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राहुल गांधी का कोरोना वायरस और इसके आर्थिक प्रभाव पर नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी के साथ बातचीत, एपिसोड - 6

राहुल गांधी: भारत में तो आपको जाति की समस्या से दोचार होना पड़ता है, क्योंकि यहां तो असरदार जातियां पैसे को अपने तरीके से इस्तेमाल कर लेती हैं।

डॉ बनर्जी: हो सकता है, लेकिन दूसरी तरफ, आप इसे रोक भी सकते हैं। ऐसे में मैं कुछ अतिरिक्त पैसा रखूंगा ताकि गांव के पात्र लोगों तक यह पहुंच जाए। बिल्कुल उसी तरह जैसा कि आप कह रहे हैं कि पीडीएस मामले में हो। यानी इसे एक सिद्धांत बना लें। इस तरह इससे बचा जा सकता है।

लेकिन आप लोगों तक पैसा पहुंचाने से अधिक किए जाने की बात कर रहे हैं। कुछ लोगों के जनधन खाते हैं और कुछ के नहीं है। कुछ लोगों का नाम मनरेगा में हैं, यह एक और तरीका है लोगों तक पहुंचने का। कुछ के पास उज्जवला है कुछ के पास नहीं है। एक बार आप सूची देखिए और आपको पता चल जाएगा कि लाखों लोग इनसे वंचित हैं, तो फिर इन तक लाभ कैसे पहुंचाया जाए? हां एक बात साफ है कि स्थानीय प्रशासन के पास पैसा होना चाहिए जो लोगों की पहचान कर उन्हें लाभ दे सके। मैं आपसे सहमत हूं कि प्रभावी जातियां इसका फायदा उठा सकती हैं। हमें इंडोनेशिया में भी ऐसी ही आशंका थी, लेकिन यह बहुत ज्यादा बड़ी नही थी। मुझे लगता है कि हमें कोशिश करनी चाहिए, यह जानते हुए भी इसमें से कुछ तो गड़बड़ होगी ही। अगर कोशिश नहीं करेंगे तो ज्यादा बड़ी दिक्कत होगी।

राहुल गांधी: यानी हिम्मत से आगे बढ़े, जोखिम उठाएं, क्योंकि हम बहुत खराब स्थिति में हैं।

डॉ बनर्जी: जब आप मुसीबत में हों तो हिम्मत से ही काम लेना चाहिए।

राहुल गांधी: आपको क्या लगता है, मानो अगर अब से 6 माह में यह बीमारी खत्म हो गई तो गरीबी के मोर्चे पर क्या होगा? इसका बुरा प्रभाव होगा, लोग दिवालिया होंगे। हम इस सबसे मीडियम टर्म में कैसे निपटें?

डॉ बनर्जी: देखिए यही सब जो हम बात कर रहे हैं। मांग में कमी का मसला है। दो चिंताएं हैं, पहली कि कैसे दिवालिया होने की चेन को टालें, कर्ज माफी एक तरीका हो सकता है, जैसा कि आपने कहा। दूसरा है मांग में कमी का, और लोगों के हाथ में पैसा देकर भारतीय अर्थव्यवस्था का पहिया घुमाया जा सकता है। अमेरिका बड़े पैमाने पर ऐसा कर रहा है। वहां रिपब्लिकन सरकार है जिसे कुछ फाइनेंसर चलाते हैं। अगर हम चाहें तो हम भी ऐसा कर सकते हैं। वहां समाजवादी सोच वाले उदारवादी लोगों की सरकार नहीं है, लेकिन ऐसे लोग हैं जो वित्तीय क्षेत्र में काम करते रहे हैं। लेकिन उन्होंने फैसला किया कि अर्थव्यवस्था बचाने के लिए लोगों के हाथ में पैसा देना होगा। मुझे लगता है हमें इससे सीख लेनी चाहिए।

राहुल गांधी: इससे विश्व में सत्ता संतुलन में भी कुछ हद तक बदलाव की संभावना बनती है, यह भी साफ ही है। आप इस बारे में क्या सोचते हैं?

डॉ बनर्जी: मुझे इटली और फ्रांस जैसे देशों की ज्यादा चिंता है। खासतौर से इटली, जिसने विनाशकारी परिणाम भुगता और आंशिक रूप से इस बात का परिणाम है कि इटली में कई सालों से योग्य शासन नहीं रहा। नतीजतन स्वास्थ्य सेवा बिल्कुल चरमराई हुई थी। अमेरिका ने एक राष्ट्रवादी नजरिया अपनाया है जो कि दुनिया के लिए सही नहीं है। चीन का उभार उसके लिए खतरा है और अगर अमेरिका ने इस पर प्रतिक्रिया करना शुरु कर दिया तो इससे अस्थिरता का खतरा बन जाएगा। यह सबसे चिंताजनक बात है।

राहुल गांधी: यानी मजबूत नेता इस वायरस से निपट सकते हैं। और ऐसा समझाया जा रहा है कि सिर्फ एक आदमी ही इस वायरस को मात दे सकता है।

डॉ बनर्जी: यह घातक होगा। अमेरिका और ब्राजील दो ऐसे देश हैं जो बुरी तरह अव्यवस्था का शिकार हैं। यहां दो कथित मजबूत नेता हैं, और ऐसा दिखाते हैं कि उन्हें सब कुछ पता है, लेकिन वे हर रोज जो भी कहते हैं उस पर हंसी ही आती है। अगर किसी को मजबूत नेता के सिद्धांत में भरोसा है तो उन्हें इसे बारे में सोचना चाहिए।

राहुल गांधी: थैंक यू वेरी मच। जब भी आप भारत में हों, तो प्लीज साथ में चाय पीते हैं। घर में सबको प्रणाम।

डॉ बनर्जी: आपको भी, और अपना ध्यान रखना।

राहुल गांधी का कोरोना वायरस और इसके आर्थिक प्रभाव पर नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी के साथ बातचीत, एपिसोड - 5

राहुल गांधी: मुझे लगता है कि आपको विकल्प तलाशने होंगे। जितना संभव हो विकेंद्रीकरण हो, मुझे लगता है स्थानीय स्तर पर इनसे निपटा जा सकता है, जो कि अच्छी बात है। सोच यह होनी चाहिए कि जो चीजें जिला स्तर पर या राज्य स्तर पर संभल सकती हैं, उन्हें अलग कर देना चाहिए। हां, बहुत सी चीजें हैं जिन्हें कोई जिला कलेक्टर नहीं तय कर सकता, जैसे की एयरलाइंस या फिर रेलवे आदि। तो मेरा मानना है कि बड़े फैसले राष्ट्रीय स्तर पर हों, लेकिन स्थानीय मुद्दों पर फैसले, जैसे कि लॉकडाउन उसे राज्य सरकार के विवेक पर छोड़ना चाहिए। राज्यों के विकल्प को अहमियत मिले और राज्य तय करें कि वे क्या कर सकते हैं क्या नहीं कर सकते। और जब जोखिम राज्यों पर आएगा तो वे इसे बेहतर तरीके से संभाल सकेंगे। लेकिन मुझे लगता है कि मौजूदा सरकार का नजरिया अलग है। वे चीजों को अपने नियंत्रण में रखना चाहते हैं। वे चीजों को देखते हैं और उसका केंद्रीकरण कर देते हैं। यह दो नजरिए हैं। मुझे नहीं लगता कि इसमें से कोई गलत या सही है। मैं तो विकेंद्रीकरण का पक्षधर हूं।

डॉ बनर्जी: मैं सोचता हूं कि मैं क्या करता? मैं जो कुछ भी पैसा मेरे पास है उसके आधार पर कुछ अच्छी योजनाओं का ऐलान करता कि यह पैसा गरीबों तक पहुंचेगा और फिर इसका असर देखते हुए इसमें आगे सुधार करता। मुझे लगता है कि हर राज्य में बहुत से अच्छे एनजीओ हैं जो इसमें मदद कर सकते हैं। जैसा कि आपने कहा कि जिला मजिस्ट्रेट के पास भी कई बार अच्छे आइडिया होते हैं। हमें इन सबका फायदा उठाना चाहिए।

राहुल गांधी: क्या कुछ दूसरे देशों में कुछ ऐसे अनुभव आपने देखे जिनसे फायदा हो सकता हो?

डॉ बनर्जी: मैं आपको बताता हूं कि इंडोनेशिया इस वक्त क्या कर रहा है? इंडोनेशिया लोगों को पैसा देने जा रहा है और यह सब कम्यूनिटी स्तर पर फैसला लेने की प्रक्रिया के तहत हो रहा है। यानी कम्यूनिटी तय कर रही है कि कौन जरूरतमंद है? और फिर उसे पैसा ट्रांसफर किया जा रहा है। हमने इंडोनेशिया की सरकार के साथ काम किया है और देखा कि केंद्रीकृत प्रक्रिया के मुकाबले यह कहीं ज्यादा सही प्रक्रिया है। इससे आप किसी खास हित को सोचे बिना फैसला लेते हो। यहां स्थानीय स्तर पर लोग ही तय कर रहे हैं कि क्या सही है? मुझे लगता है कि यह ऐसा अनुभव है जिससे हम सीख सकते हैं। उन्होंने कम्यूनिटी को बताया कि देखो पैसा है, और इसे उन लोगों तक पहुंचाना है जो जरूरतमंद हैं। आपात स्थिति में यह अच्छी नीति है क्योंकि कम्यूनिटी के पास कई बार वह सूचनाएं और जानकारियां होती हैं तो केंद्रीकृत व्यवस्था में आपके पास नहीं होतीं।

राहुल गांधी: भारत में तो आपको जाति की समस्या से दोचार होना पड़ता है, क्योंकि यहां तो असरदार जातियां पैसे को अपने तरीके से इस्तेमाल कर लेती हैं।

डॉ बनर्जी: हो सकता है, लेकिन दूसरी तरफ, आप इसे रोक भी सकते हैं। ऐसे में मैं कुछ अतिरिक्त पैसा रखूंगा ताकि गांव के पात्र लोगों तक यह पहुंच जाए। बिल्कुल उसी तरह जैसा कि आप कह रहे हैं कि पीडीएस मामले में हो। यानी इसे एक सिद्धांत बना लें। इस तरह इससे बचा जा सकता है।

लेकिन आप लोगों तक पैसा पहुंचाने से अधिक किए जाने की बात कर रहे हैं। कुछ लोगों के जनधन खाते हैं और कुछ के नहीं है। कुछ लोगों का नाम मनरेगा में हैं, यह एक और तरीका है लोगों तक पहुंचने का। कुछ के पास उज्जवला है कुछ के पास नहीं है। एक बार आप सूची देखिए और आपको पता चल जाएगा कि लाखों लोग इनसे वंचित हैं, तो फिर इन तक लाभ कैसे पहुंचाया जाए? हां एक बात साफ है कि स्थानीय प्रशासन के पास पैसा होना चाहिए जो लोगों की पहचान कर उन्हें लाभ दे सके। मैं आपसे सहमत हूं कि प्रभावी जातियां इसका फायदा उठा सकती हैं। हमें इंडोनेशिया में भी ऐसी ही आशंका थी, लेकिन यह बहुत ज्यादा बड़ी नही थी। मुझे लगता है कि हमें कोशिश करनी चाहिए, यह जानते हुए भी इसमें से कुछ तो गड़बड़ होगी ही। अगर कोशिश नहीं करेंगे तो ज्यादा बड़ी दिक्कत होगी।

राहुल गांधी: यानी हिम्मत से आगे बढ़े, जोखिम उठाएं, क्योंकि हम बहुत खराब स्थिति में हैं।

डॉ बनर्जी: जब आप मुसीबत में हों तो हिम्मत से ही काम लेना चाहिए।

राहुल गांधी का कोरोना वायरस और इसके आर्थिक प्रभाव पर नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी के साथ बातचीत, एपिसोड - 4

राहुल गांधी: यानी लॉकडाउन से जितना जल्दी बाहर आ जाएं वह बेहतर होगा। इसके लिए एक रणनीति की जरूरत होगी, इसके लिए कुछ आर्थिक गतिविधियां शुरु करनी होंगी। नहीं तो पैसा भी बेकार ही साबित होगा।

डॉ बनर्जी: लॉकडाउन से कितना जल्दी बाहर आएं यह सब बीमारी पर निर्भर करता है। अगर बहुत सारे लोग बीमार हो रहे हैं तो लॉकडाउन कैसे खत्म होगा? आप ठीक कह रहे हैं कि हमें बीमारी की रफ्तार को काबू करना होगा और इस पर नजर रखनी होगी।

राहुल गांधी: भारत के संबंध में जो दूसरी अहम बात है वह भोजन का मुद्दा, और इसके स्केल की बात। बेशुमार लोग ऐसे हैं जिनके पास राशन कार्ड नहीं हैं। एक तर्क यह है कि गोदामों में जो कुछ भरा हुआ है उसे लोगों को दे दिया जाए, क्योंकि फसल का मौसम है और नई फसल से यह फिर से भर जाएंगे। तो इस पर आक्रामकता के साथ आगे बढ़ने की जरूरत है।

डॉ बनर्जी: दरअसल रघुराम राजन और अमर्त्य सेन के साथ मिलकर मैंने ने एक पेपर लिखा था। इसमें यही बात कही थी कि जिसको भी जरूरत हो उसे अस्थाई राशन कार्ड दे दिया जाए। असल में दूसरे राशन कार्ड को अलग ही कर दिया जाए, सिर्फ अस्थाई राशन कार्ड को ही मान्यता दी जाए। जिसको भी चाहिए उसे यह मिल जाए। शुरु में तीन महीने के लिए और इसके बाद जरूरत हो तो रीन्यू कर दिया जाए, और इसके आधार पर राशन दिया जाए। जो भी मांगने आए उसे राशन कार्ड दे दो और इसे बेनिफिट ट्रांसफर का आधार बना लो। मुझे लगता है कि हमारे पास पर्याप्त भंडार है, और हम काफी समय तक इस योजना को चला सकते हैं। रबी की फसल अच्छी हुई है तो बहुत सा अनाज (गेंहू, चावल) हमारे पास है। कम से कम हम गेहूं और चावल तो दे सकते हैं। मुझे नहीं पता है कि हमारे पास पर्याप्त मात्रा में दाल है या नहीं। लेकिन मुझे लगता है कि सरकार दाल का भी वादा करे। खाने के तेल की भी व्यवस्था हो। लेकिन हां इसके लिए हमें अस्थाई राशन कार्ड हर किसी को जारी करने चाहिए।

राहुल गांधी: सरकार को पैकेज में और क्या-क्या करना चाहिए? हमने छोटे और मझोले उद्योगों की बात की, प्रवासी मजदूरों की बात की, भोजन की बात की। इसके अलावा और क्या हो सकता है जो आप सोचते हैं सरकार को करना चाहिए?

डॉ बनर्जी: आखिरी बात इसमें यह होगी कि हम उन लोगों तक पैसा पहुंचाएं जिन्हें मशीनरी आदि की जरूरत है। हम लोगों तक कैश नहीं पहुंचा सकते। जिन लोगों के जनधन खाते हैं, उन्हें तो पैसा मिल जाएगा। लेकिन बहुत से लोगों के खाते नहीं है। खासतौर से प्रवासी मजदूरों के पास तो ऐसा नहीं है। हमें आबादी के उस बड़े हिस्से के बारे में सोचना होगा जिनकी पहुंच इस सब तक नहीं है। ऐसे में सही कदम होगा कि हम राज्य सरकारों को पैसा दें जो अपनी योजनाओं के जरिए लोगों तक पहुंचे, इसमें एनजीओ की मदद ली जा सकती है। मुझे लगता है कि हमें कुछ पैसा इस मद में भी रखना होगा कि वह गलत लोगों तक पहुंच गया या इधर-उधर हो गया। लेकिन अगर पैसा हाथ में ही रखा रहा, यानी हम कुछ करना ही नहीं चाहते तो बहुत बड़ी गड़बड़ हो जाएगी।

राहुल गांधी: केंद्रीकरण और विकेंद्रीकरण के बीच संतुलन का भी मुद्दा है। हर राज्य की अपनी दिक्कतें और खूबियां हैं। केरल एकदम अलग तरीके से हालात संभाल रहा है। उत्तर प्रदेश का तरीका एकदम अलग है। लेकिन केंद्र सरकार को एक खास भूमिका निभानी है। लेकिन इन दोनों विचारों को लेकर ही मुझे कुछ तनाव दिखता है।

डॉ बनर्जी: आप बिल्कुल सही कह रहे हैं कि तनाव है और प्रवासी मजदूरों के पलायन का मुद्दा सिर्फ राज्य सरकारें नहीं संभाल सकतीं। यह थोड़ा अजीब है कि इस मोर्चे को इतना द्विपक्षीय बनाकर देखा जा रहा है। मुझे लगता है कि यह एक समस्या है। यहां आप विकेंद्रीकरण नहीं करना चाहते क्योंकि आप सूचनाओं को साझा करना चाहते हो। अगर आबादी का यह हिस्सा संक्रमित है तो आप नहीं चाहोगे कि वह देश भर में घूमता फिरे। मुझे लगता है कि लोगों को जिस स्थान से ट्रेन में चढ़ाया जा रहा है उनका टेस्ट वहीं होना चाहिए। यह एक केंद्रीय प्रश्न है और इसका जवाब सिर्फ केंद्र सरकार के पास है। मिसाल के तौर पर उत्तर प्रदेश सरकार को साफ बता दो कि आप अपने यहां के मजदूरों को घर नहीं ला सकते। यानी अगर मजदूर मुंबई में हैं तो यह महाराष्ट्र सरकार की या फिर मुंबई शहर की म्यूनिसिपैलिटी की समस्या है, और केंद्र सरकार इसका हल नहीं निकाल सकती। मुझे लगता है कि आप सही कह रहे हैं। लेकिन फिलहाल इस पर आपकी क्या राय है? ऐसा लगता है कि इस समस्या का कोई हल नहीं है। लेकिन लंबे समय में देखें तो संस्थाएं मजबूत हैं। लेकिन फिलहाल तो ऐसा नहीं हो रहा जो हम कर सकते हैं।

राहुल गांधी: मुझे लगता है कि आपको विकल्प तलाशने होंगे। जितना संभव हो विकेंद्रीकरण हो, मुझे लगता है स्थानीय स्तर पर इनसे निपटा जा सकता है, जो कि अच्छी बात है। सोच यह होनी चाहिए कि जो चीजें जिला स्तर पर या राज्य स्तर पर संभल सकती हैं, उन्हें अलग कर देना चाहिए। हां, बहुत सी चीजें हैं जिन्हें कोई जिला कलेक्टर नहीं तय कर सकता, जैसे की एयरलाइंस या फिर रेलवे आदि। तो मेरा मानना है कि बड़े फैसले राष्ट्रीय स्तर पर हों, लेकिन स्थानीय मुद्दों पर फैसले , जैसे कि लॉकडाउन उसे राज्य सरकार के विवेक पर छोड़ना चाहिए। राज्यों के विकल्प को अहमियत मिले और राज्य तय करें कि वे क्या कर सकते हैं क्या नहीं कर सकते और जब जोखिम राज्यों पर आएगा तो वे इसे बेहतर तरीके से संभाल सकेंगे। लेकिन मुझे लगता है कि मौजूदा सरकार का नजरिया अलग है। वे चीजों को अपने नियंत्रण में रखना चाहते हैं। वे चीजों को देखते हैं और उसका केंद्रीकरण कर देते हैं। यह दो नजरिए हैं। मुझे नहीं लगता कि इसमें से कोई गलत या सही है। मैं तो विकेंद्रीकरण का पक्षधर हूं।

राहुल गांधी का कोरोना वायरस और इसके आर्थिक प्रभाव पर नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी के साथ बातचीत, एपिसोड - 3

डॉ बनर्जी: यही कारण है कि हम जैसे लोग कहते हैं कि प्रोत्साहन पैकेज दिया जाए। अमेरिका यही कर रहा है, जापान और यूरोप यही कर रहे हैं। हमने अभी तक इस बारे में कुछ फैसला नहीं किया है। हम अभी भी सिर्फ जीडीपी के 1% की बात कर रहे हैं। अमेरिका ने जीडीपी के 10% के बराबर पैकेज दिया है। मुझे लगता है कि एमएसएमई सेक्टर के लिए हम आसानी से कर सकते हैं, और वह सही भी होगा कि हम कुछ समय के लिए कर्ज वसूली पर रोक लगा सकते हैं। हम इससे ज्यादा भी कर सकते हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि इस तिमाही के कर्ज की अदायगी रद्द कर दी गई है और सरकार इसका भुगतान करेगी। तो आप इससे ज्यादा भी कर सकते हैं। सिर्फ कर्ज की अदायगी को आगे-पीछे करने के बजाए, इसे माफ ही कर दिया जाना सही रहेगा। लेकिन इससे भी आगे यह साफ नहीं है कि क्या सिर्फ एमएसएमई को ही लक्ष्य बनाना सही रहेगा? जरूरत तो मांग बढ़ाने की है। लोगों के हाथ में पैसा होना चाहिए ताकि वे खरीदारी कर सकें, स्टोर्स में जाएं, कंज्यूमर गुड्स खरीदें। एमएसएमई के काफी उत्पाद हैं जिन्हें लोग खरीदते हैं, लेकिन वे खरीद नहीं रहे हैं। अगर उनके पास पैसा हो और आप पैसे देने का वादा करो तो यह संभव है। पैसा है नहीं। अगर आप रेड जोन में हो, या जहां भी लॉकडाउन हटाया जा रहा है, तो अगर आपके खाते में 10,000 रुपए हैं तो आप खर्च कर सकते हो। अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए खर्च कराना सबसे आसान तरीका है। क्योंकि इससे एमएसएमई के हाथ में भी पैसा आएगा, वे भी खर्च करेंगे, और इस तरह एक चेन बन जाएगी।

राहुल गांधी: यानी हम एक तरह से न्याय योजना की बात कर रहे हैं यानी डायरेक्ट कैश ट्रांसफर जो लोगों तक सीधे पहुंचे।

डॉ बनर्जी: बिल्कुल। यह सिर्फ गरीबों के लिए ही हो, इस पर बहस हो सकती है। मैं तो बड़ी बात कह रहा हूँ ... मेरा मानना है कि टारगेटिंग ही सबसे अहम होगी। आप एक झमेले के बीच लक्ष्य तय कर रहे हो। ऐसे भी लोग होंगे जिनकी दुकान 6 सप्ताह से बंद है और वह गरीब हो गया है। मुझे नहीं पता कि ऐसे लोगों की पहचान कैसे होगी? मैं तो कहूंगा कि आबादी के निचले 60 फीसदी को लक्ष्य मानकर उन्हें पैसे देने चाहिए, इससे कुछ बुरा नहीं होगा। हम उन्हें पैसा देंगे, उन्हें जरूरत है, वे खर्च करेंगे, इसका एक प्रभावी असर होगा। मैं आपके मुकाबले इसमें कुछ और आक्रामकता चाहता हूं, मैं चाहता हूं कि पैसा गरीबों से आगे जाकर भी लोगों को दिया जाए।

राहुल गांधी: तो आप लोगों की बड़े पैमाने पर ग्रुपिंग की बात कर रहे हैं सीधे-सीधे। यानी जितना जल्दी संभव हो मांग को बढ़ाना चाहिए।

डॉ बनर्जी: बिल्कुल। मैं यही कह रहा हूं। संकट से पहले से मैं यही कह रहा हूं कि मांग की समस्या हमारे सामने है। और अब तो यह और बड़ी समस्या हो गई है, क्योंकि यह असाधारण है। मेरे पास पैसा नहीं है, मैं खरीदारी नहीं करूंगा क्योंकि मेरी तो दुकान बंद हो चुकी है। और मेरी दुकान बंद हो चुकी है तो मैं आपसे भी कुछ नहीं खरीदूंगा।

राहुल गांधी: मुझे लगता है कि आप कह रहे हैं कि जो भी करना है, उसे तेजी से करने की जरूरत है। जितना जल्दी कर पाएंगे उतना ही यह प्रभावी होगा। यानी हर सेकेंड जो जा रहा है वह नुकसान को बढ़ा रहा है।

डॉ बनर्जी: आप बिल्कुल सही कह रहे हैं। मैं नहीं चाहता कि हम मदद से पहले हर किसी की योग्यता देखें कि वह पात्र है कि नहीं। मैं मानता हूं कि हम सप्लाई और डिमांड की एक बेमेल चेन खड़ी कर लेंगे, क्योंकि पैसा तो हमने दे दिया लेकिन रेड जोन में होने के कारण रिटेल सेक्टर तो बंद है। इसलिए हमें बेहतर ढंग से सोचना होगा कि जब आप खरीदारी के लिए बाहर जाएं तभी आपको पैसा मिले न कि पहले से। या फिर सरकार वादा करे कि आप परेशान न हों, आपको पैसा मिलेगा और भूखे मरने की नौबत नहीं आएगी, ताकि आपके पास कुछ बचत रह सके। अगर लोगों को यह भरोसा दिया जाए कि दो महीने या जब तक लॉकडाउन है, उनके हाथ में पैसा रहेगा, तो वे परेशान नहीं होंगे और खर्च करना चाहेंगे। इनमें से कुछ के पास अपनी बचत होगी। इसलिए जल्दबाजी करना भी ठीक नहीं होगा, क्योंकि अभी तो सप्लाई ही नहीं है। ऐसे में पैसा दे भी दें तो वह बेकार होगा, महंगाई अलग बढ़ेगी। इस अनुरोध के साथ, हां जल्दी फैसला लेना होगा।

राहुल गांधी: यानी लॉकडाउन से जितना जल्दी बाहर आ जाएं वह बेहतर होगा। इसके लिए एक रणनीति की जरूरत होगी, इसके लिए कुछ आर्थिक गतिविधियां शुरु करनी होंगी। नहीं तो पैसा भी बेकार ही साबित होगा।

डॉ बनर्जी: लॉकडाउन से कितना जल्दी बाहर आएं यह सब बीमारी पर निर्भर करता है। अगर बहुत सारे लोग बीमार हो रहे हैं तो लॉकडाउन कैसे खत्म होगा? आप ठीक कह रहे हैं कि हमें बीमारी की रफ्तार को काबू करना होगा और इस पर नजर रखनी होगी।

राहुल गांधी का कोरोना वायरस और इसके आर्थिक प्रभाव पर नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी के साथ बातचीत, एपिसोड - 2

डॉ बनर्जी: मेरी नजर में यह दो अलग बातें हैं। एक तरह से मैं सोचता हूं कि असली समस्या जो तुरंत है वह है कि यूपीए ने जो अच्छी नीतियां बनाई थीं, वह इस समय नाकाफी हैं। सरकार ने एक तरह से उन्हें अपनाया है। ऐसा नहीं है कि इस पर कोई भेदभाव वाली असहमति थी। यह एकदम स्पष्ट है कि जो कुछ भी हो सकता था उसके लिए यूपीए की नीतियां ही काम आतीं।

मुश्किल काम यह है कि आखिर उन लोगों के लिए क्या किया जाए जो इन नीतियों या योजनाओं का हिस्सा नहीं है। और ऐसे बहुत से लोग हैं। खासतौर से प्रवासी मजदूर। यूपीए शासन के आखिरी साल में जो योजना लाई गई थी कि आधार को देशभर में लागू किया जाए और इसका इस्तेमाल पीडीएस और दूसरी योजनाओं के लिए किया जाए। आधार से जुड़े लाभ आपको मिलेंगे, आप कहीं भी हों। इस योजना को इस समय लागू करने की सबसे बड़ी जरूरत है। अगर हम पीछे मुड़कर देखें तो इससे बहुत सारे लोगों को मुसीबत से बचाया जा सकता था। अगर ऐसा होता तो लोग स्थानीय राशन की दुकान पर जाते और अपना आधार दिखाकर कहते कि मैं पीडीएस का लाभार्थीं हूं। मसलन भले ही मैं मालदा या दरभंगा या कहीं का भी रहने वाला हूं, लेकिन मैं मुंबई में इसका लाभ ले सकता हूं। भले ही मेरा परिवार मालदा या दरभंगा में रहता हो। लेकिन यहां मेरा दावा है। और ऐसा नहीं हुआ तो इसका अर्थ यही है कि बहुत से लोगों के लिए कोई सिस्टम ही नहीं है। वे मनरेगा के भी पात्र नहीं रहे क्योंकि मुंबई में तो मनरेगा है नहीं, और पीडीएस का भी हिस्सा नहीं बन पाए क्योंकि वे स्थानीय निवासी नहीं हैं।

दरअसल समस्या यह है कि कल्याणकारी योजनाओं का ढांचा बनाते वक्त सोच यह थी कि अगर कोई अपने मूल स्थान पर नहीं है तो मान लिया गया कि वह काम कर रहा है और उसे आमदनी हो रही है। और इसी कारण यह सिस्टम धराशायी हो गया।

इसके बाद सवाल है गरीबी का। मुझे नहीं पता कि अगर अर्थव्यवस्था सुधरती भी है तो इसका गरीबी पर कोई टिकाऊ असर होगा। बड़ी चिंता यह है कि क्या अर्थव्यवस्था उबरेगी? और खासतौर से जिस तरह यह बीमारी समय ले रही है और जो प्रक्रियाएं अपनाई जा रही हैं उसमें। मेरा मानना है कि हमें आशावादी होना चाहिए कि देश की आर्थिक स्थिति सुधरेगी, बस यह है कि सही फैसले लिए जाएं।

राहुल गांधी: लेकिन इसमें से अधिकतर को छोटे और मझोले उद्योगों और कारोबारों में काम मिलता है। इन्हीं उद्योगों और कारोबारों के सामने नकदी की समस्या है। इनमें से बहुत से काम-धंधे इस संकट में दिवालिया हो सकते हैं। ऐसे में इन काम-धंधों के आर्थिक नुकसान का इनसे सीधा संबंध है क्योंकि इन्हीं में से बहुत से कारोबार इन लोगों को रोजगार-नौकरी देते हैं।

डॉ बनर्जी: यही कारण है कि हम जैसे लोग कहते हैं कि प्रोत्साहन पैकेज दिया जाए। अमेरिका यही कर रहा है, जापान और यूरोप यही कर रहे हैं। हमने अभी तक इस बारे में कुछ फैसला नहीं किया है। हम अभी भी सिर्फ जीडीपी के 1% की बात कर रहे हैं। अमेरिका ने जीडीपी के 10% के बराबर पैकेज दिया है। मुझे लगता है कि एमएसएमई सेक्टर के लिए हम आसानी से कर सकते हैं, और वह सही भी होगा कि हम कुछ समय के लिए कर्ज वसूली पर रोक लगा सकते हैं। हम इससे ज्यादा भी कर सकते हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि इस तिमाही के कर्ज की अदायगी रद्द कर दी गई है और सरकार इसका भुगतान करेगी। तो आप इससे ज्यादा भी कर सकते हैं। सिर्फ कर्ज की अदायगी को आगे-पीछे करने के बजाए, इसे माफ ही कर दिया जाना सही रहेगा। लेकिन इससे भी आगे यह साफ नहीं है कि क्या सिर्फ एमएसएमई को ही लक्ष्य बनाना सही रहेगा। जरूरत तो मांग बढ़ाने की है। लोगों के हाथ में पैसा होना चाहिए ताकि वे खरीदारी कर सकें, स्टोर्स में जाएं, कंज्यूमर गुड्स खरीदें। एमएसएमई के काफी उत्पाद हैं जिन्हें लोग खरीदते हैं, लेकिन वे खरीद नहीं रहे हैं। अगर उनके पास पैसा हो और आप पैसे देने का वादा करो तो यह संभव है। पैसा है नहीं। अगर आप रेड जोन में हो, या जहां भी लॉकडाउन हटाया जा रहा है, तो अगर आपके खाते में 10,000 रुपए हैं तो आप खर्च कर सकते हो। अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए खर्च कराना सबसे आसान तरीका है। क्योंकि इससे एमएसएमई के हाथ में भी पैसा आएगा, वे भी खर्च करेंगे, और इस तरह एक चेन बन जाएगी।

राहुल गांधी: यानी हम एक तरह से न्याय योजना की बात कर रहे हैं यानी डायरेक्ट कैश ट्रांसफर जो लोगों तक सीधे पहुंचे।

राहुल गांधी का कोरोना वायरस और इसके आर्थिक प्रभाव पर नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी के साथ बातचीत, एपिसोड - 1

इंडियन नेशनल कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी और नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री डॉ अभिजीत बनर्जी के बीच कोरोना महामारी, इसके कारण पैदा होने वाली भविष्य की आर्थिक चुनौतियों और इन आर्थिक चुनौतियों से कैसे निपटा जाये पर महत्वपूर्ण संवाद।

राहुल गांधी: सबसे पहले तो आपका बहुत-बहुत धन्यवाद अपना समय देने के लिए। आप बहुत बिजी रहते हैं।

डॉ बनर्जी: नहीं...नहीं...आपसे ज्यादा नहीं।

राहुल गांधी: यह थोड़ा सपने जैसा नहीं लगता कि सबकुछ बंद है।

डॉ बनर्जी: हां ऐसा ही है, सपने जैसा, लेकिन भयावह, दरअसल यह ऐसा है कि किसी को कुछ पता नहीं है कि आगे क्या होने वाला है?

राहुल गांधी: आपके तो बच्चे हैं, तो उन्हें इस सबको देखकर कैसा लग रहा है?

डॉ बनर्जी: मेरी बेटी थोड़ा परेशान है। वह अपने दोस्तों के साथ जाना चाहती है। मेरा बेटा छोटा है और वह तो खुश है कि हर वक्त उसके मां-बाप साथ में हैं। उसके लिए तो यह कुछ भी गलत नहीं है।

राहुल गांधी: लेकिन वहां भी पूरा ही लॉकडाउन है। तो वे बाहर तो जा नहीं सकते?

डॉ बनर्जी: नहीं, नहीं, ऐसा नहीं है, हम बाहर जा सकते हैं। टहलने पर कोई बाबंदी नहीं है, साइक्लिंग और ड्राइव करने पर भी रोक नहीं है। बस इतना है कि साथ-साथ नहीं जा सकते, शायद इस पर पाबंदी है।

राहुल गांधी: इससे पहले कि मैं शुरु करूं, मेरी एक उत्सुकता है। आपको नोबेल पुरस्कार मिला। क्या आपको उम्मीद थी? या फिर यह एकदम अचानक हो गया?

डॉ बनर्जी: एकदम अचानक था यह। मुझे लगता है कि यह ऐसी चीज है कि जिसके बारे में सोचते रहो तो आप इसे बहुत ज्यादा मन में लेकर बैठ जाते हो। और मैं चीजों को मन में लेकर बैठने वाला व्यक्ति नहीं हूं, खासतौर से उन चीजों के लिए जिनका मेरे जीवन पर कोई तात्कालिक प्रभाव नहीं पड़ता है। मुझे किसी चीज की उम्मीद नहीं रहती है ... यह एकदम से सरप्राइज था मेरे लिए।

राहुल गांधी: भारत के लिए यह एक बड़ी बात थी, आपने हमें गौरवान्वित किया है।

डॉ बनर्जी: थैंक यू ...  हां यह बड़ी बात है। मैं यह नहीं कह रहा कि यह बड़ी बात नहीं है, मेरा मानना है कि आप इसे मन में लेकर बैठ जाते हो, लेकिन ऐसा नहीं है कि कोई प्रक्रिया है जो हर किसी को समझ आए। तो, हो जाती हैं चीजें।

राहुल गांधी: तो जो कुछ अहम बातें जिन पर मैं आपके साथ चर्चा करना चाहता हूं उनमें से एक है कोविड और लॉकडाउन का असर और इससे गरीब लोगों की आर्थिक तबाही। हम इसे कैसे देखें? भारत में कुछ समय से एक पॉलिसी फ्रेमवर्क है, खासतौर से जब हम यूपीए में थे तो हम गरीब लोगों को एक मौका देते थे, मसलन मनरेगा, भोजन का अधिकार आदि ...  और अब ये बहुत सारा काम जो हुआ था, उसे दरकिनार किया जा रहा है क्योंकि महामारी बीच में आ गई है और लाखों-लाखों लोग गरीबी में ढहते जा रहे हैं। यह बहुत बड़ी बात है ... इसके बारे में क्या किया जाए?

डॉ बनर्जी: मेरी नजर में यह दो अलग बातें हैं। एक तरह से मैं सोचता हूं कि असली समस्या जो तुरंत है वह है कि यूपीए ने जो अच्छी नीतियां बनाई थीं, वह इस समय नाकाफी हैं। सरकार ने एक तरह से उन्हें अपनाया है। ऐसा नहीं है कि इस पर कोई भेदभाव वाली असहमति थी। यह एकदम स्पष्ट है कि जो कुछ भी हो सकता था उसके लिए यूपीए की नीतियां ही काम आतीं।

मुश्किल काम यह है कि आखिर उन लोगों के लिए क्या किया जाए जो इन नीतियों या योजनाओं का हिस्सा नहीं है। और ऐसे बहुत से लोग हैं। खासतौर से प्रवासी मजदूर। यूपीए शासन के आखिरी साल में जो योजना लाई गई थी कि आधार को देश भर में लागू किया जाए और इसका इस्तेमाल पीडीएस और दूसरी योजनाओं के लिए किया जाए। आधार से जुड़े लाभ आपको मिलेंगे, आप कहीं भी हों। इस योजना को इस समय लागू करने की सबसे बड़ी जरूरत है। अगर हम पीछे मुड़कर देखें तो इससे बहुत सारे लोगों को मुसीबत से बचाया जा सकता था। अगर ऐसा होता तो लोग स्थानीय राशन की दुकान पर जाते और अपना आधार दिखाकर कहते कि मैं पीडीएस का लाभार्थीं हूं। मसलन भले ही मैं मालदा या दरभंगा या कहीं का भी रहने वाला हूं, लेकिन मैं मुंबई में इसका लाभ ले सकता हूं। भले ही मेरा परिवार मालदा या दरभंगा में रहता हो। लेकिन यहां मेरा दावा है। और ऐसा नहीं हुआ तो इसका अर्थ यही है कि बहुत से लोगों के लिए कोई सिस्टम ही नहीं है। वे मनरेगा के भी पात्र नहीं रहे क्योंकि मुंबई में तो मनरेगा है नहीं, और पीडीएस का भी हिस्सा नहीं बन पाए क्योंकि वे स्थानीय निवासी नहीं हैं।

दरअसल समस्या यह है कि कल्याणकारी योजनाओं का ढांचा बनाते वक्त सोच यह थी कि अगर कोई अपने मूल स्थान पर नहीं है तो मान लिया गया कि वह काम कर रहा है और उसे आमदनी हो रही है। और इसी कारण यह सिस्टम धराशायी हो गया।

रघुराम राजन के साथ राहुल गांधी की कोरोना वायरस और इसका आर्थिक प्रभाव पर बातचीत, एपिसोड - 4

राहुल गांधी: मैं यह देखकर हैरान हूं कि माहौल और भरोसा अर्थव्यवस्था के लिए कितना अहम है। कोरोना महासंकट के बीच जो चीज मैं देख रहा हूं वह यह कि विश्वास का मुद्दा असली समस्या है। लोगों को समझ ही नहीं आ रहा कि आखिर आगे क्या होने वाला है। इससे एक डर है पूरे सिस्टम में। आप बेरोजगारी की बात कर लो, बहुत बड़ी समस्या है, बड़े स्तर पर बेरोजगारी है, जो अब और विशाल होने वाली है। बेरोजगारी के लिए हम आगे कैसे बढ़ें, जब इस संकट से मुक्ति मिलेगी तो अगले 2-3 महीने में बेरोजगारी से कैसे निपटेंगे?

रघुराम राजन: आंकड़े बहुत ही चिंतित करने वाले हैं। सीएमआइई के आंकड़े देखों तो पता चलता है कि कोरोना संकट के कारण करीब 11 करोड़ और लोग बेरोजगार हो जाएंगे। 5 करोड़ लोगों की तो नौकरी ख़त्म हो जाएगी, करीब 6 करोड़ लोग श्रम बाजार से बाहर हो जाएंगे। आप किसी सर्वे पर सवाल उठा सकते हो, लेकिन हमारे सामने तो यही आंकड़े हैं और यह आंकड़ें बहुत व्यापक हैं। इससे हमें सोचना चाहिए कि नाप-तौल कर हमें अर्थव्यवस्था खोलनी चाहिए, लेकिन जितना तेजी से हो सके, उतना तेजी से यह करना होगा जिससे लोगों को नौकरियां मिलना शुरु हों। हमारे पास सभी वर्गों की मदद की क्षमता नहीं है। हम तुलनात्मक तौर पर गरीब देश हैं, लोगों के पास ज्यादा बचत नहीं है।

लेकिन मैं आपसे एक सवाल पूछता हूं। हमने अमेरिका में बहुत सारे उपाय देखें और जमीनी हकीकत को ध्यान में रखते हुए यूरोप ने भी ऐसे कदम उठाए। भारत सरकार के सामने एकदम अलग हकीकत है जिसका वह सामना कर रही है। आपकी नजर में पश्चिम के हालात और भारत की जमीनी हकीकत से निपटने में क्या अंतर है?

राहुल गांधी: सबसे पहले स्केल, समस्या की विशालता और इसके मूल में वित्तीय व्यवस्था समस्या है। असमानता और असमानता की प्रकृति। जाति की समस्या, क्योंकि भारतीय समाज जिस व्यवस्था वाला है वह अमेरिकी समाज से एकदम अलग है। भारत को जो विचार पीछे छकेल रहे हैं वह समाज में गहरे पैठ बनाए हुए हैं और छिपे हुए हैं। ऐसे में मुझे लगता है कि बहुत सारे सामाजिक बदलाव की भारत को जरूरत है, और यह समस्या हर राज्य में अलग है। तमिलनाडु की राजनीति, वहां की संस्कृति, वहां की भाषा, वहां के लोगों की सोच उत्तर प्रदेश वालों से एकदम अलग है। ऐसे में आपको इसके आसपास ही व्यवस्थाएं विकसित करनी होंगी। पूरे भारत के लिए एक ही फार्मूला काम नहीं करेगा, काम नहीं कर सकता।

इसके अलावा, हमारी सरकार अमेरिका से एकदम अलग है, हमारी शासन पद्धति में, हमारे प्रशासन में नियंत्रण की एक सोच है। एक उत्पादक के मुकाबले हमारे पास एक डीएम (डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट) है। हम सिर्फ नियंत्रण के बारे में सोचते हैं, लोग कहते हैं कि अंग्रेजों के जमाने से ऐसा है। मेरा ऐसा मानना नहीं है। मेरा मानना है कि यह अंग्रेजों से भी पहले की व्यवस्था है।

भारत में शासन का तरीका हमेशा से नियंत्रण का रहा है और मुझे लगता है कि आज हमारे सामने यही सबसे बड़ी चुनौती है। कोरोना बीमारी को हम नियंत्रित नहीं कर पा रहे, इसलिए जैसा कि आपने कहा, इसे रोकना होगा।

एक और चीज है जो मुझे परेशान करती है, वह है असमानता। भारत में बीते कई दशकों से ऐसा है। जैसी असमानता भारत में है, अमेरिका में नहीं दिखेगी। तो मैं जब भी सोचता हूं तो यही सोचता हूं कि असमानता कैसे कम हो क्योंकि जब कोई सिस्टम अपने हाइ प्वाइंट पर पहुंच जाता है तो वह काम करना बंद कर देता है। आपको गांधी जी का यह वाक्य याद होगा कि कतार के आखिर में जाओ और देखो कि वहां क्या हो रहा है? एक नेता के लिए यह बहुत बड़ी सीख है, इसका इस्तेमाल नहीं होता, लेकिन मुझे लगता है कि यहीं से काफी चीजें निकलेंगी।

असमानता से कैसे निपटें आपकी नजर में? कोरोना संकट में भी यह दिख रहा है। यानी जिस तरह से भारत गरीबों के साथ व्यवहार कर रहा है, किस तरह हम अपने लोगों के साथ रवैया अपना रहे हैं? प्रवासी बनाम संपन्न की बात है, दो अलग-अलग विचार हैं। दो अलग-अलग भारत हैं। आप इन दोनों को एक साथ कैसे जोड़ेंगे?

रघुराम राजन: देखिए, आप पिरामिड की तली को जानते हैं। हम गरीबों के जीवन को बेहतर करने के कुछ तरीके जानते हैं, लेकिन हमें एहतियात से सोचना होगा जिससे हम हर किसी तक पहुंच सकें। मेरा मानना है कि कई सरकारों ने भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा और बेहतर नौकरियों के लिए काम किया है लेकिन चुनौतियों के बारे में मुझे लगता है कि प्रशासनिक चुनौतियां है सब तक पहुंचने में। मेरी नजर में बड़ी चुनौती निम्न मध्य वर्ग से लेकर मध्य वर्ग तक है। उनकी जरूरतें हैं, नौकरियां, अच्छी नौकरियां ताकि लोग सरकारी नौकरी पर आश्रित न रहें।

मेरा मानना है कि इस मोर्चे पर काम करने की जरूरत है और इसी के मद्देनजर अर्थव्यवस्था का विस्तार करना जरूरी है। हमने बीते कुछ सालों में हमारे आर्थिक विकास को गिरते हुए देखा है, बावजूद इसके कि हमारे पास युवा कामगारों की फौज है।

इसलिए मैं कहूंगा कि सिर्फ संभावनाओं पर न जाएं, बल्कि अवसर सृजित करें जो फले फूलें। अगर बीते सालों में कुछ गलतियां हुईं भी तो, यही रास्ता है आगे बढ़ने का। उस रास्ते के बारे में सोचें जिसमें हम कामयाबी से बढ़ते रहे हैं, सॉफ्टवेयर और ऑउटसोर्सिंग सेवाओं में आगे बढ़ें। कौन सोच सकता था कि ये सब भारत की ताकत बनेगा, लेकिन यह सब सामने आया है और कुछ लोग तर्क देते हैं कि यह इसलिए सामने आया क्योंकि सरकार ने इसकी तरफ ध्यान नहीं दिया। मैं ऐसा नहीं मानता। लेकिन हमें किसी भी संभावना के बारे में विचार करना चाहिए, लोगों की उद्यमिता को मौका देना चाहिए।

राहुल गांधी: थैंक्यू, थैंक्यू डॉ. राजन

रघुराम राजन: थैंक्यू वेरी मच, आपसे बात करके बहुत अच्छा लगा।

राहुल गांधी: आप सुरक्षित तो हैं न ?

रघुराम राजन: मैं सुरक्षित हूं, गुडलक

राहुल गांधी: थैंक्यू, बाय

रघुराम राजन के साथ राहुल गांधी की कोरोना वायरस और इसका आर्थिक प्रभाव पर बातचीत, एपिसोड - 3

रघुराम राजन: मैं मानता हूं कि इसके पीछे एक कारण है और वह है वैश्विक बाजार। ऐसी धारणा बन गई है कि अगर बाजारों का वैश्वीकरण हो रहा है तो इसमें हिस्सा लेने वाले यानी फर्म्स भी हर जगह यही नियम लागू करती हैं, वे हर जगह एक ही व्यवस्था चाहते हैं, एक ही तरह की सरकार चाहते हैं, क्योंकि इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ता है।

एकसमानता लाने की कोशिश में स्थानीय या फिर राष्ट्रीय सरकारों ने लोगों से उनके अधिकार और शक्तियां छीन ली हैं। इसके अलावा नौकरशाही की लालसा भी है, कि अगर मुझे शक्ति मिल सकती है, सत्ता मिल सकती है तो क्यों न हासिल करूं। यह एक निरंतर बढ़ने वाली लालसा है। अगर आप राज्यों को पैसा दे रहे हैं, तो कुछ नियम हैं जिन्हें मानने के बाद ही पैसा मिलेगा न कि बिना किसी सवाल के आपको पैसा मिल जाएगा क्योंकि मुझे पता है कि आप भी चुनकर आए हो। और आपको इसका आभास होना चाहिए कि आपके लिए क्या सही है।

राहुल गांधी: इन दिनों एक नया मॉडल आ गया है, वह है सत्तावादी या अधिकारवादी मॉडल, जो कि उदार मॉडल पर सवाल उठाता है। काम करने का यह एकदम अलग तरीका है और यह ज्यादा जगहों पर फल-फूलता जा रहा है। क्या आपको लगता है कि यह खत्म होगा?

रघुराम राजन: मुझे नहीं पता। सत्तावादी मॉडल, एक मजबूत व्यक्तित्व, एक ऐसी दुनिया जिसमें आप शक्तिहीन हैं, यह सब बहुत परेशान करने वाली स्थिति है। खासतौर से अगर आप उस व्यक्तित्व के साथ कोई संबंध रखते हैं। अगर आपको लगता है कि उन्हें मुझ पर विश्वास है, उन्हें लोगों की परवाह है।

इसके साथ समस्या यह है कि अधिकारवादी व्यक्तित्व अपने आप में एक ऐसी धारणा बना लेता है कि, 'मैं ही जन शक्ति हूं', इसलिए मैं जो कुछ भी कहूंगा, वह सही होगा। मेरे ही नियम लागू होंगे और इनमें कोई जांच-पड़ताल नहीं होगी, कोई संस्था नहीं होगी, कोई विकेंद्रीकृत व्यवस्था नहीं होगी। सब कुछ मेरे ही पास से गुजरना चाहिए।

इतिहास उठाकर देखें तो पता चलेगा कि जब-जब इस हद तक केंद्रीकरण हुआ है, व्यवस्थाएं धराशायी हो गई हैं।

राहुल गांधी: लेकिन वैश्विक आर्थिक पद्धति में कुछ बहुत ही ज्यादा गड़बड़ तो हुई है। यह तो साफ है कि इससे काम नहीं चल रहा। क्या ऐसा कहना सही होगा?

रघुराम राजन: मुझे लगता है कि यह बिल्कुल सही है कि बहुत से लोगों के साथ यह काम नहीं कर रहा। विकसित देशों में दौलत और आमदनी का असमान वितरण निश्चित रूप से चिंता का कारण है। नौकरियों की अनिश्चितता, तथाकथित अनिश्चितता चिंता का दूसरा स्रोत है। आज यदि आपके पास कोई नौकरी है तो यह नहीं पता कि कल आपके पास आमदनी का जरिया होगा या नहीं।

हमने इस महामारी के दौर में देखा है कि बहुत से लोगों के पास कोई रोजगार ही नहीं है। उनकी आमदनी और सुरक्षा दोनों ही छिन गई हैं।

इसलिए आज की स्थिति सिर्फ विकास दर धीमी होने की समस्या नहीं है। हम सिर्फ बाजारों पर आश्रित नहीं रह सकते। हमें विकास करना होगा। हम नाकाफी वितरण की समस्या से भी दोचार हैं। जो भी विकास हुआ उसका फल लोगों को नहीं मिला। बहुत से लोग छूट गए। तो हमें इस सबके बारे में सोचना होगा।

इसीलिए मुझे लगता है कि हमें वितरण व्यवस्था और वितरण अवसरों के बारे में सोचना होगा।

राहुल गांधी: यह दिलचस्प है जब आप कहते हैं कि इंफ्रास्ट्रक्चर से लोग जुड़ते हैं और उन्हें अवसर मिलते हैं लेकिन अगर विभाजनकारी बातें हों, नफरत हो जिससे लोग नहीं जुड़ते - यह भी तो एक तरह का इंफ्रास्ट्रक्चर है। इस वक्त विभाजन का इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा कर दिया गया है, नफरत का इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा कर दिया गया है, और यह बड़ी समस्या है।

रघुराम राजन: सामाजिक समरसता से ही लोगों का फायदा होता है। लोगों को यह लगना आवश्यक है कि वे महसूस करें कि वे व्यवस्था का हिस्सा हैं। हम एक बंटा हुआ घर नहीं हो सकते। खासतौर से ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में। तो मैं कहना चाहूंगा कि हमारे पुरखों ने, राष्ट्र निर्माताओं ने जो संविधान लिखा और शुरू में जो शासन दिया, उन्हें नए सिरे से पढ़ने-सीखने की जरूरत है। लोगों को अब लगता है कि कुछ मुद्दे थे जिन्हें दरकिनार किया गया, लेकिन वे ऐसे मुद्दे थे जिन्हें छेड़ा जाता तो हमारा सारा समय एक-दूसरे से लड़ने में ही चला जाता।

राहुल गांधी: इसके अलावा आप एक तरफ विभाजन करते हो और जब भविष्य के बारे में सोचते हो तो पीछे मुड़कर इतिहास देखने लगते हो। आप जो कह रहे हैं मुझे सही लगता है कि भारत को एक नए विज़न की जरूरत है। आपकी नजर में वह क्या विचार होना चाहिए? निश्चित रूप से आपने इंफ्रास्ट्रक्चर, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं की बात की। ये सब बीते 30 साल से अलग कैसे होगा? वह कौन सा स्तंभ होगा जो अलग होगा?

रघुराम राजन: मुझे लगता है कि आपको पहले क्षमताएं विकसित करनी होंगी। इसके लिए बेहतर शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं, बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर जरूरी है। याद रखिए, जब हम इन क्षमताओं की बात करें तो इन पर अमल भी होना चाहिए।

लेकिन हमें यह भी सोचना होगा कि हमारे औद्योगिक और बाजार व्यवस्था कैसे हैं? आज भी हमारे यहां पुराने लाइसेंस राज जैसी ही व्यवस्था है। हमें सोचना होगा कि हम कैसे ऐसी व्यवस्था बनाएं जिसमें ढेर सारी अच्छी नौकरियां सृजित हों। ज्यादा स्वतंत्रता हो, ज्यादा विश्वास और भरोसा हो, लेकिन इसकी पुष्टि करना अच्छा विचार है।

राहुल गांधी: मैं यह देखकर हैरान हूं कि माहौल और भरोसा अर्थव्यवस्था के लिए कितना अहम है। कोरोना महासंकट के बीच जो चीज मैं देख रहा हूं वह यह कि विश्वास का मुद्दा असली समस्या है। लोगों को समझ ही नहीं आ रहा कि आखिर आगे क्या होने वाला है। इससे एक डर है पूरे सिस्टम में। आप बेरोजगारी की बात कर लो, बहुत बड़ी समस्या है, बड़े स्तर पर बेरोजगारी है, जो अब और विशाल होने वाली है। बेरोजगारी के लिए हम आगे कैसे बढ़ें, जब इस संकट से मुक्ति मिलेगी तो अगले 2-3 महीने में बेरोजगारी से कैसे निपटेंगे?

रघुराम राजन के साथ राहुल गांधी की कोरोना वायरस और इसका आर्थिक प्रभाव पर बातचीत, एपिसोड - 2

रघुराम राजन: आपको अभी इन दोनों पर सोचना होगा। आप प्रभाव सामने आने का इंतजार नहीं कर सकते क्योंकि आप एक तरफ वायरस से लड़ रहे हैं दूसरी तरफ पूरा देश लॉकडाउन में है। निश्चित रूप से लोगों को भोजन मुहैया कराना है। घरों को निकल चुके प्रवासियों की स्थिति देखनी है, उन्हें शेल्टर चाहिए, मेडिकल सुविधाएं चाहिए। ये सब एक साथ करने की जरूरत है।

मुझे लगता है कि इसमें प्राथमिकताएं तय करनी होंगी। हमारी क्षमता और संसाधन दोनों सीमित हैं। हमारे वित्तीय संसाधन पश्चिम के मुकाबले बहुत सीमित हैं। हमें करना यह है कि हम तय करें कि हम वायरस से लड़ाई और अर्थव्यवस्था दोनों को एक साथ कैसे संभालें। अगर अभी हम खोल देते हैं तो यह ऐसा ही होगा कि बीमारी से बिस्तर से उठकर आ गए हैं।

सबसे पहले तो लोगों को स्वस्थ और जीवित रखना है। भोजन बहुत ही अहम इसके लिए। ऐसी जगहें हैं जहां पीडीएस पहुंचा ही नहीं है। अमर्त्य सेन, अभिजीत बनर्जी और मैंने इस विषय पर बात करते हुए अस्थाई राशन कार्ड की बात की थी लेकिन आपको इस महामारी को एक असाधारण स्थिति के तौर पर देखना होगा।

किस चीज की जरूरत है उसके लिए हमें लीक से हटकर सोचना होगा। सभी बजटीय सीमाओं को ध्यान में रखते हुए फैसले करने होंगे। बहुत से संसाधन हमारे पास नहीं हैं।

राहुल गांधी: कृषि क्षेत्र और मजदूरों के बारे में आप क्या सोचते हैं? प्रवासी मजदूरों के बारे में क्या सोचते हैं? इनकी वित्तीय स्थिति के बारे में क्या किया जाना चाहिए?

रघुराम राजन: इस मामले में डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर ही रास्ता है इस समय। हम उन सभी व्यवस्थाओं के बारे में सोचें जिनसे हम गरीबों तक पैसा पहुंचाते हैं। विधवा पेंशन और मनरेगा में ही हम कई तरीके अपनाते हैं। हमें देखना होगा कि देखो ये वे लोग हैं जिनके पास रोजगार नहीं है, जिनके पास आजीविका चलाने का साधन नहीं है और अगले तीन-चार महीने जब तक यह संकट है, हम इनकी मदद करेंगे।

लेकिन, प्राथमिकताओं को देखें तो लोगों को जीवित रखना और उन्हें विरोध के लिए या फिर काम की तलाश में लॉकडाउन के बीच ही बाहर निकलने के लिए मजबूर न करना ही सबसे फायदेमंद होगा। हमें ऐसे रास्ते तलाशने होंगे जिससे हम ज्यादा से ज्यादा लोगों तक कैश भी पहुंचा पाएं और उन्हें पीडीएस के जरिए भोजन भी मुहैया करा पाएं।

राहुल गांधी: डॉ. राजन, कितना पैसा लगेगा गरीबों की मदद करने के लिए, सबसे गरीब को सीधे कैश पहुंचाने के लिए?

रघुराम राजन: तकरीबन 65,000 करोड़। हमारी जीडीपी 200 लाख करोड़ की है, इसमें से 65,000 करोड़ निकालना बहुत बड़ी रकम नहीं है। हम ऐसा कर सकते हैं। अगर इससे गरीबों की जान बचती है तो हमें यह जरूर करना चाहिए।

राहुल गांधी: अभी भारत एक कठिन परिस्थिति में है लेकिन कोविड महामारी के बाद क्या भारत को कोई बड़ा रणनीतिक फायदा हो सकता है? क्या विश्व में कुछ ऐसा बदलाव होगा जिसका फायदा भारत उठा सकता है? आपके मुताबिक दुनिया किस तरह बदलेगी?

रघुराम राजन: इस तरह की स्थितियां मुश्किल से ही किसी देश के लिए अच्छे हालात लेकर आती हैं। फिर भी कुछ तरीके हैं जिनसे देश फायदा उठा सकते हैं। मेरा मानना है कि इस संकट से बाहर आने के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था को एकदम नए तरीके से सोचने की जरूरत है।

अगर भारत के लिए कोई मौका है, तो वह है हम संवाद कैसे करते हैं? इस संवाद में हम एक नेता से अधिक होकर सोचें क्योंकि यह दो विरोधी पार्टियों के बीच की बात तो है नहीं, लेकिन भारत इतना बड़ा देश तो है ही कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में हमारी बात अच्छे से सुनी जाए।

ऐसे हालात में भारत उद्योगों में अवसर तलाश सकता है, अपनी सप्लाई चेन में मौके तलाश सकता है, लेकिन सबसे अहम है कि हम संवाद को उस दिशा में मोड़ें जिसमें ज्यादा देश शामिल हों, बहुध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था हो न कि द्विध्रुवीय व्यवस्था।

राहुल गांधी: क्या आपको नहीं लगता है कि केंद्रीकरण का संकट है? सत्ता का बेहद केंद्रीकरण हो गया है कि बातचीत ही लगभग बंद हो गई है। बातचीत और संवाद से कई समस्याओं का समाधान निकलता है, लेकिन कुछ कारणों से यह संवाद टूट रहा है?

रघुराम राजन: मेरा मानना है कि विकेंद्रीरण न सिर्फ स्थानीय सूचनाओं को सामने लाने के लिए जरूरी है बल्कि लोगों को सशक्त बनाने के लिए भी अहम है। पूरी दुनिया में इस समय यह स्थिति है कि फैसले कहीं और किए जा रहे हैं।

मेरे पास एक वोट तो है दूरदराज के किसी व्यक्ति को चुनने का। मेरी पंचायत हो सकती है, राज्य सरकार हो सकती है लेकिन लोगों में यह भावना है कि किसी भी मामले में उनकी आवाज नहीं सुनी जाती। ऐसे में वे विभिन्न शक्तियों का शिकार बन जाते हैं।

मैं आपसे ही यही सवाल पूछूंगा। राजीव गांधी जिस पंचायती राज को लेकर आए उसका कितना प्रभाव पड़ा और कितना फायदेमंद साबित हुआ।

राहुल गांधी: इसका जबरदस्त असर हुआ था, लेकिन अफसोस के साथ कहना पड़ेगा कि यह अब कम हो रहा है। पंचायती राज के मोर्चे पर जितना आगे बढ़ने का काम हुआ था, हम उससे पीछे लौट रहे हैं और जिलाधिकारी आधारित व्यवस्था में जा रहे हैं। अगर आप दक्षिण भारतीय राज्य देखें, तो वहां इस मोर्चे पर अच्छा काम हो रहा है, व्यवस्थाओं का विकेंद्रीकरण हो रहा है लेकिन उत्तर भारतीय राज्यों में सत्ता का केंद्रीकरण हो रहा है और पंचायतों और जमीन से जुड़े संगठनों की शक्तियां कम हो रही हैं।

फैसले जितना लोगों को साथ में शामिल करके लिए जाएंगे, वे फैसलों पर नजर रखने के लिए उतने ही सक्षम होंगे। मेरा मानना है कि यह ऐसा प्रयोग है जिसे करना चाहिए।

लेकिन वैश्विक स्तर पर ऐसा क्यों हो रहा है? आप क्या सोचते हैं कि क्या कारण है जो इतने बड़े पैमाने पर केंद्रीकरण हो रहा है और संवाद खत्म हो रहा है? क्या आपको लगता है कि इसके केंद्र में कुछ है या फिर कई कारण हैं इसके पीछे?

रघुराम राजन: मैं मानता हूं कि इसके पीछे एक कारण है और वह है वैश्विक बाजार। ऐसी धारणा बन गई है कि अगर बाजारों का वैश्वीकरण हो रहा है तो इसमें हिस्सा लेने वाले यानी फर्म्स भी हर जगह यही नियम लागू करती हैं, वे हर जगह एक ही व्यवस्था चाहते हैं, एक ही तरह की सरकार चाहते हैं, क्योंकि इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ता है।

रघुराम राजन के साथ राहुल गांधी की कोरोना वायरस और इसका आर्थिक प्रभाव पर बातचीत, एपिसोड - 1

इंडियन नेशनल कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी और भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन के बीच कोरोना महामारी, उससे निपटने की भारत के मोदी सरकार के दावों और इसके कारण पैदा होने वाली भविष्य की आर्थिक चुनौतियों पर महत्वपूर्ण संवाद।

राहुल गांधी: हेलो।

रघुराम राजन: गुड मॉर्निंग, आप कैसे हैं?

राहुल गांधी: मैं अच्छा हूं, अच्छा लगा आपको देखकर।

रघुराम राजन: मुझे भी।

राहुल गांधी: कोरोना वायरस के दौर में लोगों के मन में बहुत सारे सवाल हैं कि क्या हो रहा है, क्या होने वाला है, खासतौर से अर्थव्यवस्था को लेकर। मैंने इन सवालों के जवाब के लिए एक रोचक तरीका सोचा कि आपसे इस बारे में बात की जाए ताकि मुझे भी और आम लोगों को भी मालूम हो सके कि आप इस सब पर क्या सोचते हैं?

रघुराम राजन: थैंक्स, मुझसे बात करने के लिए और इस संवाद के लिए। मेरा मानना है कि इस महत्वपूर्ण समय में इस मुद्दे पर जितनी भी जानकारी मिल सकती है लेनी चाहिए और जितना संभव हो उसे लोगों तक पहुंचाना चाहिए।

राहुल गांधी: मुझे इस समय एक बड़ा मुद्दा जो लगता है वह है कि हम अर्थव्यवस्था को कैसे खोलें? वह कैसे हिस्से हैं अर्थव्यवस्था के जो आपको लगता है जिन्हें खोलना बहुत जरूरी है और क्या तरीका होना चाहिए इन्हें खोलने का?

रघुराम राजन: यह एक अहम सवाल है क्योंकि जैसे-जैसे हम संक्रमण का कर्व मोड़ने की कोशिश कर रहे हैं और अस्पतालों और मेडिकल सुविधाओं में भीड़ बढ़ने से रोकने की कोशिश कर रहे हैं, हमें लोगों की आजीविका फिर से शुरू करने के बारे में सोचना शुरू करना होगा। लंबे समय के लिए लॉकडाउन लगा देना बहुत आसान है, लेकिन जाहिर है कि यह अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा नहीं है।

आपके पास एक निश्चित सुरक्षा नहीं है लेकिन आप उन क्षेत्रों को खोलना शुरू कर सकते हैं जिनमें अपेक्षाकृत कम मामले हैं, इस सोच और नीति के साथ कि आप जितना संभव हो सके प्रभावी ढंग से लोगों की स्क्रीनिंग करेंगे और जब केस सामने आ जाए तो आप उसे रोकने की कोशिश करेंगे और सुनिश्चित करेंगे कि इसे रोकने के सारे इंतजाम हैं।

इसमें एक सीक्वेंस होना चाहिए। सबसे पहले ऐसी जगहें चिह्नित करनी होंगी जहां दूरी बनाई रखी जा सकती हो, और यह सिर्फ वर्क प्लेसेज़ पर ही नहीं लागू हो, बल्कि काम के लिए आते-जाते वक्त भी लागू हो। ट्रांसपोर्ट स्ट्रक्चर को देखना होगा। क्या लोगों के पास निजी वाहन हैं? उनके पास साइकिल या स्कूटर हैं या कार हैं। इन सबको देखना होगा। या फिर लोग पब्लिक ट्रांसपोर्ट से आते हैं काम पर। आप पब्लिक ट्रांसपोर्ट में डिस्टेंसिंग कैसे सुनिश्चित करेंगे?

यह सारी व्यवस्था करने में बहुत काम और मेहनत करनी पड़ेगी। साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि कार्यस्थल अपेक्षाकृत सुरक्षित हो। इसके साथ यह भी देखना होगा कि कहीं दुर्घटनावश कोई ताजा मामले तो सामने नहीं आ रहे, तो हम बिना तीसरे या चौथे लॉडाउन को लागू किए कितनी तेजी से लोगों को आइसोलेट कर सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो संकट होगा।

राहुल गांधी: बहुत से लोग ऐसा कहते हैं कि अगर हम चरणबद्ध तरीके से लॉकडाउन खत्म करें। अगर हम अभी खोल दें और फिर दोबारा लॉकडाउन के लिए मजबूर हों। अगर ऐसा होता है तो अर्थव्यवस्था के लिए बहुत घातक होगा क्योंकि इससे भरोसा पूरी तरह खत्म हो जाएगा। क्या आप इससे सहमत हैं?

रघुराम राजन: हां, मुझे लगता है कि यह सोचना सही है। दूसरे ही लॉकडाउन की बात करें तो इसका अर्थ यही है कि पहली बार में हम पूरी तरह कामयाब नहीं हुए। इसी से सवाल उठता है कि अगर इस बार खोल दिया तो कहीं तीसरे लॉकडाउन की जरूरत न पड़ जाए और इससे विश्वसनीयता पर आंच आएगी।

इसके साथ ही मैं कहना चाहूंगा कि हम 100 फीसदी कामयाबी की बात करें। यानी कहीं भी कोई केस न हो। वह तो फिलहाल हासिल करना मुश्किल है। ऐसे में हम क्या कर सकते हैं कि लॉकडाउन हटाने की शुरुआत करें और जहां भी केस दिखें, वहां आइसोलेट कर दें।

राहुल गांधी: लेकिन इस पूरे प्रबंध में यह जानना बेहद जरूरी होगा कि कहां ज्यादा संक्रमण है? और इसके लिए टेस्टिंग ही एकमात्र जरिया है। इस वक्त भारत में यह भाव है कि हमारी टेस्टिंग क्षमता सीमित है। एक बड़े देश में अमेरिका और यूरोपीय देशों के मुकाबले हमारी टेस्टिंग क्षमता सीमित है। कम संख्या में टेस्ट होने को आप कैसे देखते हैं?

रघुराम राजन: अच्छा सवाल है यह। अमेरिका की मिसाल लें। वहां एक दिन में डेढ़ लाख तक टेस्ट हो रहे हैं लेकिन वहां विशेषज्ञों, खासतौर से संक्रमित रोगों के विशेषज्ञों का मानना है कि इस क्षमता को तीन गुना करने की जरूरत है यानी 5 लाख टेस्ट प्रतिदिन हों तभी आप अर्थव्यवस्था को खोलने के बारे में सोचें। कुछ तो 10 लाख तक टेस्ट करने की बात कर रहे हैं।

भारत की आबादी को देखते हुए हमें इसके चार गुना टेस्ट करने चाहिए। अगर आपको अमेरिका के लेवल पर पहुंचना है तो हमें 20 लाख टेस्ट रोज करने होंगे लेकिन हम अभी सिर्फ 25-30 हजार टेस्ट ही कर पा रहे हैं।

राहुल गांधी: देखिए अभी तो वायरस का असर है और कुछ समय बाद लोगों पर अर्थव्यवस्था का असर पडे़गा। यह ऐसा झटका होगा जो आने वाले दो-एक महीने में लगने वाला है। आप अगले 3-4 महीने में वायरस से लड़ाई और इसके प्रभाव के बीच कैसे संतुलन बना सकते हैं?

रघुराम राजन: आपको अभी इन दोनों पर सोचना होगा। आप प्रभाव सामने आने का इंतजार नहीं कर सकते क्योंकि आप एक तरफ वायरस से लड़ रहे हैं दूसरी तरफ पूरा देश लॉकडाउन में है। निश्चित रूप से लोगों को भोजन मुहैया कराना है। घरों को निकल चुके प्रवासियों की स्थिति देखनी है, उन्हें शेल्टर चाहिए, मेडिकल सुविधाएं चाहिए। ये सब एक साथ करने की जरूरत है।

रघुराम राजन के साथ राहुल गांधी की कोरोना वायरस और इसका आर्थिक प्रभाव पर बातचीत, एपिसोड - 2