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चीन का अंतरिक्ष में बड़ी कामयाबी: चांद के नमूने लेकर चांग ई-5 यान लौटा

चीन का चांग ई-5 यान चंद्रमा की सतह से पत्थर और मिट्टी के नमूने लेकर पृथ्वी पर लौट आया है।

अमेरिका के अपोलो और सोवियत संघ के लूना चंद्र अभियानों के बाद पहली बार कोई देश चांद की सतह से नमूने लेकर आया है।

इन नमूनों से पृथ्वी के इस उपग्रह की सतह और उसके अतीत के बारे में नई जानकारियाँ मिल सकेंगी।

चांग ई-5 यान स्थानीय समयानुसार 17 दिसंबर 2020 की रात क़रीब डेढ़ बजे मंगोलिया के भीतरी इलाक़े में उतरा।

अंतरिक्ष में लगातार अपनी क्षमता बढ़ाता जा रहा चीन इस मिशन की कामयाबी को एक बड़ी उपलब्धि मान रहा है।

पिछले सात वर्षों में चांग ई-5 मिशन चीन का तीसरा सफल चंद्र अभियान रहा है।

अमेरिकी अपोलो अंतरिक्ष यान से चांद पर गए अंतरिक्ष यात्रियों और सोवियत रूस के रोबोटिक लूना मिशन ने चांद की सतह से क़रीब 400 किलो तक मिट्टी और पत्थर जमा किए थे।

चांद से लाए ये सभी नमूने क़रीब तीन अरब साल पुराने हैं।

चांग ई-5 मिशन

चांग ई-5 को 24 नवंबर 2020 को दक्षिणी चीन के वेनचांग स्टेशन से एक अंतरिक्षयान के ज़रिए छोड़ा गया था।

पहले ये मिशन चांद के ऊपर पहुंचा और इसने खुद को चांद की कक्षा में स्थापित किया और चांद के चक्कर लगाने लगा।

बाद में ये दो टुकड़ों में बंट गया - पहला सर्विस व्हीकल और रिटर्न मॉड्यूल जो चांद की कक्षा में ही रुका रहा और दूसरा मून लैंडर जो धीरे-धीरे चांद की सतह की तरफ बढ़ने लगा।

8.2-टन के इस यान ने 1 दिसंबर 2020 को चांद की सतह पर निर्धारित जगह के क़रीब सॉफ्ट लैंडिंग की।

इस मिशन को मॉन्स रूमकेर में उतारा गया जो चांद की ज्वालामुखी वाली पहाड़ियों के पास मौजूद एक जगह है।

लैंडिंग के कुछ दिनों बाद इस यान ने चांद की सतह से पहली रंगीन तस्वीर भेजीं।

इसने चांद की सतह पर अपने पैर के पास लेकर क्षितिज तक की तस्वीर ली।

चांद की सतह के मिट्टी और पत्थरों के नमूनों को इकट्ठा करने के लिए चांग ई-5 के लैंडर में कैमरा, रडार, एक ड्रिल और स्पेक्ट्रोमीटर फिट किया गया था।

ये लैंडर क़रीब दो किलो तक के वज़न के पत्थर और मिट्टी इकट्ठा कर सकता था। इकट्ठा नमूनों को ये एक ऑर्बिटिंग मिशन तक पहुँचाया जो इसे आगे पृथ्वी पर भेजा।

चांग ई-5 मिशन से पहले चीन ने चांद पर दो और यान भेजे थे।

2013 में चांग ई-3 और 2019 में चांग ई-4 मून मिशन। इन दोनों में ही एक लैंडर के साथ-साथ एक छोटा मून रोवर शामिल किया गया था।

इन दोनों की तुलना में चांग ई-5 जटिल मिशन था।

माना जा रहा है कि मॉन्स रूमकेर से लाए गए नमूनों की उम्र 1.2 से 1.3 अरब साल होगी, यानी वो पहले लाए गए नमूनों की अपेक्षा नए होंगे। जानकारों का मानना है कि इससे चांद के भूवैज्ञानिक इतिहास के बारे में अधिक जानकारी मिल सकेगी।

इन नमूनों की मदद से वैज्ञानिकों को सटीक रूप से 'क्रोनोमीटर' तैयार करने में भी मदद मिलेगी जिससे सौर मंडल के ग्रहों के सतहों की उम्र को माना जाता है।

ये किसी ग्रह या उपग्रह की सतह पर मौजूद ज्वालामुखी की संख्या पर निर्भर करता है।

वैज्ञानिकों के अनुसार जिस ग्रह की सतह पर अधिक ज्वालामुखी होंगे वो अधिक पुरानी होगी यानी उसकी उम्र अधिक होगी (इसके लिए वैज्ञानिक ज्वालामुखी के क्रेटर की संख्या की गिनती करते हैं)। हालांकि इसके लिए अलग-अलग जगहों को देखा जाना ज़रूरी होता है।

अपोलो और लूना मिशन के भेजे गए नमूनों से 'क्रोनोमीटर' तैयार करने में वैज्ञानिकों को काफी मदद मिली थी।

अब चांग ई-5 मिशन के भेजे नमूनों से उन्हें इसे और सटीक रूप से विकसित करने में मदद मिलेगी।

नैनो क्ले तकनीक: क्या रेगिस्तान को उपजाऊ खेत में तब्दील कर सकती है?

मार्च 2020 में जब दुनिया भर में लॉकडाउन लग रहा था तब संयुक्त अरब अमीरात में एक बड़ा प्रयोग पूरा हो रहा था। केवल 40 दिनों के अंदर यहां बंजर ज़मीन का एक टुकड़ा मीठे रसीले तरबूजों से भर गया।

संयुक्त अरब अमीरात के लिए जो ताज़े फल और सब्जियों की ज़रूरत का 90 फीसदी हिस्सा आयात करता है, यह असाधारण उपलब्धि है। सिर्फ़ मिट्टी और पानी मिलाने से संयुक्त अरब अमीरात का सूखा और तपता रेगिस्तान रसीले फलों से भरे खेत में तब्दील हो गया।

यह इतना आसान नहीं था। ये तरबूज ''नैनो क्ले'' तरल की मदद से ही मुमकिन हो पाए। मिट्टी को दोबारा उपजाऊ बनाने की इस तकनीक की कहानी यहां से 1,500 मील (2,400 किलोमीटर) पश्चिम में दो दशक पहले शुरू हुई थी।

1980 के दशक में मिस्र में नील डेल्टा के एक हिस्से में पैदावार घटने लगी थी। रेगिस्तान के क़रीब होने के बावजूद यहां हजारों साल से खेती हो रही थी।

यहां की बेमिसाल उर्वरता की वजह से ही प्राचीन मिस्रवासियों ने अपनी ऊर्जा एक ताक़तवर सभ्यता विकसित करने में लगाई, जिसकी तरक्की देखकर हजारों साल बाद आज भी दुनिया अचंभे में पड़ जाती है।

सदियों तक यहां के समुदायों की भूख मिटाने वाले खेतों की पैदावार, 10 साल के अंदर घट गई।

पैदावार क्यों घटी?

हर साल गर्मियों के आख़िर में नील नदी में बाढ़ आती है जो मिस्र के डेल्टा में फैल जाती है।

वैज्ञानिकों ने जब पैदावार घटने की जांच शुरू की तो पता चला कि बाढ़ का पानी अपने साथ खनिज, पोषक तत्व और पूर्वी अफ्रीका के बेसिन से कच्ची मिट्टी के कण लेकर आता था जो पूरे डेल्टा क्षेत्र में फैल जाता था।

कीचड़ के ये बारीक कण ही वहां की ज़मीन को उपजाऊ बनाते थे। लेकिन फिर क्यों ये कण ग़ायब हो गए?

1960 के दशक में दक्षिणी मिस्र में नील नदी पर असवान बांध बनाया गया था। ढाई मील (चार किलोमीटर) चौड़ी यह विशालकाय संरचना पनबिजली बनाने और बाढ़ को नियंत्रित करने के लिए बनाई गई थी ताकि खेती का प्रबंधन आसान हो सके और फसलें बर्बाद न हों।

इस बांध ने बाढ़ के साथ आने वाले पोषक तत्वों को रोक दिया। एक दशक के अंदर-अंदर डेल्टा की पैदावर घट गई। मृदा वैज्ञानिकों और इंजीनियरों ने जब समस्या का पता लगा लिया तो इसका समाधान ढूंढ़ा जाने लगा।

नैनो क्ले तकनीक क्या है?

नैनो क्ले तकनीक का विकास करने वाली नॉर्वे की कंपनी डेज़र्ट कंट्रोल के मुख्य कार्यकारी ओले सिवर्त्सेन कहते हैं, ''यह वैसा ही है जैसा आप अपने बगीचे में देख सकते हैं।''

''रेतीली मिट्टी पौधों के लिए ज़रूरी नमी बरकरार नहीं रख पाती। कच्ची मिट्टी सही अनुपात में मिलाने से यह स्थिति नाटकीय रूप से बदल जाती है।''

सिवर्त्सेन के शब्दों में, उनकी योजना नैनो क्ले के इस्तेमाल से बंजर रेगिस्तानी ज़मीन को ''रेत से उम्मीद'' की ओर ले जाने की है।

कीचड़ का इस्तेमाल करके पैदावार बढ़ाना कोई नई बात नहीं है। किसान हजारों साल से ऐसा करते आ रहे हैं। लेकिन भारी, मोटी मिट्टी के साथ काम करना ऐतिहासिक रूप से बहुत श्रम-साध्य रहा है और इससे भूमिगत पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंच सकता है।

हल जोतने, खुदाई करने और मिट्टी पलटने से भी पर्यावरण को क्षति होती है। मिट्टी में दबे हुए जैविक तत्व ऑक्सीजन के संपर्क में आ जाते हैं और कार्बन डाई-ऑक्साइड में बदलकर वायुमंडल में मिल जाते हैं।

एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी की मृदा वैज्ञानिक सरन सोही का कहना है कि खेती से मिट्टी के जटिल बायोम में भी व्यवधान पड़ता है।

''मृदा जीवविज्ञान का एक अहम हिस्सा पौधों और फफूंद के बीच सहजीवी संबंध का है जो पौधों की जड़ प्रणाली के विस्तार के रूप में काम करते हैं।''

जड़ के पास जीवन है

सोही कहती हैं, ''बाल से भी बारीक संरचनाएं, जिनको हाइफे कहा जाता है, वे पोषक तत्वों को पौधे की जड़ों तक पहुंचाने में मददगार होती हैं।''

इस प्रक्रिया में फफूंद मिट्टी के खनिज कणों से जुड़ते हैं। वे मृदा संरचना बनाए रखते हैं और क्षरण सीमित करते हैं।

मिट्टी खोदने या खेती करने से ये संरचनाएं टूट जाती हैं। इनके दोबारा तैयार होने में समय लगता है। तब तक मिट्टी को नुकसान पहुंचने और पोषक तत्व ख़त्म होने की आशंका रहती है।

रेत में कच्ची मिट्टी का घोल बहुत कम मिलाएं तो उसका प्रभाव नहीं पड़ता। अगर इसे बहुत अधिक मिला दें तो मिट्टी सतह पर जमा हो सकती है।

वर्षों के परीक्षण के बाद नॉर्वे के फ्लूड डायनेमिक्स इंजीनियर क्रिस्टियन पी ओल्सेन ने एक सही मिश्रण तैयार किया जिसे रेत में मिलाने से वह जीवन देने वाली मिट्टी में बदल जाती है।

वह कहते हैं, ''हर जगह एक ही फॉर्मूला नहीं चलता। चीन, मिस्र, संयुक्त अरब अमीरात और पाकिस्तान में 10 साल के परीक्षण ने हमें सिखाया है कि हर मिट्टी की जांच ज़रूरी है, जिससे हम सही नैनो क्ले नुस्खा आजमा सकें।''

मिट्टी के घोल का संतुलन

नैनो क्ले रिसर्च और विकास का बड़ा हिस्सा ऐसा संतुलित तरल फॉर्मूला तैयार करने में लगा जो स्थानीय मिट्टी के बारीक कणों (नैनो कणों) में रिसकर पहुंच सके, लेकिन वह इतनी तेज़ी से न बह जाए कि पूरी तरह खो जाए। इसका मकसद पौधों की जड़ से 10 से 20 सेंटीमीटर नीचे की मिट्टी में जादू का असर दिखाना है।

सौभाग्य से, जब रेत में कीचड़ मिलाने की बारी आती है तो मृदा रसायन विज्ञान का एक नियम काम आता है, जिसे मिट्टी की धनायन विनिमय क्षमता (Cationic Exchange Capacity) कहा जाता है।

सिवर्त्सेन कहते हैं, ''कीचड़ के कण निगेटिव चार्ज होते हैं, जबकि रेत के कण पॉजिटिव चार्ज होते हैं। जब वे मिलते हैं तो एक दूसरे से जुड़ जाते हैं।''

रेत के हर कण के चारों ओर मिट्टी की 200 से 300 नैनोमीटर मोटी परत चढ़ जाती है। रेत कणों का यह फैला हुआ क्षेत्र पानी और पोषक तत्वों को उससे चिपकाए रखता है।

सिवर्त्सेन कहते हैं, ''कच्ची मिट्टी जैविक तत्वों की तरह काम करती है। यह नमी बनाए रखने में मदद करती है। जब ये कण स्थिर हो जाते हैं और पोषक तत्व उपलब्ध कराने में सहायक होने लगते हैं तब आप सात घंटों के अंदर फसल बो सकते हैं।''

यह तकनीक क़रीब 15 साल से विकसित हो रही है, लेकिन व्यावसायिक स्तर पर पिछले 12 महीने से ही इस पर काम हो रहा है, जब दुबई के इंटरनेशनल सेंटर फ़ॉर बायोसेलाइन एग्रीकल्चर (ICBA) ने स्वतंत्र रूप से इसका परीक्षण किया।

सिवर्त्सेन कहते हैं, ''अब हमारे पास इसके असरदार होने से वैज्ञानिक प्रमाण हैं। हम 40 फीट (13 मीटर) के कंटेनर में कई मोबाइल मिनी फैक्ट्रियां बनाना चाहते हैं ताकि हम जितना मुमकिन हो उतनी तब्दीली ला सकें।''

''ये मोबाइल इकाइयां जहां ज़रूरत होगी वहां स्थानीय तौर पर तरल नैनो क्लो तैयार करेंगी। हम उसी देश की मिट्टी का इस्तेमाल करेंगे और उसी क्षेत्र के लोगों को काम पर रखेंगे।''

इस तरह की पहली फैक्ट्री एक घंटे में 40 हजार लीटर तरल नैनो क्ले तैयार कर देगी जिसका इस्तेमाल संयुक्त अरब अमीरात के सिटी पार्कलैंड में होगा। इस तकनीक से 47 फीसदी तक पानी की बचत होगी।

लागत घटाने की चुनौती

फिलहाल प्रति वर्ग मीटर करीब 2 डॉलर (1.50 पाउंड) की लागत आती है जो समृद्ध यूएई के छोटे खेतों के लिए स्वीकार्य है।

मगर सब-सहारा अफ्रीका में जहां यह असल में मायने रखता है वहां इसे प्रभावी बनाने के लिए सिवर्त्सेन को लागत घटाने की ज़रूरत है।

अफ्रीका के ज़्यादातर किसानों के पास इतना पैसा नहीं है कि वे अपनी ज़मीन को इस तरह से ठीक करा सकें। इस तरह से ज़मीन के उपचार का असर लगभग 5 साल तक रहता है। उसके बाद मिट्टी का घोल दोबारा डालना पड़ेगा।

सिवर्त्सेन को लगता है कि बड़े पैमाने पर काम करने से लागत कम होगी। उनका लक्ष्य प्रति वर्ग मीटर ज़मीन के लिए लागत 0.20 डॉलर (0.15 पाउंड) तक लाना है।

इसकी जगह उपजाऊ ज़मीन खरीदनी पड़े तो उसकी लागत 0.50 डॉलर से 3.50 डॉलर (0.38 पाउंड से 2.65 पाउंड) प्रति वर्ग मीटर तक बैठती है। भविष्य में खेत खरीदने की जगह इस तरह से बंजर ज़मीन को उपजाऊ बनाना सस्ता पड़ेगा।

सिवर्त्सेन ग्रेट ग्रीन वॉल प्रोजेक्ट में भी मदद कर रहे हैं। इसके लिए वह यूएन कन्वेंशन टू कॉम्बैट डेजर्टिफ़िकेशन के साथ काम कर रहे हैं। उत्तरी अफ्रीका में रेगिस्तान का विस्तार रोकने के लिए पेड़ों की दीवार खड़ी की जा रही है।

पैदावार बढ़ाने के अन्य उपाय

कच्ची मिट्टी का घोल उत्तरी अफ्रीका और मध्य पूर्व की रेतीली ज़मीन में मिला देंगे, मगर बाकी दुनिया में क्या करेंगे?

वैश्विक स्तर पर मिट्टी में जैविक तत्व 20 से 60 फीसदी तक घट गए हैं। नैनो क्ले सिर्फ़ रेतीली मिट्टी को उपजाऊ बनाने के अनुकूल है।

अगर आपके पास खारी, ग़ैर-रेतीली मिट्टी हो तो आप क्या करेंगे? यहां बायोचार आपकी मदद कर सकता है।

कार्बन का यह स्थायी रूप जैविक पदार्थों को पायरोलिसिस विधि से जलाकर तैयार किया जाता है। इस प्रक्रिया में कार्बन डाई-ऑक्साइड जैसे प्रदूषक बहुत कम निकलते हैं क्योंकि दहन प्रक्रिया से ऑक्सीजन को बाहर रखा जाता है।

इससे छिद्रयुक्त और हल्का चारकोल-जैसा पदार्थ बनता है। सोही का कहना है कि पोषक तत्वों से रहित मिट्टी को यही चाहिए।

वह कहती हैं, ''मिट्टी की जैविक सामग्री हमेशा बदलती रहती है, लेकिन स्वस्थ मिट्टी में स्थायी कार्बन का एक निश्चित स्तर मौजूद रहता है।''

''बायोचार स्थायी कार्बन हैं जो पौधों के विकास के लिए अहम पोषक तत्वों पर पकड़ बनाए रखने में मदद करते हैं। मिट्टी में स्थायी कार्बन तत्व विकसित होने में दशकों लग जाते हैं, लेकिन बायोचार से यह तुरंत हो जाता है।''

''बायोचार जैविक खाद जैसे अन्य कार्बनिक पदार्थों के साथ मिलकर मिट्टी की संरचना को ठीक कर सकता है जिससे पौधों का विकास होता है।''

इससे अति-कृषि या खनन या संदूषण की वजह से जैविक तत्वों की कमी वाली मिट्टी को दोबारा बहाल करने में मदद मिल सकती है, बशर्ते कि मिट्टी में मौजूद ज़हरीले तत्वों का उपचार कर लिया जाए।

मिट्टी सुधारने की अन्य तकनीकों में शामिल है - वर्मीक्युलाइट का इस्तेमाल। यह एक फाइलोसिलिकेट खनिज है जिसे चट्टानों से निकाला जाता है। गर्म करने से यह फैल जाता है।

स्पंज जैसा होने से यह अपने वजन से तीन गुणा ज़्यादा पानी सोख सकता है और उसे लंबे समय तक बनाए रख सकता है।

पौधों की जड़ के पास इसे डाल देने से वहां नमी बनी रहती है, लेकिन इसके लिए मिट्टी खोदना पड़ता है जो इसका नकारात्मक पक्ष है।

पोषक तत्वों की जांच

संयुक्त अरब अमीरात में स्थानीय समुदाय के लोग रेगिस्तान को उपजाऊ ज़मीन में बदलने के फायदे उठा रहे हैं।

नैनो क्ले के सहारे उगाई गई सब्जियां और फल कोविड-19 लॉकडाउन में बड़े काम के साबित हुए। 0.2 एकड़ (1,000 वर्ग मीटर) ज़मीन में करीब 200 किलो तरबूज, ज़ूकीनी और बाजरे की फसल तैयार हुई जो एक घर के लिए काफी है।

सिवर्त्सेन कहते हैं, ''संयुक्त अरब अमीरात में लॉकडाउन बहुत सख़्त था जिसमें आयात घट गया था। कई लोगों को ताज़े फल और सब्जियां नहीं मिल पा रही थीं।''

''हमने ताज़े तरबूज और ज़ूकीनी तैयार करने के लिए ICBA और रेड क्रेसेंट टीम के साथ काम किया।''

सिवर्त्सेन इस तरह से तैयार फसलों में पोषक तत्वों का परीक्षण भी करना चाहते हैं, लेकिन इसके लिए अगली फसल तक इंतज़ार करना होगा।

कोविड 19 वैक्सीन: क्या दवा कंपनियां बंपर मुनाफ़ा कमाएंगी?

कोरोना महामारी की शुरुआत के समय ये कहा गया था कि किसी भी बीमारी के लिए टीका विकसित करने में कई साल लगते हैं। इसलिए टीके को लेकर बहुत अधिक उम्मीद ना करें।

लेकिन अब दस महीने बीतते-बीतते ही कोरोना वायरस महामारी के टीके दिए जाने लगे हैं और इन टीकों को अविष्कार करने में जो कंपनियां आगे हैं, उनमें से कई के पीछे घरेलू कंपनियां हैं।

नतीजतन, निवेश विश्लेषकों का अनुमान है कि इनमें से कम से कम दो कंपनियां (अमेरिकी बायोटेक कंपनी मॉडर्ना और जर्मनी की बायो-एन-टेक) अपनी साझेदार कंपनी, अमेरिका की फ़ाइज़र के साथ मिलकर अगले साल अरबों डॉलर का व्यापार करेंगी।

लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि असल में वैक्सीन बनाने वाले इसके अलावा कितने रुपये का व्यापार करने वाले हैं?

जिस तरह से इन टीकों को बनाने के लिए फ़ंड किया गया है और जिस तरह से बड़ी संख्या में कंपनियां वैक्सीन निर्माण के लिए सामने आई हैं, उससे तो यही लगता है कि बड़ा मुनाफ़ा बनाने का कोई भी अवसर लंबे समय तक नहीं रहेगा।

किन लोगों ने पैसा लगाया है?

कोरोना महामारी के दौर में वैक्सीन की ज़रूरत को देखते हुए सरकार और फ़ंड देने वालों ने वैक्सीन बनाने की योजना और परीक्षण के लिए अरबों पाउंड की राशि दी। गेट्स फ़ाउंडेशन जैसे संगठनों ने खुले दिल से इन योजनाओं का समर्थन किया। इसके अलावा कई लोगों ने ख़ुद भी आगे आकर इन योजनाओं का समर्थन किया। अलीबाबा के फ़ाउंडर जैक मा और म्यूज़िक स्टार डॉली पार्टन ने भी आगे आकर इन योजनाओं के लिए फ़ंड दिया।

साइंस डेटा एनालिटिक्स कंपनी एयरफ़िनिटी के अनुसार, कोविड 19 का टीका बनाने और परीक्षण के लिए सरकारों की ओर से 6.5 बिलियन पाउंड दिये गए हैं। वहीं गैर-लाभार्थी संगठनों की ओर से 1.5 बिलियन पाउंड दिया गया।

कंपनियों के अपने ख़ुद के निवेश से सिर्फ़ 2.6 बिलियन पाउंड ही आए। इनमें से कई कंपनियां बाहरी फ़ंडिंग पर बहुत अधिक निर्भर करती हैं।

ये एक बहुत बड़ा कारण रहा कि बड़ी कंपनियों ने वैक्सीन परियोजनाओं को फ़ंड देने में बहुत जल्दबाज़ी नहीं दिखाई।

अतीत में इस तरह की आपातस्थिति में टीके का निर्माण करना बहुत अधिक लाभदायक साबित नहीं हुआ है। वैक्सीन खोजने की प्रक्रिया में समय लगता है। ग़रीब देशों को वैक्सीन की बहुत बड़ी खेप की ज़रूरत होती है लेकिन अधिक क़ीमत के कारण वे इसे ले नहीं सकते। धनी देशों में दैनिक तौर पर ली जाने वाली दवाओं से अधिक मुनाफ़ा कमाया जाता है।

ज़ीका और सार्स जैसी बीमारियों के लिए टीके बनाने वाली कंपनियों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। वहीं दूसरी ओर फ़्लू जैसी बीमारियों के लिए बनी वैक्सीन का बाज़ार अरबों का है। ऐसे में अगर कोविड-19 फ़्लू की तरह ही बना रहा और इसके लिए सालाना तौर पर टीका लगाने की ज़रूरत पड़ती रही तो यह वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों के लिए लाभदायक हो सकता है। लेकिन उन कंपनियों के लिए ही जो सबसे अधिक असरदार रहेंगी, साथ ही बजट में भी होंगी।

वे क्या क़ीमत लगा रहे हैं?

कुछ कंपनियां वैश्विक संकट के इस समय में लाभ बनाती हुई नहीं दिखना चाहती हैं, ख़ासतौर पर बाहर से इतनी अधिक फ़ंडिंग मिलने के बाद। अमेरिका की बड़ी दवा निर्माता कंपनियां जैसे जॉनसन एंड जॉनसन और ब्रिटेन की एस्ट्राज़ेनेका ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी स्थित बायोटेक कंपनी के साथ मिलकर काम रही हैं।

इन कंपनियों ने अपनी ओर से यह वादा किया है कि वे अपनी वैक्सीन की क़ीमत उतनी ही रखेंगी जिससे सिर्फ़ उनकी लागत निकल आए। अभी की बात करें तो एस्ट्राज़ेनेका के संदर्भ में माना जा रहा है कि यह सबसे सस्ती कीमत (4 डॉलर यानी क़रीब 300 रुपये प्रति डोज़) में उपलब्ध होगी।

मॉडर्ना एक छोटी बायोटेक्नॉलजी कंपनी है। जोकि सालों से आरएनए वैक्सीन के पीछे की तकनीक पर काम कर रही है। उनके प्रति डोज़ की क़ीमत क़रीब 37 डॉलर यानी दो हज़ार सात रुपये से कुछ अधिक है। उनका उद्देश्य कंपनी के शेयरधारकों के लिए लाभ कमाना है।

हालांकि इसका यह मतलब नहीं कि ये क़ीमतें तय कर दी गई हैं।

आमतौर पर दवा कंपनियां अलग-अलग देशों में अलग-अलग तरह से शुल्क देती हैं। यह सरकारों पर निर्भर करता है। एस्ट्राज़ेनेका ने सिर्फ़ महामारी तक के लिए क़ीमतें कम रखने का वादा किया है। हो सकता है कि वो अगले साल से इसकी तुलनात्मक रूप से अधिक क़ीमत वसूलने लगें। यह पूरी तरह महामारी के स्वरूप पर निर्भर करता है।

बार्कलेज़ में यूरोपियन फ़ार्मास्यूटिकल की प्रमुख एमिली फ़ील्ड कहती हैं, ''अभी अमीर देशों की सरकारें अधिक क़ीमत देंगी। वे वैक्सीन या डोज़ को लेकर इतने उतावले हैं कि बस कैसे भी महामारी का अंत कर सकें।''

वे आगे कहती हैं, ''संभवत: अगले साल जैसे-जैसे बाज़ार में और अधिक वैक्सीन आने लगेंगी, प्रतिस्पर्धा के कारण हो सकता है वैक्सीन के दाम भी कम हो जाएं।''

एयरफ़िनिटी के चीफ़ एक्ज़ीक्यूटिव रासमस बेक हैनसेन कहते हैं, ''इसी बीच, हमें निजी कंपनियों से भी उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। विशेष तौर पर ऐसी कंपनियां जो छोटी हैं और जो कोई दूसरा उत्पाद भी नहीं बेचतीं। ऐसे में उनसे यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि वे बिना मुनाफ़े के बारे में सोचे वैक्सीन बेचेंगी।''

वो कहते हैं, ''इस बात को दिमाग़ में रखना होगा कि इन कंपनियों ने एक बड़ा जोखिम उठाया है और वे वास्तव में तेज़ी से आगे बढ़ी हैं।''

वो आगे कहते हैं, ''और अगर आप चाहते हैं कि ये छोटी कंपनियां भविष्य में भी कामयाब हों तो उन्हें उस लिहाज़ से पुरस्कृत किये जाने की ज़रूरत है।''

लेकिन कुछ मानवतावादी संकट की स्थिति और सार्वजनिक वित्त पोषण को लेकर भिन्न मत रखते है। उनके मुताबिक़, यह हमेशा की तरह व्यापार का समय नहीं है।

क्या उन्हें अपनी तकनीक साझा करनी चाहिए?

अभी जबकि इतना कुछ दांव पर लगा हुआ है तो इस तरह की मांग उठ रही है कि इन वैक्सीन के पीछे की पूरी तकनीकी और जानकारी साझा की जाए ताकि दूसरे देश कंपनियां वैक्सीन की डोज़ेज़ को बना सकें। उदाहरण के तौर पर जो कंपनियां भारत और दक्षिण अफ्रीका में हैं।

मेडिसीन्स लॉ एंड पॉलिसी की एलेन टी होएन कहती हैं, ''पब्लिक फ़ंडिंग प्राप्त करने के लिए यह एक शर्त होनी चाहिए।''

वो कहती हैं, ''जब महामारी की शुरुआत हुई थी तब बड़ी फ़ार्मा कंपनियों ने वैक्सीन को लेकर बहुत उत्साह नहीं दिखाया था। लेकिन जब सरकार और एजेंसियां फ़ंड के साथ आगे आईं तो उन्हें इस पर काम करना पड़ा।''

होएन कहती हैं, ''उन्हें नहीं समझ आता है कि क्यों उन्हीं के पास परिणाम से लाभ पाने का विशेषाधिकार हो।''

वो कहती है, ''ये नई खोज़ें आगे चलकर इन वाणिज्यिक संगठनों की निजी संपत्ति बन जाती हैं।''

हालांकि बौद्धिक स्तर पर लोग एक-दूसरे के संग कुछ चीज़ें साझा कर रहे हैं, लेकिन यह किसी भी सूरत में पर्याप्त नहीं हैं।

तो क्या फ़ार्मा कंपनियां बंपर मुनाफ़ा कमाएंगी?

सरकारों और बहुपक्षीय संगठनों ने पहले ही निर्धारित मूल्य पर अरबों ख़ुराकें ख़रीदने का संकल्प लिया है। ऐसे में अगले कुछ महीनों तक तो कंपनियां उन ऑर्डर्स को जितनी जल्दी हो सकेगा उतनी जल्दी पूरा करने में व्यस्त रहेंगी।

जो कंपनियां वैक्सीन की डोज़ेज़ अमीर देशों को बेच रहे हैं वे अपने निवेश पर रिटर्न की भी उम्मीद करने लगे हैं। हालांकि एस्ट्राज़ेनेका को सबसे अधिक ख़ुराक की आपूर्ति करनी है बावजूद इसके वो अभी सिर्फ़ लागत को ही पूरा करने पर ध्यान देगा।

पहली मांग की आपूर्ति हो जाने के बाद अभी यह अनुमान लगा पाना थोड़ा कठिन है कि वैक्सीन को लेकर आगे स्थिति कैसी होगी? क्योंकि यह कई चीज़ों पर निर्भर करता है। मसलन, जिन्हें वैक्सीन का डोज़ दिया गया उनमें कोरोना के प्रति प्रतिरक्षा कब तक रहती है? कितनी वैक्सीन्स सफल हो पाती हैं? और वैक्सीन का निर्माण और फिर वितरण कितने सुचारू तरीक़े से हो पाता है?

बार्कलेज की एमिली फ़ील्ड के मुताबिक़, ''मुनाफ़ा कमाने के अवसर बहुत अस्थायी होगें।''

भले ही जो लोग अभी वैक्सीन बनाने की रेस में आगे हैं और अपनी बौद्धिक संपदा को दूसरे से साझा नहीं कर रहे हैं बावजूद इसके दुनिया भर में 50 ऐसी वैक्सीन्स बनायी जा रही हैं जो क्लिनिकल ट्रायल के दौर में हैं।

एमिली फ़ील्ड के मुताबिक़, ''आने वाले दो सालों में हो सकता है कि बाज़ार में 20 वैक्सीन हों। ऐसे में वैक्सीन के लिए बहुत अधिक क़ीमत वसूल पाना मुश्किल होता जा रहा है।''

वो मानती हैं कि लंबे वक्त में इसका असर कंपनी की साख पर पड़ सकता है। अगर कोई वैक्सीन सफल हो जाती है तो यह कोविड 19 उपचार या इससे जुड़े अन्य उत्पादों को बिक्री के द्वार खोलने में मददगार साबित हो सकती है।

एयरफ़िनिटी के हैनसैन कहते हैं कि अगर ऐसा होता है तो यह महामारी के कठिन दौर से निकली एक राहत देने वाली बात हो सकती है।

वह सरकारों से उम्मीद करते हुए कहते हैं कि सरकारों को महामारी के संदर्भ में रणनीति बनाने में निवेश करना चाहिए। ठीक उसी तरह जैसे सरकारें अभी सुरक्षा और बचाव के लिए कर रही हैं।

इन सबमें जो सबसे अधिक ग़ौर करने वाली और प्रभावित करने वाली बात है वो ये कि आख़िर बायो-एन-टेक और मॉडर्ना की बाज़ार क़ीमत अचानक से ऊपर कैसे पहुंच गई? ऐसा इसलिए क्योंकि उनके टीके उनकी आरएनए टेक्नोलॉजी की अवधारणा का प्रमाण देते हैं।

कोरोना महामारी से पहले तक बायो-एन-टेक त्वचा कैंसर के लिए एक टीके पर काम कर रहा थी। जबकि मॉडर्ना ओवैरियन कैंसर के लिए एक आरएनए आधारित वैक्सीन पर काम कर रही थी। अगर इसमें से कोई भी सफ़ल होता है तो यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि होगी।

क्या Covaxin कोरोना वायरस से बचाव करने में सक्षम है?

भारत में Covaxin नाम की कोरोना की वैक्सीन बना रही कंपनी भारत बायोटेक ने कहा है कि इस वैक्सीन के क्लिनिकल ट्रायल के दौरान व्यक्ति को दो डोज़ दिए जाते हैं जो 28 दिनों बाद यानी लगभग एक महीने के अंतराल पर दिए जाते हैं।

समाचार एजेंसी एएनआई के अनुसार कंपनी ने कहा है कि दूसरा डोज़ दिए जाने के 14 दिनों के बाद ही वैक्सीन के असर के बारे में पता लगाया जा सकता है। इस वैक्सीन को इस तरह से बनाया गया है कि ये उन लोगों पर प्रभावी होती है जो इसकी दो डोज़ लेते हैं।

वैक्सीन के तीसरे चरण के क्लिनिकल ट्रायल के बारे में कंपनी ने कहा है कि तीसरे चरण के ट्रायल में 50 फीसदी लोगों को वैक्सीन दी जाती है जबकि अन्य 50 फीसदी को प्लेसबो दिया जाता है।

प्लेसबो ख़ास तरह की दवा होती है जो शरीर पर किसी तरह का प्रभाव नहीं डालती। डॉक्टर इसका इस्तेमाल ये जानने के लिए करते हैं कि व्यक्ति पर दवा लेने का कितना और कैसा मानसिक असर पड़ता है।

इससे पहले हरियाणा सरकार में कैबिनेट मंत्री अनिल विज ने अपना कोरोना टेस्ट पॉज़ीटिव आने की जानकारी दी थी।

20 नवंबर 2020 को उन्होंने Covaxin का टीका लगवाकर वैक्सीन के तीसरे चरण के ट्रायल की शुरुआत की थी।

भारत के प्रान्त हरियाणा के स्वास्थ्य मंत्री ने 20 नवंबर 2020 को कोरोना वायरस से बचाव के लिए टीका लगवाया था। स्वास्थ्य मंत्री टीका लगवाने के बावजूद कोरोना वायरस से संक्रमित हो गए है।

हरियाणा सरकार में कैबिनेट स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज का कोरोना टेस्ट पॉज़ीटिव आया है। अनिल विज ने ट्विटर पर यह जानकारी दी।

उन्होंने ट्वीटर लिखा है, ''मेरा कोरोना टेस्ट पॉज़ीटिव आया है। मैं अंबाला कैंट के सिविल अस्पताल में भर्ती हूं। बीते दिनों जो भी लोग मेरे संपर्क में आए, उन्हें सलाह है कि वे भी अपनी कोरोना जांच करा लें।''

इससे पहले 20 नवंबर 2020 को उन्होंने अंबाला के एक अस्पताल में Covaxin का टीका लगवाकर वैक्सीन के तीसरे चरण के ट्रायल की शुरुआत की थी।

कोरोना वायरस चीन से फैलना शुरू नहीं हुआ: अमेरिकी शोध

आज (04 दिसंबर 2020) से क़रीब एक साल पहले वैज्ञानिकों को कोविड-19 बीमारी फ़ैलाने वाले Sars-CoV-2 कोरोना वायरस के बारे में तब पता चला जब चीन के वुहान में कुछ लोगों के इससे संक्रमित होने की ख़बर आई।

लेकिन एक नए शोध के अनुसार महामारी का कारण बना ये वायरस इससे कई सप्ताह पहले लोगों को संक्रमित कर चुका था।

अमेरिका के सेंटर्स फ़ॉर डीज़ीज़ कंट्रोल एंड प्रीवेन्शन (सीडीसी) के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए इस शोध के नतीजों को क्लिनिकल इन्फ़ेक्शियस डीज़ीज़ नाम की पत्रिका में प्रकाशित किया गया है।

अब तक मौजूद जानकारी के अनुसार आधिकारिक तौर पर वैज्ञानिकों को कोरोना वायरस के बारे में 31 दिसंबर 2019 को तब जानकारी मिली जब चीन के वुहान के हुबेई प्रांत के स्वास्थ्य अधिकारियों ने एक चेतावनी जारी कर कहा कि यहां कई ऐसे मामले दर्ज किए जा रहे हैं जिनमें निमोनिया के गंभीर लक्षण हैं। उन्होंने इसे अजीब तरह की सांस लेने से संबंधित बीमारी कहा।

लेकिन महामारी के शुरू होने के ग्यारह महीनों बाद अब शोधकर्ताओं का कहना है कि अमेरिका के तीन राज्यों में 39 ऐसे लोग हैं जिनके शरीर में कोरोना वायरस के एंटीबॉडीज़ मिले हैं। ये एंटीबॉडीज़ चीन के कोरोना वायरस से जुड़ी चेतावनी देने के दो सप्ताह पहले उनके शरीर में मौजूद थे।

हालांकि अमेरिका में Sars-Cov-2 का पहला मामला 21 जनवरी 2020 को ही दर्ज किया गया था।

शोध के नतीजे क्या कहते हैं?

इस शोध के अनुसार अमेरिका में 13 दिसंबर 2019 से लेकर 17 जनवरी 2020 के हुए ब्लड डोनेशन में कुल 7,389 लोगों ने ख़ून दिया था। इनमें से 106 लोगों के ख़ून के नमूनों में कोरोना वायरस की एंटीबॉडीज़ मिली हैं।

किसी व्यक्ति के शरीर में एंटीबॉडीज़ मिलने का मतलब है कि वो व्यक्ति वायरस से संक्रमित हुआ है और उसके रोग प्रतिरोधक तंत्र ने उस वायरस से निपटने के लिए एंटीबॉडीज़ बनाई हैं।

कैलिफ़ोर्निया, ओरेगॉन और वॉशिंगटन में 13 से 16 दिसंबर 2019 के बीच लिए गए ख़ून के नमूनों में से 39 में कोरोना वायरस की एंटीबॉडीज़ हैं।

शोध के अनुसार 67 नमूने जनवरी 2020 में मैसेचुसैट्स, मिशिगन, रोड आइलैंड और विस्कॉन्सिन में जमा किए गए थे। ये इन राज्यों में महामारी का प्रकोप बढ़ने से कहीं पहले था।

अधिकतर लोग जो इस वायरस के संपर्क में आए थे वो पुरुष थे और उनकी औसत उम्र 52 साल थी।

शोधकर्ताओं का मानना है कि हो सकता है कि इन लोगों के शरीर में पहले से ही मौजूद किसी कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ एंटीबॉडीज़ बन गई हों।  हालांकि उनका कहना है कि शोध के अनुसार अधिकतर लोग जिनमें एंटीबॉडीज़ मिले हैं उनमें से कई लोगों में उस वक्त कोविड-19 के लक्षण भी मौजूद थे।

हालांकि शोधकर्ता कहते हैं कि अमेरिका में बड़े पैमाने पर वायरस का संक्रमण फ़रवरी 2020 के आख़िरी सप्ताह में ही फैलना शुरू हुआ। लेकिन अब तक वायरस की उत्पत्ति को लेकर जो जानकारी है क्या इस शोध से उसमें कोई बदलाव आएगा?

आख़िर वायरस सबसे पहले कहां पाया गया?

Sars-Cov-2 वायरस सबसे पहले कहां पाया गया? इस सवाल का उत्तर देना शायद कभी संभव न हो सके।

इस तरह के कई संकेत मिले हैं कि ये वायरस 31 दिसंबर 2019 में चीन के वुहान में पाए जाने से कई सप्ताह पहले से ही दुनिया में मौजूद था।

लेकिन सीडीसी के शोधकर्ताओं का कहना है कि वो इस बारे में निश्चित तौर पर कुछ कह नहीं सकते कि ये लोग अपने देश में ही संक्रमित हुए थे या फिर यात्रा के दौरान वो वायरस की चपेट में आए थे।

ब्लड डोनेशन कार्यक्रम का आयोजन करने वाली संस्था रेड क्रॉस का कहना है कि जिन लोगों के नमूने इकट्ठा किए गए थे उनमें से केवल तीन फ़ीसद ने कहा था कि उन्होंने हाल में विदेश यात्रा की है। इसमें से पाँच फ़ीसद का कहना था कि वो एशियाई देश के दौरे से लौटे हैं।

इससे पहले हुए कुछ और शोध में भी चीन की चेतावनी देने से पहले दूसरे देशों के लोगों में कोरोना वायरस होने के सबूत मिले थे।

मई 2020 में फ्रांसीसी वैज्ञानिकों ने कहा कि 27 दिसंबर 2019 को पेरिस के नज़दीक एक व्यक्ति का इलाज संदिग्ध निमोनिया मरीज़ के तौर पर किया गया था। ये व्यक्ति वास्तव में कोरोना वायरस से संक्रमित थे।

कई देशों में शोधकर्ताओं ने सीवर के पानी के नमूनों में कोरोना वायरस पाए जाने की बात की थी। ये नमूने महामारी की घोषणा से कई सप्ताह पहले लिए गए थे।

जून 2020 में इटली के वैज्ञानिकों ने कहा था कि मिलान शहर के सीवर के पानी में 18 दिसंबर 2019 को कोरोनो वायरस के निशान मिले थे। हालांकि यहां कोरोना वायरस के पहले मामले की पुष्टि काफी बाद में हुई थी।

स्पेन में हुए एक शोध के अनुसार बार्सिलोना में जनवरी 2020 के मध्य में सीवर के पानी के जो नमूने लिए गए थे, उनमें कोरोनो वायरस के निशान मिले।  लेकिन यहां चालीस दिन बाद कोरोना के पहले मामले की पुष्टि हुई थी।

ये वायरस ब्राज़ील कैसे पहुंचा? इसे लेकर भी कई तरह के सवाल उठाए गए हैं।

ब्राज़ील में कोरोना संक्रमण का पहला मामला 26 फरवरी 2020 को पाया गया था। साओ पाउलो के 61 साल के एक व्यापारी कोरोना के पहले मरीज़ जो कुछ दिनों पहले इटली की यात्रा से लौटे थे। उस वक्त तक इटली महामारी का दूसरा केंद्र बन चुका था।

हालांकि ब्राज़ील के फ़ेडरल यूनिवर्सिटी ऑफ़ सैंटा कैटरीना (यूएफ़एससी) के शोधकर्ताओं के एक दल ने इससे कुछ महीने पहले 27 नवंबर 2019 को सीवर के पानी में वायरस पाए जाने की बात की थी।

ओस्वाल्डो क्रूज़ फ़ाउंडेशन द्वारा किए गए एक और शोध के अनुसार ब्राज़ील में आधिकारिक तौर पर कोरोना संक्रमण के पहले मरीज़ की पुष्टि होने से क़रीब एक महीने पहले 19 से 25 जनवरी 2020 के बीच यहां Sars-Cov-2 संक्रमण का पहला मामला मिला था। हालांकि अब तक ये नहीं पता है कि इस व्यक्ति ने विदेशी दौरा किया था या नहीं।

तो क्या वुहान पशु बाज़ार से वायरस नहीं फैला?

Sars-CoV-2 के बारे में जो एक बात अब तक पता नहीं चल पाई है वो ये नहीं है कि ये जानवरों से इंसानों में कब आया, बल्कि ये है कि इस वायरस ने लोगों को संक्रमित करना कब शुरू किया?

जानकारों का कहना है कि अब तक महामारी का केंद्र वुहान के जानवरों के बाज़ार को माना जा रहा है जहां जीवित और मृत जंगली जानवरों का व्यवसाय होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि शुरुआती दौर में संक्रमण के जो मामले दर्ज किए गए उनमें से बड़ी संख्या में मामले इस बाज़ार से जुड़े थे।  लेकिन इस बात को लेकर शोधकर्ता अनिश्चित हैं कि ये वायरस वहां से एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के शरीर में फैलना शुरू हुआ।

हॉन्ग कॉन्ग यूनिवर्सिटी में माइक्रोबायोलॉजिस्ट युएन क्वॉक-युंग ने बीबीसी को बताया, ''अगर आप मुझसे पूछेंगे तो मेरी राय है कि इस बात की संभावना है कि वायरस उन बाज़ारों से फैलना शुरू हुआ जहां जंगली जानवरों की खरीद-बिक्री होती है।''

कोरोना वायरस को लेकर चीन ने भी अपनी टाइमलाइन को थोड़ा पीछे किया है। तेज़ी से पैर फैला रहे किसी वायरस की शुरुआत से जुड़ी जांच के दौरान ऐसा करना कोई बड़ी बात नहीं है।

चीन के वुहान में डॉक्टरों द्वारा की गई एक स्टडी के अनुसार यहां कोरोना के पहले मामले की पहचान 01 दिसंबर 2019 को हुई थी और इसका नाता जानवरों के बाज़ार से नहीं था। ये स्टडी मेडिकल जर्नल लैंसेट में प्रकाशित की गई थी।

कुछ जानकार कहते हैं कि महामारी फैलाने की क्षमता रखने वाला वायरस, बिना पहचान में आए महीनों तक दुनिया भर में मौजूद रहे, ऐसा संभव नहीं है।

लेकिन ये संभव है कि उत्तर गोलार्ध में विशेषकर सर्दियों के दौरान ये वायरस पहचान में आया हो और पहले से मौजूद रहा हो।

कोरोना वायरस: ब्रिटेन ने फ़ाइज़र के टीके को मंज़ूरी दी

ब्रिटेन दुनिया का पहला ऐसा देश बन गया है जिसने फ़ाइज़र कंपनी के बनाए टीके के इस्तेमाल की मंज़ूरी दे दी है।

ब्रिटिश नियामक संस्था एमएचआरए ने कहा है कि फ़ाइज़र/बायोएन्टेक की ये वैक्सीन कोविड-19 से 95% सुरक्षा देती है और इसके व्यापक इस्तेमाल की अनुमति देना सुरक्षित है।

बताया जा रहा है कि कुछ ही दिनों के भीतर ऐसे लोगों को टीका लगना शुरू हो जाएगा जिन्हें सबसे ज़्यादा ख़तरा है।

ब्रिटेन ने पहले से ही इस टीके की चार करोड़ डोज़ के लिए ऑर्डर दिया हुआ है।

हर व्यक्ति को टीके के दो डोज़ दिए जाएँगे। यानी अभी दो करोड़ लोगों को टीका मिल सकता है।

ये दुनिया की सबसे तेज़ी से विकसित वैक्सीन है जिसे बनाने में 10 महीने लगे। आम तौर पर ऐसी वैक्सीन के तैयार होने में एक दशक तक का वक़्त लग जाता है।

हालाँकि जानकारों का कहना है कि टीके के बावजूद लोगों को संक्रमण रोकने के नियमों का पालन करते रहना चाहिए।

ये वैक्सीन कैसे काम करती है?

ये एक नई तरह की एमआरएनए कोरोना वैक्सीन है जिसमें महामारी के दौरान इकट्ठा किए कोरोना वायरस के जेनेटिक कोड के छोटे टुकड़ों को इस्तेमाल किया गया है। कंपनी के अनुसार जेनेटिक कोड के छोटे टुकड़े शरीर के भीतर रोग प्रतिरोधक शक्ति को बढ़ाती है और कोविड-19 के ख़िलाफ शरीर को लड़ने के लिए तैयार करती है।

इससे पहले कभी इंसानों में इस्तेमाल के लिए एमआरएनए वैक्सीन को मंज़ूरी नहीं दी गई है। हालांकि क्लिनिकल ट्रायल के दौरान लोगों को इस तरह की वैक्सीन के डोज़ दिए गए हैं।

एमआरएनए वैक्सीन को इंसान के शरीर में इंजेक्ट किया जाता है। ये इम्यून सिस्टम को कोरोना वायरस से लड़ने के लिए एंटीबॉडी बनाने और टी-सेल को एक्टिवेट कर संक्रमित कोशिकाओं को नष्ट करने के लिए कहती है।

इसके बाद जब ये व्यक्ति कोरोना वायरस से संक्रमित होता है तो उसके शरीर में बनी एंटीबॉडी और टी-सेल वायरस से लड़ने का काम करना शुरू कर देते हैं।

वैक्सीन की रेस में और कौन-कौन शामिल?

ऑक्सफर्ड-एस्ट्राज़ेनिका की वैक्सीन - ये वाइरल वेक्टर टाइप वैक्सीन है जिसमें जेनेटिकली मॉडिफ़ाइड वायरस का इस्तेमाल किया गया है। इसे फ्रिज में सामान्य तापमान पर स्टोर किया जा सकता है और इसकी दो डोज़ लेनी होंगी। अब तक क्लिनिकल ट्रायल में इसे 62 से 90 फीसदी तक कारगर पाया गया है।

इस वैक्सीन के प्रति डोज़ की क़ीमत 4 डॉलर तक होगी।

मॉडर्ना की वैक्सीन - ये एमआरएनए टाइप की कोरोना वैक्सीन है जिसे वायरस के जेनेटिक कोड के कुछ टुकड़े शामिल कर बनाया जा रहा है। इसे माइनस 20 डिग्री तापमान पर स्टोर करने की ज़रूरत होगी और इसे छह महीनों तक ही स्टोर किया जा सकेगा। इसकी दो डोज़ लेनी होंगी और अब तक हुए क्लिनिकल ट्रायल में इसे 95 फीसदी तक कारगर पाया गया है।

इस वैक्सीन के प्रति डोज़ की क़ीमत 33 डॉलर तक होगी।

फ़ाइज़र की वैक्सीन - मॉडर्ना की वैक्सीन की तरह ये भी एमआरएनए टाइप की कोरोना वैक्सीन है। अब तक हुए क्लिनिकल ट्रायल में इसे 95 फीसदी तक कारगर पाया गया है। इसे माइनस 70 डिग्री के तापमान पर स्टोर करना होगा।

ये वैक्सीन दो डोज़ दी जाएगी और प्रति डोज़ की क़ीमत 15 डॉलर तक होगी।

गामालेया की स्पुतनिक-वी वैक्सीन - ये ऑक्सफर्ड की वैक्सीन की तरह वाइरल वेक्टर टाइप वैक्सीन है जिसके अब तक हुए क्लिनिकल ट्रायल में 92 फीसदी तक कारगर पाया गया है। इसे फ्रिज में सामान्य तापमान पर स्टोर किया जा सकता है और इसकी दो डोज़ लेनी होंगी।

इस वैक्सीन के प्रति डोज़ की क़ीमत 7.50 डॉलर तक होगी।

इसके अलावा रूस स्पुत्निक नाम की एक और वैक्सीन का इस्तेमाल कर रहा है। वहीं चीनी सेना ने कैनसाइनो बायोलॉजिक्स की बनाई एक वैक्सीन को मंज़ूरी दे दी है। ये दोनों वैक्सीन ऑक्सफर्ड की वैक्सीन की तरह वाइरल वेक्टर टाइप वैक्सीन हैं।

सॉफ्ट लैंडिंग: चांद पर उतरा चीन का चांग ई-5 यान, धरती पर चट्टान लाएगा

चीन ने अपना एक और अंतरिक्ष यान सफलतापूर्वक चांद की सतह पर उतारा है।

रोबोटिक मून मिशन चांग ई-5 ने चांद की सतह पर निर्धारित जगह के क़रीब सॉफ्ट लैंडिंग की है।

माना जा रहा है कि ये अंतरिक्षयान आने वाले कुछ दिनों में चांद की सतह के मिट्टी और पत्थरों के नमूनों को इकट्ठा करेगा और जाँच के लिए उन्हें पृथ्वी पर भेजेगा।

इस मिशन को मॉन्स रूमकेर में उतारा जाना था तो चांद के ज्वालामुखी वाली पहाड़ियों के पास मौजूद एक जगह है।

नमूनों को इकट्ठा करने के लिए भेजे गए चांग ई-5 के लैंडर में कैमरा, रडार, एक ड्रिल और स्पेक्ट्रोमीटर फिट किया गया है।

ये लैंडर क़रीब दो किलो तक के वज़न के पत्थर और मिट्टी इकट्ठा कर सकता है। इकट्ठा नमूनों को ये एक ऑर्बिटिंग मिशन तक पहुंचागा जो इसे आगे पृथ्वी पर भेजेगा।

चांग ई-5 से 44 साल पहले, सोवियत संघ का लूना 24 मिशन चांद की सतह से 200 ग्राम मिट्टी पृथ्वी पर लेकर आया था।

एक सप्ताह पहले इस यान के प्रक्षेपण को चीनी टीवी चैनलों द्वारा लाइव कवर किया गया था लेकिन मिशन की लैंडिग को टीवी चैनल पर नहीं दिखाया गया।

एक बार जब मिशन ने सफलतापूर्वक चांद पर लैंडिंग की उसके बाद ही इस ख़बर को टीवी पर दिखाया गया। साथ ही मिशन ने लैंडिंग के वक्त चांद की सतह की जो तस्वीरें ली थीं उसे भी टीवी पर प्रसारित किया गया।

चीनी स्पेस एजेंसी ने कहा है कि लैंडिंग 01 दिसंबर 2020 को स्थानीय समयानुसार 23:11 बजे हुई।

चीन के मून मिशन की सफलता पर अमेरिकी स्पेस एजेंसी ने चीन को बधाई दी है।

नासा की वरिष्ठ अधिकारी डॉक्टर थॉमस ज़रबुचेन ने कहा है कि उन्हें उम्मीद है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चांद पर शोध करने वालों को भी पृथ्वी पर भेजे जाने वाले नमूनों का विश्लेषण करने का मौक़ा मिलेगा।

उन्होंने कहा, ''हमें उम्मीद है कि चांद की सतह से मिट्टी और पत्थर के नमूने पृथ्वी पर भेजे जाने के बाद सभी को इसके शोध से लाभ होगा। इस बेहद महत्वपूर्ण नमूनों के शोध से अंतरराष्ट्रीय विज्ञान समुदाय को भी फायदा होगा।''

8.2 टन के चांग ई-5 को एक अंतरिक्षयान के ज़रिए 24 नवंबर 2020 को दक्षिणी चीन के वेनचांग स्टेशन से छोड़ा गया था।

कुछ दिन पहले ये मिशन चांद के ऊपर पहुंचा और इसने खुद को चांद की कक्षा में स्थापित किया और चांद के चक्कर लगाने लगा। बाद में ये दो टुकड़ों में बंट गया - पहला सर्विस व्हीकल और रिटर्न मॉड्यूल जो चांद की कक्षा में ही रुके रहे और दूसरा लैंडर जो धीरे-धीरे चांद की सतह की तरफ बढ़ने लगा।

चांग ई-5 मिशन से पहले चीन ने दो और मून मिशन भेजे थे, साल 2013 में चांग ई-3 और 2019 में चांग ई-4 मून मिशन। इन दोनों में एक लैंडर के साथ-साथ एक छोटा मून रोवर शामिल किया गया था।

अब तक मून मिशन के दौरान अमेरिकी अपोलो अंतरिक्षयान से चांद पर गए अंतरिक्षयात्रियों और सोवियत रूस के रोबोटिक लूना कार्यक्रम ने चांद की सतह से क़रीब 400 किलो तक मिट्टी और पत्थर जमा किए हैं, लेकिन अधिकतर वो मिशन थे जिनमें अंतरिक्षयात्री शामिल थे।

चांद से लाए ये सभी नमूने क़रीब तीन अरब साल पुराने हैं।

माना जा रहा है कि मॉन्स रूमकेर से लाए गए नमूनों की उम्र 1.2 से 1.3 अरब साल होगी, यानी वो पहले लाए गए नमूनों की अपेक्षा नए होंगे।  जानकारों का मानना है कि इससे चांद के भूवैज्ञानिक इतिहास के बारे में अधिक जानकारी मिल सकेगी।  

इन नमूनों की मदद से वैज्ञानिकों को सटीक रूप से 'क्रोनोमीटर' तैयार करने में भी मदद मिलेगी जिससे सौर मंडल के ग्रहों के सतहों की उम्र को जाना जाता है।

ये किसी ग्रह या उपग्रह की सतह पर मौजूद ज्वालामुखी की संख्या पर निर्भर करता है। वैज्ञानिकों के अनुसार जिस ग्रह की सतह पर अधिक ज्वालामुखी होंगे वो अधिक पुरानी होगी यानी उसकी उम्र अधिक होगी।  हालांकि इसके लिए अलग-अलग जगहों को देखा जाना ज़रूरी होता है।

अपोलो और लूना मिशन के भेजे गए नमूनों से 'क्रोनोमीटर' तैयार करने में वैज्ञानिकों को काफी मदद मिली थी। अब चांग ई-5 मिशन के भेजे नमूनों से उन्हें इसे और सटीक रूप से विकसित करने में मदद मिलेगी।

चीन से मिल रही ख़बरों के अनुसार चांद की सतह से नमूने इकट्ठा करने का काम कुछ दिनों तक ही किया जाएगा और नमूनों को चांद की कक्षा में पहले से ही मौजूद सर्विस व्हीकल और रिटर्न मॉड्यूल तक पहुंचाया जाएगा।

योजना के अनुसार रिटर्न मॉड्यूल मंगोलिया के भीतरी इलाक़े में सिज़िवांग गे घास के मैदानों में लैंड कर सकता है। इसी के साथ चीन के अंतरिक्षयात्री भी वापस लौट आएंगे।

यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी में ह्यूमन एंड रोबोटिक एक्सप्लोरेशन के विज्ञान समन्वयक डॉक्टर जेम्स कार्पेन्टर का कहना है कि चांग ई-5 बेहद जटिल मिशन है।

वो कहते हैं, ''मुझे लगता है कि वो जो कर रहे हैं वो शानदार काम है। उन्होंने चांग ई के पहले मिशन से लेकर अब तक सुनियोजित तरीके से एक के बाद एक कदम उठाए है और अंतरिक्ष की खोज से जुड़ी अपनी काबिलियत को बढ़ाया है।''

हाइपरसोनिक टेक्नोलॉजी डेमोनस्ट्रेटर व्हीकल: हाइपरसोनिक स्क्रैमजेट तकनीक से भारत को क्या हासिल होगा?

भारत ने 7 सितंबर 2020 को ओडिशा के तट से हाइपरसोनिक स्क्रैमजेट तकनीक का परीक्षण किया जिसे रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) ने विकसित किया है।

भारत में रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) ने हाइपरसोनिक तकनीक का सफलतापूर्वक परीक्षण किया है।

भारत में तैयार किए गए हाइपरसोनिक टेक्नोलॉजी डेमोनस्ट्रेटर व्हीकल (एचएसटीडीवी) का लंबी दूरी की मिसाइलों और हाइपरसोनिक मिसाइलों को ले जाने के लिए इस्तेमाल किया जाएगा।

7 सितंबर 2020 को उड़ीसा के व्हीलर आइलैंड स्थित डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम प्रक्षेपण केंद्र से इसे सफलतापूर्वक भेजा गया।

डीआरडीओ ने इस मौक़े पर कहा कि इस मिशन के ज़रिए डीआरडीओ ने जटिल तकनीक को लेकर अपनी क्षमता दिखाई है और ये नेक्सटजेन (उन्नत) हाइपरसोनिक व्हीकल बनाने के लिए एक नींव की तरह काम करेगा।

डीआरडीओ ने हाइपरसोनिक टेक्नोलॉजी डेमॉन्स्ट्रेशन व्हीकल का इस्तेमाल कर एक मिसाइल दाग़ा जिसने वायुमंडल में जाकर माक-6 तक की स्पीड हासिल कर ली।

डीआरडीओ ने इसे रक्षा तकनीक के मामले में बड़ी उपलब्धि बताया है। लेकिन ये तकनीक क्या है? भारत के रक्षातंत्र में ये कैसे मददग़ार होगा?

हाइपरसोनिक स्पीड क्या है?

ये एक ऐसी तकनीक है जिसमें किसी मिसाइल को हाइपरसोनिक स्पीड से छोड़ा जा सकता है।

पॉपुलर मेकैनिक्स के अनुसार विज्ञान की भाषा में हाइपरसोनिक को 'सुपरसोनिक ऑन स्टेरायड्स' कहा जाता है यानी तेज़ गति से भी अधिक तेज़ गति।

सुपरसोनिक का मतलब होता है ध्वनि की गति से तेज़ (माक-1) और हाइपरसोनिक स्पीड का मतलब है सुपरसोनिक से भी कम से कम पांच गुना अधिक की गति। इसकी गति को माक-5 कहते हैं, यानी आवाज़ की गति से पांच गुना ज़्यादा की स्पीड।

हाइपरसोनिक स्पीड वो गति होती है जहां तेज़ी से जा रही वस्तु के आसपास की हवा में मौजूद अणु के मॉलिक्यूल भी टूट कर बिखरने लगते हैं।

डीआरडीओ का कहना है कि जिस यान का प्रक्षेपण हुआ है वो पहले आसमान में 30 किलोमीटर ऊपर तक गया, और फिर उसने माक-6 की स्पीड पकड़ी।

स्क्रैमजेट तकनीक क्या है?

भारत के वैज्ञानिक गौहर रज़ा बताते हैं ये समझने से पहले हमें न्यूटन के सिद्धातों में से एक अहम सिद्धांत के बारे में पहले जानना होगा।

न्यूटन की गति के सिद्धांत का तीसरा सिद्धांत कहता है कि 'प्रत्येक क्रिया के बदले हमेशा और विपरीत प्रतिक्रिया होती है'। इसका मतलब ये कि रॉकेट के भीतर जब ईंधन जलाया जाता है और उसकी गैस बाहर निकलती तो इसकी प्रतिक्रिया स्परूप रॉकेट (व्हीकल) को एक तेज धक्का लगता है जो उसकी स्पीड को बढ़ा देता है। इसी को जेट प्रोपल्शन कहते हैं।

शुरूआती दौर में जो जेट बने उनमें ऑक्सीजन और हाइड्रोजन मिला कर बने ईंधन को जलाया जाता है और इसके लिए रॉकेट के भीतर ईंधन रखना होता है।

1960 के दशक में एक ऐसी तकनीक के बारे में सोचा गया जिसमें ईंधन जलाने के लिए ऑक्सीजन रॉकेट में न रख कर वायुमंडल से लिया जा सके। इस तकनीक को रैमजेट तकनीक कहा गया।

1991 तक पहुंचते-पहुंचते तत्कालीन सोवियत संघ ने साबित किया कि अधिक स्पीड पर ऑक्सीजन बाहर से न लेकर सोनिक स्पीड तक पहुंचा जा सकता है लेकिन सुपरसोनिक स्पीड तक पहुंचना मश्किल होता है, इसके लिए हमें स्क्रैमजेट तकनीक की ज़रूरत पड़ेगी।

इस नई तकनीक में रॉकेट वायुमंडल से ऑक्सीजन लेता है और अपनी स्पीड बढ़ाता है। इसका लाभ ये होता है कि रॉकेट में दोगुना ईंधन भरने की ज़रूरत नहीं रह जाती।

लेकिन इस तकनीक का इस्तेमाल केवल वायुमंडल के भीतर हो सकता है। अगर रॉकेट वायुमंडल से बार निकल जाए तो ये तकनीक नाकाम होने का ख़तरा होता है। ये तकनीक सबसे पहले सोवियत संघ ने 1991 में इस्तेमाल कर माक की स्पीड हासिल करने का दावा किया।

सोवियत संघ के परीक्षण के कई सालों बाद अमरीका ने इस तकनीक का सफल परीक्षण किया जिसके बाद चीन ने इसका सफल परीक्षण किया है।

ऐसे में भारत स्क्रैमजेट तकनीक का इस्तेमाल करने वाला दुनिया का चौथा देश बन गया है।

स्क्रैमजेट तकनीक का इस्तेमाल

इस तकनीक का इस्तेमाल रॉकेट में और मिसाइल में किया जा सकता है। किसी भी मिसाइल में तीन बातें अहम होती हैं -

स्पीड - मिसाइल कितनी स्पीड तक पहुंच पाती है? स्क्रैमजेट तकनीक मिसाइल को कितना मज़बूत धक्का देकर आगे बढ़ा सकती है? अगर धक्का इतना मज़बूत हुआ कि वो मिसाइल को वायुमंडल से बाहर लेकर चला गया तो वहां ऑक्सीजन नहीं मिलेगा और वो बेकार हो जाएगी।

ईंधन जलने का वक्त - ईंधन कितनी देर तक जलता है? वो मिसाइल की स्पीड को कितनी देर तक बरकरार रख पा रहा है? मोटै तौर पर कहा जाए तो ईंधन कितनी देर तक जलता रह सकता है?

लक्ष्य तक मार करने की क्षमता - ये तकनीक मिसाइल या रॉकेट को अपने लक्ष्य तक ठीक से पहुंचा पा रहा है या नहीं क्योंकि तेज़ गति के साथ लक्ष्य पर सटीक मार करना मुश्किल हो सकता है। इतनी स्पीड पर ट्रैक करना भी मुश्किल होता है। जब मिसाइल व्हीकल से अलग होता है तब वो ठीक से अलग हो और सही निशाने पर जाए ये बेहद ज़रूरी है।

गौहर रज़ा कहते हैं कि इस तकनीक से भारत को दो बड़े फायदे होंगे। पहला तो ये कि रक्षा क्षेत्र में इसका बहुत योगदान होगा क्योंकि मिसाइल के लक्ष्य तक पहुंचने का समय कम हो जाएगा।

दूसरा ये कि रॉकेट भेजने के वक्त ईंधन बचाना भी अब संभव हो सकेगा, ख़ास कर तब तक जब तक रॉकेट वायुमंडल में है। इससे व्हीकल का वज़न कम होगा।

कोरोना वैक्सीन: क्या कोविड-19 टेस्ट का नतीजा ग़लत भी आ सकता है?

वैज्ञानिकों का कहना है कि मानव शरीर में कोरोना वायरस का टेस्ट करने का जो सबसे महत्वपूर्ण तरीका है वो इतना संवेदनशील है कि इसमें पहले हुए संक्रमण के मृत वायरस या उनके टुकड़े भी मिल सकते हैं।

वैज्ञानिकों का मानना है कि कोरोना वायरस से व्यक्ति क़रीब एक सप्ताह तक संक्रमित रहता है लेकिन इसके बाद भी कई सप्ताह तक उसका कोरोना टेस्ट पॉज़िटिव आ सकता है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि इसका कारण ये भी हो सकता है कि कोरोना महामारी के पैमाने पर जिन आंकड़ों की बात हो रही है वो अनुमान से अधिक हों।

हालांकि कुछ विशेषज्ञ कहते हैं कि कोरोना की जांच के लिए एक भरोसेमंद जांच का तरीका कैसे निकाला जाए जिसमें संक्रमण का हर मामला दर्ज हो सके, ये अब तक तय नहीं हो सका है।

इस शोध में शामिल एक शोधकर्ता प्रोफ़ेसर कार्ल हेनेगन कहते हैं टेस्ट के नए तरीके में ज़ोर वायरस के मिलने या न मिलने पर न होकर एक कट-ऑफ़ पॉइंट पर यानी एक निश्चित बिंदु पर होना चाहिए जो ये इशारा करे कि उस मात्रा में कम वायरस के होने से टेस्ट का नतीजा नेगेटिव आ सकता है।

वो मानते हैं कोरोना वायरस के टेस्ट में पुराने वायरस के अंश या टुकड़े मिलना एक तरह ये समझाने में मदद करता है कि संक्रमण के मामले क्यों लगातार बढ़ रहे हैं जबकि अस्पतालों में पहुंच रहे लोगों की संख्या लगातार कम हो रही है।

ऑक्सफ़र्ड यूनिवर्सिटी के सेन्टर ऑफ़ एविडेन्स बेस्ड मेडिसिन ने इस संबंध में 25 स्टडी से मिले सबूतों की समीक्षा की, पॉज़िटिव टेस्ट में मिले वायरस के नमूनों को पेट्री डिश में डालकर देखा गया कि क्या वायरस की संख्या वहां बढ़ रही है?

इस तरीके को वैज्ञानिक 'वाइरल कल्चरिंग' कहते हैं जो ये बता सकता है कि जो टेस्ट किया गया है उसमें ऐसा एक्टिव वायरस मिला है जो अपनी संख्या बढ़ाने में सक्षम है या फिर मृत वायरस या उसके टुकड़े मिले हैं जिन्हें लेबोरेट्री में ग्रो नहीं किया जा सकता।

बीबीसी स्वास्थ्य संवाददाता निक ट्रिगल का विश्लेषण

महामारी की शुरूआत के दौर से ही वैज्ञानिक वायरस टेस्ट से जुड़ी इस मुश्किल के बारे में जानते हैं और ये एक बार फिर दर्शाता है कि क्यों कोविड-19 के जो आंकड़े सामने आ रहे हैं वो सही आंकड़े नहीं है?

लेकिन इससे फर्क क्या पड़ता है? महामारी की शुरुआत में आंकड़े कम उपलब्ध थे लेकिन जैसे-जैसे समय गुज़रता गया अधिक आंकड़े मिलते गए। टेस्टिंग और आर नंबर को लेकर बड़ी मात्रा में आ रही जानकारी से कंफ्यूज़न बढ़ा है।

लेकिन ये बात सच है कि पूरे ब्रिटेन में देखें तो कोरोना संक्रमण के मामले कई यूरोपीय देशों की तुलना में कम है। जहां तक बात स्थानीय स्तर पर संक्रमण के फैलने की है मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि उसे रोकने में हम कामयाब हुए हैं। और ये तब है जब गर्मियां आने के साथ लॉकडाउन में थोड़ी बहुत ढील दी जानी शुरू हो गई है।

लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अब सबसे बड़ा सवाल यही है कि आगे क्या होगा, सर्दियों के दिन आने वाले हैं और स्कूलों में भी बच्चों की पढ़ाई शुरू हो रही है।

ब्रिटेन में स्वास्थ्यकर्मी ये मान रहे हैं कि देश फिलहाल मज़बूत स्थिति में है और ऐसा लग रहा है कि आने वाले महीनों में संक्रमण के अधिक मामलों से अब बचा जा सकता है।

लेकिन इसे लेकर सरकार और लोग सभी सावधानी भी बरत रहे हैं क्योंकि माना जा रहा है कि इसे गंभीरता से न लेने पर महामारी का एक और दौर शुरू हो सकता है।

कोविड-19 का टेस्ट कैसे होता है?

बताया जाता है कोरोना वायरस टेस्टिंग का एक कारगर तरीका पीसीआर स्वैब टेस्ट है जिसमें कैमिकल के इस्तेमाल से वायरस के जेनेटिक मटीरियल को पहचानने की कोशिश की जाती है और फिर इसका अध्ययन किया जाता है।

पर्याप्त वायरस मिलने से पहले लेबोरेटरी में परीक्षण नमूने को कई चक्रों से होकर गुजरना पड़ता है।

कितनी बार में वायरस बरामद किया गया ये बताता है कि शरीर में कितनी मात्रा में वायरस है, वायरस के अंश हैं या फिर पूरा का पूरा वायरस है।

ये इस बात की ओर भी ईशारा करता है कि जो वायरस शरीर में है वो कितना संक्रामक है। माना जाता है कि अगर टेस्ट करते वक़्त वायरस पाने के लिए अधिक बार कोशिश हुई तो उस वायरस के लेबोरेटरी में बढ़ने की गुंजाइश कम होती है।

ग़लत टेस्ट नतीजे का जोखिम

लेकिन जब कोरोना वायरस के लिए आपका टेस्ट होता है तो आपको अक्सर हां या ना में जवाब मिलता है। नमूने में वायरस की मात्रा कितनी है और मामला एक्टिव संक्रमण का है या नहीं। टेस्ट से ये पता नहीं चल पाता।

जिन व्यक्ति के शरीर में बड़ी मात्रा में एक्टिव वायरस है और जिसके शरीर के नमूने में सिर्फ मृत वायरस के टुकड़े मिले हैं - दोनों के टेस्ट के नतीजे पॉज़िटिव ही आएंगे।

प्रोफ़ेसर हेनेगन उन लोगों में शामिल हैं जिन्होंने कोरोना से हो रही मौतों के आंकड़े किस तरह से दर्ज किए जा रहे हैं उसके बारे में जानकारी इकट्ठा की है। इसी के आधार पर पब्लिक हेल्थ इंग्लैंड ने आंकड़े रखने के अपने तरीके में सुधार किया है।

उनके अनुसार अब तक जो तथ्य मिले हैं उसके अनुसार कोरोना वायरस के संक्रमण का असर ''एक सप्ताह के बाद अपने आप कम होने लगता है।''

वो कहते हैं कि ये देखना संभव नहीं होगा कि टेस्ट किए गए हर नमूने में ऐक्टिव वायरस मिला या नहीं। ऐसे में यदि वैज्ञानिक टेस्टिंग में वायरस की मात्रा को लेकर कोई कट-ऑफ़ मार्क की पहचान कर सकें तो ग़लत पॉज़िटिव नतीजे आने के मामलों को कम किया जा सकता है।

इससे पुराने संक्रमण के मामलों के पॉज़िटिव आने की दर कम होगी और कुल संक्रमण के आंकड़े भी कम हो जाएंगे।

प्रोफ़ेसर हेनेगन कहते हैं कि इससे कई ऐसे लोगों को मदद मिलेगी जो टेस्टिंग के आधार पर खुद को बिना वजह क्वारंटीन कर रहे हैं और कोरोना महामारी की मौजूदा वास्तविक स्थिति को समझने में मदद मिल सकती है।

पब्लिक हेल्थ इंग्लैंड का मानना है कि कोरोना वायरस टेस्ट का सही नतीजा वायरस कल्चर के ज़रिए मिल सकता है।

संगठन का कहना है कि वो हाल में इस दिशा में विश्लेषण भी कर रहे हैं और ग़लत पॉज़िटिव नतीजों के जोखिम से बचने के लिए लेबोरेटरीज़ के साथ मिल कर काम कर रहे हैं। उनकी ये भी कोशिश है कि टेस्टिंग के लिए कट-ऑफ़ प्वाइंट कैसे तय किया जा सकता है?  

हालांकि संगठन का ये भी कहना है कि कोरोना की टेस्ट के लिए कई अलग तरह के टेस्टिंग किट इस्तेमाल में हैं, इन किट्स के इस्तेमाल से मिलने वाले नतीजों को अलग तरीकों से समझा जाता है इस कारण एक निश्चित कट-ऑफ़ प्वाइंट पर पहुंचना मुश्किल है।

लेकिन यूनिवर्सिटी ऑफ़ रीडिंग के प्रोफ़ेसर बेन न्यूमैन कहते हैं कि मरीज़ के नमूने को कल्चर करना कोई 'छोटा काम' नहीं है।

वो कहते हैं, ''इस तरह की समीक्षा से ग़लत तरीके से सार्स-सीओवी-2 वायरस के कल्चर को इसके संक्रमण फ़ैलाने की संभावना से जोड़ कर देखा जा सकता है।''

मार्च में कोरोना वायरस से बुरी तरह प्रभावित इटली के इलाक़े एमिलिया-रोमाग्ना में काम करने वाले महामारी विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर फ्रांसेस्को वेन्टुरेली का कहना है, ''ये निश्चित नहीं है'' कि कोरोना से ठीक होने के बाद वायरस कितनी देर तक संक्रामक रह सकता है।

वे कहते हैं कि वायरल कल्चर पर की गई कुछ स्टडीज़ के अनुसार क़रीब 10 फ़ीसदी लोगों के शरीर में संक्रमण से ठीक होने के आठ दिन बाद भी वायरस पाए गए हैं।

वो कहते हैं कि कोरोना महामारी का पीक इटली में ब्रिटेन से पहले आया था और यहां ''कई सप्ताह तक हम कोरोना संक्रमण के मामलों का वास्तविकता से ज़्यादा आकलन कर रहे थे। ऐसा इसलिए क्योंकि जिन लोगों को पहले संक्रमण हो चुका था ठीक होने के बाद भी उनके नतीजे पॉज़िटिव आ रहे थे।''

लेकिन जैसे-जैसे पीक कम होता जाता है ये स्थिति भी सुधरती जाती है।

लंदन के इंपीरियल कॉलेज के प्रोफ़ेसर ओपेनशॉ कहते हैं कि पीसीआर टेस्ट ''शरीर में बच गए वायरस के जेनेटिक मटीरियल का पहचान का'' बेहद संवेदनशील तरीका है।

वे कहते हैं, ''ये टेस्ट कोरोना वायरस की संक्रामकता का सबूत नहीं है।  लेकिन डॉक्टरों का मानना है कि इस बात की संभावना बेहद कम है कि संक्रमण के दस दिन बाद भी व्यक्ति से शरीर में वायरस संक्रामक हो।''

कोरोना महामारी: क्या नवंबर में आने वाला कोरोना वैक्सीन सुरक्षित होगा?

वैज्ञानिकों पर जल्द-से-जल्द कोरोना वायरस की प्रभावकारी वैक्सीन बनाने का भारी दबाव है।

सोशल डिस्टैंसिंग से वायरस के फैलने की रफ़्तार को क़ाबू किया जा सकता है, मगर जानकारों को लगता है कि महामारी पर रोक लगाने का एकमात्र उपाय वैक्सीन है।

लेकिन, ऐसी बहुत सारी वैक्सीन होती हैं जो आरंभ में तो काफ़ी उम्मीद जगाती हैं, मगर जब ज़्यादा लोगों पर टेस्ट किया जाता है तो नाकाम साबित होती हैं।

इन परीक्षणों में इस कथित थर्ड फ़ेज़ का बड़ा महत्व होता है, क्योंकि ये वो चरण होता है जिसमें पता चलता है कि वैक्सीन का कोई साइड इफ़ेक्ट हो रहा है कि नहीं।

वैक्सीन करता क्या है? वो दरअसल इंसानों की प्रतिरोधी क्षमता को बढ़ा देता है जिससे वो बीमारियाँ पैदा करने वाले वायरस पर हमला कर उसे नष्ट कर देता है।

लेकिन, प्रतिरोधी क्षमता अगर ग़लत तरीक़े से बढ़ी तो उससे समस्याएँ सुलझने की जगह और बढ़ सकती हैं।

यही वजह है कि वैक्सीनों के परीक्षण को लेकर सख़्त नियम और दिशानिर्देश बनाए गए हैं, और इनकी अवहेलना करना ख़तरनाक हो सकता है।

ब्रिटेन में, ऐसा विचार चल रहा है कि अगर नए साल से पहले कोई वैक्सीन आ जाती है, तो बग़ैर लाइसेंस के ही उसके इस्तेमाल किए जाने को लेकर नए नियम लाए जाएँ। लेकिन तब भी, सुरक्षा के सख़्त मानदंडों का पालन करना होगा।

बिना ठीक से परीक्षण किए किसी वैक्सीन के इस्तेमाल के ख़तरे क्या हो सकते हैं, इसका उदाहरण 2009 की एक घटना से मिलता है, जब एचवनएनवन स्वाइन फ़्लू के लिए पैन्डेमरिक्स नाम के एक जल्दी से बनाए गए टीके का इस्तेमाल हुआ और इससे लोगों को नार्कोलेप्सी नाम की नींद की बीमारी होने लगी।

टीके को लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दिया बड़ा बयान

विश्व स्वास्थ्य संगठन को उम्मीद नहीं है कि अगले साल यानी साल 2021 तक भी कोविड 19 से सुरक्षा के लिहाज़ से बड़े स्तर पर टीकाकरण हो सकेगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्रवक्ता ने शुक्रवार को जांच कराने के महत्व पर विशेष बल दिया।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्रवक्ता मार्गरेट हैरिस ने कहा कि अभी तक एडवांस क्लीनिकल स्टेज के किसी भी टीके के लिए यह नहीं कहा जा सकता है कि यह पूरी तरह प्रभावी है। किसी भी टीके ने अब तक पचास फ़ीसदी प्रभावकारिता के संकेत भी नहीं दिये हैं।

जेनेवा में एक ब्रीफ़िंग के दौरान उन्होंने कहा कि हम वास्तव में अगले साल के मध्य तक व्यापक टीकाकरण देखने की उम्मीद नहीं कर रहे हैं।