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पाक-अफगान सम्बन्ध: इमरान ख़ान के काबुल दौरे से पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान को क्या फायदा होगा?

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने 19 नवंबर 2020 को अफ़ग़ानिस्तान का अपना पहला दौरा पूरा कर लिया जहाँ उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी से मुलाक़ात की और ख़ुफ़िया मामलों के तबादले और नज़दीकी सहयोग बढ़ाने के लिए प्रयास तेज़ करने पर सहमति जताई।

पाकिस्तान की सरकारी समाचार सेवा रेडियो पाकिस्तान के मुताबिक इमरान ख़ान और अशरफ़ ग़नी ने काबुल में प्रेस कांफ्रेंस में अफ़ग़ानिस्तान में शांति स्थापित करने के लिए तत्काल क़दम उठाने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराई।

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के पड़ोसी देश अफ़ग़ानिस्तान के दौरे पर विश्लेषकों का कहना है कि दोनों देशों के बीच विश्वास की बहाली और मतभेदों को ख़त्म करने में समय तो लगेगा लेकिन ये दोनों देशों के संबंधों में सुधार के लिए ज़रूरी है।

सरकारी बयान के मुताबिक प्रधानमंत्री इमरान ख़ान, जो पहली बार अफ़ग़ानिस्तान के दौरे पर काबुल गए, ने द्विपक्षीय संबंधों, वैश्विक शांति और क्षेत्रीय विकास की बात कही है।

इस पर पाकिस्तान के कई टिप्पणीकारों का कहना है कि पाकिस्तान ने अपनी तरफ़ से अफ़ग़ानिस्तान में शांति स्थापित करने के लिए बहुत कुछ किया है और अब अफ़ग़ानिस्तान को भी ऐसा ही कुछ करना चाहिए।

विश्लेषक इम्तियाज़ गुल का कहना है कि पाकिस्तान की कोशिशों से ही अमेरिका और तालिबान के बीच दोहा में कामयाब बातचीत होने के बाद शांति समझौते पर हस्ताक्षर हुए।

उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री इमरान ख़ान की तरफ़ से हालिया अफ़ग़ानिस्तान दौरा इसी सिलसिले की एक कड़ी है।

उन्होंने कहा कि पाकिस्तान पहले दिन से ही अफ़ग़ानिस्तान में हिंसा ख़त्म करने का हामी है और प्रधानमंत्री इमरान खान की अफ़गानिस्तान यात्रा से तालिबान को ये संदेश भी दिया गया है कि हिंसा का रास्ता छोड़ दें।

इम्तियाज़ गुल का कहना है कि भरोसे की कमी को एक ही झटके में समाप्त या कम नहीं किया जा सकता है, लेकिन आपसी विश्वास को बहाल करने के लिए दोनों ही पक्षों को क़दम उठाने की ज़रूरत है।

उन्होंने कहा कि पाकिस्तान ने बीते कुछ दिनों में पाक-अफ़ग़ान सीमा पर फंसे हुए हज़ारों कंटेनरों को आगे जाने दिया है। पाकिस्तानी सरकार ने अफ़ग़ानिस्तानी नागरिकों के लिए छह महीने के मल्टीपल वीज़ा की शुरुआत भी की है।

दोनों देशों के बीच व्यापार समझौता करने के लिए भी सात राउंड की वार्ता हो चुकी है।

इम्तियाज़ गुल कहते हैं, ''अफ़ग़ानिस्तान का भारत की ओर ज़्यादा झुकाव  है इसलिए क्षेत्र में स्थिर शांति के लिए सभी देशों को अपना किरदार अदा करना चाहिए।''

19 नवंबर 2020 को प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने कहा है कि हम भरोसा क़ायम करने के लिए अफ़ग़ानिस्तान सरकार की उम्मीदों को पूरा करने में मदद देंगे।

दूसरी तरफ़ अफ़ग़ान राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी ने इमरान ख़ान के दौरे का स्वागत करते इसे भरोसे और सहयोग को बढ़ाने के लिए अहम क़रार दिया है।

वरिष्ठ पत्रकार रहीमुल्लाह यूसुफ़ज़ई का कहना है कि दोनों देशों के बीच बहुत से मामलों में मतभेद हैं और जब तक ये ख़त्म नहीं होंगे तब तक संबंधों में सुधार नहीं होगा।

उन्होंने कहा, ''पाकिस्तान सरकार की तरफ़ से हालिया ये बयान दिया गया कि पाकिस्तान में हिंसा की वारदातों के लिए अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन इस्तेमाल हो रही है, लेकिन अफ़ग़ान सरकार ने इन बयानों का खंडन किया है।''

इससे पहले भी पाकिस्तान भारत पर ये इल्ज़ाम लगाता रहा है कि वो पाकिस्तान में हिंसा की वारदातों के लिए अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन का इस्तेमाल करता है।

अफ़ग़ान सरकार से भी कहा गया है कि वो भारत को अपनी ज़मीन इस्तेमाल करने से रोके। हालांकि भारत और अफ़ग़ानिस्तान दोनों ही आरोपों को खारिज करते रहे हैं।

रहीमुल्लाह यूसुफ़ज़ई कहते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान ने आज तक पाकिस्तान के साथ लगने वाली सीमा को स्वीकार नहीं किया है।

वो कहते हैं, ''अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी और चीफ़ एग्जीक्यूटिव अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह ने भी पाकिस्तान का दौरा किया लेकिन इसके बावजूद दोनों देशों का एक दूसरे पर भरोसा क़ायम नहीं हो सका है।''

उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र में स्थिर शांति और हिंसा के खात्मे के लिए दोनों देशों को अपनी कोशिशों में तेज़ी लानी होगी।

अमेरिका फ़रवरी 2021 तक अपने दो हज़ार फ़ौजी अफ़ग़ानिस्तान से निकाल लेगा और ऐसे हालात में शांति की ख़ातिर दोनों पड़ोसी देशों के बीच नज़दीकी सहयोग ज़रूरी है।

रहीमुल्लाह यूसुफ़ज़ई कहते हैं कि दोनों देशों के बीच कारोबार बढ़ने से पाकिस्तान को ही ज़्यादा फ़ायदा होगा। दोनों देशों के बीच कारोबार जितना ज़्यादा बढ़ेगा, आम नागरिकों को उतना ही फ़ायदा होगा।

उन्होंने कहा कि दोनों देशों के बीच व्यापार से खाद्य कीमतों में कमी आ सकती है जिससे लोगों को थोड़ी राहत मिलेगी।

युसुफ़ज़ई कहते हैं, ''अफ़ग़ानिस्तान वाघा बार्डर के ज़रिए भारत के साथ व्यापार करना चाहता है, लेकिन पाकिस्तान ऐसा करने के लिए तैयार नहीं है।''

आरसीईपी: दुनिया की सबसे बड़ी ट्रेड डील में भारत शामिल क्यों नहीं हुआ?

चीन समेत एशिया-प्रशांत महासागर क्षेत्र के 15 देशों ने 15 नवंबर 2020 को दुनिया की सबसे बड़ी व्यापार संधि पर वियतनाम के हनोई में हस्ताक्षर किये हैं।

जो देश इस व्यापारिक संधि में शामिल हुए हैं, वो वैश्विक अर्थव्यवस्था में क़रीब एक-तिहाई के हिस्सेदार हैं।

'द रीजनल कॉम्प्रीहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप' यानी आरसीईपी में दस दक्षिण-पूर्व एशिया के देश हैं। इनके अलावा दक्षिण कोरिया, चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड भी इसमें शामिल हुए हैं।

इस व्यापारिक-संधि में अमेरिका शामिल नहीं है और चीन इसका नेतृत्व कर रहा है, इस लिहाज़ से अधिकांश आर्थिक विश्लेषक इसे क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव के तौर पर देख रहे हैं।

यह संधि यूरोपीय संघ और अमेरिका-मैक्सिको-कनाडा व्यापार समझौते से भी बड़ी बताई जा रही है।

पहले, ट्रांस-पैसिफ़िक पार्टनरशिप (टीपीपी) नाम की एक व्यापारिक संधि में अमेरिका भी शामिल था, लेकिन 2017 में, राष्ट्रपति बनने के कुछ समय बाद ही, डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका को इस संधि से बाहर ले गये थे।  

तब उस डील में इस क्षेत्र के 12 देश शामिल थे जिसे पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का भी समर्थन प्राप्त था क्योंकि वे उस व्यापारिक संधि को चीनी-वर्चस्व के जवाब के तौर पर देखते थे।

आरसीईपी को लेकर भी बीते आठ वर्षों से सौदेबाज़ी चल रही थी, जिस पर अंतत: 15 नवंबर 2020 को हस्ताक्षर हुए।

इस संधि में शामिल हुए देशों को यह विश्वास है कि कोरोना वायरस महामारी की वजह से बने महामंदी जैसे हालात को सुधारने में इससे मदद मिलेगी।

इस मौक़े पर वियतनाम के प्रधानमंत्री न्यून-शुअन-फ़ूक ने इसे भविष्य की नींव बतलाते हुए कहा, ''आज आरसीईपी समझौते पर हस्ताक्षर हुए, यह गर्व की बात है, यह बहुत बड़ा क़दम है कि आसियान देश इसमें केंद्रीय भूमिका निभा रहे हैं, और सहयोगी मुल्कों के साथ मिलकर उन्होंने एक नए संबंध की स्थापना की है जो भविष्य में और भी मज़बूत होगा। जैसे-जैसे ये मुल्क तरक़्क़ी की तरफ़ बढ़ेंगे, वैसे-वैसे इसका प्रभाव क्षेत्र के सभी देशों पर होगा।''

इस नई व्यापार संधि के मुताबिक़, आरसीईपी अगले बीस सालों के भीतर कई तरह के सामानों पर सीमा-शुल्क ख़त्म करेगा। इसमें बौद्धिक संपदा, दूरसंचार, वित्तीय सेवाएं, ई-कॉमर्स और व्यावसायिक सेवाएं शामिल होंगी।  हालांकि, किसी प्रोडक्ट की उत्पत्ति किस देश में हुई है जैसे नियम कुछ प्रभाव डाल सकते हैं लेकिन जो देश संधि का हिस्सा हैं, उनमें कई देशों के बीच मुक्त-व्यापार को लेकर पहले से ही समझौता मौजूद है।

समझा जाता है कि इस व्यापार संधि के साथ ही क्षेत्र में चीन का प्रभाव और गहरा गया है।  

भारत आरसीईपी में शामिल नहीं

भारत इस संधि का हिस्सा नहीं है। सौदेबाज़ी के समय भारत भी आरसीईपी में शामिल था, मगर पिछले साल ही भारत इससे अलग हो गया था। तब भारत सरकार ने कहा था कि इससे देश में सस्ते चीनी माल की बाढ़ आ जायेगी और भारत में छोटे स्तर पर निर्माण करने वाले व्यापारियों के लिए उस क़ीमत पर सामान दे पाना मुश्किल होगा, जिससे उनकी परेशानियाँ बढ़ेंगी।

लेकिन 15 नवंबर 2020 को इस संधि में शामिल हुए आसियान देशों ने कहा कि 'भारत के लिए दरवाज़े खुले रहेंगे, अगर भविष्य में भारत चाहे तो आरसीईपी में शामिल हो सकता है'।

सवाल उठता है कि इस व्यापार समूह का हिस्सा ना रहने का भारत पर क्या असर पड़ सकता है? इसे समझने के लिए बीबीसी संवाददाता फ़ैसल मोहम्मद अली ने भारत-चीन व्यापार मामलों के जानकार संतोष पाई से बात की।

उन्होंने कहा, ''आरसीईपी में 15 देशों की सदस्यता है। दुनिया का जो निर्माण-उद्योग है, उसमें क़रीब 30 प्रतिशत की हिस्सेदारी इन्हीं देशों की है। ऐसे में भारत के लिए इस तरह के फ़्री-ट्रेड एग्रीमेंट बहुत ही महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि भारत इनके ज़रिये व्यापार की बहुत सी नई संभावनाएं तलाश सकता है।''

''जैसे भारत बहुत से देशों को आमंत्रित कर रहा है अपने यहाँ आकर निर्माण-उद्योग में निवेश करने के लिए, तो उन्हें भी ऐसे एग्रीमेंट आकर्षित करते हैं, पर अगर भारत इसमें ना हो, तो यह सवाल बनता है कि उन्हें भारत आने का बढ़ावा कैसे दिया जायेगा?"

"दूसरी बात ये है कि भारत में उपभोक्ताओं के ख़रीदने की क्षमता बढ़ रही है, पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तुलना करें, तो यह अब भी काफ़ी कम है। अगर किसी विदेशी कंपनी को भारत में आकर निर्माण करना है, तो उसे निर्यात करने का भी काफ़ी ध्यान रखना होगा क्योंकि भारत के घरेलू बाज़ार में ही उसकी खपत हो जाये, यह थोड़ा मुश्किल लगता है।"

एक समय भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के साथ मिलकर चीन पर निर्भरता कम करना चाह रहा था। पर अब वो देश इसमें शामिल हैं और भारत इससे अलग है। इसकी क्या वजह समझी जाये?

इस पर संतोष पाई ने कहा, "भारत 'चीन पर निर्भरता' को कितना कम कर पाता है, यह छह-सात महीने में दिखाई नहीं देगा, बल्कि पाँच साल में जाकर इसका पूरा प्रभाव दिखेगा। तभी सही से पता चलेगा कि भारत ने कितनी गंभीरता से ऐसा किया। बाक़ी जो देश हैं, वो कई सालों से चीन पर अपनी निर्भरता को कम करने के प्रयास करते रहे हैं, और यही वजह है कि ये देश आरसीईपी से बाहर नहीं रहना चाहते क्योंकि उन्हें पता है कि वो इसके अंदर रहकर ही 'चीन पर निर्भरता' बेहतर ढंग से कम कर सकते हैं।''

उन्होंने कहा, "आरसीईपी में चीन के अलावा भी कई मज़बूत देश हैं जिनका कई क्षेत्रों (जैसे इलेक्ट्रॉनिक और ऑटोमोबाइल) में बेहतरीन काम है। पर भारत की यह समस्या है कि भारत पिछले साल तक बहुत कोशिश कर रहा था कि चीनी ट्रेड को ज़्यादा से ज़्यादा कैसे बढ़ाया जाये और चीनी निवेश को कैसे ज़्यादा से ज़्यादा आकर्षित किया जाये?"

''चीन के साथ ट्रेड के मामले में भारत का 100 बिलियन डॉलर का लक्ष्य था। मगर पिछले छह महीने में राजनीतिक कारणों से स्थिति पूरी तरह बदल गई। अब भारत सरकार ने आत्म-निर्भर अभियान शुरू कर दिया है जिसका लक्ष्य है कि चीन के साथ व्यापार कम हो और चीनी निवेश भी सीमित रखा जाये।''

अंत में पाई ने कहा, ''अगर 'आत्म-निर्भर अभियान' को गंभीरता से चलाया गया, तब भी इसका असर आने में सालों लग जायेंगे। इसलिए अभी कुछ भी कह पाना बहुत जल्दबाज़ी होगी।''

अज़रबैजान-आर्मीनिया समझौता: नागोर्नो-काराबाख़ में रूस के शांति सेना भेजने से क्या बदलेगा?

आर्मीनिया और अज़रबैजान के बीच विवादित नागोर्नो-काराबाख़ इलाक़े में 27 सितंबर 2020 से लड़ाई की शुरुआत हुई थी।

इस लड़ाई में अज़रबैजान को साफ़ तौर पर आर्मीनिया पर जीत मिलती दिख रही थी।

हाल ही में अज़रबैजान की सेना ने नागोर्नो-काराबाख़ के शुशा (इसे आर्मीनिया में शुशी कहा जाता है) शहर पर कब्ज़ा कर लिया था। इसे एक बड़ी रणनीतिक जीत बताया जा रहा था।

इसके बाद अज़रबैजान की नज़र काराबाख़ की राजधानी स्तेप्नाकियर्त पर थी।

इस लड़ाई में कई लोगों की जान गई और कई इलाक़ों को बड़े स्तर पर नुक़सान पहुंचा है। लेकिन, शुशा पर नियंत्रण के बाद अज़रबैजान को राजधानी पर कब्ज़े की लड़ाई में ज़रूर बढ़त मिली थी।  

ये इलाक़ा ऊंचाई पर है जिस वजह से काराबाख़ में मौजूद आर्मीनिया की सेना आसानी से अज़रबैजान को गोला-बारूद का निशाना बना सकती थी।

लेकिन, इस बीच रूस ने दख़ल दिया और दोनों देशों के बीच शांति समझौता कराया और स्तेप्नाकियर्त में शांति सेना भेज दी।  

तुर्की नहीं, रूस का नियंत्रण

इससे पहले सभी को लगता था कि तुर्की अज़रबैजान को खुला समर्थन देकर इस खेल को नियंत्रित कर रहा है।

रूस की इस पहल की शुरुआत 9 नवंबर 2020 की रात से हुई जब आर्मीनिया, अज़रबैजान और रूस के नेताओं की ऑनलाइन मुलाक़ात हुई और उन्होंने नागोर्नो-काराबाख़ में संघर्ष ख़त्म करने के लिए एक नौ सूत्री समझौते पर बात की।

अज़रबैजान इस लड़ाई को जीत रहा था क्योंकि उसने 1994 से आर्मीनिया के नियंत्रण वाले कई अज़ेरी प्रांतों को वापस ले लिया था।

तीनों नेताओं ने इस बात पर सहमति जताई कि आर्मीनिया की सेना नागोर्नो-काराबाख़ के आसपास बचे हुए कब्ज़े वाले इलाक़ों से पीछे हट जाएगी। इन पर अज़रबैजान का नियंत्रण हो जाएगा।

शांति सेना क्या करेगी?

रूस की शांति सेना दोनों पक्षों की सेना को अलग-अलग करेगी और ये सुनिश्चित करेगी कि दुबारा लड़ाई शुरू ना हो।

रूसी सेना नागोर्नो-काराबाख़ के आर्मीनेयाई लोगों को मुख्य आर्मीनिया से जोड़ने वाले पांच किलोमीटर चौड़े गलियारे को भी सुरक्षित करेगी।

सोवियत संघ के विघटन के बाद दोनों देशों के बीच बढ़ती राष्ट्रीय पहचान ही नागोर्नो-काराबाख़ की लड़ाई की वजह बनी।

अज़रबैजान और आर्मीनिया, दोनों स्वतंत्र देशों ने तब लड़ने के लिए सोवियत सेना के छोड़े गए हथियारों का इस्तेमाल किया।

उस लड़ाई में आर्मीनिया सफल रहा था। 1994 के अंत तक उसने नागोर्नो-काराबाख़ और उसके आसपास के अज़रबैजान के सात इलाक़ों पर नियंत्रण पा लिया था।

जब दोनों तरफ़ से एक-दूसरे देशों के लोगों को निकाला जाना शुरू हुआ तो करीब एक लाख लोग शरणार्थी बन गए।

अज़रबैजान की बढ़ती ताकत

दोनों देशों के बीच हमेशा तनाव बना रहा है। बीच-बीच में छिटपुट झड़प भी होते रहे लेकिन, 27 सितंबर 2020 को अज़रबैजान ने अपने खोये हुए इलाक़ों को वापस लेने के लिए युद्ध की शुरुआत कर दी।

ये बहुत जल्दी साफ हो गया कि दोनों देशों के बीच सैन्य ताकत का संतुलन बदल चुका है।

कैस्पियन सागर में मिले तेल और गैस के स्रोत अज़रबैजान के लिए वरदान बनकर आए और इस तेल व गैस बेचकर अज़रबैजान ने खूब पैसा कमाया।

अज़रबैजान ने इन पैसों का इस्तेमाल अपनी अर्थव्यवस्था को फिर से खड़ा करने के लिए किया और कुछ लोग राजधानी 'बाकू' को 'कैस्पियन का दुबाई' कहने लगे।

लेकिन, अज़रबैजान की सरकार ने अपनी सेना को मजबूत करने में भी बड़े स्तर पर पैसा झोंका।

उन्होंने पिछले कई सालों में बेहतर टैंक, गोला-बारूद और खासतौर पर नई तकनीक ख़रीदने में अरबों डॉलर खर्च किए।

अज़रबैजान पूर्व सोवियत संघ का ऐसा पहला देश है जिसने युद्ध में बड़े स्तर पर ड्रोन तकनीक का इस्तेमाल किया है।

27 सितंबर 2020 को युद्ध प्रारंभ होने के शुरुआती दिनों में अज़रबैजान ने सबसे पहले आर्मीनिया के एयर डिफेन्स सिस्टम को ख़त्म किया और उसके बाद आर्मीनियाई सेना को बाहर निकालने, हथियारों और कर्मियों को निशाना बनाने के लिए ड्रोन का इस्तेमाल किया।

सेना तैनात करके रूस अब ज़मीन पर पूरी तरह स्थिति को नियंत्रित कर रहा है। इस सेना में 2000 पैराट्रूपर्स हैं।

आर्मीनिया, अज़रबैजान और तुर्की की सेना कुछ भी ऐसा नहीं कर सकतीं जिससे रूस के सैनिकों की ज़िंदगी ख़तरे में आ जाए।

रूस ने पहले दख़ल क्यों नहीं दिया?  

आर्मीनिया के प्रधानमंत्री निकोल पाशिन्यान और व्लादिमीर पुतिन के बीच बहुत अच्छे संबंध नहीं हैं।

पाशिन्यान एक सफल और लोकप्रिय नेता हैं। वो सत्ता परिवर्तन के लिए हुई क्रांति के बाद आर्मीनिया के प्रधानमंत्री बने थे। व्लादिमीर पुतिन सरकार इस तरह के बदलाव को पश्चिम समर्थित मानते हैं।

पाशिन्यान ने आर्मीनिया की रूस पर बहुत ज़्यादा निर्भरता का विरोध किया और पश्चिमी देशों से करीबी बढ़ाई।

अज़रबैजान से इस बड़ी हार के बाद उनका राजनीतिक भविष्य संदेह के घेरे में दिख रहा है। यहां तक कि आर्मीनिया के राष्ट्रपति ने समझौते की पूरी जानकारी होने से इनकार किया है।

लेकिन, अब समझौता हो चुका है और रूस ने पूरी स्थिति को अपने नियंत्रण में ले लिया है।

रूस दोनों तरफ संतुलन बनाकर रखना चाहता है। वह आर्मीनिया को इस सुरक्षा समझौते से बांधकर रखना चाहता है लेकिन साथ ही उस पर हमले भी रोकना चाहता है। रूस का अज़रबैजान से भी अच्छा सम्बन्ध है।

अज़रबैजान के लिए बड़ी जीत

यह अज़रबैजान के लिए बड़ी जीत है। सड़कों पर  लोग जीत की खुशी मना रहे हैं।

इस जीत में अज़रबैजान ने ना सिर्फ़ अपने इलाक़े वापस लिए हैं बल्कि इससे 30 सालों से अपने घर लौटने का इंतज़ार कर रहे अज़रबैजान के लाखों शरणार्थियों का इंतज़ार भी ख़त्म हो गया है।

आर्मीनिया में इसे लेकर नाराज़गी है कि नुक़सान कम करने के लिए रूस को पहले ही इस तरह दख़ल देना चाहिए था। हालांकि, वो ये भी समझते हैं कि अगर अब लड़ाई और खिंचती तो नागोर्नो काराबाख़ में कोई भी आर्मीनियाई नहीं बचता।

इस शांति समझौते में ये भी दिख रहा है कि अमेरिका और यूरोपीय संघ इससे पूरी तरह बाहर हैं।

नागोर्नो-काराबाख़ पर आर्मीनिया का कब्ज़ा 1 दिसंबर 2020 तक ख़त्म हो जायेगा। इन पर अज़रबैजान का नियंत्रण हो जाएगा। इस युद्ध का सबसे ज़्यादा खामियाज़ा यहां रहे आर्मीनियाई लोगों को उठाना पड़ेगा।

ये अच्छी ख़बर है कि अब और सैनिक व आम लोग नहीं मारे जाएंगे। साथ ही शरणार्थी बन चुके अज़ेरी लोग अपने घर वापस लौट सकेंगे।

लेकिन, नागोर्नो-काराबाख़ की वर्तमान या भविष्य की स्थिति, इसकी प्रशासनिक या क़ानूनी या पुलिस व्यवस्था को लेकर कोई संकेत नहीं मिलते हैं। यह एक स्वघोषित गणराज्य रहा है जिसे कोई मान्यता नहीं देता।

नागोर्नो-काराबाख़ पर निश्चित तौर पर अब अज़रबैजान का नियंत्रण होगा।

सबसे बड़ा सवाल ये है कि वो दो देश जिनकी एक-दूसरे के लिए नफ़रत पहले से कहीं ज़्यादा बढ़ गई है वो अब एक-दूसरे के पहले से ज़्यादा करीब कैसे रहेंगे?

ये युद्ध, इसमें हुई हिंसा और बहाए गए खून को देखते हुए डर है कि इन दोनों पड़ोसियों को पड़ोसी की तरह रहने में कई साल लग जाएंगे।

क्या राष्ट्रपति पद से हटने के बाद ट्रंप जेल जा सकते हैं?

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे आ चुके हैं। डोनाल्ड ट्रम्प चुनाव हार चुके हैं और अमेरिका की जनता ने जो बाइडन को अपना राष्ट्रपति चुन लिया है।

डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति पद के अपने दूसरे कार्यकाल के लिए वापसी नहीं कर सके। लेकिन उनकी चुनावी हार के बाद उन्हें आगे और भी मुश्किलें हो सकती हैं।

विशेषज्ञों के मुताबिक उनके कार्यकाल में हुए कथित घोटालों की जांच से पता चलता है कि उन्हें राष्ट्रपति पद से हटने के बाद आपराधिक कार्यवाही के अलावा मुश्किल वित्तीय स्थिति का भी सामना करना पड़ सकता है।

राष्ट्रपति पद पर रहते हुए उनके ख़िलाफ़ आधिकारिक कार्यों के लिए मुक़दमा नहीं चलाया जा सकता है।

पेस यूनिवर्सिटी में कॉनस्टीच्यूशनल लॉ के प्रोफेसर बैनेट गर्शमैन ने बीबीसी मुंडो सेवा से कहा, ''इस बात की संभावना है कि डोनाल्ड ट्रंप पर आपराधिक मामले चलाए जाएंगे।''

प्रोफेसर बैनेट गर्शमैन ने न्यूयॉर्क में एक दशक तक अभियोक्ता के तौर पर सेवाएं दी हैं।

वह कहते हैं, ''राष्ट्रपति ट्रंप पर बैंक धोखाधड़ी, कर धोखाधड़ी, मनी लॉन्ड्रिंग, चुनावी धोखाधड़ी जैसे मामलों में आरोप लग सकते हैं। उनके कामों से जुड़ी जो भी जानकारी मीडिया में आ रही है वो वित्तीय है।''

हालांकि, मामला सिर्फ़ यहां तक सीमित नहीं है। अमेरिकी मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक डोनाल्ड ट्रंप को भारी वित्तीय घाटे का सामना भी करना पड़ सकता है। इनमें बड़े पैमाने पर निजी ऋण और उनके कारोबार की मुश्किलें शामिल हैं।

न्यूयॉर्क टाइम्स के मुताबिक अगले चार सालों में ट्रंप को 30 करोड़ डॉलर से ज़्यादा का कर्ज़ चुकाना है। वो भी ऐसे समय पर जब उनके निज़ी निवेश बहुत अच्छी स्थिति में नहीं हैं।

हो सकता है कि ट्रंप के राष्ट्रपति ना रहने पर लेनदार कर्ज़ के भुगतान को लेकर बहुत कम नरमी दिखाएं।

डोनाल्ड ट्रंप के आलोचक कहते हैं कि उनका राष्ट्रपति पद पर होना उनकी क़ानूनी और वित्तीय समस्याओं में उनका कवच बन गया है। अगर ये सब नहीं रहेगा तो उनके मुश्किल दिन आ सकते हैं।

राष्ट्रपति ट्रंप ये दावा करते आए हैं कि वो अपने दुश्मनों की साज़िशों का शिकार हुए हैं। उन पर झूठे आरोप लगाए गए हैं कि उन्होंने राष्ट्रपति बनने से पहले और पद पर रहते हुए भी अपराध किए हैं।

ट्रंप ने स्पष्ट रूप से अपने ख़िलाफ़ लगे आरोपों से इनकार किया है।

साथ ही वे ये भी बताते हैं कि उनके प्रशासन पर लगे घोटालों के आरोपों की न्याय विभाग की जांच और इस साल की शुरुआत में उन पर चलाए गए महाभियोग से वो सफलतापूर्वक बरी हो गए।

लेकिन, ये सभी जाँच और प्रक्रियाएं राष्ट्रपति को अभियोग से मिली सुरक्षा के दौरान हुई थीं। न्याय विभाग बार-बार ये कहता रहा है कि राष्ट्रपति के ख़िलाफ़ पद पर रहते हुए आपराधिक मुकदमा नहीं चलाया जा सकता।

विशेषज्ञों ने बीबीसी मुंडो को बताया कि इन जाँचों को डोनाल्ड ट्रंप के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई का आधार बनाया जा सकता है।

बैनेट गर्शमैन कहते हैं, ''हम पहले से जानते हैं कि उन पर मतदाता धोखाधड़ी के आरोप लगाए जा सकते हैं क्योंकि मैनहटन के लिए अमेरिकी अटॉर्नी ने ट्रंप को माइकल कोहेन के साथ साज़िश में सहयोगी बताया है।''

विशेषज्ञ डोनाल्ड ट्रंप के पूर्व वकील माइकल कोहेन के ख़िलाफ़ हुई जांच की भी याद दिलाते हैं।

साल 2018 में माइकल कोहेन को चुनावी गड़बड़ियों के लिए दोषी पाया गया था। उन पर डोनाल्ड ट्रंप के साथ अफ़ेयर होने का दावा करने वालीं पॉर्न एक्ट्रेस स्टॉर्मा डैनियल्स को 2016 के चुनावों में पैसे देने का आरोप लगा था।

माइकल कोहेन की जांच के दौरान आधिकारिक तौर पर बताया गया था कि राष्ट्रपति पद के एक उम्मीदवार (इसके लिए ''इंडिविज़ुअल 1'' शब्द का इस्तेमाल था) आपराधिक गतिविधि से कथित तौर पर जुड़े हुए थे।

अमेरिकी मीडिया ने इस उम्मीदवार को डोनाल्ड ट्रंप के नाम से जोड़ा था। ये ख़बर अमेरिकी मीडिया में बड़े स्तर पर छाई रही थी।

मूलर रिपोर्ट

बैनेट गर्शमैन कहते हैं कि उन पर कथित मूलर रिपोर्ट के नतीज़ों को देखते हुए न्याय में बाधा डालने के आरोप भी लग सकते हैं।

2019 में, स्पेशल काउंसिल रॉबर्ट मूलर ने 2016 के राष्ट्रपति चुनावों में रूस के दख़ल को लेकर जांच रिपोर्ट सौंपी थी।

उस रिपोर्ट में ट्रंप को क्लीन चिट दे गई थी और बताया गया था कि ट्रंप की प्रचार टीम और रूस के बीच किसी तरह की सांठगांठ के पुख़्ता सबूत नहीं मिले हैं।

हालांकि, रिपोर्ट में ये ज़रूर कहा गया था कि डोनाल्ड ट्रंप ने जांच में बाधा डालने के प्रयास किए थे। ट्रंप ने मूलर को उनके पद से हटाने की कोशिशें भी की थीं।

मूलर ने उस वक़्त कहा था कि अमेरिकी संसद को ये फैसला करना चाहिए कि न्याय में बाधा डालने के लिए डोनाल्ड ट्रंप पर महाभियोग चलाया जाए या नहीं क्योंकि राष्ट्रपति पर न्याय के सामान्य माध्यमों से अभियोग नहीं चलाया जा सकता है।

हालांकि, तब संसद ने ट्रंप के ख़िलाफ़ महाभियोग नहीं चलाया लेकिन महीनों बाद एक अलग मामले में उनके ख़िलाफ़ महाभियोग चलाया गया।

ट्रंप पर आरोप था कि उन्होंने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी जो बाइडन पर जांच शुरु करने के लिए यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेन्स्की पर दबाव बनाया था। हालांकि, ट्रंप इससे लगातार इनकार करते रहे हैं।

दिसंबर 2019 में डेमोक्रेट्स के बहुमत वाले हाउस ऑफ़ रिप्रेजेंटेटिव में उन पर अभियोग चलाया लेकिन फरवरी 2020 में रिपब्लिकन्स के बहुमत वाले सीनेट ने उन्हें अपराध मुक्त कर दिया।

डोनाल्ड ट्रंप तीसरे ऐसे अमेरिकी राष्ट्रपति हैं जिन्हें महाभियोग का सामना करना पड़ा।

स्थानीय और संघीय आरोप

राष्ट्रपति के तौर पर डोनाल्ड ट्रंप संघीय क़ानून के उल्लंघन के मामले में ख़ुद को माफ़ कर सकते हैं। लेकिन, अमेरिका के इतिहास में ऐसी स्थिति कभी नहीं आई है।

हालांकि, ये ज़रूर देखने को मिला है कि किसी राष्ट्रपति पर पद से हटने के बाद आपराधिक मामले चलने की संभावना हो लेकिन अगले राष्ट्रपति उन्हें माफ़ी दे दें।

ऐसा 1974 में हुआ था जब पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने वॉटरगेट कांड के बाद इस्तीफ़ा दे दिया था।

तब उनकी सरकार में उप राष्ट्रपति रहे जेरल्ड फॉर्ड राष्ट्रपति बने और उन्हें पूर्ण माफ़ी दे दी।

कंज़रवेटिव पॉलिटिकल रिसर्च सेंटर अमेरिकन एंटरप्राइज़ इंस्टीट्यूट में विशेषज्ञ नॉर्मन ऑर्नस्टीन कहते हैं, ''डोनाल्ड ट्रंप पर संघीय आरोप लगने की बहुत कम संभावना है क्योंकि हो सकता है कि वो खुद को ही माफ़ी दे दें।''

लेकिन, चुनाव हारने की स्थिति में वो ख़ुद को माफ़ी नहीं दे पाएंगे।

ऐसे में जानकारों का कहना है कि एक अति-काल्पनिक स्थिति में संभव है कि डोनाल्ड ट्रंप 20 जनवरी, 2021 को अपना कार्यकाल पूरा होने से पहले ही इस्तीफ़ा दे दें और मौजूदा उप राष्ट्रपति माइक पेंस को राष्ट्रपति बना दें।  इसके बाद माइक पेंस उन्हें संघीय अपराधों के लिए माफ़ी दे सकते हैं।

बैनेट गर्शमैन बताते हैं कि अमेरिकी मीडिया में ये अटकलें भी हैं कि डोनाल्ड ट्रंप को संघीय आरोपों के अलावा स्थानीय स्तर पर आपराधिक आरोप भी झेलने पड़ सकते हैं।

उन पर राष्ट्रपति बनने से पहले रियल स्टेट के कारोबार में गड़बड़ी करने का आरोप हैं। स्थानीय स्तर के मामलों में संघीय मामलों की तरह माफ़ी नहीं मिल सकती है।

विशेषज्ञों का ये भी कहना है कि ज़रूरी नहीं कि प्रशासन सबूत होने पर भी डोनाल्ड ट्रंप के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई करे। ये एक राजनीतिक फ़ैसला हो सकता है।

वॉटरगेट कांड के मामले में भी सरकार ने ये फ़ैसला किया था कि रिचर्ड निक्सन पर मुकदमा चलाने से वॉटरगेट कांड खिंचता चला जाएगा। ऐसा ना हो इसलिए उन्हें माफी दे दी गई।

इस संबंध में 6 अगस्त 2020 को दिए एक साक्षात्कार में जो बाइडन ने कहा था कि अगर वो राष्ट्रपति बनते हैं तो वो डोनाल्ड ट्रंप के ख़िलाफ़ आपराधिक प्रक्रिया का ना तो विरोध करेंगे और ना ही उसे बढ़ावा देंगे। वो ये फ़ैसला पूरी तरह न्याय विभाग पर छोड़ देंगे।

बैनेट गर्शमैन बताते हैं कि पिछले मुक़दमे के कारण सुनवाई शुरू होने में महीनों से लेकर सालों लग सकते हैं।

जानकार कहते हैं कि अगर डोनाल्ड ट्रंप उन पर लगे आरोपों में दोषी पाए जाते हैं तो उन्हें सालों जेल की सज़ा हो सकती है।

नॉर्मन ऑर्नस्टीन को लगता है कि न्यूयॉर्क के अभियोक्ता डोनाल्ड ट्रंप के खिलाफ अपनी जांच को ज़ारी रखेंगे। इस समय ट्रंप की स्थिति कमज़ोर है और वो इस बात को जानते हैं।

जो बाइडन का अमेरिका का राष्ट्रपति बनने से मोदी सरकार पर क्या असर पड़ेगा?

मोदी और ट्रंप की दोस्ती की चर्चा तो पूरे कार्यकाल में रही लेकिन मोदी का ट्रम्प के समर्थन में 'हौदी मोदी' और 'नमस्ते ट्रम्प' कैंपेन के बाद बाइडन प्रशासन के साथ कैसे रिश्ते बनते हैं? ये देखना बाक़ी है। हालाँकि जो बाइडन अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को हरा कर जीत चुके हैं।

हालाँकि कहा जा रहा है कि भारत और अमेरिका अहम साझेदार हैं। ऐसे में सरकार बदलने से भारत के साथ रिश्तों पर असर नहीं पड़ेगा।

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो बाइडन को राष्ट्रपति चुनाव में जीत की बधाई दी है। मोदी ने जो बाइडन की जीत को शानदार बताया है। भारतीय प्रधानमंत्री ने कमला हैरिस को भी बधाई दी और भारत से उनकी जड़ों को भी याद किया। कमला हैरिस की माँ तमिलनाडु की थीं।

मोदी ने जो बाइडन को बधाई देते हुए ट्विटर पर लिखा, ''आपकी शानदार जीत पर @JoeBiden को बधाई! वीपी के रूप में, भारत-अमेरिका संबंधों को मजबूत करने में आपका योगदान महत्वपूर्ण और अमूल्य था। मैं भारत-अमेरिका संबंधों को अधिक से अधिक ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए एक बार फिर साथ मिलकर काम करने की आशा करता हूं।''

मोदी ने कमला हैरिस को बधाई देते हुए ट्विटर पर लिखा, ''हार्दिक बधाई @KamalaHarris ! आपकी कामयाबी बेहतरीन है। आपकी जीत से न केवल भारत स्थित आपके रिश्तेदारों गौरवान्वित हैं बल्कि सभी भारतीय-अमेरिकी नागरिकों के लिए गौरव का पल है। मुझे विश्वास है कि आपके समर्थन और नेतृत्व से जीवंत भारत-अमेरिका संबंध और भी मजबूत हो जाएंगे।

बाइडन ने कश्मीर और सीएए पर चिंता जताई थी

हालांकि बाइडन ने अपने चुनावी कैंपेन में कश्मीर और सीएए को लेकर चिंता ज़ाहिर की थी। बाइडन ने चुनावी कैंपेन के दौरान अपना पॉलिसी पेपर जारी किया था। उसमें सीएए और कश्मीर में मानवाधिकारों को लेकर चिंता जताई थी। जो बाइडन ने कहा था कि कश्मीरियों के सभी तरह के अधिकार बहाल होने चाहिए।

बाइडन ने कहा था कि कश्मीरियों के अधिकारों को बहाल कराने के लिए जो भी क़दम उठाए जा सकते हैं उसे भारत उठाए।  इसके साथ ही बाइडन ने भारत के नागरिकता संशोधन क़ानून यानी सीएए को लेकर भी निराशा ज़ाहिर की थी। बाइडन ने नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिज़न यानी एनआरसी को भी निराशाजनक कहा था।

 जो बाइडन की कैंपेन वेबसाइट पर प्रकाशित एक पॉलिसी पेपर में कहा गया था, ''भारत में धर्मनिरपेक्षता और बहु-नस्ली के साथ बहु-धार्मिक लोकतंत्र की पुरानी पंरपरा है। ऐसे में सरकार के ये फ़ैसले बिल्कुल ही उलट हैं।''

जो बाइडन का यह पॉलिसी पेपर 'एजेंडा फ़ॉर मुस्लिम-अमरीकन कम्युनिटीज़' टाइटल से प्रकाशित हुआ था। कश्मीर को लेकर बाइडन के इस पॉलिसी पेपर में कहा गया था, ''कश्मीर के लोगों के अधिकारों को बहाल करने के लिए भारत को चाहिए कि वो हर क़दम उठाए। असहमति पर पाबंदी, शांतिपूर्ण प्रदर्शन को रोकना, इंटरनेट सेवा बंद करना या धीमा करना लोकतंत्र को कमज़ोर करना है।''

इस पेपर में कश्मीर के साथ चीन के वीगर मुसलमानों और म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों को लेकर भी बात कही गई थी। बाइडन के पॉलिसी पेपर में लिखा गया था, ''मुस्लिम बहुल देशों और वे देश जहां मुसलमानों की आबादी अच्छी-ख़ासी है, वहां जो कुछ भी हो रहा है उसे लेकर अमरीका के मुसलमान चिंतित रहते हैं। मैं उनके उस दर्द को समझता हूं। पश्चिमी चीन में वीगर मुसलमानों को निगरानी कैंपों में रहने पर मजबूर करना बहुत ही शर्मनाक है। अगर बाइडन अमरीका के राष्ट्रपति बनते हैं तो वो शिन्जियांग में नज़रबंदी कैंपों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएंगे। राष्ट्रपति के तौर पर बाइडन इसे लेकर कोई ठोस क़दम उठाएंगे। म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों के साथ जो कुछ भी हुआ और हो रहा वो वीभत्स है। इससे शांति और स्थिरता दांव पर लगी है।''

ट्रंप ने भी झटके दिए थे

हालांकि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की भी कई ऐसी नीतिया रही हैं जिनसे भारत को नुक़सान हुआ है। ट्रंप सरकार ने अपनी प्रिफ्रेंशियल ट्रेड पॉलिसी (कारोबार में तवज्जो) के जनरल सिस्टम ऑफ़ प्रिफरेंसेज़ में से भारत को बाहर कर दिया था। इस नीति की वजह से भारत से अमरीका जाने वाले 1930 उत्पाद अमरीका में आयात शुल्क देने से बच जाते थे। साल 1970 के दशक में अमरीकी सरकार ने विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं को मजबूत करने के मंसूबे के साथ इस नीति को अपनाया था। इसके अलावा एचबी1 वीज़ा पर भी ट्रंप की नीतियां भारत के ख़िलाफ़ रही हैं।

लेकिन ट्रंप प्रशासन सीएए, एनआरसी और कश्मीर को लेकर चुप रहा था।  इस मामले में पाकिस्तान ने अमेरिका पर दबाव बनाने की कोशिश की थी लेकिन ट्रंप प्रशासन पर इसका असर नहीं पड़ा था।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दोस्ती को देखते हुए कहा जा सकता है कि जो बाइडन भारत के लिए अच्छे साबित होंगे, लेकिन बीजेपी और नरेंद्र मोदी के लिए अच्छे साबित नहीं होंगे।

क्या तेल पर निर्भर सऊदी अरब का भविष्य सुरक्षित है?

मार्च 2020 में सऊदी अरब और रूस में तेल की क़ीमतों को लेकर तनातनी हुई थी। सऊदी अरब चाहता था कि रूस तेल का उत्पादन कम करे ताकि अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की गिरती क़ीमतों को संभाला जा सके। लेकिन रूस उत्पादन कम करने को तैयार नहीं था।

रूस के इस रुख़ से खीझ कर सऊदी अरब ने भी उत्पादन बढ़ाने और तेल की क़ीमतों में छूट देकर बेचने का फ़ैसला ले लिया था। सऊदी अरब ने यह फ़ैसला तब लिया था जब पूरी दुनिया में कोविड 19 की महामारी के कारण सारे कारोबार ठप थे। दोनों देश एक दूसरे पर क़ीमतों में गिरावट के लिए इल्ज़ाम लगा रहे थे। रूस के सरकारी टेलीविज़न सऊदी अरब को अपनी मुद्रा रुबल में आई गिरावट के लिए ज़िम्मेदार बता रहे थे।

दूसरी तरफ़ सऊदी अरब भी पलटवार करने का फ़ैसला कर चुका था।  एक अप्रैल को सऊदी की राष्ट्रीय तेल कंपनी अरामको ने कहा कि वो हर दिन एक करोड़ 20 लाख बैरल तेल का उत्पादन करेगा।

यह रूस से हुए समझौते की तुलना में 26 फ़ीसदी ज़्यादा उत्पादन था।  सऊदी अरब को लगा था कि वो रूस के साथ प्राइस वॉर में ख़ुद को बादशाह साबित कर लेगा।

पिछले तीन सालों में तेल की दुनिया में दो अहम बदलाव हुए हैं और इनका असर बहुत ही व्यापक हुआ है।

पहला यह कि अमरीका में तेल का उत्पादन बढ़ा है। यह उत्पादन इतना बढ़ा है कि अमरीका बड़े तेल आयातक से दुनिया का अहम तेल निर्यातक देश बन गया है।

दूसरा तेल की क़ीमतों को स्थिर रखने के लिए रूस और सऊदी अरब के बीच का सहयोग। अमरीका, रूस और सऊदी अरब दुनिया के तीन सबसे बड़े तेल उत्पादक देश हैं। पहले नंबर पर अमरीका है और दूसरे नंबर पर रूस-सऊदी के बीच प्रतिद्वंद्विता चलती रहती है। रूस और सऊदी अरब के बीच का सहयोग हाल के दिनों में बुरी तरह से प्रभावित हुआ है।

ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ द पेट्रोलियम एक्सपोर्टिंग कंट्रीज़ यानी ओपेक में सऊदी का दबदबा सबसे ज़्यादा है। मार्च महीने में सऊदी अरब ने ओपेक के ज़रिए कोविड 19 के कारण तेल की मांग में आई भारी कमी के कारण तेल उत्पादन में कटौती का प्रस्ताव रखा था।

रूस ओपेक का सदस्य नहीं है और उसने सऊदी के इस प्रस्ताव के साथ जाने से इनकार कर दिया था। इसके बाद दोनों देशों में तेल को लेकर प्राइस वॉर छिड़ गया था।

अमरीका का शेल ऑयल सऊदी और रूस दोनों के लिए चुनौती है।  हालांकि शेल ऑयल का उत्पादन महंगा होता है। लेकिन शेल ऑयल के उत्पादन के कारण ही अमरीका दुनिया के सबसे बड़े तेल आयातक से सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश बन गया।

शेल ऑयल और गैस का उत्पादन महंगा होने के कारण रूस को लगता है कि उसके बाज़ार को कोई चुनौती नहीं दे सकता है। पारंपरिक कच्चे तेल की तुलना में (जो रूस और सऊदी अरब में है) शेल ऑयल चट्टानों की परतों से निकाला जाता है।

पारंपरिक कच्चे तेल 6000 फिट की गहराई से निकल जाते हैं जबकि शेल ऑयल का उत्पादन जटिल होता है। 2018 में अमरीका सऊदी अरब को पीछे छोड़ दुनिया का सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश बन गया था।  अमरीका के इस उभार का असर भी सऊदी और रूस के तेल बाज़ार पर पड़ा।

कोविड 19 की महामारी आई तो तेल की मांगों में भारी गिरावट आई। इस गिरावट को देखते हुए ही सऊदी अरब और रूस को ओपेक और ओपेक प्लस में तेल उत्पादन को लेकर भारी कटौती पर सहमति बनानी पड़ी। अमरीका को भी अपने उत्पादन में हर दिन 20 लाख बैरल की कटौती करनी पड़ी। हालांकि अमरीका और रूस का तेल उत्पादन या निर्यात कम होता है तो उतना फ़र्क़ नहीं पड़ता है जितना सऊदी अरब को पड़ता है। सऊदी अरब की अर्थव्यवस्था तेल पर निर्भर है और तेल का बाज़ार जैसे ही प्रभावित होता है कि उसकी बादशाहत हिल जाती है और भविष्य को लेकर डर सताने लगता है।

सऊदी के तेल उत्पादन और निर्यात को रूस के साथ अमरीका से कड़ी चुनौती मिल रही है। पहले अमरीका ने सऊदी को तेल उत्पादन के मामले में दूसरे नंबर पर धकेल दिया और अब रूस ने सऊदी को तीसरे नंबर पर ला दिया है। जॉइंट ऑर्गेनाइज़ेशन डेटा इनिशिएटिव (जेओडीआई) के अनुसार रूस ने जून महीने में तेल उत्पादन के मामले में सऊदी अरब को तीसरे नंबर पर कर दिया है।

इसके साथ ही रूस अमरीका के बाद तेल उत्पादन के मामले में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश बन गया है। जेओडीआई के अनुसार जून महीने में रूस का तेल उत्पादन हर दिन 8.788 मिलियन बैरल रहा जबकि सऊदी अरब का महज़ 7.5 मिलियन बैरल रहा।

जून में अमरीका तेल उत्पादन के मामले में टॉप पर रहा। जेओडीआई के अनुसार जून महीने में अमरीका में तेल का उत्पादन 10.879 मिलियन बैरल प्रति दिन रहा। सऊदी अरब के तेल निर्यात में भी लगातार कमी आ रही है। जून महीने में सऊदी का तेल निर्यात हर दिन 50 लाख बैरल से भी नीचे आ गया। जेओडीआई के अनुसार मई महीने की तुलना में जून में उसके तेल निर्यात में 17.3 फ़ीसदी की गिरावट आई।

जून महीने में सऊदी का तेल निर्यात हर दिन 4.98 मिलियन बैरल रहा।  मई महीने में सऊदी का तेल उत्पादन प्रति दिन 6.02 बैरल था और अप्रैल में 10 मिलियन बैरल।

सऊदी अरब के लिए अब यह चुनौती उतनी ही बड़ी है कि वो अपनी अर्थव्यवस्था की निर्भरता तेल से कम कैसे करे?

सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस की महत्वाकांक्षा है कि वो सऊदी को बिना तेल की कमाई पर खड़ा करें लेकिन अभी ऐसा कुछ हो नहीं पाया है।

राइस यूनिवर्सिटी बेकर इंस्टिट्यूट में ऊर्जा मामलों के विशेषज्ञ जिम क्राएन ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स से पिछले साल कहा था, ''सऊदी अरब को तेल की लत है और वो अब भी कमज़ोर नहीं हुई है। सऊदी की अर्थव्यवस्था तेल से ही चल रही है। जीडीपी तेल के कारोबार पर टिकी है।''

अरब के नेताओं को पता है कि तेल की ऊंची क़ीमत हमेशा के लिए नहीं है। चार साल पहले इसी को ध्यान में रखते हुए सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने 'विज़न 2030' पेश किया था।

इस विजन का लक्ष्य था सऊदी की अर्थव्यव्स्था की निर्भरता तेल पर कम करना। सऊदी के बाक़ी पड़ोसियों को भी अंदाज़ा है कि तेल पर निर्भर रहना कितना ख़तरनाक हो सकता है। मध्य-पूर्व और उत्तरी अफ्रीका के तेल राजस्व में लगातार गिरावट आ रही है।

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार 2012 में इन इलाक़ों में तेल से हासिल होने वाला राजस्व एक ट्रिलियन डॉलर था जो 2019 में 575 अरब डॉलर हो गया।

इस साल अरब देशों को तेल की बिक्री से 300 अरब डॉलर हासिल करने का अनुमान है लेकिन इससे उनका खर्च भी नहीं निकल पाएगा। मार्च महीने से ही ये उत्पादन में कटौती कर रहे हैं, टैक्स बढ़ा रहे हैं और क़र्ज़ ले रहे हैं। कई देश तो नक़दी की समस्या से जूझ रहे हैं।

सऊदी का भविष्य बहुत आश्वस्त नहीं करता है। दुनिया भर में वैकल्पिक ऊर्जा की बात हो रही है और उसका दायरा भी बढ़ रहा है। ऐसे में तेल पर निर्भर जितनी अर्थव्यवस्थाएं हैं उनका संकट बढ़ने वाला है। कोरोना वायरस की महामारी ने इन अर्थव्यवस्थाओं के खोखलेपन को सतह पर ला दिया है।

2016 में रिस्ताद एनर्जी की एक रिपोर्ट आई थी, जिसमें बताया गया था कि अमरीका के पास 264 अरब बैरल तेल भंडार है।

इसमें मौजूदा तेल भंडार, नए प्रोजेक्ट, हाल में खोजे गए तेल भंडार और जिन तेल कुंओं को खोजा जाना बाक़ी है, वे सब शामिल हैं।

इस रिपोर्ट में बताया गया है कि रूस और सऊदी अरब से ज़्यादा तेल भंडार अमरीका के पास है।

रिस्ताद एनर्जी के अनुमान के मुताबिक़ रूस में तेल 256 अरब बैरल, सऊदी में 212 अरब बैरल, कनाडा में 167 अरब बैरल, ईरान में 143 अरब बैरल और ब्राज़ील में 120 अरब बैरल तेल है।

क्या कॉमन एलिजिबिलिटी टेस्ट से बेरोज़गार युवाओं की तक़दीर बदल जाएगी?

भारत में केंद्र सरकार ने बीते बुधवार को सरकारी क्षेत्र की तमाम नौकरियों में प्रवेश के लिए एक राष्ट्रीय भर्ती एजेंसी गठित करने का फ़ैसला किया है।

सरकार का दावा है कि ये एजेंसी केंद्र सरकार की नौकरियों में प्रवेश प्रक्रिया में परिवर्तनकारी सुधार लेकर आएगी और पारदर्शिता को भी बढ़ावा देगी।

इस एजेंसी के तहत एक कॉमन एलिजिबिलिटी टेस्ट यानी समान योग्यता परीक्षा आयोजित की जाएगी जो कि रेलवे, बैंकिंग और केंद्र सरकार की नौकरियों के लिए ली जाने वाली प्राथमिक परीक्षा की जगह लेगी।

वर्तमान में युवाओं को अलग अलग पदों के लिए आयोजित की जाने वाली परीक्षाओं में भाग लेने के लिए भारी आर्थिक दबाव और कई तरह की मुश्किलें झेलनी पड़ती हैं।

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने आधिकारिक ट्विटर अकाउंट से ट्वीट करके कैबिनेट के इस फ़ैसले की प्रशंसा की है।

मोदी ने लिखा है, ''राष्‍ट्रीय भर्ती एजेंसी करोड़ों युवाओं के लिए एक वरदान साबित होगी। सामान्‍य योग्‍यता परीक्षा (कॉमन एलिजिबिलिटी टेस्ट) के ज़रिये इससे अनेक परीक्षाएं ख़त्म हो जाएंगी और कीमती समय के साथ-साथ संसाधनों की भी बचत होगी। इससे पारदर्शिता को भी बड़ा बढ़ावा मिलेगा।''

कॉमन एलिजिबिलिटी टेस्ट क्या है?

भारत में हर साल दो से तीन करोड़ युवा केंद्र सरकार और बैंकिग क्षेत्र की नौकरियों को हासिल करने के लिए अलग अलग तरह की परीक्षाओं में हिस्सा लेते हैं।

उदाहरण के लिए बैंकिंग क्षेत्र में नौकरियों के लिए ही युवाओं को साल में कई बार आवेदन पत्र भरना पड़ता है। और प्रत्येक बार युवाओं को तीन-चार सौ रुपये से लेकर आठ-नौ सौ रुपये तक की फीस भरनी पड़ती है।

लेकिन नेशनल रिक्रूटमेंट एजेंसी अब ऐसी ही तमाम परिक्षाओं के लिए एक कॉमन एलिजिबिलिटी टेस्ट का आयोजन करेगी।

इस टेस्ट की मदद से एसएससी, आरआरबी और आईबीपीएस के लिए पहले स्तर पर उम्मीदवारों की स्क्रीनिंग और परीक्षा ली जाएगी।

भारत के प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो के मुताबिक़, कॉमन एलिजिबिलिटी टेस्ट एक ऑनलाइन परीक्षा होगी जिसके तहत ग्रेजुएट, 12वीं पास, और दसवीं पास युवा इम्तिहान दे सकेंगे।

ख़ास बात ये है कि ये परीक्षा शुरू होने के बाद परीक्षार्थियों को अलग अलग परीक्षाओं और उनके अलग-अलग ढंगों के लिए तैयारी नहीं करनी पड़ेगी।

क्योंकि एसएससी, बैंकिंग और रेलवे की परीक्षाओं में पूछे जाने वाले सवालों में एकरूपता नहीं होती है। ऐसे में युवाओं को हर परीक्षा के लिए अलग तैयारी करनी पड़ती है।

ये परीक्षा कैसे होगी?

इन परीक्षाओं को देने के लिए युवाओं को कम उम्र में ही घर से दूर बनाए गए परीक्षा केंद्रों तक बस और रेल यात्रा करके जाना पड़ता था।

सरकार की ओर से ये दावा किया जा रहा है कि राष्ट्रीय भर्ती परीक्षा युवाओं की इन मुश्किलों को हल कर देगी क्योंकि इस परीक्षा के लिए हर ज़िले में दो सेंटर बनाए जाएंगे।

इसके अलावा इस परीक्षा में हासिल स्कोर तीन सालों तक वैद्य होगा। और इस परीक्षा में अपर एज लिमिट नहीं होगी।

इस परीक्षा से क्या बदलेगा?

शिक्षा क्षेत्र से जुड़े विशेषज्ञ मान रहे हैं कि ये एक ऐसा सुधारवादी कदम है जिसकी काफ़ी समय से प्रतीक्षा की जा रही थी।

सरकार का यह कदम अच्छा है और इसका असर भी दीर्घकालिक होगा लेकिन ये सुधार की दिशा में सिर्फ पहला और बहुत छोटा कदम है। अभी नौकरियों के लिए आयोजित की जाने वाली प्रतियोगिता परीक्षाओं के क्षेत्र में बहुत सुधार किया जाना बाकी है। भारत में  प्रतियोगिता परीक्षाओं के नाम पर केवल युवाओं के कीमती समय, पैसा और संसाधनों की ही बर्बादी होती है।

कॉमन एलिजिबिलिटी टेस्ट में भारत में नौकरियों के लिए आयोजित की जाने वाली सभी प्रतियोगिता परीक्षाओं को शामिल करना चाहिए। इससे युवाओं के कीमती समय, पैसा और संसाधनों की बर्बादी नहीं होगी।

क्या बेरूत ब्लास्ट को रोका जा सकता था?

लेबनान की राजधानी बेरूत में राहतकर्मी अब भी धमाके के बाद मलबे में तब्दील इमारतों में बचे हुए लोगों की तलाश में जुटे हुए हैं। मंगलवार को हुए धमाके में अभी तक कम से कम 135 लोगों की मौत हो गई है और 5000 से ज़्यादा घायल हुए हैं।

लेबनान की राजधानी बेरूत के पोर्ट इलाक़े में स्थानीय समय के अनुसार शाम छह बजे शुरुआती धमाका हुआ। इसके बाद वहाँ आग लगी और छोटे छोटे अन्य धमाके भी हुए। कुछ प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक़ ऐसा लगा कि पटाख़े चल रहे हों।

सोशल मीडिया पर पोस्ट किए गए वीडियो में एक वेयरहाउस से धुआँ निकलता देखा गया। लेकिन इसके बाद जो हुआ, उससे कई लोग अब भी नहीं उबर पाए हैं। एकाएक भयानक विस्फोट, धुएँ का गुबार और जैसे पूरा शहर इसकी चपेट में आ गए। हवा में आग का गोला उठा। इसके साथ एक सुपरसोनिक और मशरूम आकार का एक शॉकवेव उठा, जो पूरे शहर में फैल गया।

दूसरे वाले भयानक विस्फोट के कारण पोर्ट इलाक़े की इमारतें पूरी तरह ध्वस्त हो गईं। साथ ही बेरूत के कई इलाक़ों में भयानक तबाही हुई। बेरूत की आबादी 20 लाख है। धमाके के बाद जल्द ही घायल अस्पताल पहुँचने लगे और धीरे-धीरे अस्पताल भरने लगे।

लेबनान में रेड क्रॉस के प्रमुख जॉर्ज केटानी ने बताया, ''जो हम देख रहे हैं, वो बड़ी तबाही है। हर जगह हताहत हैं।''

बेरूत के गवर्नर मारवन अबूद ने कहा कि क़रीब तीन लाख लोग अस्थायी रूप से बेघर हुए हैं। उनका आकलन था कि इस धमाके से 10-15 अरब डॉलर का कुल नुक़सान हुआ है।

जानकार अभी भी इसका पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन धमाके के बाद जिस तरह शॉकवेव उठा था और नौ किलोमीटर दूर बेरूत अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के पैसेंजर टर्मिनल में शीशे टूट गए, उससे इसकी तीव्रता का अंदाज़ा होता है।

बेरूत से 200 किलोमीटर दूर साइप्रस तक में धमाके की आवाज़ सुनाई पड़ी। अमरीका में जियोलॉजिकल सर्वे के भूगर्भ वैज्ञानिकों के मुताबिक़ ये धमाका 3.3 तीव्रता के भूकंप जैसा था।

लेबनान के राष्ट्रपति मिशेल आउन का कहना है कि पोर्ट इलाक़े के एक वेयरहाउस में 2750 टन अमोनियम नाइट्रेट असुरक्षित रूप से रखा हुआ था और धमाके की वजह यही अमोनियम नाइट्रेट है।

2013 में इतनी ही मात्रा में रसायन एक माल्डोवियन कार्गो शिप एमवी रोसूस से बेरूत पोर्ट पहुँचा था। जॉर्जिया से मोज़ाम्बिक़ जाते समय इस जहाज़ में कोई तकनीकी समस्या आ गई थी, जिस कारण इसे बेरूत पोर्ट में रुकना पड़ा था।

उस समय इस जहाज़ का निरीक्षण किया गया और इसे वहाँ से जाने से रोक दिया गया। इसके बाद इसके मालिकों ने इस जहाज़ को छोड़ दिया। इस इंडस्ट्री के एक न्यूज़लेटर Shiparrested.com ने ये जानकारी दी थी। इस जहाज़ के कार्गो को सुरक्षा कारणों से पोर्ट के एक गोदाम में शिफ़्ट कर दिया गया। हालाँकि कहा ये गया कि या तो इसका निपटारा करना चाहिए था या फिर बेच देना चाहिए था।

अमोनियम नाइट्रेट (NH4NO3) एक क्रिस्टल जैसा सफेद ठोस पदार्थ है, जिसे आम तौर पर खेती के लिए उर्वरक में नाइट्रोजन के स्रोत के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इसे ईंधन वाले तेल के साथ मिलाकर विस्फोटक भी तैयार किया जाता है, जिसका इस्तेमाल खनन और निर्माण उद्योगों में होता है। चरमपंथियों ने कई बार इसका इस्तेमाल बम बनाने में भी किया है।

जानकारों का कहना है कि अमोनियम नाइट्रेट को अगर ठीक से स्टोर किया जाए, तो ये सुरक्षित रहता है। लेकिन अगर बड़ी मात्रा में ये पदार्थ लंबे समय तक ऐसे ही ज़मीन पर पड़ा रहा, तो धीरे धीरे ख़राब होने लगता है।

लंदन के यूनिवर्सिटी कॉलेज में केमिस्ट्री के प्रोफ़ेसर आंद्रिया सेला कहती हैं कि असली समस्या ये है कि समय के साथ ये धीरे-धीरे नमी को सोखते रहता है और आख़िरकार एक बड़े चट्टान में बदल जाता है। इस कारण ये काफ़ी ख़तरनाक हो जाता है। अगर किसी भी तरह की आग वहाँ तक पहुँचती है, तो इससे होने वाली रासायनिक प्रतिक्रिया बहुत तीव्र होती है।

अमोनियम नाइट्रेट कई बड़े औद्योगिक हादसों से जुड़ा हुआ है। वर्ष 1947 में अमरीका के टेक्सस में 2000 टन रसायन ले जा रहे एक जहाज़ में धमाका हो गया था, जिसमें 581 लोग मारे गए थे।

राष्ट्रपति आउन ने इस धमाके की एक पारदर्शी जाँच का भरोसा दिलाया है।

बुधवार को उन्होंने कहा, ''हम जाँच कराने को लेकर प्रतिबद्ध हैं और जितना जल्द होगा, इस घटना के ईर्द-गिर्द की परिस्थितियों को सामने लाएँगे। इसके लिए जो भी ज़िम्मेदार होंगे और जिन्होंने इसकी अनदेखी की, उन्हें कड़ी सज़ा दी जाएगी।''

प्रधानमंत्री हसन दियाब ने धमाके के पीछे की परिस्थितियों को अस्वीकार्य बताया है।

पोर्ट के जनरल मैनेजर हसन कोरेटेम और लेबनीज़ कस्टम्स के डायरेक्टर जनरल बद्री दाहेर ने कहा है कि उन्होंने अमोनियम नाइट्रेट को स्टोर किए जाने के ख़तरे के प्रति कई बार आगाह किया था, लेकिन उसकी अनदेखी की गई।

दाहेर ने कहा - हमने कहा कि इसे फिर से निर्यात कर दिया जाए, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हम विशेषज्ञों और संबंधित लोगों पर ये छोड़ते हैं कि वे यह पता करें कि ऐसा क्यों हुआ?

इंटरनेट पर जारी दस्तावेज़ों से ऐसा लगता है कि कस्टम अधिकारियों ने वर्ष 2014 से 2017 के बीच न्यायपालिका को कम से कम छह बार चिट्ठियाँ लिखी थी, ताकि इस बारे में वो दिशा निर्देश दे।

लेबनान की सरकार ने पोर्ट पर स्टोर में रखे अमोनियम नाइट्रेट की निगरानी करने वाले अधिकारियों को जाँच पूरी होने तक घर में नज़रबंद करने का आदेश दिया है।

भारत में नई शिक्षा नीति-2020: पाँचवीं क्लास तक मातृभाषा में पढ़ाई

भारत में नई शिक्षा नीति-2020 को मोदी कैबिनेट की मंज़ूरी मिल गई है। भारत के केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक और केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने बुधवार को प्रेस वार्ता कर इसकी जानकारी दी।

इससे पहले 1986 में नई शिक्षा नीति लागू की गई थी। 1992 में इस नीति में कुछ संशोधन किए गए थे। यानी 34 साल बाद भारत में फिर से एक बार  नई शिक्षा नीति लागू की जा रही है।

पूर्व इसरो प्रमुख के कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में विशेषज्ञों की एक समिति ने इसका मसौदा तैयार किया था, जिसे भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में कैबिनेट ने बुधवार को मंज़ूरी दी।

नई शिक्षा नीति में स्कूल शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक कई बड़े बदलाव किए गए हैं।

नई शिक्षा नीति-2020 की मुख्य बातें:

- नई शिक्षा नीति में पाँचवी क्लास तक मातृभाषा, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई का माध्यम रखने की बात कही गई है। इसे क्लास आठ या उससे आगे भी बढ़ाया जा सकता है। विदेशी भाषाओं की पढ़ाई सेकेंडरी लेवल से होगी। हालांकि नई शिक्षा नीति में यह भी कहा गया है कि किसी भी भाषा को थोपा नहीं जाएगा।  

- साल 2030 तक स्कूली शिक्षा में 100% जीईआर (Gross Enrolment Ratio) के साथ माध्यमिक स्तर तक एजुकेशन फ़ॉर ऑल का लक्ष्य रखा गया है।

- अभी स्कूल से दूर रह रहे दो करोड़ बच्चों को दोबारा मुख्य धारा में लाया जाएगा। इसके लिए स्कूल के बुनियादी ढांचे का विकास और नवीन शिक्षा केंद्रों की स्थापना की जाएगी।

- स्कूल पाठ्यक्रम के 10 + 2 ढांचे की जगह 5 + 3 + 3 + 4 का नया पाठयक्रम संरचना लागू किया जाएगा जो क्रमशः 3-8, 8-11, 11-14, और 14-18 उम्र के बच्चों के लिए है। इसमें अब तक दूर रखे गए 3-6 साल के बच्चों को स्कूली पाठ्यक्रम के तहत लाने का प्रावधान है, जिसे विश्व स्तर पर बच्चे के मानसिक विकास के लिए महत्वपूर्ण चरण के रूप में मान्यता दी गई है।

- नई प्रणाली में प्री स्कूलिंग के साथ 12 साल की स्कूली शिक्षा और तीन साल की आंगनवाड़ी होगी। इसके तहत छात्रों की शुरुआती स्टेज की पढ़ाई के लिए तीन साल की प्री-प्राइमरी और पहली तथा दूसरी क्लास को रखा गया है। अगले स्टेज में तीसरी, चौथी और पाँचवी क्लास को रखा गया है। इसके बाद मिडिल स्कूल यानी 6-8 कक्षा में सब्जेक्ट का इंट्रोडक्शन कराया जाएगा। सभी छात्र केवल तीसरी, पाँचवी और आठवी कक्षा में परीक्षा देंगे। 10वीं और 12वीं की बोर्ड परीक्षा पहले की तरह जारी रहेगी। लेकिन बच्चों के समग्र विकास के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए इन्हें नया स्वरूप दिया जाएगा। एक नया राष्ट्रीय आकलन केंद्र 'परख' (समग्र विकास के लिए कार्य-प्रदर्शन आकलन, समीक्षा और ज्ञान का विश्लेषण) एक मानक-निर्धारक निकाय के रूप में स्थापित किया जाएगा।

- पढ़ने-लिखने और जोड़-घटाव (संख्यात्मक ज्ञान) की बुनियादी योग्यता पर ज़ोर दिया जाएगा। बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान की प्राप्ति को सही ढंग से सीखने के लिए अत्यंत ज़रूरी एवं पहली आवश्यकता मानते हुए 'एनईपी 2020' में मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा 'बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान पर एक राष्ट्रीय मिशन' की स्थापना किए जाने पर विशेष ज़ोर दिया गया है।

- एनसीईआरटी 8 वर्ष की आयु तक के बच्चों के लिए प्रारंभिक बचपन देखभाल और शिक्षा (एनसीईएफ़ईसीसीई) के लिए एक राष्ट्रीय पाठ्यक्रम और शैक्षणिक ढांचा विकसित करेगा।

- स्कूलों में शैक्षणिक धाराओं, पाठ्येतर गतिविधियों और व्यावसायिक शिक्षा के बीच ख़ास अंतर नहीं किया जाएगा।

- सामाजिक और आर्थिक नज़रिए से वंचित समूहों (SEDG) की शिक्षा पर विशेष ज़ोर दिया जाएगा।

- शिक्षकों के लिए राष्ट्रीय प्रोफ़ेशनल मानक (एनपीएसटी) राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद द्वारा वर्ष 2022 तक विकसित किया जाएगा, जिसके लिए एनसीईआरटी, एससीईआरटी, शिक्षकों और सभी स्तरों एवं क्षेत्रों के विशेषज्ञ संगठनों के साथ परामर्श किया जाएगा।

- मानव संसाधन विकास मंत्रालय का नाम बदल कर शिक्षा मंत्रालय कर दिया गया है। इसका मतलब है कि रमेश पोखरियाल निशंक अब देश के शिक्षा मंत्री कहलाएंगे।

- जीडीपी का छह फ़ीसद शिक्षा में लगाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है जो अभी 4.43 फ़ीसद है।

- नई शिक्षा का लक्ष्य 2030 तक 3-18 आयु वर्ग के प्रत्येक बच्चे को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करता है।

- छठी क्लास से वोकेशनल कोर्स शुरू किए जाएंगे। इसके लिए इच्छुक छात्रों को छठी क्लास के बाद से ही इंटर्नशिप करवाई जाएगी। इसके अलावा म्यूज़िक और आर्ट्स को बढ़ावा दिया जाएगा। इन्हें पाठयक्रम में लागू किया जाएगा।

- उच्च शिक्षा के लिए एक सिंगल रेगुलेटर रहेगा। लॉ और मेडिकल शिक्षा को छोड़कर समस्त उच्च शिक्षा के लिए एक एकल अति महत्वपूर्ण व्यापक निकाय के रूप में भारत उच्च शिक्षा आयोग (एचईसीआई) का गठन किया जाएगा।

- एचईसीआई के चार स्वतंत्र वर्टिकल होंगे- विनियमन के लिए राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा नियामकीय परिषद (एनएचईआरसी), मानक निर्धारण के लिए सामान्य शिक्षा परिषद (जीईसी), वित्त पोषण के लिए उच्चतर शिक्षा अनुदान परिषद (एचईजीसी) और प्रत्यायन के लिए राष्ट्रीय प्रत्यायन परिषद (एनएसी)।

- उच्च शिक्षा में 2035 तक 50 फ़ीसद GER (Gross Enrolment Ratio) पहुंचाने का लक्ष्य है। फ़िलहाल 2018 के आँकड़ों के अनुसार GER 26.3 प्रतिशत है। उच्च शिक्षा में 3.5 करोड़ नई सीटें जोड़ी जाएंगी।

- पहली बार मल्टीपल एंट्री और एग्ज़िट सिस्टम लागू किया गया है। आप इसे ऐसे समझ सकते हैं। आज की व्यवस्था में अगर चार साल इंजीनियरिंग पढ़ने या छह सेमेस्टर पढ़ने के बाद किसी कारणवश आगे नहीं पढ़ पाते हैं तो आपके पास कोई उपाय नहीं होता, लेकिन मल्टीपल एंट्री और एग्ज़िट सिस्टम में एक साल के बाद सर्टिफ़िकेट, दो साल के बाद डिप्लोमा और तीन-चार साल के बाद डिग्री मिल जाएगी। इससे उन छात्रों को बहुत फ़ायदा होगा जिनकी पढ़ाई बीच में किसी वजह से छूट जाती है।

- नई शिक्षा नीति में छात्रों को ये आज़ादी भी होगी कि अगर वो कोई कोर्स बीच में छोड़कर दूसरे कोर्स में दाख़िला लेना चाहें तो वो पहले कोर्स से एक ख़ास निश्चित समय तक ब्रेक ले सकते हैं और दूसरा कोर्स ज्वाइन कर सकते हैं।

- उच्च शिक्षा में कई बदलाव किए गए हैं। जो छात्र रिसर्च करना चाहते हैं उनके लिए चार साल का डिग्री प्रोग्राम होगा। जो लोग नौकरी में जाना चाहते हैं वो तीन साल का ही डिग्री प्रोग्राम करेंगे। लेकिन जो रिसर्च में जाना चाहते हैं वो एक साल के एमए (MA) के साथ चार साल के डिग्री प्रोग्राम के बाद सीधे पीएचडी (PhD) कर सकते हैं। उन्हें एमफ़िल (M.Phil) की ज़रूरत नहीं होगी।

- शोध करने के लिए और पूरी उच्च शिक्षा में एक मज़बूत अनुसंधान संस्कृति तथा अनुसंधान क्षमता को बढ़ावा देने के लिए एक शीर्ष निकाय के रूप में नेशनल रिसर्च फ़ाउंडेशन (एनआरएफ़) की स्थापना की जाएगी।  एनआरएफ़ का मुख्य उद्देश्य विश्वविद्यालयों के माध्यम से शोध की संस्कृति को सक्षम बनाना होगा। एनआरएफ़ स्वतंत्र रूप से सरकार द्वारा, एक बोर्ड ऑफ़ गवर्नर्स द्वारा शासित होगा।

- उच्च शिक्षा संस्थानों को फ़ीस चार्ज करने के मामले में और पारदर्शिता लानी होगी।

- एससी, एसटी, ओबीसी और अन्य विशिष्ट श्रेणियों से जुड़े हुए छात्रों की योग्यता को प्रोत्साहित करने का प्रयास किया जाएगा। छात्रवृत्ति प्राप्त करने वाले छात्रों की प्रगति को समर्थन प्रदान करना, उसे बढ़ावा देना और उनकी प्रगति को ट्रैक करने के लिए राष्ट्रीय छात्रवृत्ति पोर्टल का विस्तार किया जाएगा। निजी उच्च शिक्षण संस्थानों को अपने यहां छात्रों को बड़ी संख्या में मुफ़्त शिक्षा और छात्रवृत्तियों की पेशकश करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा।

- ई-पाठ्यक्रम क्षेत्रीय भाषाओं में विकसित किए जाएंगे। वर्चुअल लैब विकसित की जा रही है और एक राष्ट्रीय शैक्षिक टेक्नोलॉजी फ़ोरम (NETF) बनाया जा रहा है।

- हाल ही में कोरोना महामारी और वैश्विक कोरोना महामारी में वृद्धि होने के परिणामस्वरूप ऑनलाइन शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए सिफ़ारिशों के एक व्यापक सेट को कवर किया गया है, जिससे जब कभी और जहां भी पारंपरिक और व्यक्तिगत शिक्षा प्राप्त करने का साधन उपलब्ध होना संभव नहीं हैं, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के वैकल्पिक साधनों की तैयारियों को सुनिश्चित करने के लिए, स्कूल और उच्च शिक्षा दोनों को ई-शिक्षा की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए एमएचआरडी में डिजिटल अवसंरचना, डिजिटल कंटेंट और क्षमता निर्माण के उद्देश्य से एक समर्पित इकाई बनाई जाएगी।

- सभी भारतीय भाषाओं के लिए संरक्षण, विकास और उन्हें और जीवंत बनाने के लिए नई शिक्षा नीति में पाली, फ़ारसी और प्राकृत भाषाओं के लिए एक इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ ट्रांसलेशन एंड इंटरप्रिटेशन (आईआईटीआई), राष्ट्रीय संस्थान की स्थापना करने, उच्च शिक्षण संस्थानों में संस्कृत और सभी भाषा विभागों को मज़बूत करने और ज़्यादा से ज़्यादा उच्च शिक्षण संस्थानों के कार्यक्रमों में, शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा/ स्थानीय भाषा का उपयोग करने की सिफ़ारिश की गई है।

तुर्की: हागिया सोफ़िया म्यूज़ियम को मस्जिद में क्यों बदला गया?

तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने इस्तांबुल के ऐतिहासिक हागिया सोफ़िया म्यूज़ियम को दोबारा मस्जिद में बदलने के आदेश दे दिए हैं।

इससे पहले शुक्रवार को ही तुर्की की एक अदालत ने हागिया सोफ़िया म्यूज़ियम को मस्जिद में बदलने का रास्ता साफ़ कर दिया था। कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा था कि हागिया सोफ़िया अब म्यूज़ियम नहीं रहेगा और 1934 के कैबिनेट के फ़ैसले को रद्द कर दिया।

1500 साल पुरानी यूनेस्को की ये विश्व विरासत मूल रूप से मस्जिद बनने से पहले चर्च था और 1930 के दशक में म्यूज़ियम बना दिया गया था। तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने पिछले साल चुनाव में इसे फिर से मस्जिद बनाने का वादा किया था।

डेढ़ हज़ार साल पुराने चर्च को पहले मस्जिद, फिर म्यूज़ियम बनाया गया, अब फिर मस्जिद बनाने का फ़ैसला किया गया है।

तुर्की का हागिया सोफ़िया दुनिया के सबसे बड़े चर्चों में से एक रहा है। इसे छठी सदी में बाइज़ेंटाइन सम्राट जस्टिनियन के हुक्म से बनाया गया था।

यह संयुक्त राष्ट्र की सांस्कृतिक मामलों की संस्था यूनेस्को के विश्व धरोहरों की सूची में आता है। जब उस्मानिया सल्तनत ने 1453 में क़ुस्तुनतुनिया (जिसे बाद में इस्तांबुल का नाम दिया गया) शहर पर क़ब्ज़ा किया तो इस चर्च को मस्जिद बना दिया गया था।

इस्तांबूल में बने ग्रीक शैली के इस चर्च को स्थापत्य कला का अनूठा नमूना माना जाता है जिसने दुनिया भर में बड़ी इमारतों के डिज़ाइन पर अपनी छाप छोड़ी है।

पहले विश्व युद्ध में तुर्की की हार और फिर वहां उस्मानिया सल्तनत के ख़ात्मे के बाद मुस्तफ़ा कमाल पाशा का शासन आया। उन्हीं के शासन में 1934 में इस मस्जिद (मूल रूप से हागिया सोफ़िया चर्च) को म्यूज़ियम बनाने का फ़ैसला किया गया।

आधुनिक काल में तुर्की के इस्लामवादी राजनीतिक दल इसे मस्जिद बनाने की माँग लंबे समय से करते रहे हैं जबकि धर्मनिरपेक्ष पार्टियाँ पुराने चर्च को मस्जिद बनाने का विरोध करती रही हैं। इस मामले पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाएँ भी आई हैं जो धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष आधार पर बँटी हुई हैं।

ग्रीस ने इस फ़ैसले का विरोध किया है और कहा है कि यह चर्च ऑर्थोडॉक्स ईसाइयत को मानने वाले लाखों लाख लोगों की आस्था का केंद्र है। ग्रीस की सांस्कृतिक मामलों की मंत्री ने इसे 'धार्मिक भावनाएँ भड़काकर राजनीतिक लाभ लेने की राजनीति' क़रार दिया है।

यूनेस्को के उप-प्रमुख ने ग्रीक अख़बार को दिए गए एक इंटरव्यू में कहा है कि इस चर्च के भविष्य का फ़ैसला एक बड़े स्तर पर होना चाहिए जिसमें अंतरराष्ट्रीय बिरादरी की बात भी सुनी जानी चाहिए। संयुक्त राष्ट्र के इस प्रतिनिधि का कहना है कि तुर्की को इस बारे में एक पत्र लिखा गया था लेकिन उसने कोई जवाब नहीं दिया।

अमरीकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने कहा है कि इस इमारत की स्थिति में बदलाव ठीक नहीं होगा क्योंकि यह अलग-अलग धार्मिक आस्थाओं के बीच एक पुल का काम करता रहा है।

गुम्बदों वाली यह ऐतिहासिक इमारत इस्तांबूल में बॉस्फ़ोरस नदी के पश्चिमी किनारे पर है, बॉस्फ़ोरस वह नदी है जो एशिया और यूरोप की सीमा तय करती है, इस नदी के पूर्व की तरफ़ एशिया और पश्चिम की ओर यूरोप है।

सम्राट जस्टिनियन ने सन 532 में एक भव्य चर्च के निर्माण का आदेश दिया था, उन दिनों इस्तांबूल को कॉन्सटेनटिनोपोल या क़ुस्तुनतुनिया के नाम से जाना जाता था, यह बाइज़ेन्टाइन साम्राज्य की राजधानी थी जिसे पूरब का रोमन साम्राज्य भी कहा जाता था।

इस शानदार इमारत को बनाने के लिए दूर-दूर से निर्माण सामग्री और इंजीनियर लगाए गए थे।

यह तुर्की के सबसे लोकप्रिय पर्यटन स्थलों में से एक है।

यह चर्च पाँच साल में बनकर 537 में पूरा हुआ, यह ऑर्थोडॉक्स इसाइयत को मानने वालों का अहम केंद्र तो बन ही गया, बाइज़ेन्टाइन साम्राज्य की ताक़त का भी प्रतीक बन गया, राज्याभिषेक जैसे अहम समारोह इसी चर्च में होते रहे।

हागिया सोफ़िया जिसका मतलब है 'पवित्र विवेक', यह इमारत क़रीब 900 साल तक ईस्टर्न ऑर्थोडॉक्स चर्च का मुख्यालय रही।

लेकिन इसे लेकर विवाद सिर्फ़ मुसलमानों और ईसाइयों में ही नहीं है, 13वीं सदी में इसे यूरोपीय ईसाई हमलावरों ने बुरी तरह तबाह करके कुछ समय के लिए कैथोलिक चर्च बना दिया था।

1453 में इस्लाम को मानने वाले ऑटोमन साम्राज्य के सुल्तान मेहमद द्वितीय ने क़ुस्तुनतुनिया पर क़ब्ज़ा कर लिया, उसका नाम बदलकर इस्तांबूल कर दिया और इस तरह बाइज़ेन्टाइन साम्राज्य का ख़ात्मा हमेशा के लिए हो गया।

सुल्तान मेहमद ने आदेश दिया कि हागिया सोफ़िया की मरम्मत की जाए और उसे एक मस्जिद में तब्दील कर दिया जाए। इसमें पहले जुमे की नमाज़ में सुल्तान ख़ुद शामिल हुए। ऑटोमन साम्राज्य को सल्तनत-ए-उस्मानिया भी कहा जाता है।

इस्लामी वास्तुकारों ने ईसायत की ज़्यादातर निशानियों को तोड़ दिया या फिर उनके ऊपर प्लास्टर की परत चढ़ा दी। पहले यह सिर्फ़ एक गुंबद वाली इमारत थी लेकिन इस्लामी शैली की छह मीनारें भी इसके बाहर खड़ी कर दी गईं।

17वीं सदी में बनी तुर्की की मशहूर नीली मस्जिद सहित दुनिया की कई मशहूर इमारतों के डिज़ाइन की प्रेरणा हागिया सोफ़िया को ही बताया जाता है।

पहले विश्व युद्ध में ऑटोमन साम्राज्य को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा, साम्राज्य को विजेताओं ने कई टुकड़ों में बाँट दिया। मौजूदा तुर्की उसी ध्वस्त ऑटोमन साम्राज्य की नींव पर खड़ा है।

आधुनिक तुर्की के निर्माता कहे जाने वाले मुस्तफ़ा कमाल पाशा ने देश को धर्मनिरपेक्ष घोषित किया और इसी सिलसिले में हागिया सोफ़िया को मस्जिद से म्यूज़ियम में बदल दिया।

1935 में इसे आम जनता के लिए खोल दिया गया तब से यह दुनिया के प्रमुख पर्यटन स्थलों में एक रहा है।

हागिया सोफ़िया क़रीब डेढ़ हज़ार साल के इतिहास की वजह से तुर्की ही नहीं, उसके बाहर के लोगों के लिए भी बहुत अहमियत रखता है, ख़ास तौर पर ग्रीस के ईसाइयों और दुनिया भर के मुसलमानों के लिए।

तुर्की में 1934 में बने क़ानून के ख़िलाफ़ लगातार प्रदर्शन होते रहे हैं जिसके तहत हागिया सोफ़िया में नमाज़ पढ़ने या किसी अन्य धार्मिक आयोजन पर पाबंदी है।

तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोआन इन इस्लामी भावनाओं का समर्थन करते रहे हैं और हागिया सोफ़िया को म्यूज़ियम बनाने के फ़ैसले को ऐतिहासिक ग़लती बताते रहे हैं, वे लगातार कोशिशें करते रहे हैं कि इसे दोबारा मस्जिद बना दिया जाए। इसी का परिणाम है कि हागिया सोफ़िया म्यूज़ियम को फिर से मस्जिद में बदला गया।