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क्या श्रीवास्तव ग्रुप के विदेश में फ़ेक लोकल न्यूज़ आउटलेट हैं?

यूरोप के एक ग़ैर सरकारी फ़ैक्ट चेक एनजीओ ईयू डिसइंफ़ो लैब का दावा है कि एक भारतीय नेटवर्क दुनिया के 65 देशों में 265 'फ़ेक मीडिया आउटलेट' के ज़रिए पाकिस्तान विरोधी प्रोपेगैंडा फ़ैलाने का काम कर रहा है। इन सभी 'फ़ेक मीडिया आउटलेट्स' के तार दिल्ली के श्रीवास्तव ग्रुप से जुड़े हुए हैं।

ये वही श्रीवास्तव ग्रुप है जिसके इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर नॉन-अलाइंड स्ट्डीज़ (आईआईएनएस) ने इस साल अक्टूबर में 23 ईयू सांसदों के ग़ैर-सरकारी कश्मीर दौरे और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाक़ात की सारी व्यवस्था की थी।

यूरोपीय संघ ने रूस की ओर से फ़ैलाए जा रहे फ़ेक न्यूज़ से निपटने के लिए एक फ़ोरम बनाया है। ये स्वतंत्र फ़ैक्ट चेक यूरोप में फ़ेक प्रोपेगैंडा की पहचान करने के लिए काम कर रही है। इन सभी 265 आउटलेट का ज़्यादातर कंटेंट पाकिस्तान-विरोधी ख़बरों से भरा हुआ है।

ईयू की डिसइंफ़ो लैब ने अपनी परत-दर-परत पड़ताल में पाया है कि कैसे दिल्ली का श्रीवास्तव ग्रुप विदेश में चल रहे ''फ़ेक लोकल न्यूज़ आउटलेट'' से जुड़ा है।

डिसइंफ़ो लैब ने पाया कि कई लोग रूस की ओर से फैलाए जा रहे झूठ को ईपी टुडे वेबसाइट के हवाले से शेयर कर रहे हैं। इसके बाद लैब ने इस वेबसाइट की पड़ताल शुरू की तो सामने आया कि ये वेबसाइट भारत से जुड़ी हुई है। इसके बाद पड़ताल में एक के बाद एक कई विदेशी वेबसाइट सामने आईं जिनके तार दिल्ली से जुड़े मिले।  

बीबीसी के मुताबिक, इस पूरे मामले पर श्रीवास्तव ग्रुप का रुख़ जानने के लिए हम आधिकारिक वेबसाइट पर दिए गए पते A2/59 सफ़दरजंग पहुंचे। इस पते पर एक घर मिला जिसके गेट पर खड़े सिक्योरिटी गार्ड ने हमे अंदर जाने से रोक दिया। उसने हमें बताया कि यहां कोई ऑफ़िस नहीं है। इस वेबसाइट पर कोई ईमेल आईडी नहीं दी गई है जिससे संपर्क किया जा सके। हमने दिए गए नंबर पर फोन किया तो जवाब मिला कि ''सर आपको फ़ोन कर लेंगे।''

इस मामले पर हमने भारत के विदेश मंत्रालय को एक मेल के ज़रिए पूछा है कि क्या ऐसी वेबसाइट्स की जानकारी मंत्रालय के पास है। और क्या किसी भी तरीके से इसका ताल्लुक भारत सरकार से है? ये रिपोर्ट लिखे जाने तक हमें मंत्रालय की ओर से कोई जवाब नहीं मिला है।

9 अक्टूबर को ईयू के डिसइंफ़ो लैब ने ट्विटर पर सिलसिलेवार तरीके से बताया कि उसकी पड़ताल में कैसे भारत के श्रीवास्तव ग्रुप की भूमिका सामने आई?

-  ईपी टुडे की ऑफ़िशियल वेबसाइट पर इसका पता ब्रसेल्स, बेल्जियम का दिया गया है। इसके बाद श्रीवास्तव ग्रुप की आधिकारिक वेबसाइट छानी। इस ग्रुप का मुख्यालय दिल्ली में है और एक कार्यालय बेल्जियम, स्विट्ज़रलैंड और कनाडा में है। खास बात ये है कि ईपी टुडे और श्रीवास्तव ग्रुप का बेल्जियम स्थित दफ़्तर एक ही पते पर है।

-  डिसइंफ़ो लैब का कहना है कि ईपी टुडे की आईपी हिस्ट्री सर्च करने पर पता चला कि इसे उसी सर्वर पर होस्ट किया गया था जिस पर श्रीवास्तव ग्रुप को होस्ट किया गया था। यानी पहले दोनों ही वेबसाइट को एक सर्वर पर होस्ट किया गया था।

-  http://eptoday.com का ओरिजनल रजिस्ट्रेशन http://UIWNET.COM से जुड़ा हुआ था। UIWNET.COM और श्रीवास्तव ग्रुप का होस्ट सर्वर एक है।

- इस साल अक्टूबर में आई एक रिपोर्ट में बताया गया कि ईपी टुडे के फ़ेसबुक पेज को चार लोग दिल्ली से चला रहे है। जब बीबीसी ने इसकी पड़ताल की तो पाया कि इसका फ़ेसबुक पेज सस्पेंड किया जा चुका है।

-  ये भारतीय ग्रुप जेनेवा में भी काम कर रहा है, जहां संयुक्त राष्ट्र की रिफ़्यूजी एजेंसी है। टाइम्स ऑफ़ जेनेवा (timesofgeneva.com) नाम से एक ऑनलाइन न्यूज़पेपर चलाया जा रहा है। इस वेबसाइट पर दावा किया जा रहा है कि ''35 साल से वो इस बिज़नेस में हैं।''

-  टाइम्स ऑफ़ जेनेवा पर वहीं कटेंट है जो ईपी टुडे पर छापा जा रहा है।  टाइम्स ऑफ़ जेनेवा की साइट पर वीडियो भी है, जो या तो पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों के हालत की बात करता है या फिर गिलगित-बल्तिस्तान पर फ़ोकस है। टाइम्स ऑफ़ जेनेवा पर पाकिस्तानी अल्पसंख्यकों के प्रदर्शन पर काफ़ी कवरेज की गई।

-  डिसइंफ़ो लैब का दावा है कि टाइम्स ऑफ़ जेनेवा के सर्वर पर एक एनजीओ की वेबसाइट pakistaniwomen.org भी चल रही है। लैब की पड़ताल वेबसाइट से होते हुए यूरोपीय ऑर्गनाइजेशन फॉर पाकिस्तानी माइनॉरिटी (ईओपीएम) के ट्विटर हैंडल तक पहुंची। इस संस्था का पता, ईपी टुडे का पता और श्रीवास्तव ग्रुप के ब्रसेल्स दफ्तर का पता एक ही है।

- अब इस मामले में एक तीसरा प्लेयर सामने आता है 4NewsAgency।  इसकी वेबसाइट पर दी जानकारी के मुताबिक ये बेल्जियम, स्विट्ज़रलैंड, थाइलैंड और अबू धाबी की चार न्यूज़ एजेंसियों का एक समूह है। हालांकि ये नहीं बताया गया है कि ये चार एजेंसियां हैं कौन-कौन सी।

-  दावा ये है कि इसकी टीम 100 देशों में काम कर रही है लेकिन वेबसाइट पर बेल्जियम और जेनेवा के दो दफ़्तरों का ही पता दिया गया है। एक बात जो इनमें एक है कि ईपी टुडे, जेनेवा टाइम्स, 4newsagency और श्रीवास्तव ग्रुप इन सभी का दफ़्तर बेल्जियम और जेनेवा में ही है।

- 4newsagency, ईपी टुडे, जेनेवा टाइम्स और श्रीवास्तव ग्रुप के बीच लिंक को विस्तार से समझने के लिए बीबीसी ने डिसइंफ़ो लैब को ईमेल लिखा जिसके जवाब में पता चला कि ये सभी फ़ेक मीडिया आउटलेट इस एजेंसी से जुड़े हुए हैं। इन वेबसाइट पर एक ही तरह के कंटेंट का इस्तेमाल हो रहा है।

-  डिसइंफ़ो लैब का कहना है कि 21 ऐसे डोमेन हैं जो एक सर्वर से चल रहे हैं और इसमें श्रीवास्तव ग्रुप का नाम शामिल है।

- डिसइंफ़ो लैब को 2018 में लिखा गया एक लेटर मिला है। माडी शर्मा के ही ग़ैर सरकारी संगठन WESTT ने आधिकारिक रूप से यूरोपीय संसद के पूर्व अध्यक्ष एंटोनियो ताजानी को पत्र लिखा था कि वह पाकिस्तानी अल्पसंख्यकों पर EP टुडे के ऑप-एड का समर्थन करें। माडी शर्मा के ही इस संगठन ने 23 ईयू सांसदों का भारत दौरा आयोजित किया था।

-  बीबीसी ने अपनी पड़ताल में पाया है कि माडी शर्मा ईपी टुडे पर लेख लिखती हैं।

-  एक ही नाम का शख़्स ईपी टुडे पर लेख भी लिख रहा है और माडी शर्मा के थिंकटैंक WESTT के लिए काम भी कर रहा है।

ये वेबसाइट काम क्या करती हैं?
-  डिसइंफ़ो लैब का दावा है कि ये '265 फ़ेक लोकल न्यूज़ आउटलेट' अंतराष्ट्रीय संस्थाओं को प्रभावित करने का काम करते हैं।
-  अपनी विश्वसनीयता को मज़बूत बनाने के लिए एनजीओ को खास तरह के विरोध प्रदर्शनों की प्रेस रिलीज़ मुहैया करती हैं।
-  ये सभी मीडिया आउटलेट एक दूसरे को कोट करते हैं, एक ही रिपोर्ट को अपने प्लेटफॉर्म पर छापते हैं। ये इस तरह किया जाता है कि पढ़ने वाला खबरों के साथ होने वाले हेर-फ़ेर को समझ ही नहीं पाता। इसका काम भारत के लिए अंतराष्ट्रीय सपोर्ट को बढ़ाना है।
-  खबरों-संपादकीयों के ज़रिए लोगों के बीच पाकिस्तान की छवि को तोड़-मरोड़ कर पेश करना।

श्रीवास्तव ग्रुप तब चर्चा में आया जब इस साल अक्टूबर में 23 ईयू सांसद ग़ैर सरकारी दौरे पर भारत आए। माडी शर्मा का एनजीओ विमेंस इकोनॉमिक एंड सोशल थिंक टैंक (WESTT) यूरोपीय सांसदों को भारत लेकर आया था। सांसदों को भेजे अपने निमंत्रण में कहा था कि आने जाने का ख़र्च भारत स्थित इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ नॉन अलाइड स्टडीज़ (आईआईएनएस) उठाएगा।

इंस्टीट्यूट ऑफ नॉन अलाइड स्टडीज़ ग़ैर सरकारी संगठन है जिसकी स्थापना 1980 में की गई थी। श्रीवास्तव ग्रुप की वेबसाइट पर बताया गया है कि आई आई एन एस उनकी संस्था है। इसके अलावा इस समूह के कुछ अखबार डेल्ही टाइम्स (अंग्रेजी), नई दिल्ली टाइम्स (हिंदी) भी छपते हैं। हालांकि इन समाचार पत्रों का सर्कुलेशन कितना है इसकी कोई जानकारी वेबसाइट पर नहीं दी गई है।

द वायर में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक श्रीवास्तव ग्रुप की कई कंपनियां हैं। लेकिन रजिस्ट्रार ऑफ़ कंपनी के पास दाखिल किए गए दस्तावेज़ों से पता चलता है कि इसकी ज़्यादतर कंपनी बिजनेस नहीं कर रही हैं। उनके पास पैसे ही नहीं हैं।

इस ग्रुप की कुल सात कंपनियां चल रही हैं, जिसके बोर्ड में नेहा श्रीवास्तव और अंकित श्रीवास्तव का नाम कॉमन है।

रिपोर्ट के मुताबिक A2N ब्रॉडकास्टिंग ने पिछले साल 2000 रुपये का घाटा दर्ज किया। इस कंपनी की कोई कमाई नहीं है। इसके पास 10 हज़ार रुपये का बैलेंस सिटी बैंक में है और 10 हज़ार ओरिएंटल बैंक में।

इस कंपनी के पास कोई बड़े मुनाफ़े का कारोबार नहीं है।

बीबीसी के मुताबिक, सफ़दरजंग एन्क्लेव में A2/59 पते को हमने खंगालना शुरू किया तो साल 2018 की इंडियन इस्लामिक कल्चर सेंटर की एक इलेक्टोरल लिस्ट मिली, जिसके मुताबिक़ इस पते पर अंकित श्रीवास्तव और नेहा श्रीवास्तव रहते हैं।

ये दोनों ही श्रीवास्तव समूह से जुड़े हैं। डॉ. अंकित श्रीवास्तव इस समूह के वाइस चेयरमैन है। वहीं, नेहा श्रीवास्तव वाइस चेयरपर्सन है। लेकिन इस पते पर एक दफ़्तर होने का दावा किया जा रहा है।

बीबीसी के मुताबिक, इसके बाद हमने इनके सोशल मीडिया अकाउंट खंगाले तो अंकित श्रीवास्तव की ट्विटर प्रोफ़ाइल मिली। इस प्रोफ़ाइल पर 10 हज़ार से ज्यादा फॉलोअर हैं और उन्होंने ख़ुद को न्यू डेल्ही टाइम्स का एडिटर इन चीफ़ बताया है। अंकित श्रीवास्तव की लिंक्डइन प्रोफ़ाइल पर भी यही जानकारी दी गई है।

बीबीसी के मुताबिक, कई कोशिशों के बाद भी श्रीवास्तव ग्रुप के किसी भी प्रतिनिधि से हमारी बात नहीं हो सकी।

अयोध्या फ़ैसले से बाबरी मस्जिद तोड़ने वालों की मांग पूरी

भारत में सुप्रीम कोर्ट ने नौ नवंबर को अयोध्या में विवादित ज़मीन पर फ़ैसला सुनाते हुए मंदिर बनाने का रास्ता साफ़ कर दिया है।

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पाँच जजों की बेंच ने सर्वसम्मति से फैसला मंदिर के पक्ष में सुनाया लेकिन साथ में यह भी कहा कि बाबरी मस्जिद तोड़ना एक अवैध कृत्य था।

फैसला में सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि मस्जिद के नीचे एक संरचना थी जो इस्लामी नहीं थी, लेकिन यह भी कहा है कि मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाए जाने का दावा भारतीय पुरातत्वविदों ने नहीं किया।

जब यह फ़ैसला आया तो अलग-अलग तरह से व्याख्या शुरू हुई। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस गांगुली उन पहले लोगों में थे जिन्होंने अयोध्या फ़ैसले पर कई सवाल खड़े किए। जस्टिस गांगुली का मुख्य सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने जिस आधार पर हिन्दू पक्ष को विवादित ज़मीन देने का फ़ैसला किया है, वो उनकी समझ में नहीं आया।

इन्हीं तमाम मुद्दों पर बीबीसी की भारतीय भाषाओं की संपादक रूपा झा ने जस्टिस गांगुली से बात की और उनसे पूछा कि इस फ़ैसले पर उनकी आपत्ति क्या और क्यों है? जस्टिस गांगुली का कहना है कि जिस तरह से ये फ़ैसला दिया गया वो उन्हें परेशान करता है।

उन्होंने कहा, ''बाबरी मस्जिद लगभग 450-500 सालों से वहां थी। यह मस्जिद 6 दिसंबर 1992 में तोड़ दी गई। मस्जिद का तोड़ा जाना सबने देखा है। इसे लेकर आपराधिक मुक़दमा भी चल रहा है। सुप्रीम कोर्ट की इस बेंच ने भी मस्जिद तोड़े जाने को अवैध कहा है और इसकी आलोचना की है। इसके साथ ही अदालत ने ये फ़ैसला दिया कि मस्जिद की ज़मीन रामलला यानी हिन्दू पक्ष की है। इसका कोई प्रमाण नहीं है कि मस्जिद जहां थी वहां मंदिर था और उसे तोड़कर बनाया गया था। कहा गया कि मस्जिद के नीचे कोई संरचना थी लेकिन इसके कोई सबूत नहीं हैं कि वो मंदिर ही था।''

जस्टिस गांगुली कहते हैं ये उनकी पहली आपत्ति है। दूसरी आपत्ति बताते हुए कहते हैं, ''विवादित ज़मीन देने का आधार पुरातात्विक साक्ष्यों को बनाया गया है। लेकिन यह भी कहा गया है कि पुरातात्विक सबूतों से ज़मीन के मालिकाना हक़ का फ़ैसला नहीं हो सकता। ऐसे में सवाल उठता है कि फिर किस आधार पर ज़मीन दी गई?''

सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या पर इस फ़ैसले में पुरातात्विक सबूतों के अलावा यात्रा वृतांतों का भी ज़िक्र किया है। इस पर जस्टिस गांगुली कहते हैं, ''यात्रा वृतांत सबूत नहीं हो सकता। इतिहास भी सबूत नहीं हो सकता। अगर हम पुरातात्विक खुदाई के आधार पर सबूतों का सहारा लेंगे कि वहां पहले कौन सी संरचना थी तो इसके ज़रिए हम कहां जाएंगे?''

''यहां तो मस्जिद पिछले 500 सालों से थी और जब से भारत का संविधान अस्तित्व में आया तब से वहां मस्जिद थी। संविधान के आने के बाद से सभी भारतीयों का धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार मिला हुआ है।  अल्पसंख्यकों को भी अपने धार्मिक आज़ादी मिली हुई है। अल्पसंख्यकों का यह अधिकार है कि वो अपने धर्म का पालन करें। उन्हें अधिकार है कि वो उस संरचना का बचाव करें। बाबरी मस्जिद विध्वंस का क्या हुआ?''

जस्टिस गांगुली कहते हैं, ''2017 में स्टेट बनाम कल्याण सिंह के पैरा 22 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि बाबरी विध्वंस एक ऐसा अपराध था जिससे भारतीय संविधान की धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों को आघात पहुंचा है। ये मुक़दमा अभी चल रहा है और जिसने अपराध किया है उसे दोषी ठहराया जाना बाक़ी है। अपराध हुआ है इसमें कोई संदेह नहीं है और इससे भारतीय संविधान में लिखित धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों का गंभीर उल्लंघन हुआ है। ये बात सुप्रीम कोर्ट ने कही है। इसे अभी तय करना बाक़ी है कि किसने यह जुर्म किया था?''

क्या बाबरी विध्वंस का मामला अब तार्किक निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाएगा? इस सवाल के जवाब में जस्टिस गांगुली कहते हैं, ''मुझे नहीं पता कि इसका अंत क्या होगा। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी विध्वंस की कड़ी निंदा की है। सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा पहले भी किया था और इस फ़ैसले में भी किया है। अब आप वो ज़मीन हिन्दू पक्ष को दे रहे हैं और उसके आधार हैं पुरातात्विक सबूत, यात्रा वृतांत और आस्था।''

''क्या आप आस्था को आधार बनाकर फ़ैसला देंगे? एक आम आदमी इसे कैसे समझेगा? ख़ास करके उनके लिए जो क़ानून का दांव पेच नहीं समझते हैं। लोगों ने यहां वर्षों से एक मस्जिद देखी। अचानक से वो मस्जिद तोड़ दी गई। यह सबको हैरान करने वाला था। यह हिन्दुओं के लिए भी झटका था। जो असली हिन्दू हैं वो मस्जिद विध्वंस में भरोसा नही कर सकते। यह हिंदुत्व के मूल्यों के ख़िलाफ़ है। कोई हिन्दू मस्जिद तोड़ना नहीं चाहेगा। जो मस्जिद तोड़ेगा वो हिन्दू नहीं है। हिन्दूइज़म में सहिष्णुता है। हिन्दुओं के प्रेरणास्रोत चैतन्य, रामकृष्ण और विवेकानंद रहे हैं।''

जस्टिस गांगुली कहते हैं, ''मस्जिद तोड़ दी गई और अब कोर्ट ने वहां मंदिर बनाने की अनुमति दे दी है। जिन्होंने मस्जिद तोड़ी थी उनकी तो यही मांग थी और मांग पूरी हो गई है। दूसरी तरफ़, बाबरी विध्वंस के मामले पेंडिंग हैं। जिन्होंने क़ानून-व्यवस्था तोड़ी और संविधान के ख़िलाफ़ काम किया उन्हें कोई सज़ा नहीं मिली और विवादित ज़मीन पर मंदिर बनाने का फ़ैसला आ गया।''  

''मैं सुप्रीम कोर्ट का हिस्सा रहा हूं और उसका सम्मान करता हूं लेकिन यहां मामला संविधान का है। संविधान के मौलिक कर्तव्य में यह लिखा है कि वैज्ञानिक तर्कशीलता और मानवता को बढ़ावा दिया जाए। इसके साथ ही सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा की जाए, मस्जिद सार्वजनिक संपत्ति ही थी, यह संविधान के मौलिक कर्तव्य का हिस्सा है। मस्जिद तोड़ना एक हिंसक कृत्य था।''

अगर जस्टिस गांगुली को यह फ़ैसला देना होता तो वो क्या करते?

इस सवाल के जवाब में जस्टिस गांगुली कहते हैं, ''यह एक काल्पनिक सवाल है। फिर मैं कहता सकता हूं अगर मुझे फ़ैसला देना होता तो पहले मस्जिद बहाल करता और साथ ही लोगों को भरोसे में लेता ताकि न्याय की प्रक्रिया में निष्पक्षता और संविधान के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की अहमियत स्थापित हो। अगर ये नहीं हो पाता तो मैं किसी के भी पक्ष में किसी निर्माण का फ़ैसला नहीं देता। यहां कोई सेक्युलर इमारत बनाने का आदेश दे सकता था जिनमें स्कूल, संग्रहालय या यूनिवर्सिटी हो सकती थी। मंदिर और मस्जिद कहीं और बनाने का आदेश देता, जहां विवादित ज़मीन नहीं होती।''

अयोध्या पर पाँच जजों के जजमेंट में अलग से एक परिशिष्ट जोड़ा गया है और उसमें किसी जज का हस्ताक्षर नहीं है। इस पर जस्टिस गांगुली क्या सोचते हैं? जस्टिस गांगुली ने कहा कि यह असामान्य है लेकिन वो इस पर नहीं जाना चाहते। इस फ़ैसले का गणतांत्रिक भारत और न्यायिक व्यवस्था पर क्या असर पड़ेगा?

इस सवाल के जवाब में जस्टिस गांगुली कहते हैं, ''इस फ़ैसले से जवाब कम और सवाल ज़्यादा खड़े हुए हैं। मैं इस फ़ैसले से हैरान और परेशान हूं। इसमें मेरा कोई निजी मामला नहीं है।''

इस फ़ैसले का असर बाबरी विध्वंस केस पर क्या पड़ेगा? जस्टिस गांगुली ने कहा कि वो उम्मीद करते हैं कि इसकी जांच स्वतंत्र रूप से हो और मामला मुकाम तक पहुंचे।''

क्या बाबरी मस्जिद के बदले में मुस्लिम पक्ष ज़मीन लेने से इनकार भी कर सकता है?

भारत में अयोध्या विवाद में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को दी जाने वाली पांच एकड़ ज़मीन को लेकर चर्चा काफ़ी गरम हो रही हैं।

एक ओर सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड पर इस ज़मीन को न लेने का दबाव पड़ रहा है तो दूसरी ओर ये चर्चा भी है कि यह ज़मीन कहां मिलेगी?

इस मामले में मुस्लिम समुदायों और संगठनों के बीच असहमति के स्वर भी सुनाई पड़ रहे हैं।

सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड ने जहां फ़ैसला सुनाए जाने के तुरंत बाद इसे स्वीकार करने और आगे कहीं चुनौती न देने की घोषणा की और जिसका कई मुस्लिम धर्म गुरुओं ने भी समर्थन किया, वहीं ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को चुनौती देने की तैयारी कर रहा है।

पर्सनल लॉ बोर्ड इस विवाद में अन्य पक्षकारों की ओर से पैरोकार रहा है।

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड आगामी 17 नवंबर को लखनऊ में एक बैठक करने जा रहा है जिसमें इस बात पर फ़ैसला लिया जाएगा कि इसे आगे चुनौती देनी है या फिर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर आगे कोई और क़दम उठाना है।

बोर्ड के सदस्य और वकील ज़फ़रयाब जिलानी कहते हैं, "हमारा यही कहना है कि मुस्लिम पक्ष ने सुप्रीम कोर्ट से किसी अन्य स्थान पर ज़मीन मांगी नहीं थी। हम तो विवादित स्थल पर मस्जिद की ज़मीन वापस मांग रहे थे। अगर हम लोगों ने पुनर्विचार याचिका दायर की तो उसमें यह बिंदु भी शामिल होगा।''

वहीं मुस्लिम समुदाय में इस बात की भी चर्चा है कि सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को सुप्रीम कोर्ट के इस प्रस्ताव को स्वीकार करना चाहिए या नहीं।

इस चर्चा की शुरुआत एआईएमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी ने की जिसका कई और लोग समर्थन कर रहे हैं।

ओवैसी ने तो साफ़तौर पर इसे ख़ैरात बताते हुए कहा, "भारत के मुसलमान इतने सक्षम हैं कि वो कि ज़मीन ख़रीद कर मस्जिद बना सकते हैं। मेरा मानना है कि सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को इस प्रस्ताव को इनकार कर देना चाहिए।''

वहीं सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड के चेयरमैन ज़फ़र फ़ारूकी ओवैसी की बात को तो तवज्जो नहीं देते लेकिन कहते हैं कि इसका फ़ैसला वक़्फ़ बोर्ड की बैठक के बाद किया जाएगा।

बीबीसी से बातचीत में फ़ारूक़ी कहते हैं, "हम बोर्ड की जल्द ही बैठक बुला रहे हैं और उसमें तय करेंगे कि सुप्रीम कोर्ट की ये पेशकश स्वीकार करें या न करें। यदि बोर्ड यह ज़मीन स्वीकार करेगा तो उसके बाद ही यह तय होगा कि उस पांच एकड़ ज़मीन पर क्या बनेगा, मस्जिद या फिर कुछ और।''

"ज़मीन कहां दी जाएगी यह केंद्र और राज्य सरकार को तय करना है, इस बारे में हम किसी ख़ास स्थान पर ज़मीन देने की मांग नहीं करेंगे लेकिन सरकार चाहे तो अधिग्रहीत स्थल में ही यह ज़मीन दे सकती है।''

हालांकि मुस्लिम समुदाय में इस बात की भी चर्चा ख़ासतौर पर हो रही है कि यह पांच एकड़ ज़मीन आख़िर मिलेगी कहां क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश में यह स्पष्ट नहीं है।

दूसरी ओर, कुछ हिन्दू संगठन अभी भी इस बात पर अड़े हैं कि अयोध्या के भीतर मस्जिद बनाने के लिए ज़मीन बिल्कुल नहीं देने दी जाएगी।

एक हिन्दू संगठन के पदाधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, "चौदह कोसी के बाहर ही पांच एकड़ ज़मीन दी जा सकती है। यदि सरकार अयोध्या में जन्म भूमि के आस-पास यह ज़मीन देने की कोशिश करेगी तो हिन्दू संगठन इसके ख़िलाफ़ सड़कों पर भी उतर सकते हैं।''

"अधिग्रहीत ज़मीन वाले इलाक़े में देने का तो सवाल ही नहीं उठता है क्योंकि इससे तो भविष्य में फिर से विवाद खड़ा हो सकता है।''

लेकिन अयोध्या के कुछ मुसलमान युवकों से बातचीत में यही लगा कि वो फ़ैसले से भले ही ख़ुश न हों लेकिन यदि अधिग्रहीत परिसर के भीतर ज़मीन मिलती है तो शायद उन्हें इस फ़ैसले का अफ़सोस कुछ कम हो जाए।

अयोध्या के ही निवासी बबलू ख़ान कहते हैं, "सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला दिया है, न्याय नहीं किया है। हम इसमें अब कुछ कर भी नहीं सकते हैं लेकिन यदि उसी जगह पर ज़मीन मिलती है तो मस्जिद दोबारा बनाई जा सकती है।''

मुस्लिम समुदाय के कुछ और लोगों की भी मांग है कि यह ज़मीन उसी 67 एकड़ के एरिया में मिलनी चाहिए, जिसका केंद्र सरकार ने अधिग्रहण किया था।

बताया जा रहा है कि सरकार मस्जिद बनाने के लिए अयोध्या के भीतर किसी भी जगह ज़मीन दे सकती है।

पंचकोसी या चौदह कोसी सीमा के भीतर ज़मीन देने का कुछ हिन्दू संगठन विरोध कर सकते हैं लेकिन इसमें सरकार को शायद इसलिए कोई समस्या न हो क्योंकि अब अयोध्या का दायरा भी काफ़ी बढ़ गया है।

पहले अयोध्या सिर्फ़ एक क़स्बा था लेकिन अब फ़ैज़ाबाद ज़िले का नाम ही अयोध्या हो गया है। तो क्या फ़ैज़ाबाद जिला का नाम बदलकर अयोध्या करने के पीछे यह रणनीति थी !

आरसीईपी समझौते में शामिल होने से भारत ने क्यों किया इनकार

भारत ने आसियान देशों के प्रस्तावित मुक्त व्यापार समझौते आरसीईपी यानी रीजनल कॉम्प्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप में शामिल नहीं होने का फ़ैसला किया है।

भारत सरकार का कहना है कि आरसीईपी में शामिल होने को लेकर उसकी कुछ मुद्दों पर चिंताएं थीं, जिन्हें लेकर स्पष्टता न होने के कारण देश हित में यह क़दम उठाया गया है।

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे 'अपनी आत्मा की आवाज़' पर लिया फ़ैसला बताया है, जबकि कांग्रेस इसे अपनी जीत के तौर पर पेश कर रही है।

सोमवार को जब नरेंद्र मोदी ने बैंकॉक में आरसीईपी सम्मेलन में हिस्सा लिया तो सबकी निगाहें इस बात पर टिकी थीं कि वह भारत को इस समझौते में शामिल करेंगे या नहीं।

माना जा रहा था कि भारत इस व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर कर देगा और इसी बात को लेकर कई किसान और कारोबारी संगठन विरोध कर रहे थे।

मगर आरसीईपी सम्मेलन के बाद शाम को भारत के विदेश मंत्रालय के सचिव (पूर्व) विजय ठाकुर सिंह ने बताया कि शर्तें अनुकूल न होने के कारण राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए भारत ने आरसीईपी में शामिल नहीं होने का फ़ैसला किया है।

उन्होंने कहा कि आरसीईपी को लेकर भारत के मसलों और चिंताओं का समाधान न होने के कारण इसमें शामिल होना संभव नहीं है।

उन्होंने सम्मेलन में नरेंद्र मोदी की ओर से दिया गया बयान भी पढ़ा, जिसमें उन्होंने महात्मा गांधी के जंतर और अपनी अंतरात्मा के कारण यह फैसला लेने की बात कही थी।

विजय ठाकुर सिंह ने कहा, "इस विषय पर टिप्पणी करते हुए प्रधानमंत्री ने बताया कि भारतीयों और ख़ासकर समाज के कमज़ोर वर्गों के लोगों और उनकी आजीविका पर होने वाले प्रभाव के बारे में सोचकर उन्होंने यह फ़ैसला लिया है। प्रधानमंत्री को महात्मा गांधी की उस सलाह का ख्याल आया, जिसमें उन्होंने कहा था कि सबसे कमज़ोर और सबसे ग़रीब शख़्स का चेहरा याद करो और सोचो कि जो कदम तुम उठाने जा रहे हो, उसका उन्हें कोई फ़ायदा पहुंचेगा या नहीं।''

"भारत आरसीईपी की चर्चाओं में शामिल हुआ और उसने अपने हितों को सामने रखते हुए मज़बूती से मोलभाव किया। अभी के हालात में हमें लगता है कि समझौते में शामिल न होना ही भारत के लिए सही फैसला है।  हम इस क्षेत्र के साथ कारोबार, निवेश और लोगों के रिश्तों को प्रगाढ़ करना जारी रखेंगे।''

आरसीईपी एक व्यापार समझौता है, जो इसके सदस्य देशों के लिए एक-दूसरे के साथ व्यापार करने को आसान बनाता है।

इस समझौते के तहत सदस्य देशों को आयात-निर्यात पर लगने वाला टैक्स या तो भरना ही नहीं पड़ता या फिर बहुत कम भरना पड़ता है।

आरसीईपी में 10 आसियान देशों के अलावा भारत, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड के शामिल होने का प्रावधान था। अब भारत इससे दूर रहेगा।

आरसीईपी को लेकर भारत में लंबे समय से चिंताएं जताई जा रही थीं।  किसान और व्यापारी संगठन इसका यह कहते हुए विरोध कर रहे थे कि अगर भारत इसमें शामिल हुआ तो पहले से परेशान किसान और छोटे व्यापारी तबाह हो जाएंगे।

अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्‍वय समिति से जुड़े स्वराज पार्टी के नेता योगेंद्र यादव ने आरसीईपी से बाहर रहने के भारत के फैसले को अहम बताते हुए कहा कि प्रधानमंत्री ने जनमत का सम्मान किया है।

योगेंद्र यादव ने कहा, "बहुत बड़ा और गंभीर फैसला है। और बहुत अच्छा फैसला है। इसके लिए भारत सरकार को और प्रधानमंत्री को बधाई दी जानी चाहिए।''

''आरसीईपी में शामिल होना भारत के किसानों के लिए, भारत के छोटे व्यापारियों के लिए बड़े संकट का विषय बन सकता था।''

''आगे चलकर इसका परिणाम बहुत बुरा हो सकता था। इसके बारे में तमाम तरह के सवाल उठाए जा रहे थे। सरकार इन सब सवालों के बावजूद आगे बढ़ी। ऐसा लग रहा था कि जाकर हस्ताक्षर कर देंगे। लेकिन आखिर में जनमत का सम्मान करते हुए प्रधानमंत्री ने ऐसा ना करने का फैसला किया। कुल मिलाकर राष्ट्रीय हित में फैसला हुआ।''

योगेंद्र यादव ने कहा कि देश के तमाम किसान संगठनों ने एक स्वर में इस समझौते का विरोध किया था। बीजेपी और आरएसएस के साथ जुड़े किसान संगठन भी विरोध करने वालों में शामिल थे।

वो कहते हैं, "यहां तक कि सरकार के नज़दीक मानी जानी वाली अमूल डेयरी ने भी इसका विरोध किया था। बीजेपी के खुद के मंत्री दबे स्वर में इसकी आलोचना कर चुके थे। कई राज्य सरकारें इस पर सवाल उठा चुकी थीं। कुछ दिन पहले कांग्रेस ने अपनी नीति बदलते हुए और यूटर्न लेते हुए इसका विरोध किया था। ये सब बातें कहीं ना कहीं प्रधानमंत्री के ज़हन में होंगी और उन्हें अहसास होगा कि वापस आकर इस समझौते को देश की जनता के सामने रखना कोई आसान काम नहीं होगा।''

योगेंद्र यादव कहते हैं कि दो-तीन वर्गों पर इस समझौते के विनाशकारी परिणाम होते। उनके मुताबिक भारत अगर ये समझौता कर लेता तो न्यूज़ीलैंड से दूध के पाउडर के आयात के चलते भारत का दूध का पूरा उद्योग ठप पड़ जाता।

किसान और खेती की बात करें तो इस समझौते के बाद नारियल, काली मिर्च, रबर, गेहूं और तिलहन के दाम गिर जाने का खतरा था। छोटे व्यापारियों का धंधा चौपट होने का खतरा था।

वो कहते हैं, "प्रधानमंत्री को इतना अहसास रहा होगा कि एक तरफ भारत की अर्थव्यवस्था में मंदी छाई हुई है, नोटबंदी की मार से देश अब तक उभरा नहीं है। कुल मिलाकर देश की अर्थव्यवस्था की हालत खराब है और अगर एक और झटका लग गया तो सरकार को उसके लिए ज़िम्मेदार ठहराया जायेगा, ऐसे स्थिति में सरकार को जनता के सामने खड़ा होना बहुत कठिन हो जाएगा। ये सब बातें निश्चित ही प्रधानमंत्री के मन में रही होगी।''

आरसीईपी को लेकर केंद्र सरकार के उच्च-स्तरीय सलाहकार समूह ने अपनी राय देते हुए कहा था कि भारत को इसमें शामिल होना चाहिए।

इस समूह का कहना था अगर भारत आरसीईपी से बाहर रहता है तो वो एक बड़े क्षेत्रीय बाज़ार से बाहर हो जाएगा।

दूसरी तरफ़ भारत के उत्पादकों और किसानों की चिंता थी कि मुक्त व्यापार समझौतों को लेकर भारत का अनुभव पहले ठीक नहीं रहा है और आरसीईपी में भारत जिन देशों के साथ शामिल होगा, उनसे भारत आयात अधिक करता है और निर्यात कम।

साथ ही चीन आरसीईपी का ज़्यादा समर्थन कर रहा है, जिसके साथ भारत का व्यापारिक घाटा पहले ही अधिक है। ऐसे में आरसीईपी भारत की स्थिति को और ख़राब कर सकता है।

क्रिसिल के अर्थशास्त्री सुनील सिन्हा ने बीबीसी को बताया कि काफी दिनों से आरसीईपी को लेकर चर्चा हो रही थी, मगर भारत ने यह देखकर इससे दूर रहने का फ़ैसला किया कि इससे फ़ायदा कम, नुक़सान ज़्यादा हो सकता है।

सुनील सिन्हा ने कहा, "इस तरह के समझौतों में सबसे महत्वपूर्ण बात होती है कि किसी भी देश के लिए इस तरह के सहयोग में क्या फायदा है। लेकिन आरसीईपी का देश में विरोध हो रहा था और कहा जा रहा था कि ये भारत के लिए ज़्यादा फायदेमंद नहीं है।

''मुझे लगता है कि जब इस पर बातचीत हुई तो भारत के अधिकारियों को ऐसा लगा कि भारत को जितना फायदा होगा, उसे कहीं अधिक नुकसान हो जाएगा। इस वजह से भारत ने इस समझौते पर आगे बढ़ने से मना कर दिया होगा।''

सुनील सिन्हा कहते हैं कि जहां तक चीन का सवाल है, वो पहले से आर्थिक रूप से ज़्यादा समृद्ध देश है और पूर्व-एशियाई देशों में उसकी पहुंच भारत से ज़्यादा है।

उन्होंने कहा, ''जब भी इस तरह की व्यापारिक बातचीत होगी तो चीन यहां फायदे की स्थिति में होगा, जबकि भारत के पास वो फायदा नहीं है।''

''पूर्व-एशियाई देशों से हमारे उस तरह के व्यापारिक रिश्ते नहीं है। भारत उस क्षेत्रीय सहयोग का हिस्सा बनने की कोशिश कर रहा है, जबकि चीन पहले से वहां पहुंच चुका है।''

आर्थिक पहलू से अलग इस मामले में अब राजनीति भी शुरू हो गई है।  भारतीय जनता पार्टी जहां इसे प्रधानमंत्री का दूरदर्शिता भरा फैसला बता रही है, वहीं कांग्रेस इसे अपनी जीत के तौर पर प्रचारित कर रही है।

भारतीय जनता पार्टी के कार्यकारी राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने आरसीईपी में शामिल नहीं होने को सरकार का बड़ा कदम बताते हुए प्रधानमंत्री को इस बात की बधाई दी है कि वो पहले की कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकारों की तरह ग्लोबल दबाव के आगे नहीं झुके।

मगर पहले से ही आरसीईपी में शामिल होने का विरोध कर रही कांग्रेस के प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने ट्वीट करके कहा है कि यह राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए लड़ने वालों की जीत है। उन्होंने भारत के आरसीईपी में शामिल न होने के क़दम के लिए कांग्रेस और राहुल गांधी के विरोध को श्रेय दिया है।

अरामको के शेयर बाज़ार में उतरने की योजना विवादास्पद क्यों है?

दुनिया में सबसे ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने वाली कंपनी अरामको ने शेयर बाज़ार में आने के लिए आईपीओ लाने की पुष्टि की है। यह दुनिया की सबसे बड़ी इनीशियल पब्लिक ऑफ़रिंग हो सकती है।

सऊदी अरब की तेल कंपनी ने रविवार को कहा कि यह रियाध स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध होने की योजना बना चुकी है।

सऊदी अरब के शाही परिवार के स्वामित्व वाली यह कंपनी निवेशकों के रजिस्ट्रेशन और दिलचस्पी के मुताबिक आईपीओ लॉन्च प्राइस तय करेगी।

कारोबार जगत के सूत्रों का मानना है कि कंपनी के मौजूदा शेयरों में से एक या दो फ़ीसदी शेयर उपलब्ध करवाए जा सकते हैं।

अरामको की कीमत 1.3 ट्रिलियन डॉलर (927 बिलियन डॉलर) बताई जाती है।

कंपनी ने कहा कि अभी फ़िलहाल इसकी विदेशी शेयर बाज़ार में उतरने की कोई योजना नहीं है।

अरामको बोर्ड के अध्यक्ष यासिर अल-रुम्यान ने एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस में कहा, "अंतरराष्ट्रीय शेयर बाज़ार में उतरने के बारे में हम आपको आने वाले वक़्त में बताएंगे।''

सऊदी अरामको का इतिहास साल 1933 से शुरू होता है जब सऊदी अरब और स्टैंडर्ड ऑयल कंपनी ऑफ़ कैलिफ़ॉर्निया (शेवरॉन) के बीच एक डील अटक गई।

ये डील तेल के कुओं की खोज और खुदाई के लिए नई कंपनी बनाने से सम्बन्धित थी। बाद में 1973-1980 के बीच सऊदी अरब ने ये पूरी कंपनी ही खरीद ली।

एनर्जी इन्फ़ॉर्मेशन एडमिनिस्ट्रेशन के अनुसार सऊदी अरब में वेनेज़ुएला के बाद तेल का सबसे बड़ा भंडार है। तेल उत्पादन में भी अमरीका के बाद सऊदी अरब दूसरे नंबर पर है।

तेल के मामले में सऊदी अरब को बाकी देशों के मुकाबले प्राथमिकता इसलिए भी मिलती है क्योंकि पूरे देश में तेल पर इसका एकाधिकार है और यहां तेल निकालना अपेक्षाकृत सस्ता भी है।

शीन्ड्रर इलेक्ट्रिक (एनर्जी मैनेजमेंट कंपनी) में मार्केट स्टडीज़ के डायरेक्टर डेविड हंटर के मुताबिक़ अरामको निश्चित तौर पर दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी है।

शीन्ड्रर ने कहा, "यह बाकी सभी ऑयल और गैस कंपनियों से बड़ी है।''

अगर दुनिया की कुछ बड़ी कंपनियों से तुलना करें तो 2018 में ऐपल की कमाई 59.5 अरब डॉलर थी। इसके साथ ही अन्य तेल कंपनियां रॉयल डच शेल और एक्सोन मोबिल भी इस रेस में बहुत पीछे हैं।

रोज़ 10 मिलियन बैरल के उत्पादन और 356,000 मिलियन अमरीकी डॉलर की कमाई के साथ यह दुनिया की सबसे बड़ी तेल कंपनी है।

रिलायंस इंडस्ट्रीज़ के चेयरपर्सन मुकेश अंबानी अरामको को अपनी तेल कंपनी का 20 फ़ीसदी शेयर बेचने का ऐलान कर चुके हैं। यह भारत में अरामको का अब तक का सबसे बड़ा विदेशी निवेश होगा।

आईजी ग्रुप में चीफ़ मार्केट एनलिस्ट क्रिस बाउन का कहना है कि अरामको में निवेश करने के अपने ख़तरे हैं। कंपनी के लिए रणनीतिक और राजनीतिक ख़तरे भी हैं।

ये ख़तरे इस साल सितंबर में तब भी सामने आए थे जब अरामको के स्वामित्व वाले संयत्रों पर हमला हुआ था। सऊदी अरब में कंपनी के दो संयत्रों पर ड्रोन से हमला किया गया जिसकी वजह से आग लग गई और काफ़ी नुक़सान हुआ।

हालांकि कंपनी के चीफ़ एग़्जिक्युटिव अमीन नासिर ने कंपनी की योजनाओं को 'ऐतिहासिक' बताया। उन्होंने कहा कि अरामको अब भी दुनिया की सबसे विश्वसनीय तेल कंपनी है।

आईपीओ लॉन्च के मौके पर अरामको की तरफ़ से कहा गया कि हाल में हुए हमलों का इसके कारोबार, आर्थिक स्थिति और ऑपरेशन पर कोई असर नहीं पड़ेगा।

मध्यपूर्व मामलों के जानकार क़मर आग़ा ने बीबीसी से बातचीत में कहा, ''आर्थिक सुस्ती और बाज़ार में पैसों की कमी की वजह से अमरीकी और यूरोपीय निवेशक अभी ख़तरा मोल लेने को उत्सुक नहीं हैं। यमन में जारी युद्ध में सऊदी अरब की भूमिका को लेकर भी निवेशक सशंकित हैं।''

सऊदी अरब की अगुवाई वाले गठबंधन ने बीते क़रीब चार साल से यमन के हूती विद्रोहियों के ख़िलाफ़ संघर्ष छेड़ा हुआ है। सितंबर में सऊदी के तेल संयंत्रों पर हुए हमले की ज़िम्मेदारी भी हूती विद्रोहियों ने ली थी। लेकिन अमेरिका और सऊदी अरब ने इस हमले के लिए ईरान को जिम्मेदार माना।

क़मर आग़ा के अनुसार एक अहम सवाल ये भी है कि सऊदी अरब के पास कितना तेल भंडार बचा है क्योंकि ये दिन पर दिन कम ही हो रहा है।  दूसरे, सऊदी के घरेलू बाज़ार में भी तेल की अच्छी-ख़ासी खपत होती है।

एक वक़्त था जब अरामको को रहस्यमय कंपनी माना जाता था लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इसने ख़ुद को पूरी तरह बदल डाला है। आज कंपनी जहां पहुंची है, उसके लिए इसने ख़ुद को सावधानी से तैयार किया है।

इसकी तैयारी के लिए कंपनी को कई साल लगाने पड़े हैं। फोर्ब्स पत्रिका के मुताबिक, ''2016 में अरामको के पास अंतरराष्ट्रीय मानकों के मुताबिक अकाउंटिंग की किताबें तक नहीं थीं। और ना तो उसके पास संस्थागत चार्ट और स्ट्रक्चर के औपचारिक रिकॉर्ड थे।''

सितंबर में हुए ड्रोन हमलों के बाद से अरामको ने अपने आर्थिक आंकड़े प्रकाशित करने शुरू कर दिए हैं। कंपनी अब पत्रकारों के लिए नियमित रूप से सवाल-जवाब के कार्यक्रम भी आयोजित करती है। इतना ही नहीं, अरामको पत्रकारों को ड्रोन हमले वाली जगह पर भी ले गई थी।

कंपनी ने कुछ शीर्ष पदों के लिए महिलाओं को नियुक्त किया है। रविवार को कंपनी ने जो ऐलान किए उसने अंतरराष्ट्रीय चिंताओं का भी ज़िक्र किया गया है।

कंपनी ने कहा है कि उसका मक़सद कच्चे तेल को लंबे वक़्त तक रीसाइकिल करना है। अरामको ने पर्यावरण के प्रति जवाबदेही का परिचय देते हुए कहा है कि वो आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल से पर्यावरण को होने वाले नुक़सान को कम करेगी।

कंपनी ने कहा है कि स्थानीय लोग, 'यहां तक कि तलाक़शुदा औरतें' भी इसके शेयर खरीद सकेंगी और हर 10 शेयर के लिए उन्हें एक बोनस दिया जाएगा।

सऊदी अरब अरामको के शेयर इसलिए बेचना चाहता है क्योंकि ये अर्थव्यवस्था की निर्भरता तेल पर कम करना चाहता है।

क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान अपने 'विज़न 2030' के ज़रिए देश की अर्थव्यवस्था को अलग-अलग क्षेत्रों में ले जाना चाहते हैं।

डेविड हंटर के मुताबिक़ सऊदी अरब अपने यहां के विस्तृत रेगिस्तान का इस्तेमाल करके सौर ऊर्जा के उत्पादन में भी आगे निकलना चाहता है।

हंटर कहते हैं, "मौजूदा वक़्त में अरामको के लिए हालात राजनीतिक रूप से जटिल हैं। इसकी बड़ी वजह पिछले साल सऊदी अरब के पत्रकार जमाल ख़ाशोज्जी की हत्या है। मानवाधिकारों के मामले में सऊदी अरब का रिकॉर्ड अच्छा नहीं है इसलिए इससे जुड़ी किसी भी चीज़ को संदेह की नज़रों से देखा जाता है।''

मोहम्मद बिन सलमान की योजना में दूसरी कठिनाई हो सकती है इस समय दुनिया भर में जीवाश्म ईंधन के ख़िलाफ़ चल रही मुहिम।

डेविड हंटर कहते हैं, "अरामको के लिए आगे इसलिए भी मुश्किल हो सकती है क्योंकि इस समय निवेशकों का रुझान जीवाश्म ईंधन की ओर से कम हो रहा है और वो नए विकल्प तलाश रहे हैं।''

क़मर आग़ा मानते हैं कि बेशक़ अरामको के कई सकारात्मक पहलू हैं लेकिन ये कितने निवेशकों को आकर्षित करने में कामयाब हो पाएगी, ये देखने के लिए अभी इंतज़ार करना होगा।

आग़ा कहते हैं कि अगर कंपनी निवेशकों को खींचने में असफल रही तो इसका सबसे ज़्यादा असर उस पर और सऊदी अरब पर ही पड़ेगा।

अभिजीत बनर्जी का पीयूष गोयल को जवाब, भारत में ग़रीबों की मुश्किलें बढ़ रही हैं

अभिजीत बनर्जी, एस्टर डुफ़लो और हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर माइकल क्रेमर को 2019 का अर्थशास्त्र के लिए प्रतिष्ठित नोबेल सम्मान मिला तो भारतीय मीडिया में ये ख़बर प्रमुखता से चली।

अभिजीत बनर्जी का जन्म भारत में हुआ था और मास्टर तक यहीं पढ़े-लिखे भी। बनर्जी के जेएनयू में पढ़े होने की भी ख़ूब चर्चा हुई। ऐसा इसलिए भी क्योंकि बीजेपी के कई नेताओं के निशाने पर जेएनयू रही है।

अभिजीत बनर्जी मोदी सरकार के नोटबंदी के फ़ैसले को आलोचक रहे हैं और 2019 के आम चुनाव में उन्होंने कांग्रेस पार्टी के घोषणापत्र तैयार करने में मदद की थी।

कांग्रेस के घोषणापत्र में न्याय स्कीम अभिजीत बनर्जी का ही आइडिया था। न्याय स्कीम के तहत कांग्रेस पार्टी ने 2019 के आम चुनाव में वादा किया था कि वो सरकार बनाती है तो देश के बीस फ़ीसदी सबसे ग़रीब परिवारों को हर साल उनके खाते में 72 हज़ार रुपए ट्रांसफर करेगी।  हालांकि चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह से हार गई।

अभिजीत बनर्जी के नोबेल मिलने पर भारत सरकार की बहुत ठंडी प्रतिक्रिया रही। हालांकि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्विटर पर एक औपचारिक बधाई दी। लेकिन भारत सरकार के रेल और वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल की अभिजीत बनर्जी पर टिप्पणी सबसे ज़्यादा चर्चा में रही।

पीयूष गोयल ने शुक्रवार को पत्रकारों से बातचीत में कहा था, ''अभिजीत बनर्जी ने नोबेल सम्मान जीता है इसके लिए हम उन्हें बधाई देते हैं। लेकिन आप सभी जानते हैं कि वो पूरी तरह से वाममंथी विचारधारा के साथ हैं।  उन्होंने कांग्रेस को न्याय योजना बनाने में मदद की थी लेकिन भारत की जनता ने पूरी तरह से नकार दिया।''

पीयूष गोयल की इस टिप्पणी पर अभिजीत बनर्जी ने प्रतिक्रिया दी है।  अभिजीत अपनी नई किताब 'गुड इकोनॉमिक्स फोर हार्ड टाइम्स: बेटर एंसर टू आवर बिगेस्ट प्रॉब्मलम्स' को लॉन्च करने दिल्ली आए हुए हैं।

दिल्ली में उनसे पीयूष गोयल की टिप्पणी के बारे में पूछा गया तो उन्होंने एनडीटीवी से कहा, ''मुझे लगता है कि इस तरह की टिप्पणी से कोई मदद नहीं मिलेगी। मुझे अपने काम के लिए नोबेल मिला है और उन्हें मेरे काम पर सवाल खड़ा करने से कुछ भी हासिल नहीं होगा। अगर बीजेपी भी कांग्रेस पार्टी की तरह अर्थशास्त्र को लेकर सवाल पूछेगी तो क्या मैं सच नहीं बताऊंगा? मैं बिल्कुल सच बताऊंगा। मैं एक प्रोफ़ेशनल हूं तो सभी के लिए हूं। किसी ख़ास पार्टी के लिए नहीं हूं। अर्थव्यवस्था को लेकर जो मेरी समझ है वो पार्टी के हिसाब से नहीं बदलेगी। अगर कोई मुझसे सवाल पूछेगा तो मैं उसके सवाल पूछने के मक़सद पर सवाल नहीं खड़ा करूंगा। मैं उन सवालों का जवाब दूंगा।''

अभिजीत ने कहा, ''मैंने भारत में कई राज्य सरकारों के साथ काम किया है। इसमें बीजेपी की भी सरकारें हैं। मैंने गुजरात में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के साथ मिलकर काम किया है। तब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ही थे और मेरा तब का अनुभव बहुत बढ़िया रहा था। मुझे उस वक़्त किसी राजनीतिक व्यक्ति के तौर पर नहीं देखा गया था बल्कि एक विशेषज्ञ के तौर पर लिया गया और उन्होंने उन नीतियों को लागू भी किया था। मैं एक प्रोफ़ेशनल हूं तो वही हूं और ऐसा सबके लिए हूं। मैंने हरियाणा में खट्टर के साथ भी काम किया है।''

अभिजीत बनर्जी पर वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल की टिप्पणी को लेकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने ट्वीट कर मोदी सरकार को निशाने पर लिया है।  राहुल ने ट्वीट कर कहा, ''प्रिय अभिजीत बनर्जी, नफरत ने इन हठियों को अंधा बना दिया है। इन्हें इस बात का कोई इल्म नहीं है कि एक प्रोफ़ेशनल क्या होता है। आप दशकों तक कोशिश करते रह जाएंगे लेकिन ये नहीं समझेंगे। इतना तय है कि लाखों भारतीयों को आपके काम पर गर्व है।  

नोबेल मिलने के बाद एमआईटी में पत्रकारों से बातचीत में अभिजीत बनर्जी ने कहा था कि राजकोषीय घाटा और मुद्रा स्फीति के संतुलन के लक्ष्य से चिपके रहने से भारतीय अर्थव्यवस्था में आई सुस्ती नहीं जाएगी। आख़िर इसका मतलब क्या है?

इस सवाल के जवाब में अभिजीत ने हिन्दुस्तान टाइम्स से कहा, ''मुझे नहीं लगता है कि यह कोई रॉकेट साइंस है। भारतीय अर्थव्यवस्था में जो कुछ हो रहा है उसके मूल्यांकन के आधार पर ही ऐसा कह रहा हूं। भारत की अर्थव्यवस्था में सुस्ती मांगों में कमी के कारण है। अगर हमारे पास पैसा नहीं है तो बिस्किट नहीं ख़रीदेंगे और बिस्किट कंपनी बंद हो जाएगी। मुझे लगता है कि मांग को बढ़ाना चाहिए। मतलब लोगों के पास पैसे हों ताकि खर्च कर सकें। ओबामा सरकार ने अमरीका में यही किया था। इसका विचारधारा से कोई मतलब नहीं है। भारत की अर्थव्यवस्था में आई सुस्ती मांगों में कमी के कारण है।''  

अभिजीत बनर्जी की किताब में कहा गया है कि भारत तेज़ गति से वृद्धि दर हासिल करने के लिए ऐसी नीतियों पर चल रहा है जिनसे ग़रीबों की मुश्किलें बढ़ रही हैं। इसका मतलब क्या है?

इसके जवाब में अभिजीत बनर्जी ने कहा, ''ऐसा कई देशों में हुआ है।  अमरीका और ब्रिटेन में क्या हुआ? 1970 के दशक में इन देशों की वृद्धि दर में गिरावट आई तो वो कभी संभल नहीं पाई। उन्हें कोई आडिया नहीं था कि ये गिरावट क्यों है? तब इसके लिए कहा गया कि ज़्यादा टैक्स और ज़्यादा पुनर्वितरण इसके लिए ज़िम्मेदार है। बाद में इनमें कटौती की गई।  यह रीगन और थैचर शैली की अर्थव्यवस्था थी।''

क्या भारत की अर्थव्यवस्था इसी ओर बढ़ रही है?

इसके जवाब में अभिजीत ने कहा, ''नहीं, मैं ये कह रहा हूं कि इस तरह की गिरावट में सरकारों की ये स्वाभाविक प्रतिक्रिया होती है। हमलोग ये कह रहे हैं कि हमें इस बात को लेकर आगाह होना चाहिए कि ऐसी नीतियों से अमरीका और ब्रिटेन को कोई मदद नहीं मिली थी। बल्कि इन नीतियों से विषमता बढ़ी है। इन नीतियों से वैसी अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलता है जो ट्रंप कर रहे हैं और जिससे ब्रेग्ज़िट को हवा मिली।''

तो भारतीय अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए क्या करना होगा?

इसके जवाब में अभिजीत बनर्जी ने हिन्दुस्तान टाइम्स से कहा, ''मैं कोई मैक्रो इकनॉमिस्ट नहीं हूं। लेकिन अगर मैं नीति निर्माता होता तो पहले व्यापक रूप से डेटा जुटाता। इसके बाद अगर मैं इस निर्णय पर पहुंचता कि यह मांग आधारित समस्या है तो मैं ग़रीबों के हाथों में पर्याप्त पैसे देता।  ये ऐसी बात है जिसमें मैं पूरी तरह से भरोसा करता हूं। ओबामा प्रशासन ने भी यही काम किया था। यह कोई नई बात नहीं है।''

भारतीय अर्थव्यवस्था में अब भी गड़बड़ी

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने कहा है कि भारत ने अर्थव्यवस्था की बुनियादी बातों पर काम किया है लेकिन कुछ ऐसी चीज़ें हैं जो लंबी अवधि के विकास के लिए ज़रूरी हैं उन पर काम किए जाने की ज़रूरत है।

आईएमएफ़ की प्रबंध निदेशक क्रिस्टलीना जॉर्जिवा ने गुरुवार को वाशिंगटन में संवाददाताओं से कहा, "भारत ने अर्थव्यवस्था की बुनियादी बातों पर काम किया है लेकिन कुछ ऐसी समस्याएं हैं जिस पर काम किए जाने की ज़रूरत है। वित्तीय क्षेत्र में बैंकिंग सेक्टर, विशेष रूप से गैर-बैंकिंग संस्थाओं में सुधार किए जाने की ज़रूरत है।''

आईएमएफ़ ने मंगलवार को अपनी वर्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक की ताज़ा रिपोर्ट में भारत के विकास दर के अनुमान को 0.90 बेसिस पॉइंट घटाते हुए 6.1 फ़ीसदी कर दिया है।

यह इस साल तीसरी बार है जब आई एम एफ़ ने भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास दर में कटौती की है।

जुलाई के महीने में ही आईएमएफ़ ने 2019-20 में भारतीय विकास दर के 7 फ़ीसदी रहने का अनुमान लगाया था जबकि इसी वर्ष अप्रैल में इसके 7.3 फ़ीसदी रहने की बात की थी।

हालांकि आई एम एफ़ ने 2020-21 में इसमें सुधार की उम्मीद भी जताई है।

बुल्गारिया की इकोनॉमिस्ट क्रिस्टलीना जॉर्जिवा सितंबर के अंत में ही आई एम एफ़ की प्रमुख बनी हैं। क्रिस्टलीना के इस पद पर आने के बाद पहली बार ये आंकड़े आए हैं।

जॉर्जिवा ने कहा, "भारत को उन चीज़ों पर काम जारी रखना होगा जो लंबे समय तक विकास की गति को बनाए रखने के लिए ज़रूरी हैं। साथ ही जॉर्जिवा का कहना था कि भारत सरकार अर्थव्यवस्था में सुधार लाने के लिए काम कर रही है, लेकिन भारत को अपने राजकोषीय घाटे पर लगाम लगानी होगी।''

हालांकि जॉर्जिवा ने कहा, "बीते कुछ वर्षों में भारत में विकास दर बहुत मजबूत रही है और आईएमएफ़ अभी भी उसके लिए बेहद मजबूत विकास दर का अनुमान लगा रही है।''

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के विकास दर को 6.1 फ़ीसदी किए जाने पर भारत की केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का भी बयान आया है।

आई एम एफ़ और विश्व बैंक की वार्षिक बैठक में भाग लेने वाशिंगटन पहुंचीं सीतारमण ने कहा, "भारत दुनिया की सबसे तेज़ी से विकसित होती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है और आई एम एफ़ ने भले ही विकास दर के अनुमानों को घटा दिया है, लेकिन अब भी भारत की अर्थव्यवस्था सबसे तेज़ी से विकास कर रही है।''

निर्मला सीतारमण ने यह भी कहा, "मैं चाहती हूं कि यह और तेज़ी से विकास कर सके। इसके लिए मैं हरसंभव कोशिश करूंगी, लेकिन सच यह है कि भारत अब भी तुलनात्मक रूप से तेज़ी से विकास कर रहा है।''

मंगलवार को ही अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) ने कहा था कि "एक दशक पहले आए वित्तीय संकट के बाद पहली बार सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था इतनी सुस्त दिखाई दे रही है।''

भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर आई एम एफ़ ने अपनी रिपोर्ट में कहा, ''कुछ गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थाओं की कमज़ोरी और उपभोक्ता और छोटे और मध्यम दर्जे के व्यवसायों के कर्ज़ लेने की क्षमता पर पड़े नकारात्मक असर के कारण भारत की आर्थिक विकास दर के अनुमान में कमी आई है।''

आईएमएफ़ के मुताबिक़, "लगातार घटती विकास दर का कारण घरेलू मांग का उम्मीद से अधिक कमज़ोर रहना है। मानव पूंजी में निवेश भारत की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। कामगारों में महिलाओं की तादाद लगातार बढ़ाते रहने की ज़रूरत है। यह बेहद महत्वपूर्ण है। भारत में महिलाएं बहुत प्रतिभाशाली हैं लेकिन वे घर पर रहती हैं।''

मुद्राकोष ने अनुमान लगाया है कि इस साल पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था में कुल मिलाकर मात्र 3 फ़ीसदी ही विकास होगा लेकिन इसके 2020 में 3.4 फीसदी तक रहने की उम्मीद है।

आईएमएफ़ ने यह भी कहा, "वैश्विक अर्थव्यवस्था सुस्ती के दौर में है और हम 2019 के विकास दर को एक बार फिर से घटाकर 3 फ़ीसदी पर ले जा रहे हैं जो कि दशक भर पहले आए संकट के बाद से अब तक के सबसे कम है।''

ये जुलाई के वैश्विक विकास दर के उसके अनुमान से भी कम है। जुलाई में यह 3.2 फ़ीसदी बताई गई थी।

आईएमएफ़ ने कहा, "आर्थिक वृद्धि दरों में आई कमी के पीछे विनिर्माण क्षेत्र और वैश्विक व्यापार में गिरावट, आयात करों में बढ़ोतरी और उत्पादन की मांग बड़े कारण हैं।''

आईएमएफ़ ने कहा, ''इस समस्या से निपटने के लिए नीति निर्माताओं को व्यापार में रूकावटें ख़त्म करनी होंगी, समझौतों पर फिर से काम शुरू करना होगा और साथ ही देशों के बीच तनाव कम करने के साथ-साथ घरेलू नीतियों में अनिश्चितता ख़त्म करनी होगी।''

आईएमएफ़ का मानना है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में आई सुस्ती के कारण इस साल दुनिया के 90 फ़ीसदी देशों में वृद्धि दर कम ही रहेगी।

आईएमएफ़ ने कहा है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था 2020 में तेज़ी से 3.4 फ़ीसदी तक जा सकती है।

हालांकि इसके लिए उसने कई ख़तरों की चेतावनी भी दी है क्योंकि यह वृद्धि भारत में आर्थिक सुधार पर निर्भर होने के साथ-साथ वर्तमान में गंभीर संकट से जूझ रही अर्जेंटीना, तुर्की और ईरान की अर्थव्यवस्था पर भी निर्भर करती है।

उन्होंने कहा, "इस समय पर कोई भी गलत नीति जैसे कि नो-डील ब्रेक्सिट या व्यापार विवादों को और गहरा करना, विकास और रोज़गार सृजन के लिए गंभीर समस्या पैदा कर सकती है।''

आईएमएफ़ के अनुसार, कई मामलों में सबसे बड़ी प्राथमिकता अनिश्चितता या विकास के लिए ख़तरों को दूर करना है।

रूस पर सऊदी अरब का भरोसा क्यों बढ़ रहा है?

शीत युद्ध के दौरान सऊदी अरब के बेहद गंभीर माने जाने वाले कुछ लोग रूसी नेताओं को 'गॉडलेस कम्युनिस्ट' कहा करते थे।

तब यह अकल्पनीय था कि किसी रूसी नेता का सऊदी अरब में तहे दिल से स्वागत होता लेकिन चीज़ें अब बहुत बदल चुकी हैं और इस हफ़्ते रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का वहां ज़ोरदार स्वागत किया गया।

उन्हें 12 बंदूकों की सलामी दी गई। समारोह में किंग सलमान बिन अब्दुल अज़ीज़ अल सउद और क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन-सलमान भी शामिल थे।

अमेरिका ने उत्तरी सीरिया में कुर्दों को उनके हाल पर छोड़ दिया। इसके बाद सऊदी अरब ने रूस के साथ कई द्विपक्षीय समझौते किए और क्षेत्रीय स्थिति की समीक्षा भी की गई।

तो क्या अब सऊदी अरब रूस के क़रीब आ रहा है? इसकी मुख्य वजह क्या है?

रूस के राष्ट्रपति पुतिन अपने 12 वर्षों के कार्यकाल में पहली बार सऊदी अरब गए। यह दौरा जितना अभूतपूर्व था उतना ही बहुप्रचारित भी।

उनके साथ व्यापार, सुरक्षा और रक्षा अधिकारियों का एक बड़ा प्रतिनिधिमंडल गया था, जिसने वहां 2 अरब डॉलर के द्विपक्षीय सौदे किए और इस दौरान 20 से भी अधिक समझौतों की घोषणा की गई।

सऊदी अरब ने रूस को 14 सितंबर को सरकारी तेल कंपनी अरामको पर हुए ड्रोन हमलों में चल रही अंतरराष्ट्रीय जांच में भी शामिल होने का न्योता दिया।

रक्षा मामलों में रूस की एयर डिफेंस मिसाइल एस-400 की ख़रीद और भविष्य में उसकी तैनाती पर भी संभावित चर्चा हुई जो कि अमरीका के लिए एक राजनयिक झटके के समान है।

जब 2017 में तुर्की ने रूस से एस-400 मिसाइल डिफ़ेन्स सिस्टम ख़रीदने का सौदा किया था तो अमरीका ने कहा था कि यदि तुर्की ऐसा करता है तो वो एफ़ 35 युद्धक विमान देने के सौदे को रद्द कर देगा।

बीते दिनों रूस के साथ अपने सौदे पर तुर्की आगे बढ़ा तो अब अमरीका ने उसके साथ एफ़ 35 के सौदे को रद्द कर दिया है।

सऊदी अरब और रूस के बीच जून 2018 से ही द्विपक्षीय व्यापार में वृद्धि हुई है और हाल ही में दोनों के बीच तेल उत्पादन पर प्रतिबंध लगाने को लेकर हुए सहयोग के बाद तेल की वैश्विक क़ीमतों में इजाफा हुआ है।

व्लादिमीर पुतिन के इस दौरे के दौरान ही रूसी प्रत्यक्ष निवेश कोष (आरडीआईएफ़) ने भी निवेश को लेकर घोषणाएं की हैं।

ये सभी सऊदी अरब और रूस के बीच संबंधों में गर्मजोशी के संकेत देते हैं जो कि 1980 के दशक में अफ़ग़ान मुजाहिदीन को लेकर तल्ख थीं।

तो रूस और सऊदी अरब के बीच संबंध बढ़ने की वजह आख़िर क्या है?

स्पष्ट शब्दों में कहें तो आज सऊदी अरब को अमरीका और पश्चिम के देशों पर उतना भरोसा नहीं रह गया जितना वो पहले किया करता था।

लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं कि वो रूस पर भरोसा करने लगा है।  लेकिन मध्य-पूर्व में इस एक दशक की घटनाओं से सऊदी अरब थिंक टैंक इस पर फिर से विचार कर रहे हैं।

सबसे बड़ा झटका अरब स्प्रिंग प्रोटेस्ट 2011 से लगा। जब अमरीकी दबाव से जिस तेज़ी से तीन दशक तक मिस्र के राष्ट्रपति रहे होस्नी मुबारक की सत्ता ख़त्म हुई उससे सऊदी अरब और खाड़ी के अन्य साम्राज्य में ख़ौफ़ बैठ गया।

इसके विपरीत, वे इस पर भी ध्यान नहीं दे सके कि रूस चारों ओर से घिरे मध्य-पूर्व के सहयोगी सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद के समर्थन में खड़ा है।

इसके बाद अगला झटका तब लगा जब तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 2015 में ईरान परमाणु समझौता को समर्थन दिया था।  सऊदी अरब इससे बेहद असहज हुआ था। उन्हें अंदेशा हुआ, जो कि सही है कि ओबामा प्रशासन की मध्य-पूर्व में रूचि ख़त्म हो रही है।

जब नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने 2017 में अपने पहले विदेशी दौरे के लिए सऊदी अरब को चुना तो उन्हें बहुत ख़ुशी हुई। अमरीका के साथ उनके संबंध पटरी पर लौटते दिखे जब अरबों डॉलर के सौदों की घोषणा की गई।

लेकिन अक्टूबर 2018 में सऊदी पत्रकार जमाल ख़ाशोज़्ज़ी की सऊदी सरकार के एजेंटों ने हत्या कर दी तो दुनिया भर में इसकी बड़े पैमाने पर आलोचना की गई।

सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान की इसमें संदिग्ध भागीदारी को लेकर पश्चिम के नेताओं ने उनसे दूरियां बनानी शुरू कर दीं। ब्यूनस आयर्स में हुए जी-20 शिखर सम्मेलन में वे अलग-थलग पड़ गए। लेकिन यहां पुतिन उनसे बहुत उत्साह से मिले।

हालांकि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने सऊदी नेतृत्व के साथ अच्छे संबंध की वकालत की लेकिन अरब प्रशासन अब भी इस क्षेत्र के प्रति अमरीका के अप्रत्याशित और अव्यवहारिक दृष्टिकोण को लेकर निराश है।

इस हफ़्ते सऊदी अरब के ब्रिटेन में राजदूत प्रिंस ख़ालिद बिन बनदर ने उत्तरी सीरिया में तुर्की की घुसपैठ को 'आपदा' बताया है।

रूस के साथ संबंधों में आई गर्मी के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि "पश्चिमी देशों की तुलना में रूस पूर्व के देशों को बेहतर समझता है।''

सीरिया में गृह युद्ध के आठ सालों के दौरान रूस ने असद शासन को बचाने में मदद पहुंचाई है। उसने न केवल अपने आधुनिक सैन्य हथियारों का प्रदर्शन किया बल्कि साथ-साथ रणनीतिक पैर भी पसारे हैं।

अमरीका ने सऊदी अरब एयर डिफेंस को सैन्य उपकरण बेचे, जो 14 सितंबर को अरामको पर हुए ड्रोन हमलों को रोकने में नाकाम रहे।  अमरीका और सऊदी दोनों के संबंध ख़ाशोज्जी हत्याकांड के बाद भी असहज हुए हैं।

सऊदी और खाड़ी के उसके सहयोगी देश पश्चिम पर अपनी निर्भरता को कम करने की कोशिश कर रहे हैं।

इन सभी घटनाओं को एक परिप्रेक्ष्य में देखने की ज़रूरत है।

अमरीका अब भी सऊदी अरब का प्रमुख सुरक्षा साझेदार है। इसकी शुरुआत अमरीकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूज़वेल्ट और सऊदी किंग अब्दुल अज़ीज इब्न सौद की एक अमरीकी युद्धपोत पर मुलाक़ात से 1945 में हुई थी।

तब सऊदी अरब ने भविष्य में तेल की आपूर्ति बनाए रखने की गारंटी दी तो अमरीका ने सुरक्षा मुहैया कराने की। लेकिन उस समझौते के बाद भी स्थिति ढुलमुल रही जो अब तक बनी हुई है।

खाड़ी के सभी छह अरब देशों में आज अमरीकी सेना का बेस है। अमरीकी नौसेना की पांचवीं फ्लीट जिसका मुख्यालय बहरीन में है और ये इस इलाक़े की सबसे ताक़तवर सेना है।

जब ट्रंप सऊदी अरब आए थे तो 100 अरब डॉलर से अधिक की डील की घोषणा की गई थी। पुतिन के साथ इस हफ़्ते महज दो बिलियन डॉलर के समझौते ही हुए हैं।

लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि मध्य-पूर्व में गठबंधनों की संरचनाएं न केवल हिल रही हैं बल्कि इसमें काफ़ी बदलाव आ रहे हैं। आने वाले समय में सऊदी अरब में रूस और चीन के और भी दौरे होने की उम्मीद है।

अमरीका अब भी सऊदी की मेज पर बैठा प्रमुख सहयोगी है लेकिन अब इसके इर्द-गिर्द और कई मेहमान बैठे हैं।

असद तुर्की हमले के खिलाफ कुर्दों की मदद क्यों कर रहे हैं?

तुर्की के बढ़ते सैन्य अभियान के बीच कुर्द बलों और सीरियाई सरकार के बीच आपसी मदद के लिए सहमति बन गई है। इसके घंटों बाद सीरियाई सेना कुर्दों की मदद के लिए देश के उत्तर की ओर बढ़ रही है।

सीरियाई सरकारी मीडिया के अनुसार रूस समर्थित सेना ने तुर्की की सीमा से 30 किलोमीटर दूर दक्षिण में ताल तामेर शहर में प्रवेश कर लिया है। सरकारी मीडिया के अनुसार सेना ने मानबिज शहर में भी प्रवेश कर लिया है जहां तुर्की सीरिया से विस्थापित हुए लोगों को बसाने के लिए सेफ़ ज़ोन बनाना चाहता है।

रविवार को कुर्दों के मुख्य सहयोगी अमरीका ने सीरिया में मौजूद अपने सभी सैनिकों को बाहर निकालने की घोषणा की थी जिसके बाद सीरियाई सरकार का यह फैसला आया है।

तुर्की के हमले का मक़सद कुर्द बलों को अपनी सीमा क्षेत्र से पीछे खदेड़ना है।

कुर्द नेतृत्व वाले सीरियाई डेमोक्रेटिक फोर्सेस (एसडीएफ़) के कब्ज़े वाले क्षेत्रों में रविवार को भारी बमबारी हुई। इस दौरान तुर्की को रास अल-ऐन और तल आब्यद के प्रमुख सीमावर्ती शहरों में सफलता मिली है।

इन हमलों में दोनों तरफ से दर्जनों नागरिक और लड़ाके मारे गए हैं।  

रविवार को अमरीकी रक्षा मंत्री मार्क ऐस्पर ने सीरिया से अमरीकी सैनिकों के हटाए जाने की घोषणा की थी। राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के उत्तर सीरिया से अमरीकी सैनिकों को वापस बुलाने के विवादास्पद फ़ैसले के कुछ दिन बाद ही तुर्की ने सीरिया के कुछ इलाकों पर हमला किया था।  

ट्रंप के फ़ैसले और तुर्की के हमले की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आलोचना हो रही है। सीरिया में इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ युद्ध में सीरियाई डेमोक्रेटिक फोर्सेस पश्चिमी देशों का मुख्य सहयोगी रहा है।

और अब इस अस्थिरता के बीच कथित चरमपंथी संगठन इस्लामिक स्टेट के दोबारा सक्रिय होने और इससे जुड़े कैदियों के भागने के बारे में आशंकाएं जताई जा रहीं हैं।

हाल ही में एसडीएफ़ और कुर्द नेतृत्व में लड़ रहे लड़ाकों ने कहा था कि तुर्की की सेना के हमले के कारण हालात बिगड़े तो वो कैम्पों में रह रहे कथित चरमपंथी संगठन इस्लामिक स्टेट के संदिग्ध लड़ाकों के परिवारों की रक्षा नहीं कर पाएंगे।

उत्तरी सीरिया में कुर्द नेतृत्व वाले प्रशासन के अनुसार रविवार को हुए समझौते के बाद सीरियाई सेना को कुर्द बलों द्वारा नियंत्रित सीमावर्ती क्षेत्रों में जाने की अनुमति मिल जाएगी। यहां से वो तुर्की के हमले के खिलाफ़ कुर्दों की मदद कर सकेंगे।

2012 के बाद यह पहली बार है जब सीरियाई सैनिक इन क्षेत्रों में प्रवेश करेंगे। उस वक्त़ राष्ट्रपति बशर अल-असद का समर्थन कर रही सेना दूसरे इलाकों में विद्रोहियों से निपटने पर ध्यान केंद्रित करने के लिए इस इलाके से पीछे हट गई थी। इस इलाके का नियंत्रण कुर्दों को दे दिया गया था।

कई मुद्दों पर कुर्दों से असहमत होने के बावजूद राष्ट्रपति असद ने इस क्षेत्र को फिर से लेने की कभी कोशिश नहीं की। ख़ासतौर पर तब जब इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ अंतरराष्ट्रीय गठबंधन में कुर्द इस क्षेत्र में अमरीकी सैनिकों के साथ साझेदार बन गए।

चूंकि डोनल्ड ट्रंप के उत्तर सीरिया से अमरीकी सैनिकों को वापस बुलाने के फ़ैसले के कुछ ही दिन बाद तुर्की ने ये हमला किया है। ऐसे में कुर्दों का कहना है कि वे अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के अपनी सेना को वापस बुलाने के फ़ैसले को धोखे की तरह देखते हैं।

ये भी कहा जा रहा है कि ट्रंप के इस कदम से तुर्की को एक तरह की हरी झंडी मिल गई है। तुर्की कुर्दों को चरमपंथी मानता है।

फिलहाल के लिए, सीरियाई सेना को तल आब्यद और रास अल-ऐन शहरों के बीच तैनात नहीं किया जाएगा। ताल तामेर के अलावा सैनिक ऐन इस्सा में भी पहुंचे हैं। सरकारी मीडिया के अनुसार सेना के पहुंचने पर लोगों ने जश्न मनाया जिसकी तस्वीरें भी प्रसारित की गईं हैं।  

तुर्की पर सैन्य अभियान रोकने का दबाव बढ़ रहा है लेकिन राष्ट्रपति रिचेप तैयप्प अर्दोआन ने कहा है कि यह अभियान जारी रहेगा। सोमवार को उन्होंने कहा कि तुर्की पीछे नहीं हटेगा। इस पर कोई क्या कहता है इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।

तुर्की कुर्दों को सीरिया में 32 किलोमीटर अंदर तक बन रहे 'सेफ़ ज़ोन' से बाहर धकेलना चाहता है। तुर्की ने यहां करीब 20 लाख से ज्यादा सीरियाई शरणार्थियों को फिर से बसाने की योजना बनाई है जो इस समय तुर्की में है। इनमें से ज़्यादातर कुर्द नहीं हैं।

अर्दोआन की करीबी सहयोगी रहे रूसी सरकार ने कहा कि वह सीरिया में रूसी और तुर्की बलों के बीच संघर्ष की कोई संभावना नहीं चाहती है और वह तुर्की के अधिकारियों के साथ लागतार संपर्क में है।

इससे पहले, राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा था कि कुर्द बलों ने अमरीका को संघर्ष में घसीटने के लिए इस्लामिक स्टेट के कैदियों को रिहा किया गया हो सकता है। उन्होंने आगे कहा, ''तुर्की पर बड़ा प्रतिबंध लगाया जाएगा।''

इन हमलों में अब तक सीरिया में कम से कम 50 और दक्षिण तुर्की में 18 आम नागरिक मारे गए हैं। कुर्द बलों ने अपने 56 लड़ाकों की मौत की पुष्टि की है।

तुर्की का कहना है कि सीरिया में उसके चार सैनिक और 16 तुर्की समर्थित सीरियाई लड़ाके भी मारे गए हैं।  

संयुक्त राष्ट्र मानवीय एजेंसी ने कहा कि एक लाख साठ हज़ार से अधिक नागरिक विस्थापित हुए हैं और यह संख्या बढ़ने की उम्मीद है।

रविवार को कुर्द अधिकारियों ने बताया कि इस्लामिक स्टेट से जुड़े करीब 800 लोग उत्तरी सीरिया में एक शिविर से भाग निकले हैं।

उन्होंने बताया कि बंदियों ने ऐन इस्सा के विस्थापन शिविर के गेट पर हमला किया। इस इलाक़े के नज़दीक ही लड़ाई चल रही है।

सीरियन डेमोक्रेटिक फोर्सेस के अनुसार शिविर में सात जेलों में इस्लामिक स्टेट से जुड़े करीब 12,000 संदिग्ध लोगों को रखा गया है जिनमें से लगभग 4,000 विदेशी महिलाएं और बच्चे हैं जिनका संबंध इस्लामिक स्टेट के लड़ाकों से है।

तुर्की ने कहा है कि वह आईएस के उन कैदियों की जिम्मेदारी लेगा जो उसे हमले के दौरान मिलेंगे।

तुर्की ने ये दावा किया है कि वो उत्तरी सीरिया में अपने कदम बढ़ा रहा है।  रविवार को तुर्की के राष्ट्रपति रिचेप तैय्यप अर्दोआन ने कहा कि सुरक्षा बलों ने 109 वर्ग किलोमीटर के इलाके में अपना कब्ज़ा कर लिया है।

कश्मीर पर मलेशिया और भारत में क्यों तनाव बढ़ा?

इमरान ख़ान पिछले साल अगस्त में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने और नवंबर में मलेशिया के दौरे पर गए।

इमरान ख़ान से तीन महीने पहले 2018 में ही 92 साल के महातिर मोहम्मद फिर से मलेशिया के प्रधानमंत्री बने थे। इमरान और महातिर के चुनावी कैंपेन में भ्रष्टाचार सबसे बड़ा मुद्दा था। इसके साथ ही दोनों देशों पर चीन का क़र्ज़ भी बेशुमार बढ़ रहा था।

महातिर राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी हैं। वो 1981 से 2003 तक इससे पहले सत्ता में रह चुके थे। वहीं इमरान ख़ान इससे पहले केवल क्रिकेट के खिलाड़ी थे। महातिर ने आते ही चीन के 22 अरब डॉलर की परियोजना को रोक दिया और कहा कि यह बिल्कुल ग़ैरज़रूरी थी।

दूसरी तरफ़ इमरान ख़ान ने वन बेल्ट वन रोड के तहत पाकिस्तान में चीन की 60 अरब डॉलर की परियोजना को लेकर उतनी ही बेक़रारी दिखाई जैसी बेक़रारी नवाज़ शरीफ़ की थी।

नवंबर 2018 में जब इमरान ख़ान क्वालालंपुर पहुँचे तो उनका स्वागत किसी रॉकस्टार की तरह किया गया। इमरान ख़ान ने कहा कि मलेशिया और पाकिस्तान दोनों एक पथ पर खड़े हैं।

इमरान ख़ान ने कहा था, ''मुझे और महातिर दोनों को जनता ने भ्रष्टाचार से आजिज आकर सत्ता सौंपी है। हम दोनों क़र्ज़ की समस्या से जूझ रहे हैं।  हम अपनी समस्याओं से एक साथ आकर निपट सकते हैं। महातिर ने मलेशिया को तरक्की के पथ पर लाया है। हमें उम्मीद है कि महातिर के अनुभव से हम सीखेंगे।''

दोनों मुस्लिम बहुल देश हैं।

इमरान ख़ान और मलेशिया के क़रीबी की यह शुरुआत थी। भारत और पाकिस्तान में जब भी तनाव की स्थिति बनी तो इमरान ख़ान ने महातिर मोहम्मद को फ़ोन किया। कहा जाता है कि इमरान ख़ान के शुरुआती विदेशी दौरे में मलेशिया एकमात्र देश था जिससे इमरान ख़ान ने क़र्ज़ नहीं मांगा।

महातिर मोहम्मद के शासन काल में पाकिस्तान मलेशिया के सबसे क़रीब आया। पाकिस्तान और मलेशिया के बीच 2007 में इकनॉमिक पार्टनरशिप एग्रीमेंट हुआ था।

इमरान ख़ान के दौरे पर महातिर ने पाकिस्तान को ऊर्जा सुरक्षा में मदद करने की प्रतिबद्धता जताई थी। पाँच अगस्त को जब भारत ने जम्मू-कश्मीर को मिले विशेष दर्जे को ख़त्म करने की घोषणा की तो महातिर उन राष्ट्र प्रमुखों में शामिल थे जिन्हें इमरान ख़ान ने फ़ोन कर समर्थन मांगा और महातिर ने इमरान को समर्थन दिया।

जब कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में गया तब भी मलेशिया पाकिस्तान के साथ था। यहां तक पिछले महीने संयुक्त राष्ट्र की आम सभा में भी मलेशियाई प्रधानमंत्री ने कश्मीर का मुद्दा उठाया और भारत को घेरा। भारत के लिए यह किसी झटके से कम नहीं था।

आख़िर मलेशिया पाकिस्तान के साथ क्यों है? साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट से नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ मलेशिया में स्ट्रैटिजिक स्टडीज के एक्सपर्ट रविचंद्रन दक्षिणमूर्ति ने कहा, ''मलेशिया और पाकिस्तान के बीच लंबे समय से अच्छे रिश्ते रहे हैं। 1957 में मलेशिया की आज़ादी के बाद पाकिस्तान उन देशों में शामिल था जिन्होंने सबसे पहले संप्रभु देश के रूप में मान्यता दी।''

रविचंद्रन ने कहा, ''पाकिस्तान और मलेशिया दोनों कई इस्लामिक संगठन और सहयोग से जुड़े हुए हैं। इन दोनों के संबंध में चीन का मामला बिल्कुल अलग है। मलेशिया और चीन के रिश्ते बिल्कुल सामान्य हैं लेकिन पाकिस्तान और चीन का संबंध बेहद ख़ास है। चीन पाकिस्तान में सबसे बड़ा हथियार आपूर्तिकर्ता देश है और दोनों देशों के रिश्ते भारत से अच्छे नहीं हैं। जब तक सत्ता में महातिर मोहम्मद रहे, तब तक पाकिस्तान से संबंध अच्छा रहा।''

भारत खाने में इस्तेमाल होने वाले तेलों का सबसे बड़ा आयातक देश है।  भारत के रुख़ को देखते हुए मलेशिया के प्रधानमंत्री ने रविवार को कहा था कि भारत के साथ द्विपक्षीय कारोबारी संबंधों की समीक्षा की जाएगी। उन्होंने कहा था कि भारत भी मलेशिया में निर्यात करता है और दोनों के कारोबारी रिश्ते द्विपक्षीय हैं न कि एकतरफ़ा।

भारत ने कश्मीर पर मलेशिया के रुख़ से काफ़ी नाराज़गी जताई और अब कहा जा रहा है कि दोनों देशों के ट्रेड रिलेशन भी प्रभावित हो सकते हैं। समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार महातिर मोहम्मद ने कहा है कि उनकी सरकार भारत के साथ द्विपक्षीय संबंधों की समीक्षा करेगी।

रॉयटर्स की रिपोर्ट के अनुसार भारत मलेशिया से पाम तेल के आयात को सीमित कर सकता है। इसके साथ ही मलेशिया से भारत अन्य वस्तुओं के आयात पर भी फिर से विचार कर सकता है।

महातिर ने यूएन की आम सभा में कहा था कि भारत ने कश्मीर को अपने क़ब्ज़े में रखा है। हालांकि सरकार की तरफ़ से इस पर अभी कोई टिप्पणी नहीं आई है।

रॉयटर्स के अनुसार भारतीय रिफाइनर्स ने नवंबर और दिसंबर में शिपमेंट के लिए मलेशिया से पाम तेल ख़रीदना बंद कर दिया है। एजेंसी के अनुसार इन्हें डर है कि भारत सरकार आयात शुल्क बढ़ा सकता है। डर है कि भारत सरकार इसे रोकने के लिए और क़दम उठा सकता है।

सोमवार को रॉयटर्स से पाँच ट्रेडर्स ने कहा है कि उन्होंने नवंबर-दिसंबर में शिपमेंट के लिए पाम तेल ख़रीदना बंद कर दिया है। भारत मलेशिया के पाम तेल का बड़ा ख़रीदार रहा है।

भारत के इस रुख़ से मलेशिया की पाम तेल इंडस्ट्री प्रभावित हो सकती है। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत के इस फ़ैसले से इंडोनेशिया को फ़ायदा हो सकता है।

रॉयटर्स ने भारत के वाणिज्य मंत्रालय से इस मामले में संपर्क साधा लेकिन कोई जवाब नहीं मिला है। मुंबई के कारोबारी ने रॉयटर्स से कहा, ''मलेशिया से कारोबार करने से पहले हमें स्पष्टीकरण चाहिए अगर सरकार की तरफ़ से कोई स्पष्टीकरण नहीं आया तो हम इंडोनेशिया से व्यापार शुरू कर देंगे। मुंबई में वेजिटेबल ऑइल कंपनी के सीईओ संदीप बजोरिया ने कहा, ''दोनों तरफ़ के बिजनेसमैन कन्फ़्यूज्ड हैं। हमें नहीं पता कि क्या होने वाला है?''

भारत में खाने में इस्तेमाल किए जाने वाले तेलों में पाम तेल का हिस्सा दो तिहाई है। भारत हर साल 90 लाख टन पाम तेल आयात करता है। यह आयात मुख्य रूप से मलेशिया और इंडोनेशिया से होता है।

2019 के पहले नौ महीनों में भारत ने मलेशिया से 30.9 लाख टन पाम तेल का आयात किया। मलेशियाई पाम ऑइल बोर्ड के डेटा के अनुसार भारत का मलेशिया से मासिक आयात चार लाख 33 हज़ार टन है।

महातिर जब तक सत्ता में रहे, तब तक पाकिस्तान से संबंध अच्छा रहा है।  2003 में उनके रिटायर होने के बाद भारत से मलेशिया की क़रीबी बढ़ी थी। पिछले साल जब एक फिर से महातिर की हैरान करने वाली वापसी हुई तो फिर से पाकिस्तान से क़रीबी बढ़ी।