भारत के तमाम बड़े अख़बारों ने आज एक ख़बर प्रमुखता से छापी है। यह ख़बर भारत-चीन सीमा पर तनाव से जुड़ी है।
इन ख़बरों में लद्दाख सीमा पर गलवान घाटी में 22 जून 2020 की सैटेलाइट तस्वीरों का ज़िक्र है। इन तस्वीरों के आधार पर अख़बारों ने छापा है कि 15-16 जून की रात गलवान घाटी में दोनों सेनाओं के बीच हिंसक झड़प हुई थी, वहाँ दोबारा चीनी सेना दिख रही हैं।
अंग्रेज़ी अख़बार टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने अख़बार की लीड लगाई है - सैटेलाइट इमेज बताते हैं, पीएलए ने संघर्ष की साइट पर कैंप लगा लिए हैं। हालाँकि अख़बार ने खब़र के साथ कोई सैटेलाइट इमेज नहीं लगाई है।
हिंदुस्तान टाइम्स अख़बार कह रहा है - सैटेलाइट इमेज संकेत दे रहे हैं, कोई पीछे नहीं हटा है।
इंडियन एक्सप्रेस ने लीड लगाई है - सैटेलाइट तस्वीर में गलवान में चीनी सेना दिख रही है। इसी तरह की हेडलाइन कमोबेश हिंदी के अख़बारों और टीवी चैनलों में भी चल रही हैं।
समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने भी इन सैटेलाइट तस्वीरों को ट्वीट किया है।
ये सैटेलाइट तस्वीरें मैक्सार टेक्नोलॉजी ने खींची है।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संबोधन की चीनी मीडिया में हुई तारीफ़ पर उन्हें घेरा है।
राहुल गांधी ने ट्वीट किया है, ''चीन ने हमारे जवानों को मारा। चीन ने हमारी ज़मीन ले ली। तो इस संघर्ष के दौरान चीन, मोदी की तारीफ़ क्यों कर रहा है?''
इस ट्वीट के साथ उन्होंने एक अंग्रेज़ी अख़बार की न्यूज़ कटिंग शेयर की है जिसमें चीन के अख़बार ग्लोबल टाइम्स के हवाले से मोदी की तारीफ़ की बात कही गई है।
इससे पहले भी राहुल गांधी ने ट्वीट कर कहा था कि भारत और चीन के बीच लाइन ऑफ़ एक्चुअल कंट्रोल में पैंगोंग झील के पास भारत की सीमा के भीतर चीनी सैनिक हैं और सैटलाइट फ़ोटो साफ़ तौर पर ये दिखाती हैं।
इस वीडियो में कहा जा रहा है कि सैटलाइट तस्वीरों में दिख रहा है कि गलवान घाटी में सीमा के दूसरी तरफ़ चीनी सैनिकों ने भारी निर्माण कार्य किया है। लेकिन पैंगोंग में आठ किलोमीटर लंबे उस क्षेत्र पर चीनी सैनिकों ने क़ब्ज़ा कर रखा है जिसे भारत अपना मानता है।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने ट्वीट पर भारत के केंद्रीय विदेश मंत्री राजनाथ सिंह के ट्वीट को रीट्वीट करते हुए पाँच सवाल पूछे हैं।
राहुल गाँधी ने पूछा है -
1. आपने अपने ट्वीट में चीन का नाम नहीं लिख कर भारतीय सेना का अपमान क्यों किया?
2. श्रदांजलि देने में दो दिन क्यों लगे?
3. जब सैनिक मर रहे थे तब आप रैली को क्यों संबोधित कर रहे थे?
4. आप छुप क्यों रहे हैं और अपने 'क्रोनी' मीडिया से सेना को क्यों बदनाम करवा रहे हैं?
5. बिकी हुई मीडिया से भारत सरकार के बजाए सेना को क्यों बदनाम करवा रहे हैं?
विदेश मंत्रियों की बातचीत में शांति स्थापित करने पर ज़ोर
भारत-चीन के सैनिकों के बीच हिंसक झड़प के बाद मौजूदा तनाव की स्थिति के बीच भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने चीन के विदेश मंत्री वांग यी से बुधवार को फ़ोन पर बातचीत की है।
भारत सरकार की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि भारत ने सोमवार की रात हुई हिंसा की घटना को लेकर विरोध जताते हुए कहा कि यह घटना चीन के उकसावे और पहले से सोची समझी रणनीति के तहत हुई है, जिसके चलते हिंसा हुई और भारतीय सैनिकों की मौत हुई है।
वहीं चीन के विदेश मंत्री ने इस पूरे मामले पर चीन का पक्ष रखा है। दोनों नेताओं ने बातचीत में ज़ोर देते हुए कहा कि भारत और चीन को नरेंद्र मोदी- शी जिनपिंग में बनी सहमति का पालन करना चाहिए। बयान में कहा गया है कि दोनों पक्षों ने गलवान घाटी में हुए हिंसक झड़प के बाद उत्पन्न हालात से ठीक से निपटने पर सहमति जताई है।
दोनों देश इस बात पर तैयार हैं कि सैन्य स्तर की बातचीत में बनी सहमति के मुताबिक ही अब क़दम उठाए जाएंगे। दोनों पक्षों ने सीमा पर शांति बनाए रखने पर सहमति जताई और किसी भी तरफ़ से आक्रामक क़दम उठाए जाने से इनकार किया है।
सोनिया गांधी ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को साथ देने का भरोसा दिया। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भारत-चीन सीमा पर मारे गए सैनिकों के बलिदान को नमन करते हुए कहा कि कांग्रेस पार्टी सरकार को पूर्ण सहयोग देगी। लेकिन उन्होंने भारत सरकार से कुछ सवाल भी पूछे हैं। उन्होंने सवाल किया है -
1. चीन ने हमारे सरजमीं पर कब्ज़ा कैसे किया?
2. 20 सैनिकों की शहादत क्यों हुई?
3. मौके पर आज की स्थिति क्या है?
4. क्या हमारे सैन्य अधिकारी-सैनिक लापता हैं?
5. हमारे कितने सैन्य अधिकारी- सैनिक गंभीर रूप से घायल हैं?
6. चीन ने हमारे कितने हिस्से और कहां-कहां कब्ज़ा कर रखा है?
7. इस पूरी स्थिति से निपटने के लिए भारत सरकार की सोच क्या है?
सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से आग्रह किया है कि वे तथ्यों के साथ देश के सामने आकर मौजूदा स्थिति में भरोसा दिलाएं।
भारत-चीन के विदेश मंत्रियों ने फ़ोन पर बात की। भारत-चीन सीमा पर मौजूदा विवाद के बाद भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने चीन के विदेश मंत्री वांग यी के साथ टेलिफ़ोन पर बातचीत की है।
ममता ने सरकारी नौकरी देने की घोषणा की
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भारत-चीन सीमा पर मारे गए दो जवानों में प्रत्येक परिवार को पांच-पांच लाख रूपये मुआवजे और परिवार के एक-एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने की घोषणा की।
न्यूज़ एजेंसी एएनआई के मुताबिक, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने 15 -16 जून को गलवान घाटी में जान गंवाने वाले राज्य के रहने वाले दो जवानों में प्रत्येक के परिवार को 5 लाख रुपये के मुआवजे और परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने की घोषणा की।
लद्दाख के गलवान घाटी में भारत-चीन सैनिकों के बीच हिंसक झड़प में तीन भारतीय सैनिक शहीद हो गए हैं। इनमें सेना के एक अफसर भी शामिल हैं।
भारतीय सेना ने कहा है कि दोनों ओर के सैनिक हताहत हुए हैं। सेना ने कोई संख्या तो नहीं बताई है लेकिन सैन्य सूत्रों ने दावा किया है कि चीन के तीन सैनिक मारे गए हैं। यह घटना सोमवार रात को हुई है। दोनों ओर से पत्थरों का इस्तेमाल हुआ है। 1975 के बाद यह पहली बार है जब भारत-चीन सीमा पर किसी सैनिक की शहादत हुई हो।
पिछले करीब डेढ़ महीने से भारत और चीन के सैनिकों के बीच लद्दाख में तनातनी चल रही है। भारत की ओर से सड़क निर्माण किए जाने पर आपत्ति जताते हुए बड़ी संख्या में चीनी सैनिक यहां आ गए थे। दोनों देशों में बातचीत चल रही थी। दोनों देशों के सैनिकों के पीछे हटने की खबरें आ रही थीं और माना जा रहा था कि जल्द ही यह तनाव खत्म हो जाएगा।
न्यूज एजेंसी एएनआई के मुताबिक, सोमवार रात लद्दाख के गलवान घाटी में भारत और चीन के सैनिकों के बीच हिंसक झड़प हुई। इसमें भारतीय सेना के एक अफसर और दो जवान शहीद हो गए। दोनों देशों के सेना के उच्च अधिकारी मौके पर बातचीत करके स्थिति को संभालने में जुटे हैं।
अधिकारियों ने बताया कि भारतीय सेना अध्यक्ष जनरल मनोज मुकुंद नरवणे ने मंगलवार को पठानकोट की प्रस्तावित यात्रा रद्द कर दी है। इस मामले से जुड़े लोगों ने बताया कि भारत के शहीद सैनिकों में एक कर्नल भी शामिल हैं।
भारतीय और चीनी सैनिकों में पैंगोंग त्सो इलाके में पांच मई को हिंसक झड़प हुई थी जिसके बाद से दोनों पक्ष वहां आमने-सामने थे और गतिरोध बरकरार था। यह 2017 के डोकलाम घटनाक्रम के बाद सबसे बड़ा सैन्य गतिरोध बन रहा था। दोनों देशों के बीच मौजूदा तनाव को लेकर अब तक की उच्च स्तरीय वार्ता छह जून को हुई थी।
कोरोना संक्रमण के मामले में भारत दुनिया में अब चौथे नंबर पर पहुँच गया है। अमरीका, ब्राज़ील और रूस ही केवल भारत से आगे हैं।
इसी बीच 16 और 17 जून को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक बार फिर राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक करने वाले हैं।
1 जून से पूरे भारत में अलग-अलग तरह से अनलॉक-1 लागू किया गया। अनलॉक-1 में धार्मिक स्थलों, रेस्तरां और मॉल्स को खोलने की इजाज़त दी गई।
उसके बाद की स्थिति का जायज़ा लेने के लिए प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के बीच की ये पहली बैठक है।
भारत में कोरोना के बढ़ते मामलों और हर रोज़ बढ़ते मौत के आँकड़ों के बीच इस बैठक को बेहद अहम माना जा रहा है।
खास तौर पर तब जब दिल्ली के लिए 12 एक्सपर्ट की टीम भारत की केंद्र सरकार ने बनाई है।
सबसे बड़ा सवाल कि क्या लॉकडाउन से जो कुछ हासिल हुआ, क्या अनलॉक-1 में उसे खो दिया?
31 मई को भारत में कोरोना के कुल 1 लाख 82 हज़ार मामले थे।
जबकि 15 जून को 3 लाख 32 हज़ार मामले हैं। यानी दोगुने से थोड़ा कम।
दिल्ली और मुंबई में अनलॉक-1 का सबसे बुरा ज़्यादा असर पड़ा है।
31 मई को दिल्ली में जहाँ 18549 मामले थे, वहीं 15 जून को ये आँकड़ा 41 हज़ार से ज्यादा है।
महाराष्ट्र में 31 मई को 65159 मामले थे, जो 15 जून को बढ़ कर 1 लाख 8 हज़ार के पास पहुँच गया है।
उपरोक्त तथ्यों से प्रमाणित होता है कि अनलॉक-1 के बाद भारत में कोरोना के बढ़ने की रफ़्तार में तेज़ी आई है।
भारत में कोरोना का पहला मामला 30 जनवरी को मिला था। 24 मार्च को जब मोदी ने लॉकडाउन की घोषणा की थी तब भारत में केवल 550 पॉज़िटिव मामले ही थे।
इसलिए रोज़ जिस रफ़्तार से मामले बढ़ रहे हैं, उससे लोगों में चिंता बढ़ती जा रही है।
यही हाल मौत के आँकड़ों का भी है। भारत में 15 जून तक कोरोना से मरने वालों की संख्या 9520 है, जो 31 मई तक भारत में 5164 थी यानी तीन महीने में भारत में जितने लोगों की मौत नहीं हुई, तक़रीबन उतने ही लोगों की मौत जून के पहले 15 दिनों में हो गई।
दिल्ली की बात करें, तो 31 मई तक मरने वालों की संख्या 416 थी, जो अब 1327 हो गई है। यानी तक़रीबन तीन गुना।
महाराष्ट्र में 31 मई तक 2197 मौत हुई थी। जो 15 जून तक 3950 है। यानी तक़रीबन दोगुना हो गया है मौत का आँकड़ा।
लेकिन भारत के लिए एक अच्छी बात ये है कि दुनिया में मौत के आँकड़ों में भारत टॉप पाँच देशों में नहीं हैं। वो पाँच देश जहां कोरोना के कारण मौतों की संख्या सबसे अधिक है वो हैं अमरीका, ब्राज़ील, ब्रिटेन, इटली और फ्रांस।
31 मई को भारत में तक़रीबन 1 लाख 25 हज़ार लोगों के टेस्ट हुए थे। जबकि 14 जून को भारत में कुल 1 लाख 15 हज़ार लोगों के कोरोना टेस्ट हुए।
वैसे हर दिन के हिसाब से ये आँकड़े ज़रूर बदलते रहते हैं। लेकिन ऐसा नहीं कि पिछले 15 दिनों में कोरोना टेस्ट की संख्या में बहुत ज़्यादा इज़ाफ़ा हुआ हो। आज भी भारत में एक दिन में सवा लाख से डेढ़ लाख लोगों के ही टेस्ट हो रहे हैं।
दिल्ली में पिछले कुछ दिनों में ये संख्या थोड़ी कम ही हुई है। दिल्ली सरकार ने जून के शुरुआती हफ्ते में कुछ टेस्टिंग लैब्स पर कार्रवाई की थी। जिसकी वजह से टेस्ट कम होने लगे थे।
दिल्ली में पिछले तीन दिनों से रोज़ कोरोना के 2000 से ज़्यादा मामले सामने आ रहे हैं। महाराष्ट्र का हाल भी इससे ज़्यादा अलग नहीं है।
31 मई तक भारत में 37 लाख 37 हज़ार टेस्ट हुए थे। वहीं 14 जून तक भारत में 57 लाख 74 हज़ार टेस्ट हो चुके हैं। यहाँ 15 दिन में लगभग 20 लाख टेस्ट हुए है।
मई के अंत तक भारत में रिकवरी रेट 47.76 फ़ीसदी बताई जा रही थी। कोरोना संक्रमित मरीज़ों के ठीक होने की दर 51 फ़ीसदी हो गई है। अनलॉक-1 में सरकार इसे एक पॉज़िटिव साइन के तौर पर देख रही है।
लेकिन दिल्ली और मुंबई में ये राष्ट्रीय औसत से कम हैं। दिल्ली में इस वक़्त रिकवरी रेट 38 फ़ीसदी के आसपास है, और मुंबई की रिकवरी रेट 45 फ़ीसदी से ज्यादा है।
लेकिन विश्व स्तर पर भारत रिकवरी रेट में सबसे आगे नहीं है। जर्मनी का रिकवरी रेट तक़रीबन 90 फ़ीसदी से ऊपर है, जो दुनिया में सबसे बेहतर है।
ईरान और इटली का उसके बाद नंबर आता है। इन दोनों देशों में रिकवरी रेट 70 से ऊपर है। भारत में इस वक़्त रिकवरी रेट रूस के बराबर है जहाँ रिकवरी रेट 50 फ़ीसदी के आसपास है।
भारत के जाने माने डॉक्टर मोहसिन वली मानते हैं कि इन आँकड़ों के आधार पर ये कहा जा रहा है कि देश ने लॉकडाउन करके जो कुछ हासिल किया उन सब को बर्बाद कर दिया है।
उनके मुताबिक़ आँकड़े बता रहे हैं कि लोगों ने अनलॉक की छूट का ख़ूब फ़ायदा उठाया और सोशल डिस्टेंसिंग, मास्क पहनना और हाथ धोना भूल गए।
प्रवासी मज़दूरों की आवाजाही ने कोरोना वायरस संक्रमण को बढ़ाया। ये पूछे जाने पर कि प्रवासी मज़दूर तो मई में ज़्यादा एक जगह से दूसरे जगह गए, डॉक्टर वली का कहना है कि उसका असर देश के कोरोना ग्राफ़ पर जून में ही दिखाई दे रहा है।
लेकिन डॉक्टर वली अब भी नहीं मानते कि अनलॉक-1 को हटा कर दोबारा लॉकडाउन लगाना चाहिए। उनके मुताबिक़ कोरोना के साथ जीना है, तो ऐसे में ही घर बैठना उपाय नहीं है। हमें सब काम जारी रखना है लेकिन एहतियात बरतते हुए।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी कहा है कि दिल्ली में फिर लॉकडाउन की कोई योजना नहीं है।
यही बात दिल्ली के व्यापारी संघ के लोग भी कह रहे हैं। दिल्ली के व्यापारियों ने निर्णय लिया कि दिल्ली के बाज़ार फ़िलहाल खुले रहेंगे।
बाज़ारों को बंद रखने, खुला रखने या बाज़ारों में ऑड-ईवन व्यवस्था अथवा एक दिन छोड़कर एक दिन दुकान खोलने का निर्णय दिल्ली के व्यापारी संगठन स्थिति का आकलन करते हुए स्वयं निर्णय लेंगें।
पिछले दिनों भारत के तमाम धार्मिक स्थलों को खोलने की इजाज़त के बाद भी दिल्ली स्थित जामा मस्जिद 30 जून तक के लिए बंद कर दिया गया है।
अब नज़रें 16-17 जून को भारतीय प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों की बैठक पर टिकी है। भारत के बढ़ते कोरोना ग्राफ़ को देखते हुए भारत के प्रधानमंत्री क्या निर्णय लेते हैं?
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सत्ता के विरूद्ध उठने वाली सभी छोटी-बड़ी आवाज़ों को साथ लेकर सम्पूर्ण विपक्ष के निर्माण से ही सत्ता परिवर्तन संभव होगा।
सत्ता पक्ष की नीतियों से असहमति जताने वाले छोटे-बड़े सभी समूहों, संस्थाओं, राजनीतिक दलों और गैर राजनीतिक संगठनों को सामूहिक रूप से विपक्ष कहते हैं।
जब सरकार की नीतियां जन सरोकार पर केन्द्रित ना होकर सिर्फ जुमले बाजी, बयानबाज़ी और ड्रामेबाजी के इर्द-गिर्द चक्कर लगाती दिखाई पड़ती हैं तो सरकार के विरुद्ध उठने वाली सभी आवाजों को मिलकर विपक्ष का नाम दिया जाता है।
मतलब सत्ता के विरूद्ध उठने वाली सभी छोटी-बडी आवाज़ों को निसंदेह विपक्ष कहा जाएगा।
बिहार की सत्ता पर विराजमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं जिनकी सरकार के सहयोगी भाजपा और लोजपा हैं। अर्थात जदयू, भाजपा और लोजपा की संयुक्त सरकार सत्तापक्ष और बाकी सभी विपक्षी हैं।
बिहार सरकार की नीतियों से असहमति जताने वाले राजनीतिक दलों में मुख्य रूप से शामिल हैं: राजद, कांग्रेस, रालोसपा, हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा, विकासशील इंसान पार्टी, भारतीय सब लोग पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन, जन अधिकार पार्टी (लोकतांत्रिक), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), एम आई एम और बसपा।
साथ ही बड़ी संख्या में सामाजिक और गैर राजनीतिक संगठन भी सरकार की नीतियों से आहत होकर विरोध के स्वर बुलन्द कर रहे हैं।
इसके अतिरिक्त दर्जन भर ऐसे राजनीतिक दल भी विपक्षी ही कहलाएंगे जिनका वजूद बहुत नहीं है लेकिन उक्त पार्टी की अगुवाई पूर्व विधायक या पूर्व सांसद कर रहे हैं।
कई युवा पीढ़ी के लोगों ने राजनीतिक दलों में युवाओं की अनदेखी होता देखकर अपनी अलग राजनीतिक पार्टी बनाई है और वो सरकार के विरूद्ध युवाओं की अनदेखी के सवाल पर बिगुल फूंके हुए हैं। ऐसे लोग भी विपक्षी ही कहे जाएंगे।
लेकिन विपक्ष की इतनी बड़ी संख्या और सत्ता के विरूद्ध नाराजगी के बावजूद विपक्षी कमजोर दिखाई दे रहे हैं।
इसका कारण ये है कि विपक्ष एक उद्देश्य के लिए सरकार के विरुद्ध उठने वाली सभी छोटी-बड़ी आवाज़ों को मिलाकर सम्पूर्ण विपक्ष बनना नहीं चाहता।
मुख्य विपक्षी दल राजद और कांग्रेस एक-दूसरे को साथ लेकर चलना तो चाहते हैं लेकिन रालोसपा और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के द्वारा लीडरशिप के सवाल पर उनसे किनारे रहने या किनारे कर देने में ही अपनी बेहतरी समझते हैं। रालोसपा और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के बयानों से विपक्षी एकता के बनते-बिगड़ते रिश्ते को गलत दिशा मिल जाती है।
जन अधिकार पार्टी (लोकतांत्रिक) एक उभरता हुआ दल है जो लगातार सत्ता के विरूद्ध मुखर होकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराए हुए है लेकिन समय-समय पर मुख्य विपक्षी दलों की कार्य शैली पर प्रश्न चिन्ह लगाकर विपक्षी खेमे से अपने-आपको दूर कर लेता है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) जैसे वाम दल जो बिहार के किसी खास क्षेत्र में ही थोड़ा असर रखते हैं वो भी अपने-आपको विपक्षी खेमे में उचित भागीदारी नहीं मिलने के संकेत से चिंतित हैं।
वहीं पूर्व सांसद और पूर्व मंत्री द्वारा नव गठित भारतीय सब लोग पार्टी वर्तमान सत्ता के मुखिया की कार्य शैली से आहत होकर जन सरोकार के मुद्दे पर सरकार को कटघरे में खड़ा करते दिखाया दे रहे हैं जबकि वे एकला चलो की राह के लिए नए विकल्प पर अड़े हैं लेकिन विपक्ष की एकजुटता में उनकी भी बड़ी उपयोगिता हो सकती है।
उधर जाति, बिरादरी और धर्म के आधार पर निर्मित राजनीतिक दलों की विपक्षी एकता और भागीदारी में अल्पसंख्यक समाज अपने को ठगा महसूस कर रहा है।
ये समूह भी अपने राजनीतिक दलों को भी विपक्षी खेमे में सम्मिलित कर अपनी उचित भागीदारी की मांग कर रहा है। बिहार में अल्पसंख्यक समाज के नाम से जुड़े दलों में एम आई एम, जनता दल राष्ट्रवादी, भारतीय इंसान पार्टी, पीस पार्टी, आई एन एल शामिल हैं जो लगातार वर्तमान सरकार की जन विरोधी नीतियों की कटु आलोचना करते दिखाई देते हैं।
इनमें एम आई एम की स्थिति बेहतर है लेकिन सत्ता (बीजेपी) का भय दिखाकर अल्पसंख्यक समाज का थोक में वोट पाती रहीं पार्टियां धर्म का सहारा लेकर इनको भागीदारी देने के पक्ष में बिल्कुल नहीं है जिससे तंग आकर इस बार अलग-थलग पड़ा अल्पसंख्यक वर्ग का बड़ा हिस्सा विपक्षी एकता की गुहार लगाने वाले दलों से नाराज़ बताया जा रहा है।
इसके साथ ही समाजवादी-अंबेडकरवादी विचारधारा के प्रचारक और समर्थक भी वैकल्पिक व्यवस्था परिवर्तन की मंशा से सत्ता विरोधी खेमे में ही हैं।
कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनकी अपनी बिरादरी और खासकर युवा पीढ़ी में अच्छी पैठ है और वे राजनीति का शिकार होकर या तो जेल में बंद हैं या फिर टकटकी लगाए विपक्षी एकता और वैकल्पिक व्यवस्था की राह देख रहे हैं। इतना ही नहीं, देश और प्रदेश के बड़े सियासी योद्धाओं के नाम पर बने राजनीतिक दल भी विपक्ष के हिस्से हैं जो जेपी, लोहिया, चन्द्रशेखर, चौधरी चरण सिंह, अम्बेडकर, कर्पूरी, जार्ज फर्नांडिस, लोक बंधु राज नारायण, राम कृष्ण हेगड़े और देवगौड़ा के नाम को अपने दल का संस्थापक बताते हैं।
बसपा की भी अपनी हैसियत है। लगभग सभी क्षेत्रों में बसपा का असर है और लगातार सत्ता के विरूद्ध अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रही है बसपा भी। साथ ही भीम आर्मी जैसे संगठन भी तेज़ी से बिहार में आगे बढकर सरकार की नीतियों से असहमति व्यक्त कर रहे हैं।
ऐसे में सत्ता की नीतियों, कार्यशैली, विफलताओं, जन सरोकार की अनदेखी, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे पर मुखर रूप से कम या ज्यादा विरोध करने वाले सभी लोगों, समूहों, पार्टियों और संगठनों को सामूहिक रूप से विपक्ष कहा जाएगा जो लगातार सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए संघर्ष कर रहे हैं चाहे उनका असर पड़े या न पड़े।
सत्ता के विरूद्ध उठने वाली इन सभी आवाज़ों को मिलकर सत्ता परिवर्तन करने और नए संकल्प के साथ नए विकल्प प्रस्तुत करने हेतु सम्पूर्ण विपक्ष का स्वरूप दिया जाना बेहद जरूरी है।
बिहार के कई लेखक, साहित्यकार, किसान नेता तथा सामाजिक चेतना के लिए ज़मीन पर काम करने वाले ज़िम्मेदार लोगों का प्रवासी मज़दूरों की स्थिति को देखने के बाद ये मानना है कि उक्त सभी विरोधी स्वरों से संवाद कर और सबकी मंशा से सहयोग, सहमति और समन्वय के आधार पर सम्पूर्ण विपक्ष का निर्माण करने की पहल किए बिना साधन-संसाधन से लैस सत्ता की जन विरोधी नीतियों से छुटकारा नहीं पाया जा सकता है।
अभी वर्तमान स्थिति ये है कि जातीय समीकरण के जोड़-तोड़ और गुणा-भाग के आधार पर दो या तीन दलों का गठजोड़ करके सम्पूर्ण विपक्ष की सोच को नुक़सान पहुंचाया जा रहा है और सत्ता के विरूद्ध फूंके गए सभी बिगुलों को खंडित कर तीसरे विकल्प जैसा संकट खड़ा किया जा रहा है जिससे सत्ता पक्ष को पुन:जीवन दान मिल जायेगा जिसके कारण सभी विपक्षी दलों की विफलता और नेक नियति पर प्रश्न चिन्ह लगना तय है। जिससे आगामी विधान सभा चुनाव में नुक़सान तय है।
ऐसी स्थिति में जेपी के रोल को निभाने हेतु किसी बुज़ुर्ग नेता की जरूरत है जो सत्ता की चाहत से मुक्त होकर सम्पूर्ण विपक्ष का निर्माण कर सके जिसमें सबको उचित अवसर और भागीदारी देकर वैकल्पिक व्यवस्था की रूप रेखा तय हो।
सर्व समाज की अपेक्षाओं और बिहार के चौमुखी विकास के मॉडल के साथ सम्पूर्ण विपक्ष शंखनाद करे तो सत्ता परिवर्तन निश्चित है वरना सम्पूर्ण विपक्ष को गोल बन्द नहीं करके जातीय समीकरण के आधार पर अपनी-अपनी डफ़ली अपना-अपना राग की राह सत्ता पक्ष को वाक ओवर देने जैसा होगा।
सम्पूर्ण विपक्ष के संदर्भ में ये बताना ज़रूरी है कि सभी दलों को चुनावी भागीदारी दिए बिना भी सबको उचित अवसर दिया जा सकता है। अर्थात जो दल, समूह या संगठन चुनाव लड़ने में सक्षम नहीं हैं। मतलब जिनके पास धन और कार्यकर्ताओं का अभाव है उन सभी को सरकारी निगमों में सहभागी बनाकर भी सबको उचित अवसर की बात को पूर्ण किया जा सकता है। शर्त है कि सबकी नियत सत्ता परिवर्तन कर जनहितकारी विकल्प सम्पूर्ण विपक्ष की एकता के साथ प्रस्तुत करने की हो।
संपादन: परवेज़ अनवर
न्यूज़ डायरेक्टर और एडिटर- इन-चीफ, आई बी टी एन मीडिया नेटवर्क ग्रुप, नई दिल्ली
लेखक: सादात अनवर
चन्द्रशेखर स्कूल आफ पॉलिटिक्स, नई दिल्ली
रेटिंग एजेंसी मूडीज़ ने भारत की रेटिंग गिरा दी है। रेटिंग का अर्थ क्रेडिट रेटिंग है जिसे आसान भाषा में साख भी कहा जा सकता है।
बाज़ार में किसी की साख ख़राब होने का जो मतलब है एकदम वही मतलब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में देश की रेटिंग गिर जाने का है। यानी क़र्ज़ मिलना मुश्किल होगा और जो क़र्ज़ पहले से ले रखे हैं उनकी वापसी का दबाव बढ़ेगा। मूडीज़ दुनिया की तीसरी बड़ी रेटिंग एजेंसी है जिसने भारत को डाउनग्रेड किया है। दो अन्य एजेंसियाँ फ़िच और स्टैंडर्ड एंड पूअर पहले ही ये रेटिंग गिरा चुकी थीं।
मूडीज़ के रेटिंग गिराने का अर्थ यह है कि भारत सरकार विदेशी बाज़ारों या घरेलू बाज़ारों में क़र्ज़ उठाने के लिए जो बॉंड जारी करती है अब उन्हें कम भरोसेमंद माना जाएगा। ये रेटिंग पिछले बाईस सालों में सबसे निचले स्तर पर पहुँच गई है। इससे पहले 1998 में रेटिंग गिराई गई थी, और वो इसी स्तर पर पहुँची थी। जब भारत के परमाणु परीक्षणों के बाद अमेरिका ने भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए थे।
ग़नीमत सिर्फ़ इतनी है कि मूडीज़ ने रेटिंग गिराकर Baa3 पर पहुंचाई है जिसे इन्वेस्टमेंट ग्रेड का सबसे निचला पायदान कहा जा सकता है। इसका अर्थ ये है कि भारत सरकार की तरफ से जारी होने वाले लंबी अवधि के बॉंड अभी निवेश के लायक माने जाएंगे, बस इनमें जोख़िम बढ़ा हुआ मानकर।
पिछले साल नवंबर में भी आशंका थी कि मूडीज़ रेटिंग गिरा सकता है, लेकिन तब उसने रेटिंग इससे एक पायदान ऊपर यानी Baa2 पर बरकरार रखी थी। हालाँकि उस वक़्त उसने भारत पर अपना नज़रिया बदल दिया था। यानी उसे समस्या की आशंका दिख रही थी। उसने भारत पर अपना आउटलुक बदलकर स्टेबल से निगेटिव कर दिया था।
तब विश्लेषकों ने कहा था कि ज़्यादा फ़िक्र की बात नहीं है क्योंकि अर्थव्यवस्था रफ़्तार पकड़ेगी और मूडीज़ का मूड भी बिगड़ने के बजाय सुधर जाएगा। लेकिन अब ये उम्मीद तो बहुत दूर की कौड़ी साबित हो रही है। और फ़िक्र की बात ये है कि रेटिंग गिराने के बाद भी मूडीज ने अपना आउटलुक निगेटिव ही रखा है। इसका सीधा मतलब यह है कि उसे यहाँ से हालात और ख़राब होने का डर है।
मूडीज़ ने रेटिंग गिराने के जो कारण बताए हैं उन पर भी नज़र डालना ज़रूरी है। उनके हिसाब से 2017 के बाद से देश में आर्थिक सुधार लागू करने का काम काफ़ी सुस्त पड़ा है। लंबे समय से आर्थिक तरक़्क़ी यानी जीडीपी ग्रोथ में बढ़त की रफ़्तार कमजोर दिख रही है। सरकारों के ख़ज़ाने की हालत काफ़ी ख़स्ता हो रही है, केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों का हाल ऐसा है। और भारत के वित्तीय क्षेत्र में लगातार स्ट्रेस या तनाव बढ़ रहा है। यहाँ तनाव का मतलब है क़र्ज़ दिया हुआ या लगाया हुआ पैसा वापस न आने या डूबने का ख़तरा।
और आउटलुक ख़राब होने का अर्थ है कि एजेंसी को भारत की अर्थव्यवस्था और वित्तीय ढाँचे में एक साथ जुड़े हुए कई खतरे दिख रहे हैं जिनके असर से भारत सरकार की माली हालत उससे भी कहीं और कमजोर हो सकती है जैसा अंदाज़ा एजेंसी अभी लगा रही है।
और सबसे ख़तरनाक या चिंताजनक बात यह है कि मूडीज़ के इस डाउनग्रेड की वजह कोरोना से पैदा हुआ आर्थिक संकट क़तई नहीं है। उसका कहना है कि इस महामारी ने सिर्फ़ उन ख़तरों को बड़ा करके दिखा दिया है जो भारतीय अर्थव्यवस्था में पहले से ही पनप रहे थे। इन्हीं ख़तरों को देखकर मूडीज़ ने पिछले साल अपना आउटलुक बदला था।
यहाँ यह याद रखना चाहिए कि उससे दो साल पहले नवंबर 2017 में मूडीज़ ने भारत की क्रेडिट रेटिंग बढ़ाई थी। उस वक़्त उसे उम्मीद थी कि भारत में कुछ ज़रूरी आर्थिक सुधार लागू किए जाएँगे जिनसे देश की माली हालत धीरे धीरे मज़बूत होगी। लेकिन अब उसे शिकायत है कि उस वक़्त के बाद से सुधारों की रफ़्तार भी धीमी रही है और जो हुए भी उनका ख़ास असर नहीं दिखता।
अब समझना ज़रूरी है कि रेटिंग गिरने का नुक़सान क्या है और इसका असर क्या हो सकता है? यह भी रेटिंग का फ़ैसला करते वक़्त जोड़ा जाता है।
भारत सरकार और राज्य सरकारें अनेक अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों से क़र्ज़ लेती हैं। मूडीज़ का ही कहना है कि कोरोना संकट आने से पहले ही सरकारों का क़र्ज़ देश की जीडीपी का बहत्तर परसेंट था और अब बदली परिस्थिति में यानी कोरोना संकट के बाद जब सरकारों को ख़र्च के लिए और पैसे की ज़रूरत पड़ रही है तो ऐसा अनुमान है कि यह बोझ बढ़कर जीडीपी के 84 परसेंट तक जा सकता है।
आप अपने बजट से हिसाब लगाइए। जब आप घर या कार के लिए बैंक से लोन लेने जाते हैं तो बैंक अफ़सर कहते हैं कि कुल मिलाकर आपके सारे क़र्ज़ों की ईएमआई आपकी कमाई के चालीस परसेंट से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए। अगर आप इससे ज़्यादा लोन लेना चाहते हैं तो फिर कोई प्राइवेट बैंक मिल जाता है या कोई एनबीएफसी मिल जाती है जो बाज़ार के रेट से ऊँचे रेट पर आपको लोन देते हैं। मुसीबत के मारों को पर्सनल लोन देने वाले कुछ प्राइवेट फाइनेंसर भी होते हैं जो तीन से चार गुना तक ब्याज वसूलते हैं और लेने वाले पहले से बड़ी मुसीबत में फँस जाते हैं।
इसी तरह रेटिंग गिरने के बाद जब कोई देश बॉंड जारी करता है या सीधे क़र्ज़ लेना चाहता है तो उसे ऊँचा ब्याज चुकाना पड़ता है क्योंकि उसको क़र्ज़ देना जोखिम का काम माना जाता है। देश की क्रेडिट रेटिंग गिरने के साथ ही देश की सभी कंपनियों की रेटिंग की अधिकतम सीमा भी वही हो जाती है। किसी भी रेटिंग एजेंसी के हिसाब में किसी भी निजी या सरकारी कंपनी की रेटिंग उस देश की सॉवरेन रेटिंग से ऊपर नहीं हो सकती। यानी अब प्राइवेट कंपनियों के लिए भी क़र्ज़ उठाना मुश्किल और महँगा हो जाता है। जिनके बॉंड या डिबेंचर पहले से बाज़ार में हैं उनके भाव गिर जाते हैं और उन पर रक़म वापस करने का दबाव बढ़ने लगता है।
अभी भारत की रेटिंग जहां पहुँची है वहाँ वो इन्वेस्टमेंट ग्रेड की आख़िरी पायदान पर है। यानी अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान अभी इसमें पैसा लगा सकते हैं। लेकिन अगर ये रेटिंग इससे नीचे खिसक गई तो दुनिया भर के बड़े वित्तीय संस्थानों में से बहुत सारे मजबूर हो जाएँगे कि वो भारत सरकार के या भारत की कंपनियों के जो भी बॉंड उनके पास हैं उनका पैसा तुरंत वापस माँगे या इन्हें औने-पौने भाव पर बाज़ार में बेच दें। ऐसा इसलिए क्योंकि इन फंड मैनेजरों के सामने ये निर्देश साफ़ है कि वो इन्वेस्टमेंट ग्रेड से नीचे के किसी भी इंस्ट्रुमेंट में पैसा नहीं लगाएँगे।
इसके बाद पैसा लगाने वाले कुछ फंड मिलते हैं लेकिन वो बिलकुल सूदखोर महाजनों की ही तरह होते हैं। ऐसी ही स्थिति में देश क़र्ज़ के जाल में फँसते हैं। इसीलिए ये रेटिंग गिरना बहुत फ़िक्र की बात है।
हालाँकि सिक्के का एक दूसरा पहलू भी है। इस वक़्त अगर रेटिंग की चिंता में सरकार ने खर्च रोकना शुरू कर दिया तो फिर इकोनॉमी को पटरी पर लाना बहुत मुश्किल होता जाएगा। यानी बिलकुल एक तरफ़ कुआँ और दूसरी तरफ खाई। लेकिन अनेक जानकार राय दे रहे हैं कि सरकार को कुछ समय तक रेटिंग की चिंता छोड़कर पूरा दम लगाकर इकोनॉमी में जान फूंकनी चाहिए और एक बार इकोनॉमी चल पड़ी तो रेटिंग सुधरने में भी बहुत वक़्त नहीं लगेगा।
मूडीज़ का भी अनुमान है कि इस वित्त वर्ष में क़रीब चार परसेंट की गिरावट के बाद भारत की अर्थव्यवस्था अगले साल तेज़ उछाल दिखाएगी। फिर भी उसे डर है कि आगे कई साल तकलीफ़ बनी रहेगी इसीलिए उसका नज़रिया कमजोर है। अब अगर सरकार कुछ ऐसा कर दे कि तस्वीर पलट जाए तो यह नज़रिया अपने आप ही बदल जाएगा।