विज्ञान और टेक्नोलॉजी

भारतीय वैक्सीनों का एनिमल ट्रायल पूरा: स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय

भारत के स्वास्थ्य मंत्रालय ने भारत में कोविड-19 की स्थिति के बारे में गुरुवार को 20 दिन के अंतराल पर मीडिया को संबोधित किया।

इस प्रेस कांफ्रेंस में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के ऑफ़िसर ऑन स्पेशल ड्यूटी राजेश भूषण ने बताया कि कोविड-19 के लिए भारत में दो वैक्सीन पर काम चल रहा है।

राजेश भूषण के मुताबिक इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च के साथ मिलकर भारत बायोटैक इंटरनेशनल लिमिटेड और कैडिला हेल्थ केयर इन दो स्वदेशी वैक्सीन को बना रही हैं जिनका एनिमल ट्रायल पूरा कर लिया गया है। अब इनके ह्यूमन ट्रायल की तैयारी की जा रही है।

पिछले दिनों यह उम्मीद भी जताई जा रही थी कि भारत 15 अगस्त को कोरोना की वैक्सीन लाँच कर सकता है, हालांकि विशेषज्ञों ने उस दावे पर संदेह जताया है।

दुनिया भर में इस वक्त कोविड- 19 वैक्सीन के लिए सौ से अधिक जगहों पर रिसर्च किए जा रहे हैं।

क्या कोरोना वायरस इंसानी दिमाग़ पर असर डाल सकता है?

डॉक्टर जूली हेल्म्स की इंटेसिव केयर यूनिट (आईसीयू) में मार्च 2020 की शुरुआत में उंगलियों पर गिनने लायक मरीज़ भर्ती थे, लेकिन कुछ ही दिनों में उनका आईसीयू वार्ड कोविड-19 के मरीज़ों से भर गया।

मगर डॉक्टर जूली की चिंता इन मरीज़ों में साँस की तकलीफ़ नहीं, बल्कि कुछ और थी।

डॉक्टर जूली उत्तरी फ़्रांस में स्थित स्ट्रासबर्ग विश्वविद्यालय के अस्पताल में काम करती हैं। वो कहती हैं, ''मरीज़ बेहद उत्तेजित थे। कई को न्यूरोलॉजिकल समस्याएं थीं। मुख्य रूप से भ्रम और प्रलाप जैसी दिक्कतें। यह पूरी तरह से असामान्य और डरावना था, ख़ासकर इसलिए क्योंकि हमारे द्वारा जिनका इलाज किया गया, उनमें बहुत से लोग काफ़ी युवा थे। वे 30 से 49 वर्ष के बीच थे और कुछ तो सिर्फ़ 18 साल के थे।''

फ़रवरी में चीन के शोधकर्ताओं ने वुहान शहर के रोगियों पर एक अध्ययन के बाद यह पाया था कि ''कोरोना वायरस संक्रमण का असर लोगों के मस्तिष्क पर भी हुआ।''

चीनी शोधकर्ताओं ने कोविड-19 के मरीज़ों में जो लक्षण देखे थे, उन्होंने उन सभी को 'एन्सीफ़ेलोपैथी' का संकेत बताया था। मेडिकल की भाषा में 'एन्सीफ़ेलोपैथी' शब्द का प्रयोग मस्तिष्क में हुई क्षति के लिए होता है।

कोरोना वायरस को लेकर एक नई मुश्किल की तरफ़ वैज्ञानिकों ने संकेत दिया है। वैज्ञानिकों के मुताबिक कोरोना वायरस के चलते दिमाग़ की गंभीर बीमारियां उत्पन्न हो सकती हैं, जिसका भी इलाज संभव नहीं होगा।

यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के रिसर्चरों को कोविड-19 के 43 मरीज़ों के मस्तिष्क में गंभीर समस्याएं देखने को मिली हैं। इन मरीज़ों के दिमाग़ में सूजन पाया गया है और इनमें मनोविकृति और बेहोशी में बड़बड़ाने की आदत भी देखी गई है।

इस अध्ययन के मुताबिक मरीज़ों का दिमाग़ काम करना बंद कर सकता है, दौरे पड़ सकते हैं। इसके अलावा दिमाग़ की नसों को नुकसान हो सकता है और दिमाग़ की दूसरी मुश्किलें देखने को मिल सकती हैं।

यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूरोलॉजी के डॉ. माइकल ज़ांडी ने बताया, ''कोरोना वायरस के चलते बड़े पैमाने पर लोगों के मस्तिष्क का नुकसान होगा। संभवत 1918 वाली स्थिति ही होगी। स्पेनिश फ़्लू के बाद 1920 और 1930 के दशक में मानसिक बुखार इंसेफेलाइटिस का प्रकोप देखने को मिला था।''

बीबीसी के मेडिकल संवाददाता फर्ग्यूस वाल्श ने हाल ही में रिपोर्ट लिखी है जिसके मुताबिक कोरोना वायरस के चलते कई तरह की न्यूरोलॉजिकल मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है।

क्या कोरोना वायरस संक्रमण हवा के जरिये फैल सकता है?

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आख़िरकार मंगलवार को यह स्वीकार किया कि कोरोना वायरस संक्रमण के हवा से फैलने के सबूत हैं।

इससे पहले वैज्ञानिकों के एक समूह ने डब्ल्यूएचओ को खुली चिट्ठी लिखकर इससे अपने मौजूदा दिशानिर्देशों में सुधार करने की अपील की थी।

डब्ल्यूएचओ में कोविड-19 महामारी से जुड़ी टेक्निकल लीड डॉक्टर मारिया वा केरख़ोव ने एक न्यूज़ ब्रीफ़िंग में कहा, ''हम हवा के ज़रिए कोरोना वायरस फैलने की आशंका पर बात कर रहे हैं।''

इस बारे में विश्व स्वास्थ्य संगठन की बेनेदेत्ता आल्लेग्रांजी ने कहा कि कोरोना वायरस के हवा के माध्यम से फैलने के सबूत तो मिल रहे हैं लेकिन अभी यह पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता।

उन्होंने कहा, ''सार्वजनिक जगहों पर, ख़ासकर भीड़भाड़ वाली, कम हवा वाली और बंद जगहों पर हवा के ज़रिए वायरस फैलने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। हालांकि इन सबूतों को इकट्ठा करने और समझने की ज़रूरत है। हम ये काम जारी रखेंगे।''

इससे पहले तक विश्व स्वास्थ्य संगठन कहता रहा है कि सार्स-कोविड-2 (कोरोना) वायरस मुख्य रूप से संक्रमित व्यक्ति के नाक और मुँह से निकली सूक्ष्म बूंदों के माध्यम से फैलता है।

डब्ल्यूएचओ ये भी कहता रहा है कि लोगों में कम से कम 3.3 फुट की दूरी होने से कोरोना वायरस संक्रमण की रोकथाम संभव है। लेकिन अब अगर हवा के ज़रिए वायरस फैलने की बात पूरी तरह साबित हो जाती है तो, 3.3 फ़ुट की दूरी और फ़िज़िकल डिस्टेंसिंग के नियमों में बदलाव करना होगा।

मारिया वा केरख़ोव ने कहा कि आने वाले दिनों में डब्ल्यूएचओ इस बारे में एक ब्रीफ़ जारी करेगा।

उन्होंने कहा, ''वायरस के प्रसार को रोकने के लिए बड़े स्तर पर रोकथाम की ज़रूरत है। इसमें न सिर्फ़ फ़िजिकल डिस्टेंसिंग बल्कि मास्क के इस्तेमाल और अन्य नियम भी शामिल हैं।''

क्लीनिकल इंफ़ेक्शियस डिज़ीज़ जर्नल में सोमवार को प्रकाशित हुए एक खुले ख़त में, 32 देशों के 239 वैज्ञानिकों ने इस बात के प्रमाण दिए थे कि ये 'फ़्लोटिंग वायरस' है जो हवा में ठहर सकता है और सांस लेने पर लोगों को संक्रमित कर सकता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन को लिखे इस खुले खत में वैज्ञानिकों ने गुज़ारिश की थी कि उसे कोरोना वायरस के इस पहलू पर दोबारा विचार करना चाहिए और नए दिशा-निर्देश जारी करने चाहिए।

अमरीकी दवा कंपनी रेमडेसिविर का जेनेरिक वर्ज़न भारतीय बाज़ार में लॉन्च करेगी

अमरीकी दवा कंपनी मायलिन एनवी ने कहा है कि वो एक अन्य अमरीकी दवा निर्माता गिलिएड साइंसेज़ की एंटी-वायरल दवा रेमडेसिविर का जेनेरिक वर्ज़न भारतीय बाज़ार में लॉन्च करेगी जिसकी क़ीमत 4,800 रुपए होगी।

कोविड-19 के रोगियों पर परीक्षण के बाद डॉक्टरों ने पाया था कि एंटी-वायरल दवा रेमडेसिविर संक्रमित लोगों को जल्द ठीक होने में मदद करती है।

मायलिन एनवी ने भारतीय बाज़ार के लिए रेमडेसिविर की जो क़ीमत तय की है, वो अमीर देशों की तुलना में क़रीब 80 प्रतिशत कम है।

कैलिफ़ोर्निया स्थित गिलिएड साइंसेज़ ने कई जेनेरिक दवा निर्माताओं के साथ क़रार किया है ताकि रेमडेसिविर को क़रीब 127 विकासशील देशों में मुहैया कराया जा सके।

पिछले महीने ही, दो भारतीय दवा निर्माता कंपनियों - सिप्ला और हेटेरो लैब्स ने रेमडेसिविर का जेनेरिक वर्ज़न भारत में लॉन्च किया था। सिप्ला ने अपनी दवा सिपरेमी की क़ीमत पाँच हज़ार से कुछ कम तय की जबकि हेटेरो लैब्स ने अपनी दवा कोविफ़ोर की क़ीमत 5,400 रुपये तय की है।

पिछले सप्ताह ही गिलिएड साइंसेज़ ने बताया था कि विकसित देशों के लिए इस दवा को महंगा रखा गया है और अगले तीन महीने तक लगभग सारी रेमडेसिविर अमरीका में ही बेचने का क़रार हुआ है।

मायलिन एनवी के अनुसार, यह क़ीमत 100 मिलीग्राम वायल (शीशी) की है। लेकिन यह अभी स्पष्ट नहीं है कि एक मरीज़ के इलाज में ऐसी कितनी वायल लगेंगी।

गिलिएड साइंसेज़ के अनुसार, एक मरीज़ को अगर पाँच दिन का कोर्स दिया जाता है तो उसके लिए कम से कम रेमडेसिविर की छह वायल लगती हैं।

कोविड के मरीज़ों में इस दवा के बेहतर नतीजे दिखने के बाद से ही इसकी डिमांड बढ़ी हुई है।

मायलिन एनवी ने कहा है कि वो जेनेरिक रेमडेसिविर का निर्माण भारतीय प्लांट में ही करने वाले हैं और इस कोशिश में भी लगे हैं कि कम आय वाले क़रीब 127 देशों के लिए भी लाइसेंस लेकर दवा सप्लाई कर सकें।

ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ़ इंडिया ने मायलिन की रेमडेसिविर को डेसरेम (DesRem) के नाम से मंज़ूर किया है।

भारत इस समय दुनिया का तीसरा ऐसा देश है जहाँ संक्रमण के सबसे ज़्यादा मामले दर्ज किये गए हैं।

क्या वायरस का इन्फेक्शन न होता तो इंसान बच्चे को जन्म देने के बजाय अंडा देता?

इस वक़्त पूरी दुनिया कोविड-19 महामारी की गिरफ़्त में कराह रही है। इसके लिए नया कोरोना वायरस या SARS CoV-2 जिम्मेदार है। मानवता पर कहर बरपाने वाला ये पहला वायरस नहीं है। विषाणुओं ने कई बार मानवता को भयंकर चोट पहुंचाई है।

1918 में दुनिया पर कहर ढाने वाले इन्फ्लुएंज़ा वायरस से पांच से दस करोड़ लोग मारे गए थे। ऐसा अनुमान है कि बीसवीं सदी में चेचक के वायरस ने कम से कम बीस करोड़ लोगों की जान ले ली है।

इन उदाहरणों को देख कर यही लगता है कि वायरस हमारे लिए बड़ा ख़तरा हैं और इनका धरती से ख़ात्मा हो जाना चाहिए। लेकिन क्या ऐसा संभव है कि धरती से सारे विषाणुओं का सफ़ाया हो जाये।

लेकिन, वायरस को धरती से विलुप्त कर देने का इरादा करने से पहले सावधान हो जाइए। अगर ऐसा हुआ, तो हम भी नहीं बचेंगे। बिना वायरस के इंसान ही नहीं, इस धरती में जीवन का अस्तित्व मुमकिन नहीं है।

अमरीका की विस्कॉन्सिन-मेडिसन यूनिवर्सिटी के महामारी विशेषज्ञ टोनी गोल्डबर्ग कहते हैं, ''अगर अचानक धरती से सारे वायरस ख़त्म हो जाएंगे, तो इस धरती के सभी जीवों को मरने में बस एक से डेढ़ दिन का वक़्त लगेगा। वायरस इस धरती पर जीवन को चलाने की धुरी हैं। इसलिए हमें उनकी बुराइयों की अनदेखी करनी होगी।''

दुनिया में कितने तरह के वायरस हैं, इसका अभी पता नहीं है। पता है तो बस ये बात कि ये ज़्यादातर विषाणु इंसानों में कोई रोग नहीं फैलाते। हज़ारों वायरस ऐसे हैं, जो इस धरती का इकोसिस्टम चलाने में बेहद अहम रोल निभाते हैं। फिर चाहे वो कीड़े-मकोड़े हों, गाय-भैंस या फिर इंसान।

मेक्सिको की नेशनल ऑटोनॉमस यूनिवर्सिटी की वायरस विशेषज्ञ सुसाना लोपेज़ शैरेटन कहती हैं कि, "इस धरती पर वायरस और बाक़ी जीव पूरी तरह संतुलित वातावरण में रहते हैं। बिना वायरस के हम नहीं बचेंगे।''

ज़्यादातर लोगों को ये पता ही नहीं कि वायरस इस धरती पर जीवन को चलाने के लिए कितने इम्पॉर्टेंट हैं। इसकी एक वजह ये है कि हम केवल उन्हीं वायरसों के बारे में रिसर्च करते हैं, जिनसे बीमारियां होती हैं। हालांकि अब कुछ साहसी वैज्ञानिकों ने वायरस की अनजानी दुनिया की ओर क़दम बढ़ाया है।

अब तक केवल कुछ हज़ार वायरसों का पता इंसान को है जबकि करोड़ों की संख्या में ऐसे वायरस हैं, जिनके बारे में हमें कुछ पता ही नहीं। पेन्सिल्वेनिया स्टेट यूनिवर्सिटी की मैरिलिन रूसिंक कहती हैं कि, ''विज्ञान केवल रोगाणुओं का अध्ययन करता है। ये अफ़सोस की बात है। मगर सच यही है।''

अब चूंकि ज़्यादातर वायरसों के बारे में हमें पता ही नहीं, तो ये भी नहीं पता कि कितने वायरस इंसान के लिए ख़तरनाक हैं। ब्रिटिश कोलंबिया यूनिवर्सिटी के विषाणु वैज्ञानिक कर्टिस सटल कहते हैं कि, "अगर वायरस प्रजातियों की कुल संख्या के हिसाब से देखें, तो इंसान के लिए ख़तरनाक विषाणुओं की संख्या शून्य के आस पास होगी।''

वायरस इकोसिस्टम की धुरी हैं। हमारे लिए वो वायरस सबसे महत्वपूर्ण हैं, जो बैक्टीरिया को संक्रमित करते हैं। इन्हें फेगस कहते हैं। जिसका अर्थ है निगल जाने वाले।

टोनी गोल्डबर्ग कहते हैं कि समंदर में बैक्टीरिया की आबादी नियंत्रित करने में फेगस विषाणुओं का बेहद अहम रोल है। अगर ये वायरस ख़त्म हो जाते हैं, तो अचानक से समुद्र का संतुलन बिगड़ जाएगा।

समुद्र में 90 फ़ीसद जीव, माइक्रोब यानी छोटे एक कोशिकाओं वाले जीव हैं। ये धरती की आधी ऑक्सीजन बनाते हैं। और ये काम वायरस के बिना नहीं हो सकता। समंदर में पाए जाने वाले वायरस वहां के आधे बैक्टीरिया और 20 प्रतिशत माइक्रोब्स को हर रोज़ मार देते हैं।

इससे, समुद्र में मौजूद काई, शैवाल और दूसरी वनस्पतियों को ख़ुराक मिलती है। जिससे वो फोटो सिंथेसिस करके, सूरज की रौशनी की मदद से ऑक्सीजन बनाते हैं। और इसी ऑक्सीजन से धरती पर ज़िंदगी चलती है। अगर वायरस ख़त्म हो जाएंगे, तो समुद्र में इतनी ऑक्सीजन नहीं बन पाएगी। फिर पृथ्वी पर जीवन नहीं चल सकेगा।

कर्टिस सटल कहते हैं कि, ''अगर मौत न हो, तो ज़िंदगी मुमकिन नहीं। क्योंकि ज़िंदगी, धरती पर मौजूद तत्वों की रिसाइकिलिंग पर निर्भर करती है। और इस रिसाइकिलिंग को वायरस करते हैं।''

दुनिया में जीवों की आबादी कंट्रोल करने के लिए भी वायरस ज़रूरी हैं। जब भी किसी जीव की आबादी बढ़ती है, तो विषाणु उस पर हमला करके आबादी को नियंत्रित करते हैं। जैसे कि महामारियों के ज़रिए इंसान की आबादी नियंत्रित होती है। वायरस न होंगे, तो धरती पर जीवों की आबादी आउट ऑफ़ कंट्रोल हो जाएगी। एक ही प्रजाति का बोलबाला होगा, तो जैव विविधता समाप्त हो जाएगी।

कुछ जीवों का तो अस्तित्व ही वायरसों पर निर्भर है। जैसे कि गायें और जुगाली करने वाले दूसरे जीव। वायरस इन जीवों को घास के सेल्यूलोज़ को शुगर में तब्दील करने में मदद करते हैं। और फिर यही उनके शरीर पर मांस चढ़ने और उनके दूध देने का स्रोत बनती है।

इंसानों और दूसरे जीवों के भीतर पल रहे बैक्टीरिया को कंट्रोल करने में भी वायरस का बड़ा योगदान होता है।

अमरीका के मशहूर यलोस्टोन नेशनल पार्क की घास भयंकर गर्मी बर्दाश्त कर पाती है, तो इसके पीछे वायरस का ही योगदान है। ये बात रूसिंक और उनकी टीम ने अपनी रिसर्च से साबित की है।

हलापेनो के बीज में पाए जाने वाले वायरस इसे उन कीड़ों से बचाते हैं, जो पौधों का रस सोखते हैं। रूसिंक की टीम ने अपनी रिसर्च में पाया है कि कुछ पौधे और फफूंद, वायरस को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपते जाते हैं, ताकि उनका सुरक्षा चक्र बना रहे। अगर वायरस फ़ायदेमंद न होते, तो पौधे ऐसा क्यों करते?

वायरस इंसानों का सुरक्षा चक्र बनाते हैं। कई वायरस का संक्रमण हमें ख़ास तरह के रोगाणुओं से बचाता है। डेंगू के लिए ज़िम्मेदार वायरस का एक दूर का रिश्तेदार GB वायरस C एक ऐसा ही वायरस है। इससे संक्रमित व्यक्ति में एड्स की बीमारी तेज़ी से नहीं फैलती। और अगर ये वायरस किसी इंसान के शरीर में है, तो उसके इबोला वायरस से मरने की आशंका कम हो जाती है।

हर्पीज़ वायरस हमें प्लेग और लिस्टेरिया नाम की बीमारियों से बचा सकता है। हर्पीज़ के शिकार चूहे, इन बीमारियों के बैक्टीरिया से बच जाते हैं।

वायरस हमारे कई बीमारियों से लड़ने की दवा भी बन सकते हैं। 1920 के दशक में सोवियत संघ में इस दिशा में काफ़ी रिसर्च हुई थी। अब दुनिया में कई वैज्ञानिक फिर से वायरस थेरेपी पर रिसर्च कर रहे हैं। जिस तरह से बैक्टीरिया, एंटी बायोटिक से इम्यून हो रहे हैं, तो हमें जल्द ही एंटी बायोटिक का विकल्प तलाशना होगा। वायरस ये काम कर सकते हैं। वो रोग फैलाने वाले बैक्टीरिया या कैंसर कोशिकाओं का ख़ात्मा करने में काम आ सकते हैं।

कर्टिस सटल कहते हैं कि, "इन रोगों से लड़ने के लिए हम वायरस को ठीक उसी तरह इस्तेमाल कर सकते हैं, जैसे कोई गाइडेड मिसाइल हो। जो सीधे लक्ष्य पर यानी नुक़सानदेह रोगाणुओं पर निशाना लगाएंगे, बैक्टीरिया या कैंसर की कोशिकाओं का ख़ात्मा कर देंगे। वायरस के ज़रिए हम तमाम रोगों के इलाज की नई पीढ़ी की दवाएं तैयार कर सकते हैं।''

चूंकि वायरस लगातार बदलते रहते हैं, इसलिए इनके पास जेनेटिक जानकारी का ख़ज़ाना होता है। ये दूसरी कोशिकाओं में घुस कर अपने जीन को कॉपी करने के सिस्टम पर क़ब्ज़ा कर लेते हैं। इसलिए, इन वायरस का जेनेटिक कोड हमेशा के लिए उस जीव की कोशिका में दर्ज हो जाता है।

हम इंसानों के आठ प्रतिशत जीन भी वायरस से ही मिले हैं। 2018 में वैज्ञानिकों की दो टीमों ने पता लगाया था कि करोड़ों साल पहले वायरस से हमें मिले कोड हमारी याददाश्त को सहेजने में बड़ी भूमिका निभाते हैं।

अगर, आज इंसान अंडे देने के बजाय सीधे बच्चे को जन्म दे पाते हैं, तो ये भी एक वायरस के इन्फ़ेक्शन का ही कमाल है। आज से क़रीब 13 करोड़ साल पहले इंसान के पूर्वजों में रेट्रोवायरस का संक्रमण बड़े पैमाने पर फैला था। उस संक्रमण से इंसानों की कोशिकाओं में आए एक जीन के कारण ही, इंसानों में गर्भ धारण और फिर अंडे देने के बजाय सीधे बच्चा पैदा करने की ख़ूबी विकसित हुई।

धरती पर वायरस ये जो तमाम भूमिकाएं निभा रहे हैं, उनके बारे में अभी वैज्ञानिकों ने रिसर्च शुरू ही की हैं। हम जैसे-जैसे इनके बारे में और जानकारी हासिल करेंगे, तो हम वायरस का और बेहतर इस्तेमाल कर पाएंगे। शायद उनसे हमें कई बीमारियों से लड़ने का ज़रिया मिले या अन्य ऐसी मदद मिले, जिससे इंसानियत ही नहीं, पूरी धरती का भला हो। इसलिए वायरस से नफ़रत करने के बजाय उनके बारे में और जानने की कोशिश लगातार जारी रहनी चाहिए।

क्या भारत में 15 अगस्त तक स्वदेशी वैक्सीन का ट्रायल संभव है?

कोरोना संक्रमण के मामले में भारत दुनिया में तीसरे नंबर पर आ गया है। संक्रमण के बढ़ते मामलों के बीच उम्मीद की एक ही किरण है इसके वैक्सीन का बनना। लेकिन सबसे बड़ा सवाल कि कोरोना का वैक्सीन कब बनेगा और यह लोगों तक कब पहुंचेगा?

पहले 2 जुलाई का भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद यानी आईसीएमआर का एक सर्कुलर आया, जिसमें कहा गया कि 15 अगस्त तक भारत बायोटेक कोवैक्सीन नाम का वैक्सीन तैयार कर लेगा।

बाद में इस सर्कुलर पर आईसीएमआर ने स्पष्टीकरण जारी किया। स्पष्टीकरण में कहा गया कि केवल सरकारी फाइलें प्रक्रिया में तेज़ी से आगे बढ़ते रहें इसलिए सर्कुलर जारी किया गया था।

लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हुई। अब केन्द्र सरकार के विज्ञान एवं तकनीक मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले संस्थान विज्ञान प्रसार के एक लेख ने दोबारा हड़कंप मचा दिया है।

यह लेख विज्ञान प्रसार के साइंस कम्युनिकेशन ट्रेनिंग विभाग के प्रमुख डॉक्टर टी वी वैंकटेश्वरण ने पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) के लिए लिखा है।

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़ इस लेख में जिक्र किया गया था कि कोरोना की वैक्सीन 2021 के पहले नहीं आ सकती। लेकिन कई मीडिया रिपोर्ट्स में ऐसा दावा किया गया है कि पीआईबी की बेबसाइट से आनन-फानन में 2021 वाली लाइन हटा कर दोबारा से लेख को अपलोड किया है।

ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि कोरोना के वैक्सीन को लेकर सरकार हड़बड़ी में क्यों दिख रही है? और क्या पहले से तारीख़ का एलान करके वैक्सीन बनाने की प्रक्रिया सही तरह से पूरी की जा सकती है?

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़ विज्ञान प्रसार के लेख में कहा गया था कि भारत के कोवैक्सिन और जाइकोव-डी के साथ-साथ दुनिया भर में 140 वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों में से 11 ह्यूमन ट्रायल के दौर में हैं, लेकिन इसके इस्तेमाल के लिए लाइसेंस मिलने में 15 से 18 महीने लगेंगे।

इससे पहले बड़े पैमाने पर उपयोग के लिए इनमें से किसी भी वैक्सीन के तैयार होने की संभावना नहीं है।

हालांकि बाद में इस लेख से 'इसके इस्तेमाल के लिए लाइसेंस मिलने में 15 से 18 महीने लगेंगे' वाली लाइन हटा ली।

अब इस लेख में लिखा गया है कि कोविड-19 के लिए भारतीय वैक्सीन, कोवैक्सिन और जाइकोव-डी के इंसानों पर परीक्षण के लिहाज से भारत के दवा महानियंत्रक की ओर से मंजूरी मिलना कोरोना वायरस महामारी के 'अंत की शुरुआत' है।

यह लेख अब भी पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) की वेबसाइट पर मौजूद है। लेख में ये भी दावा किया गया है कि विश्व में जहां कहीं भी कोरोना की वैक्सीन बने, भारत में इसके उत्पादन के बिना पूरे विश्व में इसका मिलना संभव नहीं है।

पीआईबी की वेबसाइट पर प्रकाशित लेख में अब वैक्सीन की कोई समय सीमा नहीं बताई गई है।

इस पूरे विवाद पर बीबीसी संवाददाता सरोज सिंह ने डॉक्टर टीवी वैंकटेश्वर से फ़ोन पर संपर्क किया।

उन्होंने पूरे विवाद पर कुछ भी कमेंट करने से इनकार कर दिया। बीबीसी से फ़ोन पर बातचीत में उन्होंने कहा, ''ये सब पॉलिसी इश्यू हैं। सही लोग ही इस पर कमेंट करेंगे तो बेहतर होगा। जहां तक मेरा सवाल है। मैं पीआईबी पर प्रकाशित रिवाइज़्ड वर्जन के साथ हूं।''

दिल्ली में एम्स के निदेशक डॉक्टर रणदीप गुलेरिया ने भी एक निज़ी न्यूज़ चैनल के साथ साक्षात्कार में ये साफ़ कह दिया है कि 15 अगस्त तक स्वदेशी वैक्सीन के ट्रायल की बात अव्यावहारिक प्रतीत होती है।

उन्होंने साक्षात्कार में स्पष्ट किया कि आईसीएमआर की चिठ्ठी का उद्देश्य मात्र इतना था कि हर संस्थान अपने-अपने काम को तेज़ी से करने की ओर आगे बढ़े।

दिल्ली के एम्स में भी भारत बायटेक द्वारा बनाई गए इस स्वदेशी वैक्सीन का ट्रायल होना है।

वहीं बायोकॉन इंडिया की चेयरपर्सन किरण मजूमदार शॉ ने भी ट्विटर पर लिखा है कि, ''कोविड-19 वैक्सीन के लिए फेज़ एक से तीन तक के ट्रायल 6 महीने में पूरा कर पाना असंभव है।''

आईसीएमआर के ख़त से कुछ घंटों पहले बीबीसी तेलुगु संवाददाता दीप्ति बथिनि ने भारत बायोटेक की मैनेजिंग डायरेक्टर सुचित्रा एला से बात की।

सुचित्रा एला का कहना था, ''ह्यूमन क्लीनिकल ट्रायल के पहले फ़ेज़ में एक हज़ार लोगों को चुना जाएगा। इसके लिए सभी अंतरराष्ट्रीय गाइडलाइन्स का पालन किया जाएगा। वॉलंटियर्स के चुनाव पर भी कड़ी नज़र रखी जाएगी। देश भर से उन लोगों को ट्रायल के लिए चुना जाएगा जो कोविड-फ़्री हों। उन लोगों पर क्या प्रतिक्रिया हुई इसको जानने में कम से कम 30 दिन लगेंगे।''

उन्होंने आगे कहा, ''हमें नहीं पता कि भौगोलिक स्थितियों का भी असर होगा। इसलिए हमने पूरे भारत से लोगों को चुना है। हम ये सुनिश्चित करना चाहते हैं कि इसकी अच्छी प्रतिक्रिया हो। पहले फ़ेज़ के आंकड़ों को जमा करने में 45 से 60 दिन लगेंगे।''

''ब्लड सैंपल ले लेने के बाद टेस्ट की साइकल को कम नहीं किया जा सकता है। टेस्ट के नतीज़ों को हम तक पहुंचने में 15 दिन लगेंगे।''

भारत में कोविड-19 की वैक्सीन को तैयार करने की तमाम कोशिशें चल रही हैं। लेकिन अभी भी इस दिशा में काफ़ी कुछ किए जाने की ज़रूरत है।

वैक्सीन तैयार होने के बाद पहला काम यह पता लगाना होगा कि यह कितनी सुरक्षित है? अगर यह बीमारी से कहीं ज़्यादा मुश्किलें पैदा करने वाली हुईं तो वैक्सीन का कोई फ़ायदा नहीं होगा।

क्लीनिकल ट्रायल में यह देखा जायेगा कि क्या वैक्सीन कोविड-19 को लेकर प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर पा रही है ताकि वैक्सीन लेने के बाद लोग इसकी चपेट में ना आएं।

वैक्सीन तैयार होने के बाद भी इसके अरबों डोज़ तैयार करने की ज़रूरत होगी। वैक्सीन को दवा नियामक एजेंसियों से भी मंजूरी लेनी होगी।

ये सब हो जाए तो भी बड़ी चुनौती बची रहेगी। दुनिया भर के अरबों लोगों तक इसकी खुराक़ पुहंचाने के लिए लॉजिस्टिक व्यवस्थाएं करने का इंतज़ाम भी करना होगा।

स्वदेशी वैक्सीन क्या कोरोना के अंत की शुरुआत है?

भारत में कोरोना वायरस के लिए स्वेदशी वैक्सीन Covaxin और ZyCov-D को ह्युमन क्लीनिकल ट्रायल की अनुमति दिए जाने के बाद सरकार ने कहा है कि यह 'कोरोना के अंत की शुरुआत' है।

भारत में केंद्रीय विज्ञान एवं तकनीकी मंत्रालय ने अपने पत्र में कहा है कि पूरी दुनिया में 100 से अधिक वैक्सीन का परीक्षण चल रहा है और उनमें से सिर्फ़ 11 का इंसानी परीक्षण जारी है।

मंत्रालय के पत्र में लिखा है, ''ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ़ इंडिया से अनुमति मिलने के बाद वैक्सीन का इंसानी परीक्षण शुरू हो जाएगा जो एक अंत की शुरुआत है।''

''कोविड-19 की वैक्सीन पर छह भारतीय कंपनियां काम कर रही हैं। पूरी दुनिया में 140 वैक्सीन में से 11 पर इंसानी परीक्षण हो रहा है जिसमें दो भारतीय वैक्सीन Covaxin और ZyCov-D भी है।''

आमतौर पर किसी दवाई के परीक्षण के शुरुआती दो चरण सुरक्षा को लेकर होते हैं जबकि तीसरा चरण दवा के असर को लेकर होता है।

हर चरण को पूरा होने में महीनों से लेकर सालों तक लग सकते हैं।

मंत्रालय का यह पत्र ऐसे समय में आया है जब आईसीएमआर के वैक्सीन जारी करने की अंतिम तारीख़ 15 अगस्त तय करने पर विवाद हुआ था।

हालांकि, आईसीएमआर ने अब साफ़ कर दिया है कि वैक्सीन वैश्विक नियमों के आधार पर ही बाज़ार में आएगी।

भारत में जिन दो स्वदेशी वैक्सीन को लेकर इंसानी परीक्षण की अनुमति दी गई है, उनमें एक भारत बायोटेक की Covaxin और दूसरी ज़ाएडस कैडिला की ZyCov-D है।

इनके पहले और दूसरे चरण के परीक्षण की अनुमति इस हफ़्ते मिली थी।

क्या मां बन चुकीं महिलाएं प्लाज़्मा डोनेट नहीं कर सकतीं?

कोरोना महामारी से निपटने के लिए हाल ही में दिल्ली में प्लाज़्मा बैंक शुरू किया गया है। प्लाज़्मा थेरेपी को कोरोना वायरस के मरीज़ों के इलाज़ के लिए मंज़ूरी दी गई थी। अब गंभीर हालत वाले मरीज़ों के इलाज में इसका इस्तेमाल भी हो रहा है।

कोरोना के इलाज के लिए ये भारत का पहला प्लाज़्मा बैंक है। यह बैंक इंस्टिट्यूट ऑफ लीवर एंड बिलियरी साइंस (आईएलबीसी) अस्पताल में बनाया गया है। उम्मीद की जा रही है कि प्लाज़्मा बैंक से मरीज़ों को प्लाज़्मा मिलने में आसानी होगी।

ऐसे में कोविड-19 के ठीक हो चुके मरीज़ों से प्लाज़्मा डोनेट करने की अपील भी की जा रही है। लेकिन, कोरोना वायरस का हर मरीज़ प्लाज़्मा डोनेट नहीं कर सकता। इसके लिए कुछ शर्तें रखी गई हैं।

बताया गया है कि अपने जीवन में कभी भी मां बन चुकीं और वर्तमान में गर्भवती महिलाएं प्लाज़्मा डोनेट नहीं कर सकतीं।

आईएलबीएस के निदेशक ए के सरीन ने एक अंग्रेज़ी अख़बार हिंदुस्तान टाइम्स को दिए साक्षात्कार में बताया है कि मां बन चुकीं और गर्भवती महिलाओं से प्लाज़्मा नहीं लिया जा सकता। उनका प्लाज़्मा कोविड-19 के मरीज़ को और नुक़सान पहुंचा सकता है।

कोरोना संक्रमित मरीज़ों पर हाइ़ड्रोक्सिक्लोरोक्वीन और एचआईवी की दवा का इस्तेमाल क्यों बंद किया गया?

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने शनिवार को कहा कि कोरोना संक्रमित मरीज़ों पर हाइ़ड्रोक्सिक्लोरोक्वीन और लोपिनएविर/रिटोनाविर दवा का इस्तेमाल बंद किया जा रहा है।

मलेरिया के इलाज में काम आने वाली हाइ़ड्रोक्सिक्लोरोक्वीन और एचआईवी मरीज़ों को दी जाने वाली लोपिनएविर/रिटोनाविर दवा से कोरोना संक्रमितों की मृत्यु दर रोकने में कामयाबी नहीं मिली, जिसके बाद ये फ़ैसला लिया गया है।

कोरोना के इलाज की खोज में जारी अलग-अलग वैक्सीन और मेडिसिन ट्रायल में इस दवा को एक उम्मीद के तौर पर देखा जा रहा था और ये बुरी ख़बर ऐसे वक्त में आई है जब खुद विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बताया है कि दुनिया भर में पहली बार एक दिन में दो लाख से ज़्यादा कोरोना संक्रमण के मामले रिपोर्ट हुए हैं।

शुक्रवार को दुनिया भर में कोरोना संक्रमण के 212,326 मामले रिपोर्ट हुए जिनमें अकेले अमरीका में 53,213 मामले दर्ज किए गए।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक बयान में कहा, ''मेडिकल ट्रायल से ये नतीजे सामने आए कि हाइ़ड्रोक्सिक्लोरोक्वीन और लोपिनएविर/रिटोनाविर के इस्तेमाल से हॉस्पिटल में भर्ती कोरोना मरीज़ों की मृत्यु दर में बहुत कम या फिर न के बराबर कमी आई। इसलिए इन दवाओं का ट्रायल तत्काल प्रभाव से बंद कर दिया जाएगा।''

दुनिया के अलग-अलग देशों में विश्व स्वास्थ्य संगठन की अगुवाई में इन दवाओं के कोरोना मरीज़ों पर असर को जांचा-परखा जा रहा था।

संयुक्त राष्ट्र की स्वास्थ्य एजेंसी ने बताया कि एक अंतरराष्ट्रीय कमिटी की सिफारिश के आधार पर ये फ़ैसला लिया गया है।

हालांकि डब्ल्यूएचओ ने ये स्पष्ट किया है कि वैसे मरीज़ जो अस्पताल में भर्ती नहीं हैं और रोगनिरोधक के रूप में उन पर इसके इस्तेमाल से जुड़ी स्टडी पर इस फ़ैसले का असर नहीं पड़ेगा।

चीनः G4 स्वाइन फ्लू वायरस नया नहीं, इसका इंसानों पर आसानी से असर नहीं होता

चीन के कृषि और ग्रामीण मामलों के मंत्रालय ने शनिवार को कहा कि G4 स्वाइन फ्लू वायरस नया नहीं है और ये इंसानों और जानवरों को आसानी से संक्रमित नहीं करता है।

इसी हफ़्ते इस G4 स्वाइन फ्लू वायरस के बारे में एक स्टडी पब्लिश हुई थी जिसे चीन की सरकार ने सिरे से खारिज किया है।

हालांकि G4 स्वाइन फ्लू वायरस के बारे में पहले वाली स्टडी चीन के वैज्ञानिकों की एक टीम ने ही तैयार की थी और इसे अमरीकी साइंस जर्नल प्रोसीडिंग्स ऑफ़ दी नेशनल एकैडमी ऑफ़ साइंसेज़ ने पब्लिश किया था।

इस स्टडी में चेतावनी दी गई थी कि G4 नाम का ये नया स्वाइन फ्लू वायरस इंसानों के लिए संक्रामक है और इसके महामारी वाले वायरस में बदलने का ख़तरा है।

हालांकि चीन के कृषि मंत्रालय ने अपने बयान में कहा है कि इस स्टडी को मीडिया में ग़ैर तथ्यात्मक तरीके से और बढ़ा चढ़ाकर पेश किया गया।

कृषि मंत्रालय के विश्लेषण के मुताबिक़ स्टडी पेपर पब्लिश करने के लिए जुटाए गए सैंपल्स का पैमाना बहुत छोटा था, साथ ही आर्टिकल में इस बात पर पर्याप्त सबूतों का अभाव था जो ये दिखलाते हों कि G4 वायरस सुअरों पर असर डाल रहा है।