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खुलासा: गुजरात का कर्ज 13 साल में 33 गुना बढ़ गया है

भारतीय जनता पार्टी पिछले कुछ समय से अपने ही वरिष्ठ नेताओं और पूर्व नेताओं की आलोचनाओं से घिरी हुई है। इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी पर वार करने वाले गुजरात की बीजेपी सरकार में मुख्यमंत्री रह चुके हैं।

सुरेश मेहता अक्टूबर 1995 से सितंबर 1996 तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे थे। लेकिन उन्हें लगता है कि आगामी गुजरात चुनाव में बीजेपी की स्थिति डांवाडोल हो सकती है।

मेहता के अनुसार, गुजरात की बीजेपी सरकार किसान विरोधी और कार्पोरेट हित वाले फैसले लेती रही है। समाचार वेबसाइट 'द वायर' को दिए इंटरव्यू में सुरेश मेहता ने दावा किया कि ''गुजरात में इस बार विकास का गुजरात मॉडल नहीं बिकेगा ... गुजरात मॉडल केवल शब्दों की बाजीगरी है। गुजरात की जमीनी सच्चाई कुछ और ही कहानी बयाँ करती है।''

नरेंद्र मोदी को जब केशुभाई पटेल की जगह गुजरात का मुख्यमंत्री बनाया गया तो मेहता उनके मंत्रिमंडल में थे।

सुरेश मेहता ने द वायर से कहा, ''साल 2004 में भारत के नियंत्रक और महालेखा परिक्षक (कैग) ने गुजरात की वित्तीय स्थिति की समीक्षा की थी। उस समय राज्य सरकार पर चार से छह हजार करोड़ के बीच कर्ज था। इसलिए कैग ने राज्य को आगाह किया था कि वो कर्ज की दुष्चक्र में न फंसे। लेकिन सरकार ने कैग की बात को नजरअंदाज किया। राज्य सरकार द्वारा पेश किए गये ताजा बज़ट के अनुसार, साल 2017 में गुजरात पर कर्ज बढ़कर एक लाख 98 हजार करोड़ हो चुका है। ये मेरे आंकड़े नहीं हैं। ये सरकार के अपने आंकड़े हैं। जिसे फरवरी 2017 में राज्य सरकार ने गुजरात फिस्कल रिस्पांसबिलिटी एक्ट 2005 के तहत जारी बयान में घोषित किया है।''

सुरेश मेहता ने गुजरात की बीजेपी सरकार पर किसानों को मिलने वाली छूट में कमी करने का भी आरोप लगाया। मेहता ने द वायर से कहा, ''.... उसी दस्तावेज से पता चलता है कि गुजरात सरकार की प्राथमिकता क्या है। कृषि मद में दी जाने वाली छूट (सब्सिडी) जिसका लाभ किसानों को मिलता है वित्त वर्ष 2006-07 से लगातार कम होती जा रही है। वित्त वर्ष 2006-07 में 195 करोड़ रुपये और वित्त वर्ष 2007-08 में 408 करोड़ रुपये की छूट दी गयी थी जो वित्त वर्ष 2016-17 में घटकर 80 करोड़ रुपये रह गयी है।''

मेहता ने आरोप लगाया कि गुजरात की बीजेपी सरकार किसानों की छूट कम करने के साथ ही अडानी और अंबानी जैसे कारोबारियों को फायदा पहुँचाने वाली ऊर्जा और पेट्रोकेमिकल सेक्टर में छूट बढ़ाती जा रही है।

मेहता ने द वायर से कहा, ''.... इस (किसानों की) छूट की तुलना ऊर्जा और पेट्रोकेमिकल सेक्टर को दी जा रही छूट से करिए, जो अडानी और अंबानी चलाते हैं। वित्त वर्ष 2006-07 में इन सेक्टर को मिलने वाली 1873 करोड़ की छूट वित्त वर्ष 2016-17 में बढ़कर 4471 करोड़ रुपये (संशोधित आंकड़े) हो गयी।''

मेहता ने दावा किया कि गरीब और आम लोगों को प्रभावित करने वाला खाद्य एवं आपूर्ति का बजट भी बीजेपी सरकार ने 130 करोड़ रुपये से घटाकर 52 करोड़ रुपये कर दिया।

मेहता ने आरोप लगाया कि पीएम नरेंद्र मोदी ने घोषणा की थी कि सरदार वल्लभभाई पटेल की मूर्ति स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के लिए भी नर्मदा परियोजना फंड से पैसा दिया जा रहा है।

मेहता ने दावा किया कि गुजरात के वित्त मंत्री ने विधान सभा में बताया कि नर्मदा प्रोजेक्ट फंड से तीन हजार करोड़ रुपये सरदार पटेल की मूर्ति बनाने के लिए दिए गए हैं।

मेहता ने पूछा कि सरकार सिंचाई और किसानों के हित के लिए बनाए गए फंड का पैसा मूर्ति बनाने में कैसे खर्च कर सकती है?

मेहता ने नरेंद्र मोदी को घेरते हुए कहा कि उनके शीर्ष पर आने से पहले बीजेपी अलग तरह की पार्टी थी।

मेहता ने द वायर से कहा कि उन्होंने नरेंद्र मोदी से साल 2002 में शुरू हुए मतभेदों के चलते ही साल 2007 बीजेपी छोड़ी थी।

गुजरात में बीजेपी चुनाव हार सकती है

चुनाव आयोग ने गुजरात में होने वाले विधान सभा चुनाव की तारीखों का ऐलान नहीं किया है, लेकिन उससे पहले ही गुजरात इलेक्शन मोड में आ चुका है।

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी बार-बार गुजरात का दौरा कर रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी एक महीने में तीन बार गुजरात का दौरा कर चुके हैं।

माना जा रहा है कि साल 2014 के लोकसभा चुनाव में गुजरात समेत पूरे भारत में जो लहर थी, वैसी लहर आज बीजेपी के पक्ष में नहीं है।

2014 के आम चुनावों में गुजरात की सभी 26 लोकसभा सीटों पर बीजेपी की जीत हुई थी। इसके साथ ही बीजेपी की झोली में 60 फीसदी वोट गए थे, लेकिन मौजूदा दौर में बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में काफी कमी आई है।

शायद यही वजह है कि प्रधानमंत्री मोदी को अपने गृह राज्य का दौरा बार-बार करना पड़ रहा है ताकि अपने गढ़ को वो बचा सकें।

दरअसल, नरेंद्र मोदी के गुजरात से दिल्ली जाने के बाद गुजरात बीजेपी में एक रिक्तता आई है। साथ ही राज्यस्तरीय शासन-तंत्र में भी मोदी की कमी महसूस हुई है। उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद तीन साल में ही गुजरात में दो बार मुख्यमंत्री बदलने पड़े हैं। पहले आनंदीबेन पटेल और अब विजय रुपाणी

गुजरात में हाल के दिनों में पाटीदार समाज के आरक्षण आंदोलनों ने भी पाटीदारों को बीजेपी से दूर करने में बड़ी भूमिका निभाई है। नौकरियों में आरक्षण की मांग को लेकर साल 2015 से ही पाटीदार समाज बीजेपी सरकार के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं।

केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने नोटबंदी और जीएसटी लागू की जिससे भारत के आर्थिक विकास दर में गिरावट आई। इससे भी बीजेपी और पीएम मोदी की लोकप्रियता में कमी आई है।

वर्ल्ड बैंक समेत कई अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों ने आगामी समय में भी अर्थव्यवस्था की रफ्तार कम रहने की आशंका जताई है। इसके अलावा बेरोजगारी और महंगाई की वजह से भी बीजेपी सरकार की लोकप्रियता और जनाधार में कमी आई है।

चूंकि गुजरात एक व्यापार प्रधान राज्य है, इसलिए अर्थव्यवस्था की रफ्तार का सीधा-सीधा असर यहां के जनमानस पर पड़ता है।

जानकार बताते हैं कि मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों की वजह से गुजरात के व्यापारियों को घाटा उठाना पड़ा है। लिहाजा, उनका रुझान भी बीजेपी से हटकर कांग्रेस की तरफ हो सकता है।

इसके अलावा बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के बेटे जय शाह पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप भी चुनावों में बीजेपी को नुकसान पहुंचा सकता है।

पिछले कुछ सालों में गुजरात के अलग-अलग हिस्सों में दलितों पर हुई हिंसा की वजह से भी दलित समाज का बीजेपी से मोहभंग होना स्वभाविक है। ऊना और बड़ोदरा में बड़े पैमाने पर दलित इसकी दस्तक पहले ही दे चुके हैं।

आदिवासी समाज भी बीजेपी सरकार की नीतियों और कार्यों से गुस्से में है क्योंकि अभी तक उन्हें विकास के 'गुजरात मॉडल' का कोई लाभ हासिल नहीं हो सका है।

गुजरात में आबादी के हिसाब से पांचवा स्थान रखने वाले आदिवासी समाज बीजेपी को ही समर्थन देता रहा है।

लिहाजा, विधानसभा की कुल 182 सीटों में से अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 27 में से 14 सीटों पर बीजेपी के उम्मीदवार जीतते रहे हैं, लेकिन इस बार नर्मदा पर बने सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाए जाने से डूब क्षेत्र में सबसे ज्यादा आदिवासी बहुल गांव ही आए हैं। उनका सही ढंग से विस्थापन नहीं हो सका है, इससे जनजातीय समुदाय में बीजेपी के खिलाफ आक्रोश है। इस वजह से माना जा रहा है कि उनका रुझान कांग्रेस की तरफ हो सकता है।

इन्हीं वजहों से 22 सालों से सत्ता से दूर रहने वाली कांग्रेस को गुजरात में परिवर्तन की उम्मीद दिखाई दे रही है। राज्यसभा चुनाव में अहमद पटेल की जीत, गिरती अर्थव्यवस्था पर चौतरफा घिरी मोदी सरकार, दलित-आदिवासियों का बीजेपी से होता मोहभंग देख कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ताबड़तोड़ गुजरात दौरे कर रहे हैं। बीजेपी की तरह ही कांग्रेस सोशल मीडिया को हथियार के रूप में प्रयोग रही है। कांग्रेस गुजरात में धार्मिक, जातीय और अन्य लामबंदी कर सत्ता में वापसी की उम्मीद कर रही है।

भारत में ई-कॉमर्स कम्पनियाँ आर्थिक घाटा में क्यों हैं?

भारत एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। इस अर्थव्यवस्था  में ई-कॉमर्स कंपनियां मुनाफे की सीढ़ियां चढ़ने से अभी भी काफी दूर हैं।

इन कंपनियों में करोड़ों डॉलर निवेश करने वाले निवेशक अब अच्छे रिजल्ट का दबाव बना रहे हैं, ऐसे में फ्लिपकार्ट और अमेजन जैसी कंपनियां ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए अभी भी आक्रामक तरीके से विज्ञापन पर काफी पैसे खर्च कर रही हैं और भारी डिस्काउंट दे रही हैं।

अमेजन ने कहा कि वित्तवर्ष 2015-16 के दौरान उसे भारत में 3,572 करोड़ रुपये (52.5 करोड़ डॉलर) का नुकसान हुआ है। यह आंकड़ा पिछले साल से दोगुना है।

इसका कारण भी स्पष्ट है। अमेजन ने भारत में इंफ्रास्ट्रक्चर और टेक्नोलॉजी पर बहुत अधिक निवेश किया है क्योंकि अमेरिका के बाद अमेजन के लिए भारत दूसरा सबसे बड़ा बाजार है।

आजकल ई-कॉमर्स शब्द का प्रचलन बहुत बढ़ गया है। हर कोई इसके बारे में बात कर रहा है क्योंकि निवेशकों ने अमेजन, फ्लिपकार्ट और स्नैपडील में खरबों डॉलर का निवेश किया है, जबकि इस सेक्टर ने भारत में अभी तक मुनाफा कमाने का कोई संकेत नहीं दिया है। हर कोई यही अनुमान लगा रहा है कि यह सेक्टर मुनाफा कमाने वाला कब बनेगा?

ऐसा क्यों है कि अमेजन यूएसए ने लगातार आठ तिमाही तक मुनाफा कमाया, लेकिन अमेजन इंडिया ने अभी तक मुनाफा कमाने का कोई संकेत नहीं दिया है, जबकि अमेजन इंडिया में पैरंट कंपनी ने दो अरब डॉलर का निवेश किया।

यह स्थिति इसलिए है क्योंकि अमेरिका की तुलना में भारत का रिटेल मार्केट अलग तरह का है।

दशकों से अमेरिका को एक व्यापक रूप से संगठित मॉडर्न रिटेल मार्केट के रूप में देखा जाता है। यहां ऑनलाइन कारोबार की हर श्रेणी में कुछ लीडर हैं, जिनका मार्केट शेयर पर खासा कब्जा रहता है।

इसकी जगह भारतीय रिटेल मार्केट का संचालन एक करोड़ 20 लाख खानदानी कारोबारियों के मॉम एंड पॉप स्टोर की ओर से किया जाता है। इस बड़े अंतर को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

अमेरिका का आधुनिक रिटेल मार्केटिंग का मॉडल काफी विशाल और विस्तृत है, जिसमें शॉपिंग मॉल के अलग-अलग फ्लोर्स पर शानदार स्टोर्स है, जिसका खर्च काफी ज्यादा है। वहां दुकानों के मालिकों को दुकान के किराए और दूसरी आधारभूत लागत, ऑनलाइन वस्तुओं की लिस्ट को मेंटेंन रखना, कस्टमर सर्विस के लिए हर श्रेणी में कर्मचारियों की नियुक्ति पर काफी खर्च करना पड़ता है। यह लिस्ट काफी लंबी है और रिटेलर को मुनाफा कमाने से पहले प्रॉडक्ट की लागत के अलावा अन्य काफी खर्चे पूरे करने होते हैं।

वहीं दूसरी तरफ अमेजन का ऑनलाइन मॉडल पर खर्च काफी कम आता है क्योंकि प्रॉडक्ट्स को उच्च रूप से स्वचालित गोदाम में रखा जाता है, जिनका किराया किसी अच्छी जगह की तुलना में काफी कम है। इससे दूसरे खर्च भी काफी कम होते हैं। उपभोक्ताओं को कोई शिकायत या सवाल होने पर उनका ऑनलाइन ही समाधान किया जाता है। कहने की जरूरत नहीं है कि अमेरिका में फिजिकल रिटेल मार्केट की तुलना में अमेजन का ऑनलाइन कारोबार करना काफी सस्ता पड़ता है और इसलिए वह बेहतर ढंग से तरक्की कर रहा है। इसके नतीजे काफी स्पष्ट हैं।

अब भारत के परिदृश्य पर नजर डालें, जो इसके ठीक विपरीत है। भारत में खानदानी कारोबारियों (मॉम एंड पॉप स्टोर्स) का 90 फीसदी रिटेल मार्केट पर कब्जा है। इन स्टोरों का संचालन इनके मालिकों द्वारा खुद ही किया जाता है। वह मॉल में मौजूद शोरूम की अपेक्षा काफी कम किराया चुकाते हैं। इनमें कम कर्मचारी रखे जाते हैं। इन कर्मचारियों के वेतन काफी कम होते है। इन शोरूम में काफी कम मार्जिन लेकर काम किया जाता है। उनमें अपेक्षाकृत कम सामान ही रहता है और ग्राहक होने पर सामान का प्रबंध कर दिया जाता है। उनकी कोई ऑनलाइन मौजूदगी नहीं होती। इन्हें डिजिटलीकरण और ऑनलाइन सामान की सूची बनाने का भी काम नहीं करना पड़ता। इसीलिए इनके खर्चे कम हैं और यह काफी कम मार्जिन पर भी काम कर लेते हैं।

इसके अलावा एक अतिरिक्त परेशानी यह है कि मल्टीब्रैंड रिटेल पर एफडीआई पर सरकार के दिशा-निर्देशों के अनुसार मार्केट प्लेस के ऑपरेटर विक्रेता नहीं हो सकते। इसका मतलब यह है कि वह सीधे विक्रेताओं से सामान खरीदकर नहीं बेच सकते। वह सिर्फ मार्केट प्लेस का संचालन कर सकते हैं, जो विक्रेताओं को खरीदारों से जोड़ता है।

इसलिए आखिर में कोई रिटेलर या डिस्ट्रिब्यूटर ही ऑनलाइन पोर्टल पर सामान बेचता है, पर ऑनलाइन कॉमर्स के मौजूदा मॉडल ने खर्चो में काफी बढ़ोत्तरी की है। इसमें प्रॉडक्ट को पिक करने, उन्हें गोदाम में रखने, डिलिवरी, कैश ऑन डिलिवरी (सी ओ डी) मैनेजमेंट और ऑनलाइन और ऑफलाइन ब्रांडिंग के कई खर्च जुड़े होते हैं।

इन खर्चो को कौन पूरा करेगा? मौजूदा ऑनलाइन मॉडल से रिटेल चेन की क्षमताएं नहीं बढ़ रही है और न ही इन खर्चो को पूरा करने के लिए लागत पर कोई बचत की जा सकती है। वेंचर कैपिटल से ही सारे खर्चे पूरे करने पड़ते हैं और इसीलिए भारत में दशकों के संचालन के बाद भी ऑनलाइन कारोबार को लगातार घाटा झेलना पड़ रहा है।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि पश्चिमी देशों का ई-कॉमर्स मॉडल हू-ब-हू अपनाने और कट और पेस्ट करने की जगह भारत को अपना नया ई-कॉमर्स मॉडल विकसित करने की जरूरत है, जिससे 1 करोड़ 20 लाख रिटेलर्स को इससे लाभ उठाने का मौका मिले और वे ऑनलाइन खरीदारों तक बिना कोई ज्यादा खर्च किए हुए पहुंच सके।

हमें डिजिटल विभाजन की खाई को पाटना है। इसे बढ़ाना नहीं है। हमें उस मॉडल की जरूरत है, जिससे ज्यादा से ज्यादा नौकरियां पैदा की जा सकें और रिटेल इंडस्ट्री पर निर्भर हर भागीदार को इससे लाभ कमाने का मौका मिले। केवल उन थोड़े से लोगों को इसका लाभ नहीं मिलना चाहिए, जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों से भारी मात्रा में फंड प्राप्त होता है और जो अपनी मनमर्जी से संसाधन जुटाने के लिए पैसा फिजूल खर्च करते हों।

अमित शाह के बेटे जय की कंपनी का टर्नओवर साल 2015-16 में सोलह हजार गुना बढ़ा

भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह के बेटे जय शाह की कंपनी विवादों में फंस गई है।

उनकी कंपनी टेम्पल इन्टरप्राइजेज प्राइवेट लिमिटेड का टर्नओवर साल 2015-16 में 16 हजार गुना बढ़ा है।

यह बढ़ोत्तरी तब हुई, जब केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी और उनके पिता अमित शाह बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए।

इससे पहले टेम्पल इन्टरप्राइजेज प्राइवेट लिमिटेड का टर्नओवर न के बराबर था।

'द वायर' के मुताबिक, जय शाह की कंपनी के टर्नओवर में उछाल की वजह 15.78 करोड़ रुपये का अनसेक्योर्ड लोन है जिसे राजेश खंडवाल की KIFS फिनांशियल सर्विसेज फर्म ने उपलब्ध कराया है, लेकिन हैरत की बात ये है कि लोन देने वाली KIFS फिनांशियल सर्विसेज ने जिस साल जय शाह की कंपनी को लोन दिया, उस साल उसकी कुल आय 7 करोड़ रुपये थी।

दूसरी बड़ी बात आरओसी के दस्तावेज से यह बात सामने आई है कि KIFS फिनांशियल सर्विसेज की एनुअल रिपोर्ट में टेम्पल इन्टरप्राइजेज को दिए गए 15.78 रुपये के अनसेक्योर्ड लोन का कोई जिक्र नहीं है।

बता दें कि राजेश खंडवाल बीजेपी के राज्यसभा सांसद और रिलायंस इंडस्ट्रीज के टॉप एग्जिक्यूटिव परिमल नथवानी के समधी हैं।

जय शाह की कंपनी की बैलेंस शीट में बताया गया है कि मार्च 2013 और मार्च 2014 तक उनकी कंपनी में कुछ खास कामकाज नहीं हुए और इस दौरान कंपनी को क्रमश: कुल 6,230 रुपये और 1,724 रुपये का घाटा हुआ।

लेकिन जैसे ही केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी और उनके पिता बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने जय शाह की कंपनी के टर्नओवर में आश्चर्यजनक रूप से इजाफा हुआ है।

साल 2014-15 के दौरान उनकी कंपनी को कुल 50,000 रुपये की इनकम पर कुल 18,728 रुपये का लाभ हुआ। मगर 2015-16 के वित्त वर्ष के दौरान जय की कंपनी का टर्नओवर लंबी छलांग लगाते हुए 80.5 करोड़ रुपये का हो गया। यह 2014-15 के मुकाबले 16 हजार गुना ज्यादा है।

जय शाह के वकील ने 'द वायर' को बताया है कि राजेश खंडवाल शाह परिवार के पुराने मित्र हैं। इसके अलावा वो पिछले कई सालों से शाह परिवार के शेयर ब्रोकिंग का कामकाज देख रहे हैं। इसके अलावा उनकी एन बी एफ सी फर्म पिछले कई सालों से जय शाह और जीतेंद्र शाह के बिजनेस को लोन देते रहे हैं।

दस्तावेजों से यह भी खुलासा हुआ है कि साल 2015 में राजेश खंडवाल और जय शाह ने मिलकर सत्वा ट्रेडलिंक नाम का लिमिटेड लायबलिटी पार्टनरशिप (एल एल पी)  बनाया था, लेकिन जल्द ही उसे बंद कर दिया गया।

जय शाह की तरफ से उनके वकील ने 'द वायर' को बताया कि दोनों ने मिलकर एल एल पी खोला था, लेकिन बाजार में विपरीत परिस्थितियों की वजह से उसमें कोई कारोबार नहीं हो सका। इसके बाद उसे बंद कर दिया गया और आरओसी के रिकॉर्ड से भी हटवा दिया गया।

आरओसी के दस्तावेजों से यह भी खुलासा हुआ है कि जय की कंपनी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि उसकी आय का 95 फीसदी कृषि उत्पादों की बिक्री से आया है, जबकि उनकी कंपनी के पास न तो कोई स्टॉक की डिटेल है और न ही इन्वेंटरीज। इसके अलावा उनकी कंपनी की चल-अचल संपत्ति का भी कोई विवरण नहीं है।

गठबंधन सरकारों ने बेहतर आर्थिक वृद्धि दी

भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर यज्ञ वेणुगोपाल रेड्डी ने देश की आर्थिक वृद्धि के लिए गठबंधन सरकारों को बेहतर बताया क्योंकि पिछले तीन दशक में इन्होंने बहुमत की सरकारों की अपेक्षा भारत को बेहतर आर्थिक वृद्धि दी है।

रेड्डी ने कहा, ''यह रोचक बात है कि भारत में सबसे अधिक आर्थिक वृद्धि 1990 से 2014 के बीच गठबंधन सरकारों के दौरान ही रही। एक तरह से देखा जाए तो आम सहमति के आधार पर भारतीय परिस्थितियों में एक गठबंधन सरकार किसी मजबूत (पूर्ण बहुमत) वाली सरकार की अपेक्षा बेहतर आर्थिक परिणाम देती है।''

वर्ष 1991 में भारत के भुगतान संकट का उल्लेख करते हुए रेड्डी ने कहा, ''उस दौर की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि अस्थिर राजनीतिक हालातों के बावजूद उन्होंने, जो कदम उठाए जाने की जरुरत थी, उनके लिए एक आम राजनीतिक सहमति बनायी और इसका सफलतापूर्वक प्रबंधन किया।''

वह अमेरिका के प्रमुख थिंक टैंक हडसन इंस्टीट्यूट में बोल रहे थे। रेड्डी वर्ष 2003 से 2008 तक रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे।

उन्होंने कहा कि वर्ष 2008 का विश्व आर्थिक संकट अभी तक टला नहीं है।

रेड्डी ने कहा, ''लघु अवधि में निश्चित तौर पर स्थिति बेहतर हुई है, लेकिन मध्यम अवधि में अभी भी प्रश्नचिन्ह लगे हुए हैं।''

उन्होंने कहा कि वह अगले 10 साल में भू-राजनैतिक परिस्थितयों में महत्वपूर्ण बदलाव देखते हैं। पूंजी के वैश्वीकरण की वर्तमान प्रक्रिया में कई सरकारों का मानना है कि लोगों की उम्मीदों के अनुरूप नीतियां बनाने की उनकी क्षमता पर वैश्वीकरण ने अंकुश लगाया है।

रेड्डी ने कहा, ''अब हम वैश्विक और राष्ट्रीय, राज्य और बाजार, वित्त और गैर-वित्त के बीच नए संतुलन की खोज में हैं। यह खोज जारी है।''

उन्होंने कहा कि अगले 10-15 साल में होने वाले जनांकिकीय और तकनीकी परिवर्तन पर्यावरण मुद्दों के लिए भी चिंता का विषय है और यह तीन विषय वैश्विक अर्थव्यवस्था के सामने सबसे बड़ी चुनौती हैं।

एक सवाल के जवाब में पूर्व गवर्नर ने कहा कि दिवाला एवं शोधन अक्षमता संहिता एक अच्छा कदम है और सभी इस बात से इत्तेफाक रखते हैं।

नोट बंदी और जीएसटी लागू होने के कारण भारत की अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आर्थिक सलाहकर परिषद का गठन किया है। इस परिषद में जाने-माने अर्थशास्त्रियों को शामिल किया गया है जिनका काम प्रधानमंत्री को आर्थिक मामलों पर सलाह देना होगा।

पिछली आर्थिक सलाहकार परिषद का कार्यकाल पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल के साथ ही ख़त्म हो गया था। नई सरकार बनने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस परिषद का गठन नहीं किया था।

मगर अब लगभग साढ़े तीन साल बाद उन्होंने अर्थशास्त्रियों के एक समूह को अपना परामर्शदाता बनाया है।

सवाल उठता है कि क्या वजह हो सकती है कि शुरू में इसका गठन नहीं किया गया। अब मोदी ने इस परिषद को क्यों बनाया गया?

इस पर पटना स्थित एन एन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज़ में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर डीएम दिवाकर ने बीबीसी से कहा, ''जब नोटबंदी का ऐलान हुआ था, देश-दुनिया में अर्थशास्त्र की समझ रखने वालों ने इसे नकारा था।

उसी वक्त लग रहा था कि प्रधानमंत्री मोदी के पास अच्छे आर्थिक सलाहकर होते तो ऐसी ग़लती नहीं होती।

आज जब अर्थव्यवस्था लुढ़कती जा रही है, उस दौर में बिना किसी तैयारी के जिस तरह से जीएसटी लागू किया गया, आशंका है कि इसके कारण अर्थव्यवस्था और लुढ़केगी।

चारों तरफ इसका आकलन हो रहा है। ऐसे में अब अगर अर्थशास्त्रियों का दल तैयार किया गया है तो बहुत देर हो चुकी है।

दूसरी बात यह है कि 2019 में चुनाव होने वाले हैं। डेढ़ साल के वक़्त में अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना चुनौती भरा काम होगा।

आज इनफॉर्मल सेक्टर के पूरे कारोबार क़रीब-क़रीब बैठ गए हैं। इसके बावजूद अगर अर्थशास्त्री अपनी बात कहना शुरू करें तो हमें दूसरी आशंका है।

रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया के गवर्नर रघुराम राजन और नीति आयोग के वाईस चेयरमैन अरविंद पनगढ़िया जिस तरह से गए हैं, सबने देखा है।

प्रधानमंत्री मोदी के काम करने का जो तरीका है, उसके आधार पर उम्मीद नहीं है कि अर्थशास्त्रियों के सुझावों पर कुछ अमल किया जाएगा।

अच्छा लगेगा, अगर सुविचारित मतों के साथ नई नीतियां बनें और कोई इकनॉमिक पॉलिसी तैयार हो।

उसमें अगर इकनॉमिक्स के बुनियादी सिद्धांतों को ध्यान में रखा जाए तो अर्थव्यवस्था और ख़राब नहीं होगी।

इस परिषद के प्रमुख बिबेक देबरॉय होंगे जो नीति आयोग के सदस्य भी हैं। उन्होंने नीतिगत्र पत्र तैयार किया था।

कृषि पर आधारित उस पत्र से नहीं लगता कि वह अर्थव्यवस्था के भारतीय मौलिक चिंतन को साथ लेकर चलते हैं।

आज जिस तरह से बिबेक देबरॉय चल रहे हैं, बिबेक देबरॉय कॉरपोरेट गवर्नेंस के पक्ष में चलने वाले लोग हैं और बड़े उद्योगों की बात करेंगे।

मगर भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़, असंगठित क्षेत्र के कारोबार और उद्योगों की दिशा में बिबेक देबरॉय का चिंतन अभी की अर्थव्यवस्था को सूट नहीं करेगा।

अध्यक्ष (बिबेक देबरॉय) के नाते अगर उनकी ही बात को समझने के लिए बाकी लोगों को रखा गया है तो इस परिषद से कोई उम्मीद नहीं है।

मगर लोकतांत्रिक प्रक्रिया से बाकी लोगों की बात भी सुनी जाएगी तो शायद कुछ होगा।

अगर अर्थशास्त्र के बुनियादी सिद्धांतों की बात होगी तो अभी तक हुए नुकसान से अलग हटकर निराकरण का रास्ता ढूंढा जा सकता है।

ज़रूरत इस बात की है कि भारत में अर्थशास्त्रियों के समूह के बीच बहस तेज़ करवाई जाए।

मोदी सरकार ने यह धारणा बनाई कि 70 साल में कुछ नहीं हुआ। इसके आधार पर आनन-फ़ानन में योजना आयोग खत्म किया गया।

योजना आयोग में कम से कम इतनी बात तो थी कि विचारों की असहमति की इज्ज़त होती थी। सरकार अपने विरोध में खड़े लोगों की बात भी इस मंच पर सुनती थी।

योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे मोंटेक सिंह अहलूवालिया के अपनी ही सरकार की पॉलिसी के ख़िलाफ़ आर्टिकल छपते थे।

नीति आयोग बनने के बाद योजना आयोग का यह पहलू ख़त्म हो गया। शायद सोचा होगा कि योजना आयोग किसी काम का नहीं है। हम लोग सब कुछ समझते हैं या हमारे लोग सब जानते हैं या फिर हमारा राजनीतिक एजेंडा ही फ़ाइनल है।

वजह जो भी रही हो, इसके बारे में वही बेहतर बता सकते हैं।

मगर योजना आयोग और आर्थिक सलाहकार परिषद का कार्यकाल ख़त्म होने के बाद जिस तरह का स्वरूप बना, वह सुविचारित प्रयास था। अपने हिसाब से चलाने का और वह देश के हित में नहीं था।

योजना आयोग की तरह या आर्थिक सलाहकर समिति की तरह इनके पास थिंक टैंक होता तो नोटबंदी की कतई सलाह नहीं देता।

आज दुनिया के देश भी आश्चर्य से देख रहे हैं कि जो देश वैश्विक मंदी के बाद अपने सर्वाधिक ग्रोथ रेट के साथ चल रहा था, नोटबंदी के बाद ऐसे लुढ़का दिया गया और उसके बाद जैसे आनन-फ़ानन में जीएसटी लागू हो गया, इसके परिणाम भयावह आने वाले हैं।

मोदी सरकार ने समीक्षा तो की है और ख़ासकर नौजवानों को लेकर। चिंता इस बात की भी है कि ग्रोथ रेट तेज़ी से नीचे जा रहा है तो सरकार की ज़रूरत के खर्चे कहां से निकलेंगे?

हालांकि इसके लिए इन्होंने प्लान और नॉन प्लान के खर्च को एकसाथ कर दिया है, जिससे पता नहीं चलता कि डिवेलपमेंट पर क्या खर्च होना है और मेनटेंनेंस पर क्या?''

करप्शन पर नीतीश कुमार का जीरो टालरेंस कहां गया? - भागलपुर में बांध टूटने पर कांग्रेस ने पूछा

बिहार में भागलपुर के कहलगाँव के बटेश्वर स्थान पर गंगा पंप नहर योजना का बांध उदघाट्न से 15 घंटे पहले टूट गया।

बुधवार को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भागलपुर जिले के कहलगांव में करीब 40 साल बाद पूरी हुई बटेश्वर स्थान गंगा पंप नहर परियोजना का उद्घाटन करना था।

मंगलवार को पटना से प्रकाशित होने वाले कई अखबारों में इस उद्घाटन समारोह से संबंधित विज्ञापन भी प्रकाशित हुए थे। नहर परियोजना की दीवार टूटने के बाद यह कार्यक्रम स्थगित कर दिया गया है।

बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव इस घटना के बाद ट्वीट कर नीतीश कुमार पर निशाना साध रहे हैं। एक ट्वीट में उन्होंने कहा, ''जल संसाधन विभाग भ्रष्टाचार का अड्डा है। मुख्यमंत्री जी इस विभाग के भ्रष्टाचार पर ना जाने क्यों चुप रहते है?''

एक अन्य ट्वीट में उन्होंने तंज किया, ''नीतीश जी बताएं, 828 करोड़ की लागत से बनी इस परियोजना को भी चूहे कुतर गए हैं क्या, जो बाँध टूट गया? इसका सेहरा भी चूहों के सिर बांधना चाहिए।''

तेजस्वी यादव ने एक अन्य ट्वीट में नीतीश की कड़ी आलोचना करते हुए कहा, ''CM नीतीश जी के लिए इससे बड़ी प्रशासनिक विफलता क्या होगी कि उद्घाटन से चंद घंटों पहले ही 828 करोड़ रुपये का बाँध भ्रष्टाचार रुपी गंगा में बह जाता है।''

बांध की टूट के लिए वहां के कांग्रेसी विधायक सदानंद सिंह ने इंजीनियरों और ठेकेदारों की घोर लापरवाही को जिम्मेदार करार दिया है।

राजद कार्यकर्ताओं ने इस नहर निर्माण को भ्रष्टाचार की जीती जागती मिसाल बताई है। और इसके खिलाफ जांच की मांग को लेकर बुधवार को एक दिवसीय धरना पर बैठे है।

कांग्रेस विधायक ने तंज कसा कि करप्शन पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का जीरो टालरेंस कहां गया?

पीरपैंती के राजद विधायक रामविलास पासवान ने इस घटना के लिए इंजीनियरों और ठेकेदारों की मिलीभगत को जिम्मेदार बताया है।

बुधवार सुबह 10 बजे 40 साल से बेसब्री से इंतजार हो रही नहर का विधिवत उद्धाटन होना था। मंगलवार शाम को ट्रायल के तौर पर पंप को जैसे ही चालू कर पानी नहर में छोड़ा गया, वैसे ही कहलगांव एनटीपीसी के पास बने बांध की दीवार करीब छह फीट टूट गई और पानी का बहाव इतना तेज था कि देखते ही देखते सीआईएसएफ कालोनी की 150 मीटर दीवार बह गई।

पानी लोगों के क्वार्टर में घुस कर गया। और आसपास का इलाका जलमग्न हो गया।

मंगलवार को नहर में हुई टूट से एनटीपीसी टाउनशिप के साथ-साथ कहलगांव के सिविल जज और सब-जज के आवास में पानी प्रवेश कर गया था।

अकबरपुर और रानी लघरिया गांवों में पानी प्रवेश कर गया। वहीं कहलगांव के सत्कार चौक और मुरकटिया चौक की तरफ आने जाने वाला रास्ता भी पानी में डूब गया।

रात में ही डीएम आदेश तितमारे और एसएसपी मनोज कुमार मौके पर पहुंचे। एस डी आर एफ की टीम बचाव काम में लगाई गई। नहर के पंप को बंद कराया।

जानकारी के मुताबिक, इलाके से पानी लगभग निकल चुका है, लेकिन कुछ रास्तों पर गाद (मिट्टी) जमा हो गई है।

जल संसाधन के प्रधान सचिव अरुण कुमार सिंह ने बुधवार को दोपहर में फोन पर बताया कि इस बाबत न तो जांच कमिटी बनाने की जरूरत है और न ही किसी के खिलाफ कार्रवाई की गई है। पटना जाने के बाद कार्रवाई के बिंदु पर सलाह की जाएगी। नहर के पास गलत कलवर्ट बनाने की वजह से यह हालात पैदा हुए। जिसकी मरम्मत का निर्देश दिया गया है।

दो महीने के अंदर परियोजना की तमाम खामियों और रिसाव को दुरुस्त करा लेने का भरोसा प्रधान सचिव ने दिया है। पुल के पास बना कलवर्ट एनटीपीसी ने 1994-95 में बनवाया था जो बगैर एनओसी के चालू कर दिया गया।

जबकि कहलगांव एनटीपीसी के कार्यपालक निदेशक राकेश सैमुअल ने एनओसी लेकर ही ओवर ब्रिज चालू करने की बात पत्रकारों से कहीं।

हैरत की बात यह है कि राज्य सरकार के इंजीनियर और अधिकारियों ने ऐसे कमजोर कलवर्ट को नजरदांज कैसे कर दिया? साथ ही उद्घाटन की पूर्व संध्या पर ही ट्रायल क्यों किया गया? इन सवालों के जवाब आने बाकी हैं।

इससे पहले भी 7, 11 और 19 जुलाई को इस परियोजना के उद्घाटन की तारीख टल चुकी है।

अब तो बांध की दीवार ही टूट गई।

हालात देखने पर लगता है अभी नहर के बांध को दुरुस्त कर चालू करने में थोड़ा और वक्त लगेगा।

सरदार सरोवर बांध: पंडित जवाहर लाल नेहरू का नाम लेना भूल गए मोदी

सरदार सरोवर नर्मदा बांध परियोजना की परिकल्पना भारत के प्रथम गृह मंत्री सरदार पटेल ने की थी। बाद में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सरदार सरोवर नर्मदा बांध परियोजना की नींव रखी थी।

लेकिन मोदी ने अपने सम्बोधन में सरदार पटेल का नाम तो लिया, लेकिन सरदार सरोवर नर्मदा बांध परियोजना की नींव रखने वाले भारत के पहले पीएम पंडित जवाहर लाल नेहरू का नाम लेना भूल गए।

सवाल उठता है कि क्या ऐसा मोदी से अनजाने में हुआ? सच्चाई यह है कि मोदी पिछले कई सालों से कहते आ रहे हैं कि कांग्रेस की सरकार ने 60 सालों में कोई काम नहीं किया ! प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब सरदार सरोवर नर्मदा बांध परियोजना का लोकार्पण करते समय पंडित जवाहर लाल नेहरू का नाम किस मुँह से लेते।

वास्तव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने 3 साल के शासन में कोई काम नहीं किया है।

अभी तक कश्मीर में जवाहर टनल (कांग्रेस के मनमोहन सिंह सरकार का प्रोजेक्ट), ब्रह्मपुत्र नदी पर दुनिया का सबसे लम्बा नदी पुल (कांग्रेस के मनमोहन सिंह सरकार का प्रोजेक्ट), सरदार सरोवर नर्मदा बांध परियोजना (कांग्रेस के पंडित जवाहर लाल नेहरू सरकार का प्रोजेक्ट) सहित कई परियोजनाओं का मोदी ने लोकार्पण किया। वे सभी कांग्रेस सरकार की देन है।

अगर आरएसएस और बीजेपी की भाषा में कहा जाए तो मोदी ने केवल तस्वीर खिंचवाने का काम किया है।

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नर्मदा नदी पर बनने वाली महत्वाकांक्षी परियोजना सरदार सरोवर नर्मदा बांध का आज लोकार्पण करते हुए पिछले सात दशकों में इस परियोजना में आई तमाम बाधाओं का उल्लेख किया और उम्मीद जताई कि यह परियोजना नए भारत के निर्माण में सौ करोड़ भारत वासियों के लिए प्रेरणा का काम करेगी।

मोदी ने इस बांध परियोजना के लोकार्पण के बाद यहां एक रैली को संबोधित करते हुए कहा कि विश्व बैंक सहित कई पक्षों ने सरदार सरोवर नर्मदा बांध परियोजना के मार्ग में बाधाएं उत्पन्न की।

उन्होंने कहा कि उनके पास हर उस आदमी का कच्चा चिट्ठा है, जिसके कारण इस बांध परियोजना में विलंब हुआ।

उन्होंने कहा कि एक समय ऐसा भी आया, जब विश्व बैंक ने इस परियोजना के लिए ऋण देने से इंकार कर दिया।

उन्होंने कहा कि इस परियोजना के लिए वह दो लोगों के आभारी हैं- सरदार वल्लभ भाई पटेल और बाबा साहेब अंबेडकर।

लेकिन सरदार सरोवर नर्मदा बांध परियोजना की नींव रखने वाले भारत के पहले पीएम पंडित जवाहर लाल नेहरू का नाम लेना भूल गए।

उन्होंने कहा, ''भारत के लौह पुरुष की आत्मा आज जहां कहीं भी होगी,  वह हम पर ढेर सारे आशीर्वाद बरसा रही होगी।''

उन्होंने कहा कि सरदार पटेल ने एक दिव्य दृष्टि की तरह इस गुजरात क्षेत्र में सिंचाई और जल संकट को देखते हुए नर्मदा पर बांध की परिकल्पना की थी।

मोदी ने कहा कि बाबा साहेब अंबेडकर ने मंत्री परिषद में रहते हुए देश के विकास के लिए तमाम योजनाओं की परिकल्पना की थी।

उन्होंने कहा कि अगर ये दोनों महापुरुष अधिक समय तक जीवित रहते तो देश को उनकी प्रतिभा का और भी लाभ मिलता।

नर्मदा बांध का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि यह बांध आधुनिक इंजीनियरिंग विशेषज्ञों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण एक विषय होगा, साथ ही यह देश की ताकत का प्रतीक भी बनेगा।

उन्होंने कहा कि पर्यावरणविदों तथा कुछ अन्य लोगों ने इसका विरोध किया था। साथ ही विश्व बैंक ने इस परियोजना के लिए धन देने से मना कर दिया था।

उन्होंने कहा कि इस बांध परियोजना से मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र के करोड़ों किसानों का भाग्य बदलेगा।

नर्मदा बांध परियोजना में हुए विलंब का उल्लेख करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि वह इसे राजनीति से नहीं जोड़ रहे हैं अन्यथा उनके पास उन सभी लोगों का कच्चा चिट्ठा है जिन्होंने इस परियोजना में बाधाएं उत्पन्न की, आरोप लगाए और षडयंत्र किया।

प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि जब-जब नर्मदा नदी का सम्मान करने वाली सरकारे आईं, तब-तब इस परियोजना के कार्य में काफी गति आई और बाकी समय इस परियोजना का काम तेजी से नहीं बढ़ा।

उल्लेखनीय है कि नरेंद्र मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री रहने के दौरान नर्मदा बांध के लिए अनशन भी किया था।

इससे पहले प्रधानमंत्री मोदी ने सरदार सरोवर नर्मदा बांध परियोजना का लोकार्पण किया। इस बांध की उंचाई को 138..68 मीटर तक बढ़ाया गया है।

सरदार सरोवर नर्मदा बांध परियोजना की परिकल्पना भारत के प्रथम गृह मंत्री सरदार पटेल ने 1946 में की थी। बाद में प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस परियोजना की नींव रखी थी।

इसके बाद से इस परियोजना का काम पिछले सात दशकों से रूक-रूक कर चलता रहा। इस बांध परियोजना से पानी और यहां उत्पादित होने वाली बिजली से चार राज्यों- गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान को लाभ मिलेगा।

मोदी राज में 4 साल के उच्चतम स्तर पर चालू बचत घाटा

भारत में पीएम नरेंद्र मोदी के शासनकाल में व्यापार घाटा बढ़ने से देश का चालू खाते का घाटा बढ़कर चार साल के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया है।

वित्त वर्ष 2017-18 की पहली तिमाही में यह तेजी से बढ़कर 14.3 अरब डॉलर हो गया।

यह सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 2.4 फीसदी है।

वित्त वर्ष 2016-17 की इसी तिमाही में चालू खाते का घाटा (कैड) 0.4 अरब डॉलर या जीडीपी का 0.1 प्रतिशत था। मार्च 2017 को समाप्त तिमाही में यह 3.4 अरब डॉलर (0.6 प्रतिशत) था।

रिजर्व बैंक के अनुसार, ''सालाना आधार पर चालू खाते का घाटा में वृद्धि का मुख्य कारण व्यापार घाटा बढ़ना है। वस्तुओं के निर्यात के मुकाबले आयात बढ़ने के कारण यह 41.2 अरब डॉलर रहा।''

सामान्य रूप से चालू खाते का घाटा विदेशी मुद्रा के प्रवाह और निकासी के अंतर को बताता है।

भारत का निर्यात अगस्त महीने में 10.29 प्रतिशत बढ़कर 23.81 अरब डॉलर रहा। पिछले चार महीने में यह सर्वाधिक वृद्धि है।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार, मुख्य रूप से पेट्रोलियम उत्पादों, इंजीनियरिंग और रसायन निर्यात में वृद्धि से कुल निर्यात बढ़ा है।

वाणिज्य मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार, अगस्त में आयात भी 21.02 प्रतिशत बढ़कर 35.46 अरब डॉलर हो गया जो एक साल पहले इसी महीने में 29.3 अरब डॉलर था। आलोच्य महीने में व्यापार घाटा बढ़कर 11.64 अरब डॉलर हो गया।

मुख्य रूप से सोने का आयात बढ़ने से व्यापार घाटा बढ़ा है।

सोने का आयात अगस्त महीने में 69 प्रतिशत बढ़कर 1.88 अरब डॉलर रहा।

अगस्त माह में तेल का आयात भी 14.22 प्रतिशत बढ़कर 7.75 अरब डॉलर हो गया। अप्रैल-अगस्त के दौरान कुल निर्यात 8.57 प्रतिशत बढ़कर 118.57 अरब डॉलर रहा,  जबकि आयात 26.63 प्रतिशत बढ़कर 181.71 अरब डॉलर पर पहुंच गया। इससे व्यापार घाटा बढ़कर 63.14 अरब डॉलर पर पहुंच गया।

गुजरात में बुलेट ट्रेन उद्घाटन: नरेंद्र मोदी के पूरे चुनाव अभियान का हिस्सा है

जापान के प्रधानमंत्री शिंज़ो आबे ने भारत में पहले बुलेट ट्रेन नेटवर्क के निर्माण कार्य का शिलान्यास किया है।

ये ट्रेन अहमदाबाद से मुंबई के बीच दौड़ेगी। इसकी ज़्यादातर फ़ंडिंग जापान के मिलने वाले $17 अरब (क़रीब 1088 अरब रुपये) के कर्ज़ से होगी।

उम्मीद जताई जा रही है कि इससे 500 किलोमीटर की यात्रा करने में अभी लगने वाला 8 घंटे का समय घटकर तीन घंटे का रह जाएगा।

गुजरात में बुलेट ट्रेन के नाम पर जिस तरह से सीक्वेंस में इवेंट का आयोजन चल रहा है, ये पूरे चुनाव अभियान का हिस्सा है।

गुजरात को मेट्रो देने की बात चली थी, तब जब मोदी मुख्यमंत्री बने थे। 2001 में मोदी मुख्यमंत्री बने थे और यहां से 2014 में प्रधानमंत्री बन कर चले गए। गुजरात में मेट्रो ट्रेन आज तक शुरू नहीं हो पाई है।

उसका काम अब जाकर शुरू हुआ है। कोशिश बहुत चल रही है कि लोकसभा चुनाव 2019 से पहले उसका छोटा-सा हिस्सा भी शुरू हो जाए।

मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद कई महीनों तक गुजरात आए भी नहीं, वाइब्रेंट गुजरात में आए थे, लेकिन उसके बाद लंबे समय तक नहीं आए, लेकिन जैसे-जैसे चुनाव का समय नज़दीक आ रहा है उनकी गुजरात की यात्राएं बढ़ती जा रही हैं।

इसकी वजहें भी हैं क्योंकि जैसे विशाल पेड़ के नीचे दूसरा पेड़ नहीं उग पाता है, उसी तरह से मोदी के जाने के बाद जो भी आए, चाहे वो आनंदीबेन पटेल हों या विजय रुपाणी हों- वे लोगों का भरोसा नहीं जीत पाए।

मोदी लोगों को रिझाने की कोशिश बहुत कर रहे हैं, लेकिन ज़मीनी स्थिति और जो दिखाने की कोशिश हो रही है, उसमें काफ़ी फर्क है।

अभी पिछले दिनों अहमदाबाद में बारिश हुई तो सारी सड़कें ध्वस्त हो गईं। ख़बरें लगातार आती रही हैं कि लोग सड़कों पर घायल हो कर अस्पताल पहुंच रहे थे।

इसके बाद ख़बर आई कि शिंजो आबे आ रहे हैं तो उन सड़कों को चमकाया जाने लगा, जिन पर उन्हें जाना था।

आम लोगों को ये लगने लगा है कि हम लोगों के लिए कुछ नहीं करते, लेकिन बाहरी मेहमान के लिए गुजरात का पूरा प्रशासन जुट गया।

मोदी इस आयोजन के बहाने चुनावी राजनीति ही कर रहे हैं। शिद्दी सैयद मस्जिद में फ़ंक्शन हुआ, लेकिन इस मस्जिद से जुड़े लोगों को इसमें शामिल नहीं किया गया। उस मस्जिद के ऐतिहासिक संदर्भ बताने का काम उन्होंने ख़ुद किया। मस्जिद के लोगों को इजाज़त नहीं मिली।

अगर पीछे देखें तो मोदी ने जब सद्भावना का व्रत रखा था, तब उन्होंने मुसलमानी टोपी पहनने से इनकार कर दिया था। तो एक तरफ़ तो दुनिया भर में अपनी छवि मज़बूत करने के लिए दो क़दम आगे चलते हैं, लेकिन भारत के मतदाताओं के लिए वो एक क़दम पीछे चलते हैं।

गुजरात पर दो लाख करोड़ रुपये का कर्ज़ है, उस राज्य पर ऐसी चीज़ लाद रहे हैं जिससे क्या फर्क़ पड़ेगा, कितना फर्क़ पड़ेगा।

नर्मदा बांध के पास सरदार पटेल की मूर्ति लगाई जा रही है, इस मूर्ति को बनाने का चुनावी फ़ायदा लेने के लिए राज्य में यात्रा निकल रही है, लेकिन इस यात्रा में सरदार पटेल की तस्वीर है ही नहीं, केवल नरेंद्र मोदी हैं और राज्य के मुख्यमंत्री हैं।

ये चुनावी अभियान है, इसलिए इसका उद्घाटन गुजरात से हो रहा है, महाराष्ट्र से क्यों नहीं हो रहा है?

इन सबकी वजह से गुजरात के सोशल मीडिया पर लोग अपना ग़ुस्सा ज़ाहिर कर रहे हैं और 'विकास पागल हो गया है' टॉप ट्रेंड बन गया है।

लोग कह रहे हैं कि कांग्रेस इसके पीछे है, लेकिन ये हक़ीकत नहीं है। कांग्रेस तो लोगों के ग़ुस्से पर सवारी करने की कोशिश कर रही है।

मौजूदा समय में अगर भारतीय जनता पार्टी की ताक़त या मज़बूती की बात करें तो नरेंद्र मोदी के समय में गुजरात में बीजेपी कभी उतनी कमज़ोर नहीं रही जितना कि इस समय है।

गुजरात में भारतीय जनता पार्टी की ताक़त की सबसे बड़ी वजह पाटीदारों का सहयोग था।

बीजेपी के सत्ता में आने की सबसे बड़ी वजहों में एक पाटीदारों का साथ था, लेकिन मौजूदा समय में ये समुदाय विद्रोह पर उतारू है।

उनके विरोध को बांटने की कोशिश हो रही है, लेकिन ये समुदाय विद्रोह पर उतारू है। ओबीसी भी बीजेपी से नाराज़ चल रही है।

आम आदमी पार्टी ने गुजरात में शिंज़ो आबे के आने पर कोई प्रदर्शन नहीं किया है, ना ही करने वाली है, लेकिन राज्य प्रशासन, उनके एक छोटे से नेता को घर से निकलने नहीं दे रहा है।

ऐसी ज़रूरत क्यों पड़ रही है? ये समझने की ज़रूरत है। ये सब स्थितियां बताती हैं कि जो बताने की कोशिश हो रही है स्थिति वैसी है नहीं।

इन सबके बीच बीजेपी 182 में से 150 सीटें जीतने का दावा कर रही है। इस मर्म को भी समझने की ज़रूरत है। 1985 में कांग्रेस ने माधव सिंह सोलंकी के नेतृत्व में इतनी सीटें जीती थीं।

नरेंद्र मोदी ने गुजरात में तमाम झंडे गाड़े, लेकिन माधव सिंह सोलंकी का रिकॉर्ड नहीं तोड़ पाए। लिहाज़ा बीजेपी जो भी दावा करे, जो भी बताने की कोशिश करे, लेकिन हक़ीकत यही है कि पार्टी के अंदर चिंता है।