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हिंदू महिला का धर्म बदल मुस्लिम युवक से शादी करना लव जिहाद नहीं, एनआईए जांच न हो: केरल सरकार

केरल की पी विजयन सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि राज्य पुलिस ने एक हिंदू महिला के इस्लाम धर्म स्वीकार करने और फिर एक मुस्लिम व्यक्ति से उसकी शादी के मामले की गहन जांच की है और ऐसा कुछ नहीं पाया कि मामले की छानबीन राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को सौंपी जा सके।

सुप्रीम कोर्ट ने 16 अगस्त को एनआईए को निर्देश दिया था कि वह इस बात की जांच करे कि इस मामले में कथित 'लव जिहाद' का कोई व्यापक पहलू तो शामिल नहीं है।

इस मामले में हिंदू महिला हादिया ने अपना धर्म परिवर्तन कर इस्लाम स्वीकार कर लिया था और बाद में केरल के एक मुस्लिम युवक शफीन जहां से शादी कर ली थी।

केरल सरकार ने कहा कि यूं तो उसने मामले की जांच एनआईए को सौंपने के अदालत के निर्देश का पालन किया, लेकिन पुलिस को अब तक किसी ऐसे अपराध का पता नहीं चला है जिससे वैधानिक तौर पर मामले को केंद्रीय एजेंसी के हवाले किया जा सके।

पिछले दिसंबर में महिला से शादी करने वाले और उच्च न्यायालय की ओर से अपनी शादी रद्द करने के फैसले को चुनौती देने वाले शफीन जहां ने हाल में एक अंतरिम याचिका दाखिल कर उस आदेश को वापस लेने की मांग की जिसमें मामले की जांच एनआईए को सौंपने की बात कही गई थी।

उसने दावा किया था कि महिला ने अपनी शादी से कई महीने पहले धर्मांतरण किया था और शादी एक वैवाहिक वेबसाइट के जरिए तय हुई थी।

अतिरिक्त हलफनामे में राज्य सरकार ने कहा कि पुलिस जांच करने में सक्षम है और यदि कोई अनुसूचित अपराध सामने आया होता तो उसने केंद्र को इसकी जानकारी दी होती।

हलफनामे में कहा गया, ''केरल पुलिस की अपराध शाखा ने प्रभावी और ईमानदार तरीके से जांच की थी। केरल पुलिस की ओर से अब तक की गई जांच में किसी अनुसूचित अपराध के होने की घटना सामने नहीं आई है कि इसे एनआईए कानून 2008 की धारा छह के तहत केंद्र सरकार को सूचित किया जाए।''

राज्य ने अपने हलफनामे में कहा, ''केरल पुलिस ने प्रभावी तरीके से उपरोक्त अपराध की गहन जांच की है।''

शफीन जहां ने सुप्रीम कोर्ट का रुख तब किया, जब केरल उच्च न्यायालय ने उसकी शादी रद्द करते हुए कहा कि यह देश की महिलाओं की आजादी का अपमान है।

इस बीच, सुप्रीम कोर्ट ने तीन अक्तूबर को कहा कि वह इस सवाल पर गौर करेगा कि शफीन जहां और हिंदू महिला की शादी को निरस्त करने के लिए क्या उच्च न्यायालय रिट क्षेत्राधिकार के तहत अपनी शक्ति का इस्तेमाल कर सकता है।

परमाणु नि:शस्त्रीकरण संधि से एक भी परमाणु हथियार का उन्मूलन नहीं होगा

अमेरिका ने कहा है कि परमाणु नि:शस्त्रीकरण संधि से एक भी परमाणु हथियार का उन्मूलन नहीं होगा।

अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता की यह टिप्पणी ऐसे समय आई है, जब परमाणु हथियारों को दुनिया से समाप्त कर, इसे इतिहास बनाने का प्रयास करने वाले संगठन आईकैन को इस साल का नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया है।

इस साल नोबेल शांति पुरस्कार पाने वाले संस्थान द्वारा सर्मिथत परमाणु हथियार निषेध संधि पर अमेरिका का कहना है कि उसका इसपर हस्ताक्षर करने का कोई इरादा नहीं है।

हालांकि उसने परमाणु नि:शस्त्रीकरण के लिए वातावरण तैयार पर अपनी प्रतिबद्धता जताई।

अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने एएफपी को बताया, ''आज की घोषणा से संधि पर अमेरिका के रुख में बदलाव नहीं आएगा।

अमेरिका इसका समर्थन नहीं करता है और वह परमाणु हथियारों पर प्रतिबंध लगाने वाली संधि पर हस्ताक्षर नहीं करेगा।''

प्रवक्ता ने कहा, ''यह संधि दुनिया को ज्यादा शांतिपूर्ण नहीं बनाएगी, इससे एक भी परमाणु हथियार का उन्मूलन नहीं होगा और न ही इससे किसी देश की सुरक्षा बढ़ेगी।''

उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि विश्व में परमाणु हथियार से लैस देशों में से किसी ने भी इस संधि का अभी तक समर्थन नहीं किया है।

गौरतलब है कि अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता की यह टिप्पणी ऐसे समय आई है, जब परमाणु हथियारों को दुनिया से समाप्त कर, इसे इतिहास बनाने का प्रयास करने वाले इंटरनेशनल कैम्पेन टू एबोलिश न्यूक्लियर वेपंस (आईकैन) को इस साल का नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया है।

बता दें कि इस साल जुलाई महीने में संयुक्त राष्ट्र में 122 देशों द्वारा इस संधि को स्वीकार करने में इस संगठन ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यह संधि बड़े पैमाने पर प्रतीकात्मक ही थी क्योंकि परमाणु हथियार रखने वाले या संदिग्ध नौ देशों- अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस, चीन, भारत, पाकिस्तान, इस्राइल और उत्तर कोरिया ने इस संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए थे।

इसके साथ ही उत्तर कोरिया और ईरान से जुड़ा परमाणु हथियार संकट गहरा रहा है, यह बेहद समीचीन है।

पुरस्कार का घोषणा करते हुए नोर्वेगिएन नोबेल कमेटी के अध्यक्ष बेरिट रिएस एंडर्सन ने कहा कि आई सी ए एन ग्रुप द्वारा परमाणु हथियारों को समाप्त करने के लिए बहुत बड़े पैमाने पर कैंपेन चलाया गया है। परमाणु हथियारों के कारण मानवतावादी परिणामों को खतरा पहुंच सकता है जिसे ध्यान में रखते हुए ऐसे हथियारों के लिए की जानी वाली संधि के विरुध आई सी ए एन लड़ता आया है। पिछले काफी समय से आई सी ए एन संस्था दुनिया को न्यूक्लियर मुक्त बनाने के लिए जी जान से लगी हुई है।

रोहिंग्या मुसलमानों पर झूठ बोल रही है आंग सान सू ची

म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ हिंसा के बाद से म्यांमार का रखाइन प्रांत पूरी दुनिया में सुर्खियों में बना हुआ है।

रोहिंग्या हिंसा पर पहली बार बोलते हुए म्यांमार की स्टेट कौंसिलर आंग सांग सू ची ने मंगलवार को कहा है कि वो रोहिंग्या मुसलमानों से बात करना चाहती हैं, ताकि जान सकें कि वे म्यांमार छोड़कर क्यों जा रहे हैं?

जबकि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने सेना के क्रूर रवैये को पलायन की वजह बताया है।

अब सवाल उठता है कि क्या वास्तव में आंग सांग सू ची को रोहिंग्या मुसलमानों के पलायन की वजह मालूम नहीं है?

जब पूरी दुनिया को रोहिंग्या मुसलमानों के पलायन की असली वजह मालूम है। सेना रोहिंग्या मुसलमानों की पूरी नस्ल के सफाये का अभियान चला रही है तो ये कैसे हो सकता है कि सेना के साथ सत्ता को शेयर करने वाली सू ची को असली वजह मालूम नहीं हो?

निश्चित तौर पर सू ची सत्ता में बने रहने के लिए रोहिंग्या मुसलमानों पर झूठ बोल रही है। ऐसा करके सू ची सेना को बचा रही है। ताकि सत्ता में बनी रह सके।

म्यांमार में रोहिंग्या समुदाय से जुड़ी यह कोई पहली हिंसा नहीं है।

रखाइन म्यांमार के उत्तर-पश्चिमी छोर पर बांग्लादेश की सीमा पर बसा एक प्रांत है, जो 36 हजार 762 वर्ग किलोमीटर में फैला है। सितवे इसकी राजधानी है।

म्यांमार सरकार की 2014 की जनगणना रिपोर्ट के मुताबिक, रखाइन की कुल आबादी करीब 21 लाख है, जिसमें से 20 लाख बौद्ध हैं। यहां करीब 29 हजार मुसलमान रहते हैं।

रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य की करीब 10 लाख की आबादी को जनगणना में शामिल नहीं किया गया था।

रिपोर्ट में इस 10 लाख की आबादी को मूल रूप से इस्लाम धर्म को मानने वाला बताया गया है।

म्यांमार की जनगणना में शामिल नहीं की गई आबादी को रोहिंग्या मुसलमान माना जाता है। इनके बारे में कहा जाता है कि वे मुख्य रूप से अवैध बांग्लादेशी प्रवासी हैं।

म्यांमार सरकार ने उन्हें नागरिकता देने से इनकार कर दिया है। हालांकि वे पीढ़ियों से म्यांमार में रह रहे हैं।

रखाइन प्रांत में 2012 से सांप्रदायिक हिंसा जारी है। इस हिंसा में बड़ी संख्या में लोगों की जानें गई हैं और लाखों लोग विस्थापित हुए हैं।

बड़ी संख्या में रोहिंग्या मुसलमान आज भी जर्जर कैंपो में रह रहे हैं। रोहिंग्या मुसलमानों को व्यापक पैमाने पर भेदभाव और दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है।

लाखों की संख्या में बिना दस्तावेज़ वाले रोहिंग्या बांग्लादेश में रह रहे हैं। इन्होंने दशकों पहले म्यांमार छोड़ दिया था।

25 अगस्त को रोहिंग्या चरमपंथियों ने म्यामांर के उत्तर रखाइन में पुलिस पोस्ट पर हमला कर 12 सुरक्षाकर्मियों को मार दिया था।

इस हमले के बाद सेना ने अपना क्रूर अभियान चलाया और तब से ही म्यांमार से रोहिंग्या मुसलमानों का पलायन जारी है।

आरोप है कि सेना ने रोहिंग्या मुसलमानों को वहां से खदेड़ने के मक़सद से उनके गांव जला दिए और नागरिकों पर हमले किए।

पिछले महीने शुरू हुई हिंसा के बाद से अब तक करीब 3,79,000 रोहिंग्या शरणार्थी सीमा पार करके बांग्लादेश में शरण ले चुके हैं।

म्यांमार की नेता आंग सान सू ची ने रोहिंग्या मुसलमानों पर होने वाले अत्याचारों को चरमपंथ के ख़िलाफ़ कार्रवाई बताकर सेना का बचाव किया था। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की आलोचना के डर से सू ची ने संयुक्त राष्ट्र की महासभा में भी हिस्सा नहीं लिया।

एक सवाल जो सभी के सामने उठ रहा है, वह यह कि आंग सान सू ची अपने देश के अंदर कितनी ताकतवर हैं?

इस बीच आंग सांग सू ची पर लगातार दबाव बढ़ता जा रहा है।

संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेश ने कहा है कि म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमान 'मानवीय आपदा' का सामना कर रहे हैं।

गुटेरेश ने कहा कि रोहिंग्या ग्रामीणों के घरों पर सुरक्षा बलों के कथित हमलों को किसी सूरत में स्वीकार नहीं किया जा सकता। उन्होंने म्यांमार से सैन्य कार्रवाई रोकने की अपील की है।

म्यांमार की सेना ने आम लोगों को निशाना बनाने के आरोप से इनकार करते हुए कहा है कि वह चरमपंथियों से लड़ रही है।

संयुक्त राष्ट्र की शरणार्थी एजेंसी का कहना है कि बांग्लादेश में अस्थायी शिविरों में रह रहे रोहिंग्या शरणार्थियों को मिल रही मदद नाकाफी है।

एंटोनियो गुटेरेश ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से मदद की अपील की है।

उन्होंने कहा, ''पिछले हफ़्ते बांग्लादेश भागकर आने वाले रोहिंग्या शरणार्थियों की संख्या एक लाख 25 हज़ार थी। अब यह संख्या तीन गुनी हो गई है।''

उन्होंने कहा, ''उनमें से बहुत सारे अस्थायी शिविरों में या मदद कर रहे लोगों के साथ रह रहे हैं, लेकिन महिलाएं और बच्चे भूखे और कुपोषित हालत में पहुंच रहे हैं।''

भारत में 30 रुपए का पेट्रोल 70 रुपये में बिकता है

इन दिनों भारत में पेट्रोल के दामों को लेकर हाहाकार मचा है। अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमतें उफ़ान पर नहीं हैं, लेकिन इसके बावजूद भारत में पेट्रोल महंगा होता जा रहा है, बीते कुछ वक्त से पेट्रोल की बढ़ती कीमतों के चलते मोदी सरकार को कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ रहा है।

मोदी सरकार में पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने पेट्रोल की बढ़ी कीमतों को लेकर सफ़ाई देने की कोशिश भी की थी, लेकिन विरोधी दलों के हमले और जनता की निराशा नहीं थमी।

भारत में विरोधी दलों का आरोप है कि वैश्विक स्तर पर क्रूड यानी कच्चे तेल के दाम काबू में हैं, ऐसे में मोदी सरकार टैक्स लगाकर पेट्रोल को महंगा बनाए हुए है।

15 सितंबर को अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में इंडियन बास्केट से जुड़े कच्चे तेल के दाम 54.58 डॉलर प्रति बैरल थे।

अब सवाल उठता है कि कच्चा तेल अगर सामान्य स्तर पर है तो फिर पेट्रोल इतना महंगा क्यों हो रहा है? इस सवाल का जवाब उलझा हुआ नहीं बल्कि बड़ा आसान है।

आपको जानकर ये हैरानी होगी कि जब पेट्रोल भारत पहुंचता है तो इतना महंगा नहीं होता।

अगर मंगलवार, 19 सितंबर 2017 की बात करें तो डेली प्राइसिंग मेथेडॉलोजी के आधार पर पेट्रोल की ट्रेड पैरिटी लैंडड कॉस्ट महज़ 27.74 रुपए थी।

इस कॉस्ट के मायने उस कीमत से हैं जिस पर उत्पाद आयात किया जाता है और इसमें अंतरराष्ट्रीय ट्रांसपोर्ट लागत और टैरिफ़ शामिल हैं।

इस दाम में अगर आप मार्केटिंग कॉस्ट, मार्जिन, फ़्रेट और दूसरे शुल्क जोड़ दें तो पेट्रोल की वो कीमत आ जाएगी, जिस पर डीलरों को ये मिलता है।

19 सितंबर को ये सब मिलाकर 2.74 रुपए था। यानी दोनों को मिला दिया जाए तो डीलरों को पेट्रोल 30.48 रुपए प्रति लीटर की दर पर मिला।

आपके मन में ख़्याल आ सकता है कि अगर डीलर को इतनी सस्ती दर पर पेट्रोल उपलब्ध है तो आम आदमी तक पहुंचता-पहुंचता इतना महंगा कैसे हो जाता है?

लेकिन असली खेल इसी के बाद शुरू होता है। 30.48 रुपए वाला दाम ग्राहक तक आते-आते 70 रुपए कैसे बन जाता है, इसके पीछे मोदी सरकार के टैक्स का खेल है।

असल में डीलरों को मिलने वाली दर और ग्राहक को बेची जाने वाली कीमत में गज़ब का फ़ासला एक्साइज़ ड्यूटी और वैट बनाते हैं।

दिल्ली में आम आदमी को 19 नवंबर को पेट्रोल 70.52 रुपए प्रति लीटर पर मिला।

30.48 रुपए में आप प्रति लीटर 21.48 रुपए एक्साइज़ ड्यूटी जोड़ लीजिए। फिर इसमें जोड़िए 3.57 रुपए प्रति लीटर का डीलर कमीशन और अंत में 14.99 रुपए प्रति लीटर के हिसाब से वैट, जो दिल्ली में 27 फ़ीसदी है।

इस गणित से मोदी सरकार का ख़ज़ाना तो भर रहा है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चा तेल वाजिब दरों पर होने के बावजूद आम लोगों को पेट्रोल काफ़ी महंगा मिल रहा है।

कुछ ऐसी ही कहानी डीज़ल के साथ है। डीज़ल की ट्रेड पैरिटी लैंडड कॉस्ट 27.98 रुपए प्रति लीटर है, जिसमें 2.35 रुपए के शुल्क जुड़ने के बाद डीलरों को मिलने वाला दाम 30.33 रुपए पर पहुंच जाता है। लेकिन ग्राहकों को डीज़ल 58.85 रुपए प्रति लीटर की दर से मिल रहा है।

ऐसा इसलिए कि इसमें 17.33 रुपए प्रति लीटर की एक्साइज़ ड्यूटी, 2.50 रुपए का डीलर कमीशन, 16.75 फ़ीसदी की दर से वैट और 0.25 रुपए प्रति लीटर पॉल्यूशन सेस जुड़ता है जो कुल 8.69 रुपए जोड़े जाते हैं। कुल मिलाकर दाम पहुंच जाते हैं 58.85 रुपए।

इन दिनों पेट्रोल के दाम कंपनियां तय करती हैं और मोदी सरकार का दावा है कि वो इस मामले में दख़ल नहीं देती।

ऐसे में अगर जनता को राहत की उम्मीद करनी है तो वो सिर्फ़ टैक्स के मोर्चे पर बदलावों से ही मिल सकती है जो सिर्फ सरकार के हाथ में है।

क्या भारत में बुलेट ट्रेन कामयाब होगी?

भारत में पिछले हफ़्ते बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट का उद्घाटन किया गया। इस बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट की प्रासंगिकता को लेकर भारत में काफ़ी बहस हो रही है।

क्या भारत में बुलेट ट्रेन कामयाब होगी?

इससे पहले ताइवान में जापानी बुलेट ट्रेन नाकाम रही थी। सवाल उठता है कि जब भारत ने जापान से इस समझौते पर आख़िरी मुहर लगाई तो क्या ताइवान की नाकामी उसके जेहन में रही होगी?

ताइवान ने 90 के दशक में बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू किया था। पहली बार पांच जनवरी 2007 को यहां बुलेट ट्रेन दौड़ी।

हालांकि सात साल बाद ही इस प्रोजेक्ट को ज़मीन पर उतारने वाली कंपनी दिवालिया होने की कगार पर पहुंच गई।

ताइवान में बुलेट ट्रेन की नाकामी को लेकर निक्केई एशियन रिव्यू ने पांच नवंबर 2015 को एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी।

एशियाई देशों में बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट के कॉन्ट्रैक्ट को हासिल करने के लिए चीन और जापान में होड़ जैसी स्थिति रहती है। भारत में भी जब बुलेट ट्रेन की बात चली तो जापान के साथ चीन ने भी दिलचस्पी दिखाई थी।

निक्केई ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है, ''ताइवान ने जापानी बुलेट ट्रेन सिस्टम के आधार हाई स्पीड रेल को शुरू किया था। दुख की बात यह है कि इसे भारी नुक़सान उठाना पड़ा। ताइवानी हाई स्पीड रेल ऑपरेटर ने हाल ही में वहां की सरकार से बेलआउट पैकेज लेने का फ़ैसला किया है ताकि इसे संकट से निकाला जा सके।''

जब 2007 में ताइवान में बुलेट ट्रेन शुरू हुई तो उत्तर में शहर ताइपेई को दक्षिणी शहर काओसिउंग से जोड़ा गया था। यह डेढ़ घंटे से भी कम की यात्रा थी।

ताइवान में बुलेट ट्रेन को लाने में सात जापानी कंपनियों के समूह ने मदद की थी। इसमें ट्रेडिंग हाउस मित्सुई ऐंड को., मित्सुबिशी हेवी इंडस्ट्रीज दोनों ने साथ मिलकर काम किया था।

ताइवान में जब यह रेल आई तो इसे लेकर वहां काफ़ी गर्व था, लेकिन कुछ ही सालों में यह वित्तीय संकट में फंस गई। ताइवान में बुलेट ट्रेन को उतारने में 14.6 अरब डॉलर की लागत लगी थी।

पर्यवेक्षकों का मानना है कि कंपनी शुरू से ही नुक़सान में रही। दूसरी तरफ़ निक्केई एशियन रिव्यू से जापानी कंपनी के एक प्रतिनिधि ने कहा कि इस परियोजना से जल्द फ़ायदा आसान नहीं था।

आख़िर ताइवान में बुलेट ट्रेन नाकाम होने की वजह क्या रही? इस बुलेट ट्रेन से सफ़र करने वाले पैसेंजरों की संख्या काफ़ी कम रही। कंपनी की बैलेंस शीट पर सबसे ज़्यादा असर इसी से पड़ा।

कंस्लटेंसी सर्वे के नतीजों और दूसरे आंकड़ों के मुताबिक, कंपनी को 2008 में एक दिन में दो लाख 40 हज़ार पैसेंजर की उम्मीद थी। 2014 में हर दिन एक लाख तीस हज़ार पैसेंजर ही आए जो को अनुमान से काफ़ी कम है।

कंपनी को बुलेट ट्रेन में लागत के बदले भारी ब्याज चुकाना पड़ा जिसे मुनाफ़े से संतुलित नहीं किया जा सका।

भारत के बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट में जापान क़रीब 80 फ़ीसदी मदद कर रहा है। इस रकम पर भारत को 0.1 फ़ीसदी का ब्याज देना है। हालांकि भारत और ताइवान के प्रोजेक्ट की तुलना नहीं की जा सकती।

अहमदाबाद और मुंबई का रूट इंडस्ट्री से भरा और व्यावसायिक इलाक़ा है। जापान को ब्याज 15 साल बाद चुकाना है और दर काफ़ी कम भी है।

नर्मदा नदी मर गई, मोदी मौत का उत्सव मना रहे हैं

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सरदार सरोवर बांध देश को समर्पित कर दिया, लेकिन अभी तक यह योजना पूरी ही नहीं हुई है।

नहर का इंफ्रास्ट्रकचर मुश्किल से 30 प्रतिशत कमांड एरिया के लिए ही बना है और रिजॉरवायर (जलाशय) भी नहीं भरा है।

इस परियोजना में अभी तक जितनी लागत लग चुकी है, उतनी ही अभी और लगने की संभावना है।

समस्या यह है कि इस परियोजना की कुल लागत का हमें पता ही नहीं है। मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि इस परियोजना से नुकसान ही ज़्यादा हुआ है जबकि लाभ बहुत कम है।

यह योजना कच्छ, सौराष्ट्र और उत्तरी गुजरात के लिए बनी थी। ये गुजरात के सूखाग्रस्त इलाक़े हैं। यहां पानी देने के लिए एकमात्र विकल्प के रूप में यह योजना बनी थी, लेकिन आज तक इन इलाक़ों में पानी नहीं पहुंचा है।

ज्यादातर पानी मध्य गुजरात जैसे अहमदाबाद, बड़ौदा, खेड़ा, बरूच जैसे जिलो में जा रहा है। अहमदाबाद में जो साबरमती नदी बह रही है, उसमें भी नर्मदा का ही पानी है।

इसलिए अभी तक इस योजना का फायदा नज़र नहीं आ रहा क्योंकि जिन इलाक़ों को पानी की ज़रूरत थी। वहां तो पानी नहीं पहुंचा और जहां पहुंचा है वहां पहले से ही पर्याप्त मात्रा में पानी था।

इस योजना की वजह से कम से कम 50 हज़ार परिवार विस्थापित हुए हैं।  नर्मदा नदी ख़त्म हो गई है। प्रधानमंत्री मोदी ने आज जो उत्सव मनाया, वह एक तरह से नर्मदा नदी की मौत का उत्सव था।

क्योंकि बांध के नीचे जो 150 किमी तक नदी थी, वह बहना बंद हो गई है। वहीं बांध के ऊपर जो 200 किमी से लंबा रिजॉरवायर एरिया बना है वहां भी नदी नहीं बह रही है।

नदी के निचले इलाक़ों में जो 10 हजार परिवार रह रहे थे, वे मछली पालन पर निर्भर थे। उनकी आजीविका पूरी तरह खत्म हो गई है।

सवाल उठता है कि इस योजना को किस उद्देश्य के साथ शुरू किया गया? वास्तव में इससे कितना फ़ायदा होगा? इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए क्या यह योजना सबसे बेहतर विकल्प थी?

जब हम इन तीन सवालों के जवाब खोजते हैं तो पाते हैं कि यह योजना गुजरात, वहां के सूखा पीड़ित इलाक़ों और भारत के लिए सबसे बेहतर विकल्प नहीं थी।

कुछ दिन पहले मोदी के साथ बुलेट ट्रेन की शुरुआत करने वाला जापान ने ही सबसे पहले इस योजना से अपने हाथ खींचे थे। उन्हें जब पता चला कि इस योजना के कारण कई हज़ार लोगों का विस्थापन हो रहा है तो वह पीछे हट गए।

साल 1992 में विश्व बैंक ने अपनी स्वतंत्र जांच बैठाई थी और उसमें पाया था कि इस परियोजना से बहुत ज़्यादा नुकसान होगा, इसलिए विश्व बैंक ने भी इस योजना पर पैसे लगाने से इंकार कर दिया था।

साल 1993-94 में जब भारत सरकार ने अपनी एक स्वतंत्र जांच बैठाई थी, उसमें भी इस योजना को असफल बताया गया था।

भारत में सरकार तो सिर्फ अपने नेता की बात के आगे ठप्पा लगाने का काम करती है। देश का दुर्भाग्य है कि यहां के नौकरशाह स्वतंत्र निर्णय नहीं ले सकते।

सरदार सरोवर बांध के पांच बड़े नुकसान:
- कच्छ, सौराष्ट्र, उत्तर गुजरात को फ़ायदा नहीं होगा
- नर्मदा नदी ख़त्म हो गई
- कम से कम 50 हज़ार परिवार विस्थापित हुए, 10 हजार मछुवारे परिवार की आजीविका समाप्त हो गई
- इस योजना में 50 हज़ार करोड़ खर्च हो चुके हैं और इतना ही औऱ खर्च आएगा
- यह योजना प्रशासन की असफलता है, जिन लोगों का पुनर्वास नहीं हुआ है, उनका न्यायपालिका से भरोसा कम हो गया है।

भारत की अर्थव्‍यवस्‍था के लिए बुरा संकेत: थोक महंगाई दर में दोगुनी बढ़ोत्‍तरी

भारत के थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यू पी आई) पर आधारित महंगाई दर अगस्त महीने में लगभग दोगुनी होकर 3.24 फीसदी रही है।

वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय की ओर से जारी आंकड़ों के मुताबिक, जुलाई में थोक महंगाई दर 1.88 फीसदी रही थी, जबकि अगस्त 2016 में यह दर 1.09 फीसदी थी।

मंत्रालय के मुताबिक, ''अगस्त 2017 की थोक महंगाई दर 3.24 फीसदी रही है, जबकि जुलाई में यह 1.88 फीसदी थी और अगस्त 2016 में 1.09 फीसदी थी। इस वित्त वर्ष की बिल्ट इन महंगाई दर 1.41 फीसदी रही है, जबकि पिछले साल की समान अवधि में यह 3.25 फीसदी थी।''

खाद्य महंगाई दर बढ़कर 5.75 फीसदी रही, जबकि जुलाई 2017 में यह 2.15 फीसदी थी।

वार्षिक आधार पर प्याज की कीमतें बढ़कर 88.46 फीसदी रही,  जबकि आलू की कीमत नकारात्मक 43.82 फीसदी रही है।

अगस्त में सब्जियों की कीमतें बढ़कर 44.91 फीसदी रही है, जबकि अगस्त 2016 में यह नकारात्मक 7.75 फीसदी थी।

वार्षिक आधार पर गेंहू सस्ता हो गया है। इसकी दर नकारात्मक 1.44 फीसदी रही है, जबकि प्रोटीन आधारित खाद्य सामग्रियां अंडे, मांस और मछली मंहगी हो गई हैं। यह बढ़कर 3.93 फीसदी हो गई हैं।

ईंधन और बिजली की कीमत भी बढ़कर 9.99 हो गई है।

हाल ही में आंकड़े आए थे कि खुदरा मुद्रास्फीति की दर अगस्त महीने में बढ़कर पांच महीने के उच्च स्तर 3.36 फीसदी पर पहुंच गई है।

पिछले महीने का खुदरा मुद्रास्फीति का आंकड़ा मार्च, 2017 के बाद सबसे ऊंचा है। उस समय यह 3.89 फीसदी पर थी।

भारत में केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय की ओर से जारी आंकड़ों के अनुसार, माह के दौरान रोजाना उपभोग वाले फल और सब्जियों की महंगाई दर बढ़कर क्रमश: 5.29 फीसदी और 6.16 फीसदी हो गई। यह जुलाई में क्रमश: 2.83 फीसदी और शून्य से 3.57  फीसदी नीचे थी।

इसी तरह तैयार भोजन, जलपान और मिठाई की श्रेणी में मुद्रास्फीति अगस्त में बढ़कर 1.96 फीसदी हो गई जो जुलाई में 0.43 फीसदी थी।

परिवहन और संचार क्षेत्रों में भी महंगाई दर बढ़कर 3.71 फीसदी हो गई जो जुलाई में 1.76 फीसदी थी।

हालांकि कुछ मोटे अनाजों, मीट-मछली, तेल व वसा की महंगाई दर कुछ कम होने का दावा किया गया है।

मोदी सरकार ने तीन साल में पेट्रोल पर 126 प्रतिशत बढ़ाया उत्पाद शुल्क

भारत में पिछले कुछ दिनों से पेट्रोल-डीजल की कीमतों को लेकर नरेंद्र मोदी सरकार आलोचनाओं से घिरी हुई है। पेट्रोल-डीजल की कीमतो की दैनिक समीक्षा की मौजूदा नीति भी आलोचनाओं के घेरे में है।

भारत में केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने बुधवार (13 सितंबर) को मीडिया के इस बाबत पूछे गये सवाल के जवाब में कहा कि दैनिक समीक्षा की नीति जारी रहेगी।

पिछले एक महीने में पेट्रोल की कीमत में सात रुपये से ज्यादा की बढ़ोत्तरी हुई है। मोदी सरकार ने 16 जून से पेट्रोल की कीमतों की दैनिक समीक्षा नीति लागू की है। उससे पहले तक पेट्रोल की कीमतों की पाक्षिक समीझा होती थी। आइए समझते हैं कि आखिर पेट्रोल की कीमतों को लेकर विवाद क्यों है?

गुरुवार (14 सितंबर) को दिल्ली में पेट्रोल की कीमत 70.39 रुपये प्रति लीटर, कोलकाता में 73.13 रुपये प्रति लीटर, मुंबई में 79.5 रुपये प्रति लीटर और चेन्नई में 72.97 लीटर रही।

पेट्रोल की ये कीमत अगस्त 2014 के बाद सर्वाधिक है।

भारत में पेट्रोल तब भी महँगा है, जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत पिछले कुछ सालों में काफी कम हुई हैं। लेकिन भारतीय ग्राहकों को अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत कम होने का लाभ नहीं मिल रहा है।

नरेंद्र मोदी सरकार का कहना है कि भारत को आधारभूत ढांचे के विकास के लिए पैसा चाहिए इसलिए वो अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें कम होने का लाभ ले रही है। मोदी सरकार ने तेल पर अतिरिक्त टैक्स लगाया है जिसकी वजह से अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमत कम होने के बावजूद भारत में कीमत कम नहीं हो रही है।

जब अगस्त 2014 में पेट्रोल की कीमत 70 रुपये प्रति लीटर से ज्यादा थी तो अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत 103.86 डॉलर (करीब 6300 रुपये) प्रति बैरल थी। गुरुवार को अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत 54.16 डॉलर (3470 रुपये) प्रति बैरल है। यानी तीन साल पहले की तुलना में करीब आधी।

कैच न्यूज की रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय तेल कंपनियों (इंडियन ऑयल, हिंदुस्तान पेट्रोलियम, भारत पेट्रोलियम) को एक लीटर कच्चा तेल (पिछले साल सितंबर तक) 21.50 रुपये का पड़ता था। सितंबर 2016 में भी अंतरराष्ट्रीय कच्चे तेल की कीमत करीब 54 डॉलर प्रति बैरल थी।

रिपोर्ट के अनुसार, इस्तेमाल लायक बनाने में लगे खर्च और टैक्स इत्यादि जोड़कर एक लीटर कच्चे तेल पर करीब 9.34 रुपये खर्च होते हैं। यानी एक लीटर कच्चा तेल इस खर्च के बाद कंपनी को करीब 31 रुपये का पड़ता है। यानी हर लीटर पेट्रोल पर आम जनता कम से कम 40 रुपये अधिक चुका रही है।

पेट्रोल की कीमत पर राज्य सरकारों द्वारा लगाया गये टैक्स के कारण हर राज्य में उसकी दर कम-ज्यादा होती है। पेट्रोल-डीजल को केंद्र सरकार अभी वस्तु एवं सेवा कर (जी एस टी) के तहत नहीं लाई है।

आखिर 31 रुपये का पेट्रोल आम जनता को करीब 70 से 79 रुपये प्रति लीटर क्यों बेचा रहा है? इसका सीधा जवाब है- मोदी सरकार द्वारा लगाए गए टैक्सों के कारण।

मोदी सरकार नवंबर 2014 से अब तक पेट्रोल के उत्पाद शुल्क में 126 प्रतिशत और डीजल के उत्पाद शुल्क में 374 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी कर चुकी है।

भारत के वित्त मंत्री अरुण जेटली और पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान के बयानों से जाहिर है कि मोदी सरकार हाल-फिलहाल अपनी मौजूदा नीति में बदलाव नहीं करने जा रही। संभव है 2019 के लोक सभा चुनाव से पहले इस पर विचार करे।

नरेंद्र मोदी के शासन में सांप्रदायिक-जातीय हिंसा 41 फीसदी बढ़ी

भारत में नरेंद्र मोदी सरकार ने मंगलवार (25 जुलाई) को लोक सभा में जानकारी दी कि पिछले तीन सालों में सांप्रदायिक, जातीय और नस्ली हिंसा को बढ़ावा देने वाली घटनाओं में 41 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है।

भारत के गृह राज्य मंत्री गंगाराम अहिरवार द्वारा सदन में पेश की गई राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एन सी आर बी) की रिपोर्ट के अनुसार, साल 2014 में धर्म, नस्ल या जन्मस्थान को लेकर हुए विभिन्न समुदायों में हुई हिंसा की 336 घटनाएं हुई थीं। साल 2016 में ऐसी घटनाओं की संख्या बढ़कर 475 हो गई।

अहिरवार गौरक्षकों द्वारा की जा रही हिंसा और सरकार द्वारा उन पर रोक लगाने से जुड़े एक सवाल का जवाब दे रहे थे।

अहिरवार ने सदन में कहा कि सरकार के पास गौरक्षकों से जुड़ी हिंसा का आंकड़ा नहीं है, लेकिन सांप्रदायिक, जातीय या नस्ली विद्वेष को बढ़ाने वाली हिंसक घटनाओं का आंकड़ा मौजूद है।

अहिरवार द्वारा दिए गए आंकड़ों के अनुसार, राज्यों में ऐसी घटनाओं में 49 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई। साल 2014 में राज्यों में 318 ऐसी घटनाएं हुई थीं जो साल 2016 में बढ़कर 474 हो गईं। वहीं दिल्ली समेत सभी केंद्र शासित प्रदेशों में ऐसी घटनाओं में भारी कमी आई। राजधानी और केंद्र शासित प्रदेशों में  साल 2014 में ऐसी हिंसा की 18 घटनाएं हुई थीं, लेकिन साल 2016 में ऐसी केवल एक घटना हुई।

उत्तर प्रदेश में सांप्रादायिक, जातीय और नस्ली विभेद को बढ़ावा देने वाली हिंसक घटनाओं में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई। उत्तर प्रदेश में तीन सालों में ऐसी घटनाएं 346 प्रतिशत बढ़ीं। साल 2014 में उत्तर प्रदेश में ऐसी 26 घटनाएं हुई थीं तो साल 2016 में ऐसी 116 घटनाएं हुईं। उत्तराखंड में साल 2014 में ऐसी केवल चार घटनाएं हुई थीं, लेकिन साल 2016 में राज्य में ऐसी 22 घटनाएं हुईं। यानी उत्तराखंड में ऐसी घटनाओं में 450 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई।

पश्चिम बंगाल में साल 2014 में ऐसी हिंसा की 20 घटनाएं दर्ज हुई थीं, वहीं साल 2016 में 165 प्रतिशत बढ़ोत्तरी के साथ ऐसी 53 घटनाएं दर्ज हुईं। मध्य प्रदेश में 2014 में पांच तो 2016 में 26 ऐसी घटनाएं हुई थीं। हरियाणा में 2014 में तीन और 2016 में 16 ऐसी घटनाएं हुई थीं। बिहार में साल 2014 में ऐसी कोई घटना नहीं हुई थी, लेकिन 2016 में ऐसी आठ घटनाएं हुईं।

अहिरवार ने संसद में बताया कि केंद्र सरकार मॉब लिंचिंग के खिलाफ कोई नया कड़ा कानून बनाने पर विचार नहीं कर रही है।

भारतीय रेलवे के खाने में छिपकली मिली

उत्तर प्रदेश में भारतीय रेलवे के एक एक्सप्रेस ट्रेन में कैंटीन से मिले खाने के अंदर छिपकली मिली है। यह मामला भारत के उत्तर प्रदेश के चंदौली का है।

जिस युवक के खाने में छिपकली मिली, वह पूर्वा एक्सप्रेस में यात्रा कर रहा था। उस शख्स ने भारत के रेल मंत्री सुरेश प्रभू को भी इस बारे में ट्वीट किया। इससे पहले कैग अपनी रिपोर्ट में 'रेलवे के खाना को इंसान के खाने लायक नहीं' कहकर साफ कर चुका है कि वहां मिलने वाला खाना खाने लायक नहीं है। कहा गया था कि खाना गंदे पानी से बनता है। सोशल मीडिया पर अब लोगों ने रेल मंत्री को घेर लिया है। लोग जवाब मांग रहे हैं।

बता दें संसद में 21 जुलाई को नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) ने रेलवे द्वारा परोसे जाने वाले खाने को लेकर चौंका देने वाली रिपोर्ट पेश की थी। सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में यह खुलासा किया था कि रेलवे का खाना इंसानों के खाने लायक ही नहीं है। रिपोर्ट में कहा गया था कि दूषित खाद्य पदार्थों, रिसाइकिल किया हुआ खाना और डब्बा बंद व बोतलबंद सामान का इस्तेमाल एक्सपाइरी डेट के बाद भी किया जाता है। 74 स्टेशनों और 80 ट्रेनों के निरीक्षण में सीएजी ने पाया कि खाना तैयार करने के दौरान सफाई पर जरा भी ध्यान नहीं दिया जाता। सीएजी ने यह खुलासा भी किया है कि कैसे खाना बनाने में साफ-सफाई पर बिलकुल भी ध्यान नहीं दिया जाता। खाना या फिर ड्रिंक्स तैयार करने के लिए सीधे नल से अशुद्ध पानी का इस्तेमाल किया जाता है।

निरीक्षण के दौरान कूड़ेदानों के ढक्कन गायब पाए गए और यह भी पता चला कि उनकी धुलाई का काम भी नियमित रूप से नहीं किया जाता। मक्खियां-कीड़ों से खाद्य पदार्थों के बचाव के लिए कोई कवर इस्तेमाल नहीं किया जाता। वहीं कुछ ट्रेनों में कॉकरोच और चूहे भी मिले। सीएजी ने ऑडिट में पाया है कि रेलवे की फूड पॉलिसी में लगातार बदलाव होने से यात्रियों को बहुत ज्यादा परेशानियां होती हैं।

इसके अलावा सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में सुपरफास्ट ट्रेनों के लेट होने को लेकर भी एक रिपोर्ट पेश की थी। सीएजी ने रिपोर्ट में बताया है कि सुपरफास्ट सरचार्ज के नाम पर रेलवे ग्राहकों से करोड़ों रुपये वसूलती है, लेकिन कुछ सुपरफास्ट ट्रेन ऑपरेशन्स के दौरान 95% से ज्यादा बार लेट हुईं। नॉर्थ सेंट्रल रेलवे (NCR) और साउथ सेंट्र्ल रेलवे (SCR) ने सुपरफास्ट सरचार्ज के नाम पर यात्रियों से 11.17 करोड़ रुपये वसूले, लेकिन यह सुपरफास्ट ट्रेनें 95% से ज्यादा बार लेट हुईं।