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राहुल गांधी का कोरोना वायरस और इसके आर्थिक प्रभाव पर नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी के साथ बातचीत, एपिसोड - 3

डॉ बनर्जी: यही कारण है कि हम जैसे लोग कहते हैं कि प्रोत्साहन पैकेज दिया जाए। अमेरिका यही कर रहा है, जापान और यूरोप यही कर रहे हैं। हमने अभी तक इस बारे में कुछ फैसला नहीं किया है। हम अभी भी सिर्फ जीडीपी के 1% की बात कर रहे हैं। अमेरिका ने जीडीपी के 10% के बराबर पैकेज दिया है। मुझे लगता है कि एमएसएमई सेक्टर के लिए हम आसानी से कर सकते हैं, और वह सही भी होगा कि हम कुछ समय के लिए कर्ज वसूली पर रोक लगा सकते हैं। हम इससे ज्यादा भी कर सकते हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि इस तिमाही के कर्ज की अदायगी रद्द कर दी गई है और सरकार इसका भुगतान करेगी। तो आप इससे ज्यादा भी कर सकते हैं। सिर्फ कर्ज की अदायगी को आगे-पीछे करने के बजाए, इसे माफ ही कर दिया जाना सही रहेगा। लेकिन इससे भी आगे यह साफ नहीं है कि क्या सिर्फ एमएसएमई को ही लक्ष्य बनाना सही रहेगा? जरूरत तो मांग बढ़ाने की है। लोगों के हाथ में पैसा होना चाहिए ताकि वे खरीदारी कर सकें, स्टोर्स में जाएं, कंज्यूमर गुड्स खरीदें। एमएसएमई के काफी उत्पाद हैं जिन्हें लोग खरीदते हैं, लेकिन वे खरीद नहीं रहे हैं। अगर उनके पास पैसा हो और आप पैसे देने का वादा करो तो यह संभव है। पैसा है नहीं। अगर आप रेड जोन में हो, या जहां भी लॉकडाउन हटाया जा रहा है, तो अगर आपके खाते में 10,000 रुपए हैं तो आप खर्च कर सकते हो। अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए खर्च कराना सबसे आसान तरीका है। क्योंकि इससे एमएसएमई के हाथ में भी पैसा आएगा, वे भी खर्च करेंगे, और इस तरह एक चेन बन जाएगी।

राहुल गांधी: यानी हम एक तरह से न्याय योजना की बात कर रहे हैं यानी डायरेक्ट कैश ट्रांसफर जो लोगों तक सीधे पहुंचे।

डॉ बनर्जी: बिल्कुल। यह सिर्फ गरीबों के लिए ही हो, इस पर बहस हो सकती है। मैं तो बड़ी बात कह रहा हूँ ... मेरा मानना है कि टारगेटिंग ही सबसे अहम होगी। आप एक झमेले के बीच लक्ष्य तय कर रहे हो। ऐसे भी लोग होंगे जिनकी दुकान 6 सप्ताह से बंद है और वह गरीब हो गया है। मुझे नहीं पता कि ऐसे लोगों की पहचान कैसे होगी? मैं तो कहूंगा कि आबादी के निचले 60 फीसदी को लक्ष्य मानकर उन्हें पैसे देने चाहिए, इससे कुछ बुरा नहीं होगा। हम उन्हें पैसा देंगे, उन्हें जरूरत है, वे खर्च करेंगे, इसका एक प्रभावी असर होगा। मैं आपके मुकाबले इसमें कुछ और आक्रामकता चाहता हूं, मैं चाहता हूं कि पैसा गरीबों से आगे जाकर भी लोगों को दिया जाए।

राहुल गांधी: तो आप लोगों की बड़े पैमाने पर ग्रुपिंग की बात कर रहे हैं सीधे-सीधे। यानी जितना जल्दी संभव हो मांग को बढ़ाना चाहिए।

डॉ बनर्जी: बिल्कुल। मैं यही कह रहा हूं। संकट से पहले से मैं यही कह रहा हूं कि मांग की समस्या हमारे सामने है। और अब तो यह और बड़ी समस्या हो गई है, क्योंकि यह असाधारण है। मेरे पास पैसा नहीं है, मैं खरीदारी नहीं करूंगा क्योंकि मेरी तो दुकान बंद हो चुकी है। और मेरी दुकान बंद हो चुकी है तो मैं आपसे भी कुछ नहीं खरीदूंगा।

राहुल गांधी: मुझे लगता है कि आप कह रहे हैं कि जो भी करना है, उसे तेजी से करने की जरूरत है। जितना जल्दी कर पाएंगे उतना ही यह प्रभावी होगा। यानी हर सेकेंड जो जा रहा है वह नुकसान को बढ़ा रहा है।

डॉ बनर्जी: आप बिल्कुल सही कह रहे हैं। मैं नहीं चाहता कि हम मदद से पहले हर किसी की योग्यता देखें कि वह पात्र है कि नहीं। मैं मानता हूं कि हम सप्लाई और डिमांड की एक बेमेल चेन खड़ी कर लेंगे, क्योंकि पैसा तो हमने दे दिया लेकिन रेड जोन में होने के कारण रिटेल सेक्टर तो बंद है। इसलिए हमें बेहतर ढंग से सोचना होगा कि जब आप खरीदारी के लिए बाहर जाएं तभी आपको पैसा मिले न कि पहले से। या फिर सरकार वादा करे कि आप परेशान न हों, आपको पैसा मिलेगा और भूखे मरने की नौबत नहीं आएगी, ताकि आपके पास कुछ बचत रह सके। अगर लोगों को यह भरोसा दिया जाए कि दो महीने या जब तक लॉकडाउन है, उनके हाथ में पैसा रहेगा, तो वे परेशान नहीं होंगे और खर्च करना चाहेंगे। इनमें से कुछ के पास अपनी बचत होगी। इसलिए जल्दबाजी करना भी ठीक नहीं होगा, क्योंकि अभी तो सप्लाई ही नहीं है। ऐसे में पैसा दे भी दें तो वह बेकार होगा, महंगाई अलग बढ़ेगी। इस अनुरोध के साथ, हां जल्दी फैसला लेना होगा।

राहुल गांधी: यानी लॉकडाउन से जितना जल्दी बाहर आ जाएं वह बेहतर होगा। इसके लिए एक रणनीति की जरूरत होगी, इसके लिए कुछ आर्थिक गतिविधियां शुरु करनी होंगी। नहीं तो पैसा भी बेकार ही साबित होगा।

डॉ बनर्जी: लॉकडाउन से कितना जल्दी बाहर आएं यह सब बीमारी पर निर्भर करता है। अगर बहुत सारे लोग बीमार हो रहे हैं तो लॉकडाउन कैसे खत्म होगा? आप ठीक कह रहे हैं कि हमें बीमारी की रफ्तार को काबू करना होगा और इस पर नजर रखनी होगी।

राहुल गांधी का कोरोना वायरस और इसके आर्थिक प्रभाव पर नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी के साथ बातचीत, एपिसोड - 2

डॉ बनर्जी: मेरी नजर में यह दो अलग बातें हैं। एक तरह से मैं सोचता हूं कि असली समस्या जो तुरंत है वह है कि यूपीए ने जो अच्छी नीतियां बनाई थीं, वह इस समय नाकाफी हैं। सरकार ने एक तरह से उन्हें अपनाया है। ऐसा नहीं है कि इस पर कोई भेदभाव वाली असहमति थी। यह एकदम स्पष्ट है कि जो कुछ भी हो सकता था उसके लिए यूपीए की नीतियां ही काम आतीं।

मुश्किल काम यह है कि आखिर उन लोगों के लिए क्या किया जाए जो इन नीतियों या योजनाओं का हिस्सा नहीं है। और ऐसे बहुत से लोग हैं। खासतौर से प्रवासी मजदूर। यूपीए शासन के आखिरी साल में जो योजना लाई गई थी कि आधार को देशभर में लागू किया जाए और इसका इस्तेमाल पीडीएस और दूसरी योजनाओं के लिए किया जाए। आधार से जुड़े लाभ आपको मिलेंगे, आप कहीं भी हों। इस योजना को इस समय लागू करने की सबसे बड़ी जरूरत है। अगर हम पीछे मुड़कर देखें तो इससे बहुत सारे लोगों को मुसीबत से बचाया जा सकता था। अगर ऐसा होता तो लोग स्थानीय राशन की दुकान पर जाते और अपना आधार दिखाकर कहते कि मैं पीडीएस का लाभार्थीं हूं। मसलन भले ही मैं मालदा या दरभंगा या कहीं का भी रहने वाला हूं, लेकिन मैं मुंबई में इसका लाभ ले सकता हूं। भले ही मेरा परिवार मालदा या दरभंगा में रहता हो। लेकिन यहां मेरा दावा है। और ऐसा नहीं हुआ तो इसका अर्थ यही है कि बहुत से लोगों के लिए कोई सिस्टम ही नहीं है। वे मनरेगा के भी पात्र नहीं रहे क्योंकि मुंबई में तो मनरेगा है नहीं, और पीडीएस का भी हिस्सा नहीं बन पाए क्योंकि वे स्थानीय निवासी नहीं हैं।

दरअसल समस्या यह है कि कल्याणकारी योजनाओं का ढांचा बनाते वक्त सोच यह थी कि अगर कोई अपने मूल स्थान पर नहीं है तो मान लिया गया कि वह काम कर रहा है और उसे आमदनी हो रही है। और इसी कारण यह सिस्टम धराशायी हो गया।

इसके बाद सवाल है गरीबी का। मुझे नहीं पता कि अगर अर्थव्यवस्था सुधरती भी है तो इसका गरीबी पर कोई टिकाऊ असर होगा। बड़ी चिंता यह है कि क्या अर्थव्यवस्था उबरेगी? और खासतौर से जिस तरह यह बीमारी समय ले रही है और जो प्रक्रियाएं अपनाई जा रही हैं उसमें। मेरा मानना है कि हमें आशावादी होना चाहिए कि देश की आर्थिक स्थिति सुधरेगी, बस यह है कि सही फैसले लिए जाएं।

राहुल गांधी: लेकिन इसमें से अधिकतर को छोटे और मझोले उद्योगों और कारोबारों में काम मिलता है। इन्हीं उद्योगों और कारोबारों के सामने नकदी की समस्या है। इनमें से बहुत से काम-धंधे इस संकट में दिवालिया हो सकते हैं। ऐसे में इन काम-धंधों के आर्थिक नुकसान का इनसे सीधा संबंध है क्योंकि इन्हीं में से बहुत से कारोबार इन लोगों को रोजगार-नौकरी देते हैं।

डॉ बनर्जी: यही कारण है कि हम जैसे लोग कहते हैं कि प्रोत्साहन पैकेज दिया जाए। अमेरिका यही कर रहा है, जापान और यूरोप यही कर रहे हैं। हमने अभी तक इस बारे में कुछ फैसला नहीं किया है। हम अभी भी सिर्फ जीडीपी के 1% की बात कर रहे हैं। अमेरिका ने जीडीपी के 10% के बराबर पैकेज दिया है। मुझे लगता है कि एमएसएमई सेक्टर के लिए हम आसानी से कर सकते हैं, और वह सही भी होगा कि हम कुछ समय के लिए कर्ज वसूली पर रोक लगा सकते हैं। हम इससे ज्यादा भी कर सकते हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि इस तिमाही के कर्ज की अदायगी रद्द कर दी गई है और सरकार इसका भुगतान करेगी। तो आप इससे ज्यादा भी कर सकते हैं। सिर्फ कर्ज की अदायगी को आगे-पीछे करने के बजाए, इसे माफ ही कर दिया जाना सही रहेगा। लेकिन इससे भी आगे यह साफ नहीं है कि क्या सिर्फ एमएसएमई को ही लक्ष्य बनाना सही रहेगा। जरूरत तो मांग बढ़ाने की है। लोगों के हाथ में पैसा होना चाहिए ताकि वे खरीदारी कर सकें, स्टोर्स में जाएं, कंज्यूमर गुड्स खरीदें। एमएसएमई के काफी उत्पाद हैं जिन्हें लोग खरीदते हैं, लेकिन वे खरीद नहीं रहे हैं। अगर उनके पास पैसा हो और आप पैसे देने का वादा करो तो यह संभव है। पैसा है नहीं। अगर आप रेड जोन में हो, या जहां भी लॉकडाउन हटाया जा रहा है, तो अगर आपके खाते में 10,000 रुपए हैं तो आप खर्च कर सकते हो। अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए खर्च कराना सबसे आसान तरीका है। क्योंकि इससे एमएसएमई के हाथ में भी पैसा आएगा, वे भी खर्च करेंगे, और इस तरह एक चेन बन जाएगी।

राहुल गांधी: यानी हम एक तरह से न्याय योजना की बात कर रहे हैं यानी डायरेक्ट कैश ट्रांसफर जो लोगों तक सीधे पहुंचे।

राहुल गांधी का कोरोना वायरस और इसके आर्थिक प्रभाव पर नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी के साथ बातचीत, एपिसोड - 1

इंडियन नेशनल कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी और नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री डॉ अभिजीत बनर्जी के बीच कोरोना महामारी, इसके कारण पैदा होने वाली भविष्य की आर्थिक चुनौतियों और इन आर्थिक चुनौतियों से कैसे निपटा जाये पर महत्वपूर्ण संवाद।

राहुल गांधी: सबसे पहले तो आपका बहुत-बहुत धन्यवाद अपना समय देने के लिए। आप बहुत बिजी रहते हैं।

डॉ बनर्जी: नहीं...नहीं...आपसे ज्यादा नहीं।

राहुल गांधी: यह थोड़ा सपने जैसा नहीं लगता कि सबकुछ बंद है।

डॉ बनर्जी: हां ऐसा ही है, सपने जैसा, लेकिन भयावह, दरअसल यह ऐसा है कि किसी को कुछ पता नहीं है कि आगे क्या होने वाला है?

राहुल गांधी: आपके तो बच्चे हैं, तो उन्हें इस सबको देखकर कैसा लग रहा है?

डॉ बनर्जी: मेरी बेटी थोड़ा परेशान है। वह अपने दोस्तों के साथ जाना चाहती है। मेरा बेटा छोटा है और वह तो खुश है कि हर वक्त उसके मां-बाप साथ में हैं। उसके लिए तो यह कुछ भी गलत नहीं है।

राहुल गांधी: लेकिन वहां भी पूरा ही लॉकडाउन है। तो वे बाहर तो जा नहीं सकते?

डॉ बनर्जी: नहीं, नहीं, ऐसा नहीं है, हम बाहर जा सकते हैं। टहलने पर कोई बाबंदी नहीं है, साइक्लिंग और ड्राइव करने पर भी रोक नहीं है। बस इतना है कि साथ-साथ नहीं जा सकते, शायद इस पर पाबंदी है।

राहुल गांधी: इससे पहले कि मैं शुरु करूं, मेरी एक उत्सुकता है। आपको नोबेल पुरस्कार मिला। क्या आपको उम्मीद थी? या फिर यह एकदम अचानक हो गया?

डॉ बनर्जी: एकदम अचानक था यह। मुझे लगता है कि यह ऐसी चीज है कि जिसके बारे में सोचते रहो तो आप इसे बहुत ज्यादा मन में लेकर बैठ जाते हो। और मैं चीजों को मन में लेकर बैठने वाला व्यक्ति नहीं हूं, खासतौर से उन चीजों के लिए जिनका मेरे जीवन पर कोई तात्कालिक प्रभाव नहीं पड़ता है। मुझे किसी चीज की उम्मीद नहीं रहती है ... यह एकदम से सरप्राइज था मेरे लिए।

राहुल गांधी: भारत के लिए यह एक बड़ी बात थी, आपने हमें गौरवान्वित किया है।

डॉ बनर्जी: थैंक यू ...  हां यह बड़ी बात है। मैं यह नहीं कह रहा कि यह बड़ी बात नहीं है, मेरा मानना है कि आप इसे मन में लेकर बैठ जाते हो, लेकिन ऐसा नहीं है कि कोई प्रक्रिया है जो हर किसी को समझ आए। तो, हो जाती हैं चीजें।

राहुल गांधी: तो जो कुछ अहम बातें जिन पर मैं आपके साथ चर्चा करना चाहता हूं उनमें से एक है कोविड और लॉकडाउन का असर और इससे गरीब लोगों की आर्थिक तबाही। हम इसे कैसे देखें? भारत में कुछ समय से एक पॉलिसी फ्रेमवर्क है, खासतौर से जब हम यूपीए में थे तो हम गरीब लोगों को एक मौका देते थे, मसलन मनरेगा, भोजन का अधिकार आदि ...  और अब ये बहुत सारा काम जो हुआ था, उसे दरकिनार किया जा रहा है क्योंकि महामारी बीच में आ गई है और लाखों-लाखों लोग गरीबी में ढहते जा रहे हैं। यह बहुत बड़ी बात है ... इसके बारे में क्या किया जाए?

डॉ बनर्जी: मेरी नजर में यह दो अलग बातें हैं। एक तरह से मैं सोचता हूं कि असली समस्या जो तुरंत है वह है कि यूपीए ने जो अच्छी नीतियां बनाई थीं, वह इस समय नाकाफी हैं। सरकार ने एक तरह से उन्हें अपनाया है। ऐसा नहीं है कि इस पर कोई भेदभाव वाली असहमति थी। यह एकदम स्पष्ट है कि जो कुछ भी हो सकता था उसके लिए यूपीए की नीतियां ही काम आतीं।

मुश्किल काम यह है कि आखिर उन लोगों के लिए क्या किया जाए जो इन नीतियों या योजनाओं का हिस्सा नहीं है। और ऐसे बहुत से लोग हैं। खासतौर से प्रवासी मजदूर। यूपीए शासन के आखिरी साल में जो योजना लाई गई थी कि आधार को देश भर में लागू किया जाए और इसका इस्तेमाल पीडीएस और दूसरी योजनाओं के लिए किया जाए। आधार से जुड़े लाभ आपको मिलेंगे, आप कहीं भी हों। इस योजना को इस समय लागू करने की सबसे बड़ी जरूरत है। अगर हम पीछे मुड़कर देखें तो इससे बहुत सारे लोगों को मुसीबत से बचाया जा सकता था। अगर ऐसा होता तो लोग स्थानीय राशन की दुकान पर जाते और अपना आधार दिखाकर कहते कि मैं पीडीएस का लाभार्थीं हूं। मसलन भले ही मैं मालदा या दरभंगा या कहीं का भी रहने वाला हूं, लेकिन मैं मुंबई में इसका लाभ ले सकता हूं। भले ही मेरा परिवार मालदा या दरभंगा में रहता हो। लेकिन यहां मेरा दावा है। और ऐसा नहीं हुआ तो इसका अर्थ यही है कि बहुत से लोगों के लिए कोई सिस्टम ही नहीं है। वे मनरेगा के भी पात्र नहीं रहे क्योंकि मुंबई में तो मनरेगा है नहीं, और पीडीएस का भी हिस्सा नहीं बन पाए क्योंकि वे स्थानीय निवासी नहीं हैं।

दरअसल समस्या यह है कि कल्याणकारी योजनाओं का ढांचा बनाते वक्त सोच यह थी कि अगर कोई अपने मूल स्थान पर नहीं है तो मान लिया गया कि वह काम कर रहा है और उसे आमदनी हो रही है। और इसी कारण यह सिस्टम धराशायी हो गया।

रघुराम राजन के साथ राहुल गांधी की कोरोना वायरस और इसका आर्थिक प्रभाव पर बातचीत, एपिसोड - 4

राहुल गांधी: मैं यह देखकर हैरान हूं कि माहौल और भरोसा अर्थव्यवस्था के लिए कितना अहम है। कोरोना महासंकट के बीच जो चीज मैं देख रहा हूं वह यह कि विश्वास का मुद्दा असली समस्या है। लोगों को समझ ही नहीं आ रहा कि आखिर आगे क्या होने वाला है। इससे एक डर है पूरे सिस्टम में। आप बेरोजगारी की बात कर लो, बहुत बड़ी समस्या है, बड़े स्तर पर बेरोजगारी है, जो अब और विशाल होने वाली है। बेरोजगारी के लिए हम आगे कैसे बढ़ें, जब इस संकट से मुक्ति मिलेगी तो अगले 2-3 महीने में बेरोजगारी से कैसे निपटेंगे?

रघुराम राजन: आंकड़े बहुत ही चिंतित करने वाले हैं। सीएमआइई के आंकड़े देखों तो पता चलता है कि कोरोना संकट के कारण करीब 11 करोड़ और लोग बेरोजगार हो जाएंगे। 5 करोड़ लोगों की तो नौकरी ख़त्म हो जाएगी, करीब 6 करोड़ लोग श्रम बाजार से बाहर हो जाएंगे। आप किसी सर्वे पर सवाल उठा सकते हो, लेकिन हमारे सामने तो यही आंकड़े हैं और यह आंकड़ें बहुत व्यापक हैं। इससे हमें सोचना चाहिए कि नाप-तौल कर हमें अर्थव्यवस्था खोलनी चाहिए, लेकिन जितना तेजी से हो सके, उतना तेजी से यह करना होगा जिससे लोगों को नौकरियां मिलना शुरु हों। हमारे पास सभी वर्गों की मदद की क्षमता नहीं है। हम तुलनात्मक तौर पर गरीब देश हैं, लोगों के पास ज्यादा बचत नहीं है।

लेकिन मैं आपसे एक सवाल पूछता हूं। हमने अमेरिका में बहुत सारे उपाय देखें और जमीनी हकीकत को ध्यान में रखते हुए यूरोप ने भी ऐसे कदम उठाए। भारत सरकार के सामने एकदम अलग हकीकत है जिसका वह सामना कर रही है। आपकी नजर में पश्चिम के हालात और भारत की जमीनी हकीकत से निपटने में क्या अंतर है?

राहुल गांधी: सबसे पहले स्केल, समस्या की विशालता और इसके मूल में वित्तीय व्यवस्था समस्या है। असमानता और असमानता की प्रकृति। जाति की समस्या, क्योंकि भारतीय समाज जिस व्यवस्था वाला है वह अमेरिकी समाज से एकदम अलग है। भारत को जो विचार पीछे छकेल रहे हैं वह समाज में गहरे पैठ बनाए हुए हैं और छिपे हुए हैं। ऐसे में मुझे लगता है कि बहुत सारे सामाजिक बदलाव की भारत को जरूरत है, और यह समस्या हर राज्य में अलग है। तमिलनाडु की राजनीति, वहां की संस्कृति, वहां की भाषा, वहां के लोगों की सोच उत्तर प्रदेश वालों से एकदम अलग है। ऐसे में आपको इसके आसपास ही व्यवस्थाएं विकसित करनी होंगी। पूरे भारत के लिए एक ही फार्मूला काम नहीं करेगा, काम नहीं कर सकता।

इसके अलावा, हमारी सरकार अमेरिका से एकदम अलग है, हमारी शासन पद्धति में, हमारे प्रशासन में नियंत्रण की एक सोच है। एक उत्पादक के मुकाबले हमारे पास एक डीएम (डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट) है। हम सिर्फ नियंत्रण के बारे में सोचते हैं, लोग कहते हैं कि अंग्रेजों के जमाने से ऐसा है। मेरा ऐसा मानना नहीं है। मेरा मानना है कि यह अंग्रेजों से भी पहले की व्यवस्था है।

भारत में शासन का तरीका हमेशा से नियंत्रण का रहा है और मुझे लगता है कि आज हमारे सामने यही सबसे बड़ी चुनौती है। कोरोना बीमारी को हम नियंत्रित नहीं कर पा रहे, इसलिए जैसा कि आपने कहा, इसे रोकना होगा।

एक और चीज है जो मुझे परेशान करती है, वह है असमानता। भारत में बीते कई दशकों से ऐसा है। जैसी असमानता भारत में है, अमेरिका में नहीं दिखेगी। तो मैं जब भी सोचता हूं तो यही सोचता हूं कि असमानता कैसे कम हो क्योंकि जब कोई सिस्टम अपने हाइ प्वाइंट पर पहुंच जाता है तो वह काम करना बंद कर देता है। आपको गांधी जी का यह वाक्य याद होगा कि कतार के आखिर में जाओ और देखो कि वहां क्या हो रहा है? एक नेता के लिए यह बहुत बड़ी सीख है, इसका इस्तेमाल नहीं होता, लेकिन मुझे लगता है कि यहीं से काफी चीजें निकलेंगी।

असमानता से कैसे निपटें आपकी नजर में? कोरोना संकट में भी यह दिख रहा है। यानी जिस तरह से भारत गरीबों के साथ व्यवहार कर रहा है, किस तरह हम अपने लोगों के साथ रवैया अपना रहे हैं? प्रवासी बनाम संपन्न की बात है, दो अलग-अलग विचार हैं। दो अलग-अलग भारत हैं। आप इन दोनों को एक साथ कैसे जोड़ेंगे?

रघुराम राजन: देखिए, आप पिरामिड की तली को जानते हैं। हम गरीबों के जीवन को बेहतर करने के कुछ तरीके जानते हैं, लेकिन हमें एहतियात से सोचना होगा जिससे हम हर किसी तक पहुंच सकें। मेरा मानना है कि कई सरकारों ने भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा और बेहतर नौकरियों के लिए काम किया है लेकिन चुनौतियों के बारे में मुझे लगता है कि प्रशासनिक चुनौतियां है सब तक पहुंचने में। मेरी नजर में बड़ी चुनौती निम्न मध्य वर्ग से लेकर मध्य वर्ग तक है। उनकी जरूरतें हैं, नौकरियां, अच्छी नौकरियां ताकि लोग सरकारी नौकरी पर आश्रित न रहें।

मेरा मानना है कि इस मोर्चे पर काम करने की जरूरत है और इसी के मद्देनजर अर्थव्यवस्था का विस्तार करना जरूरी है। हमने बीते कुछ सालों में हमारे आर्थिक विकास को गिरते हुए देखा है, बावजूद इसके कि हमारे पास युवा कामगारों की फौज है।

इसलिए मैं कहूंगा कि सिर्फ संभावनाओं पर न जाएं, बल्कि अवसर सृजित करें जो फले फूलें। अगर बीते सालों में कुछ गलतियां हुईं भी तो, यही रास्ता है आगे बढ़ने का। उस रास्ते के बारे में सोचें जिसमें हम कामयाबी से बढ़ते रहे हैं, सॉफ्टवेयर और ऑउटसोर्सिंग सेवाओं में आगे बढ़ें। कौन सोच सकता था कि ये सब भारत की ताकत बनेगा, लेकिन यह सब सामने आया है और कुछ लोग तर्क देते हैं कि यह इसलिए सामने आया क्योंकि सरकार ने इसकी तरफ ध्यान नहीं दिया। मैं ऐसा नहीं मानता। लेकिन हमें किसी भी संभावना के बारे में विचार करना चाहिए, लोगों की उद्यमिता को मौका देना चाहिए।

राहुल गांधी: थैंक्यू, थैंक्यू डॉ. राजन

रघुराम राजन: थैंक्यू वेरी मच, आपसे बात करके बहुत अच्छा लगा।

राहुल गांधी: आप सुरक्षित तो हैं न ?

रघुराम राजन: मैं सुरक्षित हूं, गुडलक

राहुल गांधी: थैंक्यू, बाय

रघुराम राजन के साथ राहुल गांधी की कोरोना वायरस और इसका आर्थिक प्रभाव पर बातचीत, एपिसोड - 3

रघुराम राजन: मैं मानता हूं कि इसके पीछे एक कारण है और वह है वैश्विक बाजार। ऐसी धारणा बन गई है कि अगर बाजारों का वैश्वीकरण हो रहा है तो इसमें हिस्सा लेने वाले यानी फर्म्स भी हर जगह यही नियम लागू करती हैं, वे हर जगह एक ही व्यवस्था चाहते हैं, एक ही तरह की सरकार चाहते हैं, क्योंकि इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ता है।

एकसमानता लाने की कोशिश में स्थानीय या फिर राष्ट्रीय सरकारों ने लोगों से उनके अधिकार और शक्तियां छीन ली हैं। इसके अलावा नौकरशाही की लालसा भी है, कि अगर मुझे शक्ति मिल सकती है, सत्ता मिल सकती है तो क्यों न हासिल करूं। यह एक निरंतर बढ़ने वाली लालसा है। अगर आप राज्यों को पैसा दे रहे हैं, तो कुछ नियम हैं जिन्हें मानने के बाद ही पैसा मिलेगा न कि बिना किसी सवाल के आपको पैसा मिल जाएगा क्योंकि मुझे पता है कि आप भी चुनकर आए हो। और आपको इसका आभास होना चाहिए कि आपके लिए क्या सही है।

राहुल गांधी: इन दिनों एक नया मॉडल आ गया है, वह है सत्तावादी या अधिकारवादी मॉडल, जो कि उदार मॉडल पर सवाल उठाता है। काम करने का यह एकदम अलग तरीका है और यह ज्यादा जगहों पर फल-फूलता जा रहा है। क्या आपको लगता है कि यह खत्म होगा?

रघुराम राजन: मुझे नहीं पता। सत्तावादी मॉडल, एक मजबूत व्यक्तित्व, एक ऐसी दुनिया जिसमें आप शक्तिहीन हैं, यह सब बहुत परेशान करने वाली स्थिति है। खासतौर से अगर आप उस व्यक्तित्व के साथ कोई संबंध रखते हैं। अगर आपको लगता है कि उन्हें मुझ पर विश्वास है, उन्हें लोगों की परवाह है।

इसके साथ समस्या यह है कि अधिकारवादी व्यक्तित्व अपने आप में एक ऐसी धारणा बना लेता है कि, 'मैं ही जन शक्ति हूं', इसलिए मैं जो कुछ भी कहूंगा, वह सही होगा। मेरे ही नियम लागू होंगे और इनमें कोई जांच-पड़ताल नहीं होगी, कोई संस्था नहीं होगी, कोई विकेंद्रीकृत व्यवस्था नहीं होगी। सब कुछ मेरे ही पास से गुजरना चाहिए।

इतिहास उठाकर देखें तो पता चलेगा कि जब-जब इस हद तक केंद्रीकरण हुआ है, व्यवस्थाएं धराशायी हो गई हैं।

राहुल गांधी: लेकिन वैश्विक आर्थिक पद्धति में कुछ बहुत ही ज्यादा गड़बड़ तो हुई है। यह तो साफ है कि इससे काम नहीं चल रहा। क्या ऐसा कहना सही होगा?

रघुराम राजन: मुझे लगता है कि यह बिल्कुल सही है कि बहुत से लोगों के साथ यह काम नहीं कर रहा। विकसित देशों में दौलत और आमदनी का असमान वितरण निश्चित रूप से चिंता का कारण है। नौकरियों की अनिश्चितता, तथाकथित अनिश्चितता चिंता का दूसरा स्रोत है। आज यदि आपके पास कोई नौकरी है तो यह नहीं पता कि कल आपके पास आमदनी का जरिया होगा या नहीं।

हमने इस महामारी के दौर में देखा है कि बहुत से लोगों के पास कोई रोजगार ही नहीं है। उनकी आमदनी और सुरक्षा दोनों ही छिन गई हैं।

इसलिए आज की स्थिति सिर्फ विकास दर धीमी होने की समस्या नहीं है। हम सिर्फ बाजारों पर आश्रित नहीं रह सकते। हमें विकास करना होगा। हम नाकाफी वितरण की समस्या से भी दोचार हैं। जो भी विकास हुआ उसका फल लोगों को नहीं मिला। बहुत से लोग छूट गए। तो हमें इस सबके बारे में सोचना होगा।

इसीलिए मुझे लगता है कि हमें वितरण व्यवस्था और वितरण अवसरों के बारे में सोचना होगा।

राहुल गांधी: यह दिलचस्प है जब आप कहते हैं कि इंफ्रास्ट्रक्चर से लोग जुड़ते हैं और उन्हें अवसर मिलते हैं लेकिन अगर विभाजनकारी बातें हों, नफरत हो जिससे लोग नहीं जुड़ते - यह भी तो एक तरह का इंफ्रास्ट्रक्चर है। इस वक्त विभाजन का इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा कर दिया गया है, नफरत का इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा कर दिया गया है, और यह बड़ी समस्या है।

रघुराम राजन: सामाजिक समरसता से ही लोगों का फायदा होता है। लोगों को यह लगना आवश्यक है कि वे महसूस करें कि वे व्यवस्था का हिस्सा हैं। हम एक बंटा हुआ घर नहीं हो सकते। खासतौर से ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में। तो मैं कहना चाहूंगा कि हमारे पुरखों ने, राष्ट्र निर्माताओं ने जो संविधान लिखा और शुरू में जो शासन दिया, उन्हें नए सिरे से पढ़ने-सीखने की जरूरत है। लोगों को अब लगता है कि कुछ मुद्दे थे जिन्हें दरकिनार किया गया, लेकिन वे ऐसे मुद्दे थे जिन्हें छेड़ा जाता तो हमारा सारा समय एक-दूसरे से लड़ने में ही चला जाता।

राहुल गांधी: इसके अलावा आप एक तरफ विभाजन करते हो और जब भविष्य के बारे में सोचते हो तो पीछे मुड़कर इतिहास देखने लगते हो। आप जो कह रहे हैं मुझे सही लगता है कि भारत को एक नए विज़न की जरूरत है। आपकी नजर में वह क्या विचार होना चाहिए? निश्चित रूप से आपने इंफ्रास्ट्रक्चर, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं की बात की। ये सब बीते 30 साल से अलग कैसे होगा? वह कौन सा स्तंभ होगा जो अलग होगा?

रघुराम राजन: मुझे लगता है कि आपको पहले क्षमताएं विकसित करनी होंगी। इसके लिए बेहतर शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं, बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर जरूरी है। याद रखिए, जब हम इन क्षमताओं की बात करें तो इन पर अमल भी होना चाहिए।

लेकिन हमें यह भी सोचना होगा कि हमारे औद्योगिक और बाजार व्यवस्था कैसे हैं? आज भी हमारे यहां पुराने लाइसेंस राज जैसी ही व्यवस्था है। हमें सोचना होगा कि हम कैसे ऐसी व्यवस्था बनाएं जिसमें ढेर सारी अच्छी नौकरियां सृजित हों। ज्यादा स्वतंत्रता हो, ज्यादा विश्वास और भरोसा हो, लेकिन इसकी पुष्टि करना अच्छा विचार है।

राहुल गांधी: मैं यह देखकर हैरान हूं कि माहौल और भरोसा अर्थव्यवस्था के लिए कितना अहम है। कोरोना महासंकट के बीच जो चीज मैं देख रहा हूं वह यह कि विश्वास का मुद्दा असली समस्या है। लोगों को समझ ही नहीं आ रहा कि आखिर आगे क्या होने वाला है। इससे एक डर है पूरे सिस्टम में। आप बेरोजगारी की बात कर लो, बहुत बड़ी समस्या है, बड़े स्तर पर बेरोजगारी है, जो अब और विशाल होने वाली है। बेरोजगारी के लिए हम आगे कैसे बढ़ें, जब इस संकट से मुक्ति मिलेगी तो अगले 2-3 महीने में बेरोजगारी से कैसे निपटेंगे?

रघुराम राजन के साथ राहुल गांधी की कोरोना वायरस और इसका आर्थिक प्रभाव पर बातचीत, एपिसोड - 2

रघुराम राजन: आपको अभी इन दोनों पर सोचना होगा। आप प्रभाव सामने आने का इंतजार नहीं कर सकते क्योंकि आप एक तरफ वायरस से लड़ रहे हैं दूसरी तरफ पूरा देश लॉकडाउन में है। निश्चित रूप से लोगों को भोजन मुहैया कराना है। घरों को निकल चुके प्रवासियों की स्थिति देखनी है, उन्हें शेल्टर चाहिए, मेडिकल सुविधाएं चाहिए। ये सब एक साथ करने की जरूरत है।

मुझे लगता है कि इसमें प्राथमिकताएं तय करनी होंगी। हमारी क्षमता और संसाधन दोनों सीमित हैं। हमारे वित्तीय संसाधन पश्चिम के मुकाबले बहुत सीमित हैं। हमें करना यह है कि हम तय करें कि हम वायरस से लड़ाई और अर्थव्यवस्था दोनों को एक साथ कैसे संभालें। अगर अभी हम खोल देते हैं तो यह ऐसा ही होगा कि बीमारी से बिस्तर से उठकर आ गए हैं।

सबसे पहले तो लोगों को स्वस्थ और जीवित रखना है। भोजन बहुत ही अहम इसके लिए। ऐसी जगहें हैं जहां पीडीएस पहुंचा ही नहीं है। अमर्त्य सेन, अभिजीत बनर्जी और मैंने इस विषय पर बात करते हुए अस्थाई राशन कार्ड की बात की थी लेकिन आपको इस महामारी को एक असाधारण स्थिति के तौर पर देखना होगा।

किस चीज की जरूरत है उसके लिए हमें लीक से हटकर सोचना होगा। सभी बजटीय सीमाओं को ध्यान में रखते हुए फैसले करने होंगे। बहुत से संसाधन हमारे पास नहीं हैं।

राहुल गांधी: कृषि क्षेत्र और मजदूरों के बारे में आप क्या सोचते हैं? प्रवासी मजदूरों के बारे में क्या सोचते हैं? इनकी वित्तीय स्थिति के बारे में क्या किया जाना चाहिए?

रघुराम राजन: इस मामले में डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर ही रास्ता है इस समय। हम उन सभी व्यवस्थाओं के बारे में सोचें जिनसे हम गरीबों तक पैसा पहुंचाते हैं। विधवा पेंशन और मनरेगा में ही हम कई तरीके अपनाते हैं। हमें देखना होगा कि देखो ये वे लोग हैं जिनके पास रोजगार नहीं है, जिनके पास आजीविका चलाने का साधन नहीं है और अगले तीन-चार महीने जब तक यह संकट है, हम इनकी मदद करेंगे।

लेकिन, प्राथमिकताओं को देखें तो लोगों को जीवित रखना और उन्हें विरोध के लिए या फिर काम की तलाश में लॉकडाउन के बीच ही बाहर निकलने के लिए मजबूर न करना ही सबसे फायदेमंद होगा। हमें ऐसे रास्ते तलाशने होंगे जिससे हम ज्यादा से ज्यादा लोगों तक कैश भी पहुंचा पाएं और उन्हें पीडीएस के जरिए भोजन भी मुहैया करा पाएं।

राहुल गांधी: डॉ. राजन, कितना पैसा लगेगा गरीबों की मदद करने के लिए, सबसे गरीब को सीधे कैश पहुंचाने के लिए?

रघुराम राजन: तकरीबन 65,000 करोड़। हमारी जीडीपी 200 लाख करोड़ की है, इसमें से 65,000 करोड़ निकालना बहुत बड़ी रकम नहीं है। हम ऐसा कर सकते हैं। अगर इससे गरीबों की जान बचती है तो हमें यह जरूर करना चाहिए।

राहुल गांधी: अभी भारत एक कठिन परिस्थिति में है लेकिन कोविड महामारी के बाद क्या भारत को कोई बड़ा रणनीतिक फायदा हो सकता है? क्या विश्व में कुछ ऐसा बदलाव होगा जिसका फायदा भारत उठा सकता है? आपके मुताबिक दुनिया किस तरह बदलेगी?

रघुराम राजन: इस तरह की स्थितियां मुश्किल से ही किसी देश के लिए अच्छे हालात लेकर आती हैं। फिर भी कुछ तरीके हैं जिनसे देश फायदा उठा सकते हैं। मेरा मानना है कि इस संकट से बाहर आने के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था को एकदम नए तरीके से सोचने की जरूरत है।

अगर भारत के लिए कोई मौका है, तो वह है हम संवाद कैसे करते हैं? इस संवाद में हम एक नेता से अधिक होकर सोचें क्योंकि यह दो विरोधी पार्टियों के बीच की बात तो है नहीं, लेकिन भारत इतना बड़ा देश तो है ही कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में हमारी बात अच्छे से सुनी जाए।

ऐसे हालात में भारत उद्योगों में अवसर तलाश सकता है, अपनी सप्लाई चेन में मौके तलाश सकता है, लेकिन सबसे अहम है कि हम संवाद को उस दिशा में मोड़ें जिसमें ज्यादा देश शामिल हों, बहुध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था हो न कि द्विध्रुवीय व्यवस्था।

राहुल गांधी: क्या आपको नहीं लगता है कि केंद्रीकरण का संकट है? सत्ता का बेहद केंद्रीकरण हो गया है कि बातचीत ही लगभग बंद हो गई है। बातचीत और संवाद से कई समस्याओं का समाधान निकलता है, लेकिन कुछ कारणों से यह संवाद टूट रहा है?

रघुराम राजन: मेरा मानना है कि विकेंद्रीरण न सिर्फ स्थानीय सूचनाओं को सामने लाने के लिए जरूरी है बल्कि लोगों को सशक्त बनाने के लिए भी अहम है। पूरी दुनिया में इस समय यह स्थिति है कि फैसले कहीं और किए जा रहे हैं।

मेरे पास एक वोट तो है दूरदराज के किसी व्यक्ति को चुनने का। मेरी पंचायत हो सकती है, राज्य सरकार हो सकती है लेकिन लोगों में यह भावना है कि किसी भी मामले में उनकी आवाज नहीं सुनी जाती। ऐसे में वे विभिन्न शक्तियों का शिकार बन जाते हैं।

मैं आपसे ही यही सवाल पूछूंगा। राजीव गांधी जिस पंचायती राज को लेकर आए उसका कितना प्रभाव पड़ा और कितना फायदेमंद साबित हुआ।

राहुल गांधी: इसका जबरदस्त असर हुआ था, लेकिन अफसोस के साथ कहना पड़ेगा कि यह अब कम हो रहा है। पंचायती राज के मोर्चे पर जितना आगे बढ़ने का काम हुआ था, हम उससे पीछे लौट रहे हैं और जिलाधिकारी आधारित व्यवस्था में जा रहे हैं। अगर आप दक्षिण भारतीय राज्य देखें, तो वहां इस मोर्चे पर अच्छा काम हो रहा है, व्यवस्थाओं का विकेंद्रीकरण हो रहा है लेकिन उत्तर भारतीय राज्यों में सत्ता का केंद्रीकरण हो रहा है और पंचायतों और जमीन से जुड़े संगठनों की शक्तियां कम हो रही हैं।

फैसले जितना लोगों को साथ में शामिल करके लिए जाएंगे, वे फैसलों पर नजर रखने के लिए उतने ही सक्षम होंगे। मेरा मानना है कि यह ऐसा प्रयोग है जिसे करना चाहिए।

लेकिन वैश्विक स्तर पर ऐसा क्यों हो रहा है? आप क्या सोचते हैं कि क्या कारण है जो इतने बड़े पैमाने पर केंद्रीकरण हो रहा है और संवाद खत्म हो रहा है? क्या आपको लगता है कि इसके केंद्र में कुछ है या फिर कई कारण हैं इसके पीछे?

रघुराम राजन: मैं मानता हूं कि इसके पीछे एक कारण है और वह है वैश्विक बाजार। ऐसी धारणा बन गई है कि अगर बाजारों का वैश्वीकरण हो रहा है तो इसमें हिस्सा लेने वाले यानी फर्म्स भी हर जगह यही नियम लागू करती हैं, वे हर जगह एक ही व्यवस्था चाहते हैं, एक ही तरह की सरकार चाहते हैं, क्योंकि इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ता है।

रघुराम राजन के साथ राहुल गांधी की कोरोना वायरस और इसका आर्थिक प्रभाव पर बातचीत, एपिसोड - 1

इंडियन नेशनल कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी और भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन के बीच कोरोना महामारी, उससे निपटने की भारत के मोदी सरकार के दावों और इसके कारण पैदा होने वाली भविष्य की आर्थिक चुनौतियों पर महत्वपूर्ण संवाद।

राहुल गांधी: हेलो।

रघुराम राजन: गुड मॉर्निंग, आप कैसे हैं?

राहुल गांधी: मैं अच्छा हूं, अच्छा लगा आपको देखकर।

रघुराम राजन: मुझे भी।

राहुल गांधी: कोरोना वायरस के दौर में लोगों के मन में बहुत सारे सवाल हैं कि क्या हो रहा है, क्या होने वाला है, खासतौर से अर्थव्यवस्था को लेकर। मैंने इन सवालों के जवाब के लिए एक रोचक तरीका सोचा कि आपसे इस बारे में बात की जाए ताकि मुझे भी और आम लोगों को भी मालूम हो सके कि आप इस सब पर क्या सोचते हैं?

रघुराम राजन: थैंक्स, मुझसे बात करने के लिए और इस संवाद के लिए। मेरा मानना है कि इस महत्वपूर्ण समय में इस मुद्दे पर जितनी भी जानकारी मिल सकती है लेनी चाहिए और जितना संभव हो उसे लोगों तक पहुंचाना चाहिए।

राहुल गांधी: मुझे इस समय एक बड़ा मुद्दा जो लगता है वह है कि हम अर्थव्यवस्था को कैसे खोलें? वह कैसे हिस्से हैं अर्थव्यवस्था के जो आपको लगता है जिन्हें खोलना बहुत जरूरी है और क्या तरीका होना चाहिए इन्हें खोलने का?

रघुराम राजन: यह एक अहम सवाल है क्योंकि जैसे-जैसे हम संक्रमण का कर्व मोड़ने की कोशिश कर रहे हैं और अस्पतालों और मेडिकल सुविधाओं में भीड़ बढ़ने से रोकने की कोशिश कर रहे हैं, हमें लोगों की आजीविका फिर से शुरू करने के बारे में सोचना शुरू करना होगा। लंबे समय के लिए लॉकडाउन लगा देना बहुत आसान है, लेकिन जाहिर है कि यह अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा नहीं है।

आपके पास एक निश्चित सुरक्षा नहीं है लेकिन आप उन क्षेत्रों को खोलना शुरू कर सकते हैं जिनमें अपेक्षाकृत कम मामले हैं, इस सोच और नीति के साथ कि आप जितना संभव हो सके प्रभावी ढंग से लोगों की स्क्रीनिंग करेंगे और जब केस सामने आ जाए तो आप उसे रोकने की कोशिश करेंगे और सुनिश्चित करेंगे कि इसे रोकने के सारे इंतजाम हैं।

इसमें एक सीक्वेंस होना चाहिए। सबसे पहले ऐसी जगहें चिह्नित करनी होंगी जहां दूरी बनाई रखी जा सकती हो, और यह सिर्फ वर्क प्लेसेज़ पर ही नहीं लागू हो, बल्कि काम के लिए आते-जाते वक्त भी लागू हो। ट्रांसपोर्ट स्ट्रक्चर को देखना होगा। क्या लोगों के पास निजी वाहन हैं? उनके पास साइकिल या स्कूटर हैं या कार हैं। इन सबको देखना होगा। या फिर लोग पब्लिक ट्रांसपोर्ट से आते हैं काम पर। आप पब्लिक ट्रांसपोर्ट में डिस्टेंसिंग कैसे सुनिश्चित करेंगे?

यह सारी व्यवस्था करने में बहुत काम और मेहनत करनी पड़ेगी। साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि कार्यस्थल अपेक्षाकृत सुरक्षित हो। इसके साथ यह भी देखना होगा कि कहीं दुर्घटनावश कोई ताजा मामले तो सामने नहीं आ रहे, तो हम बिना तीसरे या चौथे लॉडाउन को लागू किए कितनी तेजी से लोगों को आइसोलेट कर सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो संकट होगा।

राहुल गांधी: बहुत से लोग ऐसा कहते हैं कि अगर हम चरणबद्ध तरीके से लॉकडाउन खत्म करें। अगर हम अभी खोल दें और फिर दोबारा लॉकडाउन के लिए मजबूर हों। अगर ऐसा होता है तो अर्थव्यवस्था के लिए बहुत घातक होगा क्योंकि इससे भरोसा पूरी तरह खत्म हो जाएगा। क्या आप इससे सहमत हैं?

रघुराम राजन: हां, मुझे लगता है कि यह सोचना सही है। दूसरे ही लॉकडाउन की बात करें तो इसका अर्थ यही है कि पहली बार में हम पूरी तरह कामयाब नहीं हुए। इसी से सवाल उठता है कि अगर इस बार खोल दिया तो कहीं तीसरे लॉकडाउन की जरूरत न पड़ जाए और इससे विश्वसनीयता पर आंच आएगी।

इसके साथ ही मैं कहना चाहूंगा कि हम 100 फीसदी कामयाबी की बात करें। यानी कहीं भी कोई केस न हो। वह तो फिलहाल हासिल करना मुश्किल है। ऐसे में हम क्या कर सकते हैं कि लॉकडाउन हटाने की शुरुआत करें और जहां भी केस दिखें, वहां आइसोलेट कर दें।

राहुल गांधी: लेकिन इस पूरे प्रबंध में यह जानना बेहद जरूरी होगा कि कहां ज्यादा संक्रमण है? और इसके लिए टेस्टिंग ही एकमात्र जरिया है। इस वक्त भारत में यह भाव है कि हमारी टेस्टिंग क्षमता सीमित है। एक बड़े देश में अमेरिका और यूरोपीय देशों के मुकाबले हमारी टेस्टिंग क्षमता सीमित है। कम संख्या में टेस्ट होने को आप कैसे देखते हैं?

रघुराम राजन: अच्छा सवाल है यह। अमेरिका की मिसाल लें। वहां एक दिन में डेढ़ लाख तक टेस्ट हो रहे हैं लेकिन वहां विशेषज्ञों, खासतौर से संक्रमित रोगों के विशेषज्ञों का मानना है कि इस क्षमता को तीन गुना करने की जरूरत है यानी 5 लाख टेस्ट प्रतिदिन हों तभी आप अर्थव्यवस्था को खोलने के बारे में सोचें। कुछ तो 10 लाख तक टेस्ट करने की बात कर रहे हैं।

भारत की आबादी को देखते हुए हमें इसके चार गुना टेस्ट करने चाहिए। अगर आपको अमेरिका के लेवल पर पहुंचना है तो हमें 20 लाख टेस्ट रोज करने होंगे लेकिन हम अभी सिर्फ 25-30 हजार टेस्ट ही कर पा रहे हैं।

राहुल गांधी: देखिए अभी तो वायरस का असर है और कुछ समय बाद लोगों पर अर्थव्यवस्था का असर पडे़गा। यह ऐसा झटका होगा जो आने वाले दो-एक महीने में लगने वाला है। आप अगले 3-4 महीने में वायरस से लड़ाई और इसके प्रभाव के बीच कैसे संतुलन बना सकते हैं?

रघुराम राजन: आपको अभी इन दोनों पर सोचना होगा। आप प्रभाव सामने आने का इंतजार नहीं कर सकते क्योंकि आप एक तरफ वायरस से लड़ रहे हैं दूसरी तरफ पूरा देश लॉकडाउन में है। निश्चित रूप से लोगों को भोजन मुहैया कराना है। घरों को निकल चुके प्रवासियों की स्थिति देखनी है, उन्हें शेल्टर चाहिए, मेडिकल सुविधाएं चाहिए। ये सब एक साथ करने की जरूरत है।

रघुराम राजन के साथ राहुल गांधी की कोरोना वायरस और इसका आर्थिक प्रभाव पर बातचीत, एपिसोड - 2

कोराना संकट: क्या ग़रीबों का मामला अदालत में ले जाने का यह सही समय है?

भारत सरकार के सॉलिसिटर जनरल का कहना है कि देश पर संकट है, इसलिए ''पेशेवर जनहित याचिकाओं की दुकानें बंद हों''।  

उन्होंने यह बात सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस नागेश्वर राव और दीपक गुप्ता की अदालत के सामने टेलीकॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए कही।

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने याचिका दायर करने वालों को 'जनहित का पेशेवर दुकानदार' कहा। उन्होंने याचिका को सुनवाई के लिए स्वीकार किए जाने पर आपत्ति व्यक्त की। अदालत ने केंद्र सरकार को जवाब देने के लिए सात अप्रैल का समय दिया है।

याचिका क्या थी? याचिका ये थी कि सरकार शहरों से पलायन करने पर मजबूर ग़रीबों को वहीं आर्थिक सहायता दे, जहाँ वे हैं। याचिका दायर करने वाले पूर्व आईएएस अधिकारी हर्ष मंदर, वकील अंजलि भारद्वाज और सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश का कहना था कि ग़रीबों के लिए सरकार ने पर्याप्त क़दम नहीं उठाए हैं।

सॉलिसिटर जनरल सरकार के प्रतिनिधि के रूप में ही पेश हुए थे इसलिए जो कुछ उन्होंने कहा है वह सरकार का ही रुख़ है। एक बुनियादी बात सरकार कह रही है कि इस याचिका को ख़ारिज हो जाना चाहिए क्योंकि अभी देश पर संकट है।

क्या कोरोना वायरस को लेकर चीन आँकड़े छुपा रहा है?

पिछले साल नवंबर महीने में चीन में कोरोना वायरस का संक्रमण शुरू हुआ। चीन का कहना है कि तब से लेकर अब तक कोरोना वायरस के कारण उसके यहां 3,300 लोगों की मौत हुई। अब पूरी दुनिया में कोरोना वायरस का संक्रमण फैल चुका है। यहां तक कि चीन में हुई मौतों से ज़्यादा इटली, स्पेन और अमरीका में मौतें हो चुकी हैं। चीन में मौत के आँकड़े पर चौतरफ़ा सवाल उठ रहे हैं।

कहा जा रहा है कि कोरोना से मौत और तबाही के आँकड़े चीनी प्रशासन की ओर से जो दिए जा रहे हैं, उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता।

बीबीसी न्यूज़ के चाइना संवाददाता रॉबिन ब्रैंट चीन के आँकड़ों पर कहते हैं, ''चीन की सरकार की तरफ़ से दिए जाने वाले डेटा पर दुनिया संदेह करती रही है। इस मामले में चीन का रिकॉर्ड बहुत ख़राब रहा है। ये डेटा अधूरे नहीं होते बल्कि जानबूझकर डिजाइन किए जाते हैं। यहां की कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार कई बार अपने लक्ष्य के हिसाब से काम करती है। अगर वो अपने टारगेट तक नहीं पहुँच पाती है तो सच को छुपाती है। नाकामियों को बताने से बचती है। ऐसे में आँकड़ों के मामले में चीन की सरकार की विश्वसनीयता संदिग्ध रही है। चीन जीडीपी डेटा को लेकर भी वास्तविक ग्रोथ बताने से बचता रहा है।''

ब्रैंट कहते हैं, ''चीन में कोरोना वायरस से होने वाली मौतों और संक्रमण के मामलों के आँकड़े पर भी उसी तरह के संदेह हैं। इसे जारी करने में तीन हफ़्तों की देरी की गई और संक्रमण फैलने के बाद भी बताने में देरी हुई।  जो संख्या बताई गई उस पर आसानी से भरोसा नहीं किया जा सकता।  संक्रमण फैलने के कुछ दिन बाद ही चीन के हूबे प्रांत में अधिकारियों ने कहा कि उन्होंने कोरोना वायरस के संक्रमण के उन मामलों की गिनती नहीं की है जिनके स्पष्ट लक्षण सामने नहीं मिले हैं। एक सवाल और उठ रहा है कि चीन के हूबे प्रांत के बाहर क्या वाक़ई कोरोना वायरस के संक्रमण का कोई मामला नहीं था?''

अमरीका का भी कहना है कि कोरोना वायरस को लेकर चीन से सही सूचना नहीं दी गई। ट्रंप प्रशासन आरोप लगा रहा है कि चीन ने कोरोना वायरस को लेकर सूचनाओं को बाहर नहीं आने दिया। अमरीका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने कहा था कि कोरोना की महामारी से लड़ने के लिए चीन में पारदर्शिता और सही सूचना की ज़रूरत है। पॉम्पियो ने कहा कि चीन अब ख़ुद को अच्छा दिखाने के लिए मेडिकल सप्लाई भेजने का दिखावा कर रहा है।

क्या पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान में अल्पसंख्यक चुनाव लड़ सकते?

भारत में नागरिकता संशोधन अधिनियम को देश भर में विरोध प्रदर्शनों का सामना करना पड़ रहा है। परिणामस्वरूप भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह बार-बार इस अधिनियम के पक्ष में झूठे दावे पेश कर रहे हैं।

शनिवार को गृह मंत्री अमित शाह ने कर्नाटक के हुबली में रैली के दौरान कहा, ''अफ़ग़ानिस्तान में बुद्ध के पुतले को तोप से गोले दाग़ कर उड़ा दिया गया। उन्हें (हिंदू-सिख) वहां (अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान) चुनाव लड़ने का अधिकार नहीं दिया, स्वास्थ्य की सुविधाएं नहीं दी गई, शिक्षा की व्यवस्था उनके लिए नहीं की। जो सारे शरणार्थी थे हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध और ईसाई वो भारत के अंदर शरण लेने आए।''

दरअसल अमित शाह नागरिकता संशोधन अधिनियम की वकालत में ये बता रहे थे कि कैसे अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से आने वाले सिख, हिंदू शरणार्थी को उनके देश में सताया जा रहा है और उन्हें मौलिक अधिकार नहीं दिए जा रहे।

ये नया कानून पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान और बांग्लादेश से भारत आए गैर-मुस्लिम समुदाय को नागरिकता देने की बात करता है।  अधिनियम के इस प्रावधान का ही लोग विरोध कर रहे हैं।

अमित शाह ने दावा किया कि पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान में अल्पसंख्यक चुनाव नहीं लड़ सकते? क्या अमित शाह का यह दावा सही है? क्या वाक़ई अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के पास चुनाव लड़ने या वोट देने का अधिकार नहीं है?

यह जानने के लिए बीबीसी ने पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों के चुनावी अधिकारों को समझने की कोशिश की। साथ ही ये पड़ताल की कि वर्तमान समय में उनको चुनावी प्रक्रिया के क्या-क्या अधिकार दिए गए हैं?

पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के चुनावी अधिकार

पाकिस्तान के संविधान के अनुच्छेद 51 (2A) के मुताबिक़ पाकिस्तान की संसद के निचले सदन नेशनल असेंबली में 10 सीटें अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित हैं। साथ ही चार प्रांतों की विधानसभा में 23 सीटों पर आरक्षण दिया गया है।

पाकिस्तान में कुल 342 सीटें हैं और जिनमें से 272 सीटों पर सीधे जनता चुनकर अपने प्रतिनिधि भेजती है। 10 सीटें अल्पसंख्यकों के लिए और 60 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं।

अल्पसंख्यकों के लिए संसद में पहुंचने के दो तरीके हैं:

इन आरक्षित 10 सीटों का विभाजन राजनीतिक पार्टियों को उन्हें 272 में से कितनी सीटों पर जीत मिली है इसके आधार पर होता है। इन सीटों पर पार्टी खुद अल्पसंख्यक उम्मीदवार तय करती है और संसद में भेजती है।

दूसरा विकल्प ये है कि कोई भी अल्पसंख्यक किसी भी सीट पर चुनाव लड़ सकता है। ऐसे में उसकी जीत जनता से सीधे मिले वोटों पर आधारित होगी।

कोई भी अल्पसंख्यक अपने चुनावी क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे किसी भी उम्मीदवार को वोट करने के लिए स्वतंत्र है। यानी वोटिंग का अधिकार सभी के लिए समान है।

आज़ादी के बाद पाकिस्तान का संविधान 1956 में बना फिर इसे रद्द करके 1958 में दूसरा संविधान आया और इसे भी रद्द कर दिया गया और 1973 में तीसरा संविधान बना जो अब तक मान्य है। ये संविधान पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों को समान अधिकार देने की बात करता है।

यानी पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के लिए सीटें तो आरक्षित हैं ही, साथ ही वो अन्य सीटों से चुनाव भी लड़ सकते हैं।

2018 के चुनाव में महेश मलानी, हरीराम किश्वरीलाल और ज्ञान चंद असरानी सिंध प्रांत से संसदीय और विधानसभा की अनारक्षित सीटों से चुनाव लड़े और संसद पहुंचे।

अफ़गानिस्तान में हिंदू-सिख के चुनावी अधिकार क्या हैं?

अब बात अफ़गानिस्तान की। 1988 से अफ़गानिस्तान गृह युद्ध और तालिबान की हिंसा का शिकार है। चरमपंथी संगठन अल-क़ायदा का ठिकाना भी अफ़गानिस्तान रहा। साल 2002 में यहां अंतरिम सरकार बनाई गई और हामिद करज़ई राष्ट्रपति बने। इसके बाद साल 2005 के चुनाव में देश की निचली सदन और ऊपरी सदन में प्रतिनिधि चुन कर पहुंचे और अफ़गानिस्तान की संसद मज़बूत बनी।

अफ़गानिस्तान की आबादी कितनी है? इसका सही आधिकारिक आंकड़ा मौजूद नहीं है क्योंकि 70 के दशक के बाद यहां जनगणना नहीं हो सकी।  लेकिन वर्ल्ड बैंक के मुताबिक यहां की आबादी 3.7 करोड़ है।

वहीं अमरीका के डिपार्टमेंट ऑफ़ जस्टिस की रिपोर्ट की मानें तो जिसमें हिंदू-सिख अल्पसंख्यकों की संख्या यहां महज़ 1000 से 1500 के बीच हैं।

अफ़ग़ानिस्तान की निचली सदन यानी जहां प्रतिनिधियों का सीधा चुनाव जनता करती है वहां 249 सीट हैं। यहां अल्पसंख्यकों को चुनाव लड़ने की आज़ादी है। लेकिन नियमों के मुताबिक अफ़ग़ानिस्तान में संसदीय चुनाव में नामकरण भरते वक़्त कम से कम 5000 लोगों को अपने समर्थन में दिखाना पड़ता था।

ये नियम सभी के लिए एक समान थे लेकिन इससे अल्पसंख्यक समुदाय के लिए अपना प्रतिनिधि संसद में भेजना मुश्किल था। 2014 में अशरफ़ ग़नी सत्ता में आए और उन्होंने हिंदू-सिख अल्पसंख्यकों के समीकरण को देखते हुए निचले सदन में एक सीट रिज़र्व की है।

इस वक़्त इस सीट पर नरिंदर सिंह खालसा सांसद हैं। इसके अलावा अफ़गानिस्तान की ऊपरी सदन में एक सीट धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए रिज़र्व है। इस वक़्त अनारकली कौर होनयार इस सदन में सांसद हैं।  अल्पसंख्यक समुदाय की ओर से ये नाम तय किए जाते हैं जिसे राष्ट्रपति की ओर से सीधे संसद में भेजा जाता है।

इसके अलावा कोई भी अल्पसंख्यक अपने चुनावी क्षेत्र के उम्मीदवार को वोट कर सकता है। साथ ही अल्पसंख्यक किसी भी सीट से चुनाव भी लड़ सकते हैं बशर्ते वो अपने लिए पांच हज़ार लोगों का समर्थन जुटा लें।

बीबीसी ने अफ़ग़ानिस्तान के सांसद नरिंदर सिंह खालसा से बात की और जानना चाहा कि अफ़गानिस्तान के अल्पसंख्यक सिख-हिंदुओं के पास कैसे चुनावी अधिकार हैं?

उन्होंने कहा, ''अल्पसंख्यकों को चुनाव लड़ने की आज़ादी है और वोट देने की भी आज़ादी है। रोक तो कभी नहीं थी लेकिन पिछले तीस सालों में तालिबान की हिंसा के कारण तेजी से पलायन हुआ और हमारी संख्या घटती गई। चार साल पहले हमें रिज़र्व सीट मिली क्योंकि हम पांच हज़ार का समर्थन जुटा नहीं सकते थे। और बात सुनी गई। सरकार से नहीं हमें तालिबान से परेशानी है। आज भी कोई भी हिंदू-सिख चाहे तो मुझे वोट दे या किसी अपने पसंदीदा उम्मीदवार को कोई रोक नहीं है मतदाताओं पर। अगर समर्थन हासिल कर लिया जाए तो हम एक से ज़्यादा सीटों पर चुनाव भी लड़ सकते हैं।''

लंदन में स्थित बीबीसी पश्तो के पत्रकार एमाल पशर्ली बताते हैं कि ''साल 2005 से देश में स्थिर सरकार बन रही है। लेकिन कभी अल्पसंख्यकों को वोटिंग या चुनाव लड़ने के अधिकार से वंचित नहीं किया गया। पिछले तीन दशकों में हिंदू-सिख ही नहीं अन्य धार्मिक मान्यताओं को मानने वाले लोगों ने भी पलायन किया है। गृह युद्ध इसकी वजह रही है।''

बांग्लादेश में कोई भी अल्पसंख्यक लड़ सकता है चुनाव

बांग्लादेश में संसदीय चुनाव में किसी भी अल्पसंख्यक समुदाय के लिए सीटें आरक्षित नहीं की गई हैं बल्कि महिलाओं के लिए 50 सीटें ही आरक्षित की गई हैं।

बांग्लादेश संसद में 350 सीटें हैं जिसमें से 50 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। 2018 में हुए संसदीय चुनाव में 79 अल्पसंख्यक उम्मीदवारों में से 18 उम्मीदवार जीतकर संसद पहुंचे थे।

इससे पहले बांग्लादेश की 10वीं संसद में इतने ही अल्पसंख्यक सांसद थे। स्थानीय अख़बार ढाका ट्रिब्यून के मुताबिक बांग्लादेश की नौंवी संसद में 14 सांसद अल्पसंख्यक समुदाय से थे, जबकि आठवीं संसद में आठ सांसद अल्पसंख्यक थे।

यानी बांग्लादेश की राजनीति में अल्पसंख्यकों को समान चुनावी अधिकार दिए गए हैं।

भारतीय संसद में आरक्षण पाकिस्तान और अफगनिस्तान से अलग कैसे है?

भारत के संविधान के अनुच्छेद 334 (क) में लोकसभा और राज्यों की विधान सभाओं में अनुसूचित जातियों (हिन्दू) और अनुसूचित जनजातियों (हिन्दू) के लिए आरक्षण संबंधी प्रावधान है। वर्तमान में लोकसभा और राज्यों की विधानसभा में केवल यही आरक्षण है जिसमें अनुसूचित जाति (हिन्दू) एवं अनुसूचित जनजाति (हिन्दू) के लिए सीटें आरक्षित रहती हैं। भारत में लोकसभा और राज्यों की विधानसभा में अल्पसंख्यकों के लिए कोई सीट आरक्षित नहीं है।

भारत के राष्ट्रपति की 1950 की अधिसूचना के अनुसार केवल हिन्दू जातियां ही अनुसूचित जाति होगी।

लोकसभा की 543 में से 79 सीटें अनुसूचित जाति (हिन्दू) और 41 सीटें अनुसूचित जनजाति (हिन्दू) के लिए रिज़र्व हो जाती हैं। वहीं, विधानसभाओं की 3,961 सीटों में से 543 सीटें अनुसूचित जाति (हिन्दू)  और 527 सीटें अनुसूचित जनजाति (हिन्दू) के लिए सुरक्षित हो जाती हैं। इन सीटों पर वोट तो सभी डालते हैं, लेकिन कैंडिडेट सिर्फ एससी या एसटी का होता है।

भारत में आरक्षित सीट का मतलब है कि इस सीट पर उम्मीदवार तय वर्ग से ही होगा। सभी राजनीतिक पार्टियां ऐसे उम्मीदवार को ही टिकट देंगी लेकिन उनका चुनाव जनता के वोट के आधार पर ही होगा।

भारत में पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान की तरह अल्पसंख्यकों के लिए कोई सीट आरक्षित नहीं है।

मोदी सरकार ने पिछले साल संसद के निचले सदन लोक सभा में एंग्लो-इंडियन के लिए आरक्षित दो सीट को ख़त्म कर दिया।

अमित शाह का दावा कि पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान में अल्पसंख्यक चुनाव नहीं लड़ सकते? उनका  यह दावा पूरी तरह से झूठ है।