विज्ञान और टेक्नोलॉजी

क्या आईसीएमआर 15 अगस्त तक कोरोना की स्वदेशी वैक्सीन बना लेगा?

भारत में कोरोना वायरस की वैक्सीन 15 अगस्त तक बना लेने की अंतिम तारीख़ तय करने से जुड़े मामले पर इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) ने अब सफ़ाई जारी की है। आईसीएमआर ने कहा है कि वैश्विक रूप से स्वीकृत नियमों के तहत ही फ़ास्ट ट्रैक वैक्सीन बनाई जाएगी।

आईसीएमआर ने अपना दो पन्नों का बयान ट्वीट करते हुए लिखा है कि भारत के लोगों की सुरक्षा और हित सर्वोच्च प्राथमिकता है।

दरअसल 15 अगस्त की तारीख़ पर बहस आईसीएमआर के महानिदेशक डॉक्टर बलराम भार्गव के इस हफ़्ते लिखे गए एक मेमो के बाद शुरू हुई थी। इसमें उन्होंने भारत की शीर्ष क्लीनिकल रिसर्च एजेंसियों से स्वतंत्रता दिवस तक कोरोना वायरस की वैक्सीन लॉन्च करने की बात कही थी।

अब आईसीएमआर ने महानिदेशक के बयान पर सफ़ाई जारी करते हुए कहा है, ''डीजी-आईसीएमआर का पत्र क्लीनिकल ट्रायल कर रहे अनुसंधानकर्ताओं से बेवजह की लाल-फ़ीताशाही से बचने के लिए था ताकि ज़रूरी प्रक्रियाएं भी न छूटें और नए प्रतिभागियों की भर्ती भी हो सके।''

''साथ ही नए स्वदेशी टेस्टिंग किट या कोविड-19 से संबंधित दवाई को बाज़ार में उतारने के लिए फ़ास्ट ट्रैक अनुमति में लाल-फ़ीताशाही बाधा न बने। स्वदेशी वैक्सीन विकसित करने की प्रक्रिया में धीमी गति से भी बचने को कहा गया था ताकि इस चरण को जल्द पूरा कर लिया जाए और जनसंख्या आधारित ट्रायल की शुरुआत की जा सके।''

आईसीएमआर ने कहा है कि फ़ास्ट ट्रैक वैक्सीन विकसित करने की प्रक्रिया वैश्विक रूप से स्वीकृत नियमों के तहत हो रही है।

आईसीएमआर का कहना है कि वैक्सीन का जानवरों और इंसानों पर एक साथ परीक्षण किया जा सकता है।

साथ ही वैक्सीन का ट्रायल मुश्किल से मुश्किल प्रयोगों के साथ होगा और ज़रूरत पड़ने पर डाटा सेफ़्टी मॉनिटरिंग बोर्ड इसकी समीक्षा कर सकता है।

भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने उम्मीद जताई है कि भारत में बन रही कोरोना वैक्सीन 15 अगस्त तक लॉन्च हो जानी चाहिए। आईसीएमआर ने इस वैक्सीन के ट्रायल से जुड़े संस्थानों को ख़त लिखकर ये बात कही।

इस स्वदेशी वैक्सीन को आईसीएमआर और हैदराबाद स्थित भारत बायोटेक कंपनी मिलकर बना रही है।

आईसीएमआर का कहना है कि एक बार क्लीनिकल ट्रायल पूरा हो जाए तो 15 अगस्त यानी भारत की आज़ादी के दिन इस वैक्सीन को आम लोगों के लिए लॉन्च किया जा सकता है।

क्लीनिकल ट्रायल के लिए भारत के 12 संस्थानों को चुना गया है। आईसीएमआर के निदेशक डॉक्टर बलराम भार्गव ने दो जुलाई को इन 12 संस्थानों को ख़त लिखकर कहा कि उन्हें सात जुलाई तक क्लीनिकल ट्रायल की इजाज़त ले लेनी चाहिए।

अपने पत्र में डॉक्टर भार्गव ने लिखा, ''कोरोना को रोकने के लिए आईसीएमआर के ज़रिए बनाई गई वैक्सीन के फ़ास्ट-ट्रैक ट्रायल के लिए भारत बायोटेक कंपनी के साथ एक समझौता किया गया है। कोरोनावायरस से एक स्ट्रेन निकालकर इस वैक्सीन को बनाया गया है।

''क्लीनिकल ट्रायल के बाद आईसीएमआर 15 अगस्त तक लोगों को ये वैक्सीन उपलब्ध कराना चाहता है। भारत बायोटेक भी युद्ध स्तर पर काम कर रही है। लेकिन इस वैक्सीन की सफलता उन संस्थानों के सहयोग पर निर्भर है जिन्हें क्लीनिकल ट्रायल के लिए चुना गया है।''

क्या स्मार्ट होम डिवाइस के इस्तेमाल से घरेलू हिंसा बढ़ रही है?

आज तकनीक ने इंसान की ज़िंदगी को बहुत आसान बना दिया है। दुनिया भर में लागू लॉकडाउन के इस दौर में तो ये तकनीकी उपकरण और भी कारगर साबित हुए हैं।

आज दुनिया के विकसित देशों में कई लोगों के घरों में ऐसे स्मार्ट डिवाइस हैं जो हमारे इशारों पर काम करते हैं।

अलेक्सा से लेकर सिरी और गूगल होम तक, स्मार्ट लाइट बल्ब, सिक्योरिटी कैमरे और घर के तापमान नियंत्रित करने वाले थर्मोस्टेट इसकी मिसाल हैं।

इन्हें तकनीक की भाषा में इंटरनेट ऑफ़ थिंग कहते हैं (IoT)। यहां तक कि हम अपनी रसोई में जिन उपकरण का इस्तेमाल करते हैं उनमें भी कई तरह के सेंसर लगे होते हैं।

लेकिन दुनिया के विकासशील देशों और पिछड़े देशों में ऐसे स्मार्ट डिवाइस की सिर्फ कल्पना की जा सकती है। इन देशों में कुछ लोगों के पास ऐसे स्मार्ट डिवाइस हैं। असल में विकसित देशों में ऐसे स्मार्ट डिवाइस का चलन ज्यादा है।

कहा जा रहा है कि अगले दस साल में इनका इस्तेमाल और बढ़ने की संभावना है। लेकिन बहुत से लोग इन डिवाइस के बढ़ते इस्तेमाल से ख़ौफ़ज़दा हैं।

वो इन्हें जासूस कहते हैं। ऐप, या इंटरनेट से चलने वाली डिवाइस हमारे आदेशानुसार चलते हैं। हम इन्हें जो भी कमांड देते हैं वो इनमें स्टोर हो जाती हैं।

इस जानकारी का इस्तेमाल किसी भी रूप में किया जा सकता है।

एक रिसर्च तो ये भी कहती है कि स्मार्ट डिवाइस का इस्तेमाल घरेलू हिंसा को बढ़ावा दे रहा है और रिश्तों में कड़वाहट ला रहा है।

ख़ासतौर से स्मार्टफ़ोन का इस्तेमाल तो सबसे ज़्यादा ख़तरनाक है। इससे किसी भी इंसान की निजता पूरी तरह ख़त्म हो जाती है।

स्मार्टफ़ोन के लिए कई ऐसे ऐप हैं, जिनसे किसी भी शख़्स की जासूसी उसकी जानकारी के बिना हो सकती है।

बहुत से मां-बाप अपने बच्चों पर नज़र रखने के लिए इनका इस्तेमाल करते हैं। हमारे घरों में लगे कैमरे भी बाहर वालों के साथ-साथ घर वालों पर भी नज़र रखते हैं।

घर में कौन आया, किस कमरे में गया, कितनी देर वहां रहा सब कुछ आपको घर से दूर रहने पर भी पता चल जाता है।

यहां तक कि आप कब घर से बाहर निकले, कब घर के अंदर आए ये जानकारी भी आपके कैमरे में मौजूद रहती है जिसका इस्तेमाल किसी भी रूप में किया जा सकता है।

अगर घर में इंटरनेट से चलने वाले ताले लगे हैं, तो घर से दूर रहने पर भी किसी को घर में बंद किया जा सकता है।

स्मार्ट डिवाइस बनाने वालों ने सोचा भी नहीं होगा कि इनका इस्तेमाल एक दूसरे की ज़िंदगी को नियंत्रित करने और उस पर नज़र रखने के लिए किया जा सकता है।

लेकिन ऐसा हो रहा है। इसकी मिसाल हम एक केस में देख भी चुके हैं।

ब्रिटेन में रॉस केयर्न्स नाम के एक व्यक्ति ने घर में तापमान नियंत्रित करने वाले माइक्रोफ़ोन टेबलेट से अपनी पत्नी की जासूसी की थी, जिसके जुर्म में उसे 11 महीने की सज़ा हुई थी।

ऐसे कई और मामले भी सामने आ चुके हैं। जानकारों का कहना है कि एक-दूसरे को बुरा-भला कहना, मारपीट करना रिश्तों में कड़वाहट लाने के पुराने तरीक़े हैं।

लेकिन स्मार्ट डिवाइस के ज़रिए जिस तरह के अपराध हो रहे हैं वो ज़्यादा ख़तरनाक हैं।

एक ही घर में जब तमाम स्मार्ट डिवाइस का कंट्रोल घर के किसी एक व्यक्ति के हाथ में होता है, तो वहां रहने वाले अन्य व्यक्तियों से नियंत्रण छिन जाता है।

वो जैसे चाहे इसका इस्तेमाल कर सकता है।

डिवाइस के ज़रिए की जाने वाली निगरानी धीरे-धीरे पीछा करने की सूरत अख़्तियार कर लेती है। घर में तकरार शुरू हो जाती है।

फिर ये तकरार किस हद तक पहुंचेगी, कहना मुश्किल है।

दुनिया भर में लगभग एक तिहाई महिलाओं ने अपने साथी से किसी ना किसी रूप में शारीरिक या यौन शोषण का अनुभव किया है।

इस तरह की हरकतें बच्चों में अवसाद, गर्भपात, जन्म के समय बच्चे का कम वज़न और एचआईवी के ख़तरे को बढ़ा देती हैं।

कुछ केस में तो तांक-झांक का सिलसिला क़त्ल पर जाकर रुकता है। चोरी छुपे किसी की ताक-झांक करना उसे मानसिक रूप से परेशान करना है।

दुनिया भर में 38 फ़ीसद महिलाओं का क़त्ल उनके मौजूदा या पुराने साथी के हाथों होता है।

जानकार कहते हैं कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर घरेलू हिंसा हमारी कल्पना से कहीं ज़्यादा होती है। ये एक वायरस की तरह है जो एक दूसरे से फैलता है।

2017 की एक स्टडी बताती है कि जो बच्चे अपने घरों में महिलाओं के साथ हिंसा देखते हैं बड़े होकर वो भी वैसा ही करते हैं।

लॉकडाउन के इस समय में भी घरेलू हिंसा के मामले बहुत ज़्यादा बढ़े हैं।

जानकारों ने ये भी चिंता ज़ाहिर की है कि अगर लॉकडाउन अगले 6 महीने के लिए बढ़ाया गया तो घरेलू हिंसा के मामलों में भयानक उछाल आएगा।

बहुत से लोग तो अभी ये भी नहीं जानते कि तकनीक से किस किस तरह से शोषण किया जा सकता है।

मिसाल के लिए जिस कमरे में आप सो रहे हैं, अचानक वहां का तापमान बढ़ा दिया जाए। इंटरनेट कनेक्टेड लॉक से आपको कमरे में बंद कर दिया जाए।

या आधी रात में आचानक डोर बेल बजा दी जाए। घर में घुसने वाले दरवाज़े का कोड आपको बताए बिना बदल दिया जाए।

ये सभी हरकतें आपको दिमाग़ी तौर पर परेशान करने वाली हैं और घरेलू हिंसा के दायरे में आती हैं। लेकिन अक्सर महिलाएं इस बारीकी को समझ नहीं पातीं।

साइबर सिक्योरिटी एक्सपर्ट का कहना है कि अपने पार्टनर के मैसेज की तांकझांक, फ़ोन की लोकेशन ट्रैक करने वाले ऐप या पार्टनर के कैमरे में घुसने की इजाज़त देने वाली डिवाइस में 35 फ़ीसद का इज़ाफ़ा हुआ है।

दिलचस्प बात है कि जिसकी जासूसी की जाती है उसे पता भी नहीं होता।  और उसके फ़ोन में ऐप डाल दिया जाता है।

ये सरासर किसी की निजता के अधिकार का हनन और एक बड़ा जुर्म है।  लेकिन अफ़सोस की बात है कि ऐसे लोगों पर लगाम कसने के लिए बहुत कम हेल्पलाइन हैं।

ब्रिटेन में रिफ़्यूजी नाम की एक हेल्पलाइन है, जो ऐसे लोगों पर नज़र रखती है। लेकिन देखा गया है कि ऐसी हेल्पलाइन भी बहुत मददगार नहीं हैं।

वो सबसे पहले पीड़ित को पासवर्ड या डिवाइस बदलने का मशवरा देती हैं। और जब ऐसा होता है तो हालात और बिगड़ जाते हैं।

ऐसे जासूसी करने वाले पार्टनर से रिश्ता ख़त्म करके भी पीछा नहीं छूटता।  

दरअसल जो लोग इस तरह की जासूसी करते हैं वो एक तरह के दिमाग़ी मरीज़ होते हैं। अगर किसी शख़्स को अपने साथी पर शक है तो वो किसी भी हद तक जा सकता है।

ऐसे लोग सामने वाले की तकलीफ़ में अपनी ख़ुशी तलाशते हैं। अपने साथी से दूर होने के बाद भी वो उसे परेशान करते ही रहते हैं।

हालांकि ऐसे लोगों पर लगाम कसने के लिए क़ानून में बदलाव की बात हो रही है। ऐसी हरकत करने वालों को उनके अंजाम तक पहुंचाने के लिए कई संस्थाएं भी बन रही हैं।

तकनीक हमारी ज़िंदगी को आसान बनाने के लिए है। उसका इस्तेमाल उसी तरह से करना चाहिए न कि उसे हथियार बनाकर अपने ही रिश्तों को तार-तार किया जाए।

रिश्ते भरोसे की बुनियाद पर टिके होते हैं। अगर अपने ही साथी की जासूसी करनी पड़े तो फिर भरोसा कहां है?

भरोसा नहीं तो रिश्ता कैसा? किसी भी बुरे रिश्ते में क़ैद रहने से बेहतर है उससे जल्द से जल्द आज़ाद हो जाना चाहिए।

हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्विनः फ़्रांस ने रोक लगाई, लेकिन कई देशों में इस्तेमाल जारी

हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्विन नाम की मलेरिया की दवा से कोरोना वायरस के संक्रमण का इलाज होने के दावों को एक बड़ा आघात लगा है जब फ़्रांस में कोविड रोगियों के इलाज के लिए इसके इस्तेमाल पर रोक लगा दी गई।

फ़्रांस सरकार ने कहा है कि दो सलाहकार संस्थाओं ने ये पाया कि इस दवा के सेहत से जुड़े गंभीर प्रभाव हो सकते है जिसके बाद वहाँ डॉक्टरों के इस दवा को लेने पर रोक लगा दी गई है जो एहतियात के तौर पर इसका सेवन कर रहे थे।

पर कई देशों में इसका इस्तेमाल हो रहा है और कई देशों में इस पर रिसर्च किया जा रहा है।

अमरीका में सरकार ने अस्पतालों में रोगियों को आपातकाल परिस्थितियों में इस दवा के इस्तेमाल की मंज़ूरी दे दी है। लेकिन उसने चेतावनी दी है कि अस्पतालों के बाहर या शोध से अलग इस दवा का प्रयोग नहीं किया जाए क्योंकि इससे दिल को ख़तरा हो सकता है। हालाँकि अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप खुलकर इस दवा को समर्थन देते रहे हैं और उन्होंने कहा कि वे ख़ुद एहतियात के तौर पर इस दवा का सेवन करते रहे हैं।

ब्राज़ील में भी इस दवा पर लगी पाबंदियों में ढील दी गई है और साधारण मामलों से लेकर अस्पतालों में गंभीर रूप से बीमार रोगियों को ये दवा देने की छूट दे दी गई है। ब्राज़ील के राष्ट्रपति जेर बोल्सोनारो इस दवा के इस्तेमाल के पक्षधर रहे हैं।

भारत सरकार ने इसके इस्तेमाल के दायरे को और बढ़ाकर अब इसे एहतियाती दवा के तौर पर स्वास्थ्यकर्मियों को देना तय किया है।

मगर अब किसी भी रिसर्च में ये नहीं कहा गया है कि ये दवा कोरोना संक्रमण का इलाज है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस सप्ताह सुरक्षा कारणों से इस दवा के परीक्षण पर अस्थायी तौर पर रोक लगा दी।

लेकिन और कुछ जगह अध्ययन हो रहे हैं, जैसे स्विस दवा कंपनी नोवार्टिस अमरीका में परीक्षण कर रही है। ऐसे ही ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के समर्थन से थाईलैंड में महिडोल ऑक्सफ़ोर्ड ट्रॉपिकल मेडिसीन रिसर्च यूनिट में भी एक शोध हो रहा है।

अफ़्रीकी देश नाइजीरिया ने कहा है कि वो इस दवा से जुड़ी एक और दवा क्लोरोक्वीन के क्लीनिकल ट्रायल के लिए दबाव डालेगा।

कोरोना लॉकडाउन की वजह से भारत में पहली बार कम हुआ कार्बन उत्सर्जन

बीते चार दशकों में पहली बार ऐसा हुआ है जब भारत का कार्बन उत्सर्जन कम हुआ है।

इसकी वजह क्या कोरोना वायरस को फैलने से रोकने के लिए लगाया गया लॉकडाउन ही है?

पर्यावरण वेबसाइट कार्बन ब्रीफ़ की रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में लॉकडाउन लागू होने से पहले ही बिजली की खपत कम होने की वजह से और अक्षय ऊर्जा का इस्तेमाल बढ़ने से ईंधन की मांग कम हो गई थी।

फिर मार्च में लागू लॉकडाउन ने बीते सैंतीस सालों में पहली बार भारत में कार्बन उत्सर्जन की बढ़त के ट्रेंड को पलट दिया।

शोध के मुताबिक़ मार्च में भारत का कार्बन उत्सर्जन 15 प्रतिशत कम हुआ है और अप्रैल में तीस प्रतिशत कम होने की उम्मीद (अभी इसके आंकड़े आना बाक़ी है) ज़ाहिर की गई है। यानि दो महीने में कार्बन उत्सर्जन में 45 प्रतिशत की कमी हुई है।   

बिजली की माँग में जो भी कमी हुई है उससे कोयला आधारित जेनरेटर ही प्रभावित हुए हैं। और यही शायद कार्बन उत्सर्जन कम होने की वजह भी है।

कोयले से होने वाला बिजली उत्पादन मार्च में 15 प्रतिशत और अप्रैल के पहले तीन सप्ताह में 31 प्रतिशत कम हुआ।

लेकिन लॉकडाउन से पहले ही कोयले की माँग कम होने लगी थी।

शोध के मुताबिक़ मार्च 2020 में समाप्त होने वाले वित्तीय वर्ष में कोयले की बिक्री दो प्रतिशत कम हुई थी।

यूं तो ये आंकड़ा कम है लेकिन जब इसे बीते वर्षों की तुलना में देखा जाए तो ये काफ़ी बड़ा लगता है।

बीते एक दशक में हर साल कोयले से बिजली के उत्पादन में प्रति वर्ष 7.5 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई थी।

भारत में तेल की खपत में भी इसी तरह की कमी नज़र आती है।

साल 2019 की शुरुआत से ही इसकी ईंधन खपत की रफ़्तार धीमी होने लगी थी।

और इसमें भी कोविड-19 की वजह से लागू लॉकडाउन का असर स्पष्ट है।

मार्च में तेल की खपत में बीते साल के मुक़ाबले 18 प्रतिशत की गिरावट आई।

इसी बीच अक्षय ऊर्जा स्रोतों से बिजली की आपूर्ति बढ़ी है और लॉकडाउन के दौरान स्थिर रही है।

हालांकि लॉकडउन की वजह से माँग में कमी के बावजूद अक्षय ऊर्जा स्रोतों के उत्पादन के स्थिर रहने का ये ट्रेंड भारत तक ही सीमित नहीं है।

इंटरनेशनल इनर्जी एजेंसी (आईईए) की ओर से अप्रैल के अंत में प्रकाशित आंकड़ों के मुताबिक़ दुनियाभर में कोयले की खपत 8 प्रतिशत कम हुई है।

वहीं सौर और वायु ऊर्जा की माँग दुनियाभर में बढ़ी है।

बिजली की माँग में कमी का असर कोयले से होने वाले बिजली उत्पादन पर पड़ने की एक वजह ये भी है कि रोज़मर्रा में कोयले से बिजली उत्पादन महंगा पड़ता है।

वहीं एक बार सौर पैनल या विंड टरबाइन लगने के बाद उसे संचालित करने का ख़र्च कम होता है, और इसी वजह से इन्हें इलेक्ट्रिसिटी ग्रिड में प्राथमिकता दी जाती है।

वहीं तेल, गैस या कोयले से संचालित होने वाले थर्मल पॉवर प्लांट के लिए ईंधन ख़रीदना होता है।

हालांकि विशेषज्ञ ये भी कहते हैं कि जीवाश्म ईंधन की खपत में कमी हमेशा नहीं रहेगी।

विशेषज्ञ कहते हैं कि लॉकडाउन हटने के बाद देश अपनी अर्थव्यवस्थाओं को फिर से चलाने की कोशिश करेंगे और थर्मल पॉवर की खपत बढ़ जाएगी और कार्बन उत्सर्जन भी बढ़ेगा।

अमरीका ने पर्यावरण नियमों में ढील देनी शुरू कर दी है और डर ये है कि दुनिया के बाक़ी देश भी ऐसा ही कर सकते हैं।

हालांकि कार्बन ब्रीफ़ के विश्लेषक मानते हैं कि भारत शायद ऐसा न करे और इसके कारण भी हैं।

कोरोना वायरस महामारी ने भारत के कोयला सेक्टर में लंबे समय से चले आ रहे संकट को फिर रेखांकित किया है।

और भारत सरकार 90 हज़ार करोड़ रुपए का पैकेज तैयार कर रही है।

लेकिन भारत सरकार अक्षय ऊर्जा सेक्टर की मदद करने पर भी विचार कर रही है।

भारत में अक्षय ऊर्जा कोयले के मुक़ाबले काफ़ी सस्ती है।

रिपोर्ट में दावा किया गया है कि सौर ऊर्जा पर 2.55 रुपए प्रति किलोवाट प्रति घंटा ख़र्च आता है जबकि कोयले से उत्पादन होने वाली बिजली पर औसतन 3.38 रुपए प्रति किलोवाट प्रति घंटा ख़र्च आता है।

स्वच्छ ऊर्जा में निवेश भारत के राष्ट्रीय स्वच्छ हवा कार्यक्रम के लिए मुफ़ीद भी है। ये कार्यक्रम साल 2019 में शुरू किया गया था।

पर्यावरणविदों का ये भी मानना है कि लॉकडाउन में साफ़ हुई हवा और आसमान देख रहे भारतीय सरकार पर वायु प्रदूषण कम करने और स्वच्छ ऊर्जा में निवेश करने के लिए दबाव बनाएंगे।

चीन ने कोरोना महामारी को कैसे रोका?

कोरोना के ख़िलाफ़ युद्ध में चीन अपने विस्तृत सर्विलांस सिस्टम का इस्तेमाल कर रहा है।

वो तकनीक के ज़रिए न केवल लोगों पर लगातार नज़र रख रहा है बल्कि इसके ज़रिए वो कोरोना वायरस को फैलने से रोक भी रहा है।

आधिकरिक आंकड़ों के अनुसार चीन में कोरोना संक्रमण के ताज़ा मामलों में बड़ी गिरावट आई हैं। जहां पांच सप्ताह पहले रोज़ाना यहां संक्रमण के हजार मामले आते थे, अब वहीं यहां नए मामले लगभग शून्य के बराबर हैं।

चीन की तरह ही कई और देश भी कोरोना को फैलने से रोकने के लिए सर्विलांस सिस्टम का इस्तेमाल कर रहे हैं या फिर इसकी योजना बना रहे हैं। वो जीपीएस ट्रेकिंग कर व्यक्ति पर निगरानी रख रहे हैं। लेकिन क्या ये कारगर तरीका है?

और क्या इससे कोरोना महामारी को रोकने में मदद मिल रही है?

क्या दुनिया के 5G नेटवर्क पर चीन के कब्जे को अमेरिका रोक पायेगा?

5G तकनीक हाई स्पीड इंटरनेट सर्विस का वादा करती है और इसकी मदद से यूजर किसी फ़िल्म को महज कुछ सेकेंड में डाउनलोड कर लेते हैं। दुनिया के कई हिस्सों में इसकी शुरुआत हो चुकी है।

4G ने लोगों के अनुभवों को बहुत बदल दिया, ख़ासकर मोबाइल वीडियो और गेमिंग के अनुभव को। 5G और बदलाव लाएगा।

अमरीका और ब्रिटेन में 5G नेटवर्क की शुरुआत पर ख्वावे पर लगे प्रतिबंधों का भी असर पड़ा है।

सुरक्षा कारणों का हवाला देते हुए अमेरिका ने चीनी कंपनी ख्वावे के उपकरणों का 5G नेटवर्क में इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया है और अपने सहयोगियों को भी ऐसा करने की सलाह दी है।

अमरीकी कंपनियां ख्वावे को क्या बेच सकती हैं, इस पर भी नियंत्रण रखा जा रहा है। यही कारण है कि दुनियाभर में ख्वावे के फोन की बिक्री में गिरावट आई है।

वित्तीय सेवा समूह जेफरीज के विश्लेषक और इंडस्ट्री के जानकार एडिसन ली इसे दुनिया के 5G बाजार पर अमरीका के प्रभुत्व जमाने की कोशिश के रूप में देखते हैं।

वो मानते हैं कि ख्वावे पर अमरीका ने दबाव इसलिए बनाया है ताकि चीन को इस क्षेत्र में बादशाह बनने से रोका जा सके।

वो कहते हैं, "इस टेक वॉर के पीछे अमरीका का तर्क है कि चीन बौद्धिक संपदा की चोरी कर तकनीक के क्षेत्र में आगे बढ़ रहा है और सरकार इस पर बेतहाशा ख़र्च कर रही है। उसका मानना है कि चीनी दूरसंचार उपकरण सुरक्षित नहीं हैं। यह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा है।''

वो आगे जोड़ते हैं, "जैसे-जैसे दूरसंचार उपकरण के वैश्विक बाजार में ख्वावे और ZTE का दखल बढ़ता जाएगा, पश्चिम के देश जासूसी का मुद्दा जोर-शोर से उठाएंगे।''

ख्वावे ने हमेशा इन आरोपों को खारिज किया है कि उसकी तकनीक का इस्तेमाल जासूसी के लिए किया जा सकता है।

एक ओर जहां पश्चिम के देश ख्वावे को लेकर चिंतित हैं, वहीं दूसरी ओर चीन इस क्षेत्र में काफी आगे बढ़ गया है।

31 अक्तूबर को चीन की दूरसंचार कंपनियों ने 50 से ज़्यादा शहरों में 5G सेवा की शुरुआत की, जिसके बाद यहां दुनिया का सबसे बड़ा 5G नेटवर्क अस्तित्व में आया। इसका क़रीब 50 फ़ीसदी हिस्सा ख्वावे ने तैयार किया है।

चीन के सूचना मंत्रालय का दावा है कि महज 20 दिनों में इस सेवा से 8 लाख से ज़्यादा लोग जुड़े हैं। विश्लेषकों का अनुमान है कि चीन में 2020 तक 11 करोड़ 5G यूजर होंगे।

चीन अब इस नई तकनीक के नई तरह के इस्तेमाल पर काम कर रहा है।

उत्तरी हॉन्गकॉग के एक बड़े भूभाग पर शोधकर्ता वैसी गाड़ियां विकसित कर रहे हैं, जो 5G की मदद से खुद चलेंगी।

हॉन्गकॉन्ग एप्लाइड साइंस एंड टेक्नोलॉजी रिसर्च इंस्टीट्यूशन के शोधकर्ता चीन की सबसे बड़ी दूरसंचार कंपनी चाइना मोबाइल के साथ मिल कर यह काम कर रहे हैं।

वे मानते हैं कि सेल्फ ड्राइविंग कार यानी खुद से चलने वाली कारों के लिए 5G उपयोगी साबित हो सकती है। इसके ज़रिए सड़कों पर गाड़ियां एक-दूसरे से बेहतर संपर्क स्थापित कर पाएंगी, साथ में इसका भी सटीक पता चल पाएगा कि आसपास क्या चल रहा है।

5G की शुरुआत करने वाला चीन दुनिया का पहला देश नहीं है। कई अन्य देश इसकी शुरुआत पहले कर चुके हैं, लेकिन इसने जिस तेज़ी से वैश्विक बाजार में अपना प्रभुत्व जमाया है, पश्चिम के देश इसे लेकर खासा चिंता में हैं।

ख्वावे और ZTE जैसी कंपनियां इसका भरपूर फायदा उठा रही हैं और विदेशी बाज़ारों में अमरीका को टक्कर दे रही हैं।

नवंबर में बीजिंग में हुए 5G सम्मेलन में चीन के उद्योग और सूचना मंत्री ने आरोप लगाया था कि अमरीका साइबर सिक्योरिटी का इस्तेमाल अपनी कंपनियों को संरक्षण देने के लिए कर रही है।

मियाओ वी ने कहा था, "किसी भी देश को इसके 5G नेटवर्क के विस्तार में किसी कंपनी को सिर्फ़ आरोपों के आधार पर रोका नहीं जाना चाहिए, जो कभी सिद्ध नहीं किए गए हों।''

क्या भारत साइबर हमले से निपटने में सक्षम है?

बीते महीने तमिलाडु स्थित भारत के सबसे बड़े परमाणु संयंत्र कोडनकुलम में हुए साइबर अटैक ने भारत के साइबर सुरक्षा पर बड़े सवाल खड़े कर दिए।

इस ख़बर के फैलने के बाद इस बात पर चर्चा होने लगी है कि क्या भारत किसी भी साइबर हमले से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार है? क्या वह अपने महत्वपूर्ण आधारभूत ढांचों को हानि पहुँचाने वाले डिजिटल हमलों से बचा सकता है?

इस बहस ने एक और बड़े मुद्दे को हवा दे दी है, क्या भारत डेबिट कार्ड हैकर और दूसरे वित्तीय फ्रॉड से बचने के लिए तैयार है, क्योंकि ये भारत के करोड़ों लोगों का मुद्दा है।

पिछले ही महीने, भारतीय रिज़र्व बैंक ने बैंकों को एक चेतावनी दी है। यह चेतावनी सिंगापुर स्थित साइबर सिक्यूरिटी फ़र्म ग्रुप - आईबी की चेतावनी के बाद आया है जिसमें कहा गया था कि क़रीब 12 लाख डेबिट कॉर्ड के डिटेल्स ऑनलाइन उपलब्ध हैं।

बीते साल, हैकरों ने पुणे के कोस्मो बैंक के खातों से 90 करोड़ रुपये की फ़र्ज़ी ढंग से निकासी कर ली थी, ऐसा उन्होंने बैंक के डाटा सप्लायर पर साइबर हमले करके किया था।

ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन के साइबर इनिशिएटिव के प्रमुख अरुण सुकुमार ने बीबीसी को बताया, "भारत की फ़ाइनेंशियल सिस्टम पर हमला करना आसान है क्योंकि हम अभी भी ट्रांजैक्शन के लिए स्विफ्ट जैसे इंटरनेशनल बैंकिंग नेटवर्क पर निर्भर हैं। इंटरनेशनल गेटवेज़ की वजह से हमला करना आसान है।''

साइबर सिक्यूरिटी कंपनी सायमन टेक की एक रिपोर्ट बताती है कि ऐसे साइबर हमलों के लिए शीर्ष तीन ठिकानों में भारत एक है।

हालांकि भारत की विशाल डिजिटल आबादी को देखते हुए इसमें कमी आएगी। हर महीने फ्रांस जितनी आबादी भारत में कंप्यूटर से जुड़ रही है और यही बात सबसे बड़ी चिंता की है क्योंकि पहली बार इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों को भी डिजिटल पेमेंट करने के लिए कहा जा रहा है।

उदाहरण के लिए, नवंबर 2016 में भारत सरकार ने अचानक से 500 रुपये और 1000 रुपये के नोट के चलन पर रोक लगा दी, यह देश में मौजूद कुल रक़म का 80 प्रतिशत हिस्सा थे। इसके विकल्प के तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डिजिटल पेमेंट को काफ़ी प्रमोट किया।

भारतीय पेमेंट प्लेटफॉर्म पेटीएम हों या फिर इंटरनेशनल प्लेटफॉर्म गूगल पे हो, दोनों का कारोबार भारत में काफ़ी बढ़ गया है। क्रेडिट सुइसे की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ 2023 तक भारत में मोबाइल के ज़रिए एक ट्रिलियन डॉलर की पेमेंट होने लगेगी। क्रेडिट और डेबिट कार्ड का इस्तेमाल भी काफ़ी लोकप्रिय है। आज की तारीख़ में भारत में क़रीब 90 करोड़ कार्ड इस्तेमाल हो रहे हैं।

टेक्नालॉजी एक्सपर्ट प्रशांतो राय ने बीबीसी को बताया, "भारत में इंटरनेट का इस्तेमाल काफ़ी नए लोग कर रहे हैं, इनकी आबादी 30 करोड़ से ज़्यादा है। ये मध्य वर्ग या निम्न वर्ग के लोग हैं। जिनकी डिजिटल साक्षरता बेहद कम है। इनमें विभिन्न राज्यों में काम करने वाले दिहाड़ी मज़दूर हैं जो इसकी भाषा को नहीं समझते, उनके साथ धोखाधड़ी होने की आशंका बहुत ज्यादा है।''

इसके अलावा प्रशांतो राय दूसरी समस्या की ओर भी इशारा करते हैं, "दूसरी बात यह है कि बैंकों के फ्रॉड के बारे में काफ़ी कम रिपोर्टिंग होती है, कई बार उपभोक्ताओं को मालूम ही नहीं होता है कि आख़िर क्या हुआ था?"

भारत में वित्तीय धोखाधड़ी कई तरह से होती है। कुछ हैकर्स धोखाधड़ी के लिए एटीएम मशीनों में कार्ड की नक़ल उतारने वाले स्किमर्स लगा देते हैं या कीबोर्ड में कैमरा लगा देते हैं। इसके ज़रिए बिना किसी संदेह के आपके कार्ड का डुप्लीकेट तैयार हो जाता है। वहीं कुछ हैकर्स आपको फोन करके आपसे जानकारी निकालने की कोशिश करते हैं।

प्रशांतो राय बताते हैं, "भारत में डिजिटल ट्रांजैक्शन की प्रक्रिया धुंधली और कंफ्यूज करने वाली है। वास्तविक दुनिया में ये पता रहता है कि कौन पैसा ले रहा है और कौन दे रहा है लेकिन मोबाइल पेमेंट प्लेटफॉर्म में यह हमेशा स्पष्ट नहीं होता है। उदाहरण के लिए, कोई शख़्स ऑनलाइन एक टेबल बेच रहा है, कोई ख़रीददार बनकर ऑनलाइन पेमेंट करने की बात करता है।''

"इसके बाद वह बताता है कि उसने पेमेंट कर दिया है और आपको टेक्स्ट मैसेज के ज़रिए एक कोड मिलेगा। यह भुगतान सुनिश्चित करने के लिए होगा। ज्यादातर उपभोक्ता इसके बारे में नहीं सोचते और वे उस शख्स को इस कोड के बारे में बता देते हैं। अगली बात उन्हें यह पता चलती है कि उनके एकाउंट से ही पैसे निकल गए हैं।''

समस्या यह है कि सिस्टम ख़ुद में ना तो सुरक्षित है और ना ही पारदर्शी।  कोस्मो बैंक की धोखाधड़ी में यह बात सामने आई थी कि साफ्टवेयर इतने बड़े ट्रांजैक्शन के दौरान पैटर्न में आए मिस्मैच को नहीं पकड़ पाया। जब तक फ्रॉड पकड़ में आया तब तक बहुत बड़ी रक़म का नुक़सान हो चुका था।

किसी मानक के नहीं होने से भी, पहली बार उपयोग करने वालों के लिए ऑनलाइन ट्रांजैक्शन काफ़ी कंफ्यूजन पैदा करने वाला है। उदाहरण के लिए एटीएम मशीनों को देखिए, ये कई तरह के होते हैं और हर पेमेंट ऐप का इंटरफेस अलग-अलग है।

सुकुमार एक दूसरी बात भी सुझाते हैं, उनके मुताबिक़ यह लोगों की भी समस्या है, लोगों में सामान्य जागरुकता का अभाव है, जिसके चलते वे ख़ुद को और पूरी व्यवस्था को जोखिम में डाल लेते हैं।

सुकुमार बताते हैं, "कीबोर्ड का इस्तेमाल करने वाले लोगों को भी सावधानी बरतने की ज़रूरत है। कोडनकुलम न्यूक्लियर प्लांट में जिस वायरस का हमला हुआ है, वह वहां एक कर्मचारी की वजह से ही पहुंचा था जिसने बाहर की एक यूएसबी को सिस्टम के कंप्यूटर में लगाया था।  इससे पूरे प्लांट के सिस्टम को ख़तरा हुआ। ऐसा ही किसी बैंक या फाइनेंशियल इंस्टीट्यूशन में संभव है।''

प्रशांतो राय के मुताबिक़ फाइनेंशियल ट्रांजैक्शन की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सरकार और वित्तीय संस्थानों की है ना कि उपभोक्ताओं की।

वे बताते हैं, "भारत में जिस रफ्तार से इंटरनेट का इस्तेमाल बढ़ रहा है, उसे देखते हुए इसे केवल शिक्षा के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। शातिर और दक्ष हैकरों पर नज़र रखना हर किसी के लिए संभव नहीं है क्योंकि वे लगातार अपनी रणनीति और तरीक़ों को बदलते रहते हैं। ऐसे में किसी फ्रॉड को रोकने की ज़िम्मेदारी रेगुलेटरों की है।''

इसके अलावा, विभिन्न साइबर सिक्यूरिटी संस्थानों के बीच आपसी संवाद की रफ्तार भी बहुत धीमी है। भारत के डिजिटल आधारभूत ढांचों की सुरक्षा करने वाले कंप्यूटर इमरजेंसी रिस्पांस टीम (सीईआरटी) कई बार सरकार को ख़तरों के बारे में समय से जानकारी मुहैया नहीं करा पाती है।

लेकिन भारत सरकार को समस्या को अंदाज़ा है। यही वजह है कि देश 2020 के लिए राष्ट्रीय साइबर सिक्यूरिटी पॉलिसी तैयार कर रहा है। इसमें उन छह अहम क्षेत्रों की पहचान की गई है जिसमें स्पष्ट नीति की ज़रूरत महसूस की जा रही है। इनमें फाइनेंस सिक्यूरिटी भी शामिल है।

प्रशांतो राय के मुताबिक़ देश के अंदर हर अहम क्षेत्र का अपना कंप्यूटर इमरजेंसी रिस्पांस टीम (सीईआरटी) होना चाहिए, जिसके बीच आपसी संवाद हो और सरकार संयोजक की भूमिका निभाए।

ऐसा होने की सूरत में ही भारत के कैशलेस इकॉनमी बनने की राह में आने वाले ख़तरों पर प्रभावी ढंग से अंकुश लग पाएगा।

क्या पायलट के बग़ैर उड़ सकने वाले विमानों के सपने पूरे होंगे?

आज का दौर ऑटोमेशन का है। सब काम मशीनें ख़ुद करना सीख रही हैं।  बिना ड्राइवर की कार के बाद जल्द ही बिना पायलट वाले हवाई जहाज़ आने वाले हैं। इस साल पेरिस एयर शो में यूरोपीय विमान निर्माता कंपनी एयरबस ने कहा कि वो बिना पायलट वाले विमान के लिए एयर ट्रैफ़िक के नियंत्रकों को राज़ी करने की कोशिश कर रही है।

आज दुनिया भर में विमान यात्राएं करने वालों की तादाद लगातार बढ़ रही है। इसके लिए अगले 20 साल में 8 लाख पायलटों की ज़रूरत होगी।  लेकिन, नए पायलटों की उपलब्धता इस ज़रूरत को पूरा नहीं कर पा रही है। अमरीकी एयरलाइन कंपनी बोइंग का कहना है कि पायलटों की कमी, उड्डयन उद्योग के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनने जा रही है।

इस चुनौती से निपटने में नई तकनीक मदद कर सकती है। पायलट के बग़ैर उड़ सकने वाले विमानों की आमद स्वागत योग्य तो है, लेकिन इस राह में बड़ी चुनौतियां भी हैं। इन में से तीन प्रमुख हैं।

कोई भी नई चीज़ आती है, तो किसी को फ़ायदा होता है और किसी को नुक़सान। जब कारों को ईजाद किया गया तो उससे रेलवे में रोज़गार करने वालों को झटका लगा। रेलगाड़ियों से चलने वालों की संख्या में कमी आई। इससे पहले जब रेलवे का आविष्कार हुआ था, तो उसने नहरों और नदियों से होने वाले परिवहन को कमोबेश ख़त्म कर दिया था। इसका नतीजा ये हुआ था कि कुछ लोगों को नई नौकरियां मिलीं। वहीं पुराने पेशे में काम करने वाले कुछ लोगों की नौकरियां चली गईं।

निकोलस कार ने अपनी किताब 'द ग्लास केज' में ये बात बड़े अच्छे अंदाज़ में कही है। निकोलस ने लिखा है कि, 'ऐसा कोई भी आर्थिक नियम नहीं है कि नई तकनीक से सभी को फ़ायदा ही होगा।'

बिना पायलट वाले विमान इसकी बढ़िया मिसाल हैं। इस तकनीक से हवाई यात्रा में तो इंक़लाब आएगा। लेकिन, इसकी क़ीमत नौकरियां गंवा कर हासिल होगी। बहुत से पायलटों की नौकरी चली जाएगी। एयरलाइन उद्योग में दसियों हज़ार लोग नौकरी करते हैं। जो अरबों मुसाफ़िरों को उनकी मंज़िलों तक पहुंचाते हैं। ये काम मशीनों के हवाले करने से इसे करने वालों की नौकरी ख़त्म हो जाएगी। फिर उन्हें रोज़ी चलाने के लिए नया हुनर सीखना होगा।

यहीं राजनीति होने लगती है। एयरलाइनों के पायलटों की मज़बूत यूनियनें हैं। जो मोलभाव करती हैं। एयरलाइन कंपनियों पर दबाव बनाकर अपनी शर्तें मनवाती हैं।

जैसे कि एयरलाइन पायलट एसोसिएशन यानी अल्पा (Alpa)। दुनिया भर में इसके 63 हज़ार सदस्य हैं। 1960 के दशक में विमानों के कॉकपिट में तीन क्रू मेंबर हुआ करते थे। दो पायलट और एक फ्लाइट इंजीनियर होता था। लेकिन, तकनीक की तरक़्क़ी से फ्लाइट इंजीनियर की ज़रूरत नहीं रह गई। लेकिन पायलट एसोसिएशन ने इसका विरोध किया। जिसकी वजह से फ्लाइट इंजीनियरों को दूसरी नौकरी दी गई। ऐसे ही मोलभाव हम तब देखेंगे, जब बिना पायलट वाले विमान लॉन्च होंगे।

इन पायलटों के साथ लड़ाई में वो लोग भी शामिल होंगे, जो पायलटों को ट्रेनिंग देते हैं। इसी तरह वो यूनिवर्सिटी, कॉलेज और फ्लाइट स्कूल होंगे, जो पायलट तैयार करते हैं। क्योंकि पायलटलेस तकनीक से इनकी नौकरियों को भी ख़तरा होगा।

विमान सस्ते नहीं होते हैं। बोइंग 737 जैसा विमान क़रीब 10 करोड़ डॉलर में आता है। इससे बड़ा यानी बोइंग 777 विमान क़रीब 30 करोड़ डॉलर का पड़ता है। 2011 में अमेरिकन एयरलाइंस ने अपने विमानों के बेड़े की मरम्मत में 30 अरब डॉलर ख़र्च किए थे। भारतीय एयरलाइन इंडिगो ने भी अपने विमानों की मरम्मत में मोटी रक़म ख़र्च किए थे। इस लागत को वसूल करने के लिए कंपनियों को विमानों की उड़ान बढ़ानी पड़ती है। इससे हादसे होने के ख़तरे बढ़ जाते हैं।

इस नुक़सान से बचने के लिए एयरलाइन कंपनियां बीमा कराती हैं।  एयरलाइंस, बीमा कराने का प्रीमियम कितना देती हैं, इसका सिर्फ़ अंदाज़ा लगाया जा सकता है। लेकिन, बीमा कंपनियां प्रतिद्वंदी से मुक़ाबले के लिए अपने रेट छुपा कर रखती हैं। लेकिन, एयरलाइन उद्योग को इसके लिए हर साल अरबों रुपए ख़र्च करने पड़ते हैं। इसका असर उनके मुनाफ़े पर भी पड़ता है।

सवाल ये उठता है कि अगर बिना पायलट वाले विमान आ गए, तो इसका बीमा पर कितना असर पड़ेगा? होना तो ये चाहिए कि बीमा का प्रीमियम कम हो जाए। क्योंकि मशीनें बेहतर तरीक़े से विमान उड़ाएंगी। इससे हादसों की आशंका कम होगी। हालांकि हक़ीक़त में बीमा कम होगा, ये अभी नहीं कहा जा सकता है।

आज के विमान आला दर्ज़े की तकनीक की मदद से उड़ते हैं। जिससे हादसों की आशंका कम होती जाती है। ये विमान हज़ारों कोड की मदद से उड़ाए जाते हैं। लेकिन, इनसे नए तरह का ख़तरा पैदा होता है। 2015 में बोइंग के ड्रीमलाइनर का एक सॉफ्टवेयर गड़बड़ था, जिसे इंजीनियर पकड़ नहीं सके। इससे उस में आग लगने का ख़तरा जताया गया था।  एयरबस 350 में भी हाल ही में ऐसी ही कमी पकड़ी गई। ये भी सॉफ्टवेयर की कमी से हुआ था।

आज विमानों के कोड हैक किए जाने का भी ख़तरा सामने खड़ा है। 2008 में ही सरकारों ने ये आशंका जताई थी कि बोइंग के ड्रीमलाइनर को कंप्यूटर से हैक किया जा सकता है। फिर पायलट जो कमांड देगा, वो विमान नहीं मानेगा।

बिना पायलट वाले विमानों के साथ ये ख़तरा और बढ़ेगा। ख़तरा बढ़ेगा, तो विमानों का बीमा भी बढ़ेगा।

पायलटों को मोटी तनख़्वाह मिलती है। पांच साल के तजुर्बे वाले पायलटों की तनख़्वाह 1.5 लाख डॉलर की दर से शुरू होती है। वहीं सीनियर पायलटों की तनख़्वाह 2.5 लाख डॉलर तक हो सकती है। अब एयरलाइन उद्योग अपने ख़र्च घटा रहे हैं। ऐसे में बिना पायलट वाले विमानों से पायलटों की तनख़्वाह में जाने वाली ये मोटी रक़म बचाई जा सकती है।

स्विस बैंक यूबीएस का अनुमान है कि कॉकपिट से इंसानों को हटा देने से हर साल क़रीब 35 अरब डॉलर का ख़र्च बचाया जा सकता है। इससे एयरलाइन उद्योग का ख़र्च कम होगा। इसीलिए एयरबस और बोइंग कंपनियां पायलटलेस विमानों को लेकर उत्साहित हैं।

हालांकि आटोमैटिक होने का ये मतलब नहीं कि विमान उड़ाने में इंसानों की ज़रूरत ख़त्म हो जाएगी। हां उनकी संख्या कम ज़रूर होगी। अगर इमरजेंसी के लिए भी विमान में एक पायलट होगा, तो भी विमान कंपनियों का ख़र्च क़रीब 20 अरब डॉलर तक कम होगा।

मगर, इसमें विमान निर्माताओं को आशंका है। वो कहते हैं कि अगर एक पायलट विमान में होगा और एक ज़मीन से निगरानी करेगा, तो वो एक साथ कितने विमानों की निगरानी कर सकेगा? और दूसरा पायलट रखना ही पड़ा, तो उसका ख़र्च विमान कंपनियों को क़रीब 12 अरब डॉलर का पड़ेगा।

इसका मतलब ये हुआ कि एयरलाइंस का इतना मुनाफ़ा कम हो जाएगा।  कुल मिलाकर, पायलट के बग़ैर उड़ने वाले इस विमान पर कमोबेश उतना ही ख़र्च विमान कंपनियों को देना होगा। हां, अगर ज़मीन पर मौजूद एक पायलट कई विमानों पर नज़र रख सकेगा, तो एयरलाइंस का ख़र्च कम होगा। लेकिन, इसमें जोखिम भी होगा। क्योंकि सवाल ये होगा कि अगर कोई विमान मुश्किल में होगा तो उसकी मदद करते हुए क्या ज़मीन में बैठा पायलट दूसरे विमानों की निगरानी कर सकेगा?

जब तक इंसान में ये ख़ूबी नहीं आएगी, बिना पायलट वाले विमानों का सपना अधूरा ही रहेगा। 

तीन वैज्ञानिकों को फ़िजिक्स का मिला नोबेल पुरस्कार

फ़िज़िक्स के क्षेत्र में साल 2019 के लिए नोबेल पुरस्कार की घोषणा कर दी गई है। इस बार तीन साइंटिस्ट को भौतिक विज्ञान में योगदान के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया है।

जेम्स पीबल्स को ब्रह्माण्ड विज्ञान पर नए सिद्धांत रखने के लिए जबकि मिशेल मेयर और डिडिएर क्वेलोज को सौरमंडल से परे एक और ग्रह खोजने के लिए संयुक्त रूप से पुरस्कार दिया गया है।

जेम्स पीबल्स कनाडाई मूल के अमेरिकी नागरिक हैं। उन्होंने बिग बैंग, डार्क मैटर और डार्क एनर्जी पर जो काम किया है, उसे आधुनिक ब्रह्मांड विज्ञान का आधार माना जाता है।

मिशेल और डिडिएर ने 51 पेगासी बी ग्रह की खोज की थी। गैस से बना यह विशाल ग्रह पृथ्वी से 50 वर्ष दूर एक तारे की परिक्रमा कर रहा है।

इस साल पुरस्कार की राशि का आधा हिस्सा जेम्स को मिलेगा, जबकि दूसरे हिस्से को मेयर और डिडिएर के बीच आधा-आधा बांट दिया जाएगा।

'द नोबेल प्राइज़' ने ट्वीट कर बताया है कि फिज़िक्स में नोबेल का ऐलान रॉयल स्वीडिश अकैडमी ऑफ़ साइंस के जनरल सेक्रेटरी गोरान के हैन्सन ने किया।

पुरस्कार की घोषणा के बाद जेम्स पीबल्स ने विज्ञान के छात्रों को सीख देते हुए कहा कि जो नए लोग विज्ञान की दुनिया में आ रहे हैं, उनके लिए मेरी सलाह है कि उन्हें विज्ञान से प्रेम करते हुए इसे अपनाना चाहिए।

जेम्स का जन्म 1935 में कनाडा के विनिपेग में हुआ था। फिलिप जेम्स एडविन पीबल्स ओएम एफआरएस एक कनाडाई-अमेरिकी खगोल भौतिकीविद्, खगोलविद और सैद्धांतिक ब्रह्मांड विज्ञानी हैं, जो वर्तमान में प्रिंसटन विश्वविद्यालय में विज्ञान के अल्बर्ट आइंस्टीन प्रोफेसर एमेरिटस हैं।

मिशेल मेयर का जन्म 1942 में स्विट्ज़रलैंड में हुआ था। वह यूनिवर्सिटी ऑफ़ जिनीवा में प्रोफ़ेसर हैं। डिडिएर क्वेलोज का जन्म 1966 में हुआ था। वह यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैंब्रिज में प्रोफ़ेसर हैं।

नासा ने जारी की विक्रम की हार्ड लैंडिंग साइट की तस्वीरें

अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने इसरो के चंद्रयान-2 की लैंडिंग साइट की कुछ नई और 'हाई रेज़ोल्यूशन' तस्वीरें जारी की हैं।

नासा ने ये तस्वीरें अपनी वेबसाइट और सोशल मीडिया अकाउंट्स पर शेयर की हैं।  

26 सितंबर को इन तस्वीरों को ट्वीट करते हुए नासा ने लिखा है: "हमने भारत के चंद्रयान-2 के विक्रम लैंडर की लैंडिग साइट की ये तस्वीरें खीचीं हैं। तस्वीरें अंधेरे में ली गई हैं इसलिए लैंडर की स्थिति का पता नहीं लगाया जा सका। अक्टूबर महीने में रोशनी ज़्यादा होने पर और तस्वीरें ली जाएंगी।''

नासा ने अपनी वेबसाइट पर लिखा है कि चंद्रयान-2 के विक्रम लैंडर ने सात सितंबर को चांद की सतह पर हार्ड लैंडिंग की थी यानी यह ज़ोर से टकराया था।

विक्रम की लोकेशन का पता नहीं

ये तस्वीरें 'लूनर रेकॉन्सेन्स ऑर्बिटर कैमरा' (LROC) से ली गई हैं। यह कैमरा 17 सितंबर को लैंडिंग साइट के ऊपर से होकर गुज़रा था। तस्वीरें केंद्र से 150 किलोमीटर दूरी से ली गई हैं।

नासा ने कहा है कि अब तक उसकी टीम विक्रम लैंडर की तस्वीर ले पाने या उसकी लोकेशन का पता लगा पाने में सफल नहीं हुई है।

वेबसाइट पर कहा गया है जब ये तस्वीरें ली गईं तब अंधेरा था और मुमकिन है कि विक्रम लैंडर बड़ी-बड़ी परछाइयों में कहीं छिप गया हो।

नासा ने अपने बयान में ये भी कहा है कि स्पेसक्राफ्ट किस लोकेशन पर लैंड हुआ अभी यह निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता।

भारत के चंद्रयान-2 के विक्रम लैंडर को 7 सितंबर को चांद की सतह पर लैंड करना था। चांद पर सॉफ़्ट लैंडिंग का यह भारत का पहला प्रयास था जो कामयाब नहीं हो सका।

विक्रम लैंडर ने एक समतल धरातल पर लैंडिंग की कोशिश की थी लेकिन यह उम्मीद के अनुसार नहीं हो सका और इसरो से इसका संपर्क टूट गया था।