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क्या इमरान ख़ान की चीन यात्रा से भारत का नुकसान होगा?

इमरान ख़ान लगभग 14 महीने पहले पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने। तब से तीसरी बार चीन के दौरे पर मंगलवार को बीजिंग पहुंचे। चीन की राजधानी पहुंचने से कुछ घंटे पहले पाकिस्तान के सैन्य प्रवक्ता ने ट्विटर पर बताया कि पाकिस्तान के सेना प्रमुख क़मर जावेद बाजवा चीनी सैन्य नेतृत्व के साथ बैठक करने पहुंचे हैं। ट्वीट में लिखा गया कि इमरान ख़ान के साथ चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और प्रधानमंत्री ली केक़ियांग की बैठक में बाजवा भी शामिल होंगे।

पाकिस्तान और चीन अपनी दोस्ती को हिमालय से भी मजबूत और शहद से भी मीठा बताते रहे हैं।

हालांकि, पाकिस्तानी राजनैतिक नेतृत्व का यह दौरा चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के भारत दौरे से ठीक पहले हुआ है। उधर भारत के कश्मीर में 5 अगस्त से भारत सरकार की लगाई पाबंदियों के दो महीने पूरे हो चुके हैं। लिहाजा विश्लेषक सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण इमरान के इस दौरे में बहुत दिलचस्पी ले रहे हैं।

बीबीसी से बातचीत में पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी ने कहा कि दोनों देशों के बीच आर्थिक सहयोग, ख़ासकर चीन-पाकिस्तान के बीच आर्थिक गलियारे पर दूसरे चरण की बातचीत इस दौरे का सबसे बड़ा एजेंडा है।

हालांकि, उन्होंने कहा कि चीन और पाकिस्तान सभी मसलों पर एक दूसरे से सहयोग करते हैं, जिसमें द्विपक्षीय समेत सभी वैश्विक मुद्दे भी हैं, लिहाजा इस दौरे को एक निरंतर चली आ रही प्रक्रिया के रूप में देखा जाना चाहिए। ख़ासकर चीन के राष्ट्रपति के भारत दौरे से पहले।

क़ुरैशी ने कहा, "भारत जाने से पहले राष्ट्रपति शी जिनपिंग पाकिस्तान से सलाह लेना चाहते हैं, वे पाकिस्तान के नज़रिए से पूरी तरह वाकिफ़ होना चाहते हैं।''

पाकिस्तान के विदेश मंत्री का मानना है कि इस तरह के मुद्दों पर बाचतीत हो सकती है जिससे राष्ट्रपति जिनपिंग को भारत जाने से पहले पाकिस्तान की स्थिति का भलीभांति ज्ञान हो। उनका इशारा कश्मीर में अनुच्छेद 370 और 35ए के निरस्त किए जाने के बाद से ताज़ा राजनीतिक माहौल और सैन्य झड़पों की तरफ था।

पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय से जारी इस दौरे के विस्तृत ब्योरे के अनुसार प्रधानमंत्री इमरान ख़ान अपने तीन दिवसीय इस दौरे के दौरान आर्थिक सहयोग के कई समझौते और मसौदे पर हस्ताक्षर करेंगे।

आधिकारिक बयान के मुताबिक प्रधानमंत्री इमरान ख़ान 5 अगस्त 2019 के बाद से भारतीय कश्मीर में पैदा हुए शांति और सुरक्षा के मुद्दे से जुड़ी स्थिति समेत क्षेत्रीय विकास पर विचारों का आदान प्रदान करेंगे।

पाकिस्तान चीन इंस्टीट्यूट के अध्यक्ष, मुशाहिद हुसैन सैय्यद का मानना ​​है कि राजनीतिक और कूटनीतिक दृष्टि से इमरान ख़ान का यह दौरा बेहद महत्वपूर्ण है।

वे कहते हैं, "जिस तरह 5 अगस्त के बाद से चीन ने पाकिस्तान की स्थिति का समर्थन किया है, इस दौरे का ख़ास उद्देश्य राष्ट्रपति शी जिनपिंग के भारत दौरे से पहले पाकिस्तान और चीन के बीच राजनीतिक और रणनीतिक समन्वय बनाना है।''

मुशाहिद हुसैन सैय्यद ने बताया, "हमें चीन के समन्वय में कश्मीर पर अपनी रणनीति बनाने की ज़रूरत है क्योंकि इस विवाद में चीन भी एक पक्ष है। भारत ने अवैध तरीके से लद्दाख में चीन की ज़मीन पर कब्जा कर रखा है और इस क्षेत्र को नए केंद्र शासित प्रदेश में शामिल किया गया है। लिहाजा चीन और पाकिस्तान का नेतृत्व एक रणनीतिक सोच को लेकर एक साथ इस मुद्दे पर आगे बढ़ेगा।''

हालांकि राजनीतिक विशेषज्ञ डॉ. नज़ीर मानते हैं कि भारत द्वारा कश्मीर में की गई कार्रवाई से चीन को भी तल्खी ज़रूर हुई है। वे लद्दाख में बनाई जा रही हवाई पट्टी और उसके तह में छिपी बातों पर आई एक रिपोर्ट का उल्लेख करते हैं।

चीन इस विवादित क्षेत्र में हो रही कार्रवाइयों से खुश नहीं है। इसलिए शी जिनपिंग अपने भारत दौरे का उपयोग इस बाबत चीज़ों को बेहतर बनाने में कर सकते हैं। लेकिन समस्या यह है कि भारत ने इस पर कदम उठा लिए हैं और वो इस पर अड़ा हुआ है।

पाकिस्तान की बीमार अर्थव्यवस्था के लिए चीन के साथ आर्थिक सहयोग कितना महत्वपूर्ण है। पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने कहा है कि प्रधानमंत्री इमरान ख़ान द्विपक्षीय व्यापार, वाणिज्यिक और निवेश साझेदारी को और मजबूत बनाने के लिए चीनी व्यापार और कॉर्पोरेट सेक्टर के वरिष्ठ प्रतिनिधियों से मुलाक़ात करेंगे।

इसके अलावा, प्रधानमंत्री इमरान ख़ान चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) परियोजनाओं की गति को बढ़ाने के लिए सरकार के हालिया ऐतिहासिक फ़ैसलों से चीनी नेतृत्व को अवगत कराएंगे।

मुशाहिद हुसैन सैय्यद कहते हैं कि इस दौरे पर चीन-पाकिस्तान के आर्थिक गलियारे के विस्तार पर भी चर्चा की जाएगी।

वे कहते हैं, "अब वो अफ़ग़ानिस्तान को भी इस आर्थिक गलियारे में बतौर नया सदस्य जोड़ना चाहते हैं। इसलिए पेशावर को काबुल से जोड़ने के लिए एक परियोजना पर भी इस दौरे में विचार किया जाएगा।''

वीगर मुसलमानों के उत्पीड़न पर अमरीका की चीन पर वीज़ा पाबंदी

अमरीका ने कहा है कि चीन में मुस्लिम आबादी के साथ होने वाले उत्पीड़न की वजह से वह चीनी अधिकारियों पर वीज़ा प्रतिबंध लगाने जा रहा है।

इससे पहले बीते सोमवार को अमरीका ने चीन के शिनजियांग प्रांत में वीगर मुसलमानों के साथ उत्पीड़न के मामले में अमरीका में काम कर रहे 28 चीनी संस्थानों को ब्लैकलिस्ट कर दिया था।

अमरीका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने कहा कि चीन की सरकार 'एक अत्यंत दमनकारी अभियान' चला रही है। वहीं चीन ने इन आरोपों को आधारहीन बताया है।

एक बयान में पॉम्पियो ने चीनी सरकार पर वीगर, कज़ाख़, किर्गिज़ मुसलमान और अन्य अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदायों के साथ उत्पीड़न करने के आरोप लगाए हैं।

उन्होंने कहा, ''नज़रबंदी शिविरों में बड़ी संख्या में लोगों को रखा गया है, उन पर उच्चस्तर की निगरानी रखी जाती है। लोगों पर उनकी धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान दर्शाने पर कठोर नियंत्रण है।''

चीन ने अमरीका के क़दम को अस्वीकार्य बताया है।

सोमवार को चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता गेंग शुआन ने कहा, ''अमरीका ने मानवाधिकार का हवाला देकर जो मुद्दे उठाए हैं, वैसा यहां पर कुछ भी नहीं है।''

''ये तमाम आरोप और कुछ नहीं सिर्फ़ अमरीका की एक चाल है, जिससे वो चीन के आंतरिक मामलों में दखल दे सके।''

अमरीका ने जो वीज़ा प्रतिबंध लगाए हैं वो चीनी सरकार और कम्युनिस्ट पार्टी के अधिकारियों पर लागू होंगे, इसके साथ ही उनके परिजनों पर भी यह प्रतिबंध लगेंगे।

अमरीका और चीन के बीच फ़िलहाल ट्रेड वॉर चल रहा है। चीन ने हाल ही में ट्रेड वॉर पर बात करने के लिए अपना एक दल अमरीका भेजा था।

चीन के सुदूर पश्चिमी प्रांत शिनजियांग में बीते कुछ सालों से एक बड़ा सुरक्षा अभियान चल रहा है।

मानवाधिकार समूहों और संयुक्त राष्ट्र ने कहा है कि चीन ने इस प्रांत में 10 लाख से अधिक वीगर और अन्य जातीय अल्पसंख्यकों को बंदी बनाया हुआ है। यहां पर बहुत बड़े इलाक़े में बंदीगृह बनाए गए हैं।

ऐसे आरोप लगाए जाते हैं कि इन बंदीगृहों में मुसलमानों को इस्लाम छोड़ने, सिर्फ़ चीनी मंदारिन भाषा बोलने और चीन की वामपंथी सरकार के नियमों का पालन करने के लिए बाध्य किया जाता है।

लेकिन इसके उलट चीन का कहना है कि वो शिनजियांग में प्रशिक्षण शिविर चला रहा है, जिसके ज़रिए वीगर को ट्रेनिंग देकर उन्हें नौकरी हासिल करने और चीनी समाज में घुलने मिलने में मदद करेगा।  इस प्रशिक्षण के ज़रिए वह चरमपंथ पर लगाम लगाने की बात भी करता है।

चीन के शिनजियांग प्रांत में बने शिविरों की अमरीका सहित कई अन्य देश मुखर निंदा कर चुके हैं।

पिछले हफ्ते, पॉम्पियो ने वैटिकन में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर आरोप लगाए थे कि चीन अपने नागरिकों से अपने गॉड की पूजा करने की जगह सरकार की पूजा करने के लिए कहता है।

इससे पहले जुलाई में 20 से अधिक देशों ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में एक संयुक्त पत्र पर हस्ताक्षर किए थे जिसमें वीगर और अन्य मुसलमानों के साथ चीन के बर्ताव की निंदा की गई थी।

इस बीच पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान भी इन दिनों चीन के दौरे पर हैं। कुछ दिन पहले जब प्रधानमंत्री इमरान ख़ान से चीन में रहने वाले वीगर मुसलमानों पर सवाल पूछा गया था तो वो कोई जवाब नहीं दे पाए थे।

14 सितंबर को अल-जज़ीरा को दिए इंटरव्यू में पत्रकार ने इमरान ख़ान से सवाल पूछा कि चीन में वीगर मुसलमानों के साथ हो रहे व्यवहार को लेकर पश्चिम के देशों में काफ़ी आलोचना हो रही है। क्या आपने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से इस मामले में कभी औपचारिक रूप से चर्चा की?

इस सवाल के जवाब में इमरान ख़ान ने कहा था, ''आपको पता है कि हम अपने मुल्क के भीतर ही कई समस्याओं से जूझ रहे हैं। मुझे इसके बारे में बहुत कुछ पता भी नहीं है। पिछले एक साल से ख़राब अर्थव्यवस्था और अब कश्मीर से हम जूझ रहे हैं। पर मैं इतना कह सकता हूं कि चीन हमारा सबसे अच्छा दोस्त है।''

वीगर असल में तुर्की से ताल्लुक रखने वाले मुसलमान हैं। शिनजियांग प्रांत की लगभग 45 प्रतिशत आबादी वीगर मुसलमानों की है। इसके अलावा 40 प्रतिशत हैन चीनी हैं।

साल 1949 में जब चीन ने पूर्वी तुर्किस्तान पर अपना कब्ज़ा किया तो इसके बाद बड़ी संख्या में हैन चीनी और वीगर मुसलमानों को अपनी संस्कृति पर ख़तरा महसूस होने लगा, इसके चलते इन समुदायों ने पलायन शुरू कर दिया।

शिनजियांग आधिकारिक तौर पर चीन का एक स्वायत्त क्षेत्र है, जैसे कि दक्षिण में तिब्बत है।

तुर्की कश्मीर पर पाकिस्तान के साथ क्यों है?

तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने पिछले महीने 24 सितंबर को संयुक्त राष्ट्र की आम सभा को संबोधित करते हुए कश्मीर का मुद्दा उठाया था।

राष्ट्रपति अर्दोआन ने कहा कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय पिछले 72 सालों से कश्मीर समस्या का समाधान खोजने में नाकाम रहा है।

अर्दोआन ने कहा था कि भारत और पाकिस्तान कश्मीर समस्या को बातचीत के ज़रिए सुलझाएं। तुर्की के राष्ट्रपति ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के बावजूद कश्मीर में 80 लाख लोग फँसे हुए हैं।

अर्दोआन के अलावा मलेशिया ने भी यूएन की आम सभा में कश्मीर का मुद्दा उठाया था। कहा जा रहा है कि यूएन की आम सभा में तुर्की और मलेशिया का यह रुख़ भारत के लिए झटका है।

तुर्की के इस रुख़ पर भारत ने खेद जताया है। इसी हफ़्ते शुक्रवार को भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने कहा कि कश्मीर भारत का आंतरिक मामला है। उन्होंने कहा कि तुर्की और मलेशिया का रुख़ बहुत ही अफ़सोस जनक है।  

रवीश कुमार ने कहा, ''भारत और तुर्की में दोस्ताना संबंध हैं। लेकिन छह अगस्त के बाद से हमें खेद है कि तुर्की की तरफ़ से भारत के आंतरिक मामले पर लगातार बयान आए हैं। ये तथ्यात्मक रूप से ग़लत और पक्षपातपूर्ण हैं।''

पाकिस्तान और तुर्की के बीच संबंध भारत के तुलना में काफ़ी अच्छे रहे हैं। दोनों मुल्क इस्लामिक दुनिया के सुन्नी प्रभुत्व वाले हैं। अर्दोआन के पाकिस्तान से हमेशा से अच्छे संबंध रहे हैं।

जब जुलाई 2016 में तुर्की में सेना का रेचेप तैय्यप अर्दोआन के ख़िलाफ़ तख्ता पलट नाकाम रहा तो पाकिस्तान खुलकर अर्दोआन के पक्ष में आया था।  पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ ने अर्दोआन को समर्थन किया था। इसके बाद शरीफ़ ने तुर्की का दौरा भी किया था।  तब से अर्दोआन और पाकिस्तान के संबंध और अच्छे हुए हैं।

2017 से तुर्की ने पाकिस्तान में एक अरब डॉलर का निवेश किया है। तुर्की पाकिस्तान में कई परियोजनाओं पर काम कर रहा है। वो पाकिस्तान को मेट्रोबस रैपिड ट्रांजिट सिस्टम भी मुहैया कराता रहा है। दोनों देशों के बीच प्रस्तावित फ़्री ट्रेड एग्रीमेंट को लेकर अब भी काम चल रहा है।

अगर दोनों देशों के बीच यह समझौता हो जाता है कि तो द्विपक्षीय व्यापार 90 करोड़ डॉलर से बढ़कर 10 अरब डॉलर तक पहुँच सकता है।

पाकिस्तान में टर्किश एयरलाइंस का भी काफ़ी विस्तार हुआ है। इस्तांबुल रीजनल एविएशन हब के तौर पर विकसित हुआ है। ज़्यादातर पाकिस्तानी तुर्की के रास्ते पश्चिम के देशों में जाते हैं।

हालांकि पाकिस्तानियों को तुर्की में जाने के लिए वीज़ा की ज़रूरत पड़ती है। अगर फ़्री ट्रेड एग्रीमेंट हो जाता है तो दोनों देशों के बीच संबंध और गहरे होंगे। तुर्की में हाल के वर्षों में पश्चिम और यूरोप के पर्यटकों का आना कम हुआ है ऐसे में तुर्की इस्लामिक देशों के पर्यटकों को आकर्षित करना चाहता है।

पाकिस्तान के लिए तुर्की लंबे समय से आर्थिक और सियासी मॉडल के रूप में रहा है। पाकिस्तानी सेना के पूर्व प्रमुख और पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ तुर्की के संस्थापक मुस्तफ़ा कमाल पाशा के प्रशंसक रहे हैं।

मुशर्रफ़ पाशा के सेक्युलर सुधारों और सख़्त शासन की प्रशंसा करते रहे हैं। पाकिस्तान के वर्तमान प्रधानमंत्री इमरान ख़ान अर्दोआन की प्रशंसा करते रहे हैं।

2016 में तुर्की में तख़्तापलट नाकाम करने पर इमरान ख़ान ने अर्दोआन को नायक कहा था। ज़ाहिर है इमरान ख़ान भी नहीं चाहते हैं कि पाकिस्तान में राजनीतिक सरकार के ख़िलाफ़ सेना का तख्तापलट हो, जिसकी आशंका पाकिस्तान में हमेशा बनी रहती है।

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तुर्की-पाकिस्तानी एकता दशकों से साफ़ दिखती रही है। दोनों देश एक दूसरे को अपने आतंरिक मसलों पर समर्थन करते रहे हैं। दोनों देशों की क़रीबी अज़रबैजान को लेकर भी है।

तीनों देशों की यह दोस्ती आर्मेनिया को भारी पड़ती है। पाकिस्तान दुनिया का एकमात्र देश है जिसने आर्मेनिया को संप्रभु राष्ट्र की मान्यता नहीं दी है। अज़रबैजान विवादित इलाक़ा नागोर्नो-काराबाख़ पर अपना दावा करता है और पाकिस्तान भी इसका समर्थन करता है। तुर्की का भी इस मामले में यही रुख़ है।

इसके बदले में तुर्की पाकिस्तान को कश्मीर पर समर्थन देता है। इसी साल 26 फ़रवरी को भारत ने पाकिस्तान के बालाकोट में कथित चरमपंथी कैंपों पर एयर स्ट्राइक का दावा किया तो दोनों देशों के बीच तनाव काफ़ी बढ़ गया था। 27 फरवरी को पाकिस्तान ने भारत पर जवाबी हवाई हमला किया। भारत और पाकिस्तान के बीच हुए एरियल संघर्ष में पाकिस्तान ने भारत के दो लड़ाकू विमान मार गिराए और  एक भारतीय पायलट अभिनन्दन को पाकिस्तान ने गिरफ़्तार कर लिया था जिसे बाद में छोड़ दिया था। पाकिस्तान के इस क़दम की राष्ट्रपति अर्दोआन ने तारीफ़ की थी।

पाँच अगस्त को जब भारत ने अपने नियंत्रण वाले जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी किया तब भी प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने राष्ट्रपति अर्दोआन से संपर्क किया और उन्होंने पाकिस्तान के रुख़ का समर्थन किया।

अर्दोआन ख़ुद को मुस्लिम दुनिया के बड़े नेता और हिमायती के तौर पर भी पेश करते हैं। हालांकि दोनों देशों में भले दोस्ती है लेकिन दोनों के दोस्त एक ही नहीं हैं। तुर्की और चीन के संबंध अच्छे नहीं हैं लेकिन चीन और पाकिस्तान के संबंध बहुत अच्छे हैं। तुर्की चीन में वीगर मुसलमानों के प्रति सरकार के व्यवहार की खुलकर आलोचना करता है जबकि पाकिस्तान चुप रहता है।

तुर्की और सऊदी अरब के रिश्ते ठीक नहीं हैं लेकिन पाकिस्तान और सऊदी के रिश्ते बहुत अच्छे हैं। पत्रकार जमाल ख़ाशोज्जी की हत्या के ख़िलाफ़ तुर्की काफ़ी मुखर रहा लेकिन पाकिस्तान बिल्कुल चुप रहा।

पाकिस्तान और तुर्की एक जैसे अलगाववाद से जूझ रहे हैं। तुर्की में कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी के साथ जारी संघर्ष में पाकिस्तान अर्दोआन के साथ खड़ा रहता है। कुर्द विद्रोहियों के साथ तुर्की का संघर्ष लंबे समय से चल रहा है। 2015 में तो तुर्की ने इस संघर्ष में पाकिस्तान से ख़ुफ़िया और संसाधनों की मदद का भी अनुरोध किया था।

दोनों देशों के बीच मधुर संबंधों में पाकतुर्क स्कूल सबसे विकट मुद्दा बनकर सामने आया। ये स्कूल प्रभावशाली इस्लामिक धार्मिक नेता फ़ेतुल्लाह गुलेन के ग्लोबल नेटवर्क के हिस्सा रहे थे। एक वक़्त में फ़ेतुल्लाह अर्दोआन के सहयोगी हुआ करते थे। इन स्कूलों के ज़रिए तुर्की की संस्कृति के साथ-साथ गुलेन के राजनीतिक विचारों को प्रोत्साहन दिया जाता था।  

2016 में जब तख़्तापलट की कोशिश हुई तो अर्दोआन ने इसके लिए गुलेन और उनके हिज़मत आंदोलन को दोषी ठहाराया।

इसके बाद से अर्दोआन ने बाक़ी के देशों से कहा कि गुलेन आतंकवाद के समर्थक हैं इसलिए अपने यहां चल रहे उनके स्कूलों को बंद करे।  पाकिस्तान ने अर्दोआन की मांग को ख़ारिज नहीं किया। पहले स्कूलों में काम करने वालों को रेजिडेंस वीज़ा देने से इनकार किया और बाद में उन्हें पाकिस्तान छोड़ने पर मजबूर किया।

इस साल की शुरुआत में पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने गुलेनवादियों को आतंकवादी घोषित कर दिया और पाकतुर्क स्कूलों को मारिफ़ फ़ाउंडेशन के हवाले कर दिया। मतलब पाकिस्तान ने अर्दोआन की ख़िदमत में कोई कमी नहीं की।

दूसरी तरफ़ अफ़ग़ानिस्तान समस्या को लेकर भी तुर्की पाकिस्तान के रुख़ का समर्थन करता है। हालांकि अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत संघ के दख़ल के दौरान पाकिस्तान और तुर्की मुजाहिदीन के साथ थे। इसकी वजह से अमरीका के साथ सहयोग के कारण दोनों देश इस्लामिक वर्ल्ड के टकराव से अलग नहीं रहे।

अमरीका ने अक्टूबर 2001 में अफ़ग़ानिस्तान पर जब हमला किया तो पाकिस्तान को तालिबान के ख़िलाफ़ होना पड़ा था।

इमरान ख़ान से क्यों मिले मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर?

अफ़ग़ान तालिबान का एक शीर्ष प्रतिनिधिमंडल तालिबान के शीर्ष कमांडर मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर के नेतृत्व में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान से मिला।

पीएमओ के एक अधिकारी ने बीबीसी उर्दू के शहज़ाद मलिक को बताया कि गुरुवार दोपहर को हुई इस बैठक में पाकिस्तानी सेना प्रमुख भी शामिल हुए।

इससे पहले यह प्रतिनिधिमंडल पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के दफ़्तर में विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी से भी मिला। उस बैठक में पाकिस्तानी सेना की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल फ़ैज़ हमीद ने भी भाग लिया।

विदेश मंत्रालय ने एक बयान जारी कर बताया कि मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर के नेतृत्व में अफ़ग़ान तालिबान के इस राजनीतिक प्रतिनिधिमंडल ने अफ़ग़ान शांति प्रक्रिया समेत आपसी हित के मुद्दों पर चर्चा की।

दूसरी ओर, अफ़ग़ानिस्तान के चीफ़ एक्ज़ीक्यूटिव अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह ने उम्मीद जताई है कि पाकिस्तान तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान के साथ शांति वार्ता के लिए राज़ी कर लेगा।

बुधवार को काबुल में पाकिस्तान के राजदूत ज़ाहिद नसरुल्ला ख़ान के साथ बातचीत में उन्होंने कहा कि अगर पाकिस्तान तालिबान पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके उसे अफ़ग़ान सरकार के साथ बातचीत के लिए राज़ी कर सकता है, तो इससे देश में शांति स्थापित करने के प्रयासों को बल मिलेगा।

पाकिस्तान की जेल में बंद मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर को आठ साल की हिरासत के बाद पाकिस्तान ने बीते वर्ष रिहा कर दिया था। उन्हें सुरक्षा एजेंसियों ने 2010 में कराची से गिरफ़्तार किया था।

इसी वर्ष उन्हें क़तर में तालिबान के पॉलिटिकल ऑफिस का प्रमुख नियुक्त किया गया था।

इस दौरान पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी ने कहा कि पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के बीच संबंध धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक रिश्तों पर आधारित है। जबकि बीते 40 वर्षों से अफ़ग़ानिस्तान अस्थिरता झेल रहा है।

उन्होंने कहा, "पाकिस्तान का पूरी ईमानदारी से यह मानना है कि युद्ध किसी भी समस्या का हल नहीं है और बातचीत ही अफ़ग़ानिस्तान में शांति का एकमात्र ज़रिया है।''

क़ुरैशी ने कहा, "हमें ख़ुशी है कि आज दुनिया अफ़ग़ानिस्तान पर हमारे रुख़ का समर्थन कर रही है।''

उन्होंने कहा कि पाकिस्तान ने अपनी ज़िम्मेदारी समझते हुए अफ़ग़ान शांति प्रक्रिया में एक ईमानदार भूमिका निभाई है क्योंकि शांत अफ़ग़ानिस्तान इस पूरे क्षेत्र की स्थिरता के लिए ज़रूरी है।

क़ुरैशी ने कहा, "हम चाहते हैं कि अफ़ग़ान वार्ता से जुड़े संबंधित पक्ष इस दिशा में आगे बढ़ें ताकि स्थायी शांति और स्थिरता का मार्ग प्रशस्त हो।''

विदेश मंत्री ने कहा कि पिछले कई सालों से पाकिस्तान दुनिया को याद दिला रहा है कि वह अफ़ग़ानिस्तान की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक ज़मीनी हक़ीक़त को नज़रअंदाज न करे।

उन्होंने कहा कि अफ़ग़ान संघर्ष के शांतिपूर्ण समाधान से इस समूचे इलाक़े में हिंसा की घटनाओं में उल्लेखनीय कमी आएगी।

विदेश मंत्री ने कहा कि अफ़ग़ानिस्तान में शांति के लिए मौजूदा क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय सहमति से एक अभूतपूर्व अवसर मिला है जिसे याद रखा जाना चाहिए।

उन्होंने आशा व्यक्त की कि रुकी हुई अफ़ग़ान शांति वार्ता जल्द ही फिर शुरू होगी।

पाक विदेश मंत्रालय के बयान के अनुसार, अफ़ग़ानिस्तानी तालिबान के उच्च-स्तरीय प्रतिनिधिमंडल ने अफ़ग़ान शांति प्रक्रिया में पाकिस्तान की भूमिका की सराहना की और संबंधित पक्षों के बीच बातचीत की तत्काल बहाली की ज़रूरत पर सहमति व्यक्त की।

क़तर में अफ़ग़ानिस्तानी तालिबान के पॉलिटिकल ऑफिस के प्रवक्ता सोहेल शाहीन ने बीबीसी के नूर नासिर से कहा कि तालिबान के इस प्रतिनिधिमंडल में मुल्ला बरादर समेत उनके 11 वरिष्ठ सदस्य शामिल हैं।

तालिबान के वार्ताकारों का यह दौरा ऐसे समय में हो रहा है जब अफ़ग़ानिस्तान में अमरीका के मुख्य वार्ताकार रहे ज़िल्मे ख़लीलज़ाद पहले से ही पाकिस्तान में मौजूद हैं।

ज़िल्मे ख़लीलज़ाद ने हाल ही में अमरीका के दौरे पर गए प्रधानमंत्री इमरान ख़ान से मुलाक़ात की थी। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि पाकिस्तान में वे तालिबानी नेताओं से मिलेंगे या नहीं।

अगर यह बैठक होती है, तो पाकिस्तानी धरती पर तालिबान प्रतिनिधिमंडल के साथ अमरीकी प्रतिनिधिमंडल की पहली बैठक होगी।

तालिबान ने पहले कहा था कि वो पाकिस्तान में प्रधानमंत्री इमरान ख़ान से मिलेंगे। इसके प्रवक्ता सोहेल शाहीन ने कहा था कि प्रतिनिधिमंडल इस दौरे पर केवल पाकिस्तान के विदेश विभाग के शीर्ष अधिकारियों से मुलाक़ात करेगा।

जुलाई में अपनी अमरीकी दौरे के दौरान प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने कहा था कि वह लौट कर तालिबानी नेताओं से बैठक करेंगे और उन्हें अफ़ग़ान सरकार के साथ बातचीत करने को कहेंगे।

इसके जवाब में, तालिबान के प्रवक्ता सोहेल शाहीन ने बीबीसी से कहा था कि अगर प्रधानमंत्री इमरान ख़ान उन्हें आमंत्रित करते हैं तो वे पाकिस्तान जाकर उनसे मुलाक़ात करेंगे।

यह पहली बार नहीं था जब अफ़ग़ान शांति प्रक्रिया को लेकर किसी तालिबान प्रतिनिधिमंडल के पाकिस्तान आने की बात की गई थी।

इस साल फ़रवरी में, अफ़ग़ानिस्तानी तालिबान के प्रवक्ता ज़बीहुल्लाह मुजाहिद ने एक बयान में कहा कि उनके ऑफिस का एक प्रतिनिधिमंडल 18 फ़रवरी को पाकिस्तान का दौरा करेगा, लेकिन बाद में तालिबान ने कहा कि उसे संयुक्त राष्ट्र में बुलाया गया था।

इसी संबंध में, प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने तब कहा था कि उन्होंने अफ़ग़ान सरकार की चिंताओं पर तालिबान नेताओं के साथ बैठक स्थगित कर दी थी।

अफ़ग़ानिस्तान में युद्ध विराम और अमरीका के साथ बातचीत शुरू होने के बाद से यह तालिबान प्रतिनिधिमंडल की चौथी विदेशी यात्रा है।

इससे पहले तालिबान का यह प्रतिनिधिमंडल रूस, चीन और ईरान का दौरा कर चुका है। इसी वर्ष सितंबर में अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने ट्विटर पर तालिबान के साथ बातचीत के ख़त्म किए जाने की घोषणा की थी।

इससे पहले दोनों पक्षों के बीच बीते 11 महीने से बातचीत चल रही थी लेकिन अचानक ही ट्रंप ने इस वार्ता को समाप्त कर दिया।

मुल्ला बरादर को 2010 में पाकिस्तान के कराची में एक ऑपरेशन के दौरान गिरफ़्तार किया गया था, आठ साल जेल में रखने के बाद उन्हें 2018 में रिहा किया गया। उसके बाद से यह पाकिस्तान का उनका पहला दौरा है।

इमरान ख़ान ने हाल ही में उनके बारे में कहा, "हम अमरीका से बातचीत के लिए तालिबान को क़तर लेकर आए हैं।''

सूत्रों के मुताबिक़ पाकिस्तान ने अमरीका के अनुरोध पर ही मुल्ला बरादर को रिहा किया था ताकि वे बातचीत में अहम भूमिका निभा सकें।

मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर तालिबान के संस्थापक मुल्ला उमर के क़रीबी सहयोगी और शीर्ष कमांडर में उनके बाद नंबर दो पर थे।

अल जज़ीरा के पत्रकार कार्लोटा बाल्स की एक डॉक्युमेंट्री में अफ़ग़ानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई ने कहा था कि मुल्ला बरादर और कई तालिबान नेता 2010 में अफ़ग़ान सरकार से बातचीत के लिए तैयार थे।

हालांकि, उनके अनुसार तब अमरीका और पाकिस्तान उनसे बातचीत के पक्ष में नहीं था और इसके बाद ही मुल्ला बरादर को गिरफ़्तार कर लिया गया।

करज़ई के मुताबिक़ उन्होंने तब मुल्ला बरादर की गिरफ़्तारी का विरोध भी किया था।

अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के ख़िलाफ़ महाभियोग की प्रक्रिया क्यों शुरू हुई?

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के ख़िलाफ़ शिकायत करने वाले एक व्यक्ति का कहना है कि व्हाइट हाउस के वरिष्ठ अधिकारी डोनल्ड ट्रम्प और यूक्रेन के राष्ट्रपति के बीच हुई फ़ोन कॉल के विवरणों को दबाने की कोशिश कर रहे थे।

हाल में रिलीज़ हुई शिकायत के मुताबिक़, कॉल का ब्यौरा साधारण कंप्यूटर सिस्टम में संग्रहित नहीं था। इसके बजाय यह एक अलग प्रणाली में संग्रहीत किया गया था।

अब से थोड़ी देर पहले उस शिकायत का ब्यौरा सार्वजनिक किया गया जिसके आधार पर अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के ख़िलाफ़ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू हुई।

शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया है कि उन्हें कई स्रोतों से ये जानकारी मिली है कि ट्रंप 2020 के राष्ट्रपति चुनावों में विदेशी दख़ल के लिए अपनी ताक़त का इस्तेमाल कर रहे हैं।

इसी बीच अमरीका की नेशनल इंटेलिजेंस के कार्यवाहक निदेशक जोसेफ़ मैगूरे कांग्रेस समिति के समक्ष पेश हुए हैं। समिति उनसे यह पूछ सकती है कि वो ट्रंप और यूक्रेन के राष्ट्रपति के बीच फ़ोन वार्ता को लेकर एक ख़ुफ़िया अधिकारी की ओर से जारी की गई चिंताओं पर कई सप्ताह तक क्यों चुप रहे?

इससे पहले अमरीकी राष्ट्रपति के ऑफ़िस, व्हाइट हाउस ने डोनल्ड ट्रंप और यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लोदीमीर ज़ेलेंस्की के बीच फ़ोन पर हुई उस बातचीत का ब्यौरा जारी किया था जिसके आधार पर ट्रंप के ख़िलाफ़ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है।

इस बातचीत में ट्रंप ने ज़ेलेंस्की को 25 जुलाई को डेमोक्रेटिक पार्टी के संभावित राष्ट्रपति उम्मीदवार जो बाइडेन और एक यूक्रेनी गैस फ़र्म में काम करने वाले उनके बेटे के ख़िलाफ़ जांच शुरू करने को कहा।

अमरीकी संसद के ऊपरी सदन सीनेट में डेमोक्रेट पार्टी के नेता चक शूमर ने कहा है कि जारी किए गए दस्तावेज़ों ने महाभियोग की कार्रवाई पर मुहर लगा दी है।

वहीं रिपब्लिकन पार्टी के ओकलाहोमा से सांसद मार्कवेयन म्यूलिन का कहना है कि इन दस्तावेज़ों से कुछ भी साबित नहीं होता है। उनका कहना था, "इनमें कुछ भी नहीं है। यदि स्पीकर ने महाभियोग की पूरी प्रक्रिया का आधार इन्हें ही बनाया है तो वो ठहरे हुए पानी में तैर रही हैं क्योंकि वो कहीं भी नहीं पहुंचने वाली हैं।''

वहीं रिपब्लिकन पार्टी की तीन सरकारों के दौरान सलाहकार रहे पीटर वेनर का कहना है कि उन्हें राष्ट्रपति ट्रंप पर लगे आरोपों से कोई हैरानी नहीं हुई।

उन्होंने कहा, "मुझे लगता है कि ये सब पूरी तरह प्रत्याशित था क्योंकि वो एक ऐसे व्यक्ति हैं जिनका व्यक्तित्व ही अस्त-व्यस्त है और उनमें नैतिकता का तो जीन ही नहीं है। वो ऐसे व्यक्ति हैं जिनमें कोई नैतिकता नहीं है और वो अपनी सत्ता को मज़बूत करने के लिए कुछ भी कहेंगे और करेंगे।''

वहीं राष्ट्रपति ट्रंप ने सभी आरोपों को ख़ारिज कर दिया है। एक ट्वीट में ट्रंप ने लिखा, "डेमोक्रेट पार्टी के लोग रिपब्लिकन पार्टी और उसके सभी मूल्यों को बर्बाद करने की कोशिश कर रहे हैं। रिपब्लिकन साथियों, एकजुट रहिए, उनके खेल को समझिए और मज़बूती से लड़िए। हमारा देश दांव पर है।''

ट्रंप पर महाभियोग का मामला जुड़ा है उनके एक प्रतिद्वंद्वी - जो बाइडेन - से जो कि अगले साल होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में डेमोक्रेट पार्टी के उम्मीदवार हो सकते हैं, और साथ ही इस मामले से जुड़ा एक देश यूक्रेन है।

आरोप ये है कि राष्ट्रपति ट्रंप ने यूक्रेन के राष्ट्रपति पर दबाव डाला कि वो जो बाइडेन और उनके बेटे के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के दावों की जाँच करवाए।

इस आरोप के बाद अमरीकी संसद के निचले सदन प्रतिनिधि सभा की स्पीकर नैन्सी पेलोसी ने राष्ट्रपति ट्रंप के ख़िलाफ़ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू करने की घोषणा की है।

हालांकि ट्रंप ने इन आरोपों का खंडन किया है।

इस मामले की जड़ है एक फ़ोन कॉल, जो अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप और यूक्रेन के राष्ट्रपति के बीच इस साल 25 जुलाई को हुई।

पिछले हफ्ते खबरें आईं कि अमरीका के खुफिया अधिकारियों ने सरकार के एक वॉचडॉग से शिकायत की थी कि ट्रंप ने एक विदेशी नेता से बातचीत की है। बाद में पता चला कि ये विदेशी नेता यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लोदीमीर ज़ेलेंस्की हैं।

इंटेलिजेंस इंस्पेक्टर जनरल ने व्हिसल ब्लोअर की शिकायत को "तत्काल ध्यान में लेने योग्य" और विश्वसनीय माना था। डेमोक्रेट सांसदों ने उस शिकायत की कॉपी को संसद में रखने की मांग की थी, लेकिन व्हाइट हाउस और न्याय विभाग ने इससे इनकार कर दिया।

दोनों नेताओं के बीच क्या बात हुई थी, ये साफ़ नहीं है। हालांकि, डेमोक्रेट्स का आरोप है कि ट्रंप ने यूक्रेन के राष्ट्रपति पर जो बाइडेन और उनके बेटे के खिलाफ लगे भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच करने का दबाव बनाया। और ऐसा ना करने पर यूक्रेन को दी जाने वाली सैन्य मदद रोकने की धमकी दी।

हालांकि, ट्रंप ने माना है कि उन्होंने यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की से अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदी जो बाइडेन के बारे में चर्चा की थी, लेकिन उन्होंने ये भी कहा कि उन्होंने सैन्य मदद रोकने की धमकी इसलिए दी ताकि यूरोप भी मदद के लिए आगे आए।

मगर राष्ट्रपति ट्रंप ने उन आरोपों से इनकार किया है, जिनमें कहा जा रहा है कि उन्होंने यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लोदीमीर ज़ेलेंस्की पर दबाव बनाया कि वो ट्रंप के डेमोक्रेटिक प्रतिद्वंदी जो बाइडेन और उनके बेटे के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के दावों की जांच शुरू करें।

अमरीकी संविधान के मुताबिक़ राष्ट्रपति को देशद्रोह, रिश्वत और दूसरे संगीन अपराधों में महाभियोग का सामना करना पड़ता है।

अमरीका में महाभियोग की प्रक्रिया हाउस ऑफ़ रिप्रेज़ेंटेटिव्स से शुरू होती है और इसे पास करने के लिए साधारण बहुमत की ज़रूरत पड़ती है।

इस पर सीनेट में एक सुनवाई होती है लेकिन यहां महाभियोग को मंज़ूरी देने के लिए दो तिहाई बहुमत की ज़रूरत पड़ती है।

अमरीकी इतिहास में अभी तक किसी भी राष्ट्रपति को महाभियोग के ज़रिए हटाया नहीं जा सका है।

ट्रंप के ख़िलाफ़ पहले भी महाभियोग चलाने की बात हुई है।

2016 में हुए चुनाव को प्रभावित करने के लिए रूस के साथ ट्रंप के मिलीभगत के आरोपों के बाद उन पर महाभियोग चलाने की बात हुई थी।

इसके अलावा डेमोक्रेटिक कांग्रेस की चार महिला सांसदों के खिलाफ कथित तौर पर 'नस्लीय टिप्पणी' करने पर भी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के खिलाफ महाभियोग की मांग उठी थी। हालांकि, इसे खारिज कर दिया गया था।

ट्रंप पर 2016 के राष्ट्रपति चुनाव के दौरान दो महिलाओं के साथ अंतरंग संबंधों को गुप्त रखने के लिए रकम देने का भी आरोप लगा था।

ट्रंप के वकील और साथी रहे माइकेल कोहेन ने अंतरंग संबंधों को गुप्त रखने के लिए रकम देने की बात स्वीकार की थी।

इसके लिए भी उन पर महाभियोग चलाने की चर्चा हुई थी।

हालांकि, यह अलग बात है कि इन मामलों में ट्रंप पर महाभियोग नहीं चलाया जा सका और वह पद पर बने रहे।

अमरीका के इतिहास में कई बार महाभियोग का बादल गहराया, लेकिन केवल दो राष्ट्रपतियों को ही इसका सामना करना पड़ा।

अमरीका के इतिहास में महाभियोग का हालिया मामला अमरीका के 42वें राष्ट्रपति बिल क्लिंटन का रहा।

बिल क्लिंटन को एक व्यापक जूरी के समक्ष झूठी गवाही देने और न्याय में बाधा डालने के मामले में महाभियोग का सामना करना पड़ा था।

मोनिका लेविंस्की से प्रेम संबंधों के मामले में उन्होंने झूठ बोला था। इसके साथ ही उन पर यह भी आरोप था कि बिल क्लिंटन ने मोनिका लेविंस्की को भी इस मामले में झूठ बोलने के लिए कहा था।

बिल क्लिंटन के अलावा एन्ड्रयू जॉन्सन एकमात्र राष्ट्रपति हैं जिन्हें महाभियोग का सामना करना पड़ा था। जॉन्सन अमरीका के 17वें राष्ट्रपति थे। वह 1865 से 1869 तक अमरीका के राष्ट्रपति रहे थे।

जॉनसन के ख़िलाफ़ 1868 में हाउस में महाभियोग लाया गया था। उनके ख़िलाफ महाभियोग तब के युद्ध मंत्री एडविन स्टैंचन के हटने के 11 दिन बाद ही लाया गया था। एडविन राष्ट्रपति की नीतियों से सहमत नहीं थे।

जॉन्सन का मामला बिल क्लिंटन से बिल्कुल उलट था। जॉनसन का महाभियोग महज एक वोट से बच गया था।

क्या ईरान के ख़िलाफ़ सैन्य कार्रवाई करेगा सऊदी अरब?

दो तेल ठिकानों पर हुए हमलों के बाद सऊदी अरब के विदेश मामलों के राज्य मंत्री ने कहा है कि सैन्य कार्रवाई सहित सभी विकल्प खुले हैं।  सऊदी अरब ने ईरान को हमलों के लिए ज़िम्मेदार ठहराया है।

आदिल अल-जुबेर ने बीबीसी से बताया कि सऊदी अरब युद्ध से बचना चाह रहा है लेकिन इन ड्रोन और मिसाइल हमलों के लिए ईरान को ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा।

अमरीका का मानना है कि सऊदी अरब के प्रमुख तेल ठिकानों पर हमले के पीछे ईरान का हाथ है। इस हफ़्ते ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी ने भी अमरीका के इस दावे का समर्थन किया है।

लेकिन ईरान ने इस मामले में किसी भी तरह की संलिप्तता से इनकार किया है।

यमन के ईरान समर्थित हूती विद्रोही, जो देश के सिविल वॉर में सऊदी के नेतृत्व वाले गठबंधन से लड़ रहे हैं, ने कहा था कि उसने ही ठिकानों पर ड्रोन हमले किए थे।

लेकिन सऊदी अधिकारियों का कहना है कि हमलों की सीमा, पैमाने और जटिलता को देखकर ऐसा लगता है कि यह हूती विद्रोहियों की क्षमता से बहुत ज्यादा थी।  

न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा में बीबीसी के मुख्य अंतरराष्ट्रीय संवाददाता लीस ड्यूसेट से बात करते हुए जुबेर ने कहा, "हर कोई युद्ध से बचने की कोशिश कर रहा है और हर कोई स्थिति को और ख़राब होने से रोकने की कोशिश कर रहा है। इसलिए हमारे पास उपलब्ध सभी विकल्पों पर हम गौर करेंगे। हम सही समय आने पर निर्णय लेंगे।''

उन्होंने कहा, "ईरान के साथ तुष्टिकरण पहले भी काम नहीं आया है और भविष्य में भी ईरान के साथ तुष्टिकरण काम नहीं आने वाला है।''

अमरीका ने 2015 के परमाणु समझौते को छोड़ने के बाद पिछले साल ईरान के ख़िलाफ़ आर्थिक प्रतिबंधों को फिर से लागू किया था। साथ ही मई में यह भी कहा था कि वह सभी देशों को ईरानी तेल ख़रीदने से रोकने और ईरान पर नए परमाणु समझौते के लिए दबाव बनाने का प्रयास करेगा।

बुधवार को अमरीका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने संयुक्त राष्ट्र में संवाददाताओं से कहा कि अमरीका ईरान के साथ एक शांतिपूर्ण समाधान चाहता था।

उन्होंने आगे कहा, "लेकिन आख़िर में ये ईरानियों पर निर्भर करता है कि वो शांति चाहते हैं या फिर हिंसा और नफ़रत को चुनते हैं।''

फ्रांस के राष्ट्रपति इमेनुअल मैक्रों ने ईरानी राष्ट्रपति हसन रूहानी और अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के बीच एक ऐतिहासिक मुलाक़ात कराने की कोशिश की थी।

लेकिन रूहानी ने संयुक्त राष्ट्र में प्रतिनिधियों को बताया कि उन्होंने ट्रंप से मिलने से इनकार कर दिया क्योंकि ईरान पर आर्थिक प्रतिबंध अब भी लागू हैं।

उन्होंने अमरीका की नियत पर संदेह जताते हुए विदेश मंत्री पॉम्पियो के उस बयान का ज़िक्र किया जिसमें पॉम्पियो ने ईरान पर इतिहास का सबसे कड़ा प्रतिबंध लगाए जाने का दावा किया था।

उन्होंने कहा, "जब किसी राष्ट्र की ख़ामोशी से हत्या की जा रही हो, आठ करोड़ तीस लाख ईरानियों ख़ास कर ईरानी महिलाए और बच्चे इस तरह के दबाव में जी रहे हों और अमरीकी अधिकारी उन सबका स्वागत करते हों तो फिर उनपर कोई कैसे विश्वास कर सकता है?''

रूहानी ने आगे कहा, "ईरान इन अपराधों और इन अपराधियों को न कभी भूलेगा और न माफ़ करेगा।''

उन्होंने राष्ट्रपति ट्रंप के साथ तस्वीर खिंचवाने के विचार को भी ख़ारिज कर दिया है। ट्रंप ने उत्तर कोरियाई नेता किम जोंग-उन के साथ कई अवसरों पर तस्वीरें खिंचवाई हैं जिसमें से कोरियाई प्रायद्वीप के डीमिलिटराइज़ड ज़ोन में एक हाथ मिलाने की तस्वीर भी शामिल है।

रूहानी ने कहा, "यादगार तस्वीरें बातचीत का अंतिम चरण होती हैं, पहला नहीं।''

नेतन्याहू युग ख़त्म: भारत-इसराइल संबंध पर क्या असर पड़ेगा?

इसराइल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत केमिस्ट्री को लेकर काफ़ी चर्चा होती रही है। मोदी इसराइल का दौरा करने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री बने। नेतन्याहू ने उनकी खातिर कुछ इस क़दर किया कि वो सिर्फ़ अमरीकी राष्ट्रपति और पोप के लिए इसराइल में देखने को मिलता है।

दरअसल ये स्वागत कहीं अमरीकी राष्ट्रपति और पोप से भी आगे बढ़कर था क्योंकि नेतन्याहू मोदी के साथ साया बनकर पूरे तीन दिन साथ रहे।

दोनों नेताओं की एक तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हुई जिसमें वो नंगे पांव समुद्र में प्रवेश कर रहे हैं। इस तस्वीर के बाद इसराइल में ब्रोमांस की चर्चा रही।

दरअसल, देखें तो नेतन्याहू के प्रचार का एक केंद्रीय बिन्दु रहा उनकी वैश्विक स्तर पर मुख्य नेताओं के साथ व्यक्तिगत पहचान। उन्होंने अपने मतदाताओं को ये दिखने का प्रयास किया कि उनके कद का इसराइल में और कोई नेता नहीं है और इसराइल की सुरक्षा और सम्पन्नता के लिए उनका पद पर बने रहना बेहद आवश्यक है।

उनकी पार्टी ने अपने मुख्य कार्यालय पर तीन बड़े-बड़े बैनर लगवाए जिनमें उनकी अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप, रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और मोदी के साथ हाथ मिलते हुए तस्वीरें थी। इन तस्वीरों के साथ मोटे अक्षरों में लिखा था "नेतन्याहू, एक अलग ही लीग में''।  

ट्रंप और पुतिन ने नेतन्याहू की खुलकर मदद भी की, ख़ासकर अप्रैल 9 के चुनावों के पहले। नेतन्याहू ने अपने अंतरराष्ट्रीय कद के प्रदर्शन के लिए दो बार भारत जाने का कार्यक्रम भी बनाया मगर किन्हीं वजहों से दोनों बार उसे रद्द करना पड़ा।

भारत जाने का ये निमंत्रण नेतन्याहू की पहल पर हुआ और जानकार बताते हैं कि इस दौरे का कोई विशेष औचित्य नहीं था। दोनों देशों के बीच गहरे सम्बन्ध हैं और इस वक़्त कोई ऐसा ख़ास मामला नहीं था जिसकी वजह से नेतन्याहू का भारत जाना आवश्यक रहा हो।

भारत इसराइली हथियारों का सबसे बड़ा ख़रीददार है। दोनों देशों के दरमियान कई क्षेत्रों में गहरा सहयोग दिखाई देता रहा है। मोदी के दौरे के दौरान इसे रणनीतिक साझेदारी का चोला भी पहनाया जा चुका है।

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या भारत-इसराइल संबंधों का ये स्वरूप मोदी-नेतन्याहू के बीच संबंधों की वजह से हैं। ये सही है कि इन दोनों नेताओं के बीच अच्छे संबंध हैं मगर भारत और इसराइल के बीच संबंध आपसी ज़रूरत और राष्ट्रीय हितों के मद्देनज़र हैं।

भारत कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के दौरान भी इसराइल से सभी क्षेत्रों में सहयोग पा रहा था और हथियारों का सबसे बड़ा ख़रीददार था।

मगर ये बिल्कुल सही है कि जब-जब बीजेपी के नेतृत्व में दिल्ली में सरकार बनती है तब-तब भारत और इसराइल के संबंध सुर्ख़ियों में रहते हैं।

वैसे दोनों देशों के बीच के संबंध इंस्टिट्यूशनल हैं और सरकारों के बदलने से इस पर उतना फ़र्क़ नहीं पड़ता। चर्चा थोड़ी कम या ज़्यादा ज़रूर हो जाती है मगर नीतिगत फ़ैसलों पर इसका मूलभूत असर नहीं दिखता। 

क्या इसराइल में नेतन्याहू युग ख़त्म होने वाला है?

क्या इसराइल में नेतन्याहू युग ख़त्म होने वाला है? स्थानीय मीडिया में चुनाव आयोग के सूत्रों के हवाले से प्रकाशित चुनाव परिणामों के मुताबिक़ नेतन्याहू की लिकुड पार्टी को 120 सदस्यों वाली कनेसेट (इसराइली संसद) में महज़ 32 सीटें मिली हैं।

उनके मुख्य विपक्षी दल, ब्लू एंड वाइट पार्टी, को भी उतनी ही सीटें मिलती दिख रही है। ऐसे में कोई भी विजय का दावा नहीं कर सकता और दोनों नेता सम्पूर्ण परिणाम आने तक संभावित सहयोगी पार्टियों के नेताओं से विमर्श में लग गए हैं।

नेतन्याहू के नेतृत्व वाले दक्षिणपंथी ब्लॉक को 56 सीटें मिलती दिख रही हैं। विपक्ष की सभी पार्टियों को मिलाकर 55 सीटें हो रही हैं जो कि 61 के जादुई संख्या से कम हैं। ऐसे में एक राष्ट्रीय एकता की सरकार बनने की संभावना सबसे प्रबल दिख रही है।

एविगडोर लीबरमैन, जो पहले नेतन्याहू के नेतृत्व वाली सरकार में विदेश और रक्षा मंत्री रह चुके हैं, उन्हें इन चुनाव के नतीजे के अनुसार किंगमेकर के रूप में देखा जा रहा है।

उनकी इसराइल बेतेनु पार्टी को 9 सीटें मिलती दिख रही हैं और इस अल्ट्रा-नेशनलिस्ट नेता ने स्पष्ट कर दिया है कि वो एक राष्ट्रीय एकता की सरकार बनता देखना चाहते हैं, भले ही दोनों पार्टियां उन्हें उसमें स्वीकार भी न करें।

मौजूदा हालत में उनकी पार्टी के समर्थन के बगैर दोनों ही खेमे सरकार का गठन नहीं कर सकते।

बुधवार को रात 10 बजे मतदान ख़त्म होने के बाद अपने कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए लीबरमैन ने कहा कि देश में राजनैतिक और आर्थिक, दोनों ही पहलुओं से, आपातकालीन स्थिति बनी हुई है।

ऐसे में वो और उनकी पार्टी अपने विचार पर कायम हैं और सिर्फ़ एक राष्ट्रीय एकता की सरकार के गठन का समर्थन करेंगे।

अप्रैल 9 के चुनावों के बाद इसराइल बेतेनु पार्टी ने प्रधानमंत्री पद के लिए नेतन्याहू के नाम की सिफ़ारिश राष्ट्रपति रूवेन रिवलिन से की थी मगर सैन्य सेवा से अल्ट्रा-ऑर्थोडॉक्स यहूदियों को छूट मिलने के सवाल पर उन्होंने नेतन्याहू के नेतृत्व में बन रही दक्षिणपंथी सरकार में शामिल होने से इनकार कर दिया था।

इसराइल बेतेनु के समर्थन के बगैर नेतन्याहू 61 सदस्यों का समर्थन जुटाने में महज़ एक मत से चूक गए और उन्होंने संसद निरस्त करने की मांग करते हुए फिर से चुनाव करवाने को कहा।

इसराइल के इतिहास में पहली बार ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई जब 160 दिनों के अंतराल में दोबारा चुनाव करवाए गए।

क्या इसराइल में बिन्यामिन नेतन्याहू का दौर ख़त्म हो गया है? तकरीबन 92 फ़ीसदी वोटों की गिनती के बाद सामने आ रहे नतीजों पर गौर करें, तो इसराइल के इतिहास में सर्वाधिक समय तक प्रधानमंत्री पद पर सेवारत रहे नेतन्याहू रिकॉर्ड पाँचवे कार्यकाल की तलाश में विफल होते नज़र आ रहे हैं।

तो क्या ये माना जाए कि अंतरराष्ट्रीय पटल पर इसराइल की पहचान बन गए नेतन्याहू अब उसके राजनैतिक पटल से लुप्त हो जाएंगे या फिर उनका दौर ख़त्म हो गया है?

इसराइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू को अपने पद पर बने रहने के लिए कम से कम एक और पार्टी का समर्थन हासिल करना होगा जो उनके दक्षिणपंथी ब्लॉक में शामिल नहीं है। फ़िलहाल ऐसी सभी पार्टियों ने इस गुंजाइश से इनकार किया है मगर राजनीति में इस समय किसी भी सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता।

दूसरी तरफ़ अगर राष्ट्रीय एकता की सरकार बनती है तो उसका नेतन्याहू के राजनैतिक भविष्य पर क्या असर पड़ेगा।

ऐसी परिस्थिति में आम तौर पर दोनों बड़ी पार्टियों के नेता दो-दो सालों के लिए प्रधानमंत्री का पद हासिल करते हैं।

इसराइल में ऐसा सफल प्रयास पहले हो चुका है। मगर ऐसी स्थिति में नेतन्याहू के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी अपनी पार्टी के सांसदों को अपने साथ रख पाना।

नेतन्याहू के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के कई मामलों में गंभीर आरोप हैं और ब्लू एंड वाइट पार्टी के नेता, बेनी गैन्ट्ज़, कह चुके हैं कि वो उनके नेतृत्व में सरकार में शामिल नहीं होंगे। अगर वो इस पर कायम रहते हैं और राष्ट्रीय एकता की सरकार के अलावा और कोई विकल्प सामने नहीं आता तो लिकुड पार्टी पर अपने नेता को बदलने का दबाव पड़ सकता है।

सवाल उठता है कि क्या नेतन्याहू की पार्टी के सांसद ऐसे हालात में भी उनका साथ देंगे?

जहां बड़ी पार्टियां उभरते हालात से सुलझने के प्रयास में लगी है वही इन चुनावों से एक बात साफ़ तौर पर नज़र आ रही है। दोबारा चुनावों के सबसे बड़े विजेता अरब आबादी द्वारा समर्थित जॉइंट यूनिटी लिस्ट है जिसके अगले पार्लियामेंट में 12 सांसद शामिल होंगे।  

चुनाव आयोग के सूत्रों ने कहा कि जहां अप्रैल 9 के चुनाव में 50 फ़ीसदी से भी कम अरब मतदाताओं ने वोट दिया था वहीं इस बार उसमें तकरीबन 13 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हुआ है।

आम तौर पर अरब पार्टियां किसी भी सरकार में शामिल नहीं होतीं मगर गन्त्ज़ ने जॉइंट यूनिटी लिस्ट के नेता अयमान ओदेह से संपर्क किया है।  अरब नेता ने भी अपने पत्ते दबा कर रखे हैं और अपना स्टैंड साफ़ नहीं किया है।

स्पष्ट विजेता की ग़ैर-मौजूदगी में सभी की नज़रें राष्ट्रपति रुबेन रिवलिन की और हैं। उन्होंने कहा है कि वो तीसरे चुनाव को असफल करने के लिए किसी भी हद तक जाएंगे और नई सरकार के गठन के लिए हर सम्भावना पर नज़र डालेंगे।

राष्ट्रपति के मीडिया सलाहकार, जोनाथन कम्मिंग्स, ने कहा कि वो चुनाव आयोग के साथ निरंतर समन्वय बनाए हुए हैं और चुनावी नतीजे सामने आते ही सभी दल के नेताओं से विमर्श करेंगे। राष्ट्रपति के मीडिया सलाहकार ने भी दोहराया कि रिवलिन का पूरा प्रयास रहेगा कि लोगों के मत को ध्यान देते हुए सही फ़ैसला किया जाए, मगर एक और चुनाव होने से रोकने के लिए भी हर संभव प्रयास किए जाएं।

भारत की तुलना बर्बाद हो रहे अर्जेंटीना से क्यों की जा रही है?

भारतीय रिज़र्व बैंक ने जब एक लाख 76 हज़ार करोड़ रुपए भारत सरकार को देने का फ़ैसला किया तो विपक्षी कांग्रेस ने चेताते हुए कहा कि भारत को अर्जेंटीना से सबक़ लेना चाहिए।

दरअसल, अर्जेंटीना की सरकार ने अपने सेंट्रल बैंक को फंड देने के लिए मजबूर किया था।

ये साल 2010 की बात है। अर्जेंटीना की सरकार ने सेंट्रल बैंक के तत्कालीन चीफ़ को बाहर कर बैंक के रिज़र्व फंड का इस्तेमाल अपना क़र्ज़ चुकाने के लिए किया था।

अब भारत सरकार के रिज़र्व बैंक से फ़ंड लेने की तुलना अर्जेंटीना के अपने सेंट्रल बैंक से फंड लेने से की जा रही है।

अर्जेंटीना लातिन अमरीका की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। लेकिन आज अर्जेंटीना की अर्थव्यवस्था बेहद ख़राब दौर में है।

विश्लेषक मानते हैं कि अर्जेंटीना की अर्थव्यवस्था के पटरी से उतरने की शुरुआत तब ही हो गई थी जब सेंट्रल बैंक से ज़बर्दस्ती पैसा लिया गया था।

भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने 2018 में दिए अपने भाषण में अर्जेंटीना के उस प्रकरण का ज़िक्र किया था।

विरल आचार्य ने जब अर्जेंटीना का ज़िक्र किया तब भी ये कयास लगाए गए थे कि केंद्र सरकार भारतीय रिज़र्व बैंक पर दबाव बना रही है।

जनवरी 2010 में अर्जेंटीना की सेंट्रल बैंक के प्रमुख मार्टिन रेड्राडो ने नाटकीय अंदाज़ में इस्तीफ़ा दे दिया था। इससे कुछ दिन पहले ही सरकार ने उन्हें पद से हटाने की कोशिश भी की थी।

इस्तीफ़ा देते हुए उन्होंने कहा था, "सेंट्रल बैंक में मेरा समय समाप्त हो गया है इसलिए मैंने इस पद को हमेशा के लिए छोड़ने का फ़ैसला लिया है। मुझे अपना काम पूरा करने पर संतोष है।''

उन्होंने कहा, "हम इस स्थिति में सरकार की संस्थानों में लगातार दख़ल की वजह से पहुंचे हैं। मूल रूप से मैं दो सिद्धांतों का बचाव कर रहा हूं - सेंट्रल बैंक की निर्णय लेने में स्वतंत्रता और रिज़र्व फंड का इस्तेमाल सिर्फ़ वित्तीय और मौद्रिक स्थिरता के लिए ही किया जाना चाहिए।''

राष्ट्रपति क्रिस्टीना फ़र्नांडेज़ की तत्कालीन सरकार ने दिसंबर 2009 में एक आदेश पारित किया था जिसके तहत सरकार को सेंट्रल बैंक के 6.6 अरब डॉलर मिल जाते। सरकार का दावा था कि सेंट्रल बैंक के पास 18 अरब डॉलर का अतिरिक्त फंड है।

रोड्राडो ने ये फंड सरकार को ट्रांसफर करने से इनकार किया था। इसका ख़ामियाजा उन्हें अपना पद गंवाकर चुकाना पड़ा।

अर्जेंटीना की सरकार ने जनवरी 2010 में भी उन पर दुर्व्यवहार और कर्तव्यों की उपेक्षा का आरोप लगाते हुए उन्हें पद से हटाने की कोशिश की थी लेकिन ये प्रयास नाकाम रहा क्योंकि ये असंवैधानिक था।

रेड्राडो के पद से हटने के बाद सरकार ने उनके डिप्टी मिगेल एंजेल पेसके को प्रमुख बना दिया था। उन्होंने वही किया जो सरकार चाहती थी।

रेड्राडो के पद छोड़ने के बाद अर्जेंटीना की सेंट्रल बैंक की स्वतंत्रता भी सवालों के घेरे में आ गई थी।

न्यूयॉर्क के एक जज थॉमस ग्रीसा ने न्यू यॉर्क के फ़ेडरल रिज़र्व बैंक में रखे अर्जेंटीना के सेंट्रल बैंक के 1.7 अरब डॉलर को फ़्रीज करने का आदेश ये तर्क देते हुए पारित कर दिया था कि अर्जेंटीना का सेंट्रल बैंक स्वायत्त एजेंसी नहीं रह गया है और देश की सरकार के इशारे पर काम कर रहा है।

गोल्डमैन सैक्स बैंक में अर्जेंटीना के विश्लेषक अल्बर्टो रामोस ने फ़रवरी 2010 में कहा था, "सेंट्रल बैंक के रिज़र्व फंड से सरकारी ख़र्चों की पूर्ति करना सकारात्मक क़दम नहीं है। अतिरिक्त रिज़र्व के कांसेप्ट पर निश्चित तौर पर बहस हो सकती है।''

इन्हीं का उल्लेख करते हुए विरल आचार्य ने कहा था कि एक अच्छी तरह से काम कर रही अर्थव्यवस्था के लिए एक स्वतंत्र सेंट्रल बैंक ज़रूरी है। यानी ऐसा सेंट्रल बैंक जो सरकार के दबाव से मुक्त हो।

विरल आचार्य ने कहा था कि सेंट्रल बैंक की स्वतंत्रता को कम करने के ख़तरनाक नतीजे हो सकते हैं। उन्होंने कहा था कि ये सेल्फ़ गोल साबित हो सकता है क्योंकि ये उन पूंजी बाज़ारों में विश्वास का संकट पैदा कर सकता है जिनका इस्तेमाल सरकारें अपने खर्चे पूरा करने के लिए कर रही हों।

उन्होंने कहा था, "जो सरकारें सेंट्रल बैंक की स्वतंत्रता का सम्मान नहीं करेंगी उन्हें आज नहीं तो कल वित्तीय बाज़ारों का क्रोध झेलना होगा। उस दिन को कोसना होगा जिस दिन उन्होंने इस अहम नियामक संस्था की स्वतंत्रता से खिलवाड़ किया।''

भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल ने दिसंबर 2018 में अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था। उन्होंने कहा था कि वो निजी कारणों से इस्तीफ़ा दे रहे हैं लेकिन माना गया था कि उन पर सरकार के इशारों पर चलने का दबाव था।

आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने एक टिप्पणी में कहा था, "सरकार को समझना चाहिए कि उर्जित पटेल ने इस्तीफ़ा क्यों दिया।''

उर्जित पटेल के बाद शक्तिकांत दास को आरबीआई का गवर्नर बनाया गया। आरबीआई गवर्नर का पद संभालने से पहले वो 2015 से 2017 तक आर्थिक मामलों के सचिव भी रह चुके थे।

आईएएस शक्तिकांत दास नरेंद्र मोदी सरकार के नोटबंदी के फ़ैसले से सहमत थे।  

वरिष्ठ पत्रकार प्रंजॉय गुहा ठाकुरता के मुताबिक, "जिस दिन शक्तिकांत दास आरबीआई के गवर्नर बने उसी दिन साफ़ हो गया था कि सरकार जो चाहेगी उसे आरबीआई को करना होगा।''

अब शक्तिकांत दास ने विमल जालान समिति की सिफ़ारिश पर सरकार को रिज़र्व बैंक का वो पैसा दे दिया है जिसे सरकार हासिल करना चाहती थी।

भारत और अर्जेंटीना के घटनाक्रम में फ़र्क ये है कि अर्जेंटीना की सरकार ने आदेश पारित कर सेंट्रल बैंक से पैसा लिया जबकि भारतीय रिज़र्व बैंक ने विमल जालान समिति की सिफ़ारिश पर सरकार को पैसा दिया।

रेड्राडो ने अपना इस्तीफ़ा देते वक़्त सरकार को आड़े हाथों लिया था लेकिन उर्जित पटेल निजी कारण बताकर किनारे हो गए। लेकिन दोनों के ही बाद पद संभालने वाले प्रमुखों ने वही किया जो सरकार चाहती थी।

2003 से 2007 तक राष्ट्रपति रहे नेस्टर कीर्चनर के शासनकाल में अर्जेंटीना की अर्थव्यवस्था कुछ स्थिर हुई। 2007 में अर्जेंटीना ने आईएमएफ़ से लिया पूरा क़र्ज़ चुका दिया था।

लेकिन कीर्चनर के बाद उनकी पत्नी क्रिस्टीना फ़र्नांडेज़ राष्ट्रपति बनीं। क्रिस्टीना फ़र्नांडेज़ के काल में अर्थव्यवस्था फिर अस्थिर हो गई। क्रिस्टीना ने ही आदेश पारित कर देश की सेंट्रल बैंक का पैसा ले लिया था।

क्रिस्टीना फ़र्नांडेज़ के बाद अक्तूबर 2015 में अर्जेंटीना के लोगों ने मॉरीसियो मैकरी को नया राष्ट्रपति चुना था। उम्मीद थी कि वो इस दक्षिण अमरीकी देश की अर्थव्यवस्था को एक स्थिर रास्ते पर ले आएंगे।

उन्होंने देश की अर्थव्यवस्था को फिर से खड़ा करके ग़रीबी को पूरी तरह ख़त्म करने का वादा किया था। लेकिन 2018 आते-आते हालात ये हो गए कि उन्हें अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से क़र्ज मांगना पड़ा।  

अर्जेंटीना की मुद्रा दिन प्रतिदिन गिरती रही और महंगाई बढ़ती गई। रोज़मर्रा का जीवनयापन महंगा होता गया। 2015 में एक डॉलर के बदले 10 पेसो मिलते थे अब एक डॉलर के बदले 60 पेसो मिलते हैं।

तमाम कोशिशों के बावजूद मैकरी सरकार महंगाई कम नहीं कर सकी है। ख़र्च कम करने और क़र्ज़ कम लेने के जिन आर्थिक सुधारों का वादा किया गया था वो लागू नहीं हो सके।

बढ़ती महंगाई और सर्वजनिक ख़र्च में कटौती की वजह से आमदनी क़ीमतों की तुलना में नहीं बढ़ी जिसकी वजह से अधिकतर लोग ग़रीब हो गए। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक़ देश की एक तिहाई आबादी अब ग़रीबी में रह रही है।

अब अर्जेंटीना लगातार जटिल हो रहे आर्थिक संकट में फंस गया है जिससे बाहर निकलने का रास्ता नज़र नहीं आ रहा है। क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों ने देश के दीवालिया होने का अंदेशा ज़ाहिर कर दिया है।

भारतीय रुपया डॉलर के मुक़ाबले लगातार टूट रहा है। बेरोज़गारी दर बीते 45 सालों में सर्वोच्च स्तर पर है। जीडीपी की दर सात सालों में सबसे कम होकर सिर्फ़ पांच प्रतिशत रह गई है। अर्थव्यवस्था में सुस्ती के संकेत स्पष्ट नज़र आ रहे हैं।

बावजूद इसके मोदी सरकार कह रही है देश में सब ठीक है। अर्थव्यवस्था पांच ट्रिलियन डॉलर का आंकड़ा छूने की ओर अग्रसर है। ये अलग बात है कि सरकार के सहयोगी ही इन दावों पर सवाल उठा रहे हैं।

हाल ही में किए एक ट्वीट में भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने कहा है, "अगर नई आर्थिक नीति नहीं आ रही है तो 5 ट्रिलियन को गुडबॉय कहने के लिए तैयार रहें। सिर्फ़ बहादुरी या सिर्फ़ ज्ञान अर्थव्यवस्था को बर्बाद होने से नहीं रोक सकते। अर्थव्यवस्था को दोनों की ज़रूरत होती है।  आज हमारे पास दोनों में से कोई नहीं है।''

क्या नया तलाक कानून भारतीय मुस्लिम महिलाओं की रक्षा कर सकता है?

एक व्यक्ति द्वारा अपनी पत्नी को तलाक देने के लिए तथाकथित 'ट्रिपल तलाक़' का उपयोग अब भारत में गैरकानूनी है

भारत में एक मुस्लिम व्यक्ति अब अपनी पत्नी को केवल तीन बार "तलाक" - अरबी शब्द का उच्चारण करके अपनी पत्नी को तलाक नहीं दे सकता है।

यदि पति ऐसा करने की कोशिश करता है - तो उसे अब तीन साल तक की जेल हो सकती है।

भारत की संसद द्वारा तात्कालिक तलाक की तथाकथित 'ट्रिपल तलाक़' विधि का अपराधीकरण किया गया है।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रथा को असंवैधानिक घोषित किए जाने के दो साल बाद मंगलवार को उच्च सदन ने विधेयक पारित किया।

लेकिन यह तेजी से कानून बनाने वालों और प्रचारकों में विभाजित है। उन लोगों का कहना है कि नया उपाय मुस्लिम महिलाओं की सुरक्षा करता है।
विरोधियों का कहना है कि तलाक को आपराधिक बनाना असामान्य है, और सजा कठोर है।

अन्य लोगों का तर्क है कि शादी की समस्याओं की समीक्षा समुदाय के नेताओं द्वारा की जानी चाहिए, न कि सरकार द्वारा।

तो, क्या यह राजनीति से प्रेरित है?