भारत में कोरोना वायरस की वैक्सीन 15 अगस्त तक बना लेने की अंतिम तारीख़ तय करने से जुड़े मामले पर इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) ने अब सफ़ाई जारी की है। आईसीएमआर ने कहा है कि वैश्विक रूप से स्वीकृत नियमों के तहत ही फ़ास्ट ट्रैक वैक्सीन बनाई जाएगी।
आईसीएमआर ने अपना दो पन्नों का बयान ट्वीट करते हुए लिखा है कि भारत के लोगों की सुरक्षा और हित सर्वोच्च प्राथमिकता है।
दरअसल 15 अगस्त की तारीख़ पर बहस आईसीएमआर के महानिदेशक डॉक्टर बलराम भार्गव के इस हफ़्ते लिखे गए एक मेमो के बाद शुरू हुई थी। इसमें उन्होंने भारत की शीर्ष क्लीनिकल रिसर्च एजेंसियों से स्वतंत्रता दिवस तक कोरोना वायरस की वैक्सीन लॉन्च करने की बात कही थी।
अब आईसीएमआर ने महानिदेशक के बयान पर सफ़ाई जारी करते हुए कहा है, ''डीजी-आईसीएमआर का पत्र क्लीनिकल ट्रायल कर रहे अनुसंधानकर्ताओं से बेवजह की लाल-फ़ीताशाही से बचने के लिए था ताकि ज़रूरी प्रक्रियाएं भी न छूटें और नए प्रतिभागियों की भर्ती भी हो सके।''
''साथ ही नए स्वदेशी टेस्टिंग किट या कोविड-19 से संबंधित दवाई को बाज़ार में उतारने के लिए फ़ास्ट ट्रैक अनुमति में लाल-फ़ीताशाही बाधा न बने। स्वदेशी वैक्सीन विकसित करने की प्रक्रिया में धीमी गति से भी बचने को कहा गया था ताकि इस चरण को जल्द पूरा कर लिया जाए और जनसंख्या आधारित ट्रायल की शुरुआत की जा सके।''
आईसीएमआर ने कहा है कि फ़ास्ट ट्रैक वैक्सीन विकसित करने की प्रक्रिया वैश्विक रूप से स्वीकृत नियमों के तहत हो रही है।
आईसीएमआर का कहना है कि वैक्सीन का जानवरों और इंसानों पर एक साथ परीक्षण किया जा सकता है।
साथ ही वैक्सीन का ट्रायल मुश्किल से मुश्किल प्रयोगों के साथ होगा और ज़रूरत पड़ने पर डाटा सेफ़्टी मॉनिटरिंग बोर्ड इसकी समीक्षा कर सकता है।
भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने उम्मीद जताई है कि भारत में बन रही कोरोना वैक्सीन 15 अगस्त तक लॉन्च हो जानी चाहिए। आईसीएमआर ने इस वैक्सीन के ट्रायल से जुड़े संस्थानों को ख़त लिखकर ये बात कही।
इस स्वदेशी वैक्सीन को आईसीएमआर और हैदराबाद स्थित भारत बायोटेक कंपनी मिलकर बना रही है।
आईसीएमआर का कहना है कि एक बार क्लीनिकल ट्रायल पूरा हो जाए तो 15 अगस्त यानी भारत की आज़ादी के दिन इस वैक्सीन को आम लोगों के लिए लॉन्च किया जा सकता है।
क्लीनिकल ट्रायल के लिए भारत के 12 संस्थानों को चुना गया है। आईसीएमआर के निदेशक डॉक्टर बलराम भार्गव ने दो जुलाई को इन 12 संस्थानों को ख़त लिखकर कहा कि उन्हें सात जुलाई तक क्लीनिकल ट्रायल की इजाज़त ले लेनी चाहिए।
अपने पत्र में डॉक्टर भार्गव ने लिखा, ''कोरोना को रोकने के लिए आईसीएमआर के ज़रिए बनाई गई वैक्सीन के फ़ास्ट-ट्रैक ट्रायल के लिए भारत बायोटेक कंपनी के साथ एक समझौता किया गया है। कोरोनावायरस से एक स्ट्रेन निकालकर इस वैक्सीन को बनाया गया है।
''क्लीनिकल ट्रायल के बाद आईसीएमआर 15 अगस्त तक लोगों को ये वैक्सीन उपलब्ध कराना चाहता है। भारत बायोटेक भी युद्ध स्तर पर काम कर रही है। लेकिन इस वैक्सीन की सफलता उन संस्थानों के सहयोग पर निर्भर है जिन्हें क्लीनिकल ट्रायल के लिए चुना गया है।''
भारत-चीन सीमा तनाव के बीच अमरीका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो का एक नया बयान सामने आया है।
माइक पॉम्पियो ने ब्रसेल्स फ़ोरम में कहा कि चीन से भारत और दक्षिण-पूर्वी एशिया में बढ़ते ख़तरों को देखते हुए अमरीका ने यूरोप से अपनी सेना की संख्या कम करने का फ़ैसला किया है।
भारत-चीन लद्दाख सीमा पर 15-16 जून को गलवान घाटी में दोनों देशों के सैनिकों के बीच हिंसक झड़प हुई थी, जिसमें भारत के 20 सैनिक मारे गए थे। दोनों देशों के बीच इस विवाद को सुलझाने के लिए बैठकों का दौर जारी है। लेकिन पूरे विश्व में इसकी चर्चा हो रही है।
इस तनाव पर अमरीकी विदेश मंत्री माइक पहले भी संवेदना जता चुके हैं। अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा था कि वो भारत और चीन के बीच जारी तनाव पर नज़र रखे हुए हैं और मदद करना चाहते हैं।
ऐसे में अमरीकी विदेश मंत्री के नए बयान ने दोबारा से भारत-चीन सीमा विवाद को सुर्ख़ियों में ला दिया है।
माइक पॉम्पियो ने कहा, ''हम इस बात को सुनिश्चित करना चाहते हैं कि हम चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी का सामना करने के लिए तैयार रहें। हमें लगता है कि हमारे वक़्त की यह चुनौती है और हम इसे सुनिश्चित करने जा रहे हैं कि हमारी तैयारी पूरी है।''
अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल ही में घोषणा की थी कि अमरीका, जर्मनी में अपनी सेना की तादाद घटाएगा। राष्ट्रपति ट्रंप के इस फ़ैसले से यूरोपीय यूनियन ने नाराज़गी ज़ाहिर की थी।
अमरीका में डोनाल्ड ट्रंप के विरोधी इस प्रस्ताव का विरोध कर रहे हैं। वहाँ की राजनीति में इसे अमरीका को सैन्य रूप से कमज़ोर करने वाले बयान के तौर पर पेश किया जा रहा है। इसी साल नंवबर में वहाँ चुनाव होने हैं। इस लिहाज़ से ये बयान और महत्वपूर्ण हो जाता है।
लेकिन भारत में भी चीन के साथ सीमा विवाद के मद्देनज़र इस बयान को काफ़ी अहमियत दी जा रही है।
माइक पॉम्पियो ने सिर्फ़ भारत के संदर्भ में ऐसा नहीं कहा है। वैसे इस इलाके़ में भारत अमरीका के लिए एक महत्वपूर्ण पार्टनर है।
भारत-चीन सीमा विवाद के बाद अमरीका की तरफ़ से सबसे पहले माइक पॉम्पियो ने ही बयान दिया था। चाहे अमरीका में नवंबर में होने वाले चुनाव की बात हो या फिर रक्षा मामलों की या फिर क्वॉड समूह की बात। भारत अमरीका के रिश्ते हर मोर्चे पर दोस्ताना रहे हैं। यही वजह है कि चुनाव से पहले डोनाल्ड ट्रंप भारत का दौरा भी कर चुके हैं।
आर्थिक क्षेत्र में भी दोनों देशों के बीच अच्छे संबंध है। लेकिन हाल के दिनों में भारत को अमरीका की व्यापार की वरियता सूची से बाहर कर दिया गया था। दोनों देशों के बीच सामाजिक संबंध भी अच्छे हैं। यही वजह है कि एच1बी वीज़ा लेने वालों में भी भारतीयों की तादाद सबसे ज़्यादा है। अमरीका जानता है कि चीन के विश्व में बढ़ते दबाव को रोकने के लिए भारत का साथ ज़रूरी है।
अमरीका इस बयान के साथ दो हित एक साथ साध रहा है। पहला जर्मनी को इसके ज़रिए संदेश देना चाहता है।
दूसरी बात ये कि जब चीन का बर्ताव भारत, वियतनाम, इंडोनेशिया, मलेशिया, ताइवान और फिलीपीन्स के साथ बदतर हो रहे थे, तो अमरीका को लगा कि ये सही मौक़ा है।
तब अमेरिका को लगता है कि सैन्य शक्ति का इस्तेमाल जर्मनी से हटा कर इन देशों की तरफ़ किया जाए। यहाँ याद रखने वाली बात है कि ये सभी देश अमरीका के अलायंस पार्टनर या स्ट्रैटेजिक पार्टनर हैं। अगर चीन इन सभी देशों पर हावी होगा तो उसको आर्थिक तौर पर नुक़सान होगा, साथ ही पार्टनरशिप पर भी असर पड़ेगा।
इसलिए अमरीका के इस बयान को एशिया में चीन के बढ़ते प्रसार के ख़तरे से अमरीका की बढ़ती चिंता के तौर पर देखना चाहिए।
नेल पॉलिश से लेकर लिपस्टिक तक, अभ्रक सौंदर्य प्रसाधन में पाया जाता है जो हर दिन लाखों लोग उपयोग करते हैं।
लेकिन उपभोक्ताओं के लिए अज्ञात, खनिज जो इन उत्पादों को अपनी चमक देता है, अक्सर दुनिया के सबसे गरीब क्षेत्रों में से एक गुलाम जैसी स्थितियों में पुरातन तरीकों का उपयोग करके निकाला जाता है।
झारखंड, भारत की धूल भरी पहाड़ियों में, गहरी दरारें कठोर पृथ्वी में समा गई हैं। पुरुष, महिलाएं और बच्चे गंदगी के माध्यम से अपने नंगे हाथों और कुछ अल्पविकसित साधनों का उपयोग करके जमीन को खुरचते हैं।
वे भूस्खलन और जहरीली धूल के निरंतर खतरे के तहत काम करते हैं, इस उम्मीद में अपने जीवन को खतरे में डालते हैं कि वे जीवित रहने के लिए पर्याप्त अभ्रक पाएंगे और बेचेंगे।
"मैं भुखमरी से मरने के बजाय खानों में काम करूंगी," एक महिला कहती है कि वह पृथ्वी से गुजरती है।
एक अन्य खदान में, 25 वर्षीय, अनिल अपनी पत्नी और अपने दो छोटे बच्चों के साथ मलबे के माध्यम से खोज कर रहा है। वे खानों के तल पर एक गाँव में रहते हैं, जहाँ कोई बहता पानी या बिजली नहीं है। अनिल एक किसान हुआ करते थे, लेकिन एक गंभीर सूखा ने अधिकांश भूमि को बंजर कर दिया।
"मीका हमारे लिए एकमात्र विकल्प है," वे कहते हैं। "हम सभी यहाँ काम करने आए हैं ... इसलिए हम चावल खरीद सकते हैं और खुद को खाना खिला सकते हैं।"
गरीब खनिकों से लेकर खदान मालिकों और निर्यातकों तक, जो चौंकाने वाली स्थिति में हैं, 101 ईस्ट प्रोग्राम में यूरोप में प्रमुख कॉस्मेटिक ब्रांडों की प्रयोगशालाओं में भारतीय देहात से अभ्रक आपूर्ति श्रृंखला का पता लगाते हैं।
कोरोनावायरस महामारी दुनिया भर के शरणार्थियों पर एक विनाशकारी प्रभाव डाल रही है।
भीड़-भाड़ वाले शिविरों में सामाजिक सुरक्षा और लगातार हाथ धोने जैसे निवारक उपायों को लागू करना अक्सर मुश्किल होता है।
शरणार्थियों की मदद करने वाली सहायता एजेंसियां संघर्ष कर रही हैं।
यूरोप, उत्तरी अमेरिका और मध्य पूर्व में अमीर राष्ट्र दान को कम कर रहे हैं, और उस पैसे को घर पर रखने से महामारी के आर्थिक संकट से निपटने के लिए।
दुनिया के सबसे बड़े चैरिटी में से एक ऑक्सफैम ने करीब 1,500 कर्मचारियों को नौकरी से निकाला और पिछले महीने 18 देशों में से निकाला।
हाल के एक सर्वेक्षण में अनुमान लगाया गया है कि 2021 तक वैश्विक सरकारी सहायता 25 बिलियन डॉलर घट जाएगी।
तो हम दुनिया के कुछ सबसे कमजोर लोगों के लिए सुरक्षा कैसे सुनिश्चित करते हैं?
प्रस्तुतकर्ता: इमरान खान
मेहमान:
हेबा एली - द न्यू ह्यूमैनिटेरियन के निदेशक, एक गैर-लाभकारी पत्रकारिता संगठन जो मानवीय संकटों पर केंद्रित है।
ओले सोलवांग - नार्वे शरणार्थी परिषद में भागीदारी और नीति के निदेशक।
नासिर यासीन - अमेरिकन यूनिवर्सिटी ऑफ़ बेरूत में नीति और योजना के एसोसिएट प्रोफेसर और AUB4Refugees पहल के अध्यक्ष।
कोरोना वायरस तुर्की में देर से आया। यहां संक्रमण का पहला मामला 19 मार्च को दर्ज किया गया था। लेकिन जल्द ही यह तुर्की के हर कोने में फैल गया। महीने भर के भीतर ही तुर्की के सभी 81 प्रांतों में कोरोना वायरस फैल चुका था।
तुर्की में दुनिया में सबसे तेज़ी से कोरोना संक्रमण फैल रहा था। हालात चीन और ब्रिटेन से भी ज़्यादा ख़राब थे। आशंकाएं थी कि बड़े पैमानों पर मौतें होंगी और तुर्की इटली को भी पीछे छोड़ देगा। उस समय इटली सबसे ज़्यादा प्रभावित देश था।
तीन महीने गुज़र गए हैं, लेकिन ऐसा नहीं है, वो भी तब जब तुर्की ने पूर्ण लॉकडाउन लागू ही नहीं किया।
तुर्की में आधिकारिक तौर पर 4397 लोगों की कोरोना संक्रमण से मौत की पुष्टि की गई है। दावे किए जा रहे हैं कि वास्तविक संख्या इसके दो गुना तक हो सकती है क्योंकि तुर्की में सिर्फ़ उन लोगों को ही मौत के आंकड़ों में शामिल किया गया है जिनकी टेस्ट रिपोर्ट पॉज़िटिव थीं।
लेकिन अगर दूसरे देशों की तुलना में देखा जाए तो सवा आठ करोड़ की आबादी वाले इस देश के लिए ये संख्या कम ही है।
विशेषज्ञ चेताते हैं कि कोरोना संक्रमण को लेकर किसी नतीजे पर पहुंचना या दो देशों के आंकड़ों की तुलना करना मुश्किल है, वो भी तब जब कई देशों में मौतें जारी हैं।
लेकिन यूनिवर्सिटी आफ़ केंट में वायरलॉजी के लेक्चरर डॉ. जेरेमी रॉसमैन के मुताबिक़ 'तुर्की ने बर्बादी को टाल दिया है।'
उन्होंने बीबीसी से कहा, ''तुर्की उन देशों में शामिल है जिसने बहुत जल्द प्रतिक्रिया दी। ख़ासकर टेस्ट करने, पहचान करने, अलग करने और आवागमन को रोकने के मामले में। तुर्की उन चुनिंदा देशों में शामिल है जो वायरस की गति को प्रभावी तरीक़े से कम करने में कामयाब रहे हैं।''
जब वायरस की रफ़्तार बढ़ रही थी, अधिकारियों ने रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए। कॉफ़ी हाउस जाने पर रोक लग गई, शापिंग बंद हो गई, मस्जिदों में सामूहिक नमाज़ रोक दी गई।
पैंसठ साल से ऊपर और बीस साल से कम उम्र के लोगों को पूरी तरह लॉकडाउन में बंद कर दिया गया। सप्ताहांत में कर्फ्यू लगाए गए और मुख्य शहरों को सील कर दिया गया।
इस्तांबुल तुर्की में महामारी का केंद्र था। इस शहर ने अपनी रफ़्तार खो दी, जैसे कोई दिल धड़कना बंद कर दे।
अब प्रतिबंधों में धीरे-धीरे ढील दी जा रही है, लेकिन डॉ. मेले नूर असलान अभी भी चौकन्नी रहती हैं। वो फ़तीह ज़िले की स्वास्थ्य सेवाओं की निदेशक हैं। ये इस्तांबुल के केंद्र में एक भीड़भाड़ वाला इलाक़ा है। ऊर्जावान और बातूनी डॉ. असलान कांटेक्ट ट्रेसिंग अभियान का नेतृत्व कर रही हैं। पूरे तुर्की में कांटेक्ट ट्रेसिंग अभियान की छह हज़ार टीमें हैं।
वो बताती हैं, ऐसा लगता है जैसे हम युद्धक्षेत्र में हों। मेरी टीम के लोग घर जाना ही भूल जाते हैं, आठ घंटे के बाद भी वो काम करते रहते हैं। वो घर जाने की परवाह नहीं करते क्योंकि वो जानते हैं कि वो अपनी ड्यूटी निभा रहे हैं।
डॉ. मेले नूर असलान कहती हैं कि उन्होंने मार्च 11, यानी पहले दिन से ही वायरस को ट्रैक करना शुरू कर दिया था, इसमें ख़सरे की बीमारी को ट्रैक करने का उनका अनुभव काम आया।
वो कहती हैं, ''हमारी योजना तैयार थी। हमने सिर्फ़ अलमारी से अपनी फ़ाइलें निकालीं और हम काम पर लग गए।''
फ़तीह की तंग गलियों में हम दो डॉक्टरों के साथ हो लिए। पीपीई किटें पहने ये डॉक्टर एक एप का इस्तेमाल कर रहे थे। वो एक अपार्टमेंट में एक फ्लैट में गए जहां दो युवतियां क्वारंटीन में थीं। उनका दोस्त कोविड पॉज़िटिव है।
अपार्टमेंट के गलियारे में ही दोनों महिलाओं के कोविड के लिए परीक्षण किए गए, उन्हें रिपोर्ट चौबीस घंटों के भीतर मिल जाएगी। एक दिन पहले उन्हें हल्के लक्षण दिखने शुरु हुए हैं। 29 वर्षीया मज़ली देमीरअल्प शुक्रगुज़ार हैं कि उन्हें तुरंत रेस्पांस मिला है।
वो कहती हैं, ''हम विदेशों की ख़बरें सुनते हैं। शुरू में जब हमें वायरस के बारे में पता चला तो हम बेहद डर गए थे लेकिन जितना हमने सोचा था तुर्की ने उससे तेज़ काम किया। यूरोप या अमरीका के मुक़ाबले बहुत तेज़ काम किया।''
तुर्की में विश्व स्वास्थ्य संगठन के कार्यकारी प्रमुख डॉ. इरशाद शेख कहते हैं कि तुर्की के पास सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर दुनिया के लिए कई सबक़ हैं।
उन्होंने बीबीसी से कहा, ''शुरुआत में हम चिंतित थे। रोज़ाना साढ़े तीन हज़ार तक नए मामले आ रहे थे। लेकिन टेस्टिंग ने बहुत काम किया। और नतीजों के लिए लोगों को पांच-छह दिनों का इंतेज़ार नहीं करना पड़ा।''
उन्होंने तुर्की की कामयाबी का श्रेय कांटेक्ट ट्रेसिंग, क्वारंटीन और तुर्की की अलग-थलग करने की नीति को भी दिया।
तुर्की में मरीज़ों को हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन भी दी गई। अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने इसकी जमकर तारीफ़ की थी लेकिन अंतरराष्ट्रीय शोध ने इस दवा को खारिज कर दिया है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोरोना के इलाज के तौर पर इस दवा का ट्रायल रोक दिया है। मेडिकल जर्नल लेंसेट में प्रकाशित एक शोध पत्र में दावा किया गया है कि इस दवा से कोविड-19 के मरीज़ों में कार्डिएक अरेस्ट का ख़तरा बढ़ जाता है और इससे फ़ायदे से ज़्यादा नुकसान हो सकता है।
हमें उन अस्पतालों में जाने की अनुमति दी गई जहां हज़ारों लोगों को दवा के रूप में हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन दी गई है। दो साल पहले बना डॉ. सेहित इल्हान वारांक अस्पताल कोविड के ख़िलाफ़ लड़ाई का केंद्र बना हुआ है।
यहां की चीफ़ डॉक्टर नुरेत्तिन यीयीत कहते हैं कि शुरू में ही हाड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन इस्तेमाल करना अहम है। डॉ यीयीत के बनाए चित्र इस नए चमकदार अस्पताल की दीवारों पर लगे हैं।
वो कहती हैं, ''दूसरे देशों ने इस दवा का इस्तेमाल देरी से शुरू किया है, ख़ासकर अमरीका ने, हम इसका इस्तेमाल सिर्फ़ शुरुआती दिनों में करते हैं, हमें इस दवा को लेकर कोई झिझक नहीं है। हमें लगता है कि ये प्रभावशाली है क्योंकि हमें नतीजे मिल रहे हैं।''
अस्पताल का दौरा कराते हुए डॉ, यीयीत कहते हैं कि तुर्की ने वायरस से आगे रहने की कोशिश की है। हमने शुरू में ही इलाज किया है और आक्रामक रवैया अपनाया है।
यहां डॉक्टर हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन के अलावा दूसरी दवाओं, प्लाज़्मा और बड़ी मात्रा में ऑक्सीजन का इस्तेमाल करते हैं।
डॉ. यीयीत को गर्व है कि उनके अस्पताल में कोविड से मरने वालों की दर एक प्रतिशत से भी कम रही है। यहां कि इंटेसिव केयर यूनिट यानी आईसीयू में बिस्तर खाली हैं। वो मरीज़ों को यहां से बाहर और वेंटिलेटर के बिना ही रखने की कोशिश करते हैं।
हम चालीस साल के हाकिम सुकूक से मिले जो इलाज कराने के बाद अब अपने घर लौट रहे हैं। वो डॉक्टरों के शुक्रगुज़ार हैं।
वो कहते हैं, ''सभी ने मेरा बहुत ध्यान रखा है। ऐसा लग रहा था जैसे मैं अपनी मां की गोद में हूं।''
तुर्की मेडिकल एसोसिएशन ने अभी महामारी पर सरकार के रेस्पांस को क्लीन चिट नहीं दी है। एसोसिएशन कहती है कि सरकार ने जिस तरह से महामारी को लेकर क़दम उठाए उनमें कई कमियां थीं।
इनमें सीमाओं को खुला छोड़ देना भी शामिल है।
हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन तुर्की को कुछ श्रेय दे रहा है। डॉ शेख कहते हैं, ''ये महामारी अपने शुरुआती दिनों में है। हमें लगता है कि और भी बहुत से लोग गंभीर रूप से बीमार होंगे। कुछ तो है जो ठीक हो रहा है।''
कोरोना महामारी के ख़िलाफ़ लड़ाई में तुर्की के पक्ष में भी कई चीज़ें हैं। जैसे, युवा आबादी और आईसीयू के बिस्तरों की अधिक संख्या। लेकिन अभी भी रोज़ाना लगभग एक हज़ार नए मामले सामने आ ही रहे हैं।
तुर्की को कोरोना के ख़िलाफ़ लड़ाई में कामयाबी की कहानी के तौर पर देखा जा रहा है, लेकिन अभी भी सावधानी बरतने की ज़रूरत है क्योंकि अभी ये कहानी ख़त्म नहीं हुई है।
रेटिंग एजेंसी मूडीज़ ने भारत की रेटिंग गिरा दी है। रेटिंग का अर्थ क्रेडिट रेटिंग है जिसे आसान भाषा में साख भी कहा जा सकता है।
बाज़ार में किसी की साख ख़राब होने का जो मतलब है एकदम वही मतलब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में देश की रेटिंग गिर जाने का है। यानी क़र्ज़ मिलना मुश्किल होगा और जो क़र्ज़ पहले से ले रखे हैं उनकी वापसी का दबाव बढ़ेगा। मूडीज़ दुनिया की तीसरी बड़ी रेटिंग एजेंसी है जिसने भारत को डाउनग्रेड किया है। दो अन्य एजेंसियाँ फ़िच और स्टैंडर्ड एंड पूअर पहले ही ये रेटिंग गिरा चुकी थीं।
मूडीज़ के रेटिंग गिराने का अर्थ यह है कि भारत सरकार विदेशी बाज़ारों या घरेलू बाज़ारों में क़र्ज़ उठाने के लिए जो बॉंड जारी करती है अब उन्हें कम भरोसेमंद माना जाएगा। ये रेटिंग पिछले बाईस सालों में सबसे निचले स्तर पर पहुँच गई है। इससे पहले 1998 में रेटिंग गिराई गई थी, और वो इसी स्तर पर पहुँची थी। जब भारत के परमाणु परीक्षणों के बाद अमेरिका ने भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए थे।
ग़नीमत सिर्फ़ इतनी है कि मूडीज़ ने रेटिंग गिराकर Baa3 पर पहुंचाई है जिसे इन्वेस्टमेंट ग्रेड का सबसे निचला पायदान कहा जा सकता है। इसका अर्थ ये है कि भारत सरकार की तरफ से जारी होने वाले लंबी अवधि के बॉंड अभी निवेश के लायक माने जाएंगे, बस इनमें जोख़िम बढ़ा हुआ मानकर।
पिछले साल नवंबर में भी आशंका थी कि मूडीज़ रेटिंग गिरा सकता है, लेकिन तब उसने रेटिंग इससे एक पायदान ऊपर यानी Baa2 पर बरकरार रखी थी। हालाँकि उस वक़्त उसने भारत पर अपना नज़रिया बदल दिया था। यानी उसे समस्या की आशंका दिख रही थी। उसने भारत पर अपना आउटलुक बदलकर स्टेबल से निगेटिव कर दिया था।
तब विश्लेषकों ने कहा था कि ज़्यादा फ़िक्र की बात नहीं है क्योंकि अर्थव्यवस्था रफ़्तार पकड़ेगी और मूडीज़ का मूड भी बिगड़ने के बजाय सुधर जाएगा। लेकिन अब ये उम्मीद तो बहुत दूर की कौड़ी साबित हो रही है। और फ़िक्र की बात ये है कि रेटिंग गिराने के बाद भी मूडीज ने अपना आउटलुक निगेटिव ही रखा है। इसका सीधा मतलब यह है कि उसे यहाँ से हालात और ख़राब होने का डर है।
मूडीज़ ने रेटिंग गिराने के जो कारण बताए हैं उन पर भी नज़र डालना ज़रूरी है। उनके हिसाब से 2017 के बाद से देश में आर्थिक सुधार लागू करने का काम काफ़ी सुस्त पड़ा है। लंबे समय से आर्थिक तरक़्क़ी यानी जीडीपी ग्रोथ में बढ़त की रफ़्तार कमजोर दिख रही है। सरकारों के ख़ज़ाने की हालत काफ़ी ख़स्ता हो रही है, केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों का हाल ऐसा है। और भारत के वित्तीय क्षेत्र में लगातार स्ट्रेस या तनाव बढ़ रहा है। यहाँ तनाव का मतलब है क़र्ज़ दिया हुआ या लगाया हुआ पैसा वापस न आने या डूबने का ख़तरा।
और आउटलुक ख़राब होने का अर्थ है कि एजेंसी को भारत की अर्थव्यवस्था और वित्तीय ढाँचे में एक साथ जुड़े हुए कई खतरे दिख रहे हैं जिनके असर से भारत सरकार की माली हालत उससे भी कहीं और कमजोर हो सकती है जैसा अंदाज़ा एजेंसी अभी लगा रही है।
और सबसे ख़तरनाक या चिंताजनक बात यह है कि मूडीज़ के इस डाउनग्रेड की वजह कोरोना से पैदा हुआ आर्थिक संकट क़तई नहीं है। उसका कहना है कि इस महामारी ने सिर्फ़ उन ख़तरों को बड़ा करके दिखा दिया है जो भारतीय अर्थव्यवस्था में पहले से ही पनप रहे थे। इन्हीं ख़तरों को देखकर मूडीज़ ने पिछले साल अपना आउटलुक बदला था।
यहाँ यह याद रखना चाहिए कि उससे दो साल पहले नवंबर 2017 में मूडीज़ ने भारत की क्रेडिट रेटिंग बढ़ाई थी। उस वक़्त उसे उम्मीद थी कि भारत में कुछ ज़रूरी आर्थिक सुधार लागू किए जाएँगे जिनसे देश की माली हालत धीरे धीरे मज़बूत होगी। लेकिन अब उसे शिकायत है कि उस वक़्त के बाद से सुधारों की रफ़्तार भी धीमी रही है और जो हुए भी उनका ख़ास असर नहीं दिखता।
अब समझना ज़रूरी है कि रेटिंग गिरने का नुक़सान क्या है और इसका असर क्या हो सकता है? यह भी रेटिंग का फ़ैसला करते वक़्त जोड़ा जाता है।
भारत सरकार और राज्य सरकारें अनेक अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों से क़र्ज़ लेती हैं। मूडीज़ का ही कहना है कि कोरोना संकट आने से पहले ही सरकारों का क़र्ज़ देश की जीडीपी का बहत्तर परसेंट था और अब बदली परिस्थिति में यानी कोरोना संकट के बाद जब सरकारों को ख़र्च के लिए और पैसे की ज़रूरत पड़ रही है तो ऐसा अनुमान है कि यह बोझ बढ़कर जीडीपी के 84 परसेंट तक जा सकता है।
आप अपने बजट से हिसाब लगाइए। जब आप घर या कार के लिए बैंक से लोन लेने जाते हैं तो बैंक अफ़सर कहते हैं कि कुल मिलाकर आपके सारे क़र्ज़ों की ईएमआई आपकी कमाई के चालीस परसेंट से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए। अगर आप इससे ज़्यादा लोन लेना चाहते हैं तो फिर कोई प्राइवेट बैंक मिल जाता है या कोई एनबीएफसी मिल जाती है जो बाज़ार के रेट से ऊँचे रेट पर आपको लोन देते हैं। मुसीबत के मारों को पर्सनल लोन देने वाले कुछ प्राइवेट फाइनेंसर भी होते हैं जो तीन से चार गुना तक ब्याज वसूलते हैं और लेने वाले पहले से बड़ी मुसीबत में फँस जाते हैं।
इसी तरह रेटिंग गिरने के बाद जब कोई देश बॉंड जारी करता है या सीधे क़र्ज़ लेना चाहता है तो उसे ऊँचा ब्याज चुकाना पड़ता है क्योंकि उसको क़र्ज़ देना जोखिम का काम माना जाता है। देश की क्रेडिट रेटिंग गिरने के साथ ही देश की सभी कंपनियों की रेटिंग की अधिकतम सीमा भी वही हो जाती है। किसी भी रेटिंग एजेंसी के हिसाब में किसी भी निजी या सरकारी कंपनी की रेटिंग उस देश की सॉवरेन रेटिंग से ऊपर नहीं हो सकती। यानी अब प्राइवेट कंपनियों के लिए भी क़र्ज़ उठाना मुश्किल और महँगा हो जाता है। जिनके बॉंड या डिबेंचर पहले से बाज़ार में हैं उनके भाव गिर जाते हैं और उन पर रक़म वापस करने का दबाव बढ़ने लगता है।
अभी भारत की रेटिंग जहां पहुँची है वहाँ वो इन्वेस्टमेंट ग्रेड की आख़िरी पायदान पर है। यानी अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान अभी इसमें पैसा लगा सकते हैं। लेकिन अगर ये रेटिंग इससे नीचे खिसक गई तो दुनिया भर के बड़े वित्तीय संस्थानों में से बहुत सारे मजबूर हो जाएँगे कि वो भारत सरकार के या भारत की कंपनियों के जो भी बॉंड उनके पास हैं उनका पैसा तुरंत वापस माँगे या इन्हें औने-पौने भाव पर बाज़ार में बेच दें। ऐसा इसलिए क्योंकि इन फंड मैनेजरों के सामने ये निर्देश साफ़ है कि वो इन्वेस्टमेंट ग्रेड से नीचे के किसी भी इंस्ट्रुमेंट में पैसा नहीं लगाएँगे।
इसके बाद पैसा लगाने वाले कुछ फंड मिलते हैं लेकिन वो बिलकुल सूदखोर महाजनों की ही तरह होते हैं। ऐसी ही स्थिति में देश क़र्ज़ के जाल में फँसते हैं। इसीलिए ये रेटिंग गिरना बहुत फ़िक्र की बात है।
हालाँकि सिक्के का एक दूसरा पहलू भी है। इस वक़्त अगर रेटिंग की चिंता में सरकार ने खर्च रोकना शुरू कर दिया तो फिर इकोनॉमी को पटरी पर लाना बहुत मुश्किल होता जाएगा। यानी बिलकुल एक तरफ़ कुआँ और दूसरी तरफ खाई। लेकिन अनेक जानकार राय दे रहे हैं कि सरकार को कुछ समय तक रेटिंग की चिंता छोड़कर पूरा दम लगाकर इकोनॉमी में जान फूंकनी चाहिए और एक बार इकोनॉमी चल पड़ी तो रेटिंग सुधरने में भी बहुत वक़्त नहीं लगेगा।
मूडीज़ का भी अनुमान है कि इस वित्त वर्ष में क़रीब चार परसेंट की गिरावट के बाद भारत की अर्थव्यवस्था अगले साल तेज़ उछाल दिखाएगी। फिर भी उसे डर है कि आगे कई साल तकलीफ़ बनी रहेगी इसीलिए उसका नज़रिया कमजोर है। अब अगर सरकार कुछ ऐसा कर दे कि तस्वीर पलट जाए तो यह नज़रिया अपने आप ही बदल जाएगा।
जलवायु परिवर्तन पर शोध करने वाले लंबे समय से चेतावनी देते आ रहे हैं कि साल 2070 तक पृथ्वी का तापमान इतना बढ़ जाएगा कि यहां रहना लगभग मुमकिन नहीं होगा।
लेकिन साइंस एडवांसेज़ जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कई जगहों पर ऐसी घटनाएं सामने आ रही हैं जिनके बारे में अब तक चेतावनी दी जाती थी।
इस अध्ययन के लेखक कहते हैं कि वे ख़तरनाक स्थितियां जिनमें गर्मी और उमस एक साथ सामने आती हैं, वे पूरी दुनिया में होती दिख रही हैं।
हालांकि, ये स्थितियां बस कुछ घंटों के लिए रहती हैं लेकिन इनके होने की संख्या और गंभीरता बढ़ती जा रही है।
इन शोधार्थियों ने साल 1980 से 2019 के बीच मौसम की जानकारी देने वाले 7877 अलग-अलग स्टेशनों के प्रति घंटे के डेटा का विश्लेषण किया है।
इस विश्लेषण में ये सामने आया है कि कुछ उप-उष्णकटिबंधीय तटीय इलाकों में बेहद गर्मी और उमस मिश्रित मौसम की आवृतियां दुगनी हो गई हैं।
इस तरह की हर एक घटना में गर्मी और उमस मिली होती है जो कि एक लंबे समय तक ख़तरनाक साबित हो सकती है।
इस तरह की घटनाएं लगातार भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, उत्तरी-पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया, लाल सागर के तटीय क्षेत्र और केलिफॉर्निया की खाड़ी में नज़र आ रही हैं।
इनमें से सबसे ज़्यादा ख़तरनाक आंकड़े सऊदी अरब में धहरान/दमान, क़तर के दोहा और संयुक्त अरब अमीरात के रस अल खमैया में 14 बार दर्ज किए गए। इन शहरों में बीस लाख से ज़्यादा लोग रह रहे हैं।
दक्षिण पूर्वी एशिया, दक्षिणी चीन, उप - उष्णकटिबंधीय अफ्रीका और केरिबियाई क्षेत्र भी इससे प्रभावित हुआ था।
अमरीका के दक्षिण पूर्वी में काफ़ी गंभीर स्थितियां देखी गईं। और ये स्थितियां मुख्यत: गल्फ़ कोस्ट के पास पूर्वी टेक्सस, लुइसियाना, मिसीसिपी, अलाबामा और फ़्लोरिडा पेनहैंडल में देखी गई हैं। न्यू ओरेलॉन्स और बिलोक्सी शहर भी बुरी तरह प्रभावित हुए हैं।
दुनिया भर में ज़्यादातर मौसम विज्ञान केंद्र दो थर्मामीटरों से तापमान का आकलन करते हैं।
पहला ड्राई बल्ब उपकरण हवा का तापमान हासिल करता है।
ये वो आंकड़ा है जो कि आप अपने फोन या टीवी पर अपने शहर के तापमान के रूप में देखते हैं।
एक अन्य उपकरण वेट बल्ब थर्मामीटर होता है। ये उपकरण हवा में उमस को रिकॉर्ड करता है।
इसमें एक थर्मामीटर को कपड़े में लपेट कर तापमान लिया जाता है। सामान्यत: ये तापमान खुली हवा के तापमान से कम होता है।
इंसानों के लिए बहुत तेज उमस भरी गर्मी जानलेवा साबित हो सकती है। इसी वजह से वेट बल्ब की रीडिंग जिसे 'फील्स लाइक' कहा जाता है, उसकी रीडिंग बहुत अहम होती है।
हमारे शरीर का सामान्य तापमान 37 डिग्री सेल्सियस होता है। और हमारे शरीर का तापमान सामान्यत: 35 डिग्री सेल्सियस होता है। इस अलग अलग तापमान हमें पसीना निकालकर हमारे शरीर को ठंडा रखने में मदद करता है।
शरीर से पसीना निकलकर भाप बनते हुए अपने साथ गर्मी भी लेकर उड़ जाता है।
ये प्रक्रिया रेगिस्तानों में बिलकुल ठीक ढंग से काम करती है। लेकिन उमस वाली जगहों पर ये प्रक्रिया ठीक ढंग से काम नहीं करती है। क्योंकि हवा में पहले से इतनी नमी होती है कि वह इस प्रक्रिया में पसीने को भाप के रूप में उठा नहीं पाती है।
ऐसे में अगर उमस बढ़ती है और वेट बल्ब तापमान को बढ़ाकर 35 डिग्री सेल्सियस या इससे ऊपर तक ले आती है तो पसीने के भाप बनने की प्रक्रिया धीमी होगी जिससे हमारी गर्मी झेलने की क्षमता पर असर पड़ेगा।
कुछ गंभीर मामलों में ये भी हो सकता है कि ये प्रक्रिया पूरी तरह रुक जाए। ऐसे में किसी व्यक्ति को एक एयर-कंडीशंड कमरे में जाना पड़ेगा क्योंकि शरीर का अंदरूनी तापमान ये गर्मी बर्दाश्त करने की सीमा के पार चला जाएगा जिसके बाद शारीरिक अंग काम करना बंद कर देंगे।
ऐसी स्थिति में बेहद फिट लोग भी लगभग छह घंटे में दम तोड़ देंगे।
अब तक ये माना जाता था कि पृथ्वी पर वेट बल्ब तापमान दुर्लभ स्थितियों में 31 डिग्री सेल्सियस के पार जाता है।
लेकिन 2015 में ईरान के पोर्ट सिटी बंदार अब्बास में मौसम विज्ञानियों ने वेट बल्ब के तामपान को 35 डिग्री सेल्सियस तक जाता हुआ देखा।
उस समय हवा का तामपान 43 डिग्री सेल्सियस था। लेकिन इस नए अध्ययन के बाद पता चला है कि फ़ारस की खाड़ी के शहरों में एक से दो घंटे के समय में वेट बल्ब टेंपरेचर एक दर्जन से ज़्यादा बार 35 डिग्री सेल्सियस तक गया।
कोलंबिया यूनिवर्सिटी में लेमॉन्ट डोहर्टी अर्थ ऑब्जर्वेटरी में शोधार्थी और इस अध्ययन में प्रमुख लेखक कॉलिन रेमंड कहते हैं, ''फारस की खाड़ी में जो उमस भरी गर्मी है वो गर्मी मुख्यत: नमी की वजह से है। लेकिन ऐसी स्थितियां पैदा होने के लिए तापमान को भी औसत से ज़्यादा होना चाहिए। हम जिन आंकड़ों का अध्ययन कर रहे हैं वो अभी भी काफ़ी दुर्लभ हैं। लेकिन 2000 के बाद काफ़ी बार सामने आ चुके हैं।''
अब तक जलवायु परिवर्तन पर जितने भी अध्ययन हुए हैं, वे सब इस तरह की गंभीर घटनाओं को दर्ज करने में असफल रहे हैं। ये अध्ययन इस बारे में बताता है क्योंकि शोधार्थी सामान्यत: बड़े क्षेत्र और लंबे अंतराल में गर्मी और उमस के औसत को देखते हैं। लेकिन कॉलिन रेमंड और उनके साथियों ने पूरी दुनिया के मौसम विज्ञान केंद्रों पर आने वाले प्रति घंटे के हिसाब से आ रहे डेटा पर नज़र रखी। इससे उन्हें उन घटनाओं के बारे में पता चल पाया जिसकी वजह से काफ़ी कम समय में काफ़ी छोटे जगह पर असर दिख रहा है।
कॉलिन कहते हैं, ''हमारा अध्ययन पिछले अध्ययनों से पूरी तरह सहमत है कि किसी मेट्रोपॉलिटन क्षेत्र के स्तर पर 35 डिग्री सेल्सियस वेट बल्ब तापमान 2100 तक एक सामान्य बात होगी। हमने इसमें सिर्फ ये जोड़ा है कि ये घटनाएं छोटी जगहों पर कम समय पर होना शुरू हो गई हैं। ऐसे में हाई रिज़ॉल्युशन डेटा बेहद ज़रूरी है।''
ऐसी घटनाएं ज़्यादातर तटीय क्षेत्रों, खाड़ियों और जलसंधियों में हो रही हैं जहां पर भाप बनकर उड़ रहा समुद्री जल गर्म हवा में मिलने की संभावना पैदा करता है।
अध्ययन बताते हैं कि ज़्यादातर भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश में 2100 तक ऐसा तापमान बना रहेगा जिसमें ज़िंदा रहा जा सकता है। ये समुद्री जलस्तर के अत्यधिक तापमान और महाद्विपीय गर्मी का संगम है जो कि उमस भरी गर्मी पैदा कर सकता है।
कोलिन कहते हैं, ''हाई रिज़ॉल्युशन डेटा हमें ये समझने में मदद कर सकता है कि किन जगहों पर लोगों पर सबसे ज़्यादा असर पड़ सकता है और अगर ऐसी स्थिति पैदा होने वाली हो तो हम लोगों को किस तरह चेतावनी दे सकते हैं। इससे उन्हें एयर-कंडीशन, घर के बाहर रहकर काम नहीं करने और दीर्घकालिक कदम उठाने के लिए तैयार होने में मदद मिल सकती है।''
ये अध्ययन उन आर्थिक रूप से कमजोर इलाकों के बारे में चिंता व्यक्त करता है जहां पर तापमान तेजी से बढ़ रहा है। क्योंकि ये लोग गर्मी से बचाव करने में असमर्थता महसूस करेंगे।
इसी अध्ययन के एक अन्य लेखक और वैज्ञानिक राडले हॉर्टन कहते हैं, ''ग़रीब देशों में जिन लोगों पर ख़तरा ज़्यादा मंडरा रहा है, वे बिजली भी इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं, एयर कंडीशन तो भूल जाइए। ज़्यादातर लोग अपने जीविकापार्जन के लिए खेती किसानी पर निर्भर हैं। ये तथ्य कुछ क्षेत्रों को रहने के लिए अयोग्य बना देंगे।''
अगर कार्बन उत्सर्जन में कमी नहीं लाई गई तो इस तरह की घटनाओं का बढ़ना लाज़मी है।
ऑस्ट्रेलिया की न्यू साउथ वेल्स यूनिवर्सिटी में क्लाइमेटेलॉजिस्ट स्टीवन शेरवुड कहते हैं, ''ये आकलन बताते हैं कि पृथ्वी के कुछ क्षेत्रों में जल्द ही इतनी ज्यादा गर्मी हो जाएगी कि वहां रहना मुमकिन नहीं होगा। पहले ये माना जाता था कि हमारे पास काफ़ी सेफ़्टी ऑफ़ मार्जिन यानि जोख़िम काफ़ी दूर है।''
अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने कहा था कि वो कोविड 19 बीमारी से बचने के लिए मलेरिया की दवाई हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्विन ले रहे हैं।
साइंस जर्नल 'लैंसेट' ने अपनी स्टडी में पाया है कि कोरोना वायरस से संक्रमितों के इलाज में जहां हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्विन दवाई दी जा रही है, वहां मौत का ख़तरा ज़्यादा है।
स्टडी में पाया गया है कि मलेरिया की इस दवाई से कोरोना संक्रमितों को कोई फ़ायदा नहीं हो रहा है। भारत में यह दवाई बड़े पैमाने पर बनती है। भारत ने मार्च में इस दवाई के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया था लेकिन अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप चाहते थे कि भारत ये प्रतिबंध हटाए और अमरीका में आपूर्ति करे। ट्रंप के कहने के बाद भारत ने ये प्रतिबंध आंशिक रूप से हटा दिया था।
ट्रंप ने इसी हफ़्ते कहा था कि वो इस दवाई का सेवन कर रहे हैं जबकि स्वास्थ्य अधिकारियों ने चेताया था कि इससे हृदय रोग की समस्या बढ़ सकती है।
ट्रंप मेडिकल स्टडी की उपेक्षा करते हुए इस दवाई के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करते रहे हैं।
हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्विन मलेरिया के रोगियों के लिए सुरक्षित है और लुपस या आर्थ्राइटिस के कुछ मामलों में भी ये लाभकारी है।
लेकिन कोरोना संक्रमितों को लेकर कोई क्लिनिकल ट्रायल ने इस दवाई के इस्तेमाल की सिफ़ारिश नहीं की है।
द लैंसेट की स्टडी में कोरोना वायरस से संक्रमित 96,000 मरीज़ों को शामिल किया गया।
इनमें से 15,000 लोगों को हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्विन दी गई या इससे मिलती जुलती क्लोरोक्विन दी गई। ये या तो किसी एंटिबायोटिक के साथ दी गई या फिर केवल यही।
इस स्टडी से पता चलता है कि दूसरे कोविड मरीज़ों की तुलना में क्लोरोक्विन खाने वाले मरीज़ों की हॉस्पिटल में ज़्यादा मौत हुई और हृदय रोग की समस्या भी उत्पन्न हुई।
जिन्हें हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्विन दी गई उनमें मृत्यु दर 18% रही, क्लोरोक्विन लेने वालों में मृत्यु दर 16.4% और जिन्हें ये दवाई नहीं दी गई उनमें मृत्यु दर नौ फ़ीसदी रही।
जिनका इलाज हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्विन या क्लोरोक्विन किसी एंटिबायोटिक के साथ दी गई उनमें मृत्यु दर और ज़्यादा थी।
रिसर्चरों ने कहा है कि हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्विन क्लिनिकल ट्रायल से बाहर लेना ख़तरनाक है।
ट्रंप ने कहा था कि कोविड टेस्ट में वो निगेटिव आए हैं क्योंकि वो हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्विन ले रहे हैं और इसका सकारात्मक फ़ायदा मिला है।
इसे लेकर ट्रायल चल रहा है कि हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्विन कोविड 19 में प्रभावी है या नहीं।
यूरोप, एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमरीका के 40 हज़ार से ज़्यादा स्वास्थ्यकर्मियों को इस ट्रायल में हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्विन की खुराक दी जाएगी।
लैंसेट की स्टडी के बारे में पूछे जाने पर 'व्हॉइट हाउस कोरोना वायरस टास्क फोर्स ' के को-ऑर्डिनेटर डॉक्टर डेबोराह बर्क्स ने कहा कि कोविड-19 की बीमारी के इलाज या उससे बचाव के लिए हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्विन के इस्तेमाल से जुड़ी चिंताओं को लेकर सरकारी एजेंसी 'यूएस फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन' का रुख बहुत स्पष्ट रहा है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन से जुड़े संगठन 'पैन अमरीकन हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन' के निदेशक डॉक्टर मार्कोस एस्पिनाल ने ये बात जोर देकर कही है कि किसी भी क्लिनिकल ट्रायल में कोरोना वायरस के इलाज के नाम पर हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्विन के इस्तेमाल की सिफारिश नहीं की गई है।
ईरान के सुप्रीम लीडर अयातुल्लाह अली ख़ामेनेई ने शुक्रवार को कहा कि इसराइल एक ट्यूमर है जिसे हटाया जाना है।
साथ ही उन्होंने फ़लस्तीन को ईरान से हथियार भेजने का भी समर्थन किया है। दूसरी तरफ़, अमरीका, यूरोपीय संघ और इसराइल ने ईरान के इस बयान की कड़ी आलोचना की है।
इसराइल का विरोध शिया बहुल ईरान में एक बड़ा मुद्दा है। इसराइल के साथ शांति का विरोध करने वाले फ़लस्तीनी और लेबनान के सशस्त्र गुटों को ईरान का समर्थन हासिल रहा है। ईरान ने आज तक इसराइल को मान्यता नहीं दी है।
समाचार एजेंसी रॉयटर्स के मुताबिक़ अयातुल्लाह अली ख़ामनेई ने कहा, ''क्षेत्र में यहूदियों की हुकूमत एक ट्यूमर की तरह है जो जानलेवा और नासूर बन गया है। बेशक इसे एक दिन नेस्तनाबूद कर दिया जाएगा।''
ख़ामेनेई ने रमज़ान के आख़िरी जुमे के दिन एक ऑनलाइन खुतबा में ये बात कही।
अमरीका, यूरोपीय संघ और इसराइल ने ईरान की इस टिप्पणी पर कड़ी प्रतिक्रिया दी है।
इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू ने ईरान को आगाह करते हुए कहा, ''इसराइल को बर्बाद करने की धमकी देने वाली ताक़तों का भी वही परिणाम होगा।''
अमरीकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने ख़ामेनेई के बयान को ख़ारिज करते हुए उसे घृणित और यहूदी विरोधी टिप्पणी करार दिया।
उन्होंने कहा कि ये बातें ईरान के आम लोगों की सहिष्णुता की परंपरा से मेल नहीं खाती हैं।
यूरोपीय संघ की विदेश नीति के प्रमुख जोसेफ़ बोरेल ने कहा कि ख़ामेनेई की टिप्पणी पूरी तरह से अस्वीकार्य हैं और ये चिंता का सबब भी है।
हालांकि गज़ा में सक्रिय 'हमास' और 'इस्लामिक जिहाद' जैसे फ़लस्तीनी सशस्त्र गुट ईरान की तरफ़ से मिलने वाले पैसे और हथियारों की मदद की तारीफ़ करते रहे हैं।
लेकिन शुक्रवार से पहले ख़ामनेई ने कभी भी सार्वजनिक तौर पर ये बात नहीं कबूल की थी कि ईरान इन सशस्त्र गुटों को हथियारों की आपूर्ति करता है।
ख़ामनेई ने कहा, ''ईरान को इस बात का एहसास है कि फ़लस्तीनी लड़ाकों की केवल एक समस्या है और वो है हथियारों की कमी। अल्लाह की मर्जी और मदद से हमने योजना बनाई और फ़लस्तीन में सत्ता का संतुलन बदल गया और गज़ा पट्टी यहूदी दुश्मनों के हमलों के ख़िलाफ़ खड़ी हो सकती है और उन्हें हरा सकती है।''
इसराइल के रक्षा मंत्री बेनी गैंट्ज़ ने इस पर कहा, ''इसराइल के सामने कई बड़ी चुनौतियां हैं। ख़ामेनेई का बयान इसे पूरी तरह से स्पष्ट कर देता है।''
बेनी गैंट्ज़ ने फ़ेसबुक पर लिखा, ''मैं किसी को ये सलाह नहीं दे सकता कि वो हमारा इम्तेहान ले ले ... हम किसी भी किस्म के ख़तरे का सामना करने के लिए हर तरह से तैयार हैं।''
ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता ने शुक्रवार को अपने संबोधन में इसराइल के ख़िलाफ़ बयान देने के अलावा भी बहुत कुछ कहा।
समाचार एजेंसी एएफ़पी के अनुसार ख़ामेनेई ने इस मौके पर कहा, ''फ़लस्तीन की आज़ादी हमारी इस्लामी ज़िम्मेदारी है। इस संघर्ष का मक़सद पूरे फ़लस्तीनी इलाक़े की आज़ादी है और फ़लस्तीनियों को उनका मुल्क वापस दिलाना है। अमरीका चाहता है कि इस इलाक़े में यहूदियों की सरकार की मौजूदगी को सामान्य बात बना दी जाए। कुछ अरब देशों की अमरीका परस्त सरकारें इसके लिए हालात तैयार कर रही हैं।''
फ़लस्तीन के मुद्दे को समर्थन देने के लिए ईरान हर साल रमज़ान के आख़िरी जुमे के दिन 'क़ुड्स (यरूशलम) दिवस' मनाता है। साल 1979 की क्रांति के बाद से ही ईरान में ये परंपरा चली आ रही है।
पिछले 30 सालों में ये पहला मौक़ा है जब ईरान के सुप्रीम लीडर की हैसियत से ख़ामेनेई इस मौक़े पर संबोधित कर रहे थे। हालांकि वे लगातार ये कहते रहे हैं कि फ़लस्तीन का मुद्दा मुस्लिम जगत की सबसे बड़ी समस्या है।
इस साल कोविड-19 की महामारी के कारण ईरान ने 'क़ुड्स डे' से जुड़ी रैलियां स्थगित कर दी थीं।
अफ़ग़ानिस्तान के लिए अमरीका के विशेष प्रतिनिधि ज़ल्मे ख़लीलज़ाद ने भारतीय दैनिक इंग्लिश समाचार पत्र 'द हिन्दू' को दिए एक इंटरव्यू में कहा है कि भारत को तालिबान के साथ सीधे बात करनी चाहिए।
ये शायद पहली बार है कि किसी अमरीकी अधिकारी ने भारत को तालिबान के साथ सीधे बातचीत करने के लिए कहा हो। एशियाई देशों में सिर्फ़ भारत अकेला ऐसा देश है, जिसके तालिबान के साथ औपचारिक संबंध नहीं हैं।
हालांकि चीन, ईरान और रूस ने भी अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के दौर में उनकी सरकार को स्वीकार करने से इनकार किया था लेकिन अब तीनों देश तालिबान के साथ संपर्क में हैं। रूस ने अफ़ग़ानिस्तान शांति प्रक्रिया के सिलसिले में नवंबर 2018 में अंतर्राष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस की मेज़बानी भी की थी।
भारत ने पिछले 20 सालों में अफ़ग़ानिस्तान में अरबों रुपयों का निवेश किया है और अफ़ग़ानिस्तान ने भी भारत के साथ अपनी दोस्ती को हर मुमकिन तौर पर बनाए रखने की भरपूर कोशिश की है।
काबुल में मौजूद भारतीय दूतावास के अनुसार अब तक भारत अफ़ग़ानिस्तान में दो अरब अमरीकी डॉलर से ज़्यादा का निवेश कर चुका है।
नई दिल्ली और अफ़ग़ानिस्तान की दोस्ती इसलिए भी मज़बूत होती गई कि दोनों ही अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान पर तालिबान और कश्मीर में लड़ने वालों की मदद करने का आरोप लगा रहे हैं।
अफ़ग़ानिस्तान मामलों के विश्लेषकों के अनुसार दो बड़े कारण हैं जिसकी वजह से अब तक भारत ने तालिबान के साथ संपर्क नहीं रखा। पहला, कुछ साल पहले तक अफ़ग़ानिस्तान सरकार का विरोध करने वाले तालिबान का पाकिस्तान के साथ नज़दीकी संबंध या फिर समर्थन का आरोप, दूसरा तालिबान का कश्मीर में भारत के ख़िलाफ़ लड़ने वालों का समर्थन करना।
2001 में अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के ख़ात्मे के साथ ही भारत ने पांच साल के बाद फिर से अफ़ग़ानिस्तान के लिए अपने राजनयिक स्टाफ़ भेजा था।
अफ़ग़ानिस्तान में पूर्व भारतीय राजदूत गौतम मुखोपाध्याय उन राजदूतों में से एक थे जिन्होंने अफ़ग़ानिस्तान में भारतीय मिशन को दोबारा खोला।
गौतम मुखोपाध्याय ने बीबीसी से बात में कहा कि ये भारत के लिए एक फ्रेंडली मैसेज है जिसमें ये संकेत है कि कि तालिबान जल्द ही अफ़ग़ानिस्तान की राजनीति में आ सकते हैं और भारत को भी ऑन-बोर्ड आना चाहिए।
अफ़ग़ानिस्तान पर तीन किताबें लिख चुके अमरीकी लेखक बार्नेट आर रुबेन का कहना है कि ख़लीलज़ाद ने ये नहीं कहा है कि भारत तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान सरकार की तरह मान ले, बल्कि उनका कहना है कि जिस तरह दूसरे देशों के तालिबान और दूसरे धड़ों के साथ संपर्क है। इसी तरह भारत भी तालिबान के साथ संपर्क में रहे और उन्हें हथियार छोड़ कर सक्रिय राजनीति में आने के लिए कहे।
लेकिन सवाल उठता है कि क्या तालिबान सक्रिय राजनीति में आने के लिए हथियार डाल देगा? ऐसा कहना न केवल जल्दबाजी होगी बल्कि यह एक बचकाना बात होगी। रुबेन शायद तालिबान के इतिहास को भूल गए है या नजरअंदाज कर रहे हैं या प्रभावित करने वाले बयान दे रहे हैं। रूबेन को याद होगा कि अमेरिका पिछले 20 सालों में अपने सैन्य अभियानों में तालिबान को हरा नहीं सका और अमेरिका को मजबूरी में तालिबान के सामने घुटने टेकते हुए तालिबान के साथ समझौते करने के लिए मजबूर होना पड़ा। तालिबान एक ताकतवर सैन्य बल समूह है, हथियार उसकी ताकत है। तलिबान ने हथियार के बल पर आधे से ज्यादा अफगानिस्तान पर कब्ज़ा कर रखा है और कई प्रांतों पर तालिबान का शासन है। ऐसे में तालिबान हथियार क्यों डालेगा? तालिबान सक्रिय राजनीति में आने के बाद भी अपने सैन्य बल को बरकरार रखेगा।
रुबेन के अनुसार, ''अब जब तालिबान अफ़ग़ानिस्तान की राजनीति में दाख़िल हो गया है तो ये भारत के लिए अच्छा यही होगा कि वो उनके साथ वैसे ही संबंध बनाए जैसे वो जमाते इस्लामी, जनरल दोस्तम या फिर पश्तों क़ौम परस्तों के साथ रखता है।''
रुबेन के अनुसार तालिबान के लिए भारत की नीति पहले ही बदल चुकी है। वो कहते हैं जब भारत ने नवंबर 2018 में मॉस्को में होने वाली अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में दो पूर्व राजदूत भेजे थे तभी इसका संकेत मिल गया था।
हालांकि भारतीय विदेश मंत्रालय ने उस समय कहा था कि ये दो राजदूत 'अनौपचारिक' तौर पर इस कॉन्फ्रेंस में शरीक हो रहे हैं।
दोहा में अफ़ग़ानिस्तान तालिबान के राजनीतिक कार्यालय के प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने बीबीसी को बताया कि तालिबान का राजनीतिक कार्यालय इसलिए बनाया गया है कि दुनिया के देशों के साथ उनकी पॉलिसी शेयर कर सकें।
वो कहते हैं, "जो भी हमसे संपर्क करेगा हम उन्हें अपनी वर्तमान और भविष्य की नीति के बारे में सूचित करेंगे।''
अफ़ग़ानिस्तान में बतौर पत्रकार काम कर रहे समी यूसुफ़ज़ई के अनुसार तालिबान के दौर में अल-क़ायदा से ज़्यादा कश्मीरी और पंजाबी 'मुजाहिदीन' अफ़ग़ानिस्तान में घुस गए थे और उस समय भारत की चिंता इसी वजह से जायज़ थी।
उनके अनुसार "अब तालिबान भारत के साथ अपनी परेशानी आसानी से हल कर सकते हैं।''
पूर्व भारतीय राजदूत गौतम मुखोपाध्याय के अनुसार भारत ने आज तक तालिबान को औपचारिक तौर पर रिजेक्ट नहीं किया है, ये बात और है कि वो उनसे संपर्क में भी नहीं रहा है।
गौतम बताते हैं कि भारत से बातचीत से पहले तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान सरकार से बात करनी चाहिए और उन्हें मानना चाहिए। वो कहते हैं, "मैं भारत सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर बात नहीं कर रहा हूं लेकिन इतना कहूंगा कि तालिबान को भारत से पहले अफ़ग़ानिस्तान सरकार को स्वीकार करना चाहिए और उनसे बात करनी चाहिए।''
सवाल उठता है कि तालिबान जब अफ़ग़ानिस्तान सरकार को स्वीकार नहीं करता, तो वह भारत से बात क्यों करेगा? तालिबान प्रवक्ता पहले ही कह चुके हैं कि जो भी हमसे संपर्क करेगा हम उन्हें अपनी वर्तमान और भविष्य की नीति के बारे में सूचित करेंगे। यानि तालिबान खुद किसी से बात नहीं करेगा।
अब अफ़ग़ानिस्तान सरकार का क्या होगा?
सवाल ये है कि जब अमरीका, जर्मनी, रूस, ईरान, चीन और पाकिस्तान समेत कई देशों के तालिबान के साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से संबंध हैं, तो अगर अफ़ग़ानिस्तान का क़रीबी मित्र भारत तालिबान के साथ संबंध रखता है तो अफ़ग़ानिस्तान सरकार को क्यों चिंता होनी चाहिए?
भारत के लिए अफ़ग़ानिस्तान के पूर्व राजदूत शैदा मोहम्मद अब्दाली के अनुसार इस क्षेत्र में भारत अफ़ग़ानिस्तान का ऐसा क़रीबी और सच्चा मित्र देश है जो अगर तालिबान से संबंध रखता भी है तो दूसरे देशों के उलट अपने फ़ायदे से अधिक अफ़ग़ानिस्तान सरकार के फ़ायदों को ही देखेगा।
क्या ऐसा हो सकता है कि भारत अपने हित के ऊपर अफगानिस्तान के हित को रखेगा? अगर अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार बन गई तो क्या होगा?
अब्दाली के अनुसार "हालांकि अभी तक ये साफ़ नहीं है कि भारत किन शर्तों के साथ तालिबान से बात करने पर राज़ी होता है लेकिन भारत और अफ़ग़ानिस्तान की दोस्ती को देखते हुए ये कह सकता हूं कि वो अगर बात करते भी हैं तो अफ़ग़ानिस्तान सरकार की जानकारी के साथ करेंगे।''
फिर सवाल उठता है कि जो तालिबान अफगानिस्तान सरकार से बात नहीं करती, वह भारत से बात क्यों करेगी? वह भी भारत की शर्तों पर!
अब्दाली समझते हैं कि शुरू से ही अफ़ग़ानिस्तान सरकार की ये कोशिश रही है कि अफ़ग़ानिस्तान शांति प्रक्रिया में क्षेत्रीय देश भी अपना किरदार अदा करें और उनके अनुसार इन देशों में से अगर भारत जैसा दोस्त तालिबान से सम्बन्ध रखता है तो अफ़ग़ानिस्तान सरकार को कोई चिंता नहीं रहेगी।
पाकिस्तान की क्या चिंता हो सकती हैं?
एक तरफ़ अगर भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में दो अरब डॉलर से अधिक का निवेश किया है तो दूसरी तरफ पाकिस्तान के पूर्व जिहादी नेताओं के तालिबान और दूसरे देश के साथ अच्छे और दोस्ताना संबंध हैं। कुछ पाकिस्तानी विश्लेषक समझते हैं कि पूर्व मुजाहिदीन और तालिबान, अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान के फ़ायदे का जहां तक हो सकेगा बचाव कर सकते हैं।
2001 के बाद से जैसे-जैसे भारत और अफ़ग़ानिस्तान के ऐतिहासिक संबंध एक बार फिर बढ़ते गए इसे लेकर पाकिस्तान की चिंता भी बढ़ती गईं। पाकिस्तान को चिंता इस बात की है कि भारत अफ़ग़ानिस्तान में अरबों का निवेश क्यों कर रहा है?
पाकिस्तान का मानना है कि अफ़ग़ानिस्तान सरकार को भारत की अपेक्षा पाकिस्तान से अधिक नज़दीक होना चाहिए। हालांकि अफ़ग़ानिस्तान का मानना है कि आज़ाद और आत्मनिर्भर देश की हैसियत से उनके किसी दूसरे देशों के साथ संबंधों पर पाकिस्तान को दख़ल देने का हक़ नहीं है।
पाकिस्तान का आरोप है कि तहरीक़-ए-तालिबान पाकिस्तान के साथ-साथ बलोच प्रदर्शनकारी भी पाकिस्तान के ख़िलाफ़ अफ़ग़ानिस्तान की सरज़मीन का इस्तेमाल कर रहे हैं। दूसरी तरफ अफ़ग़ानिस्तान की जनता में भारत की स्वीकार्यता अधिक है और वहां आज भी चरमपंथ की अधिकतर घटनाओं के पीछे पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी को दोषी ठहराया जाता है।
रूबेन के अनुसार अगर पाकिस्तान ये मानता है कि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान, पाकिस्तान के फ़ायदे का बचाव करेंगे तो ये पाकिस्तान की बड़ी भूल होगी।
उनके अनुसार मजबूरी के कारण तालिबान ने पाकिस्तान में पनाह ली थी, अब जैसे-जैसे वो वापस अफ़ग़ान राजनीति की मुख्यधारा में शामिल होते जायेंगे, पाकिस्तान पर उनकी निर्भरता भी कम होती जाएगी।
रुबेन की बातों से पूरी तरह से सहमत होना मुश्किल है। आज भी तालिबान का अफ़ग़ानिस्तान के आधे से अधिक इलाके पर नियंत्रण और प्रत्यक्ष शासन है। एक और बात अमेरिका-तालिबान समझौता कराने में पाकिस्तान ने अहम भूमिका निभाई है। ऐसे में तालिबान के सक्रिय राजनीति में आने पर भला तालिबान अपने पुराने सहयोगी पाकिस्तान को क्यों छोड़ेगा? तालिबान ने पहले भी अफ़ग़ानिस्तान पर शासन किया है। तब क्या तालिबान ने पाकिस्तान को छोड़ दिया था? तब भी तालिबान और पाकिस्तान के बीच अच्छे सम्बन्ध थे और आज भी है।
लेकिन भारत अमेरिका के कहने पर तालिबान से बात क्यों करें? अमेरिका ने तालिबान से समझौता कर लिया तो भारत को तालिबान से बात क्यों करना चाहिए? क्या भारत को अमेरिका के इशारे पर नाचना चाहिए? कोरोना वायरस ने जिस तरह से पूरी दुनिया में तबाही मचाई है। इससे अमेरिका, रूस और चीन जैसे ताकतवर मुल्क भी तबाह हो चुके हैं। कोरोना वायरस की तबाही के बाद दुनिया में काफी बदलाव आएगा। हर देश केवल अपने हित के बारे में सोचेंगे। ऐसे में भारत को भी केवल अपने हित के बारे में सोचना चाहिए।