विज्ञान और टेक्नोलॉजी

पर्सिवियरेंस रोवर मंगल ग्रह पर उतरा: मंगल पर जीवन की खोज करेगा

अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा का अंतरिक्षयान पर्सिवियरेंस मंगल ग्रह की सतह पर उतर चुका है।

मंगल तक पहुंचने के लिए सात महीने पहले धरती से गए इस अंतरिक्षयान ने तक़रीबन आधा अरब किलोमीटर की दूरी तय की है। 'पर्सिवियरेंस रोवर' मंगल ग्रह पर एक गहरे क्रेटर यानी गड्ढ़े में उतरा है जो कि मंगल ग्रह की भूमध्य रेखा जेज़ेरो के नज़दीक है।

मंगल ग्रह की सतह पर उतरने के बाद रोवर ने एक तस्वीर ट्वीट की है। ये रोवर एक पुरानी सूख चुकी झील की ज़मीन की जांच करने के साथ-साथ अरबों साल पहले मंगल पर माइक्रो-ऑर्गानिज़्म्स की किसी भी गतिविधि यानी जीवन के होने के चिन्हों की जांच करेगा और उन्हें पृथ्वी पर भेजेगा।

ये अंतरिक्षयान जैस ही मंगल ग्रह की ज़मीन पर उतरा, वैसे ही नासा के कंट्रोल सेंटर में बैठे वैज्ञानिकों के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई। 1970 के बाद नासा का यह पहला मिशन है जो मंगल ग्रह पर जीवन के निशान तलाशने के लिए गया है।

मिशन के डिप्टी प्रोजेक्ट मैनेजर मैट वालेस ने कहा, ''अंतरिक्षयान की अच्छी ख़बर ये है कि मुझे लगता है कि ये बिल्कुल सही हालत में है।''

छह पहियों वाला ये रोवर आगामी 25 महीनों में मंगल के पत्थरों और चट्टानों की खुदाई करेगा ताकि उन सबूतों को तलाशा जा सके जो इस बात की ओर इशारा करते हों कि यहां कभी जीवन संभव था।

ऐसा माना जाता है कि अरबों साल पहले जेज़ेरो के पास एक विशाल झील हुआ करती थी। और जहां पानी होता है, वहां इस बात की संभावना रहती है कि वहां कभी जीवन भी रहा होगा।

नासा में अंतरिक्षयान नियंत्रित करने वालों को संकेत मिले थे कि 'पर्सिवियरेंस रोवर' शाम 8:55 (जीएमटी) पर सुरक्षित मंगल ग्रह पर उतर चुका है।

सामान्य दिन होते तो खुशी के मौक़े पर वो संभवत: गले मिलते और हाथ मिलाते। लेकिन कोरोना वायरस प्रोटोकॉल की वजह से यहां सोशल डिस्टेंस का पालन किया जा रहा है। हालांकि, मिशन के सदस्यों ने एक दूसरे से मुट्ठियां लड़ाकर अपनी ख़ुशी का इज़हार किया।

इसके बाद रोवर के इंजीनियरिंग कैमरों की ओर से ली गई मंगल की दो लो-रिज़ॉल्युशन तस्वीरें स्क्रीन पर सामने आईं। तस्वीरों से पता चलता है कि कैमरे के लेंस के आगे काफ़ी धूल जमी थी लेकिन रोवर के सामने और पीछे समतल ज़मीन दिखाई दी।

लैंडिंग के बाद किए गए विश्लेषण में सामने आया है कि रोवर जेज़ेरो में डेल्टा क्षेत्र के दक्षिणपूर्वी हिस्से की ओर दो किलोमीटर का सफर तय कर चुका है।

लैंडिंग टीम का नेतृत्व करने वाले एलन चैन कहते हैं, ''हमारा रोवर समतल क्षेत्र में है। अब तक वाहन 1.2 डिग्री पर झुका है। हमें रोवर को उतारने के लिए जगह मिल गई और हमने आसानी से अपना रोवर ग्राउंड पर उतार दिया। इस उल्लेखनीय काम के लिए मैं अपनी टीम पर बहुत गर्व करता हूं।''

नासा के अंतरिम प्रशासक स्टीव जर्केज़्क ने भी इस सफलता के लिए वैज्ञानिकों की टीम को बधाई दी है।

उन्होंने कहा है, ''टीम ने बेहतरीन काम किया है। कितनी शानदार टीम है ये जिसने सीओवीआईडी-19 की चुनौतियों के बीच रोवर को मंगल ग्रह पर उतारने की मुश्किलों पर पार पाते हुए ये काम कर दिखाया।''

नासा की जेट प्रोपल्शन लैब के निदेशक माइक वाटकिंस ने कहा है, ''हमारे लिए ये शुरुआती दिन बेहद ख़ास हैं क्योंकि हमने इस रोवर के रूप में पृथ्वी के एक प्रतिनिधि को मंगल ग्रह पर ऐसी जगह पर उतारा है, जहां पहले कोई कभी नहीं गया।''

मंगल ग्रह पर उतरना कभी आसान नहीं रहा। लेकिन नासा इस मामले में विशेषज्ञ की तरह बन चुकी है। हालांकि, पर्सिवियरेंस टीम ने गुरुवार, 18 फरवरी 2021 को अपने काम को लेकर बेहद संभल कर बात की।

अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा की ओर से मंगल ग्रह पर उतारा गया ये दूसरा एक टन वज़न का रोवर है।

मंगल ग्रह पर हेलिकॉप्टर उड़ेगा?

इससे पहले क्युरियोसिटी रोवर को साल 2012 में मंगल ग्रह के एक दूसरे क्रेटर पर उतारा गया था।

नियंत्रक आने वाले दिनों में एक नये रोवर पर काम करेंगे और देखने की कोशिश करेंगे कि कहीं ज़मीन पर उतरने की प्रक्रिया में रोवर का कोई पुर्जा क्षतिग्रस्त तो नहीं हो गया है।

तस्वीरें लेने के लिए पर्सिवियरेंस का मास्ट और इसका मुख्य कैमरा सिस्टम ऊपर की तरफ उठा हुआ होना चाहिए। साथ ही रोवर को एक ख़ास सॉफ़्टवेयर के ज़रिए मंगल तक पहुंचाया गया है, इस सॉफ़्टवेयर को भी अब बदला जाना होगा ताकि रोवर को मंगल की सतह पर चलाने का प्रोग्राम चालू किया जा सके।

इसके साथ ही पर्सिवियरेंस से उम्मीद है कि वह अगले हफ़्ते में मंगल ग्रह के सतह की कई तस्वीरें लेगा ताकि वैज्ञानिक आसपास के इलाक़े को बेहतर समझ सकें।

इस रोवर का एक उद्देश्य मंगल पर कम वज़न वाले एक हेलिकॉप्टर को उड़ाना भी है। पर्सिवियरेंस अपने साथ एक छोटे से हेलिकॉप्टर को लेकर गया है। रोवर इस हेलिकॉप्टर को उड़ाने का प्रयास करेगा जो कि किसी अन्य ग्रह पर इस तरह की पहली उड़ान होगी।

मंगल ग्रह के लिहाज़ से ये राइट ब्रदर्स मूमेंट जैसा लम्हा हो सकता है, ठीक वैसा जब पृथ्वी पर राइट बंधुओं ने पहली बार उड़ान भरी थी और उड़ने की संभावना के सपने को साकार किया था।

इसके बाद ही रोबोट इस मिशन के मुख्य काम करने की शुरुआत करेगा और जेज़ेरो में उस ओर जाएगा जहां डेल्टा क्षेत्र है।

डेल्टा क्षेत्र नदियों द्वारा बनाए जाते हैं जब वे समुद्र में गिरते हुए अपने साथ लाये सेडिमेंट्स को किनारे पर छोड़ देती हैं। वैज्ञानिक उम्मीद कर रहे हैं कि जेज़ेरो के डेल्टा इन सेडिमेंट्स से बने हैं, जो कि किसी भी क्षेत्र में कभी जीवन होने के बड़े संकेत हो सकते हैं।

पर्सिवियरेंस डेल्टा का सैंपल लेगा और क्रेटर के किनारे की ओर बढ़ेगा।

सैटेलाइट्स के ज़रिए की गई छानबीन में पता चला है कि इस जगह पर कार्बोनेट रॉक्स हैं जो कि पृथ्वी पर जैविक प्रक्रियाओं को समाहित रखने में काफ़ी अच्छे माने जाते हैं।

पर्सिवियरेंस रोवर में वे सभी उपकरण हैं जो कि इन सभी संरचनाओं का गहनता के साथ माइक्रोस्कोपिक स्तर तक अध्ययन कर सकते हैं।

जेज़ेरो क्रेटर ख़ास क्यों है?

मंगल ग्रह पर मौजूद पैंतालीस किलोमीटर चौड़े क्रेटर का नाम बोस्निया - हरज़ेगोविना के एक कस्बे के नाम पर रखा गया है। स्लोविक भाषा में जेज़ेरो शब्द का अर्थ झील होता हैं जो कि इस नाम में विशेष रुचि होने की वजह बताने के लिए काफ़ी है।

जेज़ेरो में कई तरह की चट्टानें होती हैं जिनमें चिकनी मिट्टी और कार्बोनेट चट्टानें होते हैं। इनमें ऑर्गेनिक मॉलिक्यूल्स को सहेजने की क्षमता होती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि मंगल के जेज़ेरो में उन्हें वो मॉलिक्यूल मिल सकते हैं जो वहां जीवन के संकेतों के बारे में बता सकते हैं।

इसमें वो सेडिमेंट्स अहम हैं जिन्हें 'बाथटब रिंग' कहा जा रहा है। वैज्ञानिकों के अनुसार ये मंगल ग्रह की पुरानी झील का तटीय क्षेत्र रहा होगा। इस जगह पर पर्सिवियरेंस को वो सेडिमेंट्स मिल सकते हैं जिन्हें पृथ्वी पर स्ट्रोमेटोलाइटिस कहते हैं।

अमेरिकी प्रांत इंडियाना के वेस्ट लफ़ायेट इलाक़े में स्थित परड्यू यूनिवर्सिटी से जुड़ीं साइंस टीम की सदस्य डॉ. ब्रायनी हॉर्गन कहती हैं, ''कुछ झीलों में आपको माइक्रोबियल मैट्स मिलती हैं और कार्बोनेट्स आपस में इंटरेक्ट करते हैं जिससे बड़ी संरचनाएं जन्म लेती हैं। और ये परत दर परत ढेर (माउल्ड) पैदा होते हैं। अगर हमें जेज़ेरो में ऐसी कोई संरचना मिलती है तो हम सीधे उसी ओर जाएंगे। क्योंकि ये मार्स की एस्ट्रोबायलॉजी के रहस्यों की खान साबित हो सकते हैं।''

पर्सिवियरेंस जिन दिलचस्प चट्टानों को खोजेगा, उनके कुछ हिस्सों को ज़मीन पर बायीं ओर रखीं पतली ट्यूब्स में रखेगा।

नासा और यूरोपियन स्पेस एजेंसी ने एक योजना बनाई है जिसके तहत इन सिलेंडरों को वापस पृथ्वी पर लाया जाएगा। इस परियोजना में काफ़ी धन खर्च होगा।

ये एक काफ़ी जटिल प्रयास होगा जिसमें एक अन्य रोवर, एक मार्स रोवर, और एक विशालकाय सैटेलाइट का इस्तेमाल किया जाएगा ताकि जेज़ेरो की चट्टानों को पृथ्वी तक लाया जा सके।

वैज्ञानिक मानते हैं कि मार्स को समझने के लिए इन सैंपल्स को वापस लाना तार्किक कदम है। अगर पर्सिवियरेंस को कोई ऐसी चीज़ मिलती है जो कि एक बायो-सिग्नेचर जैसी होती है, तब भी उस सबूत की जाँच की जाएगी।

ऐसे में उन चट्टानों को वापस लाकर पृथ्वी पर अत्याधुनिक ढंग से जांच की जाएगी जिससे मंगल ग्रह पर कभी जीवन होने या नहीं होने से जुड़े सभी कयासों पर विराम लग सके।

वैक्सीन राष्ट्रवाद: भारत में दो कोरोना वैक्सीन को मिली मंज़ूरी पर सवाल क्यों उठ रहे हैं?

भारत में ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ़ इंडिया (डीसीजीआई) ने 03 जनवरी 2021 को सीओवीआईडी- 19 के इलाज के लिए दो वैक्सीन के आपातकालीन इस्तेमाल की अनुमति दे दी।

ये दो वैक्सीन हैं- कोविशील्ड और कोवैक्सीन। कोविशील्ड जहां असल में ऑक्सफ़ोर्ड-एस्ट्राज़ेनेका का भारतीय संस्करण है वहीं कोवैक्सीन पूरी तरह भारत की अपनी वैक्सीन है जिसे स्वदेशी वैक्सीन भी कहा जा रहा है।

कोविशील्ड को भारत में सीरम इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया कंपनी बना रही है। वहीं, कोवैक्सीन को भारत बायोटेक कंपनी इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के साथ मिलकर बना रही है।

ऑक्सफ़ोर्ड-एस्ट्राज़ेनेका की वैक्सीन कोविशील्ड को आपातकालीन इस्तेमाल की मंज़ूरी ब्रिटेन में मिलने के बाद ऐसी पूरी संभावना थी कि कोविशील्ड को भारत में मंज़ूरी मिल जाएगी और आख़िर में यह अनुमति मिल गई।

लेकिन इसके साथ ही और इतनी जल्दी कोवैक्सीन को भी भारत में अनुमति मिल जाएगी इसकी उम्मीद किसी को नहीं थी।

कोवैक्सीन को इतनी जल्दी अनुमति दिए जाने के बाद कांग्रेस पार्टी समेत कुछ स्वास्थ्यकर्मियों ने इस पर सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं।

03 जनवरी 2021 को कोविशील्ड और कोवैक्सीन को अनुमति दिए जाने के बाद कई लोगों ने सवाल उठाए कि दोनों वैक्सीन के तीसरे ट्रायल के आँकड़े जारी किए बिना अनुमति कैसे दे दी गई?

तीसरे चरण के ट्रायल में बड़ी संख्या में लोगों पर उस दवा को टेस्ट किया जाता है और फिर उससे आए परिणामों के आधार पर पता लगाया जाता है कि वो दवा कितने प्रतिशत लोगों पर असर कर रही है।

पूरी दुनिया में जिन तीन वैक्सीन फ़ाइज़र बायोएनटेक, ऑक्सफ़ोर्ड-एस्ट्राजे़नेका और मोडेर्ना की चर्चा है, उनके फ़ेस-3 ट्रायल के आँकड़े अलग-अलग हैं। ऑक्सफ़ोर्ड की वैक्सीन को 70 फ़ीसदी तक कारगर बताया गया है।

भारत में कोवैक्सीन के अलावा कोविशील्ड कितने लोगों पर कारगर है इस पर भी सवाल उठे हैं लेकिन ऑक्सफ़ोर्ड की वैक्सीन होने के कारण इसको उस शक की नज़र से नहीं दे खा जा रहा है जितना कोवैक्सीन को देखा जा रहा है।

कोविशील्ड के भारत में 1,600 वॉलंटियर्स पर हुए फ़ेस-3 के ट्रायल के आँकड़ों को भी जारी नहीं किया गया है। वहीं, कोवैक्सीन के फ़ेस एक और दो के ट्रायल में 800 वॉलंटियर्स पर इसका ट्रायल हुआ था जबकि तीसरे चरण के ट्रायल में 22,500 लोगों पर इसको आज़माने की बात कही गई है। लेकिन इनके आँकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए हैं।

कोवैक्सीन के आपातकालीन इस्तेमाल की अनुमति दिए जाने के बाद कांग्रेस नेता शशि थरूर ने ट्वीट करते हुए कहा कि कोवैक्सीन का अभी तक तीसरे चरण का ट्रायल नहीं हुआ है, बिना सोच-समझे अनुमति दी गई है जो कि ख़तरनाक हो सकती है।

उन्होंने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री को टैग करते हुए लिखा, ''डॉक्टर हर्षवर्धन कृपया इस बात को साफ़ कीजिए। सभी परीक्षण होने तक इसके इस्तेमाल से बचा जाना चाहिए। तब तक भारत एस्ट्राज़ेनेका की वैक्सीन के साथ शुरुआत कर सकता है।''

कांग्रेस नेता का यह ट्वीट करना ही था कि भारत में वैक्सीन पर सवाल उठने शुरू हो गए। कांग्रेस नेता जयराम रमेश और समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने भी कोवैक्सीन और लोगों के स्वास्थ्य को लेकर चिंताएं जताईं।

मुंबई में संक्रामक रोगों के शोधकर्ता डॉक्टर स्वप्निल पारिख कहते हैं कि डॉक्टर इस समय मुश्किल स्थिति में हैं।

उन्होंने कहा, ''मैं समझता हूं कि यह समय नियामक बाधाओं को दूर कर प्रक्रिया जल्द से जल्द पूरी करने का है।''

डॉक्टर पारिख ने कहा, ''सरकार और नियामकों को डेटा को लेकर पारदर्शी होने की ज़िम्मेदारी है, जिसकी उन्होंने वैक्सीन को अनुमति देने से पहले समीक्षा की, क्योंकि अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो ये लोगों के भरोसे को प्रभावित करेगा।''

विपक्ष और कई स्वास्थ्यकर्मियों के सवालों के बाद भारत के केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन सामने आए और उन्होंने लगातार कई ट्वीट करते हुए कोवैक्सीन के असरदार होने पर तर्क दिए।

सबसे पहले ट्वीट में उन्होंने लिखा, ''शशि थरूर, अखिलेश यादव और जयराम रमेश सीओवीआईडी-19 वैक्सीन को अनुमति देने के लिए विज्ञान समर्थित प्रोटोकॉल का पालन किया गया है।''

इसके बाद केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने कोवैक्सीन के समर्थन में कई तर्क देते हुए कई ट्वीट किए हालांकि उन्होंने तीसरे चरण के ट्रायल के आँकड़ों का ज़िक्र इन ट्वीट में नहीं किया।

उन्होंने लिखा कि पूरी दुनिया में वैक्सीन को जिन एनकोडिंग स्पाइक प्रोटीन के आधार पर अनुमति दी जा रही है जिसका असर 90 फ़ीसदी तक है वहीं कोवैक्सीन में निष्क्रिय वायरस के आधार पर स्पाइक प्रोटीन के अलावा अन्य एंटीजेनिक एपिसोड होते हैं तो यह सुरक्षित होते हुए उतनी ही असरदार है जितना बाक़ियों ने बताया।

इसके साथ ही हर्षवर्धन ने बताया कि कोवैक्सीन कोरोना वायरस के नए वैरिएंट पर भी असरदार है।

हर्षवर्धन ने ट्वीट करके यह भी बताया कि कोवैक्सीन के आपातकालीन इस्तेमाल की मंज़ूरी (ईयूए) शर्तिया आधार पर दी गई है।

उन्होंने ट्वीट में लिखा, ''क्लीनिकल ट्रायल मोड में कोवैक्सीन के लिए ईयूए सशर्त दिया गया है। कोवैक्सीन को मिली ईयूए कोविशील्ड से बिलकुल अलग है क्योंकि यह क्लीनिकल ट्रायल मोड में इस्तेमाल होगी। कोवैक्सीन लेने वाले सभी लोगों को ट्रैक किया जाएगा उनकी मॉनिटरिंग होगी अगर वे ट्रायल में हैं।''

कोवैक्सीन बनाने वाली कंपनी भारत बायोटैक के चेयरमैन कृष्ण इल्ला ने बयान जारी किया है, ''हमारा लक्ष्य उन आबादी तक वैश्विक पहुंच प्रदान करना है, जिन्हें इसकी सबसे अधिक आवश्यकता है।''

उन्होंने बयान में कहा, ''कोवैक्सीन ने अद्भुत सुरक्षा आँकड़े दिए हैं जिसमें कई वायरल प्रोटीन ने मज़बूत प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया दी है।''

हालांकि, कंपनी और डीसीजीआई ने भी कोई ऐसे आंकड़े नहीं दिए हैं जो बता पाएं कि वैक्सीन कितनी असरदार और सुरक्षित है लेकिन समाचार एजेंसी रॉयटर्स से एक सूत्र ने बताया कि इस वैक्सीन की दो ख़ुराक का असर 60 फ़ीसदी से अधिक है।

दिल्ली एम्स के प्रमुख डॉक्टर रणदीप गुलेरिया ने एक समाचार चैनल से बातचीत में कहा है कि वो आपातकालीन स्थिति में कोवैक्सीन को एक बैकअप के रूप में देखते हैं और फ़िलहाल कोविशील्ड मुख्य वैक्सीन के रूप में इस्तेमाल होगी।

दिल्ली एम्स के निदेशक डॉ रणदीप गुलेरिया के बयान को न्यूज़ एजेंसी एएनआई ने ट्वीट किया, ''आपातकालीन स्थिति में जब मामलों में अचानक वृद्धि होती है और हमें टीकाकरण करने की आवश्यकता होती है, तो भारत बायोटेक वैक्सीन का उपयोग किया जाएगा। इसका उपयोग एक बैकअप के रूप में भी किया जा सकता है, जब हम यह सुनिश्चित नहीं करते हैं कि सीरम इंस्टीट्यूट का वैक्सीन कितना प्रभावी हो रहा है।''

गुलेरिया के इस बयान पर पत्रकार तवलीन सिंह ने रीट्वीट करते हुए लिखा है, ''इसका क्या मतलब है? अगर टीकाकरण को बैकअप की ज़रूरत है तो फिर वैक्सीन का क्या मतलब है।''

उन्होंने कहा कि तब तक कोवैक्सीन की और दवाएं तैयार होंगी और वो फ़ेज-3 के मज़बूत डेटा इस्तेमाल करेंगे जो बताएगा कि यह कितनी सुरक्षित और असरदार है लेकिन शुरुआती कुछ सप्ताह के लिए कोविशील्ड इस्तेमाल की जाएगी जिसकी पाँच करोड़ ख़ुराक मौजूद है।

कोवैक्सीन भारत की वैक्सीन है। जबकि कोविशील्ड भी भारत में बन रही है लेकिन वो मूल रूप से ऑक्सफ़ोर्ड-एस्ट्राज़ेनेका की वैक्सीन है।

दोनों वैक्सीन को अनुमति मिलने के बाद भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट में लिखा कि जिन दो वैक्सीन के इमर्जेंसी इस्तेमाल को मंज़ूरी दी गई है, वे दोनों मेड इन इंडिया हैं, यह आत्मनिर्भर भारत के सपने को पूरा करने के लिए हमारे वैज्ञानिक समुदाय की इच्छाशक्ति को दर्शाता है।

पत्रकार शेखर गुप्ता ने भी वैक्सीन राष्ट्रवाद को लेकर कहा है, ''जब चीन और रूस ने लाखों लोगों को तीसरे चरण के ट्रायल का डेटा सार्वजनिक किए बिना वैक्सीन लगाई और अब भारत ने भी तीसरे चरण के ट्रायल की समीक्षा किए बिना इस्तेमाल की अनुमति दे दी है। यह खतरनाक कदम है। एक ग़लती से वैक्सीन के भरोसे को भारी नुक़सान हो सकता है।''

अब इन दोनों वैक्सीन के आपातकालीन इस्तेमाल की मंज़ूरी मिलने के बाद इसे सबसे पहले स्वास्थ्यकर्मियों और फ़्रंटलाइन कर्मचारियों को दिया जाएगा।

भारत का लक्ष्य जुलाई 2021 तक 30 करोड़ लोगों को कोरोना का टीका लगाने का है।

बृहस्पति और शनि की चार सौ साल बाद मुलाकात हुई

सौर मंडल के दो ग्रह बृहस्पति और शनि चार सौ साल बाद 21 दिसंबर 2020 को इतने करीब आए कि दोनों के बीच की दूरी महज 0.1 डिग्री रह गई।

वैज्ञानिकों के मुताबिक इन्हें नंगी आँखों से भी देखा जा सकता है और दूरबीन या टेलीस्कोप से भी।

ये खगोलीय घटना 17 जुलाई 1623 के बाद हो रही है।

इसके बाद ये नजारा 15 मार्च 2080 को दिखाई देगा। इसके अलावा 21 दिसंबर 2020 साल का सबसे छोटा दिन है।

अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा का कहना है कि हमारे सौरमंडल में दो बड़े ग्रहों का नजदीक आना दुर्लभ नहीं है।

यूँ तो बृहस्पति ग्रह अपने पड़ोसी शनि ग्रह के पास से हर 20 साल पर गुजरता है, लेकिन इसका इतने नजदीक आना ख़ास है।

वैज्ञानिकों का कहना है कि दोनों ग्रहों के बीच उनके नज़रिए से सिर्फ 0.1 डिग्री की दूरी रह जाएगी, हालाँकि तब भी ये दूरी करोड़ों किलोमीटर की होगी।

यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैम्ब्रिज के इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रोनॉमी में डॉक्टर क्रोफॉर्ड ने बीबीसी को बताया, ''मौसम बहुत अच्छा नहीं लग रहा है इसलिए ये एक क़ीमती मौका है।''

अगर मौसम की स्थिति अनुकूल रहती है तो ये आसानी से सूर्यास्त के बाद दुनिया भर में देखा जा सकता है।

कहाँ और कब दिखेगा?

इस घटना का सबसे बेहतरीन नज़ारा 21 दिसंबर 2020 की रात को ब्रिटेन के उत्तरी हिस्से में देखने को मिलेगा क्योंकि वहां आसमान साफ होगा।

ये नज़ारा दक्षिणी इलाक़ों में उतना साफ नहीं दिखाई देगा क्योंकि आसमान में ज़्यादातर बादल छाए रहेंगे।

ग्रहों के खगोलविद डॉक्टर जेम्स ओडोनोह्यू ने ट्वीट करके बताया कि कहां पर और कितने बजे आसमान में बृहस्पति और शनि सबसे नज़दीक होंगे।

ग्रहों के खगोलविद डॉक्टर जेम्स ओडोनोह्यू ने ट्वीट किया कि जिस समय बृहस्पति और शनि 21 दिसंबर 2020 और 22 दिसंबर 2020 को आसमान में सबसे करीब होंगे।

लॉस एंजेलिस: 09:43
न्यू यॉर्क: 12:43
रियो डी जनेरियो: 14:43
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पेरिस / सीईटी: 18:43
इस्तांबुल: 20:43
दुबई: 21:43
नई दिल्ली: 23:13
टोक्यो: 02:43 (22 दिसंबर 2020)
सिडनी: 04:43 (22 दिसंबर 2020)

क्या ये बेथलेहम का तारा है?

कुछ खगोलशास्त्रियों और धर्मशास्त्रियों का ऐसा ही मानना है।

वर्जिनिया में फेरम कॉलेज में धर्म के प्रोफेसर एरिक एम वैंडेन ईकल ने एक लेख में कहा है कि ये घटना जिस समय हो रही है उसके कारण बहुत से अनुमान लगाए जा सकते हैं कि ''क्या ये वही खगोलीय घटना हो सकती है जैसा कि बाइबल में है, जो घटना ज्ञानी व्यक्तियों को जोसफ, मेरी और नवजात शिशु जीसस के पास लेकर गई थी।''

यह कहा जाता है कि ईसा मसीह के जन्म के समय आसमान में एक तारा निकला जिसने लोगों को ईसा मसीह के जन्म की सूचना दी और वहां पहुंचने का रास्ता दिखाया। इसे देखकर पूरब से तीन बुद्धिमान राजा भी उनको भेंट देने, उनका सम्मान करने बेथलेहम पहुंचे।

इसे बेथलेहम का तारा या क्रिसमस तारा भी कहा जाता है। इसे एक दैवीय घटना की तरह बताया जाता है।

डॉक्टर क्रोफॉर्ड कहते हैं, ''दो हज़ार साल पहले लोग इस बारे में बहुत कुछ जानते थे कि रात में आकाश में क्या हो रहा है, तो यह असंभव नहीं है कि बेथलेहम का तारा इस तरह दो ग्रहों के पास आने की घटना जैसा हो।''

सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाते हुए ग्रहों का एक-दूसरे के नज़दीक आना दुर्लभ घटना नहीं है लेकिन ये घटना कुछ खास है।

यूनिवर्सिटी ऑफ़ मैनचेस्टर में एस्ट्रोफिजिसिस्ट प्रोफेसर टिम ओब्रायन कहते हैं, ''ग्रहों को एक-दूसरे के नज़दीक देखना बहुत अच्छा लगता है, ऐसा अक्सर होता है लेकिन ग्रहों का इस घटना के जितना नज़दीक आना बेहद अद्भुत है।''

सौरमंडल में मौजूद दो बड़े ग्रह और कुछ रात में दिखने वाले चमकीले पिंड भी पिछले 800 सालों में इतने नज़दीक नहीं आए हैं।

प्रोफेसर ओब्रायन कहते हैं, ''ये ग्रह दक्षिण-पश्चिम इलाक़े में स्थापित हो रहे होंगे इसलिए आपको आसमान में अंधेरा होते ही वहां से निकलना होगा।''

''हममें से कोई भी अगले 400 सालों तक धरती पर नहीं रहने वाला है इसलिए मौसम पर नज़र बनाए रखें और मौका मिले तो बाहर आकर इस नज़ारे को देखें।''

चीन का अंतरिक्ष में बड़ी कामयाबी: चांद के नमूने लेकर चांग ई-5 यान लौटा

चीन का चांग ई-5 यान चंद्रमा की सतह से पत्थर और मिट्टी के नमूने लेकर पृथ्वी पर लौट आया है।

अमेरिका के अपोलो और सोवियत संघ के लूना चंद्र अभियानों के बाद पहली बार कोई देश चांद की सतह से नमूने लेकर आया है।

इन नमूनों से पृथ्वी के इस उपग्रह की सतह और उसके अतीत के बारे में नई जानकारियाँ मिल सकेंगी।

चांग ई-5 यान स्थानीय समयानुसार 17 दिसंबर 2020 की रात क़रीब डेढ़ बजे मंगोलिया के भीतरी इलाक़े में उतरा।

अंतरिक्ष में लगातार अपनी क्षमता बढ़ाता जा रहा चीन इस मिशन की कामयाबी को एक बड़ी उपलब्धि मान रहा है।

पिछले सात वर्षों में चांग ई-5 मिशन चीन का तीसरा सफल चंद्र अभियान रहा है।

अमेरिकी अपोलो अंतरिक्ष यान से चांद पर गए अंतरिक्ष यात्रियों और सोवियत रूस के रोबोटिक लूना मिशन ने चांद की सतह से क़रीब 400 किलो तक मिट्टी और पत्थर जमा किए थे।

चांद से लाए ये सभी नमूने क़रीब तीन अरब साल पुराने हैं।

चांग ई-5 मिशन

चांग ई-5 को 24 नवंबर 2020 को दक्षिणी चीन के वेनचांग स्टेशन से एक अंतरिक्षयान के ज़रिए छोड़ा गया था।

पहले ये मिशन चांद के ऊपर पहुंचा और इसने खुद को चांद की कक्षा में स्थापित किया और चांद के चक्कर लगाने लगा।

बाद में ये दो टुकड़ों में बंट गया - पहला सर्विस व्हीकल और रिटर्न मॉड्यूल जो चांद की कक्षा में ही रुका रहा और दूसरा मून लैंडर जो धीरे-धीरे चांद की सतह की तरफ बढ़ने लगा।

8.2-टन के इस यान ने 1 दिसंबर 2020 को चांद की सतह पर निर्धारित जगह के क़रीब सॉफ्ट लैंडिंग की।

इस मिशन को मॉन्स रूमकेर में उतारा गया जो चांद की ज्वालामुखी वाली पहाड़ियों के पास मौजूद एक जगह है।

लैंडिंग के कुछ दिनों बाद इस यान ने चांद की सतह से पहली रंगीन तस्वीर भेजीं।

इसने चांद की सतह पर अपने पैर के पास लेकर क्षितिज तक की तस्वीर ली।

चांद की सतह के मिट्टी और पत्थरों के नमूनों को इकट्ठा करने के लिए चांग ई-5 के लैंडर में कैमरा, रडार, एक ड्रिल और स्पेक्ट्रोमीटर फिट किया गया था।

ये लैंडर क़रीब दो किलो तक के वज़न के पत्थर और मिट्टी इकट्ठा कर सकता था। इकट्ठा नमूनों को ये एक ऑर्बिटिंग मिशन तक पहुँचाया जो इसे आगे पृथ्वी पर भेजा।

चांग ई-5 मिशन से पहले चीन ने चांद पर दो और यान भेजे थे।

2013 में चांग ई-3 और 2019 में चांग ई-4 मून मिशन। इन दोनों में ही एक लैंडर के साथ-साथ एक छोटा मून रोवर शामिल किया गया था।

इन दोनों की तुलना में चांग ई-5 जटिल मिशन था।

माना जा रहा है कि मॉन्स रूमकेर से लाए गए नमूनों की उम्र 1.2 से 1.3 अरब साल होगी, यानी वो पहले लाए गए नमूनों की अपेक्षा नए होंगे। जानकारों का मानना है कि इससे चांद के भूवैज्ञानिक इतिहास के बारे में अधिक जानकारी मिल सकेगी।

इन नमूनों की मदद से वैज्ञानिकों को सटीक रूप से 'क्रोनोमीटर' तैयार करने में भी मदद मिलेगी जिससे सौर मंडल के ग्रहों के सतहों की उम्र को माना जाता है।

ये किसी ग्रह या उपग्रह की सतह पर मौजूद ज्वालामुखी की संख्या पर निर्भर करता है।

वैज्ञानिकों के अनुसार जिस ग्रह की सतह पर अधिक ज्वालामुखी होंगे वो अधिक पुरानी होगी यानी उसकी उम्र अधिक होगी (इसके लिए वैज्ञानिक ज्वालामुखी के क्रेटर की संख्या की गिनती करते हैं)। हालांकि इसके लिए अलग-अलग जगहों को देखा जाना ज़रूरी होता है।

अपोलो और लूना मिशन के भेजे गए नमूनों से 'क्रोनोमीटर' तैयार करने में वैज्ञानिकों को काफी मदद मिली थी।

अब चांग ई-5 मिशन के भेजे नमूनों से उन्हें इसे और सटीक रूप से विकसित करने में मदद मिलेगी।

नैनो क्ले तकनीक: क्या रेगिस्तान को उपजाऊ खेत में तब्दील कर सकती है?

मार्च 2020 में जब दुनिया भर में लॉकडाउन लग रहा था तब संयुक्त अरब अमीरात में एक बड़ा प्रयोग पूरा हो रहा था। केवल 40 दिनों के अंदर यहां बंजर ज़मीन का एक टुकड़ा मीठे रसीले तरबूजों से भर गया।

संयुक्त अरब अमीरात के लिए जो ताज़े फल और सब्जियों की ज़रूरत का 90 फीसदी हिस्सा आयात करता है, यह असाधारण उपलब्धि है। सिर्फ़ मिट्टी और पानी मिलाने से संयुक्त अरब अमीरात का सूखा और तपता रेगिस्तान रसीले फलों से भरे खेत में तब्दील हो गया।

यह इतना आसान नहीं था। ये तरबूज ''नैनो क्ले'' तरल की मदद से ही मुमकिन हो पाए। मिट्टी को दोबारा उपजाऊ बनाने की इस तकनीक की कहानी यहां से 1,500 मील (2,400 किलोमीटर) पश्चिम में दो दशक पहले शुरू हुई थी।

1980 के दशक में मिस्र में नील डेल्टा के एक हिस्से में पैदावार घटने लगी थी। रेगिस्तान के क़रीब होने के बावजूद यहां हजारों साल से खेती हो रही थी।

यहां की बेमिसाल उर्वरता की वजह से ही प्राचीन मिस्रवासियों ने अपनी ऊर्जा एक ताक़तवर सभ्यता विकसित करने में लगाई, जिसकी तरक्की देखकर हजारों साल बाद आज भी दुनिया अचंभे में पड़ जाती है।

सदियों तक यहां के समुदायों की भूख मिटाने वाले खेतों की पैदावार, 10 साल के अंदर घट गई।

पैदावार क्यों घटी?

हर साल गर्मियों के आख़िर में नील नदी में बाढ़ आती है जो मिस्र के डेल्टा में फैल जाती है।

वैज्ञानिकों ने जब पैदावार घटने की जांच शुरू की तो पता चला कि बाढ़ का पानी अपने साथ खनिज, पोषक तत्व और पूर्वी अफ्रीका के बेसिन से कच्ची मिट्टी के कण लेकर आता था जो पूरे डेल्टा क्षेत्र में फैल जाता था।

कीचड़ के ये बारीक कण ही वहां की ज़मीन को उपजाऊ बनाते थे। लेकिन फिर क्यों ये कण ग़ायब हो गए?

1960 के दशक में दक्षिणी मिस्र में नील नदी पर असवान बांध बनाया गया था। ढाई मील (चार किलोमीटर) चौड़ी यह विशालकाय संरचना पनबिजली बनाने और बाढ़ को नियंत्रित करने के लिए बनाई गई थी ताकि खेती का प्रबंधन आसान हो सके और फसलें बर्बाद न हों।

इस बांध ने बाढ़ के साथ आने वाले पोषक तत्वों को रोक दिया। एक दशक के अंदर-अंदर डेल्टा की पैदावर घट गई। मृदा वैज्ञानिकों और इंजीनियरों ने जब समस्या का पता लगा लिया तो इसका समाधान ढूंढ़ा जाने लगा।

नैनो क्ले तकनीक क्या है?

नैनो क्ले तकनीक का विकास करने वाली नॉर्वे की कंपनी डेज़र्ट कंट्रोल के मुख्य कार्यकारी ओले सिवर्त्सेन कहते हैं, ''यह वैसा ही है जैसा आप अपने बगीचे में देख सकते हैं।''

''रेतीली मिट्टी पौधों के लिए ज़रूरी नमी बरकरार नहीं रख पाती। कच्ची मिट्टी सही अनुपात में मिलाने से यह स्थिति नाटकीय रूप से बदल जाती है।''

सिवर्त्सेन के शब्दों में, उनकी योजना नैनो क्ले के इस्तेमाल से बंजर रेगिस्तानी ज़मीन को ''रेत से उम्मीद'' की ओर ले जाने की है।

कीचड़ का इस्तेमाल करके पैदावार बढ़ाना कोई नई बात नहीं है। किसान हजारों साल से ऐसा करते आ रहे हैं। लेकिन भारी, मोटी मिट्टी के साथ काम करना ऐतिहासिक रूप से बहुत श्रम-साध्य रहा है और इससे भूमिगत पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंच सकता है।

हल जोतने, खुदाई करने और मिट्टी पलटने से भी पर्यावरण को क्षति होती है। मिट्टी में दबे हुए जैविक तत्व ऑक्सीजन के संपर्क में आ जाते हैं और कार्बन डाई-ऑक्साइड में बदलकर वायुमंडल में मिल जाते हैं।

एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी की मृदा वैज्ञानिक सरन सोही का कहना है कि खेती से मिट्टी के जटिल बायोम में भी व्यवधान पड़ता है।

''मृदा जीवविज्ञान का एक अहम हिस्सा पौधों और फफूंद के बीच सहजीवी संबंध का है जो पौधों की जड़ प्रणाली के विस्तार के रूप में काम करते हैं।''

जड़ के पास जीवन है

सोही कहती हैं, ''बाल से भी बारीक संरचनाएं, जिनको हाइफे कहा जाता है, वे पोषक तत्वों को पौधे की जड़ों तक पहुंचाने में मददगार होती हैं।''

इस प्रक्रिया में फफूंद मिट्टी के खनिज कणों से जुड़ते हैं। वे मृदा संरचना बनाए रखते हैं और क्षरण सीमित करते हैं।

मिट्टी खोदने या खेती करने से ये संरचनाएं टूट जाती हैं। इनके दोबारा तैयार होने में समय लगता है। तब तक मिट्टी को नुकसान पहुंचने और पोषक तत्व ख़त्म होने की आशंका रहती है।

रेत में कच्ची मिट्टी का घोल बहुत कम मिलाएं तो उसका प्रभाव नहीं पड़ता। अगर इसे बहुत अधिक मिला दें तो मिट्टी सतह पर जमा हो सकती है।

वर्षों के परीक्षण के बाद नॉर्वे के फ्लूड डायनेमिक्स इंजीनियर क्रिस्टियन पी ओल्सेन ने एक सही मिश्रण तैयार किया जिसे रेत में मिलाने से वह जीवन देने वाली मिट्टी में बदल जाती है।

वह कहते हैं, ''हर जगह एक ही फॉर्मूला नहीं चलता। चीन, मिस्र, संयुक्त अरब अमीरात और पाकिस्तान में 10 साल के परीक्षण ने हमें सिखाया है कि हर मिट्टी की जांच ज़रूरी है, जिससे हम सही नैनो क्ले नुस्खा आजमा सकें।''

मिट्टी के घोल का संतुलन

नैनो क्ले रिसर्च और विकास का बड़ा हिस्सा ऐसा संतुलित तरल फॉर्मूला तैयार करने में लगा जो स्थानीय मिट्टी के बारीक कणों (नैनो कणों) में रिसकर पहुंच सके, लेकिन वह इतनी तेज़ी से न बह जाए कि पूरी तरह खो जाए। इसका मकसद पौधों की जड़ से 10 से 20 सेंटीमीटर नीचे की मिट्टी में जादू का असर दिखाना है।

सौभाग्य से, जब रेत में कीचड़ मिलाने की बारी आती है तो मृदा रसायन विज्ञान का एक नियम काम आता है, जिसे मिट्टी की धनायन विनिमय क्षमता (Cationic Exchange Capacity) कहा जाता है।

सिवर्त्सेन कहते हैं, ''कीचड़ के कण निगेटिव चार्ज होते हैं, जबकि रेत के कण पॉजिटिव चार्ज होते हैं। जब वे मिलते हैं तो एक दूसरे से जुड़ जाते हैं।''

रेत के हर कण के चारों ओर मिट्टी की 200 से 300 नैनोमीटर मोटी परत चढ़ जाती है। रेत कणों का यह फैला हुआ क्षेत्र पानी और पोषक तत्वों को उससे चिपकाए रखता है।

सिवर्त्सेन कहते हैं, ''कच्ची मिट्टी जैविक तत्वों की तरह काम करती है। यह नमी बनाए रखने में मदद करती है। जब ये कण स्थिर हो जाते हैं और पोषक तत्व उपलब्ध कराने में सहायक होने लगते हैं तब आप सात घंटों के अंदर फसल बो सकते हैं।''

यह तकनीक क़रीब 15 साल से विकसित हो रही है, लेकिन व्यावसायिक स्तर पर पिछले 12 महीने से ही इस पर काम हो रहा है, जब दुबई के इंटरनेशनल सेंटर फ़ॉर बायोसेलाइन एग्रीकल्चर (ICBA) ने स्वतंत्र रूप से इसका परीक्षण किया।

सिवर्त्सेन कहते हैं, ''अब हमारे पास इसके असरदार होने से वैज्ञानिक प्रमाण हैं। हम 40 फीट (13 मीटर) के कंटेनर में कई मोबाइल मिनी फैक्ट्रियां बनाना चाहते हैं ताकि हम जितना मुमकिन हो उतनी तब्दीली ला सकें।''

''ये मोबाइल इकाइयां जहां ज़रूरत होगी वहां स्थानीय तौर पर तरल नैनो क्लो तैयार करेंगी। हम उसी देश की मिट्टी का इस्तेमाल करेंगे और उसी क्षेत्र के लोगों को काम पर रखेंगे।''

इस तरह की पहली फैक्ट्री एक घंटे में 40 हजार लीटर तरल नैनो क्ले तैयार कर देगी जिसका इस्तेमाल संयुक्त अरब अमीरात के सिटी पार्कलैंड में होगा। इस तकनीक से 47 फीसदी तक पानी की बचत होगी।

लागत घटाने की चुनौती

फिलहाल प्रति वर्ग मीटर करीब 2 डॉलर (1.50 पाउंड) की लागत आती है जो समृद्ध यूएई के छोटे खेतों के लिए स्वीकार्य है।

मगर सब-सहारा अफ्रीका में जहां यह असल में मायने रखता है वहां इसे प्रभावी बनाने के लिए सिवर्त्सेन को लागत घटाने की ज़रूरत है।

अफ्रीका के ज़्यादातर किसानों के पास इतना पैसा नहीं है कि वे अपनी ज़मीन को इस तरह से ठीक करा सकें। इस तरह से ज़मीन के उपचार का असर लगभग 5 साल तक रहता है। उसके बाद मिट्टी का घोल दोबारा डालना पड़ेगा।

सिवर्त्सेन को लगता है कि बड़े पैमाने पर काम करने से लागत कम होगी। उनका लक्ष्य प्रति वर्ग मीटर ज़मीन के लिए लागत 0.20 डॉलर (0.15 पाउंड) तक लाना है।

इसकी जगह उपजाऊ ज़मीन खरीदनी पड़े तो उसकी लागत 0.50 डॉलर से 3.50 डॉलर (0.38 पाउंड से 2.65 पाउंड) प्रति वर्ग मीटर तक बैठती है। भविष्य में खेत खरीदने की जगह इस तरह से बंजर ज़मीन को उपजाऊ बनाना सस्ता पड़ेगा।

सिवर्त्सेन ग्रेट ग्रीन वॉल प्रोजेक्ट में भी मदद कर रहे हैं। इसके लिए वह यूएन कन्वेंशन टू कॉम्बैट डेजर्टिफ़िकेशन के साथ काम कर रहे हैं। उत्तरी अफ्रीका में रेगिस्तान का विस्तार रोकने के लिए पेड़ों की दीवार खड़ी की जा रही है।

पैदावार बढ़ाने के अन्य उपाय

कच्ची मिट्टी का घोल उत्तरी अफ्रीका और मध्य पूर्व की रेतीली ज़मीन में मिला देंगे, मगर बाकी दुनिया में क्या करेंगे?

वैश्विक स्तर पर मिट्टी में जैविक तत्व 20 से 60 फीसदी तक घट गए हैं। नैनो क्ले सिर्फ़ रेतीली मिट्टी को उपजाऊ बनाने के अनुकूल है।

अगर आपके पास खारी, ग़ैर-रेतीली मिट्टी हो तो आप क्या करेंगे? यहां बायोचार आपकी मदद कर सकता है।

कार्बन का यह स्थायी रूप जैविक पदार्थों को पायरोलिसिस विधि से जलाकर तैयार किया जाता है। इस प्रक्रिया में कार्बन डाई-ऑक्साइड जैसे प्रदूषक बहुत कम निकलते हैं क्योंकि दहन प्रक्रिया से ऑक्सीजन को बाहर रखा जाता है।

इससे छिद्रयुक्त और हल्का चारकोल-जैसा पदार्थ बनता है। सोही का कहना है कि पोषक तत्वों से रहित मिट्टी को यही चाहिए।

वह कहती हैं, ''मिट्टी की जैविक सामग्री हमेशा बदलती रहती है, लेकिन स्वस्थ मिट्टी में स्थायी कार्बन का एक निश्चित स्तर मौजूद रहता है।''

''बायोचार स्थायी कार्बन हैं जो पौधों के विकास के लिए अहम पोषक तत्वों पर पकड़ बनाए रखने में मदद करते हैं। मिट्टी में स्थायी कार्बन तत्व विकसित होने में दशकों लग जाते हैं, लेकिन बायोचार से यह तुरंत हो जाता है।''

''बायोचार जैविक खाद जैसे अन्य कार्बनिक पदार्थों के साथ मिलकर मिट्टी की संरचना को ठीक कर सकता है जिससे पौधों का विकास होता है।''

इससे अति-कृषि या खनन या संदूषण की वजह से जैविक तत्वों की कमी वाली मिट्टी को दोबारा बहाल करने में मदद मिल सकती है, बशर्ते कि मिट्टी में मौजूद ज़हरीले तत्वों का उपचार कर लिया जाए।

मिट्टी सुधारने की अन्य तकनीकों में शामिल है - वर्मीक्युलाइट का इस्तेमाल। यह एक फाइलोसिलिकेट खनिज है जिसे चट्टानों से निकाला जाता है। गर्म करने से यह फैल जाता है।

स्पंज जैसा होने से यह अपने वजन से तीन गुणा ज़्यादा पानी सोख सकता है और उसे लंबे समय तक बनाए रख सकता है।

पौधों की जड़ के पास इसे डाल देने से वहां नमी बनी रहती है, लेकिन इसके लिए मिट्टी खोदना पड़ता है जो इसका नकारात्मक पक्ष है।

पोषक तत्वों की जांच

संयुक्त अरब अमीरात में स्थानीय समुदाय के लोग रेगिस्तान को उपजाऊ ज़मीन में बदलने के फायदे उठा रहे हैं।

नैनो क्ले के सहारे उगाई गई सब्जियां और फल कोविड-19 लॉकडाउन में बड़े काम के साबित हुए। 0.2 एकड़ (1,000 वर्ग मीटर) ज़मीन में करीब 200 किलो तरबूज, ज़ूकीनी और बाजरे की फसल तैयार हुई जो एक घर के लिए काफी है।

सिवर्त्सेन कहते हैं, ''संयुक्त अरब अमीरात में लॉकडाउन बहुत सख़्त था जिसमें आयात घट गया था। कई लोगों को ताज़े फल और सब्जियां नहीं मिल पा रही थीं।''

''हमने ताज़े तरबूज और ज़ूकीनी तैयार करने के लिए ICBA और रेड क्रेसेंट टीम के साथ काम किया।''

सिवर्त्सेन इस तरह से तैयार फसलों में पोषक तत्वों का परीक्षण भी करना चाहते हैं, लेकिन इसके लिए अगली फसल तक इंतज़ार करना होगा।

कोविड 19 वैक्सीन: क्या दवा कंपनियां बंपर मुनाफ़ा कमाएंगी?

कोरोना महामारी की शुरुआत के समय ये कहा गया था कि किसी भी बीमारी के लिए टीका विकसित करने में कई साल लगते हैं। इसलिए टीके को लेकर बहुत अधिक उम्मीद ना करें।

लेकिन अब दस महीने बीतते-बीतते ही कोरोना वायरस महामारी के टीके दिए जाने लगे हैं और इन टीकों को अविष्कार करने में जो कंपनियां आगे हैं, उनमें से कई के पीछे घरेलू कंपनियां हैं।

नतीजतन, निवेश विश्लेषकों का अनुमान है कि इनमें से कम से कम दो कंपनियां (अमेरिकी बायोटेक कंपनी मॉडर्ना और जर्मनी की बायो-एन-टेक) अपनी साझेदार कंपनी, अमेरिका की फ़ाइज़र के साथ मिलकर अगले साल अरबों डॉलर का व्यापार करेंगी।

लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि असल में वैक्सीन बनाने वाले इसके अलावा कितने रुपये का व्यापार करने वाले हैं?

जिस तरह से इन टीकों को बनाने के लिए फ़ंड किया गया है और जिस तरह से बड़ी संख्या में कंपनियां वैक्सीन निर्माण के लिए सामने आई हैं, उससे तो यही लगता है कि बड़ा मुनाफ़ा बनाने का कोई भी अवसर लंबे समय तक नहीं रहेगा।

किन लोगों ने पैसा लगाया है?

कोरोना महामारी के दौर में वैक्सीन की ज़रूरत को देखते हुए सरकार और फ़ंड देने वालों ने वैक्सीन बनाने की योजना और परीक्षण के लिए अरबों पाउंड की राशि दी। गेट्स फ़ाउंडेशन जैसे संगठनों ने खुले दिल से इन योजनाओं का समर्थन किया। इसके अलावा कई लोगों ने ख़ुद भी आगे आकर इन योजनाओं का समर्थन किया। अलीबाबा के फ़ाउंडर जैक मा और म्यूज़िक स्टार डॉली पार्टन ने भी आगे आकर इन योजनाओं के लिए फ़ंड दिया।

साइंस डेटा एनालिटिक्स कंपनी एयरफ़िनिटी के अनुसार, कोविड 19 का टीका बनाने और परीक्षण के लिए सरकारों की ओर से 6.5 बिलियन पाउंड दिये गए हैं। वहीं गैर-लाभार्थी संगठनों की ओर से 1.5 बिलियन पाउंड दिया गया।

कंपनियों के अपने ख़ुद के निवेश से सिर्फ़ 2.6 बिलियन पाउंड ही आए। इनमें से कई कंपनियां बाहरी फ़ंडिंग पर बहुत अधिक निर्भर करती हैं।

ये एक बहुत बड़ा कारण रहा कि बड़ी कंपनियों ने वैक्सीन परियोजनाओं को फ़ंड देने में बहुत जल्दबाज़ी नहीं दिखाई।

अतीत में इस तरह की आपातस्थिति में टीके का निर्माण करना बहुत अधिक लाभदायक साबित नहीं हुआ है। वैक्सीन खोजने की प्रक्रिया में समय लगता है। ग़रीब देशों को वैक्सीन की बहुत बड़ी खेप की ज़रूरत होती है लेकिन अधिक क़ीमत के कारण वे इसे ले नहीं सकते। धनी देशों में दैनिक तौर पर ली जाने वाली दवाओं से अधिक मुनाफ़ा कमाया जाता है।

ज़ीका और सार्स जैसी बीमारियों के लिए टीके बनाने वाली कंपनियों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। वहीं दूसरी ओर फ़्लू जैसी बीमारियों के लिए बनी वैक्सीन का बाज़ार अरबों का है। ऐसे में अगर कोविड-19 फ़्लू की तरह ही बना रहा और इसके लिए सालाना तौर पर टीका लगाने की ज़रूरत पड़ती रही तो यह वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों के लिए लाभदायक हो सकता है। लेकिन उन कंपनियों के लिए ही जो सबसे अधिक असरदार रहेंगी, साथ ही बजट में भी होंगी।

वे क्या क़ीमत लगा रहे हैं?

कुछ कंपनियां वैश्विक संकट के इस समय में लाभ बनाती हुई नहीं दिखना चाहती हैं, ख़ासतौर पर बाहर से इतनी अधिक फ़ंडिंग मिलने के बाद। अमेरिका की बड़ी दवा निर्माता कंपनियां जैसे जॉनसन एंड जॉनसन और ब्रिटेन की एस्ट्राज़ेनेका ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी स्थित बायोटेक कंपनी के साथ मिलकर काम रही हैं।

इन कंपनियों ने अपनी ओर से यह वादा किया है कि वे अपनी वैक्सीन की क़ीमत उतनी ही रखेंगी जिससे सिर्फ़ उनकी लागत निकल आए। अभी की बात करें तो एस्ट्राज़ेनेका के संदर्भ में माना जा रहा है कि यह सबसे सस्ती कीमत (4 डॉलर यानी क़रीब 300 रुपये प्रति डोज़) में उपलब्ध होगी।

मॉडर्ना एक छोटी बायोटेक्नॉलजी कंपनी है। जोकि सालों से आरएनए वैक्सीन के पीछे की तकनीक पर काम कर रही है। उनके प्रति डोज़ की क़ीमत क़रीब 37 डॉलर यानी दो हज़ार सात रुपये से कुछ अधिक है। उनका उद्देश्य कंपनी के शेयरधारकों के लिए लाभ कमाना है।

हालांकि इसका यह मतलब नहीं कि ये क़ीमतें तय कर दी गई हैं।

आमतौर पर दवा कंपनियां अलग-अलग देशों में अलग-अलग तरह से शुल्क देती हैं। यह सरकारों पर निर्भर करता है। एस्ट्राज़ेनेका ने सिर्फ़ महामारी तक के लिए क़ीमतें कम रखने का वादा किया है। हो सकता है कि वो अगले साल से इसकी तुलनात्मक रूप से अधिक क़ीमत वसूलने लगें। यह पूरी तरह महामारी के स्वरूप पर निर्भर करता है।

बार्कलेज़ में यूरोपियन फ़ार्मास्यूटिकल की प्रमुख एमिली फ़ील्ड कहती हैं, ''अभी अमीर देशों की सरकारें अधिक क़ीमत देंगी। वे वैक्सीन या डोज़ को लेकर इतने उतावले हैं कि बस कैसे भी महामारी का अंत कर सकें।''

वे आगे कहती हैं, ''संभवत: अगले साल जैसे-जैसे बाज़ार में और अधिक वैक्सीन आने लगेंगी, प्रतिस्पर्धा के कारण हो सकता है वैक्सीन के दाम भी कम हो जाएं।''

एयरफ़िनिटी के चीफ़ एक्ज़ीक्यूटिव रासमस बेक हैनसेन कहते हैं, ''इसी बीच, हमें निजी कंपनियों से भी उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। विशेष तौर पर ऐसी कंपनियां जो छोटी हैं और जो कोई दूसरा उत्पाद भी नहीं बेचतीं। ऐसे में उनसे यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि वे बिना मुनाफ़े के बारे में सोचे वैक्सीन बेचेंगी।''

वो कहते हैं, ''इस बात को दिमाग़ में रखना होगा कि इन कंपनियों ने एक बड़ा जोखिम उठाया है और वे वास्तव में तेज़ी से आगे बढ़ी हैं।''

वो आगे कहते हैं, ''और अगर आप चाहते हैं कि ये छोटी कंपनियां भविष्य में भी कामयाब हों तो उन्हें उस लिहाज़ से पुरस्कृत किये जाने की ज़रूरत है।''

लेकिन कुछ मानवतावादी संकट की स्थिति और सार्वजनिक वित्त पोषण को लेकर भिन्न मत रखते है। उनके मुताबिक़, यह हमेशा की तरह व्यापार का समय नहीं है।

क्या उन्हें अपनी तकनीक साझा करनी चाहिए?

अभी जबकि इतना कुछ दांव पर लगा हुआ है तो इस तरह की मांग उठ रही है कि इन वैक्सीन के पीछे की पूरी तकनीकी और जानकारी साझा की जाए ताकि दूसरे देश कंपनियां वैक्सीन की डोज़ेज़ को बना सकें। उदाहरण के तौर पर जो कंपनियां भारत और दक्षिण अफ्रीका में हैं।

मेडिसीन्स लॉ एंड पॉलिसी की एलेन टी होएन कहती हैं, ''पब्लिक फ़ंडिंग प्राप्त करने के लिए यह एक शर्त होनी चाहिए।''

वो कहती हैं, ''जब महामारी की शुरुआत हुई थी तब बड़ी फ़ार्मा कंपनियों ने वैक्सीन को लेकर बहुत उत्साह नहीं दिखाया था। लेकिन जब सरकार और एजेंसियां फ़ंड के साथ आगे आईं तो उन्हें इस पर काम करना पड़ा।''

होएन कहती हैं, ''उन्हें नहीं समझ आता है कि क्यों उन्हीं के पास परिणाम से लाभ पाने का विशेषाधिकार हो।''

वो कहती है, ''ये नई खोज़ें आगे चलकर इन वाणिज्यिक संगठनों की निजी संपत्ति बन जाती हैं।''

हालांकि बौद्धिक स्तर पर लोग एक-दूसरे के संग कुछ चीज़ें साझा कर रहे हैं, लेकिन यह किसी भी सूरत में पर्याप्त नहीं हैं।

तो क्या फ़ार्मा कंपनियां बंपर मुनाफ़ा कमाएंगी?

सरकारों और बहुपक्षीय संगठनों ने पहले ही निर्धारित मूल्य पर अरबों ख़ुराकें ख़रीदने का संकल्प लिया है। ऐसे में अगले कुछ महीनों तक तो कंपनियां उन ऑर्डर्स को जितनी जल्दी हो सकेगा उतनी जल्दी पूरा करने में व्यस्त रहेंगी।

जो कंपनियां वैक्सीन की डोज़ेज़ अमीर देशों को बेच रहे हैं वे अपने निवेश पर रिटर्न की भी उम्मीद करने लगे हैं। हालांकि एस्ट्राज़ेनेका को सबसे अधिक ख़ुराक की आपूर्ति करनी है बावजूद इसके वो अभी सिर्फ़ लागत को ही पूरा करने पर ध्यान देगा।

पहली मांग की आपूर्ति हो जाने के बाद अभी यह अनुमान लगा पाना थोड़ा कठिन है कि वैक्सीन को लेकर आगे स्थिति कैसी होगी? क्योंकि यह कई चीज़ों पर निर्भर करता है। मसलन, जिन्हें वैक्सीन का डोज़ दिया गया उनमें कोरोना के प्रति प्रतिरक्षा कब तक रहती है? कितनी वैक्सीन्स सफल हो पाती हैं? और वैक्सीन का निर्माण और फिर वितरण कितने सुचारू तरीक़े से हो पाता है?

बार्कलेज की एमिली फ़ील्ड के मुताबिक़, ''मुनाफ़ा कमाने के अवसर बहुत अस्थायी होगें।''

भले ही जो लोग अभी वैक्सीन बनाने की रेस में आगे हैं और अपनी बौद्धिक संपदा को दूसरे से साझा नहीं कर रहे हैं बावजूद इसके दुनिया भर में 50 ऐसी वैक्सीन्स बनायी जा रही हैं जो क्लिनिकल ट्रायल के दौर में हैं।

एमिली फ़ील्ड के मुताबिक़, ''आने वाले दो सालों में हो सकता है कि बाज़ार में 20 वैक्सीन हों। ऐसे में वैक्सीन के लिए बहुत अधिक क़ीमत वसूल पाना मुश्किल होता जा रहा है।''

वो मानती हैं कि लंबे वक्त में इसका असर कंपनी की साख पर पड़ सकता है। अगर कोई वैक्सीन सफल हो जाती है तो यह कोविड 19 उपचार या इससे जुड़े अन्य उत्पादों को बिक्री के द्वार खोलने में मददगार साबित हो सकती है।

एयरफ़िनिटी के हैनसैन कहते हैं कि अगर ऐसा होता है तो यह महामारी के कठिन दौर से निकली एक राहत देने वाली बात हो सकती है।

वह सरकारों से उम्मीद करते हुए कहते हैं कि सरकारों को महामारी के संदर्भ में रणनीति बनाने में निवेश करना चाहिए। ठीक उसी तरह जैसे सरकारें अभी सुरक्षा और बचाव के लिए कर रही हैं।

इन सबमें जो सबसे अधिक ग़ौर करने वाली और प्रभावित करने वाली बात है वो ये कि आख़िर बायो-एन-टेक और मॉडर्ना की बाज़ार क़ीमत अचानक से ऊपर कैसे पहुंच गई? ऐसा इसलिए क्योंकि उनके टीके उनकी आरएनए टेक्नोलॉजी की अवधारणा का प्रमाण देते हैं।

कोरोना महामारी से पहले तक बायो-एन-टेक त्वचा कैंसर के लिए एक टीके पर काम कर रहा थी। जबकि मॉडर्ना ओवैरियन कैंसर के लिए एक आरएनए आधारित वैक्सीन पर काम कर रही थी। अगर इसमें से कोई भी सफ़ल होता है तो यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि होगी।

क्या Covaxin कोरोना वायरस से बचाव करने में सक्षम है?

भारत में Covaxin नाम की कोरोना की वैक्सीन बना रही कंपनी भारत बायोटेक ने कहा है कि इस वैक्सीन के क्लिनिकल ट्रायल के दौरान व्यक्ति को दो डोज़ दिए जाते हैं जो 28 दिनों बाद यानी लगभग एक महीने के अंतराल पर दिए जाते हैं।

समाचार एजेंसी एएनआई के अनुसार कंपनी ने कहा है कि दूसरा डोज़ दिए जाने के 14 दिनों के बाद ही वैक्सीन के असर के बारे में पता लगाया जा सकता है। इस वैक्सीन को इस तरह से बनाया गया है कि ये उन लोगों पर प्रभावी होती है जो इसकी दो डोज़ लेते हैं।

वैक्सीन के तीसरे चरण के क्लिनिकल ट्रायल के बारे में कंपनी ने कहा है कि तीसरे चरण के ट्रायल में 50 फीसदी लोगों को वैक्सीन दी जाती है जबकि अन्य 50 फीसदी को प्लेसबो दिया जाता है।

प्लेसबो ख़ास तरह की दवा होती है जो शरीर पर किसी तरह का प्रभाव नहीं डालती। डॉक्टर इसका इस्तेमाल ये जानने के लिए करते हैं कि व्यक्ति पर दवा लेने का कितना और कैसा मानसिक असर पड़ता है।

इससे पहले हरियाणा सरकार में कैबिनेट मंत्री अनिल विज ने अपना कोरोना टेस्ट पॉज़ीटिव आने की जानकारी दी थी।

20 नवंबर 2020 को उन्होंने Covaxin का टीका लगवाकर वैक्सीन के तीसरे चरण के ट्रायल की शुरुआत की थी।

भारत के प्रान्त हरियाणा के स्वास्थ्य मंत्री ने 20 नवंबर 2020 को कोरोना वायरस से बचाव के लिए टीका लगवाया था। स्वास्थ्य मंत्री टीका लगवाने के बावजूद कोरोना वायरस से संक्रमित हो गए है।

हरियाणा सरकार में कैबिनेट स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज का कोरोना टेस्ट पॉज़ीटिव आया है। अनिल विज ने ट्विटर पर यह जानकारी दी।

उन्होंने ट्वीटर लिखा है, ''मेरा कोरोना टेस्ट पॉज़ीटिव आया है। मैं अंबाला कैंट के सिविल अस्पताल में भर्ती हूं। बीते दिनों जो भी लोग मेरे संपर्क में आए, उन्हें सलाह है कि वे भी अपनी कोरोना जांच करा लें।''

इससे पहले 20 नवंबर 2020 को उन्होंने अंबाला के एक अस्पताल में Covaxin का टीका लगवाकर वैक्सीन के तीसरे चरण के ट्रायल की शुरुआत की थी।

कोरोना वायरस चीन से फैलना शुरू नहीं हुआ: अमेरिकी शोध

आज (04 दिसंबर 2020) से क़रीब एक साल पहले वैज्ञानिकों को कोविड-19 बीमारी फ़ैलाने वाले Sars-CoV-2 कोरोना वायरस के बारे में तब पता चला जब चीन के वुहान में कुछ लोगों के इससे संक्रमित होने की ख़बर आई।

लेकिन एक नए शोध के अनुसार महामारी का कारण बना ये वायरस इससे कई सप्ताह पहले लोगों को संक्रमित कर चुका था।

अमेरिका के सेंटर्स फ़ॉर डीज़ीज़ कंट्रोल एंड प्रीवेन्शन (सीडीसी) के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए इस शोध के नतीजों को क्लिनिकल इन्फ़ेक्शियस डीज़ीज़ नाम की पत्रिका में प्रकाशित किया गया है।

अब तक मौजूद जानकारी के अनुसार आधिकारिक तौर पर वैज्ञानिकों को कोरोना वायरस के बारे में 31 दिसंबर 2019 को तब जानकारी मिली जब चीन के वुहान के हुबेई प्रांत के स्वास्थ्य अधिकारियों ने एक चेतावनी जारी कर कहा कि यहां कई ऐसे मामले दर्ज किए जा रहे हैं जिनमें निमोनिया के गंभीर लक्षण हैं। उन्होंने इसे अजीब तरह की सांस लेने से संबंधित बीमारी कहा।

लेकिन महामारी के शुरू होने के ग्यारह महीनों बाद अब शोधकर्ताओं का कहना है कि अमेरिका के तीन राज्यों में 39 ऐसे लोग हैं जिनके शरीर में कोरोना वायरस के एंटीबॉडीज़ मिले हैं। ये एंटीबॉडीज़ चीन के कोरोना वायरस से जुड़ी चेतावनी देने के दो सप्ताह पहले उनके शरीर में मौजूद थे।

हालांकि अमेरिका में Sars-Cov-2 का पहला मामला 21 जनवरी 2020 को ही दर्ज किया गया था।

शोध के नतीजे क्या कहते हैं?

इस शोध के अनुसार अमेरिका में 13 दिसंबर 2019 से लेकर 17 जनवरी 2020 के हुए ब्लड डोनेशन में कुल 7,389 लोगों ने ख़ून दिया था। इनमें से 106 लोगों के ख़ून के नमूनों में कोरोना वायरस की एंटीबॉडीज़ मिली हैं।

किसी व्यक्ति के शरीर में एंटीबॉडीज़ मिलने का मतलब है कि वो व्यक्ति वायरस से संक्रमित हुआ है और उसके रोग प्रतिरोधक तंत्र ने उस वायरस से निपटने के लिए एंटीबॉडीज़ बनाई हैं।

कैलिफ़ोर्निया, ओरेगॉन और वॉशिंगटन में 13 से 16 दिसंबर 2019 के बीच लिए गए ख़ून के नमूनों में से 39 में कोरोना वायरस की एंटीबॉडीज़ हैं।

शोध के अनुसार 67 नमूने जनवरी 2020 में मैसेचुसैट्स, मिशिगन, रोड आइलैंड और विस्कॉन्सिन में जमा किए गए थे। ये इन राज्यों में महामारी का प्रकोप बढ़ने से कहीं पहले था।

अधिकतर लोग जो इस वायरस के संपर्क में आए थे वो पुरुष थे और उनकी औसत उम्र 52 साल थी।

शोधकर्ताओं का मानना है कि हो सकता है कि इन लोगों के शरीर में पहले से ही मौजूद किसी कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ एंटीबॉडीज़ बन गई हों।  हालांकि उनका कहना है कि शोध के अनुसार अधिकतर लोग जिनमें एंटीबॉडीज़ मिले हैं उनमें से कई लोगों में उस वक्त कोविड-19 के लक्षण भी मौजूद थे।

हालांकि शोधकर्ता कहते हैं कि अमेरिका में बड़े पैमाने पर वायरस का संक्रमण फ़रवरी 2020 के आख़िरी सप्ताह में ही फैलना शुरू हुआ। लेकिन अब तक वायरस की उत्पत्ति को लेकर जो जानकारी है क्या इस शोध से उसमें कोई बदलाव आएगा?

आख़िर वायरस सबसे पहले कहां पाया गया?

Sars-Cov-2 वायरस सबसे पहले कहां पाया गया? इस सवाल का उत्तर देना शायद कभी संभव न हो सके।

इस तरह के कई संकेत मिले हैं कि ये वायरस 31 दिसंबर 2019 में चीन के वुहान में पाए जाने से कई सप्ताह पहले से ही दुनिया में मौजूद था।

लेकिन सीडीसी के शोधकर्ताओं का कहना है कि वो इस बारे में निश्चित तौर पर कुछ कह नहीं सकते कि ये लोग अपने देश में ही संक्रमित हुए थे या फिर यात्रा के दौरान वो वायरस की चपेट में आए थे।

ब्लड डोनेशन कार्यक्रम का आयोजन करने वाली संस्था रेड क्रॉस का कहना है कि जिन लोगों के नमूने इकट्ठा किए गए थे उनमें से केवल तीन फ़ीसद ने कहा था कि उन्होंने हाल में विदेश यात्रा की है। इसमें से पाँच फ़ीसद का कहना था कि वो एशियाई देश के दौरे से लौटे हैं।

इससे पहले हुए कुछ और शोध में भी चीन की चेतावनी देने से पहले दूसरे देशों के लोगों में कोरोना वायरस होने के सबूत मिले थे।

मई 2020 में फ्रांसीसी वैज्ञानिकों ने कहा कि 27 दिसंबर 2019 को पेरिस के नज़दीक एक व्यक्ति का इलाज संदिग्ध निमोनिया मरीज़ के तौर पर किया गया था। ये व्यक्ति वास्तव में कोरोना वायरस से संक्रमित थे।

कई देशों में शोधकर्ताओं ने सीवर के पानी के नमूनों में कोरोना वायरस पाए जाने की बात की थी। ये नमूने महामारी की घोषणा से कई सप्ताह पहले लिए गए थे।

जून 2020 में इटली के वैज्ञानिकों ने कहा था कि मिलान शहर के सीवर के पानी में 18 दिसंबर 2019 को कोरोनो वायरस के निशान मिले थे। हालांकि यहां कोरोना वायरस के पहले मामले की पुष्टि काफी बाद में हुई थी।

स्पेन में हुए एक शोध के अनुसार बार्सिलोना में जनवरी 2020 के मध्य में सीवर के पानी के जो नमूने लिए गए थे, उनमें कोरोनो वायरस के निशान मिले।  लेकिन यहां चालीस दिन बाद कोरोना के पहले मामले की पुष्टि हुई थी।

ये वायरस ब्राज़ील कैसे पहुंचा? इसे लेकर भी कई तरह के सवाल उठाए गए हैं।

ब्राज़ील में कोरोना संक्रमण का पहला मामला 26 फरवरी 2020 को पाया गया था। साओ पाउलो के 61 साल के एक व्यापारी कोरोना के पहले मरीज़ जो कुछ दिनों पहले इटली की यात्रा से लौटे थे। उस वक्त तक इटली महामारी का दूसरा केंद्र बन चुका था।

हालांकि ब्राज़ील के फ़ेडरल यूनिवर्सिटी ऑफ़ सैंटा कैटरीना (यूएफ़एससी) के शोधकर्ताओं के एक दल ने इससे कुछ महीने पहले 27 नवंबर 2019 को सीवर के पानी में वायरस पाए जाने की बात की थी।

ओस्वाल्डो क्रूज़ फ़ाउंडेशन द्वारा किए गए एक और शोध के अनुसार ब्राज़ील में आधिकारिक तौर पर कोरोना संक्रमण के पहले मरीज़ की पुष्टि होने से क़रीब एक महीने पहले 19 से 25 जनवरी 2020 के बीच यहां Sars-Cov-2 संक्रमण का पहला मामला मिला था। हालांकि अब तक ये नहीं पता है कि इस व्यक्ति ने विदेशी दौरा किया था या नहीं।

तो क्या वुहान पशु बाज़ार से वायरस नहीं फैला?

Sars-CoV-2 के बारे में जो एक बात अब तक पता नहीं चल पाई है वो ये नहीं है कि ये जानवरों से इंसानों में कब आया, बल्कि ये है कि इस वायरस ने लोगों को संक्रमित करना कब शुरू किया?

जानकारों का कहना है कि अब तक महामारी का केंद्र वुहान के जानवरों के बाज़ार को माना जा रहा है जहां जीवित और मृत जंगली जानवरों का व्यवसाय होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि शुरुआती दौर में संक्रमण के जो मामले दर्ज किए गए उनमें से बड़ी संख्या में मामले इस बाज़ार से जुड़े थे।  लेकिन इस बात को लेकर शोधकर्ता अनिश्चित हैं कि ये वायरस वहां से एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के शरीर में फैलना शुरू हुआ।

हॉन्ग कॉन्ग यूनिवर्सिटी में माइक्रोबायोलॉजिस्ट युएन क्वॉक-युंग ने बीबीसी को बताया, ''अगर आप मुझसे पूछेंगे तो मेरी राय है कि इस बात की संभावना है कि वायरस उन बाज़ारों से फैलना शुरू हुआ जहां जंगली जानवरों की खरीद-बिक्री होती है।''

कोरोना वायरस को लेकर चीन ने भी अपनी टाइमलाइन को थोड़ा पीछे किया है। तेज़ी से पैर फैला रहे किसी वायरस की शुरुआत से जुड़ी जांच के दौरान ऐसा करना कोई बड़ी बात नहीं है।

चीन के वुहान में डॉक्टरों द्वारा की गई एक स्टडी के अनुसार यहां कोरोना के पहले मामले की पहचान 01 दिसंबर 2019 को हुई थी और इसका नाता जानवरों के बाज़ार से नहीं था। ये स्टडी मेडिकल जर्नल लैंसेट में प्रकाशित की गई थी।

कुछ जानकार कहते हैं कि महामारी फैलाने की क्षमता रखने वाला वायरस, बिना पहचान में आए महीनों तक दुनिया भर में मौजूद रहे, ऐसा संभव नहीं है।

लेकिन ये संभव है कि उत्तर गोलार्ध में विशेषकर सर्दियों के दौरान ये वायरस पहचान में आया हो और पहले से मौजूद रहा हो।

कोरोना वायरस: ब्रिटेन ने फ़ाइज़र के टीके को मंज़ूरी दी

ब्रिटेन दुनिया का पहला ऐसा देश बन गया है जिसने फ़ाइज़र कंपनी के बनाए टीके के इस्तेमाल की मंज़ूरी दे दी है।

ब्रिटिश नियामक संस्था एमएचआरए ने कहा है कि फ़ाइज़र/बायोएन्टेक की ये वैक्सीन कोविड-19 से 95% सुरक्षा देती है और इसके व्यापक इस्तेमाल की अनुमति देना सुरक्षित है।

बताया जा रहा है कि कुछ ही दिनों के भीतर ऐसे लोगों को टीका लगना शुरू हो जाएगा जिन्हें सबसे ज़्यादा ख़तरा है।

ब्रिटेन ने पहले से ही इस टीके की चार करोड़ डोज़ के लिए ऑर्डर दिया हुआ है।

हर व्यक्ति को टीके के दो डोज़ दिए जाएँगे। यानी अभी दो करोड़ लोगों को टीका मिल सकता है।

ये दुनिया की सबसे तेज़ी से विकसित वैक्सीन है जिसे बनाने में 10 महीने लगे। आम तौर पर ऐसी वैक्सीन के तैयार होने में एक दशक तक का वक़्त लग जाता है।

हालाँकि जानकारों का कहना है कि टीके के बावजूद लोगों को संक्रमण रोकने के नियमों का पालन करते रहना चाहिए।

ये वैक्सीन कैसे काम करती है?

ये एक नई तरह की एमआरएनए कोरोना वैक्सीन है जिसमें महामारी के दौरान इकट्ठा किए कोरोना वायरस के जेनेटिक कोड के छोटे टुकड़ों को इस्तेमाल किया गया है। कंपनी के अनुसार जेनेटिक कोड के छोटे टुकड़े शरीर के भीतर रोग प्रतिरोधक शक्ति को बढ़ाती है और कोविड-19 के ख़िलाफ शरीर को लड़ने के लिए तैयार करती है।

इससे पहले कभी इंसानों में इस्तेमाल के लिए एमआरएनए वैक्सीन को मंज़ूरी नहीं दी गई है। हालांकि क्लिनिकल ट्रायल के दौरान लोगों को इस तरह की वैक्सीन के डोज़ दिए गए हैं।

एमआरएनए वैक्सीन को इंसान के शरीर में इंजेक्ट किया जाता है। ये इम्यून सिस्टम को कोरोना वायरस से लड़ने के लिए एंटीबॉडी बनाने और टी-सेल को एक्टिवेट कर संक्रमित कोशिकाओं को नष्ट करने के लिए कहती है।

इसके बाद जब ये व्यक्ति कोरोना वायरस से संक्रमित होता है तो उसके शरीर में बनी एंटीबॉडी और टी-सेल वायरस से लड़ने का काम करना शुरू कर देते हैं।

वैक्सीन की रेस में और कौन-कौन शामिल?

ऑक्सफर्ड-एस्ट्राज़ेनिका की वैक्सीन - ये वाइरल वेक्टर टाइप वैक्सीन है जिसमें जेनेटिकली मॉडिफ़ाइड वायरस का इस्तेमाल किया गया है। इसे फ्रिज में सामान्य तापमान पर स्टोर किया जा सकता है और इसकी दो डोज़ लेनी होंगी। अब तक क्लिनिकल ट्रायल में इसे 62 से 90 फीसदी तक कारगर पाया गया है।

इस वैक्सीन के प्रति डोज़ की क़ीमत 4 डॉलर तक होगी।

मॉडर्ना की वैक्सीन - ये एमआरएनए टाइप की कोरोना वैक्सीन है जिसे वायरस के जेनेटिक कोड के कुछ टुकड़े शामिल कर बनाया जा रहा है। इसे माइनस 20 डिग्री तापमान पर स्टोर करने की ज़रूरत होगी और इसे छह महीनों तक ही स्टोर किया जा सकेगा। इसकी दो डोज़ लेनी होंगी और अब तक हुए क्लिनिकल ट्रायल में इसे 95 फीसदी तक कारगर पाया गया है।

इस वैक्सीन के प्रति डोज़ की क़ीमत 33 डॉलर तक होगी।

फ़ाइज़र की वैक्सीन - मॉडर्ना की वैक्सीन की तरह ये भी एमआरएनए टाइप की कोरोना वैक्सीन है। अब तक हुए क्लिनिकल ट्रायल में इसे 95 फीसदी तक कारगर पाया गया है। इसे माइनस 70 डिग्री के तापमान पर स्टोर करना होगा।

ये वैक्सीन दो डोज़ दी जाएगी और प्रति डोज़ की क़ीमत 15 डॉलर तक होगी।

गामालेया की स्पुतनिक-वी वैक्सीन - ये ऑक्सफर्ड की वैक्सीन की तरह वाइरल वेक्टर टाइप वैक्सीन है जिसके अब तक हुए क्लिनिकल ट्रायल में 92 फीसदी तक कारगर पाया गया है। इसे फ्रिज में सामान्य तापमान पर स्टोर किया जा सकता है और इसकी दो डोज़ लेनी होंगी।

इस वैक्सीन के प्रति डोज़ की क़ीमत 7.50 डॉलर तक होगी।

इसके अलावा रूस स्पुत्निक नाम की एक और वैक्सीन का इस्तेमाल कर रहा है। वहीं चीनी सेना ने कैनसाइनो बायोलॉजिक्स की बनाई एक वैक्सीन को मंज़ूरी दे दी है। ये दोनों वैक्सीन ऑक्सफर्ड की वैक्सीन की तरह वाइरल वेक्टर टाइप वैक्सीन हैं।

सॉफ्ट लैंडिंग: चांद पर उतरा चीन का चांग ई-5 यान, धरती पर चट्टान लाएगा

चीन ने अपना एक और अंतरिक्ष यान सफलतापूर्वक चांद की सतह पर उतारा है।

रोबोटिक मून मिशन चांग ई-5 ने चांद की सतह पर निर्धारित जगह के क़रीब सॉफ्ट लैंडिंग की है।

माना जा रहा है कि ये अंतरिक्षयान आने वाले कुछ दिनों में चांद की सतह के मिट्टी और पत्थरों के नमूनों को इकट्ठा करेगा और जाँच के लिए उन्हें पृथ्वी पर भेजेगा।

इस मिशन को मॉन्स रूमकेर में उतारा जाना था तो चांद के ज्वालामुखी वाली पहाड़ियों के पास मौजूद एक जगह है।

नमूनों को इकट्ठा करने के लिए भेजे गए चांग ई-5 के लैंडर में कैमरा, रडार, एक ड्रिल और स्पेक्ट्रोमीटर फिट किया गया है।

ये लैंडर क़रीब दो किलो तक के वज़न के पत्थर और मिट्टी इकट्ठा कर सकता है। इकट्ठा नमूनों को ये एक ऑर्बिटिंग मिशन तक पहुंचागा जो इसे आगे पृथ्वी पर भेजेगा।

चांग ई-5 से 44 साल पहले, सोवियत संघ का लूना 24 मिशन चांद की सतह से 200 ग्राम मिट्टी पृथ्वी पर लेकर आया था।

एक सप्ताह पहले इस यान के प्रक्षेपण को चीनी टीवी चैनलों द्वारा लाइव कवर किया गया था लेकिन मिशन की लैंडिग को टीवी चैनल पर नहीं दिखाया गया।

एक बार जब मिशन ने सफलतापूर्वक चांद पर लैंडिंग की उसके बाद ही इस ख़बर को टीवी पर दिखाया गया। साथ ही मिशन ने लैंडिंग के वक्त चांद की सतह की जो तस्वीरें ली थीं उसे भी टीवी पर प्रसारित किया गया।

चीनी स्पेस एजेंसी ने कहा है कि लैंडिंग 01 दिसंबर 2020 को स्थानीय समयानुसार 23:11 बजे हुई।

चीन के मून मिशन की सफलता पर अमेरिकी स्पेस एजेंसी ने चीन को बधाई दी है।

नासा की वरिष्ठ अधिकारी डॉक्टर थॉमस ज़रबुचेन ने कहा है कि उन्हें उम्मीद है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चांद पर शोध करने वालों को भी पृथ्वी पर भेजे जाने वाले नमूनों का विश्लेषण करने का मौक़ा मिलेगा।

उन्होंने कहा, ''हमें उम्मीद है कि चांद की सतह से मिट्टी और पत्थर के नमूने पृथ्वी पर भेजे जाने के बाद सभी को इसके शोध से लाभ होगा। इस बेहद महत्वपूर्ण नमूनों के शोध से अंतरराष्ट्रीय विज्ञान समुदाय को भी फायदा होगा।''

8.2 टन के चांग ई-5 को एक अंतरिक्षयान के ज़रिए 24 नवंबर 2020 को दक्षिणी चीन के वेनचांग स्टेशन से छोड़ा गया था।

कुछ दिन पहले ये मिशन चांद के ऊपर पहुंचा और इसने खुद को चांद की कक्षा में स्थापित किया और चांद के चक्कर लगाने लगा। बाद में ये दो टुकड़ों में बंट गया - पहला सर्विस व्हीकल और रिटर्न मॉड्यूल जो चांद की कक्षा में ही रुके रहे और दूसरा लैंडर जो धीरे-धीरे चांद की सतह की तरफ बढ़ने लगा।

चांग ई-5 मिशन से पहले चीन ने दो और मून मिशन भेजे थे, साल 2013 में चांग ई-3 और 2019 में चांग ई-4 मून मिशन। इन दोनों में एक लैंडर के साथ-साथ एक छोटा मून रोवर शामिल किया गया था।

अब तक मून मिशन के दौरान अमेरिकी अपोलो अंतरिक्षयान से चांद पर गए अंतरिक्षयात्रियों और सोवियत रूस के रोबोटिक लूना कार्यक्रम ने चांद की सतह से क़रीब 400 किलो तक मिट्टी और पत्थर जमा किए हैं, लेकिन अधिकतर वो मिशन थे जिनमें अंतरिक्षयात्री शामिल थे।

चांद से लाए ये सभी नमूने क़रीब तीन अरब साल पुराने हैं।

माना जा रहा है कि मॉन्स रूमकेर से लाए गए नमूनों की उम्र 1.2 से 1.3 अरब साल होगी, यानी वो पहले लाए गए नमूनों की अपेक्षा नए होंगे।  जानकारों का मानना है कि इससे चांद के भूवैज्ञानिक इतिहास के बारे में अधिक जानकारी मिल सकेगी।  

इन नमूनों की मदद से वैज्ञानिकों को सटीक रूप से 'क्रोनोमीटर' तैयार करने में भी मदद मिलेगी जिससे सौर मंडल के ग्रहों के सतहों की उम्र को जाना जाता है।

ये किसी ग्रह या उपग्रह की सतह पर मौजूद ज्वालामुखी की संख्या पर निर्भर करता है। वैज्ञानिकों के अनुसार जिस ग्रह की सतह पर अधिक ज्वालामुखी होंगे वो अधिक पुरानी होगी यानी उसकी उम्र अधिक होगी।  हालांकि इसके लिए अलग-अलग जगहों को देखा जाना ज़रूरी होता है।

अपोलो और लूना मिशन के भेजे गए नमूनों से 'क्रोनोमीटर' तैयार करने में वैज्ञानिकों को काफी मदद मिली थी। अब चांग ई-5 मिशन के भेजे नमूनों से उन्हें इसे और सटीक रूप से विकसित करने में मदद मिलेगी।

चीन से मिल रही ख़बरों के अनुसार चांद की सतह से नमूने इकट्ठा करने का काम कुछ दिनों तक ही किया जाएगा और नमूनों को चांद की कक्षा में पहले से ही मौजूद सर्विस व्हीकल और रिटर्न मॉड्यूल तक पहुंचाया जाएगा।

योजना के अनुसार रिटर्न मॉड्यूल मंगोलिया के भीतरी इलाक़े में सिज़िवांग गे घास के मैदानों में लैंड कर सकता है। इसी के साथ चीन के अंतरिक्षयात्री भी वापस लौट आएंगे।

यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी में ह्यूमन एंड रोबोटिक एक्सप्लोरेशन के विज्ञान समन्वयक डॉक्टर जेम्स कार्पेन्टर का कहना है कि चांग ई-5 बेहद जटिल मिशन है।

वो कहते हैं, ''मुझे लगता है कि वो जो कर रहे हैं वो शानदार काम है। उन्होंने चांग ई के पहले मिशन से लेकर अब तक सुनियोजित तरीके से एक के बाद एक कदम उठाए है और अंतरिक्ष की खोज से जुड़ी अपनी काबिलियत को बढ़ाया है।''