ह्यूमन इम्यूनोडेफ़िशियेंसी वायरस (एचआईवी) पर शोध करने वाले अमरीका के एक नामी वैज्ञानिक ने कहा है कि उन्हें नहीं लगता कि कोरोना वायरस की वैक्सीन जल्द आने वाली है।
विलियम हेसलटाइन जिनके कैंसर, एचआईवी समेत अन्य प्रोजेक्ट्स पर किए काम की काफ़ी चर्चा रही है, उनसे पूछा गया था कि कोविड-19 का टीका कितनी जल्द विकसित होने की संभावना है?
इसके जवाब में उन्होंने समाचार एजेंसी रॉयटर्स से कहा कि वे इसका इंतज़ार नहीं करना चाहेंगे क्योंकि उन्हें नहीं लगता कि निकट भविष्य में यह संभव है।
उन्होंने कहा है कि कोरोना वायरस महामारी को रोकने के लिए ज़रूरी है कि मरीज़ों की बेहतर पड़ताल की जाए, उन्हें सही तरीक़े से ढूंढा जाए और जहाँ संक्रमण फ़ैलता दिखे, वहीं उसे सख़्त आइसोलेशन के ज़रिए रोका जाए।
अमरीका की सरकार को परामर्श देते हुए उन्होंने कहा है कि उन्हें टीके के इंतज़ार में नहीं बैठे रहना चाहिए। अगर शीर्ष नेता ये सोच रहे हैं कि टीका तैयार होने की घोषणा के आधार पर ही वे लॉकडाउन के प्रतिबंधों में छूट देने का निर्णय करेंगे, तो यह रणनीति सही नहीं है।
अन्य किस्मों के कोरोना वायरस के लिए पहले जो वैक्सीन तैयार की गई हैं, वो नाक को संक्रमण से सुरक्षा देने में विफल रही है जहाँ से वायरस के शरीर में दाखिल होने की सबसे ज़्यादा आशंका रहती है।
विलियम हेसलटाइन ने कहा है कि बिना किसी प्रभावी इलाज या फिर टीके के भी कोरोना वायरस को कंट्रोल किया जा सकता है। इसके लिए संक्रमण की सही पहचान ज़रूरी है। जो लोग संक्रमित हैं, उन्हें आइसोलेशन में रखना सबसे ज़्यादा कारगर है। बाक़ी लोग हाथ धोते रहें, मास्क पहनें और सबसे अधिक इस्तेमाल होने वाली चीज़ों और जगहों को साफ़ रखें, तो भी इसमें काफ़ी कमी आ सकती है।
विलियम हेसलटाइन मानते हैं कि चीन और कई अन्य एशियाई देशों ने इस वैकल्पिक रणनीति को बहुत प्रभावशाली तरीक़े से लागू किया है जबकि अमरीका में ऐसा नहीं देखा गया कि जो लोग वायरस से संक्रमित हो गए हों, उन्हें सख़्त आइसोलेशन में रखा गया हो।
उनके अनुसार चीन, दक्षिण कोरिया और ताइवान इस तरीक़े से कोरोना वायरस की संक्रमण दर को कम करने में सफल रहे हैं जबकि अमरीका, रूस और ब्राज़ील इसमें नाकाम रहे।
प्रोफ़ेसर विलियम ने कहा, ''जानवरों पर कोविड-19 के रिसर्च वैक्सीन आज़माने से अब तक यह तो पता चला है कि इनसे मरीज़ के शरीर में, ख़ासतौर से फ़ेफड़ों में संक्रमण का असर कम होता देखा गया है।''
कुछ देशों में प्लाज़्मा थेरेपी का भी ट्रायल चल रहा है। इस थेरेपी में कोविड-19 से ठीक हुए मरीज़ों के शरीर से एंटी-बॉडी लेकर संक्रमित मरीज़ों के शरीर में डाल दी जाती हैं। माना जा रहा है कि इससे मरीज़ों में कोरोना वायरस से लड़ने की क्षमता बढ़ जाती है।
कुछ दवा कंपनियाँ अब इसी थेरेपी के मद्देनज़र बेहतर और रिफ़ाइंड सीरम तैयार कर रही हैं जिसके कोविड-19 के मरीज़ों में काम करने की संभावना है। प्रोफ़ेसर विलियम भी इस विधि के सफ़ल होने की काफ़ी संभावना मानते हैं।
उनका कहना है कि यह भविष्य में इसका पहला इलाज साबित हो सकता है क्योंकि ये एंटी-बॉडी जिन्हें हाइपरइम्यून ग्लोब्यूलिन कहा जा रहा है, मानव शरीर के हर सेल में जाकर उसे वायरस को ख़त्म करने की क्षमता देती हैं।
बीते चार दशकों में पहली बार ऐसा हुआ है जब भारत का कार्बन उत्सर्जन कम हुआ है।
इसकी वजह क्या कोरोना वायरस को फैलने से रोकने के लिए लगाया गया लॉकडाउन ही है?
पर्यावरण वेबसाइट कार्बन ब्रीफ़ की रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में लॉकडाउन लागू होने से पहले ही बिजली की खपत कम होने की वजह से और अक्षय ऊर्जा का इस्तेमाल बढ़ने से ईंधन की मांग कम हो गई थी।
फिर मार्च में लागू लॉकडाउन ने बीते सैंतीस सालों में पहली बार भारत में कार्बन उत्सर्जन की बढ़त के ट्रेंड को पलट दिया।
शोध के मुताबिक़ मार्च में भारत का कार्बन उत्सर्जन 15 प्रतिशत कम हुआ है और अप्रैल में तीस प्रतिशत कम होने की उम्मीद (अभी इसके आंकड़े आना बाक़ी है) ज़ाहिर की गई है। यानि दो महीने में कार्बन उत्सर्जन में 45 प्रतिशत की कमी हुई है।
बिजली की माँग में जो भी कमी हुई है उससे कोयला आधारित जेनरेटर ही प्रभावित हुए हैं। और यही शायद कार्बन उत्सर्जन कम होने की वजह भी है।
कोयले से होने वाला बिजली उत्पादन मार्च में 15 प्रतिशत और अप्रैल के पहले तीन सप्ताह में 31 प्रतिशत कम हुआ।
लेकिन लॉकडाउन से पहले ही कोयले की माँग कम होने लगी थी।
शोध के मुताबिक़ मार्च 2020 में समाप्त होने वाले वित्तीय वर्ष में कोयले की बिक्री दो प्रतिशत कम हुई थी।
यूं तो ये आंकड़ा कम है लेकिन जब इसे बीते वर्षों की तुलना में देखा जाए तो ये काफ़ी बड़ा लगता है।
बीते एक दशक में हर साल कोयले से बिजली के उत्पादन में प्रति वर्ष 7.5 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई थी।
भारत में तेल की खपत में भी इसी तरह की कमी नज़र आती है।
साल 2019 की शुरुआत से ही इसकी ईंधन खपत की रफ़्तार धीमी होने लगी थी।
और इसमें भी कोविड-19 की वजह से लागू लॉकडाउन का असर स्पष्ट है।
मार्च में तेल की खपत में बीते साल के मुक़ाबले 18 प्रतिशत की गिरावट आई।
इसी बीच अक्षय ऊर्जा स्रोतों से बिजली की आपूर्ति बढ़ी है और लॉकडाउन के दौरान स्थिर रही है।
हालांकि लॉकडउन की वजह से माँग में कमी के बावजूद अक्षय ऊर्जा स्रोतों के उत्पादन के स्थिर रहने का ये ट्रेंड भारत तक ही सीमित नहीं है।
इंटरनेशनल इनर्जी एजेंसी (आईईए) की ओर से अप्रैल के अंत में प्रकाशित आंकड़ों के मुताबिक़ दुनियाभर में कोयले की खपत 8 प्रतिशत कम हुई है।
वहीं सौर और वायु ऊर्जा की माँग दुनियाभर में बढ़ी है।
बिजली की माँग में कमी का असर कोयले से होने वाले बिजली उत्पादन पर पड़ने की एक वजह ये भी है कि रोज़मर्रा में कोयले से बिजली उत्पादन महंगा पड़ता है।
वहीं एक बार सौर पैनल या विंड टरबाइन लगने के बाद उसे संचालित करने का ख़र्च कम होता है, और इसी वजह से इन्हें इलेक्ट्रिसिटी ग्रिड में प्राथमिकता दी जाती है।
वहीं तेल, गैस या कोयले से संचालित होने वाले थर्मल पॉवर प्लांट के लिए ईंधन ख़रीदना होता है।
हालांकि विशेषज्ञ ये भी कहते हैं कि जीवाश्म ईंधन की खपत में कमी हमेशा नहीं रहेगी।
विशेषज्ञ कहते हैं कि लॉकडाउन हटने के बाद देश अपनी अर्थव्यवस्थाओं को फिर से चलाने की कोशिश करेंगे और थर्मल पॉवर की खपत बढ़ जाएगी और कार्बन उत्सर्जन भी बढ़ेगा।
अमरीका ने पर्यावरण नियमों में ढील देनी शुरू कर दी है और डर ये है कि दुनिया के बाक़ी देश भी ऐसा ही कर सकते हैं।
हालांकि कार्बन ब्रीफ़ के विश्लेषक मानते हैं कि भारत शायद ऐसा न करे और इसके कारण भी हैं।
कोरोना वायरस महामारी ने भारत के कोयला सेक्टर में लंबे समय से चले आ रहे संकट को फिर रेखांकित किया है।
और भारत सरकार 90 हज़ार करोड़ रुपए का पैकेज तैयार कर रही है।
लेकिन भारत सरकार अक्षय ऊर्जा सेक्टर की मदद करने पर भी विचार कर रही है।
भारत में अक्षय ऊर्जा कोयले के मुक़ाबले काफ़ी सस्ती है।
रिपोर्ट में दावा किया गया है कि सौर ऊर्जा पर 2.55 रुपए प्रति किलोवाट प्रति घंटा ख़र्च आता है जबकि कोयले से उत्पादन होने वाली बिजली पर औसतन 3.38 रुपए प्रति किलोवाट प्रति घंटा ख़र्च आता है।
स्वच्छ ऊर्जा में निवेश भारत के राष्ट्रीय स्वच्छ हवा कार्यक्रम के लिए मुफ़ीद भी है। ये कार्यक्रम साल 2019 में शुरू किया गया था।
पर्यावरणविदों का ये भी मानना है कि लॉकडाउन में साफ़ हुई हवा और आसमान देख रहे भारतीय सरकार पर वायु प्रदूषण कम करने और स्वच्छ ऊर्जा में निवेश करने के लिए दबाव बनाएंगे।
भारत ने गिलगित-बल्तिस्तान में चुनाव कराए जाने को मंज़ूरी देने के पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर कड़ी आपत्ति दर्ज कराई है।
ब्रिटेन से आज़ादी से पहले गिलगित-बाल्तिस्तान जम्मू-कश्मीर रियासत का अंग हुआ करता था। लेकिन 1947 के बाद से इस पर पाकिस्तान का नियंत्रण है।
पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर को विवादित क्षेत्र मानता है और संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्तावों का हवाला देते हुए वहाँ जनमत संग्रह कराए जाने की मांग करता रहा है।
दूसरी ओर भारत का कहना है कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और भारत में उसका विलय क़ानूनी है। इस नाते गिलगित-बल्तिस्तान भी उसके हैं।
इसलिए जब 30 अप्रैल को पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट ने वहाँ चुनाव कराने को मंज़ूरी दी, तो भारत नाराज़ हो गया। भारतीय विदेश मंत्रालय ने इस पर कड़ी आपत्ति जताई है।
विदेश मंत्रालय का कहना है कि पाकिस्तान को चुनाव कराने की बजाए गिलगित-बल्तिस्तान को तुरंत ख़ाली करना चाहिए। मंत्रालय ने जारी किए गए अपने बयान में कहा है कि वहाँ चुनाव कराने का पाकिस्तान को कोई अधिकार नहीं है।
भारत का कहना है कि पाकिस्तान ने ग़ैर क़ानूनी रूप से इन क्षेत्रों को अपने क़ब्ज़े में रखा हुआ है।
भारत की प्रतिक्रिया पर पाकिस्तान ने क्या कहा है?
गिलगित-बल्तिस्तान पर भारत की प्रतिक्रिया को पाकिस्तान ने ख़ारिज कर दिया है। पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय की ओर से जारी बयान में ये जानकारी दी गई है।
प्रेस रिलीज़ के मुताबिक़ एक वरिष्ठ भारतीय राजनयिक को बुलाकर पाकिस्तान ने कहा है कि भारत की प्रतिक्रिया आधारहीन और भ्रामक है।
पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय का कहना है कि जम्मू-कश्मीर को अपना अभिन्न अंग मानने का भारत के दावे का कोई क़ानूनी आधार नहीं है और पूरा का पूरा जम्मू-कश्मीर एक विवादित क्षेत्र है और ऐसा अंतरराष्ट्रीय समुदाय भी मानता है।
पाकिस्तान ने प्रेस रिलीज़ में अपना पक्ष दोहराया है कि जम्मू-कश्मीर विवाद का फ़ैसला संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों के तहत होना चाहिए, जिसमें कश्मीरी लोगों को आत्मनिर्णय का अधिकार दिया गया है। इसका फ़ैसला स्वतंत्र और निष्पक्ष जनमत संग्रह से ही हो सकता है।
पाकिस्तान ने कहा है कि पिछले साल अगस्त में भारत की ओर से जम्मू-कश्मीर की डेमोग्राफ़ी के साथ जो छेड़छाड़ की गई है, वो जिनेवा संधि का उल्लंघन है। भारत ने पिछले साल अगस्त में जम्मू-कश्मीर को स्वायत्ता देने वाले अनुच्छेद 370 को ख़त्म कर दिया था।
साथ ही जम्मू और कश्मीर और लद्दाख़ को केंद्र शासित प्रदेश में तब्दील कर दिया था।
पाकिस्तान का कहना है कि भारत गिलगित-बल्तिस्तान का मुद्दा उठाकर अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान इससे नहीं भटका सकता कि उसकी सेना कश्मीरी लोगों को कैसे प्रताड़ित करती है।
पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट का फैसला
30 अप्रैल को अपने आदेश में पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि वहाँ चुनाव कराए जाने चाहिए और इस बीच वहाँ एक अंतरिम सरकार का गठन करना चाहिए।
और यही एक फ़ैसला है, जो गिलगित-बल्तिस्तान को लेकर पहली बार हुआ है। आम तौर भी पाकिस्तान में नए चुनाव से पहले एक अंतरिम सरकार का गठन होता है, जो चुनाव की निगरानी करती है।
पाकिस्तान में बीबीसी उर्दू सेवा के न्यूज़ एडिटर ज़ीशान हैदर के मुताबिक़ अभी तक गिलगित-बल्तिस्तान क्षेत्र के लिए ऐसा नहीं होता था। ऐसा पहली बार हुआ है कि वहाँ एक अंतरिम सरकार की अगुआई में सितंबर में चुनाव होंगे।
गिलगित-बल्तिस्तान में पहले भी कई बार चुनाव हुए हैं और कई मुख्यमंत्री बन चुके हैं। लेकिन इस बार का चुनाव अंतरिम सरकार की निगरानी में होगा।
पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस ग़ुलज़ार अहमद की अगुआई वाली सात सदस्यीय खंडपीठ ने 2018 के गिलगित-बल्तिस्तान सरकार के आदेश को संशोधित करते हुए चुनाव कराने की बात कही है।
2018 में पाकिस्तान ने कई महत्वपूर्ण अधिकार गिलगित-बल्तिस्तान असेंबली को दे दिए थे, हालांकि उसमें भी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री का अहम रोल होता था।
पहले गिलगित-बल्तिस्तान पर फ़ैसला करने के लिए एक कमेटी होती थी, जिसके प्रमुख पाकिस्तान के पीएम होते थे। लेकिन 2009 के इस आदेश को 2018 में संशोधित कर दिया गया था।
गिलगित-बल्तिस्तान की मौजूदा सरकार का कार्यकाल जून में ख़त्म हो रहा है। इसके 30 दिनों के अंदर वहाँ आम चुनाव होने चाहिए।
गिलगित-बल्तिस्तान की स्थिति क्या है?
गिलगित-बल्तिस्तान पर डोगरा वंश का नियंत्रण था। जब कश्मीर के हिन्दू महाराजा हरी सिंह ने जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय पर सहमति जताई, तो यहाँ के बहुसंख्यक मुसलमानों ने विद्रोह कर दिया।
मुसलमानों ने गिलगित-बल्तिस्तान के डोगरा गवर्नर को भगा दिया गया और फिर पाकिस्तान के सैनिकों ने इस पर क़ब्ज़ा कर लिया।
1947 से ही जम्मू-कश्मीर को लेकर भारत और पाकिस्तान अलग-अलग दावे करते रहे हैं।
चीन के शिनजियांग प्रांत और अफ़ग़ानिस्तान से भी इस इलाक़े की सीमा लगती है। इस कारण गिलगित-बल्तिस्तान का सामरिक महत्व भी है।
चीन की चर्चित इकॉनॉमिक कॉरिडोर योजना भी गिलगित-बल्तिस्तान से होकर गुज़रती है। पाकिस्तान को चीन से जोड़ने वाला काराकोरम हाईवे भी इसी इलाक़े में है।
भारत ने पाकिस्तान-चीन इकॉनॉमिक कॉरिडोर को लेकर पहले ही अपनी कड़ी आपत्ति दर्ज करा चुका है।
1970 में पाकिस्तान ने इसे अलग प्रशासनिक इकाई का दर्जा दिया था। वर्ष 2009 में पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति आसिफ़ अली ज़रदारी ने इसे सीमित स्वायत्ता दी। यहाँ मुख्यमंत्री तो होता है, लेकिन असली शक्ति गवर्नर के हाथों में ही रहती है।
एक समय गिलगित-बल्तिस्तान को पाकिस्तान के आधिकारिक प्रांत के रूप में शामिल करने की मांग उठी थी, लेकिन उस समय पाकिस्तान ने ये कहते हुए इसे ठुकरा दिया कि इससे पूरा जम्मू-कश्मीर मामले को लेकर चल रहे विवाद में उसकी मांग पर असर पड़ेगा।
पाकिस्तान पूरे जम्मू-कश्मीर को विवादित क्षेत्र मानता है और संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों के तहत वहाँ जनमत संग्रह कराने की बात करता है। हालांकि भारत इसे ख़ारिज करता रहा है।
73 हज़ार किलोमीटर में फैले गिलगित-बल्तिस्तान की आबादी क़रीब 20 लाख है।
कोरोना वायरस के संक्रमण के कारण मलेरिया की दवा निर्यात करने पर भारत सरकार ने सख़्ती बढ़ाई। कोरोना वायरस संक्रमण के मामलों में उपचार के लिए हाइड्रॉक्सीक्लोक्विन के उपयोग की सिफ़ारिश की गई है।
कोविड 19 महामारी के इस दौर में दवा की कमी नहीं हो ये सुनिश्चित करने के लिए सरकार ने मलेरिया के इलाज में इस्तेमाल होने वाली दवा हाइड्रॉक्सीक्लोक्विन के निर्यात नियमों को और सख़्त कर दिया है।
नई पाबंदियों के तहत अब हाइड्रॉक्सीक्लोक्विन को एक्सपोर्ट ओरिएंटेड यूनिट या फिर किसी निर्यात प्रोत्साहन योजना के तहत भेजने की अनुमति नहीं होगी।
डीजीएफ़टी (डायरेक्टरेट जनरल ऑफ़ फ़ॉरेन ट्रेड) की ओर से जारी एक नोटिफ़िकेशन में कहा गया कि हाइड्रॉक्सीक्लोक्विन का निर्यात या फिर हाइड्रॉक्सीक्लोक्विन से बनी दवाओं का निर्यात किसी भी सूरत में नहीं रहेगा।
इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च ने इस क़दम को महत्वपूर्ण बताया है।
कोरोना वायरस संक्रमण के मामलों में उपचार के लिए हाइड्रॉक्सीक्लोक्विन के उपयोग की सिफ़ारिश की गई है।
भारत की राजधानी दिल्ली में रह रहे हज़ारों ग़रीब सरकार की ओर से मिलने वाले राशन के लिए लगने वाली कतार में खड़े हैं। जिन फैक्ट्रियों में ये हजारों गरीब दैनिक मज़दूरी करते थे वो बंद हो गई है और उनकी आमदनी का ज़रिया भी ठप हो गया है। आने वाले वक़्त में ये गरीब लोग अपने परिवार का पेट कैसे भरेंगे? इसकी चिंता उन्हें सता रही है।
भारत की केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, ''कोई भी भूखा न रहे, सरकार इसका प्रयास कर रही है।''
लेकिन जिन कतारों में हजारों गरीब खड़े हैं वो बहुत लंबी हैं और खाने की मात्रा पर्याप्त नहीं है।
कोरोना वायरस के संक्रमण की वजह से जिस वक़्त भारत में लाखों लोग घरों में हैं और वो ऑनलाइन डिलिवरी सिस्टम का भरपूर फायदा उठा रहे हैं और घर बैठे मनचाही चीज़ें भी हासिल कर पा रहे हैं, उसी वक़्त भारत में हज़ारों लोग सड़कों पर हैं। उनके सामने रोज़ी और भोजन का संकट है।
यह विकट संकट की घड़ी है। 130 करोड़ आबादी वाले भारत में तीन हफ़्तों के लिए लॉकडाउन घोषित किया गया है। लोगों को घरों में रहने के लिए कहा गया है और कारोबार पूरी तरह ठप हैं। बड़ी संख्या में लोग घरों से काम कर रहे हैं और प्रोडक्टिविटी में भारी गिरावट देखने को मिल रही है।
बीते सप्ताह भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए आर्थिक उपायों की घोषणा करते हुए कहा था, ''दुनिया भर के देश एक अदृश्य हत्यारे से लड़ने के लिए लॉकडाउन कर रहे हैं।''
कोरोना वायरस के भारत में पहुंचने से पहले ही भारत की अर्थव्यवस्था की हालत चिंताजनक थी।
कभी दुनिया की सबसे तेज़ गति से बढ़ने वाली भारत की अर्थव्यवस्था की विकास दर बीते साल 4.7 फ़ीसदी रही। यह छह सालों में विकास दर का सबसे निचला स्तर था।
साल 2019 में भारत में बेरोज़गारी 45 सालों के सबसे अधिकतम स्तर पर थी और पिछले साल के अंत में भारत के आठ प्रमुख क्षेत्रों से औद्योगिक उत्पादन 5.2 फ़ीसदी तक गिर गया। यह बीते 14 वर्षों में सबसे खराब स्थिति थी। कम शब्दों में कहें तो भारत की आर्थिक स्थिति पहले से ही ख़राब हालत में थी।
विशेषज्ञों का मानना है कि अब कोरोना वायरस के प्रभाव की वजह से जहां एक ओर लोगों के स्वास्थ्य पर संकट छाया है तो दूसरी ओर पहले से कमज़ोर अर्थव्यवस्था को और बड़ा झटका मिल सकता है।
कोविड-19 का संक्रमण ऐसे वक़्त में फैला है जब भारत की अर्थव्यवस्था मोदी सरकार के साल 2016 के नोटबंदी के फ़ैसले की वजह से आई सुस्ती से उबरने की कोशिश कर रही है। नोटबंदी के ज़रिए मोदी सरकार कालाधन सामने लाने की कोशिश कर रही थी लेकिन भारत जैसी अर्थव्यवस्था जहां छोटे -छोटे कारोबार कैश पेमेंट पर ही निर्भर थे, इस फैसले से उनकी कमर टूट गई। अधिकतर धंधे नोटबंदी के असर से उबर ही रहे थे कि कोरोना वायरस की मार पड़ गई।
भारत में असंगठित क्षेत्र देश की करीब 94 फ़ीसदी आबादी को रोज़गार देता है और अर्थव्यवस्था में इसका योगदान 45 फ़ीसदी है। लॉकडाउन की वजह से असंगठित क्षेत्र पर बुरी मार पड़ी है क्योंकि रातोंरात हज़ारों लोगों का रोज़गार छिन गया।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 1.70 लाख करोड़ रुपये के राहत पैकेज की घोषणा की जिससे भारत के गरीब 80 करोड़ लोगों को आर्थिक बोझ से राहत मिल सके और उनकी रोज़ीरोटी चल सके। खातों में पैसे डालकर और खाद्य सुरक्षा का बंदोबस्त करके सरकार गरीबों, दैनिक मज़दूरी करने वालों, किसानों और मूलभूत सुविधाओं से वंचित लोगों की मदद करने का प्रयास कर रही है।
लेकिन क्या भारत की अर्थव्यवस्था इस थोड़े से सरकार के प्रयास से मंदी से उबर पायेगी। अर्थव्यवस्था को इस संकट के बुरे असर से बचाने के लिए और भी प्रयास किए जाने की ज़रूरत है।
राहत पैकेज की घोषणा को ज़मीनी स्तर पर लागू करना सबसे बड़ी चुनौती है। लॉकडाउन के वक़्त जब अतिरिक्त मुफ़्त राशन देने की घोषणा की गई है, गरीब लोग उस तक कैसे पहुंच पाएंगे? सरकार को सेना और राज्यों की मशीनरी की मदद से सीधे ग़रीबों तक खाने की चीज़ें पहुंचानी चाहिए।
इस वक़्त हज़ारों लोग अपने घरों से दूर फंसे हुए हैं, ऐसे में सरकार को चाहिए कि वो खातों में पैसे डालने का काम तेज़ी से करे और खाने की चीज़ों की सप्लाई को भी प्राथमिकता पर रखे।
ये वो लोग हैं जिनके खातों में तत्काल कैश ट्रांसफर किए जाने की ज़रूरत है। उन्हें किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा नहीं मिली है। सरकार को राजकोषीय घाटे की चिंता नहीं करनी चाहिए। वो आरबीआई से उधार ले और इस विपदा की घड़ी में लोगों पर खर्च करे।
सरकार ने राहत पैकेज में किसानों के लिए अलग से घोषणा की है। सरकार अप्रैल से तीन महीने तक किसानों के खातों में हर महीने 2000 रुपये डालेगी। सरकार किसानों को सालाना 6000 रुपये पहले ही देती थी।
लेकिन दो हज़ार रुपये की मदद पर्याप्त नहीं है क्योंकि निर्यात ठप हो चुका है, शहरी क्षेत्रों में कीमतें बढ़ेंगी क्योंकि मांग बढ़ रही है और ग्रामीण क्षेत्र में कीमतें गिरेंगी क्योंकि किसान अपनी फसल बेच नहीं पाएंगे।
यह संकट बेहद गंभीर समय में आया है, जब नई फसल तैयार है और बाज़ार भेजे जाने के इंतज़ार में है। भारत जैसे देश में जहां लाखों लोग गरीबी में जी रहे हैं, विशेषज्ञों का मानना है कि भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती होगी कि कठिन लॉकडाउन की स्थिति में गांवों से खाने-पीने की ये चीज़ें शहरों और दुनिया के किसी भी देश तक कैसे पहुंचेंगी। अगर सप्लाई शुरू नहीं हुई तो खाना बर्बाद हो जाएगा और भारतीय किसानों को भारी नुकसान झेलना पड़ेगा। भारत की कुल आबादी का 58 फ़ीसदी हिस्सा खेती पर निर्भर है और कृषि का देश की अर्थव्यस्था में 256 बिलियन डॉलर का योगदान है।
विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि भारत में बेरोज़गारी बढ़ने के पूरे आसार हैं। बड़ी संख्या में फैक्ट्रियां बंद होने की वजह से उत्पादन में भारी गिरावट आई है।
स्वयं रोज़गार करने वाले या छोटे कारोबार में जुड़े लोगों को राहत देने के लिए सरकार ब्याज़ और टैक्स चुकाने में छूट देकर उनकी मदद कर सकती है ताकि कारोबार उबर पाए।
भारत में बेरोज़गारी अब भी रिकॉर्ड स्तर पर है और अगर यह स्थिति जारी रहती है तो असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों को बड़ी मुश्किल झेलनी पड़ेगी। छोटे कारोबार में काम करने वाले लोग या तो कम पैसे में काम करने को मज़बूर होंगे या फिर उनकी नौकरी छिन जाएगी। कई कंपनियों में यह चर्चा चल रही है कि कितने लोगों को नौकरी से निकाले जाने की ज़रूरत है।
भारत में हवाई सफ़र पर फिलहाल 14 अप्रैल तक के लिए रोक लगी है। बंद का असर एविएशन इंडस्ट्री पर भी पड़ा है। सेंटर फॉर एशिया पैसिफिक एविएशन (CAPA) के अनुमान के मुताबिक एविएशन इंडस्ट्री को करीब चार अरब डॉलर का नुकसान झेलना पड़ेगा। इसका असर हॉस्पिटैलिटी और टूरिज्म सेक्टर पर भी होगा। भारत में होटल और रेस्टोरेंट चेन बुरी तरह प्रभावित हैं और कई महीनों तक यहां सन्नाटा पसरे रहने से बड़ी संख्या में लोगों को सैलरी न मिलने का भी संकट नज़र आ रहा है।
बंद की वजह से ऑटो इंडस्ट्री को भी भारी नुकसान हुआ है और करीब दो अरब डॉलर का अनुमानित नुकसान झेलना पड़ सकता है।
विशेषज्ञों का मानना है कि भारत ने कोरोना वायरस के प्रभाव की वजह से अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए जिस राहत पैकेज की घोषणा की है वो देश के कुल जीडीपी का एक फ़ीसदी है। सिंगापुर, चीन और अमरीका की तुलना में यह राहत पैकेज ऊंट के मुंह में जीरा जैसा है।
विशेषज्ञों का कहना है कि भारत को बड़े आर्थिक पैकेज की घोषणा जल्द करनी चाहिए ताकि कोरोना की तबाही में डूब रहे कारोबार को वापस पटरी पर लाया जा सके।
चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग शुक्रवार को म्यांमार की राजधानी नेपिडॉ पहुंचे। 19 साल बाद यह पहला मौक़ा है जब कोई चीनी राष्ट्रपति म्यांमार के दौरे पर है।
वैसे तो जिनपिंग दोनों देशों के राजनयिक रिश्तों की 70वीं वर्षगांठ पर म्यांमार आए हैं मगर इस यात्रा के दौरान वह म्यांमार की शीर्ष नेता आंग सान सू ची के साथ मिलकर चीन-म्यांमार आर्थिक गलियारे के तहत कई परियोजनाओं को शुरू करेंगे।
शी जिनपिंग के दौरे से पहले चीन के उप विदेश मंत्री लाउ शाहुई ने पत्रकारों से कहा था कि राष्ट्रपति की इस यात्रा का मक़सद दोनों देशों के रिश्तों को मज़बूत करना और बेल्ट एंड रोड अभियान के तहत आपसी सहयोग बढ़ाना है।
उन्होंने कहा था कि इस दौरे का तीसरा लक्ष्य है 'चीन-म्यांमार आर्थिक गलियारे को मूर्त रूप देना।' चीन म्यांमार आर्थिक गलियारा शी जिनपिंग के महत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड अभियान का ही अंग है।
चीन के इसी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव को भारत शक की निगाहों से देखता रहा है क्योंकि उसका मानना है कि इस अभियान के तहत चीन दक्षिण एशियाई देशों में अपना प्रभाव और पहुंच बढ़ाने की कोशिशों में जुटा है।
दिल्ली की जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के सेंटर फ़ॉर ईस्ट एशियन स्टडीज़ में एसोसिएट प्रोफ़ेसर रितु अग्रवाल कहती हैं कि चीन और म्यांमार के बीच अच्छे संबंधों की शुरुआत काफ़ी पहले हो गई थी।
वह बताती हैं, "चीन और म्यांमार काफ़ी क़रीबी कारोबारी सहयोगी रहे हैं। चीन के युन्नात प्रांत में म्यामांर की सीमा के साथ 2010 से लेकर अब तक कई सारे बॉर्डर इकनॉमिक ज़ोन बनाए गए हैं और आर्थिक आधार पर म्यांमार को चीन से जोड़ने की कोशिश की जा रही है। जैसे कि यहां से ऑयल और गैस पाइपलाइन बिछाने की भी बात थी।''
रितु अग्रवाल बताती हैं कि युन्नान की प्रांतीय सरकार ने अपने स्तर पर म्यामांर के साथ अच्छे रिश्ते बनाने की कोशिश की थी। यह सिलसिला 80 के दशक से शुरू हुआ था। हालांकि, बीच में कई उतार-चढ़ाव आए। मगर अब बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के माध्यम से इस कोशिश को जारी रखा जा रहा है।
बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव को चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की विदेश नीति का अहम हिस्सा माना जाता है। इसे सिल्क रोड इकनॉमिक बेल्ट और 21वीं सदी का समुद्री सिल्क रोड भी कहा जाता है। जिनपिंग ने 2013 में इसे शुरू किया था।
बेल्ट रोड इनिशिएटिव के तहत चीन का इरादा कम से कम 70 देशों के माध्यम से सड़कों, रेल की पटरियों और समुद्री जहाज़ों के रास्तों का जाल सा बिछाकर चीन को मध्य एशिया, मध्य पूर्व और रूस होते हुए यूरोप से जोड़ने का है। चीन यह सब ट्रेड और निवेश के माध्यम से करना चाहता है।
चीन के इस बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव में भौगोलिक रूप से म्यांमार काफ़ी अहम है। म्यांमार ऐसी जगह पर स्थित है जो दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया के बीच है। यह चारों ओर से ज़मीन से घिरे चीन के युन्नान प्रांत और हिंद महासागर के बीच पड़ता है इसलिए चीन-म्यांमार इकनॉमिक कॉरिडोर की चीन के लिए बहुत अहमियत है।
रितु अग्रवाल बताती हैं, "चीन काफ़ी सालों से कोशिश कर रहा है कि कैसे हिंद महासागर तक पहुंचे। शी जिनपिंग की ताज़ा यात्रा चीन की समुद्री शक्ति को बढ़ाने की कोशिश में है क्योंकि चीन का समुद्री शक्ति बढ़ाना शी जिनपिंग की प्राथमिकताओं में है। इसलिए वह पोर्ट बनाने, रेलवे लाइन बिछाने की कोशिश कर रहे हैं। वह इनके माध्यम से कनेक्टिविटी चाहते हैं।''
अप्रैल 2019 में हुए चीन के दूसरे बेल्ट एंड रोड फ़ोरम (बीआरएफ) में म्यांमार की नेता आंग सान सू ची ने 'चीन-म्यांमार आर्थिक गलियारे' (सीएमईसी) के तहत सहयोग बढ़ाने के लिए चीन के साथ तीन एमओयू पर हस्ताक्षर किए थे।
चीन-म्यांमार आर्थिक गलियारा अंग्रेज़ी के Y अक्षर के आकार का एक कॉरिडोर है। इसके तहत चीन विभिन्न परियोजनाओं के माध्यम से हिंद महासागर तक पहुंचकर म्यांमार के साथ आर्थिक सहयोग बढ़ाना चाहता है।
2019 से 2030 तक चलने वाले इस आर्थिक सहयोग के तहत दोनों देशों की सरकारों में इन्फ्रास्ट्रक्चर, उत्पादन, कृषि, परिवहन, वित्त, मानव संसाधन विकास, शोध, तकनीक और दूरसंचार जैसे कई क्षेत्रों में कई सारी परियोजनाओं को लेकर सहयोग करने पर सहमति बनी थी।
इसके तहत चीन के युन्नान प्रांत की राजधानी कुनमिंग से म्यांमार के दो मुख्य आर्थिक केंद्रों को जोड़ने के लिए लगभग 1700 किलोमीटर लंबा कॉरिडोर बनाया जाना है।
कुनमिंग से आगे बढ़ने वाले इस प्रॉजेक्ट को पहले मध्य म्यांमार के मंडालय से हाई स्पीड ट्रेन से जोड़ा जाएगा। फिर यहां से इसे पूर्व में यंगॉन और पश्चिम में क्यॉकप्यू स्पेशल इकनॉमिक ज़ोन से जोड़ा जाएगा। चीन क्यॉकप्यू में पोर्ट भी बनाएगा।
इस अभियान के तहत म्यांमार की सरकार ने शान और कचिन राज्यों में तीन बॉर्डर इकनॉमिक कोऑपरेशन ज़ोन बनाने पर सहमति जताई थी।
चीन का कहना है कि सीएमईसी से म्यांमार के दक्षिण और पश्चिमी क्षेत्रों में सीधे चीनी सामान पहुंच सकेगा और चीन के उद्योग भी सस्ते श्रम की तलाश में ख़ुद को यहां शिफ़्ट कर सकते हैं। यह दावा किया जाता रहा है कि म्यांमार इस परियोजना के कारण चीन, दक्षिण पूर्व एशिया और दक्षिण एशिया के बीच कारोबार का केंद्र बन जाएगा।
लेकिन चीन और म्यांमार के बीच युन्नान के साथ लगती सीमा पर कई तरह की पहलों के चलते बने संबंध पूरी तरह आर्थिक संबंध ही हैं, ऐसा भी नहीं है। रितु अग्रवाल कहती हैं कि इस तरह के आर्थिक अभियानों के पीछे कहीं न कहीं सुरक्षा का एजेंडा रहता है।
संभवत: भारत की चिंताएं भी इसी से जुड़ी हैं।
भारत के लिहाज़ से देखें तो चीन-म्यांमार आर्थिक गलियारे को कुछ विश्लेषक चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे की तरह मान रहे हैं जो चीन के पश्चिमी शिनज़ियांग प्रांत को कराची और फिर अरब सागर में ग्वादर बंदरगाह से जोड़ता है। वैसे ही चीन-म्यांमार आर्थिक गलियारा चीन को बंगाल की खाड़ी की ओर से समंदर से जोड़ता है।
इसके अलावा, पिछले साल शी जिनपिंग ने नेपाल यात्रा के दौरान चीन-नेपाल आर्थिक गलियारे की शुरुआत की थी। इसके तहत चीन का इरादा तिब्बत को नेपाल से जोड़ना है। चीन नेपाल कॉरिडोर, चीन-पाकिस्तान और चीन-म्यांमार गलियारों के बीच में पड़ता है।
इस तरह तीनों गलियारे का चीन को कारोबारी स्तर पर लाभ होगा मगर भारत की चिंताएं सुरक्षा को लेकर भी रहती हैं। रितु अग्रवाल कहती हैं कि भारत को पहले से ही इस बात की चिंता है कि कनेक्टिविटी बढ़ने के साथ सुरक्षा को लेकर भी ख़तरा बढ़ सकता है।
वह कहती हैं, "चीन जो भी कनेक्टिविटी करता है, उसमें वह इकनॉमिक कॉरिडोर की बात करता है मगर उसके पीछे भी दूसरों की अर्थव्यवस्था को कंट्रोल करने जैसी रणनीतियां रहती हैं। यह चीन का तरीक़ा है। भारत के लिए चिंता की बात यह है कि दक्षिण एशिया में उसके पड़ोसी अगर चीन के नियंत्रण में आ गए तो उसे क्षेत्रीय शक्ति के रूप में उभरने में दिक्कत होगी।''
चीन ने भारत को भी अपने इस अभियान में शामिल करने की कोशिशें की हैं मगर भारत ने दिलचस्पी नहीं दिखाई। हालांकि, चीन मामलों के जानकार अतुल भारद्वाज मानते हैं कि चीन की पहुंच म्यांमार कॉरिडोर के माध्यम से हिंद महासागर तक हो जाने से भारत को कोई चिंता नहीं होनी चाहिए।
उन्होंने बीबीसी से कहा, "भारत हमेशा से क्षेत्रीय कनेक्टिविटी बढ़ाए जाने के समर्थन में रहा है इसलिए उसे किस बात का डर होगा? बल्कि उसे तो अपने आसपास शुरू होने वाली नई परियोजनाओं में आर्थिक अवसरों की तलाश करनी चाहिए। ऐसा नहीं है कि चीन उन हिस्सों को जोड़ रहा है जो अछूते रहे हैं। वह सिर्फ़ कनेक्टिविटी बढ़ाने के लिए वैकल्पिक रास्ते मुहैया करवा रहा है।''
भारत भी अपनी विदेश नीति में 'लुक ईस्ट पॉलिसी' की बात करता रहा है। इसके तहत यह कहा जाता रहा कि भारत के संबंध म्यांमार के साथ अच्छे होने चाहिए। इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार पूर्वोत्तर राज्यों के जरिये 'एक्ट ईस्ट' पॉलिसी का ज़िक्र कर चुके हैं।
अगर भारत दक्षिण पूर्वी देशों के साथ आर्थिक और कारोबारी सहयोग बढ़ाना चाहता है तो उसका रास्ता म्यांमार से होकर ही जाता है। मगर भारत की लुक ईस्ट या एक्ट ईस्ट के नारों वाली नीतियों के बावजूद म्यांमार में चीन का प्रभाव लगातार बढ़ा है।
रितु अग्रवाल कहती हैं कि भारत का म्यांमार के साथ ऐतिहासिक रूप से सांस्कृतिक रिश्ता रहा है, इसलिए चीन के प्रयासों को लेकर चिंता करने की जगह अपनी ओर से गंभीरता से प्रयास किए जाने चाहिए।
वह कहती हैं, "ऐतिहासिक रूप से भारत के उत्तर पूर्व और कलकत्ता के म्यांमार से अच्छे रिश्ते थे, दोनों देशों में सीधे व्यापारिक संबंध थे और यातायात भी होता था। यह देखा जाना चाहिए कि कैसे इसे फिर से जीवंत किया जा सकता है।''
"भारत अपनी ओर से पहल करके म्यांमार के साथ कोई मिशन शुरू करने की दिशा में महत्वपूर्ण क़दम उठा सकता है। भारत दक्षिण एशिया में शुरू से बड़ी शक्ति रहा है। ऐसे में चिंतित होने की जगह उसे पड़ोसी देशों के साथ व्यापारिक रिश्ते मज़बूत करने की रणनीति बनानी चाहिए। उसे देखना होगा कि क्या पहल करके वह चीन के प्रभाव को सीमित कर सकता है।''
भारत पर तीन दिशाओं से बेल्ट एंड रोड अभियान के तहत चीन की पहुंच होने को लेकर रितु अग्रवाल कहती हैं, "भारत की चिंताएं तो हैं मगर अहम बात यह है कि उसकी आगे की रणनीति क्या होगी? कैसे पड़ोसियों के साथ ट्रेड डील की जा सकती है, कैसे व्यापारिक रिश्ते मज़बूत किए जा सकते हैं। कोई प्रभावी नीति होनी चाहिए।''
शी जिनपिंग पर अपने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव को सफल बनाने का दबाव बना हुआ है। बहुत सारे देशों ने उनकी पहल को लेकर इच्छा तो जताई थी मगर पायलट प्रॉजेक्ट्स के नतीजे चीन की उम्मीदों के अनुरूप नहीं रहे हैं। म्यांमार में भी विरोध के स्वर उठते रहे हैं।
ऐसे में विश्लेषकों का मानना है कि भारत को अपनी ओर से सकारात्मक पहल करके पड़ोसियों को अपनी ओर खींचने की कोशिश करनी चाहिए और इस संबंध में उसे कोई स्पष्ट नीति अपनानी चाहिए। लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि भारत की मोदी सरकार अपनी आर्थिक मंदी के कारण चीन को रोकने में सफल होगी?
ईरान ने इराक़ में मिसाइल हमले किए। ईरान ने अमरीकी सेना के दो ठिकानों पर हमले किये। अमरीका ने कहा कि नुक़सान की समीक्षा हो रही है। ईरान ने कहा कि ये जनरल क़ासिम सुलेमानी पर हुए हमले का जवाब है।
कई विशेषज्ञों का मानना है कि ईरान का अमरीकी सैन्य ठिकानों पर हमला करने का फ़ैसला एक बड़ा दाँव है। यूनिवर्सिटी ऑफ ओटावा में ईरान मामलों के प्रोफ़ेसर थॉमस जुनेआउ ने कहा, ''ईरान का यह मूल्यांकन है कि ट्रंप मध्य-पूर्व में कोई व्यापक जंग में नहीं फंसना चाहते हैं। ऐसे में ईरान बहुत ही चतुराई से फ़ैसला कर रहा है। यह कहना मुश्किल है कि ईरान के इस दाँव को अप्रत्याशित फ़ैसला करने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कैसे लेते हैं?''
ईरान के 22 मिसाइल दागे जाने के बावजूद किसी का ज़ख़्मी तक नहीं होना ये बताता कि उसका लक्ष्य किसी को मारना नहीं था।
इराक़ में अमरीकी सैन्य ठिकानों पर ईरान के मिसाइल हमले को लेकर दुनिया भर से प्रतिक्रिया आई है। इराक़ी संसद के स्पीकर मोहम्मद अल-हलबौसी ने कहा है कि इराक़ की सरकार के पास यह अधिकार है कि अपनी संप्रभुता बचाए और युद्ध के अखाड़ा बनने से रोके।
उन्होंने इराक़ की सभी पार्टियों से विवेक से काम लेने का आग्रह किया है। उन्होंने कहा कि ईरान का इराक़ में अमरीकी सैन्य ठिकानों पर हमला उनके मुल्क की संप्रभुता का उल्लंघन है।
मोहम्मद अल-हलबौसी ने कहा, ''इराक़ की संप्रभुता बचाने के लिए सरकार को ज़रूरी क़दम उठाने चाहिए। इराक़ को बेवजह युद्ध का अखाड़ा बनाया जा रहा है। हम इस टकराव में कोई पार्टी नहीं हैं।''
मलेशिया के प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद ने कहा है कि अमरीका की ओर से ईरानी सैन्य कमांडर क़ासिम सुलेमानी के मारे जाने के बाद मुस्लिम देशों को एकजुट हो जाना चाहिए। महातिर मोहम्मद दुनिया के सबसे बुज़ुर्ग प्रधानमंत्री हैं।
उनकी उम्र 94 साल हो रही है। महातिर ने कहा कि अब वक़्त आ गया है कि सभी मुस्लिम देश एकजुट हो जाएं। उन्होंने कहा कि इस्लामिक देश निशाने पर लिए जा रहे हैं और असुरक्षा बढ़ रही है। ईरान पर प्रतिबंधों के बावजूद मलेशिया के ईरान से अच्छे संबंध हैं। एक अनुमान के मुताबिक़ मलेशिया में 10 हज़ार ईरानी नागरिक रहते हैं।
अमेरिकी विदेश मंत्री पोम्पिओ ने ट्वीट किया, ईरानी शासन ने अफगानिस्तान में शांति के लिए क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय आम सहमति में शामिल होने से इनकार कर दिया है। यह अफगान शांति प्रक्रिया को कमजोर करने वाले आतंकवादी समूहों का समर्थन करने के लिए निरंतर प्रयास है। ईरान के गंदे काम में तालिबान का उलझना केवल प्रगति में बाधा बनेगा।
पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी ने बुधवार को कहा कि मध्य-पूर्व में बढ़ते तनाव से किसी का भला नहीं होगा। पाकिस्तानी विदेश मंत्री ने कहा कि जंग किसी के भी हक़ में नहीं है।
क़ुरैशी ने कहा कि अगर जंग हुई तो वैश्विक अर्थव्यवस्था बुरी तरह से प्रभावित होगी। क़ुरैशी ने यह भी साफ़ कर दिया है कि क्षेत्रीय टकराव में पाकिस्तान कोई पार्टी नहीं बनेगा।
उन्होंने कहा, ''क़ासिम सुलेमानी को मारने का असर ओसामा बिन लादेन और इस्लामिक स्टेट प्रमुख अबु बकर अल-बग़दादी की मौत से भी ज़्यादा होगा। पाकिस्तान किसी भी तरह की एकतरफ़ा कार्रवाई का समर्थन नहीं करेगा। मध्य-पूर्व का तनाव बहुत ही गंभीर है।''
क़ुरैशी ने कहा कि यूएन चार्टर के हिसाब से किसी भी देश की संप्रभुता का सम्मान होना चाहिए। उन्होंने कहा, ''पाकिस्तान अपनी ज़मीन का इस्तेमाल नहीं होने देगा। हम इस मामले में कोई पार्टी नहीं बनेंगे।''
इराक़ की सेना के अनुसार ईरान ने इराक़ में अमरीकी सैन्य ठिकानों पर कुल 22 मिसाइलें दागी थीं। इराक़ की सेना का कहना है कि इस हमले में कोई हताहत नहीं हुआ है। ईरान ने जब हमले की पुष्टि की उसके कुछ घंटे बाद ही इराक़ की तरफ़ से बयान आया था।
ब्रिटेन ने इराक़ में अमरीकी सैन्य ठिकानों पर ईरान के मिसाइल हमले की निंदा की है। इराक़ में ब्रिटेन के भी सैनिक मौजूद हैं। ब्रिटेन के विदेश मंत्री डॉमिनिक राब ने कहा, ''गठबंधन सैन्य ठिकानों पर ईरान का हमला स्वीकार्य नहीं है। हम ईरान से अनुरोध करते हैं कि वो दोबारा इस तरह का हमला न करे।''
जापान ने भी दोनों देशों से तनाव कम करने का आग्रह किया है। जापान के प्रधानमंत्री शिंज़ो आबे इसी महीने सऊदी अरब, यूएई और ओमान जाने वाले थे लेकिन कहा जा रहा है कि वो तीनों देशों की यात्रा टाल सकते हैं।
जापान कैबिनेट के प्रवक्ता योशिहिदे सुगा ने बुधवार को कहा कि उनकी सरकार इस मामले में समन्वय करने की कोशिश करेगी। जापान ने ये भी कहा कि राजनयिक कोशिशों को ज़रिए तनाव को कम करना चाहिए। जापान खाड़ी में पोत भेज रहा है ताकि जापानी पोतों की सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।
ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन ने कहा कि उनके सैनिक और डिप्लोमैट पूरी तरह से सुरक्षित हैं। ऑस्ट्रेलिया के क़रीब 300 सुरक्षाकर्मी इराक़ में हैं। मॉरिसन ने कहा कि उन्होंने पूरे हालात पर अमरीका और ईरान से चर्चा की है। पत्रकारों से बात करते हुए मॉरिसन ने कहा, ''अमरीका ने ख़ुफ़िया सूचना के आधार पर कार्रवाई की थी।''
भारत ने अपने नागरिकों से कहा है कि ईरान और इराक़ की ग़ैर-ज़रूरी यात्रा टाल दें और अगले नोटिंस तक इंतज़ार करें। जो पहले से ही दोनों देशों में हैं वो सतर्क रहें और बाहर निकलने से बचें।
पाकिस्तान ने ईरान की सैन्य कार्रवाई पर बयान जारी किया है। पाकिस्तान ने कहा, ''हम अपने नागरिकों को आगाह करते हैं कि वो ईरान और इराक़ जाने की योजना बना रहे हैं तो पूरी तरह से सतर्क रहें। जो पहले से ही इराक़ में हैं, वो बग़दाद स्थित पाकिस्तानी दूतावास के संपर्क में रहें।''
संयुक्त अरब अमीरात के विदेश मंत्री अनवर गर्गाश ने कहा कि वर्तमान तनाव मध्य-पूर्व के लिए ठीक नहीं है। तनाव को कम करना ज़रूरी और विवेकपूर्ण है। राजनीतिक संवाद से तनाव को कम किया जा सकता है।
जर्मनी की रक्षा मंत्री एनग्रेट क्राम्प ने कहा कि किसी भी पक्ष की आक्रामकता स्वीकार्य नहीं है। उन्होंने जर्मनी के सरकारी प्रसारक एआरडी से कहा कि ईरान को अब और किसी भी तरह की सैन्य कार्रवाई की तरफ़ नहीं बढ़ना चाहिए। एनग्रेट ने यह भी कहा कि इराक़ में जर्मनी का कोई भी सैनिक ज़ख़्मी नहीं हुआ है।
यूरोपीय यूनियन ने कहा है कि मध्य-पूर्व में हथियारों का इस्तेमाल तत्काल बंद हो।
ईयू ने कहा कि अमरीका और ईरान दोनों संवाद शुरू करें और टकराव को ख़त्म करें। यूरोपीय यूनियन की अध्यक्ष उर्सुला वोन डेर लीयेन ने कहा कि वो इस मुद्दे पर ब्रिटेन के प्रधानमंत्री से बात करेंगे।
ईरान के सर्वोच्च नेता अयतोल्लाह अली ख़मेनेई ने बुधवार को कहा कि क़ासिम सुलेमानी की शहादत से स्पष्ट हो गया है कि इस्लामिक क्रांति अब भी ज़िंदा है। ख़मेनेई ने कहा कि अमरीका मध्य-पूर्व से निकल जाए। उन्होंने कहा कि मध्य-पूर्व अब अमरीका को बर्दाश्त नहीं करेगा।
ईरान में तेहरान के पास क्रैश हुए प्लेन में 82 लोग ईरान, 63 कनाडा, 11 यूक्रेन और 10 स्वीडन के नागरिक थे क्रैश के बाद किसी की भी जान नहीं बची।
ईरान स्थित यूक्रेन के दूतावास ने कहा है कि बुधवार सुबह क्रैश हुआ यूक्रेन का बोइंग 737 यात्री विमान इंजन ख़राब होने के कारण गिरा, आतंकी गतिविधियों के कारण नहीं।
ईरान की सरकारी न्यूज़ एजेंसी IRNA के अनुसार इस्लामिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (IRGC) के ऑपरेशन के बारे में मेजर जनरल मोहम्मद बाक़री ने कहा है कि ईरान ने अभी सिर्फ़ अपनी सैन्य क्षमताओं की झांकी दिखाई है। अगर अमरीका ने फिर हमला किया तो और सख़्त जवाब दिया जाएगा। अमरीका के लिए बेहतर होगा कि वो मध्य-पूर्व क्षेत्र को छोड़ने के लिए एक सैद्धांतिक विकल्प चुन ले।
ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता अयातोल्लाह ख़मेनेई ने अमरीका को 'झूठा, बदमाश और अमानवीय' बताते हुए कहा है कि ईरान का जवाबी हमला अमरीका के 'मुँह पर एक तमाचा' है।
ख़मेनेई ने तेहरान के दक्षिण-पश्चिम में स्थित क़ूम प्रांत में हज़ारों लोगों की मौजूदगी में हुई एक बैठक में कहा कि 'दुनिया पर धौंस झाड़ने वालों को सबक सिखाने में ईरान सक्षम है। हमें लगता है कि अमरीका के ख़िलाफ़ ऐसे हमले नाकाफ़ी हैं। ज़्यादा महत्वपूर्ण ये है कि इस क्षेत्र से अमरीका की मौजूदगी का अंत हो'।
बीजिंग स्थित बीबीसी संवाददाता स्टीवन मैक्डोनल्ड ने कहा है कि बीजिंग स्थित ईरानी दूतावास ने अपने ट्विटर पन्ने पर ईरानी झंडे की तस्वीर पोस्ट करते हुए लिखा है, "पश्चिम एशिया में अमरीका की बुराई का अंत शुरू हो गया है।''
ईरान ने बैलिस्टिक मिसाइलों से इराक़ के उन दो सैन्य ठिकानों को निशाना बनाया जहाँ अमरीकी सैनिक तैनात हैं। ईरान के सरकारी टीवी चैनल पर दिखाया जा रहा है कि ये हमला उनके कमांडर क़ासिम सुलेमानी की हत्या के जवाब में किया गया है। ईरान के सरकारी टीवी ने मिसाइल हमले का वीडियो जारी किया।
इस हमले में कितनी क्षति हुई, इसका आंकलन अभी नहीं किया जा सका है। ब्रिटेन सरकार ने कहा है कि इराक़ी कैंप में तैनात उनके 400 सैनिकों में से कोई भी इस हमले में हताहत नहीं हुआ है। यूके सरकार ने रॉयल नेवी और सैन्य हेलीकॉप्टरों को सतर्क कर दिया है।
अमरीका के डिफ़ेंस सेक्रेट्री मार्क एस्पर ने कहा है कि ईरान कोई हरक़त करेगा, इसका उन्हें पहले से अंदाज़ा था। फ़िलहाल वे स्थिति पर नज़र बनाए हुए हैं।
अमरीकी मीडिया में किसी बड़े सैन्य अधिकारी के हवाले से ख़बर चल रही है कि इराक़ के अल-असद कैंप में तैनात सैनिकों को वॉर्निंग सिस्टम के ज़रिए पहले ही मिसाइलों के आने की चेतावनी मिल गई थी।
इस बीच यूक्रेन के बॉइंग-737 विमान के ईरान में क्रैश होने की ख़बर आई। स्थानीय मीडिया के अनुसार इस विमान में सवार सभी 180 यात्रियों की मौत हो गई हैं।
एआईएमआईएम नेता और लोक सभा सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने कहा है कि नागरिकता संशोधन विधेयक भारत को इसराइल बना देगा जो कि भेदभाव के लिए जाना जाता है।
ओवैसी ने समाचार एजेंसी एएनआई से कहा, "नागरिकता संशोधन विधेयक दिखाता है कि वे भारत को एक धार्मिक मुल्क़ बनाना चाहते हैं। भारत इसराइल जैसे देशों की क़तार में आ जाएगा जो कि दुनिया का सबसे ज़्यादा भेदभाव करने वाला मुल्क़ है।
ओवैसी ने ये भी कहा कि ये क़ानून भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन करता है क्योंकि इसमें धर्म के आधार पर नागरिकता ख़त्म हो जाएगी।
भारत में इस बिल को बुधवार को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने हरी झंडी दे दी है और संभावना है कि इसे अगले सप्ताह संसद में पेश किया जाएगा।
इस विधेयक में अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से शरण के लिए भारत आए हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी और ईसाई समुदाय के लोगों को भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान है। लेकिन मुस्लिम समुदाय के शरणार्थियों को नागरिकता नहीं दी जाएगी।
इस बिल का भारत की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस सहित कई राजनैतिक पार्टियां खिलाफ कर रही है जो इस बिल को भारत के सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर रोकने का कोशिश कर सकती है क्योंकि लोक सभा और राज्य सभा में इस बिल के आसानी से पास होने की संभावना है।
इस बिल का भारत के उत्तर - पूर्व के राज्यों में जबरदस्त विरोध हो रहा है। बीजेपी की सहयोगी पार्टी असम गण परिषद इस बिल का विरोध कर रही है। उत्तर - पूर्व के राज्यों को डर है कि इस बिल के आने के बाद बांग्लादेशी हिन्दू शरणार्थियों की आबादी बढ़ जाएगी और वहां की मूल आबादी अल्पसंख्यक हो जाएगी।
इस बिल को लाने का तात्कालिक मकसद असम में एनआरसी में अपनी नागरिकता खोये हिन्दू आबादी (लगभग 13 लाख) को नागरिकता देना है। लेकिन यह बिल का असम में एनआरसी में अपनी नागरिकता खोये मुस्लिम आबादी (लगभग 5 लाख) को नागरिकता नहीं देगा। यह बिल धार्मिक आधार पर पक्षपात करती है।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि मोदी सरकार द्वारा इस बिल को लाने का असली मकसद एनआरसी लाने की पूर्व तैयारी है। ताकि एनआरसी में अपनी नागरिकता खोये मुस्लिम आबादी को भारत की नागरिकता नहीं मिल सके। लेकिन अगर एनआरसी में हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी और ईसाई समुदाय के लोगों की नागरिकता ख़त्म होती है तो इस बिल के प्रावधानों के तहत उन्हें भारत की नागरिकता मिल जाएगी। मोदी सरकार का असली गेम प्लान यही है ताकि भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाया जा सके।
अयोध्या में पूरी ज़मीन हिंदू पक्ष को देने पर लिब्रहान आयोग के वकील अनुपम गुप्ता ने कई सवाल उठाए।
भारत में बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद वरिष्ठ वकील अनुपम गुप्ता ने राम मंदिर आंदोलन से जुड़े भारतीय जनता पार्टी के नेताओं लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, कल्याण सिंह से जिरह की थी। इस मुद्दे पर उस समय रहे भारत के प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव से भी जिरह की थी।
15 साल पहले बाबरी ढहाए जाने के मामले की जांच कर रहे न्यायमूर्ति एम एस लिब्रहान आयोग के वकील अनुपम गुप्ता थे और उस समय उन्होंने नई दिल्ली के विज्ञान भवन में भाजपा नेताओं से जिरह की थी।
हालांकि बाद में अनुपम गुप्ता के लिब्रहान आयोग से मतभेद हो गए और 2009 में जब आयोग ने अपनी अंतिम रिपोर्ट सौंपी तो अनुपम गुप्ता ने उसकी आलोचना की थी।
बीबीसी से बातचीत में अनुपम गुप्ता ने अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर ज़ोरदार असहमति जताई है और इसकी आलोचना की है।
अनुपम गुप्ता ने अयोध्या केस पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की आलोचना निम्नलिखित बातों पर की?
(1) पूरी विवादित ज़मीन को एक पक्ष (हिंदू पक्ष) को देने का फ़ैसला।
(2) 1528 से 1857 के दौरान मस्जिद के भीतर मुसलमानों के नमाज़ पढ़े जाने के सबूत को लेकर सवाल।
(3) दिसंबर 1949 में मस्जिद में मूर्तियां रखकर क़ानून का उल्लंघन करना और पूरे ढांचे को दिसंबर 1992 में ध्वस्त किया जाना।
सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से आप कितना सहमत हैं?
यह फ़ैसला शानदार तरीके से इस बात की पुष्टि करता है और मैं इस बात से सहमत हूं कि एक हिंदू मूर्ति यानी राम लला क़ानूनी व्यक्ति है। इसलिए, लॉ ऑफ़ लिमिटेशन (परिसीमा क़ानून) एक नाबालिग़ राम लला विराजमान (राम के बाल्य रूप) के मामले में पैदा ही नहीं होता।
आप फ़ैसले की किन बातों से असहमत हैं?
मैं विवादित जगह के भीतर और बाहर की ज़मीन को पूरी तरह हिंदुओं को दिए जाने के फ़ैसले से सहमत नहीं हूं।
मैं मालिकाना हक़ के निष्कर्ष से असहमत हूं।
यहां तक कि बाहरी अहाते पर हिंदुओं के मालिकाना हक़ और लंबे समय से हिंदुओं के वहां बिना किसी रुकावट के पूजा करने की दलीलें स्वीकार कर ली गई हैं, लेकिन अंदर के अहाते पर आया अंतिम फ़ैसला अन्य निष्कर्षों के अनुकूल नहीं है।
कोर्ट ने कई बार यह दोहराया और माना कि भीतरी अहाते में स्थित गुंबदों के नीचे के क्षेत्र का मालिकाना हक़ और पूजा-अर्चना विवादित है।
इसे मानते हुए, अंतिम राहत यह होनी चाहिए थी कि बाहरी अहाता हिंदुओं को दिया जाता। लेकिन सवाल है कि भीतरी अहाता भी हिंदुओं को कैसे दिया जा सकता है?
अदालत का इस अहम फ़ैसले पर पहुंचना कि दोनों, भीतरी और बाहरी अहाते हिंदुओं को दिए जाएं, यह कोर्ट के निष्कर्षों के साथ ही मौलिक विरोधाभास है कि सिर्फ़ बाहरी अहाते पर ही हिंदुओं का अधिकार है।
इस फ़ैसले में यह भी पाया गया कि 1528 और 1857 के बीच विवादित स्थल पर नमाज़ पढ़े जाने के कोई साक्ष्य मौजूद नहीं हैं। आपकी राय?
कोर्ट ने इसे आधार माना है और यह मुझे विचित्र लगता है। फ़ैसले में कहा गया है कि मुसलमानों की तरफ़ से इसके कोई सबूत नहीं दिए गए कि 1528 से 1857 के बीच यहां नमाज़ पढ़ी गई। अब भले ही मुक़दमे में साक्ष्यों के अभाव पर फ़ैसला किया गया है, लेकिन यह बात निर्विवाद है कि 1528 में एक मस्जिद बनाई गई जिसे 1992 में ध्वस्त कर दिया गया।
अगर ये मानें कि मुग़ल शासन के दौरान कहीं कोई चर्च, गुरुद्वारे या मंदिर का निर्माण किया गया तो क्या आप उस समुदाय से सैकड़ों वर्षों के बाद यह कहेंगे कि - आपको साबित करना होगा कि आपने वहां पूजा की थी।
भले ही, हिंदू मानते हों कि यह भगवान राम की जन्मभूमि है, लिहाज़ा यह जगह बेहद पूजनीय है। लेकिन हिंदुओं के पास भी इस बात के कोई प्रमाण नहीं हैं कि - हिंदू 1528 से 1857 के दौरान विवादित भूमि पर पूजा करते रहे थे।
लेकिन अदालत के फ़ैसले में 1528 में बनीं मस्जिद में 1857 में मुसलमान नमाज़ अदा कर रहे थे, यह साबित नहीं हो सका। माननीय अदालत ने यह धारणा किस आधार पर बना ली?
क्या इस फ़ैसले में दिसंबर 1949 और दिसंबर 1992 की घटनाओं का संज्ञान लिया गया है?
फ़ैसले में 22 दिसंबर 1949 को मुख्य गुंबद के अंदर राम लला की मूर्तियां रखने की घटना का ज़िक्र करते हुए इसे 'मस्जिद को अपवित्र करना' बताया गया, वह अवैध था।
लेकिन नतीजा यह हुआ कि उस पूरी ज़मीन को ही ज़ब्त कर लिया गया। फ़ैसले में यह सही कहा गया है कि 22 दिसंबर 1949 से पहले वहां कोई मूर्ति नहीं थी, फिर भी इस तथ्य ने अदालती निष्कर्ष, धारणा, विश्लेषण या मूल्यांकन को प्रभावित नहीं किया।
दिसंबर 1992 में मस्जिद ढहाए जाने को यह फ़ैसला क़ानून का उल्लंघन मानता है लेकिन ये बात भावनात्मक, नैतिक या बौद्धिक रूप से कोर्ट पर असर नहीं डालती।
अदालत के सम्मान के साथ, मैं इसे बचाव के योग्य नहीं मानता। यह मूल सैद्धांतिक तथ्य हैं जिन्हें ख़ारिज नहीं किया जा सकता और यह दुखद है।
मेरी राय में, हिंदुओं को समूचे ढांचे का स्वामित्व देना अन्याय करने वाले पक्ष को पुरस्कार देने जैसा है क्योंकि वे 1949 में मूर्तियों को रखे जाने और 1992 में ढ़ांचे को तोड़ने के दोषी हैं।
विवादित स्थल के बाहरी और भीतरी अहाते को हिंदुओं को दिए जाने पर अदालत का तर्क क्या है?
कोर्ट ने अपने फ़ैसले में पूरी संरचना को एक माना है। अगर यह ऐसी ज़मीन है जिसका बंटवारा नहीं किया जा सकता था और किसी भी एक पक्ष का इस पूरी ज़मीन पर किसी एक का मालिकाना हक़ नहीं बन रहा था तो किसी भी पक्ष को इस ज़मीन का हिस्सा नहीं दिया जाना चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय के पूरे सम्मान के साथ कहना चाहता हूँ कि इस तरह के महत्वपूर्ण मामले में जिस तरह की सावधानी, निष्पक्षता और संतुलन की अपेक्षा की जाती है, इस फ़ैसले में उसकी कमी है जो मुझे परेशान करती है।
मेरी राय में अपने इस फ़ैसले में सर्वोच्च न्यायालय धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों और आदर्शों से पीछे हट गया।
आरसीईपी में शामिल नहीं होने पर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फ़ैसले की तारीफ़ और आलोचना दोनों हो रही है, लेकिन मोदी ने आरसीईपी में शामिल होने से मना करके किसका भला किया? यह जानना जरूरी है।
आरसीईपी के मामले में भारत में सरकार और सरकारी एजेंसियों के बर्ताव से तो यही लगता है कि उन्हें यह मामला समझ में नहीं आ रहा है।
भारत में खेती ऐसा मामला है जिसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। कब कौन सी फसल अच्छी होगी, और कब ख़राब होगी? कब किसके दाम अच्छे मिलेंगे? और कब अच्छी फसल वरदान की जगह अभिशाप साबित होगी? कहना मुश्किल है?
ये सवाल पहले ही देश भर के कृषि विशेषज्ञों और अर्थशास्त्रियों को चक्कर में डालने के लिए काफी थे। उसके ऊपर अब सवाल ये है कि अगर चीन से सस्ते सामान के साथ ही ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड से फल, सब्जी, दूध और दही जैसी चीजें भी आने लगीं तो भारत के किसानों, बागवानों और पशुपालकों का क्या होगा?
सवाल तो बहुत अच्छा है। मगर भारत के बाज़ारों में ऑस्ट्रेलिया के तरबूज, कैलिफ़ोर्निया के सेब और न्यूजीलैंड की किवी, अंगूर और संतरे भरे पड़े हैं। थाईलैंड के ड्रैगन फ्रूट, केले और अमरूद भी हैं। अब ये सब अगर बाज़ार में हैं तो नया क्या आने वाला है?
ओपन जनरल लाइसेंस के तहत इंपोर्ट होने वाली चीजों की लिस्ट पर नज़र डालिये, सब पता चल जाएगा। दरअसल, अब लिस्ट है ही नहीं। एक नेगेटिव लिस्ट है जिसमें शामिल चीजों पर या तो रोक है या उनके लिए अलग से इजाज़त चाहिए। बाकी सबका इंपोर्ट खुला हुआ है।
किसानों का हाल देखिए। प्याज का दाम इस वक्त सौ रुपए किलो के आसपास पहुंच रहा है। ऐसा मौका एक साल में या दो सालों में आता है जब किसान को प्याज की बहुत अच्छी कीमत मिलने की उम्मीद जागती है। लेकिन ऐसा होते ही सरकार को महंगाई की चिंता सताने लगती है और वो प्याज का मिनिमम एक्सपोर्ट प्राइस (एमईपी) तय कर देती है।
इसका असर किसान का प्याज विदेशी बाज़ारों में जा नहीं पाता जहां उस वक्त शायद मांग होती है और भारत में दाम काबू करने की कोशिश में किसान की बलि चढ़ा दी जाती है।
एकदम यही हाल गन्ने के किसान का होता है। वैसे तो समर्थन मूल्य हर बड़ी फसल पर तय है मगर ये मूल्य समर्थन कम, विरोध ज़्यादा करता है।
अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में चीनी की मांग बढ़ने पर सरकार की तरफ से पाबंदियां लगने लगती हैं। यहां भी वही सवाल है। क्या आप चीनी के बिना रह नहीं सकते? और इतनी ज़रूरी है तो ज़्यादा दाम क्यों नहीं दे सकते?
भारत में प्याज और चीनी के दामों पर सरकार गिर जाती हैं इसलिए सरकार जी-तोड़ कोशिश में रहती है कि ये चीज़ें महंगी न हो जाएं। और इस चक्कर में पिस रहे हैं वो किसान जिनके हितों की रक्षा के लिए भारत ने आरसीईपी समझौते पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया।
भारत में केंद्र सरकार के रोज बदलते सुर तो सामने ही दिख रहे हैं। भारत के केंद्रीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल पहले आरसीईपी के समर्थन में तर्क देते थे। फिर प्रधानमंत्री मोदी ने कह दिया कि समझौते पर दस्तखत करना उनकी अंतरात्मा को गवारा नहीं।
अब पीयूष गोयल फिर कह रहे हैं कि अच्छा ऑफ़र मिला तो अभी समझौते पर दस्तखत हो सकते हैं। दूसरी तरफ, वो ये भी कह रहे हैं कि भारत अब अमरीका और यूरोपीय यूनियन के साथ फ्री-ट्रेड (बेरोक-टोक कारोबार) के समझौते पर विचार कर रहा है।
बरसों से भारत ऐसे किसी विचार के विरोध में रहा है। दूसरे मंत्रियों से पूछिए तो वो अपने अपने तर्क दे देंगे। संघ परिवार ने स्वदेशी जागरण के नाम पर समझौते के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल रखा है। ये भी सरकार के गले की हड्डी है। लेकिन ये याद रखना ज़रूरी है कि यही स्वदेशी जागरण मंच पिछले तीस पैंतीस साल से भारत में विदेशी निवेश की हर कोशिश के ख़िलाफ़ खड़ा रहा है।
और विरोध करने वालों के तर्क देखें। न्यूजीलैंड से सस्ता दूध आ जाएगा।
उत्तर प्रदेश के एक मंत्री ने कहा कि, "न्यूजीलैंड वाले ग्यारह-बारह रुपये लीटर दूध बेचेंगे, हमारा डेरी कोऑपरेटिव तो चालीस रुपये में ख़रीदता है, कैसे चलेगा?"
लेकिन क्या यह सच है?
गूगल पर सर्च करने पर पता चला कि न्यूजीलैंड में एक लीटर दूध का रिटेल भाव दो डॉलर के आस-पास था और न्यूजीलैंड का एक डॉलर करीब पैंतालीस रुपये का होता है। अब आप खुद सोचिए कि वो कितना सस्ता दूध या पनीर भारत में बेचेंगे।
मजे की बात ये है कि समझौते का विरोध करने में कांग्रेस भी शामिल है और किसान मजदूर संगठन भी। कोई समझाए कि आर्थिक सुधार आने के बाद भारत में नौकरीपेशा लोगों की ज़िंदगी सुधरी है या बदतर हुई है।
आरसीईपी में अगर भारत शामिल होता तो आखिर किसे होता नुकसान? मज़दूरों की हालत में सुधार है कि नहीं है। और फसल का दाम बढ़ेगा तो किसान को फायदा होगा या नुकसान?
तो नुकसान किसको होगा? उन बिचौलियों को जो किसानों का ख़ून चूसते रहे हैं। उन सरकारी अफसरों, नेताओं और मंडी के कारकुनों को जिन्होंने फसल और बाज़ार के बीच का पूरा रास्ता कब्जा कर रखा है। उन व्यापारियों और उद्योगपतियों को जो मुक़ाबले में खड़े होने से डरते हैं क्योंकि उनका मुनाफा मारा जाएगा और उनके यहां काम करने वाले अच्छे लोग दूसरी कंपनियों में जा सकते हैं, दूसरी दुकानों में जा सकते हैं।
ये दूसरी कंपनियां, दूसरी दुकानें कौन हैं? यहीं हैं जिन्हें आरसीईपी के बाद भारत में माल बेचने या काम करने की छूट मिलेगी। अगर उपभोक्ता को सस्ता और अच्छा सामान मिलता है, कामगार को अच्छी तनख्वाह मिलती है और किसान को फसल का बेहतर दाम और बड़ा बाज़ार मिलता है, तो किसे एतराज है? क्यों एतराज है? समझना मुश्किल है क्या?
शामिल नहीं हुए तो किसका होगा नुकसान?
अगर 80 और 90 के दशक में भारत सरकार इसी तरह हिचक दिखाती तो आज हमारे बाज़ार में मौजूद आधे से ज़्यादा चीजें भी नहीं होतीं और देश में आधे से ज़्यादा रोज़गार भी नहीं होते।
फ़ैसले के मौकों पर हिम्मत दिखानी पड़ती है। किसी के हितों की रक्षा से ज्यादा जरूरी है एक देश के तौर पर आत्मविश्वास दिखाना।