूषण कम करने और स्वच्छ ऊर्जा में निवेश करने के लिए दबाव बनाएंगे।
कोरोना के ख़िलाफ़ युद्ध में चीन अपने विस्तृत सर्विलांस सिस्टम का इस्तेमाल कर रहा है।
वो तकनीक के ज़रिए न केवल लोगों पर लगातार नज़र रख रहा है बल्कि इसके ज़रिए वो कोरोना वायरस को फैलने से रोक भी रहा है।
आधिकरिक आंकड़ों के अनुसार चीन में कोरोना संक्रमण के ताज़ा मामलों में बड़ी गिरावट आई हैं। जहां पांच सप्ताह पहले रोज़ाना यहां संक्रमण के हजार मामले आते थे, अब वहीं यहां नए मामले लगभग शून्य के बराबर हैं।
चीन की तरह ही कई और देश भी कोरोना को फैलने से रोकने के लिए सर्विलांस सिस्टम का इस्तेमाल कर रहे हैं या फिर इसकी योजना बना रहे हैं। वो जीपीएस ट्रेकिंग कर व्यक्ति पर निगरानी रख रहे हैं। लेकिन क्या ये कारगर तरीका है?
और क्या इससे कोरोना महामारी को रोकने में मदद मिल रही है?