विज्ञान और टेक्नोलॉजी

क्या दुनिया के 5G नेटवर्क पर चीन के कब्जे को अमेरिका रोक पायेगा?

5G तकनीक हाई स्पीड इंटरनेट सर्विस का वादा करती है और इसकी मदद से यूजर किसी फ़िल्म को महज कुछ सेकेंड में डाउनलोड कर लेते हैं। दुनिया के कई हिस्सों में इसकी शुरुआत हो चुकी है।

4G ने लोगों के अनुभवों को बहुत बदल दिया, ख़ासकर मोबाइल वीडियो और गेमिंग के अनुभव को। 5G और बदलाव लाएगा।

अमरीका और ब्रिटेन में 5G नेटवर्क की शुरुआत पर ख्वावे पर लगे प्रतिबंधों का भी असर पड़ा है।

सुरक्षा कारणों का हवाला देते हुए अमेरिका ने चीनी कंपनी ख्वावे के उपकरणों का 5G नेटवर्क में इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया है और अपने सहयोगियों को भी ऐसा करने की सलाह दी है।

अमरीकी कंपनियां ख्वावे को क्या बेच सकती हैं, इस पर भी नियंत्रण रखा जा रहा है। यही कारण है कि दुनियाभर में ख्वावे के फोन की बिक्री में गिरावट आई है।

वित्तीय सेवा समूह जेफरीज के विश्लेषक और इंडस्ट्री के जानकार एडिसन ली इसे दुनिया के 5G बाजार पर अमरीका के प्रभुत्व जमाने की कोशिश के रूप में देखते हैं।

वो मानते हैं कि ख्वावे पर अमरीका ने दबाव इसलिए बनाया है ताकि चीन को इस क्षेत्र में बादशाह बनने से रोका जा सके।

वो कहते हैं, "इस टेक वॉर के पीछे अमरीका का तर्क है कि चीन बौद्धिक संपदा की चोरी कर तकनीक के क्षेत्र में आगे बढ़ रहा है और सरकार इस पर बेतहाशा ख़र्च कर रही है। उसका मानना है कि चीनी दूरसंचार उपकरण सुरक्षित नहीं हैं। यह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा है।''

वो आगे जोड़ते हैं, "जैसे-जैसे दूरसंचार उपकरण के वैश्विक बाजार में ख्वावे और ZTE का दखल बढ़ता जाएगा, पश्चिम के देश जासूसी का मुद्दा जोर-शोर से उठाएंगे।''

ख्वावे ने हमेशा इन आरोपों को खारिज किया है कि उसकी तकनीक का इस्तेमाल जासूसी के लिए किया जा सकता है।

एक ओर जहां पश्चिम के देश ख्वावे को लेकर चिंतित हैं, वहीं दूसरी ओर चीन इस क्षेत्र में काफी आगे बढ़ गया है।

31 अक्तूबर को चीन की दूरसंचार कंपनियों ने 50 से ज़्यादा शहरों में 5G सेवा की शुरुआत की, जिसके बाद यहां दुनिया का सबसे बड़ा 5G नेटवर्क अस्तित्व में आया। इसका क़रीब 50 फ़ीसदी हिस्सा ख्वावे ने तैयार किया है।

चीन के सूचना मंत्रालय का दावा है कि महज 20 दिनों में इस सेवा से 8 लाख से ज़्यादा लोग जुड़े हैं। विश्लेषकों का अनुमान है कि चीन में 2020 तक 11 करोड़ 5G यूजर होंगे।

चीन अब इस नई तकनीक के नई तरह के इस्तेमाल पर काम कर रहा है।

उत्तरी हॉन्गकॉग के एक बड़े भूभाग पर शोधकर्ता वैसी गाड़ियां विकसित कर रहे हैं, जो 5G की मदद से खुद चलेंगी।

हॉन्गकॉन्ग एप्लाइड साइंस एंड टेक्नोलॉजी रिसर्च इंस्टीट्यूशन के शोधकर्ता चीन की सबसे बड़ी दूरसंचार कंपनी चाइना मोबाइल के साथ मिल कर यह काम कर रहे हैं।

वे मानते हैं कि सेल्फ ड्राइविंग कार यानी खुद से चलने वाली कारों के लिए 5G उपयोगी साबित हो सकती है। इसके ज़रिए सड़कों पर गाड़ियां एक-दूसरे से बेहतर संपर्क स्थापित कर पाएंगी, साथ में इसका भी सटीक पता चल पाएगा कि आसपास क्या चल रहा है।

5G की शुरुआत करने वाला चीन दुनिया का पहला देश नहीं है। कई अन्य देश इसकी शुरुआत पहले कर चुके हैं, लेकिन इसने जिस तेज़ी से वैश्विक बाजार में अपना प्रभुत्व जमाया है, पश्चिम के देश इसे लेकर खासा चिंता में हैं।

ख्वावे और ZTE जैसी कंपनियां इसका भरपूर फायदा उठा रही हैं और विदेशी बाज़ारों में अमरीका को टक्कर दे रही हैं।

नवंबर में बीजिंग में हुए 5G सम्मेलन में चीन के उद्योग और सूचना मंत्री ने आरोप लगाया था कि अमरीका साइबर सिक्योरिटी का इस्तेमाल अपनी कंपनियों को संरक्षण देने के लिए कर रही है।

मियाओ वी ने कहा था, "किसी भी देश को इसके 5G नेटवर्क के विस्तार में किसी कंपनी को सिर्फ़ आरोपों के आधार पर रोका नहीं जाना चाहिए, जो कभी सिद्ध नहीं किए गए हों।''

क्या भारत साइबर हमले से निपटने में सक्षम है?

बीते महीने तमिलाडु स्थित भारत के सबसे बड़े परमाणु संयंत्र कोडनकुलम में हुए साइबर अटैक ने भारत के साइबर सुरक्षा पर बड़े सवाल खड़े कर दिए।

इस ख़बर के फैलने के बाद इस बात पर चर्चा होने लगी है कि क्या भारत किसी भी साइबर हमले से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार है? क्या वह अपने महत्वपूर्ण आधारभूत ढांचों को हानि पहुँचाने वाले डिजिटल हमलों से बचा सकता है?

इस बहस ने एक और बड़े मुद्दे को हवा दे दी है, क्या भारत डेबिट कार्ड हैकर और दूसरे वित्तीय फ्रॉड से बचने के लिए तैयार है, क्योंकि ये भारत के करोड़ों लोगों का मुद्दा है।

पिछले ही महीने, भारतीय रिज़र्व बैंक ने बैंकों को एक चेतावनी दी है। यह चेतावनी सिंगापुर स्थित साइबर सिक्यूरिटी फ़र्म ग्रुप - आईबी की चेतावनी के बाद आया है जिसमें कहा गया था कि क़रीब 12 लाख डेबिट कॉर्ड के डिटेल्स ऑनलाइन उपलब्ध हैं।

बीते साल, हैकरों ने पुणे के कोस्मो बैंक के खातों से 90 करोड़ रुपये की फ़र्ज़ी ढंग से निकासी कर ली थी, ऐसा उन्होंने बैंक के डाटा सप्लायर पर साइबर हमले करके किया था।

ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन के साइबर इनिशिएटिव के प्रमुख अरुण सुकुमार ने बीबीसी को बताया, "भारत की फ़ाइनेंशियल सिस्टम पर हमला करना आसान है क्योंकि हम अभी भी ट्रांजैक्शन के लिए स्विफ्ट जैसे इंटरनेशनल बैंकिंग नेटवर्क पर निर्भर हैं। इंटरनेशनल गेटवेज़ की वजह से हमला करना आसान है।''

साइबर सिक्यूरिटी कंपनी सायमन टेक की एक रिपोर्ट बताती है कि ऐसे साइबर हमलों के लिए शीर्ष तीन ठिकानों में भारत एक है।

हालांकि भारत की विशाल डिजिटल आबादी को देखते हुए इसमें कमी आएगी। हर महीने फ्रांस जितनी आबादी भारत में कंप्यूटर से जुड़ रही है और यही बात सबसे बड़ी चिंता की है क्योंकि पहली बार इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों को भी डिजिटल पेमेंट करने के लिए कहा जा रहा है।

उदाहरण के लिए, नवंबर 2016 में भारत सरकार ने अचानक से 500 रुपये और 1000 रुपये के नोट के चलन पर रोक लगा दी, यह देश में मौजूद कुल रक़म का 80 प्रतिशत हिस्सा थे। इसके विकल्प के तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डिजिटल पेमेंट को काफ़ी प्रमोट किया।

भारतीय पेमेंट प्लेटफॉर्म पेटीएम हों या फिर इंटरनेशनल प्लेटफॉर्म गूगल पे हो, दोनों का कारोबार भारत में काफ़ी बढ़ गया है। क्रेडिट सुइसे की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ 2023 तक भारत में मोबाइल के ज़रिए एक ट्रिलियन डॉलर की पेमेंट होने लगेगी। क्रेडिट और डेबिट कार्ड का इस्तेमाल भी काफ़ी लोकप्रिय है। आज की तारीख़ में भारत में क़रीब 90 करोड़ कार्ड इस्तेमाल हो रहे हैं।

टेक्नालॉजी एक्सपर्ट प्रशांतो राय ने बीबीसी को बताया, "भारत में इंटरनेट का इस्तेमाल काफ़ी नए लोग कर रहे हैं, इनकी आबादी 30 करोड़ से ज़्यादा है। ये मध्य वर्ग या निम्न वर्ग के लोग हैं। जिनकी डिजिटल साक्षरता बेहद कम है। इनमें विभिन्न राज्यों में काम करने वाले दिहाड़ी मज़दूर हैं जो इसकी भाषा को नहीं समझते, उनके साथ धोखाधड़ी होने की आशंका बहुत ज्यादा है।''

इसके अलावा प्रशांतो राय दूसरी समस्या की ओर भी इशारा करते हैं, "दूसरी बात यह है कि बैंकों के फ्रॉड के बारे में काफ़ी कम रिपोर्टिंग होती है, कई बार उपभोक्ताओं को मालूम ही नहीं होता है कि आख़िर क्या हुआ था?"

भारत में वित्तीय धोखाधड़ी कई तरह से होती है। कुछ हैकर्स धोखाधड़ी के लिए एटीएम मशीनों में कार्ड की नक़ल उतारने वाले स्किमर्स लगा देते हैं या कीबोर्ड में कैमरा लगा देते हैं। इसके ज़रिए बिना किसी संदेह के आपके कार्ड का डुप्लीकेट तैयार हो जाता है। वहीं कुछ हैकर्स आपको फोन करके आपसे जानकारी निकालने की कोशिश करते हैं।

प्रशांतो राय बताते हैं, "भारत में डिजिटल ट्रांजैक्शन की प्रक्रिया धुंधली और कंफ्यूज करने वाली है। वास्तविक दुनिया में ये पता रहता है कि कौन पैसा ले रहा है और कौन दे रहा है लेकिन मोबाइल पेमेंट प्लेटफॉर्म में यह हमेशा स्पष्ट नहीं होता है। उदाहरण के लिए, कोई शख़्स ऑनलाइन एक टेबल बेच रहा है, कोई ख़रीददार बनकर ऑनलाइन पेमेंट करने की बात करता है।''

"इसके बाद वह बताता है कि उसने पेमेंट कर दिया है और आपको टेक्स्ट मैसेज के ज़रिए एक कोड मिलेगा। यह भुगतान सुनिश्चित करने के लिए होगा। ज्यादातर उपभोक्ता इसके बारे में नहीं सोचते और वे उस शख्स को इस कोड के बारे में बता देते हैं। अगली बात उन्हें यह पता चलती है कि उनके एकाउंट से ही पैसे निकल गए हैं।''

समस्या यह है कि सिस्टम ख़ुद में ना तो सुरक्षित है और ना ही पारदर्शी।  कोस्मो बैंक की धोखाधड़ी में यह बात सामने आई थी कि साफ्टवेयर इतने बड़े ट्रांजैक्शन के दौरान पैटर्न में आए मिस्मैच को नहीं पकड़ पाया। जब तक फ्रॉड पकड़ में आया तब तक बहुत बड़ी रक़म का नुक़सान हो चुका था।

किसी मानक के नहीं होने से भी, पहली बार उपयोग करने वालों के लिए ऑनलाइन ट्रांजैक्शन काफ़ी कंफ्यूजन पैदा करने वाला है। उदाहरण के लिए एटीएम मशीनों को देखिए, ये कई तरह के होते हैं और हर पेमेंट ऐप का इंटरफेस अलग-अलग है।

सुकुमार एक दूसरी बात भी सुझाते हैं, उनके मुताबिक़ यह लोगों की भी समस्या है, लोगों में सामान्य जागरुकता का अभाव है, जिसके चलते वे ख़ुद को और पूरी व्यवस्था को जोखिम में डाल लेते हैं।

सुकुमार बताते हैं, "कीबोर्ड का इस्तेमाल करने वाले लोगों को भी सावधानी बरतने की ज़रूरत है। कोडनकुलम न्यूक्लियर प्लांट में जिस वायरस का हमला हुआ है, वह वहां एक कर्मचारी की वजह से ही पहुंचा था जिसने बाहर की एक यूएसबी को सिस्टम के कंप्यूटर में लगाया था।  इससे पूरे प्लांट के सिस्टम को ख़तरा हुआ। ऐसा ही किसी बैंक या फाइनेंशियल इंस्टीट्यूशन में संभव है।''

प्रशांतो राय के मुताबिक़ फाइनेंशियल ट्रांजैक्शन की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सरकार और वित्तीय संस्थानों की है ना कि उपभोक्ताओं की।

वे बताते हैं, "भारत में जिस रफ्तार से इंटरनेट का इस्तेमाल बढ़ रहा है, उसे देखते हुए इसे केवल शिक्षा के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। शातिर और दक्ष हैकरों पर नज़र रखना हर किसी के लिए संभव नहीं है क्योंकि वे लगातार अपनी रणनीति और तरीक़ों को बदलते रहते हैं। ऐसे में किसी फ्रॉड को रोकने की ज़िम्मेदारी रेगुलेटरों की है।''

इसके अलावा, विभिन्न साइबर सिक्यूरिटी संस्थानों के बीच आपसी संवाद की रफ्तार भी बहुत धीमी है। भारत के डिजिटल आधारभूत ढांचों की सुरक्षा करने वाले कंप्यूटर इमरजेंसी रिस्पांस टीम (सीईआरटी) कई बार सरकार को ख़तरों के बारे में समय से जानकारी मुहैया नहीं करा पाती है।

लेकिन भारत सरकार को समस्या को अंदाज़ा है। यही वजह है कि देश 2020 के लिए राष्ट्रीय साइबर सिक्यूरिटी पॉलिसी तैयार कर रहा है। इसमें उन छह अहम क्षेत्रों की पहचान की गई है जिसमें स्पष्ट नीति की ज़रूरत महसूस की जा रही है। इनमें फाइनेंस सिक्यूरिटी भी शामिल है।

प्रशांतो राय के मुताबिक़ देश के अंदर हर अहम क्षेत्र का अपना कंप्यूटर इमरजेंसी रिस्पांस टीम (सीईआरटी) होना चाहिए, जिसके बीच आपसी संवाद हो और सरकार संयोजक की भूमिका निभाए।

ऐसा होने की सूरत में ही भारत के कैशलेस इकॉनमी बनने की राह में आने वाले ख़तरों पर प्रभावी ढंग से अंकुश लग पाएगा।

क्या पायलट के बग़ैर उड़ सकने वाले विमानों के सपने पूरे होंगे?

आज का दौर ऑटोमेशन का है। सब काम मशीनें ख़ुद करना सीख रही हैं।  बिना ड्राइवर की कार के बाद जल्द ही बिना पायलट वाले हवाई जहाज़ आने वाले हैं। इस साल पेरिस एयर शो में यूरोपीय विमान निर्माता कंपनी एयरबस ने कहा कि वो बिना पायलट वाले विमान के लिए एयर ट्रैफ़िक के नियंत्रकों को राज़ी करने की कोशिश कर रही है।

आज दुनिया भर में विमान यात्राएं करने वालों की तादाद लगातार बढ़ रही है। इसके लिए अगले 20 साल में 8 लाख पायलटों की ज़रूरत होगी।  लेकिन, नए पायलटों की उपलब्धता इस ज़रूरत को पूरा नहीं कर पा रही है। अमरीकी एयरलाइन कंपनी बोइंग का कहना है कि पायलटों की कमी, उड्डयन उद्योग के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनने जा रही है।

इस चुनौती से निपटने में नई तकनीक मदद कर सकती है। पायलट के बग़ैर उड़ सकने वाले विमानों की आमद स्वागत योग्य तो है, लेकिन इस राह में बड़ी चुनौतियां भी हैं। इन में से तीन प्रमुख हैं।

कोई भी नई चीज़ आती है, तो किसी को फ़ायदा होता है और किसी को नुक़सान। जब कारों को ईजाद किया गया तो उससे रेलवे में रोज़गार करने वालों को झटका लगा। रेलगाड़ियों से चलने वालों की संख्या में कमी आई। इससे पहले जब रेलवे का आविष्कार हुआ था, तो उसने नहरों और नदियों से होने वाले परिवहन को कमोबेश ख़त्म कर दिया था। इसका नतीजा ये हुआ था कि कुछ लोगों को नई नौकरियां मिलीं। वहीं पुराने पेशे में काम करने वाले कुछ लोगों की नौकरियां चली गईं।

निकोलस कार ने अपनी किताब 'द ग्लास केज' में ये बात बड़े अच्छे अंदाज़ में कही है। निकोलस ने लिखा है कि, 'ऐसा कोई भी आर्थिक नियम नहीं है कि नई तकनीक से सभी को फ़ायदा ही होगा।'

बिना पायलट वाले विमान इसकी बढ़िया मिसाल हैं। इस तकनीक से हवाई यात्रा में तो इंक़लाब आएगा। लेकिन, इसकी क़ीमत नौकरियां गंवा कर हासिल होगी। बहुत से पायलटों की नौकरी चली जाएगी। एयरलाइन उद्योग में दसियों हज़ार लोग नौकरी करते हैं। जो अरबों मुसाफ़िरों को उनकी मंज़िलों तक पहुंचाते हैं। ये काम मशीनों के हवाले करने से इसे करने वालों की नौकरी ख़त्म हो जाएगी। फिर उन्हें रोज़ी चलाने के लिए नया हुनर सीखना होगा।

यहीं राजनीति होने लगती है। एयरलाइनों के पायलटों की मज़बूत यूनियनें हैं। जो मोलभाव करती हैं। एयरलाइन कंपनियों पर दबाव बनाकर अपनी शर्तें मनवाती हैं।

जैसे कि एयरलाइन पायलट एसोसिएशन यानी अल्पा (Alpa)। दुनिया भर में इसके 63 हज़ार सदस्य हैं। 1960 के दशक में विमानों के कॉकपिट में तीन क्रू मेंबर हुआ करते थे। दो पायलट और एक फ्लाइट इंजीनियर होता था। लेकिन, तकनीक की तरक़्क़ी से फ्लाइट इंजीनियर की ज़रूरत नहीं रह गई। लेकिन पायलट एसोसिएशन ने इसका विरोध किया। जिसकी वजह से फ्लाइट इंजीनियरों को दूसरी नौकरी दी गई। ऐसे ही मोलभाव हम तब देखेंगे, जब बिना पायलट वाले विमान लॉन्च होंगे।

इन पायलटों के साथ लड़ाई में वो लोग भी शामिल होंगे, जो पायलटों को ट्रेनिंग देते हैं। इसी तरह वो यूनिवर्सिटी, कॉलेज और फ्लाइट स्कूल होंगे, जो पायलट तैयार करते हैं। क्योंकि पायलटलेस तकनीक से इनकी नौकरियों को भी ख़तरा होगा।

विमान सस्ते नहीं होते हैं। बोइंग 737 जैसा विमान क़रीब 10 करोड़ डॉलर में आता है। इससे बड़ा यानी बोइंग 777 विमान क़रीब 30 करोड़ डॉलर का पड़ता है। 2011 में अमेरिकन एयरलाइंस ने अपने विमानों के बेड़े की मरम्मत में 30 अरब डॉलर ख़र्च किए थे। भारतीय एयरलाइन इंडिगो ने भी अपने विमानों की मरम्मत में मोटी रक़म ख़र्च किए थे। इस लागत को वसूल करने के लिए कंपनियों को विमानों की उड़ान बढ़ानी पड़ती है। इससे हादसे होने के ख़तरे बढ़ जाते हैं।

इस नुक़सान से बचने के लिए एयरलाइन कंपनियां बीमा कराती हैं।  एयरलाइंस, बीमा कराने का प्रीमियम कितना देती हैं, इसका सिर्फ़ अंदाज़ा लगाया जा सकता है। लेकिन, बीमा कंपनियां प्रतिद्वंदी से मुक़ाबले के लिए अपने रेट छुपा कर रखती हैं। लेकिन, एयरलाइन उद्योग को इसके लिए हर साल अरबों रुपए ख़र्च करने पड़ते हैं। इसका असर उनके मुनाफ़े पर भी पड़ता है।

सवाल ये उठता है कि अगर बिना पायलट वाले विमान आ गए, तो इसका बीमा पर कितना असर पड़ेगा? होना तो ये चाहिए कि बीमा का प्रीमियम कम हो जाए। क्योंकि मशीनें बेहतर तरीक़े से विमान उड़ाएंगी। इससे हादसों की आशंका कम होगी। हालांकि हक़ीक़त में बीमा कम होगा, ये अभी नहीं कहा जा सकता है।

आज के विमान आला दर्ज़े की तकनीक की मदद से उड़ते हैं। जिससे हादसों की आशंका कम होती जाती है। ये विमान हज़ारों कोड की मदद से उड़ाए जाते हैं। लेकिन, इनसे नए तरह का ख़तरा पैदा होता है। 2015 में बोइंग के ड्रीमलाइनर का एक सॉफ्टवेयर गड़बड़ था, जिसे इंजीनियर पकड़ नहीं सके। इससे उस में आग लगने का ख़तरा जताया गया था।  एयरबस 350 में भी हाल ही में ऐसी ही कमी पकड़ी गई। ये भी सॉफ्टवेयर की कमी से हुआ था।

आज विमानों के कोड हैक किए जाने का भी ख़तरा सामने खड़ा है। 2008 में ही सरकारों ने ये आशंका जताई थी कि बोइंग के ड्रीमलाइनर को कंप्यूटर से हैक किया जा सकता है। फिर पायलट जो कमांड देगा, वो विमान नहीं मानेगा।

बिना पायलट वाले विमानों के साथ ये ख़तरा और बढ़ेगा। ख़तरा बढ़ेगा, तो विमानों का बीमा भी बढ़ेगा।

पायलटों को मोटी तनख़्वाह मिलती है। पांच साल के तजुर्बे वाले पायलटों की तनख़्वाह 1.5 लाख डॉलर की दर से शुरू होती है। वहीं सीनियर पायलटों की तनख़्वाह 2.5 लाख डॉलर तक हो सकती है। अब एयरलाइन उद्योग अपने ख़र्च घटा रहे हैं। ऐसे में बिना पायलट वाले विमानों से पायलटों की तनख़्वाह में जाने वाली ये मोटी रक़म बचाई जा सकती है।

स्विस बैंक यूबीएस का अनुमान है कि कॉकपिट से इंसानों को हटा देने से हर साल क़रीब 35 अरब डॉलर का ख़र्च बचाया जा सकता है। इससे एयरलाइन उद्योग का ख़र्च कम होगा। इसीलिए एयरबस और बोइंग कंपनियां पायलटलेस विमानों को लेकर उत्साहित हैं।

हालांकि आटोमैटिक होने का ये मतलब नहीं कि विमान उड़ाने में इंसानों की ज़रूरत ख़त्म हो जाएगी। हां उनकी संख्या कम ज़रूर होगी। अगर इमरजेंसी के लिए भी विमान में एक पायलट होगा, तो भी विमान कंपनियों का ख़र्च क़रीब 20 अरब डॉलर तक कम होगा।

मगर, इसमें विमान निर्माताओं को आशंका है। वो कहते हैं कि अगर एक पायलट विमान में होगा और एक ज़मीन से निगरानी करेगा, तो वो एक साथ कितने विमानों की निगरानी कर सकेगा? और दूसरा पायलट रखना ही पड़ा, तो उसका ख़र्च विमान कंपनियों को क़रीब 12 अरब डॉलर का पड़ेगा।

इसका मतलब ये हुआ कि एयरलाइंस का इतना मुनाफ़ा कम हो जाएगा।  कुल मिलाकर, पायलट के बग़ैर उड़ने वाले इस विमान पर कमोबेश उतना ही ख़र्च विमान कंपनियों को देना होगा। हां, अगर ज़मीन पर मौजूद एक पायलट कई विमानों पर नज़र रख सकेगा, तो एयरलाइंस का ख़र्च कम होगा। लेकिन, इसमें जोखिम भी होगा। क्योंकि सवाल ये होगा कि अगर कोई विमान मुश्किल में होगा तो उसकी मदद करते हुए क्या ज़मीन में बैठा पायलट दूसरे विमानों की निगरानी कर सकेगा?

जब तक इंसान में ये ख़ूबी नहीं आएगी, बिना पायलट वाले विमानों का सपना अधूरा ही रहेगा। 

तीन वैज्ञानिकों को फ़िजिक्स का मिला नोबेल पुरस्कार

फ़िज़िक्स के क्षेत्र में साल 2019 के लिए नोबेल पुरस्कार की घोषणा कर दी गई है। इस बार तीन साइंटिस्ट को भौतिक विज्ञान में योगदान के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया है।

जेम्स पीबल्स को ब्रह्माण्ड विज्ञान पर नए सिद्धांत रखने के लिए जबकि मिशेल मेयर और डिडिएर क्वेलोज को सौरमंडल से परे एक और ग्रह खोजने के लिए संयुक्त रूप से पुरस्कार दिया गया है।

जेम्स पीबल्स कनाडाई मूल के अमेरिकी नागरिक हैं। उन्होंने बिग बैंग, डार्क मैटर और डार्क एनर्जी पर जो काम किया है, उसे आधुनिक ब्रह्मांड विज्ञान का आधार माना जाता है।

मिशेल और डिडिएर ने 51 पेगासी बी ग्रह की खोज की थी। गैस से बना यह विशाल ग्रह पृथ्वी से 50 वर्ष दूर एक तारे की परिक्रमा कर रहा है।

इस साल पुरस्कार की राशि का आधा हिस्सा जेम्स को मिलेगा, जबकि दूसरे हिस्से को मेयर और डिडिएर के बीच आधा-आधा बांट दिया जाएगा।

'द नोबेल प्राइज़' ने ट्वीट कर बताया है कि फिज़िक्स में नोबेल का ऐलान रॉयल स्वीडिश अकैडमी ऑफ़ साइंस के जनरल सेक्रेटरी गोरान के हैन्सन ने किया।

पुरस्कार की घोषणा के बाद जेम्स पीबल्स ने विज्ञान के छात्रों को सीख देते हुए कहा कि जो नए लोग विज्ञान की दुनिया में आ रहे हैं, उनके लिए मेरी सलाह है कि उन्हें विज्ञान से प्रेम करते हुए इसे अपनाना चाहिए।

जेम्स का जन्म 1935 में कनाडा के विनिपेग में हुआ था। फिलिप जेम्स एडविन पीबल्स ओएम एफआरएस एक कनाडाई-अमेरिकी खगोल भौतिकीविद्, खगोलविद और सैद्धांतिक ब्रह्मांड विज्ञानी हैं, जो वर्तमान में प्रिंसटन विश्वविद्यालय में विज्ञान के अल्बर्ट आइंस्टीन प्रोफेसर एमेरिटस हैं।

मिशेल मेयर का जन्म 1942 में स्विट्ज़रलैंड में हुआ था। वह यूनिवर्सिटी ऑफ़ जिनीवा में प्रोफ़ेसर हैं। डिडिएर क्वेलोज का जन्म 1966 में हुआ था। वह यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैंब्रिज में प्रोफ़ेसर हैं।

नासा ने जारी की विक्रम की हार्ड लैंडिंग साइट की तस्वीरें

अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने इसरो के चंद्रयान-2 की लैंडिंग साइट की कुछ नई और 'हाई रेज़ोल्यूशन' तस्वीरें जारी की हैं।

नासा ने ये तस्वीरें अपनी वेबसाइट और सोशल मीडिया अकाउंट्स पर शेयर की हैं।  

26 सितंबर को इन तस्वीरों को ट्वीट करते हुए नासा ने लिखा है: "हमने भारत के चंद्रयान-2 के विक्रम लैंडर की लैंडिग साइट की ये तस्वीरें खीचीं हैं। तस्वीरें अंधेरे में ली गई हैं इसलिए लैंडर की स्थिति का पता नहीं लगाया जा सका। अक्टूबर महीने में रोशनी ज़्यादा होने पर और तस्वीरें ली जाएंगी।''

नासा ने अपनी वेबसाइट पर लिखा है कि चंद्रयान-2 के विक्रम लैंडर ने सात सितंबर को चांद की सतह पर हार्ड लैंडिंग की थी यानी यह ज़ोर से टकराया था।

विक्रम की लोकेशन का पता नहीं

ये तस्वीरें 'लूनर रेकॉन्सेन्स ऑर्बिटर कैमरा' (LROC) से ली गई हैं। यह कैमरा 17 सितंबर को लैंडिंग साइट के ऊपर से होकर गुज़रा था। तस्वीरें केंद्र से 150 किलोमीटर दूरी से ली गई हैं।

नासा ने कहा है कि अब तक उसकी टीम विक्रम लैंडर की तस्वीर ले पाने या उसकी लोकेशन का पता लगा पाने में सफल नहीं हुई है।

वेबसाइट पर कहा गया है जब ये तस्वीरें ली गईं तब अंधेरा था और मुमकिन है कि विक्रम लैंडर बड़ी-बड़ी परछाइयों में कहीं छिप गया हो।

नासा ने अपने बयान में ये भी कहा है कि स्पेसक्राफ्ट किस लोकेशन पर लैंड हुआ अभी यह निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता।

भारत के चंद्रयान-2 के विक्रम लैंडर को 7 सितंबर को चांद की सतह पर लैंड करना था। चांद पर सॉफ़्ट लैंडिंग का यह भारत का पहला प्रयास था जो कामयाब नहीं हो सका।

विक्रम लैंडर ने एक समतल धरातल पर लैंडिंग की कोशिश की थी लेकिन यह उम्मीद के अनुसार नहीं हो सका और इसरो से इसका संपर्क टूट गया था।

चंद्रयान-2 असफल क्यों हुआ?

इंडियन स्पेस रिसर्च आर्गेनाईजेशन (इसरो) का चंद्रयान-2 असफल क्यों हुआ? इसकी मुख्य वजह क्या थी? यह जानना बेहद जरूरी है। चंद्रयान-2 की सॉफ्ट लैंडिंग चाँद पर करने में इसरो क्यों असफल हुआ? इसरो का कहना है कि उसे चांद की सतह पर विक्रम लैंडर से जुड़ी तस्वीरें मिली हैं।  

इसरो के प्रमुख के सिवन ने कहा कि, "इसरो को चांद की सतह पर लैंडर की तस्वीर मिली है। चांद का चक्कर लगा रहे ऑर्बिटर ने विक्रम लैंडर की थर्मल इमेज ली है।''

इसरो प्रमुख ने यह भी कहा है कि चंद्रयान-2 में लगे कैमरों ने लैंडर के भीतर प्रज्ञान रोवर के होने की पुष्टि की है।

इन सभी बातों के बाद अब यह उम्मीद लगाई जा रही है कि क्या भारत का सपना, जो शुक्रवार की रात अधूरा रह गया था वो पूरा हो पाएगा।

शुक्रवार की रात विक्रम लैंडर चंद्रमा की सतह पर पहुंचने से केवल 2.1 किलोमीटर की दूरी पर ही था जब उसका संपर्क ग्राउंड स्टेशन से टूट गया।

के सिवन ने कहा है कि इसरो लगातार विक्रम लैंडर से संपर्क बनाने की कोशिश कर रहा है। हालांकि वैज्ञानिक इसकी बहुत कम उम्मीद जता रहे हैं।

उनका कहना है कि अगर दोबारा संपर्क होता है तो यह एक अद्भुत बात होगी।

वैज्ञानिक गौहर रज़ा ने बीबीसी से कहा, "यह बहुत मुश्किल है। संपर्क दोबारा साधने के लिए लैंडर का चांद की सतह पर सही सलामत उतरना ज़रूरी है, इतना ही नहीं वो इस तरह से उतरे कि उसके पांव सतह पर ही हों और उसके वो हिस्से काम कर रहे हों, जिससे हमारा संपर्क टूट गया था।''

"दूसरी ज़रूरी बात यह है कि लैंडर इस स्थिति में हो कि वो 50 वॉट पावर जेनरेट कर सके और उसके सोलर पैनल को सूरज की रोशनी मिल रही हो।''

गौहर रज़ा बहुत उम्मीद नहीं रखते हैं कि लैंडर का संपर्क ऑर्बिटर से दोबारा हो सकेगा। उनके मुताबिक अगर दोबारा संपर्क होता है तो यह अद्भुत बात होगी।

हालांकि इसरो इसमें कितना कामयाब होगा, आने वाले दिनों में इसका पता चलेगा।

के सिवन ने लैंडर की 'थर्मल' इमेज लेने की बात कही है। ऑर्बिटर में जो कैमरे लगे हुए हैं वो 'थर्मल' तस्वीरें लेता है।

हर चीज, जो शून्य डिग्री तापमान में नहीं होती हैं, उससे रेडिएशन होता रहता है। ये रेडिएशन तब तक आंख से नहीं दिखाई देते हैं, जब तक वो चीज़ इतनी गर्म न हो जाए, जिससे आँखों से दिखाई देने वाली रोशनी न निकलने लगे।

जैसे लोहा गर्म करते हैं तो एक सीमा के बाद इससे रोशनी निकलने लगती है, लेकिन इससे साधारण तापमान में रेडिएशन होता रहता है।

इस थर्मल रेडिएशन को ऑर्बिटर में लगे हुए कैमरे कैप्चर करते हैं और एक तस्वीर बनाते हैं और इसी तस्वीर को थर्मल इमेज कहते हैं। ये तस्वीर थोड़ी धुंधली होती हैं, जिनकी व्याख्या करनी पड़ती है। ये वैसी तस्वीर नहीं होती हैं, जैसी हम आम कैमरे से लेते हैं।

एक सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या लैंडर दुर्घटनाग्रस्त हो गया है या फिर सही सलामत स्थिति में है।

वैज्ञानिक गौहर रज़ा कहते हैं, "रविवार तक प्राप्त सूचना के हिसाब से लैंडर पूरी तरह टूटा नहीं है। अगर टूट के बिखर जाता तो हम नहीं कह पातें कि लैंडर की तस्वीरें ली गई हैं।''

हार्ड लैंडिंग में लैंडर को कितना नुकसान पहुंचा है, इस बारे में के सिवन ने साफ़ तौर पर कुछ नहीं बताया है।

वैज्ञानिक इसका मतलब यह निकाल रहे हैं कि उसकी स्पीड में इतनी कमी तो आ ही गई थी कि सतह से टकरा कर लैंडर पूरी तरह बर्बाद नहीं हुआ है।

गौहर रज़ा कहते हैं, "इसका यह भी मतलब है कि उसकी स्पीड तब तक कम होती रही, जब तक वो चांद की सतह पर उतर नहीं गया।''

ऑर्बिटर के द्वारा ली गई तस्वीरों के विश्लेषण के बाद ही पता चल पाएगा कि लैंडर को कितना नुकसान पहुंचा है।

इस सवाल के जवाब में गौहर रज़ा कहते हैं कि 2.1 किलोमीटर पर जब हमारा संपर्क लैंडर से टूट गया था, उस दूरी से चंद्रमा की सतह पहुंचने तक की सही सूचना हमें नहीं मिल पाई थी।

"अब लैंडर की तस्वीरें हमें मिल गई हैं, ऐसे में अब इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि अंतिम क्षणों में क्या हुआ होगा।''

अभी तक वैज्ञानिक यह कयास लगा रहे हैं कि अंतिम वक़्त में लैंडर की स्पीड कंट्रोल नहीं हो पाई थी। यह एक बड़ी चुनौती होती है कि एक लैंडर को तय स्पीड पर सतह पर उतारा जाए ताकि उसे कोई क्षति न हो और उसके पैर जमीन पर ही पड़ें।

सॉफ्ट लैंडिंग के लिए लैंडर की स्पीड को 21 हज़ार किलोमीटर से 7 किलोमीटर प्रति घंटा करना था। यह कहा जा रहा है कि इसरो से स्पीड कंट्रोलिंग में ही चूक हुई और उसकी सॉफ्ट लैंडिंग नहीं हो पाई।

लैंडर में चारों तरफ़ चार रॉकेट या फिर कहे तो इंजन लगे थे, जिन्हें स्पीड कम करने के लिए फायर किया जाना था। जब ये ऊपर से नीचे आ रहा होता है, तब ये रॉकेट नीचे से ऊपर की तरफ फायर किए जाते हैं ताकि स्पीड कंट्रोल किया जा सके।

अंत में पांचवा रॉकेट लैंडर के बीच में लगा था, जिसका काम 400 मीटर ऊपर तक लैंडर को जीरो स्पीड में लाना था, ताकि वो आराम से लैंड कर सके, पर ऐसा नहीं हो सका। परेशानी करीब दो किलोमीटर ऊपर से ही शुरू हो गई थी।

इसरो प्रमुख के सिवन ने शनिवार को डीडी न्यूज को दिए अपने इंटरव्यू में कहा था कि चंद्रयान-2 का ऑर्बिटर सात सालों तक काम कर सकेगा, हालांकि लक्ष्य एक साल का ही है।

आख़िर यह कैसे होगा, इस सवाल के जवाब में वैज्ञानिक गौहर रज़ा कहते हैं कि ऑर्बिटर, लैंडर और रोवर के काम करने के लिए दो तरह की ऊर्जा की ज़रूरत होती है।

एक तरह की ऊर्जा का इस्तेमाल उपकरणों को चलाने में किया जाता है।  ये ऊर्जा, इलेक्ट्रिकल ऊर्जा होती है। इसके लिए उपकरणों पर सोलर पैनल लगाए जाते हैं ताकि सूरज की किरणों से यह ऊर्जा मिल सके।

दूसरी तरह की ऊर्जा का इस्तेमाल ऑर्बिटर, लैंडर और रोवर की दिशा बदलने के लिए किया जाता है। यह ज़रूरत बिना ईंधन से पूरी नहीं की जा सकती है।

हमारे ऑर्बिटर में ईंधन अभी बचा हुआ है और यह सात सालों तक काम कर सकेगा।

ऑर्बिटर तो काम कर रहा है। चाँद पर पानी की खोज भारत का मुख्य लक्ष्य था और वो काम ऑर्बिटर कर रहा है। भविष्य में इसका डेटा ज़रूर आएगा।

लैंडर विक्रम मुख्य रूप से चाँद की सतह पर जाकर वहाँ का विश्लेषण करने वाला था। वो अब नहीं हो पाएगा। वहाँ की चट्टान का विश्लेषण करना था वो अब नहीं हो पाएगा। विक्रम और प्रज्ञान से चाँद की सतह की सेल्फी आती और दुनिया देखती, अब वो संभव नहीं है। विक्रम और प्रज्ञान एक दूसरे की सेल्फी भेजते, अब वो नहीं हो पाएगा।  

यह एक साइंटिफिक मिशन था और इसे बनने में 11 साल लगे थे। इसका ऑर्बिटर सफल रहा और लैंडर, रोवर असफल रहे। इस असफलता से इसरो पीछे नहीं जाएगा। इसरो पहले समझने की कोशिश करेगा कि क्या हुआ है, उसके बाद अगले क़दम पर फ़ैसला करेगा।

अमरीका, रूस और चीन को चाँद की सतह पर सॉफ्ट लैन्डिंग में सफलता मिली है। भारत शुक्रवार की रात इससे चूक गया। सॉफ्ट लैन्डिंग का मतलब होता है कि आप किसी भी सैटलाइट को किसी लैंडर से सुरक्षित लैंड करवाए और वो अपना काम सुचारू रूप से कर सके। चंद्रयान-2 को भी इसी तरह चन्द्रमा की सतह पर उतारना था लेकिन आख़िरी क्षणों में संभव नहीं हो पाया।

इसरो का चंद्रयान-2 से संपर्क टूटा

47 दिनों की यात्रा के बाद चंद्रयान-2 का चन्द्रमा की सतह से महज दो किलोमीटर दूर इसरो से संपर्क टूट गया।

चन्द्रयान-2 का लैंडर विक्रम आख़िरी दो किलोमीटर में ख़ामोश हो गया।  इसी लैंडर के ज़रिए चन्द्रयान-2 को चन्द्रमा की सतह तक पहुंचना था।

इसरो के चेयरमैन के सिवन ने कहा कि शुरुआत में सब कुछ सामान्य था लेकिन चन्द्रमा की सतह से आख़िरी के 2.1 किलोमीटर पहले संपर्क टूट गया।

इसरो प्रमुख ने कहा कि इससे जुड़े डेटा का विश्लेषण किया जा रहा है।  अब तक अमरीका, रूस और चीन ही चन्द्रमा पर अपने अंतरिक्षयान की सॉफ़्ट लैन्डिंग करवा पाए हैं और भारत ये उपलब्धि हासिल करने से दो क़दम पीछे रह गया।  

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस ऐतिहासिक पल का गवाह बनने के लिए शुक्रवार की रात बेंगलुरु स्थित इसरो केंद्र में थे।

संपर्क टूटने के बाद मोदी ने वैज्ञानिकों ढाढस बंधवाया और कहा कि किसी भी बड़े मिशन में उतार-चढ़ाव लगा रहता है। इससे पहले सिवन ने कहा था कि आख़िर के 15 मिनट सबसे अहम हैं और इस 15 मिनट में संपर्क टूटा।

भारत में इसकी सफलता को लेकर काफ़ी उत्साह का माहौल था और लोगों की नज़रें देर रात भी इसरो के मिशन पर थी।

जब इसरो से संपर्क टूटने की बात सामने आई तो लोगों को निराशा हुई लेकिन इसरो के वैज्ञानिकों का सबने हौसला बढ़ाया। दूसरी तरफ़ पड़ोसी देश पाकिस्तान से इस पर तंज और व्यंग्य भरी प्रतिक्रिया आई।

पाकिस्तान के विज्ञान और तकनीक मंत्री फ़वाद हुसैन चौधरी ने चंद्रयान-2 से संपर्क टूटने पर पीएम मोदी की प्रतिक्रिया के वीडियो को रीट्वीट करते कहा, ''मोदी जी सैटेलाइट कम्युनिकेशन पर भाषण दे रहे हैं। दरअसल, ये नेता नहीं बल्कि एक अंतरिक्षयात्री हैं। लोकसभा को मोदी से एक ग़रीब मुल्क के 900 करोड़ रुपए बर्बाद करने के लिए सवाल पूछने चाहिए।''

अपने दूसरे ट्वीट में फ़वाद चौधरी ने लिखा है, ''मैं हैरान हूं कि भारतीय ट्रोल्स मुझे गालियां दे रहे हैं, मानो उनके मून मिशन को मैंने नाकाम किया हो। भाई हमने कहा था कि 900 करोड़ लगाओ इन नालायक़ों पर? अब सब्र करो और सोने की कोशिश करो।

पाकिस्तान के एक ट्विटर यज़र ने लिखा कि आपने पीएम मोदी को कंट्रोल रूम से जाते हुए देखा? इस पर फ़वाद चौधरी ने लिखा, ''उफ़ मैं अहम पल को नहीं देख सका।''  

अभय कश्यप नाम के एक भारतीय ने फ़वाद चौधरी से नाराज़गी जताई तो इस पर उन्होंने प्रतिक्रिया में कहा, ''सो जा भाई, मून के बदले मुंबई में उतर गया खिलौना। जो काम आता नहीं पंगा नहीं लेते ना।

पाकिस्तानी सेना के प्रवक्ता आसिफ़ ग़फ़ूर ने ट्वीट कर कहा है, ''बहुत बढ़िया इसरो। किसकी ग़लती है? पहला- बेगुनाह कश्मीरियों जिन्हें क़ैद कर रखा गया है? दूसरा- मुस्लिम और अल्पसंख्यक की? तीसरा- भारत के भीतर हिन्दुत्व विरोधी आवाज़? चौथा- आईएसआई? आपको हिन्दुत्व कहीं नहीं ले जाएगा।''

पाकिस्तान में सोशल मीडिया पर भारत के इस मिशन का मज़ाक उड़ाया जा रहा है। कई लोग तो इसे विंग कमांडर अभिनंदन से जोड़ रहे हैं।

चंद्रयान-2 ने चंद्रमा की पहली तस्वीर भेजी

चंद्रयान-2 ने चंद्रमा की सतह की पहली तस्वीर भेजी है। भारत के इसरो ने ये तस्वीर जारी करते हुए बताया कि चंद्रमा के सतह से 2,650 किलोमीटर की दूरी से ये तस्वीर ली गई है।

इसरो ने अपने ट्वीट में जारी की गई तस्वीर में चंद्रमा के दो जगहों को चिह्नित किया हैज मेयर ओरियेंटेल बेसिन और अपोलो क्रेटर।

निगरानी के युग में वीपीएन के साथ गुप्त

वर्चुअल प्राइवेट नेटवर्क पहली बार 1996 में प्रयोग में आया और दुनिया भर में वृद्धि के साथ लोकप्रियता के साथ ऑनलाइन ब्राउज़िंग में सबसे स्थायी नवाचारों में से एक है।

वीपीएन मूल रूप से विभिन्न देशों में अपने कार्यालयों को जोड़ने के लिए निगमों और सरकारों के लिए उपकरण के रूप में विकसित किए गए थे, ताकि लोगों को एक साथ काम करना आसान हो सके।

लेकिन जैसे-जैसे वेब की निगरानी और नियंत्रण बढ़ा है, एक बाजार उभरा है और विस्तारित हुआ है - लोगों के लिए इंटरनेट ब्लॉक के आसपास काम करने और अपने स्थान को ऑनलाइन छिपाने के लिए।

अधिनायकवादी प्रवृत्ति वाले देशों में विशेष रूप से लोकप्रिय हैं, जैसे कि ईरान, चीन और तुर्की, वीपीएन अब श्रीलंका, खाड़ी के पार और साथ ही संयुक्त राज्य अमेरिका, जैसे डेटा चोरी, ऑनलाइन ट्रैकिंग और वेब ब्लॉकिंग में तेजी से बढ़ रहे हैं सामान्य रूप से।

अल जज़ीरा के मुताबिक, "सूडान में विरोध प्रदर्शन के दौरान, अधिकारियों ने एक इंटरनेट शटडाउन जारी किया और बहुत से लोग इस सेंसरशिप को दरकिनार करने के लिए वीपीएन का इस्तेमाल कर रहे थे।" "इसने हजारों और हजारों लोगों को सोशल मीडिया तक पहुंच बनाने के लिए चित्रों, वीडियो को एक दूसरे के बीच संवाद करने के लिए, लेकिन दुनिया के साथ देश में क्या चल रहा है, इसके लिए सक्षम किया।"

कार्यकर्ताओं और पत्रकारों द्वारा वीपीएन के उपयोग से परे एक देश के बाहर सूचना फैलाने के लिए उत्सुक, नेटवर्क भी उपयोगकर्ताओं को हितों की एक विविध सरणी का पीछा करने और यहां तक ​​कि कानून की धज्जियां उड़ाने में सक्षम बनाता है।

"आपके पास और अधिक सामान्य उपयोगकर्ता होंगे जो केवल पोर्नोग्राफ़ी या खेल देखना चाहते हैं। और लोग हर समय ऐसा करते हैं," जोसेफ कॉक्स, वाइस के साथ साइबरसिटी पत्रकार बताते हैं। "मुझे नहीं पता कि यह वीपीएन के लिए एक वैध उपयोग है - जाहिर है कि कुछ कानूनी वैधता होगी - लेकिन लोग सभी प्रकार के कारणों के लिए वीपीएन का उपयोग करते हैं।"

पिछले कुछ वर्षों में, वीपीएन सेवाओं की संख्या में उछाल आया है। नॉर्ड वीपीएन, हॉटस्पॉट शील्ड, एक्सप्रेसवीपीएन, टनल बियर और साइबरगॉस्ट बाजार में सबसे लोकप्रिय नामों में से कुछ हैं।

एक्सप्रेस वीपीएन के उपाध्यक्ष हेरोल्ड ली के अनुसार, वीपीएन स्थापित करने के लिए चुनौतीपूर्ण हुआ करते थे लेकिन अब यह केवल एक ऐप डाउनलोड करने की बात है। उनका तर्क है कि गोपनीयता और सुरक्षा अब विलासिता नहीं हैं, इसलिए "वीपीएन आपके दरवाजे पर लॉक होने से ज्यादा लक्जरी नहीं हैं"।

इंडोनेशिया और तुर्की जैसे देशों ने सबसे ज्यादा सॉफ्टवेयर डाउनलोड की संख्या बढ़ाई है। लेकिन वीपीएन के उपयोग में उछाल अधिकारियों द्वारा किसी का ध्यान नहीं गया है। उदाहरण के लिए, बेलारूस, ईरान, ओमान और रूस जैसे देशों में, वीपीएन भारी प्रतिबंधों के अधीन हैं और उन्हें प्रतिबंधित करने के स्थान पर कुछ कानून भी हैं।

इस्तांबुल बिल्गी विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर यमन अकडनिज़ ने ध्यान दिया कि तुर्की में वीपीएन का उपयोग आपराधिक नहीं है, लेकिन हाल ही में देश ने अपने इंटरनेट कानून में संशोधन करते हुए अधिकारियों को अवरुद्ध वीपीएन सेवाओं का उपयोग करने का अनुरोध किया।

"इन प्रसिद्ध वीपीएन सेवाओं में से कई तुर्की से दुर्गम हैं और यदि आप उनकी वेबसाइटों तक पहुंचने का प्रबंधन करते हैं और उनके साथ एक खाता है, तो वे काम नहीं करते हैं," वे कहते हैं।

चीन में, प्राधिकरण केवल विदेशी वीपीएन सेवाओं को अवरुद्ध नहीं कर रहे हैं, वे राज्य द्वारा अनुमोदित और स्थानीय रूप से बनाए गए वीपीएन के उपयोग पर जोर दे रहे हैं जो न तो गोपनीयता और न ही गुमनामी की गारंटी देते हैं - जिससे कई लोग उजागर होते हैं।

"जब यह सरकार और राज्य ब्लॉकों की बात आती है, तो यह कुछ ऐसा है जो हम पिछले एक दशक से दुनिया भर में देख रहे हैं," ली कहते हैं। "और हम उम्मीद करते हैं कि केवल वृद्धि जारी रहेगी।"

चीन अपनी सेना में 'आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस' लाने को पूरी तरह तैयार

चीन अपनी सेना में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के प्रयोग में महारथ हासिल करने पर अपनी नज़रें टिकाई हैं। एशिया के इस विशाल देश का अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा हितों के मामले में आगे बढ़ने का यह प्रयास बेहद महत्वपूर्ण है।

आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस पर चाइना एकेडमी ऑफ़ इनफॉर्मेशन एंड कम्युनिकेशन के एक श्वेत पत्र में कहा गया है, ''आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के ज़रिए हथियारों के प्रयोग से दूर बैठे ही भविष्य में युद्ध को नियंत्रित किया जा सकता है, यह युद्ध की सटीकता को बनाने के साथ ही युद्धक्षेत्र को भी सीमित रख सकता है।

2017 में चीन की स्टेट काउंसिल ने एक रिपोर्ट जारी की, जिसमें दोहरे उपयोग वाले सिविल और मिलिट्री तकनीक के एकीकृत उपकरणों के उत्पादन पर ध्यान केंद्रित करने का विचार दिया गया और इसके लिए आधुनिक 'आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस' पर बल दिया गया था।

सिविल-मिलिट्री मेल का उद्देश्य निजी क्षेत्र सहित चीन की प्रमुख प्रौद्योगिकी कंपनियों को 'आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस' संबंधित सहयोग के जरिये सैन्य औद्योगिक उत्पादन के दायरे में लाना था।

2018 में चीन की दो मल्टीनेशनल टेकनोलॉजी कंपनियों ने बाइदु (2,368) और टेनसेंट (1,168) इसकी ज़िम्मेदारी ली और चीन के भीतर 'आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस' के अनुसंधान और विकास से जुड़े अधिकतम अमरीकी पेटेंट हासिल किये। लेकिन चीन इससे भी आगे बढ़ा और उसने अनुसंधान के ढांचे विकसित करने के लिए स्टार्ट अप्स में निवेश किये और उन्हें सरकारी योजनाओं के तहत अनुसंधानों से जोड़ने की रणनीति पर अपना ध्यान केंद्रित किया।

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, चीन की सेना और आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस में लगी कंपनियों के बीच सहयोग है। यह इस बात से भी समझा जा सकता है कि चाइना आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस एसोसिएशन के प्रमुख चीन की सेना के मेजर जनरल ली डेई हैं।

चीन के राष्ट्रीय ख़ुफ़िया क़ानून के मुताबिक़, राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों पर कंपनियों को 'राष्ट्रीय ख़ुफ़िया कार्यों में सहयोग और सहायता' करना चाहिए।

इन प्रयासों से परिणाम भी मिलने लगे। मार्च 2019 में चीन ने आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस की नई तकनीक को लेकर पेटेंट के मामले में अमरीका को पछाड़ दिया।

और अपनी उपलब्धियों को दिखाने के लिए, बीते चार वर्षों से वह एक सालाना सिविल-मिलिट्री इंटीग्रेशन एक्सपो का आयोजन कर रहा है। इस शो में बड़े पैमाने पर ड्रोन, कमांड-कंट्रोल सिस्टम, ट्रेनिंग सिमुलेशन उपकरण और मानव रहित युद्ध हार्डवेयर्स जैसी आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से चलने वाले सैन्य उत्पादों को प्रदर्शित किया जाता है।

ड्रोन एक ऐसा क्षेत्र है, जहां आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से बहुत बड़े पैमाने पर सुधार लाया जा सकता है। अन्य चीज़ों के अलावा, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस एक ड्रोन को युद्ध के मैदान में अपने बल पर मानव रहित विमानों को पहचानने और उन्हें मार गिराने की क्षमता प्रदान करेगा।

ज़ियान यूएवी और चेंग्दू एयरक्राफ्ट इंडस्ट्री ग्रुप जैसी चीनी कंपनियां जे-10, जे-11 और जे-20 जैसे चीनी फ़ाइटर जेट बनाती हैं, जो आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से चलने वाले ड्रोन बनाने में निवेश कर रही हैं।

ज़ियान यूएवी ने ब्लोफिश ए-2 विकसित किया है, जो ऐसा ही एक ड्रोन है।

कंपनी की वेबसाइट में कहा गया है कि ब्लोफिश ए-2 अपने बल पर मिड-पॉइंट या फिक्स्ड-पॉइंट डिटेक्शन, फिक्स्ड-रेंज जासूसी और टारगेट स्ट्राइक समेत कहीं अधिक जटिल लड़ाकू मिशन पूरा करता है।

एक अन्य चीनी कंपनी, इहांग ने 184 एएवी नामक एक ड्रोन विकसित किया है, जो बिना किसी मानवीय सहायता के पहले से तय रास्ते पर 500 मीटर तक उड़ सकता है, यह अपने साथ एक पैसेंजर या सामान ले जाने में भी सक्षम है।

सिविल-मिलिट्री 'ड्रोन टैक्सी' के रूप में इसका उपयोग किया जा सकता है। यह सिविल-सैन्य एकीकरण की दिशा में उठाये गये चीन की एक बड़ी कोशिश का उदाहरण है।

सैन्य ड्रोन मानवरहित हवाई विमान (यूएवी) के रूप में युद्ध क्षेत्र में टोही विमान के रूप में काम करेगा और वहां से कमांड सेंटर में डेटा वापस भेज सकेगा।

एक बड़े क्षेत्र पर टोही विमान के रूप में काम करने की क्षमता यूएवी को एक ऐसी मशीन में बदल देंगे जो बिना मानवीय सहायता के निगरानी कर सकती हैं।

इसके अलावा, मशीन लर्निंग सिस्टम की क्षमता वाले ये ड्रोन युद्ध क्षेत्र में सही निर्णय लेने में सक्षम होंगे लिहाजा सैन्य जासूसी और भी अधिक सटीक तरीके से हो सकेगी।

इसके साथ ही 5G नेटवर्क तकनीक पर चीन की बढ़ती महारत से ड्रोन उस तेज़ी से डेटा भेज सकने में सक्षम हो सकेगा जो अब से पहले नहीं देखी गई है।

चीन दुनिया भर में यूएवी के एक प्रमुख आपूर्तिकर्ता के रूप में उभरा है। यूएई, पाकिस्तान, लीबिया और सऊदी अरब जैसे देश इस तकनीक के लिए चीन की ओर नज़र लगाए हुए हैं।

ज़ियान यूएवी ने ब्लोफिश ए-2 यूएई को बेच दिया है, पाकिस्तान और सऊदी अरब से साथ इसकी बिक्री पर चर्चा चल रही है।

हांगकांग स्थित न्यूज़पेपर साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट ने लिखा कि चीन सऊदी अरब में ड्रोन उत्पादन के कारखाने भी लगा सकता है।

और मीडिया रिपोर्ट्स में कहा गया है कि लीबिया और यमन में हाल के संघर्षों के दौरान कथित तौर पर चीन में बने ड्रोन का उपयोग किया गया था।

चीन ने ऐसे किसी भी अंतरराष्ट्रीय समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं जो ड्रोन और छोटी मिसाइलों के इसके निर्यात को नियंत्रित करते हों। उदाहरण के लिए, यह उन 35 देशों में नहीं है जो मिसाइल टेकनोलॉजी नियंत्रण योजना के पक्षकार हैं।

जापानी एसोसिएशन ऑफ डिफेंस इंडस्ट्री (JADI) की पत्रिका के एक लेख में कहा गया है कि यूएवी डेवलपमेंट के लिए चीन का बजट 2018 में 1.2 अरब डॉलर से बढ़कर 2019 में 1.4 अरब डॉलर हो गया।

रिपोर्ट के मुताबिक, इस आधार पर यूएवी को बनाने में चीनी निवेश 2025 तक 2.6 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा।

जानकारों के मुताबिक़, 2016 में चीनी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ने यूएवी के अनुसंधान और विकास को कम्युनिस्ट पार्टी के एक नए समूह- सेंट्रल मिलिट्री कमिशन सब्सिडियरी को सौंप दिया और चूंकि सेंट्रल मिलिट्री कमिशन के प्रमुख राष्ट्रपति होते हैं लिहाजा यूएवी विकास कार्यक्रम अब शी जिनपिंग की सीधी निगरानी में आता है।

चीन चेहरे की पहचान (फेशियल रिकग्निशन) की निगरानी करने वाली तकनीक के आपूर्तिकर्ता के रूप में भी तेज़ी से उभरा है, इसकी मांग कई देशों में बढ़ रही है।

चीन की निगरानी करने वाली इस तकनीक के पास बहुत बड़ी संख्या में डेटाबेस हैं।

माना जाता है कि सार्वजनिक सुरक्षा मंत्रालय फ़ेशियल रिकग्निशन का एक सबसे बड़ा डेटाबेस तैयार कर रहा है। यह अपना फोकस शिनजियांग प्रांत पर लगाये हुए है।

सेंस टाइम, चीन की एक स्टार्टअप है जिसने शिनजियांग में पुलिस को सर्विलांस तकनीक दी है। हालांकि इसके उपयोग को लेकर इसका विरोध भी किया जा रहा है। कंपनी ने हाल ही में अपने शेयर तांगली तकनीक को बेचे हैं।

युद्ध की योजना बनाने वाला सॉफ्टवेयर : आधिकारिक समाचार एजेंसी शिन्हुआ के मुताबिक, 2007 से चीन सेंट्रल एक्गोरिथ्म पर आधारित एक ऐसा सॉफ्टवेयर विकसित कर रहा है जो युद्ध के मैदान में तेज़ गति और सटीकता के साथ फ़ैसले लेने में मददगार साबित होगा।

हालांकि, चीन इस पर कितना आगे बढ़ा है, यह पता लगाना मुश्किल है, लेकिन अमरीका और नाटो जिनके पास उन्नत तकनीक मौजूद है। उन्हें चुनौती देने के लिए नई तकनीक का विकास करने में इसकी बहुत बारीक जानकारी होना आवश्यक है।

बताया जाता है कि इस क्षेत्र में चीन की कोशिशें अमरीका की अफ़ग़ानिस्तान में गतिविधियों पर आधारित हैं।

साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि चीन सरकार ने बेल्जियम की कंपनी लुसिएड से लुसीडलाइट्स्पीड सॉफ्टवेयर का अधिग्रहण किया है, जो भौगोलिक स्थिति के संदर्भ में स्पष्ट इमेजरी, जीपीएस, सैटेलाइट फ़ोटोग्राफ़ी के साथ ही डेटा भी देता है और इसका इस्तेमाल नाटो की सेना करती है।

2015 में, शिन्हुआ ने राष्ट्रीय रक्षा प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय में चीफ़ इंजीनियर लियू झोंग का प्रोफ़ाइल किया, जो 'सूचना इंजीनियरिंग प्रणाली की मुख्य प्रयोगशाला' के प्रभारी थे।

शिन्हुआ ने कहा, ''प्रोफेसर झोंग को एक नई प्रौद्योगिकी को विकसित करने पर लगाया गया है जो आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के बल पर सेना की योजना बनाने की गति को तेज़ करता है।''

युद्ध क्षेत्र में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस की मदद से फ़ैसले लेने के सॉफ्टवेयर के मामले में झोंग चीन के प्रमुख विशेषज्ञों में से एक हैं।

मिसाइल : चीन एआई-संचालित मिसाइलों को विकसित कर रहा है जो लक्ष्य का पता लगा कर बिना किसी मानवीय सहायता के उस पर हमला कर सकती है।

जेएडीआई की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि चीन ने एआई को अपनी डोंगफेंग 21डी, एक मध्यम दूरी की मिसाइल के साथ जोड़ा है। चीनी सरकार के न्यूज़पेपर पीपुल्स डेली में कहा गया है कि डीएफ़-21डी 'एक (विमान) वाहक जहाज' को डुबो सकता है और रास्ते में इसे रोक पाना भी मुश्किल है।

पीपुल्स डेली ने यह भी बताया है कि डीएफ-21डी के पुराने संस्करण डीएफ-26, 'ज़मीन पर बड़े आकार के स्थिर लक्ष्य और यहां तक कि 4,000 किलोमीटर की दूरी पर पानी पर भी लक्ष्य को निशाना बना सकता है', हालांकि रिपोर्ट में इस बात का जिक्र नहीं है कि क्या यह मिसाइल आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से चलती है।

सैन्य विशेषज्ञों का कहना है कि बैलिस्टिक मिसाइल प्रणालियों के साथ काम करने के लिए एआई-संचालित ड्रोन विकसित किए जाएंगे ताकि उनकी मारक क्षमता में सुधार हो सके।