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वाराणसी: ज्ञानवापी मस्जिद में स्थित व्यास तहखाने में आज से पूजा शुरू हुई

वाराणसी: ज्ञानवापी मस्जिद में स्थित व्यास तहखाने में आज से पूजा शुरू हुई

गुरुवार, 1 फरवरी 2024

भारत के राज्य उत्तरप्रदेश के वाराणसी की ज़िला अदालत के बुधवार, 31 जनवरी 2024 को दिए फ़ैसले को लागू करते हुए ज़िला प्रशासन ने गुरुवार, 1 फरवरी 2024 की सुबह ज्ञानवापी मस्जिद परिसर में स्थित व्यास तहखाने में पूजा अर्चना शुरू करवा दी।

वाराणसी के ज़िलाधिकारी एस रा​जलिंगम ने गुरुवार, 1 फरवरी 2024 के तड़के पत्रकारों को इसकी जानकारी दी।

एस रा​जलिंगम ने कहा, "मुझे न्यायालय का जो ऑर्डर है, उसका कंप्लायन्स (पालन) किया गया।''

वहीं ज्ञानवापी परिसर स्थित व्यास तहखाने के सामने की बैरिकेडिंग के बारे में पूछे गए सवाल के उत्तर में एस रा​जलिंगम ने फिर यही कहा कि 'कोर्ट के ऑर्डर का कंप्लायन्स' किया गया।

पत्रकारों ने जब एस रा​जलिंगम से पूछा कि क्या पूजा कराई गई तो एस राजलिंगम ने फिर वही जवाब दिया, "कोर्ट ने जो बोला है उसका कंप्लायन्स किया गया।''

इसे एक संयोग कहे या पूर्व नियोजित योजना कहे कि आज (गुरुवार, 1 फरवरी 2024) से 38 साल पहले 1986 में अयोध्या के बाबरी मस्जिद का ताला 1 फरवरी को ही खोला गया था।

वहीं इस मामले के एक वादी और वकील सोहन लाल आर्य ने गुरुवार, 1 फरवरी 2024 को एएनआई से हुई बातचीत में पुष्टि की है कि व्यास तहखाने में जाने का रास्ता बन गया है, लेकिन दर्शन करने वालों को अभी वहां जाने की इजाज़त नहीं है।

सोहन लाल आर्य ने कहा, "आज (गुरुवार, 1 फरवरी 2024) का दिन बहुत गौरवान्वित क्षण लग रहा है। हमारा रोम रोम पुलकित है। ज़िला जज का कल (बुधवार, 31 जनवरी 2024) का फ़ैसला अभूतपूर्व लगा। अभी वहां की सारी व्यवस्थाएं पूरी हैं लेकिन अभी वहां (व्यास का तहखाना) जनता को दर्शन करने नहीं दिया जा रहा है। इस क्षण का हम 40 सालों से इंतज़ार कर रहे थे।''

सोहन लाल आर्य के अनुसार, "अभी नंदी के बगल से (उत्तर की ओर) बाबा के तहखाने की ओर जाने के लिए अलग से दरवाज़ा बन गया है। वहां पर तीन पुलिसकर्मी थे। उनसे हमने कहा कि दर्शन करने दिया जाए। इस पर उन्होंने कहा कि अभी दर्शन पूजन का अधिकार नहीं है, जैसे ही मिलेगा सभी दर्शनार्थियों को वहां जाने दिया जाएगा।''

इससे पहले, बहुत जल्दी दिखाते हुए वाराणसी के डीएम एस राजलिंगम के साथ पुलिस और प्रशासन के अन्य आला अधिकारी बुधवार, 31 जनवरी 2024 को लगभग रात 11 बजे काशी कॉरिडोर के गेट नंबर चार से अंदर गए। वहां से ज्ञानवापी परिसर के भीतर जाने का रास्ता है।

वहीं ज्ञानवापी परिसर के चारों ओर लगे बैरिकेड में से कुछ हिस्सा काटकर विश्वनाथ मंदिर परिसर स्थित नंदी की प्रतिमा के सामने से रास्ता बनाने के लिए कई मजदूर वहां पहुंचे।

भारी संख्या में पुलिस के जवान भी वहां तैनात किए गए। वाराणसी के पुलिस कमिश्नर अशोक जैन ने बताया कि क़ानून और व्यवस्था के सारे इंतज़ाम किए गए।

तक़रीबन तीन घंटे बाद गुरुवार, 1 फरवरी 2024 को अहले सुबह 2 बजे डीएम एस राजलिंगम ने परिसर से बाहर आकर मीडिया को बताया, ''न्यायालय के आदेश का कंप्लायन्स किया गया।''

वाराणसी की ज़िला अदालत ने बुधवार, 31 जनवरी 2024 को सुनाया था आदेश

बुधवार, 31 जनवरी 2024 को वाराणसी की ज़िला अदालत ने हिंदू पक्ष को ज्ञानवापी मस्जिद के व्यास तहखाने में पूजा का अधिकार दे दिया था।

वाराणसी की ज़िला अदालत ने अपने आदेश में लिखा था, "ज़िला मजिस्ट्रेट, वाराणसी/रिसीवर को निर्देश दिया जाता है कि वह सेटेलमेंट प्लॉट नं-9130 थाना- चौक, ज़िला वाराणसी स्थित भवन के दक्षिण की तरफ स्थित तहखाने, जो कि वादग्रस्त संपत्ति है, वादी तथा काशी विश्वनाथ ट्रस्ट बोर्ड, पुजारी से तहखाने में स्थित मूर्तियों का पूजा, राग-भोग शुरू कराए।''

अदालत ने इस आदेश को लागू करने के लिए प्रशासन को 7 दिन का समय दिया था। लेकिन जिला प्रशासन ने बहुत जल्दी दिखाते हुए 12 घंटे पूरा होते होते कोर्ट के इस आदेश का पालन किया।

काश, भारत के राज्यों के जिला प्रशासन (खासकर वाराणसी का जिला प्रशासन) विकास के कार्यों में इतनी तत्परता दिखाते तो भारत का हर जिला विकसित जिला होता और भारत एक विकसित देश होता। भारत भयंकर गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी की समस्याओं से गंभीर रूप से जूझ रहा है। लेकिन इस ओर भारत और उसके राज्यों की विधायिकाओं और कार्यपलिकाओं का ध्यान नहीं। भारत की राजनीति धार्मिक मुद्दों, धार्मिक आस्था और धार्मिक भावनाओं पर केंद्रित हो गई है। जिसका खामियाजा भारत के अधिकांश लोग भयंकर गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी की जैसी समस्याओं के रूप में झेल रहे हैं।

हालांकि ज्ञानवापी मस्जिद पक्ष ने वाराणसी की ज़िला अदालत के फ़ैसले को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती देने का ऐलान किया है।

इतना तो तय है कि वाराणसी की ज़िला अदालत के इस फैसले से भारत में हिन्दू और मुस्लिम के बीच सांप्रदायिक तनाव बढ़ेगा। जिस प्रकार कोर्ट के फैसले से बाबरी मस्जिद का ताला खोलने के बाद भारत सांप्रदायिकता की आग में दशकों से जल रहा है। अभीतक भारत में सांप्रदायिकता की यह आग बुझी नहीं है कि वाराणसी की ज़िला अदालत के इस फैसले ने भारत को सांप्रदायिकता की आग में दशकों के लिए झोंक दिया। आने वाले वक़्त में क्या होगा? कोई नहीं जनता, लेकिन इतना तो तय है कि भविष्य के भारत पर इसका बुरा असर होगा। भारत का भविष्य अच्छा हो, इसके लिए जरूरी है कि भारत की विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को बिना सोचे-समझे या किसी एजेंडा के तहत कोई ऐसा विवादास्पद काम और फैसला करने से परहेज करना चाहिए जिससे भारत में आंतरिक अशांति फैले या भारत का भविष्य खतरे में पड़ जाये।

हमारे सामने मणिपुर हाई कोर्ट के द्वारा दिए फैसले का उदाहरण है जिसकी वजह से मणिपुर पिछले कई महीनों से मैतेई (हिन्दू, सनातन धर्म के अनुयायी) और कुकी आदिवासी (ईसाई) के बीच बड़े पैमाने हिंसा का शिकार है। इस हिंसा से लाखों लोग विस्थापित हुए और सैकड़ों लोग मारे गए। कई महिलाओं का बलात्कार हुआ और कई महिलाओं को नंगा घुमाया गया। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मणिपुर हिंसा की वजह से भारत को व्यापक आलोचना और विरोध का सामना करना पड़ा।

सीओपी28 जलवायु सम्मेलन में हुआ समझौता ने विकासशील देशों की चिंता बढ़ाई

साल 2023 में दुबई में जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखकर आयोजित हुए सीओपी28 में दुनिया के 198 देश एक ऐसे ऐतिहासिक समझौते पर पहुंच गए हैं, जिसके तहत ईंधन के लिए कोयले, तेल और गैस के इस्तेमाल को धीरे-धीरे ख़त्म किया जाएगा।

लेकिन कुछ विकासशील देश इस बात को लेकर चिंतित हैं कि इस समझौते की बारीक़ शर्तें कमज़ोर हैं और इस समझौते को लागू करने के लिए करना क्या है? ये भी स्पष्ट नहीं है।

साल 2023 में दुबई में जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखकर आयोजित हुए सीओपी28 का एक ही प्रमुख मक़सद था कि दुनिया को उसी रास्ते पर वापस लाया जाए जिससे ग्लोबल वॉर्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखा जा सके।

लेकिन, जब परिचर्चाएं ख़त्म हुईं और लोगों का ग़ुस्सा बढ़ने लगा, तो ऐसा लगा कि ये योजना खटाई में पड़ गई है। आख़िरी मौक़े तक सीओपी28 शिखर सम्मेलन बहुत हद तक इस सवाल तक सिमट कर रह गया था कि अंत में समझौता होगा या नहीं। सीओपी28 सम्मेलन के दौरान कोई समझौता होने के लिए ये बेहद ज़रूरी था कि इसमें शामिल सभी 198 देश या तो किसी बयान पर सहमत हों या फिर ख़ाली हाथ लौट जाएं।

सीओपी28 सम्मेलन में समझौते का जो शुरुआती प्रस्ताव तैयार हुआ उससे बहुत से देशों को सदमा लगा तो कई देशों का ग़ुस्सा भड़क उठा क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि समझौते में जीवाश्म ईंधन जलाने को ‘धीरे धीरे ख़त्म किए जाने’ की बात शामिल की जाएगी।

इसके बजाय सीओपी28 सम्मेलन के आख़िरी मौक़े तक जो बातचीत चलती रही, उसका नतीजा इस मुद्दे पर एक खोखले बयान के तौर पर सामने आया। इसमें कहा गया कि ‘जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल में बदलाव की दिशा में आगे बढ़ना’ है।

ख़बरों के मुताबिक़ तेल निर्यातक देशों के संगठन ओपेक (OPEC) में शामिल सदस्य उन देशों की टोली में शामिल थे, जो जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल पूरी तरह ख़त्म करने को लेकर वैश्विक समझौते का सबसे ज़्यादा विरोध कर रही थी।

इसके बजाय, संयुक्त अरब अमीरात जैसे तेल उत्पादक देश, सीओपी28 सम्मेलन के दौरान कार्बन जमा करने की तकनीकों पर अधिक ज़ोर देने की वकालत कर रहे थे।

आख़िरी लम्हों में हुए समझौते के बावजूद, बोलीविया और समोआ जैसे देशों ने चिंता जताई है कि इस समझौते में विकसित देशों के ऊपर ये ज़िम्मेदारी नहीं डाली गई है कि वो जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल ख़त्म करने के मामले में दुनिया की अगुवाई करें।

इन विकासशील देशों का कहना है कि सारे देशों पर एक साथ ये क़दम उठाने का बोझ डालना नाइंसाफ़ी है क्योंकि, विकसित देश तो पहले ही तेल, गैस और कोयले के इस्तेमाल से आर्थिक तौर पर बहुत फ़ायदा उठा चुके हैं।

और, सबसे अहम बात तो ये है कि ये बदलाव लाने के लिए जो रक़म दी जानी है, उसे भी बहुत घटा दिया गया है।

समझौते में बस यही उल्लेख किया गया है कि, जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल कम करने और जलवायु परिवर्तन से निपटने की तैयारी करने के लिए ग़रीब देशों को अधिक पूंजी की ज़रूरत है।

ऑक्सफैम इंटरनेशनल के जलवायु परिवर्तन नीति की प्रमुख नफ्कोटे डाबी ने कहा कि दुबई सम्मेलन का जो नतीजा निकला है, वो ‘बेहद नाकाफ़ी’ है।

नफ्कोटे डाबी ने कहा, ''जिन ऐतिहासिक और महत्वाकांक्षी लक्ष्यों को हासिल करने का वादा हमसे किया गया था, दुबई का जलवायु सम्मेलन उस मंज़िल तक पहुंचने से बहुत दूर रह गया।''

नफ्कोटे डाबी ने कहा, ''दुबई का जलवायु सम्मेलन दोहरी निराशा वाला रहा, क्योंकि, एक तो इसमें जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए नवीनीकरण योग्य ऊर्जा अपनाने के लिए विकासशील देशों को पैसे देने का कोई इंतज़ाम नही किया गया।''

''दूसरे, जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को सबसे ज़्यादा झेल रहे लोगों, जैसे कि, उत्तरी पूर्वी अफ्रीका की मदद करने के वादे से अमीर देश एक बार फिर मुकर गए। जबकि हाल के दिनों में इस इलाक़े के लोगों ने भयंकर बाढ़ में अपना सब कुछ गंवा दिया था। उससे पहले वो लगातार पांच साल तक ऐतिहासिक सूखे और भुखमरी के शिकार रहे थे।''

चैथम हाउस में रिसर्च फेलो रूथ टाउनेंड ने कहा कि विकासशील देशों से कहा जा रहा है कि वो ‘विकास के लिए एकदम नए रास्ते पर चलें’, तो ज़ाहिर है कि विकासशील देश ये जानना चाहते थे कि इस नए रास्ते पर चलने के लिए उनके पास पैसे कहां से आएंगे।

लेकिन, इन तमाम आशंकाओं के बावजूद, दुबई का जलवायु सम्मेलन, दुनिया भर के क़रीब एक लाख प्रतिनिधियों, वार्ताकारों, लॉबी करने वालों, शाही परिवारों के सदस्यों और वकीलों को जलवायु के मसलों पर चर्चा करने के लिए एक मंच पर इकट्ठा कर पाने में सफल रहा, ताकि वो भविष्य की योजना तैयार कर सकें और जलवायु परिवर्तन से जुड़े आविष्कारों से मिले सबक़ को सबके सामने पेश कर सकें।

दुबई के सीओपी28 जलवायु सम्मेलन में हुए वाद-विवाद और परिचर्चाओं से पांच बड़े नतीजे निकले।

मसौदे में जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल धीरे धीरे ख़त्म करने को लेकर क्या लिखा जाए, इसको लेकर सीओपी28 सम्मेलन में तीखी तकरार हुई।

सौ से ज़्यादा देश 2030 तक दुनिया की नवीनीकरण योग्य ऊर्जा को बढ़ाकर तीन गुना करने पर सहमत हो गए।

प्रेरणा हासिल करने के लिए ये राष्ट्र, उरुग्वे जैसे देश से सीख सकते हैं, जो अपनी ज़रूरत की 98 फ़ीसदी ऊर्जा रिन्यूएबल स्रोतों से बना रहा है।

जलवायु शिखर सम्मेलन से पहले अमेरिका और चीन ने नवीनीकरण योग्य ऊर्जा का इस्तेमाल बढ़ाने और कार्बन कैप्चर की परियोजनाओं में तेज़ी लाने पर मिलकर काम करने के लिए, आपस में एक समझौता किया।

दोनों देश, अपनी अगली राष्ट्रीय जलवायु योजनाओं में सभी ग्रीनहाउस गैसों को शामिल करने जा रहे हैं। ये योजना 2025 में आने की संभावना है।

इस बीच, 50 तेल और गैस कंपनियां मीथेन का उत्सर्जन कम करने और तेल निकालने के दौरान गैस जलाने का काम बंद करने पर राज़ी हो गईं।

मीथेन, सबसे ख़तरनाक ग्रीनहाउस गैसों में से एक है और दुनिया में मानवीय गतिविधियों से धरती का तापमान बढ़ने में उसका एक तिहाई योगदान रहता है।

हालांकि, अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने इस सम्मेलन में निजी तौर पर शामिल नहीं होने का फ़ैसला किया। लेकिन उनके जलवायु प्रतिनिधि जॉन केरी ने मीथेन गैस का उत्सर्जन कम करने का वादा किया।

साल 2023 में सीओपी28 जलवायु सम्मेलन में पहली बार स्वास्थ्य दिवस मनाया गया। दुनिया भर के दानदाताओं ने गर्म देशों में होने वाली उपेक्षित बीमारियों से मुक़ाबला करने के लिए 70 करोड़ डॉलर की मदद देने का वादा किया।

ये ऐसा प्रस्ताव है जिससे अफ़्रीका के तमाम देशों को फ़ायदा होगा। इस मदद का एक हिस्सा 2030 तक अफ़्रीका में होने वाली उन बीमारियों को जड़ से मिटाने में इस्तेमाल किया जाएगा, जिनकी अब तक अनदेखी होती रही है। जैसे कि लिम्फैटिक फिलारियासिस और ओंकोसरसियासिस, जिसे रिवर ब्लाइंडनेस के नाम से भी जाना जाता है।

रिवर ब्लाइंडनेस, आंखों और त्वचा में होने वाली ऐसी बीमारी है, जो परजीवी कीड़े से होती है, ये कीड़ा संक्रमित मक्खियों के बार-बार काटने से इंसानों तक पहुंच जाता है।

परजीवी - ओंकोसेरसियासिस (जिसे रिवर ब्लाइंडनेस के रूप में भी जाना जाता है) इस बीमारी को रिवर ब्लाइंडनेस कहा जाता है क्योंकि संक्रमण फैलाने वाली काली मक्खी तेजी से बहने वाली धाराओं और नदियों के पास रहती है और प्रजनन करती है। ये काली मक्खी ज्यादातर दूरदराज के ग्रामीण गांवों के पास रहती है। संक्रमण के परिणामस्वरूप दृष्टि हानि और कभी-कभी अंधापन हो सकता है।

गेट्स फाउंडेशन के मुताबिक़ ये बीमारी, सहारा क्षेत्र के देशों में अंधेपन की बीमारी की सबसे बड़ी वजह है। इस बीमारी को आइवरमेक्टिन नाम की दवा से ठीक किया जा सकता है।

साल 2023 में नाइजर अफ्रीका का पहला देश बन गया था, जिसने अपने यहां रिवर ब्लाइंडनेस की बीमारी का पूरी तरह से ख़ात्मा कर डाला है।

सेनेगल ये उपलब्धि हासिल करने वाला दूसरा देश बनने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। उम्मीद की जा रही है कि जल्दी ही तंज़ानिया, इस बीमारी को जड़ से मिटा देने वाला तीसरा देश बन जाएगा।

लॉस एंड डैमेज फंड का मक़सद उन देशों को वित्तीय मदद देना है, जो जलवायु परिवर्तन के बुरे प्रभावों के सबसे ज़्यादा शिकार हो रहे हैं।

शर्म अल-शेख़ में हुए 27वें जलवायु सम्मेलन (COP27) में नेता आख़िरी मौक़े पर इस बात पर सहमत हुए थे कि ख़ास तौर से विकासशील देशों की मदद के लिए नुक़सान और भरपाई के ऐसे फंड का इंतज़ाम किया जाए, जिससे ये देश जलवायु परिवर्तन की वजह से बाढ़, जंगल की आग और सूखे जैसी भारी तबाही वाली घटनाओं से निपट सकें।

दुबई के सीओपी28 जलवायु सम्मेलन के पहले ही दिन नुक़सान और क्षतिपूर्ति के फंड के लिए 70 करोड़ डॉलर का फंड बनाने के प्रस्ताव को मंज़ूरी दी गई।

मगर, इन वादों के बावजूद विश्लेषकों का कहना है कि विकासशील देशों को जितनी रक़म की ज़रूरत है, उसकी तुलना में ये फंड बेहद कम है।

इस समय पूर्वी अफ्रीका के ऐसे कई देश हैं, जिनको फ़ौरी तौर पर मदद की दरकार है। हाल ही में आई भयंकर और अभूतपूर्व बाढ़ की वजह से इन देशों के बड़े इलाक़े डूब गए थे। सोमालिया का कहना है कि अकेले उसको ही इस दशक में पांच अरब डॉलर की वित्तीय सहायता की ज़रूरत होगी।

दुबई के सीओपी28 सम्मेलन में पहुंचे प्रतिनिधियों ने इस बात से इनकार नहीं किया कि वो जलवायु सम्मेलन के मंच का इस्तेमाल कारोबारी बातचीत के लिए करते हैं।

एक बेहतर ख़बर के तौर पर दुबई के सीओपी28 सम्मेलन में कॉन्गो बेसिन की गहराई से वैज्ञानिक पड़ताल की रिपोर्ट तैयार करने को मंज़ूरी दी गई।  कॉन्गो बेसिन दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा वर्षा वन कहा जाता है।

इस रिपोर्ट को सीओपी28 शिखर सम्मेलन की वार्ताओं से अलग मंज़ूरी दी गई। ये रिपोर्ट उसी रास्ते को अख़्तियार करके तैयार की जाएगी, जैसा रास्ता 2021 में अमेज़न पर वैज्ञानिक पैनल ने अपनाया था जिसके बाद, वर्षा वनों पर वैज्ञानिक आम सहमति जताने वाली 1300 पन्नों की रिपोर्ट तैयार की गई थी।

प्रकृति और कॉन्गो बेसिन की पारिस्थितिकी की गहराई से होने वाली इस पड़ताल में इस बात का भी पता लगाया जाएगा कि इलाक़े की जलवायु को वर्षा वन किस तरह से नियमित करते हैं और इंसानों ने इसके इकोसिस्टम पर किस तरह से असर डाला है।

सीओपी28 जलवायु सम्मेलन के मेज़बान के तौर पर संयुक्त अरब अमीरात का चुनाव एक विवादित मसला था।

सीओपी28 शिखर सम्मेलन से पहले बीबीसी की एक पड़ताल में पता चला था कि मेज़बान संयुक्त अरब अमीरात ने सीओपी28 सम्मेलन का इस्तेमाल तेल और गैस के सौदे करने की योजना बनाई थी।

लीक हुए दस्तावेज़ों ने दिखाया कि संयुक्त अरब अमीरात ने 15 देशों के साथ जीवाश्म ईंधन के सौदे पर चर्चा की तैयारी कर रखी थी।

इसकी प्रतिक्रिया के तौर पर, सम्मेलन के लिए ज़िम्मेदार संयुक्त राष्ट्र की संस्था ने कहा कि वो ये अपेक्षा करते हैं कि सीओपी28 सम्मेलन के मेज़बान बिना किसी पूर्वाग्रह या निजी हित को बढ़ावा दिए बग़ैर ये आयोजन करेंगे।

संयुक्त अरब अमीरात की टीम ने इस बात से इनकार नहीं किया कि वो सीओपी28 सम्मेलन की बैठकों में कारोबार की बात करेंगे, और उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि ‘निजी बैठकें निजी ही होती हैं'।

इन बैठकों में किन मुद्दों पर चर्चा हुई, इसकी जानकारी देने से इनकार करते हुए, संयुक्त अरब अमीरात ने कहा कि उसका ज़ोर ‘जलवायु बचाने के लिए अर्थपूर्ण क़दम उठाने’ पर था।

इसी बीच दुबई सीओपी28 जलवायु सम्मेलन के अध्यक्ष और संयुक्त अरब अमीरात की तेल कंपनी के अधिकारी सुल्तान अल-जबर, जलवायु कार्यकर्ताओं के लिए नफ़रत का बायस बन गए जब शिखर सम्मेलन के पहले एक कार्यक्रम में उनकी ज़ुबान से ये निकल गया कि उन्हें इस बात का भरोसा नहीं है कि नेट ज़ीरो का लक्ष्य हासिल करना मुमकिन है।

जो एक देश नुक़सान और क्षतिपूर्ति के फंड से सबसे ज़्यादा लाभ उठाने की उम्मीद लगाए हुए था वो नाइजीरिया था, जिसको इस सम्मेलन में शामिल होने के लिए 1411 प्रतिनिधियों के बैज दिए गए थे।

इतने ही लोग चीन से भी शामिल हुए। नाइजीरिया के विपक्षी दल ने दावा किया कि उनके देश के समूह में प्रतिनिधियों की ‘पत्नियां, गर्लफ्रेंड और उनके साथ रहने वाले लोग’ भी शामिल थे।

एक विशाल प्रतिनिधिमंडल भेजने के फ़ैसले की योजना को सोशल मीडिया पर ‘करदाताओं के पैसे की बर्बादी’ के तौर पर प्रचारित किया गया.

साल 2023 की बैठक में ब्राज़ील ने एक दोस्त बनाया, तो एक गंवाया भी।  ब्राज़ील के राष्ट्रपति लुइज़ इनाशियो लुला डा सिल्वा ने एक ज़बरदस्त जज़्बाती तक़रीर की और कहा कि असमानता से निपटे बग़ैर जलवायु के संकट से निपट पाना मुमकिन नहीं है।

हालांकि, इसके साथ ही साथ ब्राज़ील ने ये ऐलान भी किया कि वो दुनिया में तेल उत्पादक देशों के सबसे बड़े संगठन ओपेक में शामिल होगा।

इसकी तुलना में कोलंबिया के राष्ट्रपति गुस्तावो पेट्रो की इस बात के लिए तारीफ़ की गई कि वो जीवाश्म ईंधन को ख़त्म करने का समझौता करने के लिए बने एक अंतरराष्ट्रीय गठबंधन में शामिल हो रहे हैं।

गुस्तावो पेट्रो ने जब ये कहा कि टिकाऊ विकास के लिए देशों को ऐसे रास्ते पर चलना होगा जिसमें कोयले और गैस पर निर्भरता न हो, तो इस बात के लिए भी उनकी सराहना की गई।

भारत, मध्य पूर्व देशों और यूरोप को जोड़ने वाले कॉरिडोर का काम जल्द होगा शुरू

भारत, मध्य पूर्व देशों और यूरोप को जोड़ने वाले कॉरिडोर का काम जल्द ही शुरू हो सकता है। जी-20 सम्मेलन में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ग्लोबल इन्फ्रास्ट्रक्चर एंड इनवेस्टमेंट (पीजीआईआई) और इंडिया-मिडिल ईस्ट-यूरोप इकोनॉमिक कॉरिडोर का ऐलान करते हुए कहा कि ये भारत, पश्चिम एशिया और यूरोप के बीच आर्थिक जुड़ाव का एक प्रभावी माध्यम बनेगा।

नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन, सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान और यूरोपियन कमीशन की प्रमुख उर्सला वॉन डेर लियेन की मौजूदगी में कहा, ''ये पूरे विश्व में कनेक्टिविटी और विकास को सस्टेनेबल दिशा प्रदान करेगा। मजबूत कनेक्टिविटी और इन्फ्रास्ट्रक्चर मानव सभ्यता के विकास का मूल आधार हैं। भारत ने अपनी विकास यात्रा में इस विषय को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है। फिजिकल इन्फ्रास्ट्रक्चर के साथ-साथ सोशल, डिजिटल और फाइनेंशियल इन्फ्रास्ट्रक्चर में अभूतपूर्व पैमाने पर निवेश हो रहा है। इससे हम एक विकसित भारत की मजबूत नींव रख रहे हैं।''

नरेंद्र मोदी ने कहा, ''हमने ग्लोबल साउथ के अनेक देशों में एक विश्वसनीय पार्टनर के रूप में एनर्जी, रेलवे, पानी, टेक्नोलॉजी पार्क जैसे टेक्नोलॉजी क्षेत्रों में इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट पूरे किए हैं। हमने डिमांड ड्रिवेन और ट्रांसपरेंट अप्रोच पर बल दिया है। पीजीआईआई के माध्यम से हम ग्लोबल साउथ के देशों में इन्फ्रास्ट्रक्चर गैप को कम करने में अहम योगदान दे सकते हैं। भारत कनेक्टिविटी को क्षेत्रीय सीमाओं में नहीं बांधता। हमारा मानना है कि कनेक्टिविटी आपसी व्यापार ही नहीं, आपसी विश्वास भी बढ़ाता है।''

यूरोपियन कमीशन की प्रमुख उर्स वॉन डेर लियेन ने कहा कि इंडिया-मिडिल ईस्ट-यूरोप इकोनॉमिक कॉरिडोर ऐतिहासिक है। ये अब तक इन तीनों को जोड़ने वाला सबसे तेज संपर्क होगा। इससे कारोबार की रफ्तार और तेज हो जाएगी।

जी-20: जलवायु परिवर्तन से जुड़े मुद्दों पर विकसित और विकासशील देशों में गंभीर असहमति

जलवायु परिवर्तन के लिए होने वाले संयुक्त राष्ट्र के वार्षिक सम्मेलनों के उलट जी-20 की बैठकों में इस समस्या को लेकर उठाए जाने वाले कदमों पर आमतौर पर विकसित और विकासशील देशों में ज्यादा गंभीर असहमतियां नहीं दिखती हैं।

लेकिन इस बार के जी-20 सम्मेलन में इसे लेकर तस्वीर कुछ अलग दिख रही है। जी-20 देशों के पर्यावरण मंत्रियों की बैठक में जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल धीरे-धीरे कम करने, रिन्युबल एनर्जी के लक्ष्यों को बढ़ाने और ग्रीन हाउस उत्सर्जन में कमी जैसे लक्ष्यों को हासिल कर कोई सहमति बनती नहीं दिख रही है।

जबकि जी-20 के देश दुनिया के 75 ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के जिम्मेदार हैं। जी-20 सम्मेलन में रूस, चीन, सऊदी अरब और भारत ने 2030 तक रिन्युबल एनर्जी की क्षमता तीन गुना बढ़ाने के विकसित देशों के लक्ष्य का विरोध किया है।

समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने आधिकारिक सूत्रों के हवाले से कहा है कि 6 सितंबर 2023 को शेरपा स्तर की बैठक में ये देश 2035 तक ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन 60 फीसदी घटाने के विकसित देशों के लक्ष्य से असहमत दिखे।

चीन ने उन मीडिया रिपोर्टों को खारिज किया है, जिनमें कहा गया था कि जुलाई 2023 में हुई जी-20 के पर्यावरण मंत्रियों की बैठक में उसने जलवायु परिवर्तन को काबू करने के लिए उठाए जाने वाले कदमों पर बनने वाली सहमति में बाधा डाली थी।

चीन ने विकसित देशों से जलवायु परिवर्तन की समस्या को खत्म करने के लिए अपनी क्षमता, जिम्मेदारियों और कर्तव्य के मुताबिक काम करने की अपील की थी।

चीन और भारत जैसी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं का कहना है कि विकसित देशों को कार्बन उत्सर्जन घटाने के लिए अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी निभानी चाहिए।

जबकि विकासशील देशों का कहना है कि प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं को साथ आए बगैर ये काम मुश्किल है। जी-20 में दोनों ओर के देश अड़े हुए हैं। इससे संकेत मिल रहा है कि जलवायु परिवर्तन पर यूएन के वार्षिक सम्मेलन सीओपी 28 में क्या होने वाला है।

क्या इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग का जिन्ना की मुस्लिम लीग से कोई सम्बन्ध है?

भारत की कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने वॉशिंगटन डीसी के नेशनल प्रेस क्लब में पूछे गए एक सवाल के जवाब में कहा कि मुस्लिम लीग पूरी तरह से सेक्युलर पार्टी है।

राहुल गांधी से पूछा गया था कि क्या केरल में इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग से कांग्रेस का गठबंधन धर्मनिरपेक्षता के ख़िलाफ़ नहीं है?

इसी के जवाब में राहुल ने कहा, ''मुस्लिम लीग के साथ धर्मनिरपेक्षता के ख़िलाफ़ जैसी कोई बात नहीं है। मुझे लगता है कि जिस व्यक्ति ने यह सवाल भेजा है, उसने मुस्लिम लीग को ठीक से पढ़ा नहीं है।''

इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आईयूएमएल) केरल की क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टी है और यह पारंपरिक रूप से कांग्रेस की अगुआई वाले गठबंधन यूडीएफ़ में शामिल रहती है।

क्या इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग का जिन्ना की मुस्लिम लीग से कोई सम्बन्ध है?

1947 में भारत के विभाजन के बाद पाकिस्तान के गठन का आंदोलन चलाने वाली ऑल इंडिया मुस्लिम लीग को भंग कर दिया गया था। पाकिस्तान के गठन के बाद मोहम्मद अली जिन्ना देश के गवर्नर जनरल बने थे। अगले कुछ महीनों के बाद पश्चिमी पाकिस्तान में मुस्लिम लीग और पूर्वी पाकिस्तान में द ऑल पाकिस्तान अवामी मुस्लिम लीग अस्तित्व में आई।

मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान को शुरुआती छह प्रधानमंत्री दिए, उनके कार्यकाल बेहद छोटे थे और आख़िरकार जनरल अय्यूब ख़ान ने मार्शल लॉ लगा दिया जिसके बाद मुस्लिम लीग भी भंग हो गई।

जनरल अय्यूब ख़ान ने बाद में मुस्लिम लीग को पाकिस्तान मुस्लिम लीग के रूप में पुनर्जीवित किया जो कई दशकों तक बनती और फिर बिगड़ती रही। पाकिस्तान मुस्लिम लीग का सबसे चर्चित धड़ा नवाज़ शरीफ़ की पार्टी है जिसके अध्यक्ष शहबाज़ शरीफ़ हैं।

पूर्वी पाकिस्तान में अवामी लीग ने बंगालियों के राष्ट्रवाद के लिए लड़ाई लड़ी और पंजाबी बहुल पश्चिमी पाकिस्तान से स्वतंत्रता की राह तलाशने की कोशिश की। शेख़ मुजीबुर रहमान के नेतृत्व में पश्चिमी पाकिस्तान से पूर्वी पाकिस्तान टूटकर बांग्लादेश के रूप में अस्तित्व में आया।

स्वतंत्र भारत में ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की जगह इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग ने ले ली और उसका इतिहास बिलकुल अलग है। आईयूएमएल भारत के संविधान के तहत चुनाव लड़ती है और लगातार उसकी उपस्थिति लोकसभा में रही है।

आईयूएमएल केरल की मज़बूत पार्टी है और उसकी एक यूनिट तमिलनाडु में भी है। भारत के चुनाव आयोग ने उसे केरल की राज्य पार्टी के तौर पर लंबे समय से मान्यता दी हुई है।

आईयूएमएल के हरे झंडे में ऊपर की बाईं ओर सफ़ेद रंग में एक चांद और सितारा है और ये पाकिस्तान के झंडे से बिलकुल अलग है।

तीसरी से 16वीं लोकसभा तक आईयूएमएल के दो सांसद हमेशा लोकसभा में रहे हैं। केवल दूसरी लोकसभा में उनका कोई सांसद नहीं था जबकि चौथी लोकसभा में उसके तीन सांसद थे।

आईयूएमएल लंबे समय से कांग्रेस का गठबंधन सहयोगी है और केरल में विपक्षी यूडीएफ़ गठबंधन का हिस्सा है। वर्तमान केरल विधानसभा में आईयूएमएल के 18 विधायक हैं जबकि 2011 में केरल विधानसभा में 20 विधायक थे।

जॉर्ज सोरोस का बयान भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बर्बाद करने की घोषणा है: भारतीय जनता पार्टी

भारत की भारतीय जनता पार्टी ने अमेरिकी बिज़नेसमैन जॉर्ज सोरोस की जमकर आलोचना की है।

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2023 को भारत की नरेंद्र मोदी सरकार में केंद्रीय मंत्री और भारतीय जनता पार्टी की नेता स्मृति ईरानी ने एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर कहा कि जॉर्ज सोरोस का बयान भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बर्बाद करने की घोषणा है।

जॉर्ज सोरोस ने जर्मनी के म्यूनिख़ रक्षा सम्मेलन में कहा था कि भारत तो एक लोकतांत्रिक देश है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकतांत्रिक नहीं हैं और मोदी के तेज़ी से बड़ा नेता बनने की अहम वजह भारतीय मुसलमानों के साथ की गई हिंसा है।

जॉर्ज सोरोस ने कहा कि भारत रूस से कम क़ीमत पर तेल ख़रीदता है।  जॉर्ज सोरोस के अनुसार गौतम अदानी मामले में मोदी फ़िलहाल ख़ामोश हैं लेकिन विदेशी निवेशकों और संसद में सवालों का उन्हें जवाब देना होगा। इससे सरकार पर उनकी पकड़ कमज़ोर होगी।

जॉर्ज सोरोस का यहां तक दावा था कि इससे भारत में लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पुनरुत्थान होगा।

इससे पहले जनवरी 2020 में दावोस में हुई वर्ल्ड इकोनॉमिक फ़ोरम की बैठक के एक कार्यक्रम में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना करते हुए जॉर्ज सोरोस ने कहा था कि भारत को हिंदू राष्ट्रवादी देश बनाया जा रहा है।

जॉर्ज सोरोस ने जनवरी 2020 में दावोस में हुई वर्ल्ड इकोनॉमिक फ़ोरम की बैठक के एक कार्यक्रम में कहा था कि यह भारत के लिए सबसे बड़ा और भयानक झटका है, जहां लोकतांत्रिक रूप से चुनकर आए नरेंद्र मोदी भारत को एक हिंदू राष्ट्रवादी देश बना रहे हैं।

जॉर्ज सोरोस ने ये भी कहा था कि मोदी कश्मीर पर प्रतिबंध लगाकर वहां के लोगों को दंडित कर रहे हैं और नागरिकता क़ानून (सीएए) के ज़रिए लाखों मुसलमानों से नागरिकता छीनने की धमकी दे रहे हैं।

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2023 को सोरोस की आलोचना करते हुए स्मृति ईरानी ने कहा कि विदेशी धरती से भारत के लोकतांत्रिक ढांचे को कमज़ोर करने की कोशिश की जा रही है।

स्मृति ईरानी के अनुसार यह भारत के आंतरिक मामलों में दख़लअंदाज़ी की कोशिश है।

स्मृति ईरानी ने सभी भारतीयों से इसका मुंहतोड़ जवाब देने की अपील की।

कांग्रेस ने भी जॉर्ज सोरोस के बयान पर अपनी प्रतिक्रिया दी है।

कांग्रेस पार्टी के महासचिव और मीडिया प्रमुख जयराम रमेश ने ट्वीट कर कहा, ''पीएम से जुड़ा अदानी घोटाला भारत में लोकतांत्रिक पुनरुत्थान शुरू करता है या नहीं, यह पूरी तरह कांग्रेस, विपक्ष व हमारी चुनाव प्रक्रिया पर निर्भर है।''

"इसका जॉर्ज सोरोस से कोई लेना देना नहीं है। हमारी नेहरूवादी विरासत सुनिश्चित करती है कि उन जैसे लोग हमारे चुनाव परिणाम तय नहीं कर सकते।''

शिव सेना की राज्य सभा सांसद प्रियंका चतुर्वेदी ने बीजेपी की आलोचना की है।

प्रियंका चतुर्वेदी ने ट्वीट किया, "जॉर्ज सोरोस कौन हैं और बीजेपी का ट्रोल मंत्रालय उनपर प्रेस कॉन्फ़्रेंस क्यों कर रहा है। वैसे, मंत्री जी भारत के चुनावी प्रक्रिया में इसराइली एजेंसी के दख़लअंदाज़ी पर आप कुछ कहना चाहेंगी? भारत के लोकतंत्र के लिए वो ज़्यादा बड़ा ख़तरा है।''

तृणमूल कांग्रेस की लोकसभा सांसद महुआ मोइत्रा ने स्मृति ईरानी पर तंज़ करते हुए कहा, "आदरणीय कैबिनेट मंत्री ने हर भारतीय से जॉर्ज सोरोस को मुंहतोड़ जवाब देने का आह्वान किया है। आज शाम छह बजे कृपया थाली पीटें।''

वीगर मुसलमानों के उत्पीड़न को लेकर संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में चीन पर गंभीर आरोप

चीन के शिनजियांग प्रांत में उत्पीड़न के आरोपों को लेकर आई एक रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र ने चीन पर मानवाधिकारों के गंभीर उल्लंघन का आरोप लगाया है।

चीन ने संयुक्त राष्ट्र (यूएन) से रिपोर्ट जारी ना करने की अपील की है और इसे पश्चिमी देशों का 'तमाशा' बताया है।

रिपोर्ट में वीगर मुसलमान और अन्य जातीय अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न का दावा किया गया है, जिससे चीन ने इनकार किया है।

लेकिन, जाँचकर्ताओं का कहना है कि उन्हें प्रताड़ना के विश्वसनीय प्रमाण मिले हैं जिन्हें ''मानवता के ख़िलाफ़ अपराध'' कहा जा सकता है।

उन्होंने चीन पर अल्पसंख्यकों के अधिकारों के दमन के लिए अस्पष्ट राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानूनों के इस्तेमाल करने और मनमाने तरीक़े से लोगों को हिरासत में रखने का आरोप लगाया है।

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त कार्यालय ने ये रिपोर्ट तैयार करने के लिए कहा था। रिपोर्ट में कहा गया है कि कैदियों के साथ बुरा व्यवहार किया जाता है जिसमें सेक्शुअल और जेंडर आधारित हिंसा भी शामिल है।

इसके अलावा उन पर परिवार नियोजन की नीतियों को भेदभावपूर्ण तरीक़े से थोपा जाता है।

चीन पर शिनजियांग में वीगर मुसलमानों को डिटेंशन कैंप में रखने का आरोप लगता है।

संयुक्त राष्ट्र ने सिफ़ारिश की है कि चीन को उन लोगों को रिहा करने के लिए तुरंत क़दम उठाने चाहिए, जिनकी आज़ादी छीन ली गई है। साथ ही कहा है कि चीन की कुछ कार्रवाइयां अंतरराष्ट्रीय अपराध के तहत आ सकती हैं। इसमें मानवता के ख़िलाफ़ अपराध भी शामिल है।

यूएन ने कहा है कि ये सुनिश्चित नहीं किया जा सकता कि सरकार ने कितने लोगों को पकड़कर रखा है। मानवाधिकार समूहों का कहना है कि शिनजियांग प्रांत में 10 लाख से ज़्यादा लोगों को हिरासत में रखा गया है।

60 संस्थाओं का नेतृत्व करने वाली वर्ल्ड वीगर कांग्रेस ने इस रिपोर्ट का स्वागत किया है और इस पर तुरंत अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया की मांग की है।

लेकिन, ये रिपोर्ट पहले ही देख चुके चीन ने उत्पीड़न के आरोपों से इनकार किया है और कहा है कि ये कैंप आतंकवाद से लड़ने का एक तरीक़ा हैं।

ईरान ने इसराइल को अरब देशों से दोस्ती पर कड़ी चेतावनी दी

ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी ने कुछ अरब देशों और इसराइल के बीच संबंधों के समान्य होने की आलोचना की है और साथ ही इसे लेकर इसराइल को कड़ी चेतावनी दी है।

इब्राहिम रईसी ने ईरान के नेशनल आर्मी डे पर तेहरान में एक सैन्य परेड के दौरान अरब और इसराइल देशों के संबंधों का ज़िक्र किया।

उन्होंने वहाँ इसराइल को चेतावनी देते हुए कहा, ''इसराइल अगर कुछ देशों के साथ संबंध सामान्य करना चाहता है तो उसे मालूम है कि उसकी छोटी-से-छोटी हरकत हमसे छिपी नहीं है।''

''अगर वे कोई ग़लती करते हैं, तो हम सीधे यहूदी शासन के दिल पर चोट करेंगे और हमारी सेना की शक्ति उन्हें शांति से बैठने नहीं देगी।''

ईरानी मीडिया के अनुसार कोरोना महामारी की वजह से दो साल के अंतराल के बाद सैन्य परेड हुई जो ईरान के वरिष्ठ नेताओं और सैन्य अधिकारियों की मौजूदगी में परेड आयोजित की गई।

इसमें सेना के नए हथियारों और उपकरणों का भी प्रदर्शन किया गया। इस दौरान इब्राहिम रईसी ने ईरान के रिवोल्यूशनरी गार्ड्स की भी जमकर तारीफ़ की।

ईरान और इसराइल की दुश्मनी जगजाहिर

ईरान इसराइल को मान्यता नहीं देता है। जबकि इसराइल भी कई बार कह चुका है कि वो परमाणु शक्ति संपन्न ईरान को बर्दाश्त नहीं करेगा।  ईरान और पश्चिमी देशों के बीच हुआ परमाणु समझौता डोनाल्ड ट्रंप ने ख़त्म कर दिया था। लेकिन जो बाइडन के राष्ट्रपति बनने के बाद से नए सिरे से परमाणु समझौते को लागू करने की क़वायद चल रही थी।

मार्च 2022 में ही ये बातचीत भी रद्द हो गई क्योंकि ईरान चाह रहा था कि अमेरिका अपने विदेशी आतंकी संगठन की लिस्ट से रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प को हटा दे लेकिन ये मुद्दा सुलझ नहीं सका और बातचीत भी बंद पड़ गई।

ईरान कई बार ये आरोप लगा चुका है कि इसराइल ने उसके परमाणु ठिकानों पर हमला किया है और ईरान के न्यूक्लियर वैज्ञानिकों की हत्या कराई है। इसराइल इन आरोपों को न तो नकारता है और न ही इसकी पुष्टि करता है।

साथ ही इसराइल और ईरान के बीच समुद्र में अघोषित टकराव भी सामने आता रहता है, जिसमें जहाजों पर रहस्यमय हमले होते हैं।

इसराइल ईरान के परमाणु कार्यक्रमों को लेकर अपनी चिंताएं जताता रहा है। इसराइल को शक है कि ईरान परमाणु हथियारों का निर्माण कर रहा है, जिससे ईरान इनकार करता रहा है।

इसराइल और खाड़ी देशों की क़रीबी पर ईरान की नज़र

हाल के कुछ सालों में खाड़ी के कई देश इसराइल के क़रीब आए हैं। अभी मार्च 2022 में ही इसराइल में चार अरब देशों का बड़ा सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें शामिल होने के लिए अमेरिका के विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन भी पहुंचे।

इस सम्मेलन में संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, मोरक्को और मिस्र के विदेश मंत्रियों ने हिस्सा लिया। ये पहली बार था जब इसराइल ने इतने सारे अरब देशों के वरिष्ठ अधिकारियों की बैठक आयोजित की है।

ऐसी बैठक और क़रीबी को मध्य-पूर्व में ईरान के ख़िलाफ़ एक नए क्षेत्रीय गठजोड़ के तौर पर भी देखा जा रहा है। ये भी कहा जा रहा है कि मुलाक़ात ने ये भी साफ़ कर दिया है कि अब अरब देश फ़लस्तीन विवाद के मुद्दे का हल निकाले बिना ही इसराइल के साथ संबंध बढ़ाने के लिए तैयार हैं।

इसराइली मीडिया में आई ख़बरों के मुताबिक, बैठक के आख़िर में इसराइली विदेश मंत्री याएर लैपिड ने बताया कि सम्मेलन में शामिल होने वाले सभी देशों के बीच ड्रोन और मिसाइल हमलों, समुद्री हमलों से सुरक्षा के लिए एक ''क्षेत्रीय व्यवस्था'' बनाए जाने को लेकर चर्चा हुई। याएर लैपिड का इशारा ईरान या उसके सहयोगी देशों की ओर था।

दरअसल, ये सभी देश ईरान की गतिविधियों को लेकर सवाल उठाते रहे हैं।

सऊदी अरब, बहरीन और यूएई, ईरान और उसके इस्लामिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड कोर (आईआरजीसी) को लेकर भी हमेशा संदेह में रहे हैं। बीबीसी के सुरक्षा संवाददाता फ्रैंक गार्डनर ने अपनी रिपोर्ट में इसके एक कारण का ज़िक्र करते हुए लिखा है, ''वो ईरान को लेकर सतर्क रहते हैं क्योंकि ईरान ने अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों का उल्लंघन करते हुए मध्य पूर्व में ताक़तवर छद्म मिलिशिया गुटों का नेटवर्क तैयार किया है।''

ऐसे में ईरान, इसराइल के साथ अपने दुश्मनी के संबंधों को खुलकर जाहिर कर ही रहा है साथ ही इसराइल पर निशाना साध अरब देशों को अपने रुख के बारे में संकेत भी दे रहा है।

हालांकि, नेशनल आर्मी डे पर इब्राहिम रईसी ने कहा, "हमारी रणनीति हमला करने की नहीं बल्कि बचाव की है।''

उन्होंने आगे कहा, ''ईरान की सेना ने ख़ुद को और मजबूत बनाने के लिए प्रतिबंधों के मौके का अच्छा इस्तेमाल किया है और हमारा सैन्य उद्योग सबसे अच्छे आकार में है।''

लाइव: यूक्रेन पर रूस का हमला

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रूस ने 24 फरवरी 2022 को यूक्रेन पर हमला कर दिया। यूक्रेन पर रूस के हमले के बारे में यूक्रेन के भीतर से रिपोर्ट्स, विश्लेषण, ताज़ा खबरें और वीडियो के लिए नीचे दिए गए लिंक्स पर क्लिक करें।

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फिलिस्तीन में इसराइल की स्थापना: फिलिस्तीन का पतन, इसराइल का उदय

इसराइल और फ़लस्तीनी लड़ाकों के बीच एक बार फिर संघर्ष शुरू हो गया है। जिस स्तर की गोलाबारी इस बार देखी जा रही है, वो पिछले कई सालों में नहीं हुई थी।

फ़लस्तीनी चरमपंथियों ने ग़ज़ा पट्टी से इसराइल के इलाक़े में कई सौ रॉकेट दागे हैं और इसराइल ने इसका जवाब बर्बाद कर देने वाले अपने हवाई हमलों से दिया है।

फ़लस्तीन की ओर से दागे जाने वाले रॉकेटों का निशाना तेल अवीव, मोडिन, बीरशेबा जैसे इसराइली शहर हैं। इसराइल की मिसाइल प्रतिरक्षा प्रणाली आयरन डोम फ़लस्तीनी पक्ष के हमलों का जवाब दे रही है। लेकिन ख़तरे के सायरनों का बजना अभी रुका नहीं है।

इसराइल ने ग़ज़ा के कई ठिकानों पर हवाई हमले किए हैं। दोनों पक्षों की ओर जान और माल का नुक़सान हुआ है। दर्जनों फ़लस्तीनी मारे गए हैं जबकि दूसरी तरफ़ कम से कम 10 इसराइली लोगों की जान गई है।

यरूशलम में इसराइल की पुलिस और फ़लस्तीनी प्रदर्शनकारियों के बीच हफ़्तों से चले आ रहे तनाव के बाद ये सशस्त्र संघर्ष शुरू हुआ है। यरूशलम वो जगह है, जो दुनिया भर के यहूदियों और मुसलमानों के लिए पवित्र माना जाता है।

अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने दोनों ही पक्षों से शांति बनाए रखने की अपील की है। मध्य पूर्व में संयुक्त राष्ट्र के शांति दूत टोर वेन्नेसलैंड ने कहा है कि वहाँ बड़े पैमाने पर लड़ाई छिड़ने का ख़तरा है।

लेकिन इसराइल और फ़लस्तीनी लोगों का संघर्ष सालों पुराना है और इसे उसी नज़रिए से देखा जाना चाहिए। इसराइलियों और फ़लस्तीनियों के बीच का विवाद इतना जटिल क्यों है और इसे लेकर दुनिया बँटी हुई क्यों है? इसे समझने के लिए हमें इसराइल और फ़लस्तीन का इतिहास जानना होगा।

संघर्ष कैसे शुरू हुआ?

बीसवीं सदी की शुरुआत में यूरोप में यहूदियों को निशाना बनाया जा रहा था। इन हालात में यहूदी लोगों के लिए एक अलग देश की मांग ज़ोर पकड़ने लगी। भूमध्य सागर और जॉर्डन नदी के बीच पड़ने वाला फ़लस्तीन का इलाक़ा मुसलमानों, यहूदियों और ईसाई धर्म, तीनों के लिए पवित्र माना जाता था। फ़लस्तीन पर ऑटोमन साम्राज्य का नियंत्रण था और ये ज़्यादातर अरबों और दूसरे मुस्लिम समुदायों के क़ब्ज़े में रहा।

इस सब के बीच फ़लस्तीन में यहूदी लोग बड़ी संख्या में आकर बसने लगे और फ़लस्तीन के लोगों में उन्हें लेकर विरोध शुरू हो गया।

प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के बाद ऑटोमन साम्राज्य (उस्मानिया साम्राज्य) का विघटन हो गया और ब्रिटेन को राष्ट्र संघ की ओर से फ़लस्तीन का प्रशासन अपने नियंत्रण में लेने की मंज़ूरी मिल गई।

लेकिन प्रथम विश्व युद्ध के पहले और लड़ाई के दौरान अंग्रेज़ों ने फ़लस्तीन में अरबों और यहूदी लोगों से कई वायदे किए थे जिसका वे थोड़ा सा हिस्सा भी पूरा नहीं कर पाए। ब्रिटेन ने फ्रांस के साथ पहले ही मध्य पूर्व का बँटवारा कर लिया था। इस वजह से फ़लस्तीन में अरब लोगों और यहूदियों के बीच तनाव की स्थिति पैदा हो गई और दोनों ही पक्षों के सशस्त्र गुटों के बीच हिंसक झड़पों की शुरुआत हो गई।

द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) और जर्मनी में हिटलर और नाज़ियों के हाथों यहूदियों के व्यापक जनसंहार के बाद यहूदियों के लिए अलग देश की मांग को लेकर दबाव बढ़ने लगा। उस वक्त ये योजना बनी कि ब्रिटेन के नियंत्रण वाले इलाक़े फ़लस्तीन को फ़लस्तीनियों और यहूदियों के बीच बाँट दिया जाएगा।

आख़िरकार 14 मई, 1948 को ब्रिटेन की मदद से फ़लस्तीन में जबरदस्ती इसराइल की स्थापना हो गई। और यहूदियों द्वारा फ़लस्तीन को ख़त्म कर दिया गया। इसराइल के गठन के साथ ही एक स्थानीय तनाव क्षेत्रीय विवाद में बदल गया। अगले ही दिन मिस्र, जॉर्डन, सीरिया और इराक़ ने इस इलाक़े पर हमला कर दिया। ये पहला अरब-इसराइल संघर्ष था। इसे ही यहूदियों का कथित स्वतंत्रता संग्राम भी कहा गया था। इस लड़ाई के ख़त्म होने के बाद संयुक्त राष्ट्र ने एक अरब राज्य के लिए आधी ज़मीन मुकर्रर की।

फ़लस्तीनियों के लिए वहीं से त्रासदी का दौर शुरू हो गया। साढ़े सात लाख फलस्तीनियों को भागकर पड़ोसी देशों में पनाह लेनी पड़ी या फिर यहूदी सशस्त्र बलों ने उन्हें खदेड़ कर बेदखल कर दिया।

लेकिन साल 1948 यहूदियों और अरबों के बीच कोई आख़िरी संघर्ष नहीं था। साल 1956 में स्वेज़ नहर को लेकर विवाद हुआ और इसराइल और मिस्र फिर एक दूसरे के सामने खड़े हो गए। लेकिन ये मामला युद्ध के बिना सुलझा लिया गया।

लेकिन साल 1967 में छह दिनों तक चला अरब-इसराइल संघर्ष एक तरह से आखिरी बड़ी लड़ाई थी। पाँच जून 1967 से दस जून 1967 के बीच जो युद्ध हुआ, उसका दीर्घकालीन प्रभाव कई स्तरों पर देखा गया।

अरब देशों के सैनिक गठबंधन पर इसराइल को जीत मिली। ग़ज़ा पट्टी, मिस्र का सिनाई प्रायद्वीप, जॉर्डन से वेस्ट बैंक (पूर्वी यरूशलम सहित) और सीरिया से गोलन पहाड़ी इसराइल के नियंत्रण में आ गए। पाँच लाख फ़लस्तीनी लोग विस्थापित हो गए।

आख़िरी अरब-इसराइल संघर्ष साल 1973 का योम किप्पुर युद्ध था। मिस्र और सीरिया ने इसराइल के खिलाफ़ ये जंग लड़ी। मिस्र को सिनाई प्रायद्वीप फिर से हासिल हो गया। साल 1982 में इसराइल ने सिनाई प्रायद्वीप पर अपना दावा छोड़ दिया लेकिन ग़ज़ा पर नहीं। छह साल बाद मिस्र इसराइल के साथ शांति समझौता करने वाला पहला अरब देश बना। जॉर्डन ने आगे चलकर इसका अनुसरण किया।

इसराइल की स्थापना मध्य पूर्व में क्यों हुई?

यहूदियों का मानना है कि आज जहाँ इसराइल बसा हुआ है, ये वही इलाक़ा है, जो ईश्वर ने उनके पहले पूर्वज अब्राहम और उनके वंशजों को देने का वादा किया था।

पुराने समय में इस इलाक़े पर असीरियों (आज के इराक़, ईरान, तुर्की और सीरिया में रहने वाले क़बायली लोग), बेबीलोन, पर्सिया, मकदूनिया और रोमन लोगों का हमला होता रहा था। रोमन साम्राज्य में ही इस इलाक़े को फ़लस्तीन नाम दिया गया था और ईसा के सात दशकों बाद यहूदी लोग इस इलाक़े से बेदखल कर दिए गए।

इस्लाम के अभ्युदय के साथ सातवीं सदी में फ़लस्तीन अरबों के नियंत्रण में आ गया और फिर यूरोपीय हमलावरों ने इस पर जीत हासिल की। साल 1516 में फ़लस्तीन ऑटोमन साम्राज्य (उस्मानिया साम्राज्य) के नियंत्रण में चला गया और फिर प्रथम विश्व युद्ध के बाद 29 सितम्बर 1923 को ब्रिटेन का फ़लस्तीन पर कब्ज़ा हो गया। जो 14 मई, 1948 को इसराइल की स्थापना के एक दिन बाद 15 मई, 1948 तक रहा।

15 मई 1948 के बाद सत्ता के सुचारु परिवर्तन की अनुमति देने के लिए, अनिवार्य शक्ति के रूप में ब्रिटेन को फिलिस्तीन की अनंतिम सरकार के रूप में संयुक्त राष्ट्र फिलिस्तीन आयोग को सौंपना था।

फ़लस्तीन पर संयुक्त राष्ट्र की एक स्पेशल कमेटी ने तीन सितंबर, 1947 को जेनरल असेंबली को अपनी रिपोर्ट सौंपी। इस रिपोर्ट में कमेटी ने मध्य पूर्व में यहूदी राष्ट्र की स्थापना के लिए धार्मिक और ऐतिहासिक दलीलों को स्वीकार कर लिया।

साल 1917 के बालफोर घोषणापत्र में ब्रिटिश सरकार ने यहूदियों को फ़लस्तीन में 'राष्ट्रीय घर' देने की बात मान ली थी। इस घोषणापत्र में यहूदी लोगों के फ़लस्तीन के साथ ऐतिहासिक संबंध को मान्यता दी गई थी और इसी के आधार पर फ़लस्तीन के इलाक़े में यहूदी राज्य की नींव पड़ी।

यूरोप में नाज़ियों के हाथों लाखों यहूदियों के जनसंहार के बाद और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान एक अलग यहूदी राष्ट्र को मान्यता देने के लिए अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ने लगा था।

अरब लोगों और यहूदियों के बीच बढ़ते तनाव को सुलझाने में नाकाम होने के बाद ब्रिटेन ने ये मुद्दा संयुक्त राष्ट्र के विचार के लिए रखा।

29 नवंबर, 1947 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने फ़लस्तीन के बँटवारे की योजना को मंज़ूरी दे दी। इसमें एक अरब देश और यहूदी राज्य के गठन की सिफ़ारिश की गई और साथ ही यरूशलम के लिए एक विशेष व्यवस्था का प्रावधान किया गया।

इस योजना को यहूदियों ने स्वीकार कर लिया लेकिन अरब लोगों ने ख़ारिज कर दिया। वे इसे अपनी ज़मीन खोने के तौर पर देख रहे थे। यही वजह थी कि संयुक्त राष्ट्र की योजना को कभी लागू नहीं किया जा सका।

फ़लस्तीन पर ब्रिटेन का नियंत्रण समाप्त होने के एक दिन पहले 14 मई, 1948 को स्वतंत्र इसराइल के गठन की घोषणा कर दी गई। इसके अगले दिन इसराइल ने संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता के लिए आवेदन किया और एक साल बाद उसे इसकी मंज़ूरी मिल गई। संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों में 83 फ़ीसदी देश इसराइल को मान्यता दे चुके हैं। दिसंबर, 2019 तक 193 देशों में 162 ने इसराइल को मान्यता दे दी थी।

दो फलस्तीनी क्षेत्र क्यों हैं?

फ़लस्तीन पर संयुक्त राष्ट्र की स्पेशल कमेटी ने 1947 में जनरल असेंबली को रिपोर्ट सौंपी थी, उसमें ये सिफ़ारिश की गई थी कि अरब राष्ट्र में वेस्टर्न गैली (समारिया और ज्युडिया का पहाड़ी इलाका) शामिल किया जाए।

कमेटी ने यरूशलम और मिस्र की सीमा से लगने वाले इस्दुद के तटीय मैदान को इससे बाहर रखने की सिफ़ारिश की थी।

लेकिन इस क्षेत्र के बँटवारे को साल 1949 में खींची गई आर्मीस्टाइस रेखा से परिभाषित किया गया। ये रेखा इसराइल के गठन और पहले अरब-इसराइल युद्ध के बाद खींची गई थी।

फ़लस्तीन के ये दो क्षेत्र हैं वेस्ट बैंक (जिसमें पूर्वी यरूशलम शामिल है) और ग़ज़ा पट्टी। ये दोनों क्षेत्र एक दूसरे से 45 किलोमीटर की दूरी पर हैं। वेस्ट बैंक का क्षेत्रफल 5970 वर्ग किलोमीटर है तो ग़ज़ा पट्टी का क्षेत्रफल 365 वर्ग किलोमीटर।

वेस्ट बैंक यरूशलम और जॉर्डन के पूर्वी इलाक़े के बीच पड़ता है। यरूशलम को फ़लस्तीनी पक्ष और इसराइल दोनों ही अपनी राजधानी बताते हैं।

ग़ज़ा पट्टी 41 किलोमीटर लंबा इलाक़ा है, जिसकी चौड़ाई 6 से 12 किलोमीटर के बीच पड़ती है।

ग़ज़ा की 51 किलोमीटर लंबी सीमा इसराइल से लगती है, सात किलोमीटर मिस्र के साथ और 40 किलोमीटर भूमध्य सागर का तटवर्ती इलाक़ा है।

ग़ज़ा पट्टी को इसराइल ने साल 1967 की लड़ाई में अपने नियंत्रण में ले लिया था। साल 2005 में इसराइल ने इस पर अपना क़ब्ज़ा छोड़ दिया। हालांकि इसराइल गज़ा पट्टी से लोगों, सामानों और सेवाओं की आमदरफ्त को हवा, ज़मीन और समंदर हर तरह से नियंत्रित करता है।

फ़िलहाल गज़ा पट्टी हमास के नियंत्रण वाला इलाक़ा है। हमास इसराइल का सशस्त्र गुट है जो फ़लस्तीन के अन्य धड़ों के साथ इसराइल के समझौते को मान्यता नहीं देता है।

इसके उलट, वेस्ट बैंक पर फ़लस्तीनी नेशनल अथॉरिटी का शासन है। फ़लस्तीनी नेशनल अथॉरिटी को अंतरराष्ट्रीय समुदाय फ़लस्तीनियों की सरकार के रूप में मान्यता देता है।

फलस्तीनियों और इसराइलियों के बीच क्या कभी कोई समझौता हुआ है?

इसराइल के गठन और हज़ारों फ़लस्तीनियों के विस्थापित होने के बाद वेस्ट बैंक, गज़ा और अरब देशों के यहाँ बने शरणार्थी शिविरों में फ़लस्तीनी आंदोलन अपनी जड़ें जमाने लगा।

इस आंदोलन को जॉर्डन और मिस्र का समर्थन हासिल था।

साल 1967 की लड़ाई के बाद यासिर अराफात की अगुवाई वाले 'फतह' जैसे फ़लस्तीनी संगठनों ने 'फ़लस्तीनी लिबरेशन ऑर्गनाइज़ेशन' बनाया।

पीएलओ ने इसराइल के ख़िलाफ़ पहले जॉर्डन से और फिर लेबनान से कार्रवाई की शुरुआत की।

लेकिन इन हमलों में इसराइल के भीतर और बाहर के सभी ठिकानों को निशाना बनाया गया। इसराइल के दूतावासों, खिलाड़ियों, उसके हवाई जहाज़ों में कोई भेदभाव नहीं किया गया।

इसराइली टारगेट्स पर फ़लस्तीनियों के सालों तक हमले होते रहे और आख़िर में साल 1993 में ओस्लो शांति समझौता हुआ जिस पर पीएलओ और इसराइल ने दस्तखत किए।

फलस्तीनी लिबरेशन ऑर्गनाइज़ेशन ने 'हिंसा और चरमपंथ' का रास्ता छोड़ने का वादा किया और इसराइल के शांति और सुरक्षा के साथ जीने के अधिकार को मान लिया। हालाँकि हमास इस समझौते को स्वीकार नहीं करता है।

इस समझौते के बाद फ़लस्तीनी नेशनल अथॉरिटी का गठन हुआ और इस संगठन को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर फ़लस्तीनी लोगों की नुमाइंदगी का हक़ मिल गया।

इस संगठन के अध्यक्ष का चुनाव सीधे मतदान के द्वारा होता है। अध्यक्ष एक प्रधानमंत्री और उसकी कैबिनेट की नियुक्ति करता है। इसके पास शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों की नागरिक सुविधाओं के प्रबंधन का अधिकार है।

पूर्वी यरूशलम जिसे ऐतिहासिक तौर पर फ़लस्तीनियों की राजधानी माना जाता है, को ओस्लो शांति समझौता में शामिल नहीं किया गया था।

यरूशलम को लेकर दोनों पक्षों में गहरा विवाद है।

फ़लस्तीनियों और इसराइलियों के बीच विवाद के मुख्य बिंदु क्या हैं?

एक स्वतंत्र फ़लस्तीनी राष्ट्र के गठन में देरी, वेस्ट बैंक में यहूदी बस्तियाँ बसाने का काम और फ़लस्तीनी क्षेत्र के आस-पास सुरक्षा घेरा, ये वो वजहें हैं जिससे शांति प्रक्रिया में बाधा पहुँचती है।

हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने फ़लस्तीनी क्षेत्र के आस-पास इसराइल के सुरक्षा घेरे की आलोचना भी की है।

साल 2000 में अमेरिका के कैंप डेविड में जब राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की मौजूदगी में दोनों पक्षों के बीच सुलह कराने की आख़िरी बार गंभीर कोशिश हुई थी, तभी ये साफ़ हो गया था कि फ़लस्तीनियों और इसराइलियों के बीच शांति की राह में केवल यही बाधाएँ नहीं है।

उस वक्त इसराइल के प्रधानमंत्री एहुद बराक और यासिर अराफात के बीच बिल क्लिंटन समझौता कराने में नाकाम रहे थे। जिन मुद्दों पर दोनों पक्षों के बीच असहमति थी, वे थीं - यरूशलम, सीमा और ज़मीन, यहूदी बस्तियाँ और फ़लस्तीनी शरणार्थियों का मुद्दा।

इसराइल का दावा है कि यरूशलम उसका इलाक़ा है। उसका कहना है कि साल 1967 में पूर्वी यरूशलम पर कब्जे के बाद से ही यरूशलम उसकी राजधानी रही है लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे मान्यता नहीं मिली हुई है। फ़लस्तीनी पक्ष पूर्वी यरूशलम को अपनी राजधानी बनाना चाहता है।

फ़लस्तीनियों की मांग है कि छह दिन तक चले अरब-इसराइल युद्ध यानी चार जून, 1967 से पहले की स्थिति के मुताबिक़ उसकी सीमाओं का निर्धारण किया जाए जिसे इसराइल मानने से इनकार करता है।

यहूदी बस्तियाँ इसराइल ने क़ब्ज़े वाली ज़मीन पर बसाई हैं। अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के तहत ये अवैध हैं। वेस्ट बैंक और पूर्वी यरूशलम में इन बस्तियों में पाँच लाख से ज़्यादा यहूदी रहते हैं।

फ़लस्तीनी शरणार्थियों की संख्या वास्तव में कितनी है, ये इस बात पर निर्भर करता है कि कौन इसे गिन रहा है। पीएलओ का कहना है कि इनकी संख्या एक करोड़ से अधिक है। इनमें आधे लोग संयुक्त राष्ट्र के पास रजिस्टर्ड हैं। फ़लस्तीनियों का कहना है कि इन शरणार्थियों को अपनी ज़मीन पर लौटने का हक़ है। लेकिन वो जिस ज़मीन की बात कर रहे हैं, वो आज का इसराइल है और अगर ऐसा हुआ तो यहूदी राष्ट्र के तौर पर उसकी पहचान का क्या होगा।

क्या फ़लस्तीन एक देश है?

संयुक्त राष्ट्र फ़लस्तीन को एक 'गैर सदस्य-ऑब्ज़र्वर स्टेट' के तौर पर मान्यता देता है।

फ़लस्तीनियों को जनरल असेंबली की बैठक और बहस में हिस्सा लेने का अधिकार है ताकि संयुक्त राष्ट्र के संगठनों की सदस्यता लेने की उनकी संभावना बेहतर हो सके।

साल 2011 में फ़लस्तीन ने पूर्ण सदस्यता के लिए आवेदन किया था लेकिन ये हो नहीं पाया।

संयुक्त राष्ट्र महासभा के 70 फ़ीसदी से ज़यादा सदस्य फ़लस्तीन को एक राज्य के तौर पर मान्यता देते हैं।

अमेरिका इसराइल का मुख्य साथी क्यों हैं? फ़लस्तीन को किनका समर्थन हासिल है?

इसके लिए अमेरिका में मौजूद इसराइल समर्थक ताक़तवर लॉबी की अहमियत समझनी होगी। अमेरिका में जनमत भी इसराइल के रुख़ का समर्थन करता है।

इसलिए किसी अमेरिकी राष्ट्रपति का इसराइल से समर्थन वापस लेना हकीकत में नामुमकिन है।

इसके अलावा दोनों देश सैन्य सहयोगी भी हैं। इसराइल को अमेरिका की सबसे ज्यादा मदद मिली है। ये मदद हथियारों की ख़रीद और पैसे के रूप में मिलती है।

हालाँकि साल 2016 में जब सुरक्षा परिषद में इसराइल की यहूदी बस्तियाँ बसाने की नीति की आलोचना पर वोटिंग हो रहे थे, तो ओबामा प्रशासन ने अपने वीटो पावर का इस्तेमाल नहीं किया था।

लेकिन व्हाइट हाउस में डोनाल्ड ट्रंप के आने के बाद दोनों देशों के रिश्तों को नईं ज़िंदगी मिली। अमेरिका ने अपना दूतावास तेल अवीव से हटाकर यरूशलम स्थानांतरित कर लिया। इसके साथ ही अमेरिका दुनिया का पहला ऐसा देश बन गया जिसने यरूशलम को इसराइल की राजधानी के रूप में मान्यता दी।

अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों में राष्ट्रपति ट्रंप धनी अरब देशों से इसराइल के रिश्ते सामान्य करने की दिशा में कामयाब रहे थे।

हालांकि बाइडन प्रशासन ने सत्ता संभालने के बाद से ही इसराइल फ़लस्तीन के जोखिम भरे संघर्ष से दूरी बनाने की रणनीति अपनाई है। जानकारों का कहना है कि बाइडन प्रशासन इसे ऐसी समस्या के तौर पर देखता है जिसमें बड़ी राजनीतिक पूंजी की ज़रूरत है और जो हासिल होगा, वो पक्का नहीं है।

इसराइल को अमेरिकी समर्थन जारी है लेकिन बाइडन प्रशासन की कूटनीति में एहतियात दिखता है। हालांकि मौजूदा हिंसा के बाद बाइडन को अपनी पार्टी के वामपंथी धड़े की आलोचनाओं का सामना करना पड़ सकता है जो इसराइल के आलोचक रहे हैं।

दूसरी तरफ़ तुर्की, पाकिस्तान, चीन, भारत, मलेशिया, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, मिस्र, सीरिया, ईरान और कई अरब देश फ़लस्तीन के मुद्दे पर फ़लस्तीनी लोगों के साथ हैं। अरब देशों में फ़लस्तीनियों के लिए सहानुभूति की भावना है।

शांति का रास्ता क्या बचता है और इसके लिए क्या करना होगा?

विशेषज्ञों का कहना है कि स्थाई शांति के लिए इसराइल को फ़लस्तीनियों की संप्रभुता स्वीकार कर लेनी चाहिए जिसमें हमास भी शामिल हो। उसे ग़ज़ा से नाकाबंदी ख़त्म कर लेनी चाहिए और वेस्ट बैंक और पूर्वी यरूशलम में पाबंदियाँ भी उठा लेनी चाहिए।

दूसरी तरफ़ फ़लस्तीनी गुटों को स्थाई शांति के लिए हिंसा का रास्ता छोड़ना होगा और इसराइल को स्वीकार करना होगा।

सीमाओं, यहूदी बस्तियों और फलस्तीनी शरणार्थियों की वापसी के मुद्दे पर दोनों पक्षों को स्वीकार्य समझौते तक पहुँचना होगा।