अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध

क्वॉड समूह की बैठक को लेकर चीन ने क्या कहा?

चीन ने कहा है कि 'देशों के बीच आदान-प्रदान और परस्पर सहयोग आपसी समझ और विश्वास को बेहतर करने के लिए होना चाहिए, ना कि किसी तीसरे पक्ष और उसके हितों को नुकसान पहुँचाने के लिए'।

शुक्रवार, 12 मार्च, 2021 को भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान के बीच बने 'क्वॉड समूह' की पहले बैठक से कुछ घंटे पहले चीन की ओर से यह बयान आया।

चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता चाओ लिजियान ने क्वॉड-बैठक से संबंधित एक प्रश्न के जवाब में कहा, ''हमें उम्मीद है कि ये देश खुलेपन और समावेशी नज़रिये का ध्यान रखेंगे, ताकि सबका भला हो। इसके अलावा ये किसी 'एक्सक्लूसिव ब्लॉक' को बनाने से बचेंगे और उन्हीं कामों को करेंगे जो क्षेत्रीय शांति और स्थिरता के अनुकूल हैं।''

क्वॉड समूह की पहली बैठक को चीन में बहुत बारीकी से कवर किया गया।  चीन के सरकारी मीडिया ने इस पर कई रिपोर्ट लिखी हैं जिनमें व्यापक रूप से इसे 'अमेरिका के नेतृत्व वाला एक प्रयास बताया गया है, ताकि मिलकर चीन को रोका जा सके'।

वहीं, कुछ चीनी विशेषज्ञों ने इस बैठक पर कम ऊर्जा ख़र्च करने की सलाह दी है और कहा है कि 'क्वॉड की बैठक को ज़्यादा गंभीरता से लेने की ज़रूरत नहीं है'।

पीपल्स लिब्रेशन आर्मी के पूर्व वरिष्ठ कर्नल चाऊ बो, जो चीन में रणनीतिक मामलों के नामी टिप्पणीकार भी हैं, उन्होंने सरकारी प्रसारक 'चाइना ग्लोबल टीवी नेटवर्क' से बातचीत में कहा कि ''चीन को इसे बहुत गंभीरता से नहीं लेना चाहिए।''

उन्होंने कहा, ''मैं आपको एक वाक्य में क्वॉड पर अपनी टिप्पणी दे सकता हूँ। इन चार देशों में से कोई भी अन्य तीन देशों के हितों के लिए अपने स्वयं के हितों (चीन के संबंध में) का बलिदान नहीं करना चाहेगा।''

उन्होंने चारों देशों के चीन के साथ मौजूदा व्यापारिक संबंधों का हवाला देते हुए यह बात कही।

उन्होंने कहा, ''अगर आप क्वॉड में शामिल चारों देशों से पूछते हैं कि 'क्या आप चीन के ख़िलाफ़ हैं' या 'एक चीन-विरोधी क्लब हैं', तो वो साफ़ इनकार करते हैं। ऐसे में मेरा निष्कर्ष यह है कि क्वॉड निश्चित रूप से चीन की वजह से स्थापित किया गया है, पर वो ये कह नहीं सकते कि यह चीन के ख़िलाफ़ है। इसे अगर एक सैन्य गठबंधन के रूप में देखा जाये, तो भारत साफ़तौर पर इससे पूरी तरह इनकार करेगा।''

''क्वॉड अभी विकसित हो रहा है और अपना आकार ले रहा है। मगर फ़िलहाल यह तय नहीं है कि ये सैन्य या आर्थिक, किस रास्ते पर जायेगा।''

बहरहाल, 18 मार्च 2021 को चीन और अमेरिका के बीच एक उच्च-स्तरीय बैठक होने वाली है जिसमें दोनों सरकारों के विदेश मंत्रालयों के प्रतिनिधि आपस में बात करेंगे। चीनी विदेश मंत्रालय ने इसे एक 'उच्च-स्तरीय रणनीतिक वार्ता' कहा है।

चीन ने कहा है कि वो बाइडन प्रशासन के साथ नये सिरे से बातचीत करना चाहता है, लेकिन पिछले चार वर्षों के तनावपूर्ण संबंधों का दोष उसने अमेरिका पर ही डाला है।

वहीं, बाइडन प्रशासन ने अब तक के अपने बयानों में यह संकेत दिये हैं कि वो चीन के संबंध में पिछले प्रशासन की कुछ नीतियों को जारी रख सकता है।

चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता चाओ लिजियान के अनुसार, अमेरिका-चीन रिश्तों पर चीन की स्थिति बिल्कुल स्पष्ट है।

उन्होंने कहा, ''हम चाहते हैं कि अमेरिका, चीन के साथ अपने संबंधों को उद्देश्यपूर्ण और तर्कसंगत तरीक़े से देखे। शीत-युद्ध की स्थिति को दरकिनार करे और चीन की संप्रभुता, सुरक्षा और विकास से जुड़े हितों का सम्मान करना सीखे। साथ ही वो चीन के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करना बंद कर दे।''

भारत-चीन सीमा विवाद: गलवान घाटी में हुई झड़प का वीडियो चीन ने जारी किया

चीन की सरकारी मीडिया ग्लोबल टाइम्स ने जून 2020 में गलवान घाटी में भारतीय सेना और चीन की सेना के बीच हुई झड़प की वीडियो फुटेज जारी की है।

इस झड़प में भारत के बीस सैनिक मारे गए थे। इससे पहले चीन ने गुरुवार, 18 फरवरी 2021 को स्वीकार किया था कि उसके भी चार सैनिक इस झड़प में मारे गए थे।

चीन की तरफ से जारी किए गए वीडियो में इन चार सैनिकों को सलामी दिए जाने का दृश्य है। इस वीडियो में भारत और चीन के सैनिकों के बीच झड़प को भी दिखाया गया है। वीडियो में दोनों तरफ के सैन्य अधिकारी वार्ता करते भी दिख रहे हैं।

चीन की तरफ से जारी वीडियो में भारत की तरफ इशारा करते हुए कहा गया है, ''अप्रैल के बाद से ही संबंधित विदेशी सेना पुराने समझौतों का उल्लंघन कर रही थी। उन्होंने पुल और सड़कें बनाने के लिए सीमा को पार किया और जल्दी-जल्दी टोही अभियान चलाए।''

वीडियो में कहा गया है, ''विदेशी सेना ने यथास्थिति में बदलाव के एकतरफ़ा प्रयास किए जिसके नतीजे में बॉर्डर पर तनाव तेज़ी से बढ़ा।'' चीन ने कहा, ''समझौतों का सम्मान करते हुए हमने बातचीत से स्थिति को सुलझाने का प्रयास किया।'' चीन की तरफ़ से जारी किए गए वीडियो में भारत और चीन के सैनिकों को रात के अंधेरे में एक दूसरे से भिड़ते हुए दिखाया गया है। इसमें चीनी सैनिकों को एक घायल चीनी सैनिक को संभालते हुए भी दिखाया गया है। जारी किए गए वीडियो में चीन की सेना को मारे गए सैनिकों को सलामी देते हुए भी दिखाया गया है।

इससे पहले ग्लोबल टाइम्स ने चीनी सेना के आधिकारिक अख़बार पीएलए डेली के हवाले से ख़बर दी है कि चीन ने पहली बार अपनी संप्रभुता की रक्षा में क़ुर्बानी देने वाले सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के लिए उनके नाम और उनके बारे में ब्यौरा दिया था।

पीएलए डेली ने शुक्रवार, 19 फरवरी 2021 को अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि चीन की सेन्ट्रल मिलिट्री कमीशन ने काराकोरम पहाड़ों में चीन के पाँच अफ़सरों और सैनिकों की पहचान की है और उन्हें पदवियों से सम्मानित किया है।

रिपोर्ट में पहली बार चीनी सेना ने गलवान संघर्ष का विस्तृत ब्यौरा दिया है और बताया है कि कैसे भारतीय सेना ने वहाँ बड़ी संख्या में सैनिक भेजे जो छिपे हुए थे और चीनी सेना को पीछे हटने पर मजबूर कर रहे थे?

रिपोर्ट में ये भी बताया गया है कि कैसे चीनी सैनिकों ने स्टील के डंडों, नुकीले डंडों और पत्थरों से हमलों के बीच अपने देश की संप्रभुता की रक्षा की?

तुर्की-इसराइल सम्बन्ध: क्या तुर्की और इसराइल फिर एक दूसरे के क़रीब आ रहे हैं?

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसराइल पर कड़ी टिप्पणी करने वाले और फ़लस्तीनियों के अधिकारों की बात करने वाले तुर्की के राष्ट्रपति रिचैप तैय्यप अर्दोआन की सरकार ने दो साल से लगभग समाप्त इसराइल के साथ राजनयिक संबंधों को अचानक बहाल करने की घोषणा की है।

तुर्की ने 15 दिसंबर 2020 को इसराइल के लिए अपना राजदूत नियुक्त किया है। 2018 में ग़ज़ा में फ़लस्तीनी प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ इसराइल की हिंसक कार्रवाइयों के विरोध में तुर्की ने अपना राजदूत तेल अवीव से वापस बुला लिया था।

ये प्रदर्शन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिकी दूतावास को तेल अवीव से येरुशलम भेजने के फ़ैसले के ख़िलाफ़ हो रहे थे।

तुर्की के नेता अर्दोआन इसराइल को 'दहशतगर्द और बच्चों का क़ातिल' कह चुके हैं, लेकिन अब वो अपने राजदूत को इसराइल भेज रहे हैं। इस फ़ैसले के अर्थ को समझने के लिए हालिया घटनाक्रमों और इसराइल-तुर्की के लंबे ऐतिहासिक संबंधों को समझना ज़रूरी है।

तुर्की की ओर से अपने राजदूत को तैनात करने का फ़ैसला 15 दिसंबर 2020 को आया है जब 14 दिसंबर 2020 को अमेरिका ने तुर्की पर व्यापारिक प्रतिबंध लगाए हैं।

रूस से एस-400 मिसाइल डिफेन्स सिस्टम ख़रीदने के बाद अमेरिका ने 2020 की शुरुआत में तुर्की को अपने एफ़-35 लड़ाकू विमान बेचने और तुर्की के एविएटर ट्रेनिंग प्रोग्राम समेत कई योजनाओं पर रोक लगा दी थी।

अमेरिकी दबाव के बावजूद तुर्की ने रूसी मिसाइल सिस्टम की ख़रीदारी से पीछे हटने से मना कर दिया था। अब जाते-जाते ट्रंप प्रशासन ने तुर्की पर नई पाबंदियां लागू कर दी हैं।

ग़ौरतलब है कि तुर्की अमेरिका और यूरोप के रक्षा गठबंधन नेटो का एक अहम सदस्य भी है।

मध्य पूर्व में नई गुटबाज़ियां और 'जियो स्ट्रेटेजिक' बदलाव ऐसे समय में हो रहे हैं जब पूरी दुनिया ऐतिहासिक रूप से कोरोना वायरस महामारी से जूझ रही है।

दुनियाभर के देशों की आर्थिक कठिनाइयां बढ़ रही हैं और अरब देशों के लिए बड़ी मुश्किल का समय है क्योंकि पूरी दुनिया की तेल पर निर्भरता कम हुई है जिसके कारण उनका आर्थिक बोझ ज़्यादा बढ़ गया है।

अरब देश आर्थिक स्थिरता के कारण अपनी पारंपरिक नीतियों की समीक्षा करते हुए अपनी नई आर्थिक संभावनाओं को खोज रहे हैं।

वहीं अमेरिका में भी राजनीतिक बदलाव आ रहा है और नए राष्ट्रपति जो बाइडन का प्रशासन 20 जनवरी 2021 से पदभार संभालने जा रहा है।

तुर्की और इसराइल के संबंधों में उतार-चढ़ाव

तुर्की और इसराइल के बीच संबंधों में हमेशा फ़लस्तीन एक तरह केंद्र बिंदु बना रहा है। पहले भी तीन बार तुर्की इसराइल के साथ अपने राजनयिक संबंध निचले स्तर पर लाने या उन्हें ख़त्म करने की कोशिशें कर चुका है और हर बार इसके केंद्र में फ़लस्तीन ही रहा है।

सबसे पहले 1956 में जब स्वेज़ नहर के मुद्दे पर इसराइल ब्रिटेन और फ़्रांस के समर्थन के बाद सिनाई रेगिस्तान में हमलावर हुआ तो तुर्की ने उस पर विरोध जताते हुए अपने राजनयिक संबंधों को घटा दिया था।

इसके बाद 1958 में उस वक़्त के इसराइली प्रधानमंत्री डेविड बेन गोरियान और तुर्की के प्रमुख अदनान मेंदरेस के बीच एक ख़ुफ़िया मुलाक़ात हुई और दोनों देशों के बीच रक्षा और ख़ुफ़िया सहयोग स्थापित करने पर सहमति हुई।

1980 में इसराइल ने पूर्वी येरुशलम पर क़ब्ज़ा किया तो तुर्की ने दोबारा उसके साथ अपने राजनयिक संबंधों को घटा दिया। इस दौरान दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंध ठंडे रहे लेकिन 90 के दशक में ओस्लो शांति समझौते के बाद दोनों देशों के बीच संबंध बहाल हो गए।

इस दौरान दोनों मुल्कों के संबंध जिसे 'ज़बरदस्ती की शादी' भी कहा जाता था वह बिना किसी उलझन के चलते रहे और इस दौरान पारस्परिक व्यापार और रक्षा क्षेत्र में सहयोग के कई समझौते भी हुए।

जनवरी 2000 में इसराइल ने तुर्की से पानी ख़रीदने का एक समझौता किया लेकिन यह समझौता ज़्यादा दिन नहीं चल सका। इसके बाद दोनों देशों के बीच कई रक्षा समझौते हुए जिनमें तुर्की को ड्रोन और निगरानी के उपकरण देना भी शामिल था।

रक्षा क्षेत्र में संबंधों के बनने की बड़ी वजह थी - तुर्की की रक्षा ज़रूरतें और इसराइल को अपना सामान बेचने के लिए ख़रीदार ढूंढना।

तुर्की में नवंबर 2002 में जब रिचैप तैय्यप अर्दोआन की दक्षिणपंथी जस्टिस एंड डिवेलपमेंट पार्टी (एकेपी) सत्ता में आई तो दोनों देशों के बीच संबंधों में नया मोड़ आना शुरू हुआ। 2005 में अर्दोआन ने इसराइल का दौरा भी किया और उस वक़्त के इसराइली प्रधानमंत्री एहुद ओलमर्त को तुर्की के दौरे की दावत दी।

दिसंबर 2008 में हालात ने एक और करवट ली और इसराइली प्रधानमंत्री शिमॉन पेरेज़ के अंकारा दौरे के तीन दिन बाद ही इसराइल ने ग़ज़ा में 'ऑपरेशन कास्ट लेड' के नाम से चढ़ाई शुरू कर दी।

हमास से हमदर्दी रखने वाले अर्दोआन को इसराइल की इस कार्रवाई से ज़बर्दस्त धक्का लगा और उसको 'स्पष्ट रूप से धोखा' क़रार दिया।

2010 में इसराइली फ़ौज की ग़ज़ा में घेराबंदी के दौरान मावी मरमरा की घटना हुई। तुर्की के एक मानवाधिकार संगठन की ओर से मावी मरमरा जहाज़ मानवीय सहायता लेकर जा रहा था जिस पर इसराइली फ़ौज ने धावा बोल दिया। इस घटना में 10 तुर्क नागरिक मारे गए थे।

इस घटना के बाद दोनों देशों के बीच संबंध ख़त्म हो गए।

अमेरिकी कोशिश

अमेरिका ने इस क्षेत्र में अपने दो मित्र देशों के बीच में तनाव को कम करने और राजनयिक संबंधों को बहाल कराने के लिए कोशिशें जारी रखीं।

इसके लिए अर्दोआन ने तीन शर्तें सामने रखीं जिनमें मावी मरमरा पर हमले के लिए माफ़ी मांगने, मारे गए लोगों को मुआवज़ा देने और ग़ज़ा की घेराबंदी समाप्त करने जैसी शर्तें शामिल थीं।

इसराइल के लिए सबसे बड़ी शर्त माफ़ी मांगना था और इसराइल भी तुर्की को हमास के कुछ नेताओं को देश से बाहर करने की मांग कर रहा था।

अमेरिकी कोशिशों के तहत ही 2013 में तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अर्दोआन और इसराइली प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू के बीच फ़ोन पर बातचीत कराई। टेलिफ़ोन पर हुई बातचीत के दौरान नेतन्याहू माफ़ी मांगने और मारे गए लोगों के लिए मुआवज़ा देने को तैयार हो गए।

इसके बावजूद इस क्षेत्र में लगातार होने वाली घटनाओं के कारण दोनों देशों के बीच रिश्ते सामान्य होने में देरी होती रही और आख़िरकार सन 2016 में दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंध बहाल हो सके।

अमेरिका-तुर्की सम्बन्ध: अमेरिका ने तुर्की पर पाबंदी लगाई, तुर्की ने बदला लेने की धमकी दी

अमेरिका ने रूस में बने मिसाइल डिफेंस सिस्टम की तैनाती को लेकर नैटो के अपने सहयोगी देश तुर्की पर प्रतिबंध लगा दिया है। तुर्की ने 2019 में ही रूस से ये मिसाइल प्रतिरक्षा प्रणाली हासिल की थी।

अमेरिका का कहना है कि रूस का ज़मीन से हवा में मार करने वाला मिसाइल सिस्टम एस-400 किसी भी तरह से नैटो के तकनीकी मापदंडों पर खरा नहीं उतरता है। एस-400 यूरो-अटलांटिक गठबंधन के लिए ख़तरा है।

अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने 14 दिसंबर 2020 को इन प्रतिबंधों की घोषणा की जिससे तुर्की की हथियार खरीद पर असर पड़ेगा।

अमेरिकी पाबंदियों की घोषणा के फौरन बाद रूस और तुर्की ने इन प्रतिबंधों की आलोचना की है।

रूस में बने मिसाइल सिस्टम की खरीद के मुद्दे पर अमेरिका तुर्की को पहले ही एफ़-35 फाइटर जेट प्रोग्राम से बाहर कर चुका है।

अमेरिका को किस बात पर आपत्ति है?

अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने एक बयान जारी कर कहा, ''अमेरिका ने शीर्ष स्तर पर तुर्की को कई मौकों पर ये स्पष्ट किया है कि एस-400 सिस्टम की खरीद से अमेरिकी मिलिट्री टेक्नॉलॉजी और सेना ख़तरे में पड़ जाएंगे। इससे रूस के रक्षा उद्योग को बड़ी मात्रा में पैसा मिलेगा और तुर्की के सशस्त्र बलों और उसके रक्षा उद्योग में रूस की पहुंच बढ़ेगी।''

माइक पॉम्पियो ने आगे कहा, ''इसके बावजूद तुर्की ने एस-400 सिस्टम की खरीद और टेस्टिंग को लेकर आगे बढ़ने का फ़ैसला किया जबकि इसके विकल्प मौजूद थे। इससे तुर्की की रक्षा ज़रूरतें भी पूरी होतीं।''

उन्होंने कहा, ''मैं तुर्की से अपील करता हूं कि वो एस-400 के मुद्दे को अमेरिका से तालमेल बिठाकर फौरन सुलझाए। तुर्की अमेरिका के लिए एक अहम क्षेत्रीय सुरक्षा साझेदार है। तुर्की जितनी जल्दी हो सके एस-400 सिस्टम की अड़चन को हटाकर दशकों पुराने हमारे रक्षा सहयोग को जारी रखे।''

तुर्की पर अमेरिकी पाबंदी की जद में रक्षा उद्योग निदेशालय के इस्माइल डेमिर और तीन अन्य कर्मचारी आए हैं। इस पाबंदी के तहत अमेरिका से जारी निर्यात लाइंसेस पर प्रतिबंध लगाया गया है, साथ ही अमेरिकी ज्यूरिक्डिक्शन में आने वाली तुर्की की परिसंपत्तियों को भी फ्रीज़ कर दिया गया है।

तुर्की का क्या कहना है?

दूसरी तरफ़, तुर्की के विदेश मंत्रालय ने ''अमेरिका से उसके पक्षपातपूर्ण फ़ैसले पर फिर से विचार करने की अपील'' की है।

तुर्की ने ये भी कहा है कि वो गठबंधन की भावना के अनुरूप कूटनीतिक बातचीत के रास्ते इस मसले का हल खोजने के लिए तैयार है।

तुर्की विदेश मंत्रालय की ओर से जारी किए गए बयान में ये भी कहा गया है कि ''अमेरिकी पाबंदी से हमारे संबंधों पर नकारात्मक असर'' पड़ेगा और वक़्त आने पर तुर्की इसका बदला लेगा।

तुर्की का कहना है कि अमेरिका ने उसे पैट्रियट मिसाइल बेचने से इनकार कर दिया था जिसके बाद उसने रूस से एस-400 सिस्टम खरीदा।

तुर्की के अधिकारियों का ये भी कहना है कि नैटो के दूसरे सहयोगी देश ग्रीस के पास अपना एस-300 सिस्टम है, हालांकि ये उसने रूस से सीधे नहीं खरीदा है।

रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने अमेरिकी पाबंदी की आलोचना करते हुए कहा है कि ये अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के प्रति घंमड से भरे व्यवहार को दिखलाता है।

सर्गेई लावरोव ने कहा कि अमेरिका इस तरह की एकतरफा और अवैध तरीके से दमन करने वाली कार्रवाई करता रहा है।

तुर्की कितना महत्वपूण है?

तीस देशों के सैनिक गठबंधन नैटो में तुर्की के पास दूसरी सबसे बड़ी सेना है।

वो अमेरिका का महत्वपूर्ण साझीदार है और सीरिया, इराक़ और ईरान से सीमा लगने के कारण उसकी रणनीतिक अहमियत है।

सीरिया के संघर्ष में भी तुर्की का अहम रोल रहा है। उसने सीरिया के कुछ विद्रोही गुटों को सैनिक और हथियारों की मदद मुहैया कराई है।

हालांकि नैटो और यूरोपीय संघ के कुछ सदस्य देशों के साथ तुर्की के रिश्ते हाल के दिनों में बिगड़े हैं। इन देशों का आरोप है कि तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन साल 2016 के नाकाम तख़्तापलट के बाद लगातार मनमाने तरीके से काम कर रहे हैं।

एस-400 किस तरह से काम करता है?

लंबी दूरी तक सर्विलांस करने में सक्षम रडार चीज़ों पर नज़र रखता है और इसकी सूचना कमांड व्हीकल को भेज देता है जहां संभावित लक्ष्य का आकलन किया जाता है।

लक्ष्य की पहचान के बाद कमांड व्हीकल मिसाइल लॉन्च का आदेश देता है।

इससे जुड़ा डेटा लॉन्च व्हीकल के पास भेजा जाता है और वहां से ज़मीन से हवा में मार करने वाली मिसाइल दागी जाती है।

रडार मिसाइल को उसके लक्ष्य तक पहुंचने में मदद करता है।

रूस-ईरान सम्बन्ध: परमाणु वैज्ञानिक की हत्या अशांति फैलाने के लिए हुई - रूस

ईरान के सरकारी मीडिया को दिए एक इंटरव्यू में रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लैवरोव ने कहा है कि रूस ईरानी परमाणु वैज्ञानिक मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह की हत्या के मामले में ईरान के साथ खड़ा है।

उन्होंने कहा कि रूस इस बात को लेकर सहमत है कि उनकी हत्या क्षेत्र में अशांति पैदा करने के मकसद से की गई है।

सर्गेई लैवरोव ने ईरान और रूस को 'दुनिया के न्यू वर्ल्ड ऑर्डर' में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले ''दो अहम देश'' बताया है।

ईरान के सरकारी टीवी नेटवर्क वन (आईआरटीवी 1) ने लैवरोव की रूसी भाषा में कही बात को फारसी भाषा में अनुवाद कर कहा है कि उन्होंने कहा, ''हम वैज्ञानिक मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह की हत्या की निंदा करते हैं। हम इसे एक उकसाने वाली आतंकवादी हरकत और क्षेत्र में अशांति फैलाने की कोशिश के तौर पर देखते हैं। ये विदेशी सरकारों की दखल का भी मुद्दा है।''

उन्होंने 3 जनवरी 2020 को हुई लेफ्टिनेंट जनरल कासिम सुलेमानी की हत्या का भी जिक्र किया और कहा कि ''ये किसी भी देश के लिए अस्वीकार्य है।''

कुद्स फ़ोर्स के प्रमुख जनरल कासिम सुलेमानी की हत्या इराक़ में अमेरिकी ड्रोन हमले में हुई थी। अमरीका ने उन्हें और उनकी क़ुद्स फ़ोर्स को सैकड़ों अमरीकी नागरिकों की मौत का ज़िम्मेदार क़रार देते हुए आतंकवादी घोषित कर रखा था।

इंटरव्यू में एक जगह पर वो ईरान और रूस के बीच सहयोग की बात पर ज़ोर देते हैं। वो कहते हैं, ''ईरान के साथ हमारा आपसी सहयोग जिस स्तर पर है वैसा किसी भी देश के साथ नहीं है। कोरोना महामारी के वक्त भी हमारा आपसी व्यापार बढ़ा है, कम नहीं हुआ है।''

उन्होंने यह भी बताया कि ईरान के साथ 2019 में 20 फ़ीसद व्यापार बढ़ा तो महामारी के दौरान इसमें और आठ फ़ीसद की बढ़ोत्तरी हुई है।

उन्होंने ज़ोर दे कर कहा कि ईरान और यूरेशिया के बीच 2019 में हुए व्यापार समझौतों ने ईरान को बड़े बाज़ार के लिए अवसर मुहैया कराए।

सर्गेई लैवरोव ने 2015 में परमाणु समझौते से हटने के लिए अमेरिका की आलोचना की, साथ ही मुक्त व्यापार में डॉलर को हटाने की अहमियत पर भी ज़ोर दिया है।

ईरान की बैंकिंग सेक्टर पर पाबंदियाँ लगी हुई हैं और इसकी वजह से वो विदेशों के साथ व्यापार में डॉलर का इस्तेमाल नहीं कर सकता है।

ईरान की राजधानी तेहरान से सटे शहर अबसार्ड में बंदूकधारियों ने घात लगाकर हमला कर देश के शीर्ष परमाणु वैज्ञानिक मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह की हत्या कर दी गई थी। ईरान के नेताओं ने इस हत्या के लिए इसराइल को दोषी ठहराया है और कहा कि इसका बदला लिया जाएगा।

मालदीव-चीन सम्बन्ध: मालदीव और चीन क़र्ज़ भुगतान को लेकर आपस में क्यों भिड़े?

मालदीव और चीन के बीच क़र्ज़ भुगतान को लेकर सार्वजनिक रूप से कहासुनी हुई है। मालदीव में चीन के क़र्ज़ को लेकर हमेशा से चिंता जतायी जाती रही है लेकिन पिछले हफ़्ते यह कलह सार्वजनिक मंच पर आ गई।

यह कहासुनी मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति और मौजूदा संसद के स्पीकर मोहम्मद नशीद और मालदीव में चीन के राजदूत चांग लिचोंग की बीच ट्विटर पर हुई।

नशीद ने 11 दिसंबर 2020 को ट्वीट किया था कि अगले दो हफ़्तों में मालदीव को क़र्ज़ की बड़ी रक़म चीनी बैंकों को भुगतान करनी है।

उनके इस ट्वीट में किए गए दावे को चीनी राजदूत ने ख़ारिज कर दिया। चीनी राजदूत ने कहा कि मालदीव को क़र्ज़ का भुगतान करना है लेकिन रक़म उतनी बड़ी नहीं है, जैसा कि नाशीद दावा कर रहे हैं।

मोहम्मद नशीद मालदीव के सबसे लोकप्रिय नेता माने जाते हैं। उन्हें भारत समर्थक भी कहा जाता है।

नशीद ने अपने ट्वीट में कहा था, ''अगले 14 दिनों में मालदीव को 1.5 करोड़ डॉलर किसी भी तरह से चीनी बैंक को भुगतान करना है। चीनी बैंकों ने इन क़र्ज़ों में हमें किसी भी तरह की कोई छूट नहीं दी है। ये भुगतान सरकार की कुल आय के 50 फ़ीसदी के बराबर हैं। कोरोना महामारी संकट के बीच मालदीव किसी तरह से उबरने की कोशिश कर रहा है।''

दो घंटे के भीतर ही चीनी राजदूत ने ट्विटर पर ही नशीद के दावों को ख़ारिज कर दिया। चांग लिचोंग ने नशीद के ट्वीट के जवाब में कहा, ''बैंकों से जो मुझे जानकारी मिली है उसके हिसाब से अगले 14 दिनों में 1.5 करोड़ डॉलर का कोई क़र्ज़ भुगतान नहीं करना है। आप अकाउंट बुक चेक कीजिए और इसे बजट के लिए बचाकर रखिए। चीयर्स।''

12 दिसंबर 2020 को चीनी राजदूत ने ट्वीट कर कहा, ''मैंने कुछ होमवर्क किया है। 2020 में 17 लाख 19 हज़ार 535 डॉलर के क़र्ज़ के भुगतान की बात सही है। हुलहुमाले हाउसिंग प्रोजेक्ट फ़ेज 2 में 1530 हाउसिंग यूनिट के लिए लिया गया 23 लाख 75 हज़ार डॉलर का क़र्ज़ किसी तीसरे देश के बैंक से है, ना कि चाइना डेवलपमेंट बैंक का है। स्टेलको प्रोजेक्ट में क़र्ज़ का भुगतान जनवरी 2021 के दूसरे हफ़्ते में करना है।'' चीनी राजदूत ने इस ट्वीट के साथ कुछ दस्तावेज़ भी पोस्ट किए थे।

चीनी राजदूत के इस ट्वीट के जवाब में एक ट्विटर यूज़र ने मालदीव के वित्त मंत्रालय के 31 दिसंबर, 2018 के बयान का हवाला देते हुए लिखा, ''वार्षिक रिपोर्ट 2018 के अनुसार मालदीव के हाउसिंग डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन ने हुलहुमाले फ़ेज़ 3 में 1530 हाउसिंग यूनिट बनाने के लिए चाइना डेवलपमेंट बैंक से 4.2 करोड़ डॉलर के क़र्ज़ लिए थे। अगर इस क़र्ज़ के भुगतान की बारी आएगी तो आपका यह स्क्रीनशॉट दिखा देने से हो जाएगा ना?''

इस पर चीनी राजदूत का कोई जवाब नहीं आया। ऐसे में मोहम्मद नशीद ने इसे मौक़े के तौर पर लिया और स्थिति को संभालने की कोशिश की।

नशीद ने अपने अगले ट्वीट में चीनी राजदूत से कहा, ''आपको बहुत शुक्रिया। चीन से हमारा संबंध मायने रखता है। हम और 11 घंटे का इंतज़ार क्यों करें? क़र्ज़ की इस समस्या को लेकर कुछ रास्ता निकालें। मालदीव को क़र्ज़ भुगतान के लिए और दो साल का वक़्त चाहिए, नहीं तो हम इन क़र्ज़ों को कभी चुका ही नहीं पाएंगे।''

नशीद को जवाब देते हुए चीनी राजदूत ने लिखा, ''आदरणीय स्पीकर मैं आपके इस समर्थन की सराहना करता हूं। हम पारंपरिक रूप से दोस्त रहे हैं और यह हमारे लिए अहम है। इन मुद्दों को लेकर बातचीत पहले से ही हो रही है। मुझे भरोसा है कि दोनों देशों में पारस्परिक फ़ायदे के हिसाब से कोई ठोस व्यवस्था हो जाएगी ताकि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में मदद मिले।''

मालदीव और चीन इससे पहले भी ट्वीटर पर आपस में भिड़ चुके हैं।

मालदीव में वर्तमान चीनी राजदूत अपनी हाज़िर जवाबी के लिए जाने जाते हैं। इसी का नतीजा है कि मालदीव में उनके चाहने वाले भी ख़ूब हैं।

ख़ास कर मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन के समर्थक चीनी राजदूत का खुलकर समर्थन करते हैं। 2013 में सत्ता में आने के बाद यामीन ने भारत के बदले चीन से क़रीबी बढ़ाई थी। कई योजनाओं के कॉन्ट्रैक्ट में राष्ट्रपति यामीन ने भारत के बदले चीन को चुना था।

यामीन के समर्थकों को लगता है कि मालदीव में वर्तमान सरकार से लड़ने में चीन के राजदूत उनके लिए किसी सहायक से कम नहीं हैं। मालदीव की वर्तमान सरकार को भारत समर्थक कहा जाता है।

नवंबर 2020 में नशीद ने कहा था कि अगर मालदीव के लोग अपनी दादी के गहने भी बेच दें तब भी चीन का क़र्ज़ नहीं चुकाया जा सकता। इसके जवाब में चीनी राजदूत ने कहा था, ''दादियों के गहने अनमोल है लेकिन उनकी एक क़ीमत है। मैं मालदीव के साथ दोस्ती को प्राथमिकता दूंगा जिसकी कोई क़ीमत नहीं है।''

नवंबर 2020 में ही इसी तरह का एक और वाकया हुआ था। मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल गयूम की बेटी दुन्या मउमून ने 10 नवंबर 2020 को इंडिया टुडे में छपे एक लेख को लेकर पूछा था। इस लेख में माले एयरपोर्ट में चीनी निवेश को लेकर कई बातें कही गई थीं।

उसी दिन चीनी राजदूत ने पूर्व राष्ट्रपति गयूम की बेटी से कहा, ''इसे किसी कल्पना के तौर पर पढ़ें। अगर सही जानकारी चाहिए तो मालदीव एयरपोर्ट से लीजिए।'' गयूम को भी चीन समर्थित राष्ट्रपति माना जाता था।

मोहम्मद नशीद ने सितंबर 2020 में बीबीसी को दिए इंटरव्यू में कहा था कि मालदीव ने चीन से 3.1 अरब डॉलर का क़र्ज़ लिया है। नशीद ने कहा था कि इसमें चीन की सरकार और वहां के निजी सेक्टर दोनों के लोन शामिल हैं।

जब 2018 में नाशीद की मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी सत्ता में आई तो भारतीय अधिकारियों ने अनुमान लगाया था कि क़र्ज़ डेढ़ अरब डॉलर का है।

नशीद की पार्टी की सरकार जब से बनी है तब से वो भारत से आर्थिक मदद ले रही है। भारत ने मालदीव को 1.4 अरब डॉलर की वित्तीय मदद देने की घोषणा की है।

मालदीव की राजनीति के केंद्र चीन और भारत

मालदीव में चीन और भारत को लेकर वहां की राजनीति में चर्चा गर्म रहती है। सितंबर 2020 में मालदीव में सोशल मीडिया पर इंडिया आउट का कैंपेन चलाया जा रहा था।

तब मोहम्मद नाशीद ने कहा कि इंडिया आउट कैंपेन आईएसआईएस सेल का है। नाशीद ने कहा था कि इस कैंपेन के तहत मालदीव से भारतीय सैनिकों को हटाने की मांग की जा रही है। मालदीव में इंडिया आउट कैंपेन को वहां की मुख्य विपक्षी पार्टी हवा दे रही थी। मालदीव की मुख्य विपक्षी पार्टी का कहना है कि भारतीय सैनिकों की मौजूदगी संप्रभुता और स्वतंत्रता के ख़िलाफ़ है।

मालदीव में विपक्षी पार्टी की भारत-विरोधी बातों के जवाब में वहां के विदेश मंत्री अब्दुल्ला ने कहा था कि जो लोग मज़बूत होते द्विपक्षीय रिश्तों को ''पचा नहीं पा रहे हैं'', वो इस तरह की आलोचना का सहारा ले रहे हैं।

भारत समर्थित एक स्ट्रीट लाइटिंग योजना के उद्घाटन के मौक़े पर विदेश मंत्री ने कहा था, ''ये दोनों देशों के बीच का संबंध है। ये दिलों से दिलों को जोड़ने वाला रिश्ता है। हम इसका आभार प्रकट करते हैं।''

अगस्त 2020 में भारत ने 50 करोड़ डॉलर के पैकेज की घोषणा की थी, जिसमें 10 करोड़ डॉलर का अनुदान भी शामिल है। इससे पहले भारत ने 2018 में मालदीव के लिए 80 करोड़ डॉलर की घोषणा की थी।

सऊदी अरब-इजराइल सम्बन्ध: सऊदी अरब के प्रिंस ने इसराइल की कड़ी आलोचना की

सऊदी अरब के प्रिंस तुर्की अल-फ़ैसल ने 06 दिसंबर 2020 को हुई बहरीन सिक्यॉरिटी समिट में इसराइल की कड़ी आलोचना की है।

इसराइल के विदेश मंत्री गाबी अशकेनाज़ी इसमें ऑनलाइन शामिल हुए।  इस घटनाक्रम से अरब देशों और इसराइल के बीच आगे किसी बातचीत की राह में चुनौतियां सामने आई हैं।

समाचार एजेंसी एपी के मुताबिक़, मनामा डायलॉग में प्रिंस तुर्की अल-फ़ैसल की कड़ी टिप्पणियों की वजह से इसराइल को हैरानी हुई है क्योंकि इसराइल के विदेश मंत्री को ऐसा होने की उम्मीद नहीं थी।

ख़ासतौर पर तब जबकि संबंधों को सामान्य बनाने वाले समझौतों के बाद बहरीन और संयुक्त अरब अमीरात के अधिकारियों ने इसराइलियों का गर्मजोशी से स्वागत किया था।

इसराइल और फ़लस्तीनियों में दशकों से विवाद और संघर्ष रहा है।  फ़लस्तीनियों का विचार है कि ये समझौते उनके साथ धोखा है और इस तरह हैं जैसे उनके अरब साथियों ने पीठ में छुरा घोंप दिया हो।

प्रिंस तुर्की अल-फ़ैसल ने अपनी बात शुरू करते हुए 'इसराइल की शांति-प्रेमी और उच्च नैतिक मूल्य वाले देश' की धारणा को 'पश्चिमी औपनिवेशिक ताक़त' के तहत कहीं ज़्यादा स्याह फ़लस्तीनी हकीक़त बताया।

प्रिंस तुर्की अल-फ़ैसल ने कहा कि ''इसराइल ने सुरक्षा कारणों का हवाला देते हुए फ़लस्तीनियों को क़ैद में रखा जहां बुज़ुर्ग, आदमी-औरतें बिना किसी इंसाफ़ के एक तरह से सड़ रहे हैं। वो घरों को गिरा रहे हैं और चाहे जिसकी हत्या कर रहे हैं।''

प्रिंस तुर्की अल-फ़ैसल ने ''इसराइल के परमाणु हथियारों के अघोषित ज़ख़ीरे और इसराइली सरकार की सऊदी अरब को कमज़ोर करने की कोशिशों'' की भी भर्त्सना की।

प्रिंस तुर्की अल-फ़ैसल ने सऊदी अरब का आधिकारिक रुख़ दोहराया कि समस्या का समाधान 'अरब पीस इनिशिएटिव' को लागू करने में निहित है।

साल 2002 में सऊदी अरब प्रायोजित 'अरब पीस इनिशिएटिव' समझौते में इसराइल के अरब देशों के साथ हर तरह के रिश्तों के बदले साल 1967 में इसराइली क़ब्ज़े वाले इलाक़े को फ़लस्तीनी देश का दर्जा देने की मांग की गई थी।

उन्होंने कहा, ''आप खुले ज़ख़्म को दर्द निवारक दवाओं से ठीक नहीं कर सकते हैं।''

प्रिंस तुर्की अल-फ़ैसल के बात के फ़ौरन बाद इसराइली विदेश मंत्री गाबी अशकेनाज़ी ने कहा, ''सऊदी प्रतिनिधियों की टिप्पणियों पर मैं अपना खेद प्रकट करना चाहता हूं। मुझे नहीं लगता कि उनकी बातों में वो मर्म और बदलाव नज़र आते हैं जो मिडिल ईस्ट में हो रहे हैं।''

इसराइली विदेश मंत्री गाबी अशकेनाज़ी ने इसराइली रुख़ दोहराते हुए कहा कि ''शांति समझौता ना होने के लिए फ़लस्तीनी ज़िम्मेदार हैं।  फ़लस्तीनियों को लेकर हमारे पास विकल्प है कि हम इसका समाधान करें या ना करें या यूं ही आरोप-प्रत्यारोप करते रहें।''

बहरीन सिक्योरिटी समिट को देख-सुन रहे संयुक्त राष्ट्र में पूर्व राजदूत और नेतन्याहू के क़रीबी डोर गोल्ड ने प्रिंस तुर्की अल-फ़ैसल की टिप्पणियों पर कहा कि अतीत में भी कई झूठे आरोप लगाए गए हैं।

इस पर प्रिंस तुर्की अल-फ़ैसल ने उन्हें भी आड़े हाथों लिया।

सऊदी बनाम इसराइल

सऊदी अरब ऐतिहासिक रूप से इसराइल और इसके फ़लस्तीनी लोगों के साथ होने वाले बर्ताव का आलोचक रहा है और अरब मीडिया इसराइल को एक 'यहूदी देश' के तौर पर खारिज करते रहे हैं।

सऊदी अरब के दूर-दराज और देहाती इलाकों में लोग न सिर्फ इसराइल को बल्कि सभी यहूदी लोगों को अपने दुश्मन के तौर पर देखते आए हैं।

हालांकि, यहूदियों को लेकर कई तरह की भ्रामक थिअरीज़ अब नहीं दिखाई देतीं। इसकी एक वजह यह भी है कि सऊदी लोग काफी वक्त इंटरनेट पर बिताते हैं और इस वजह से दुनिया में चल रही चीजों के बारे में काफी जागरूक हैं।

इसके बावजूद सऊदी आबादी के एक तबके में बाहरी लोगों को लेकर एक शक अभी भी कायम है। सऊदी अरब और खाड़ी देशों के फलस्तीन के साथ रिश्तों का एक विचित्र इतिहास रहा है।

खाड़ी देश आमतौर पर फलस्तीनी मुद्दे के समर्थक रहे हैं। दशकों से वे राजनीतिक और वित्तीय रूप से फलस्तीन की मदद कर रहे हैं। लेकिन, जब फलस्तीनी नेता यासिर अराफात ने 1990 में इराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के कुवैत पर हमले और कब्जे का समर्थन किया तो उन्हें यह एक बड़ा धोखा जान पड़ा।

अमरीका की अगुवाई में ऑपरेशन डेजर्ट स्टॉर्म के बाद और 1991 में स्वतंत्र होने पर कुवैत ने अपने यहां मौजूद फलस्तीनियों की पूरी आबादी को बाहर निकाल दिया और उनकी जगह मिस्र के हजारों लोग बसा दिए गए।

इस इलाके के पुराने शासकों को अराफात के धोखे को भुलाने में लंबा वक्त लगा है।

ईरान परमाणु गतिविधि बढ़ाएगा, परमाणु वैज्ञानिक की मौत के बाद नया क़ानून बनाया

ईरान की संसद में एक नया कानून पारित किया गया है जिसके तहत देश के परमाणु केंद्रों पर संयुक्त राष्ट्र की ओर से किए जाने वाले निरीक्षण पर रोक लगा दी गई है और साथ ही ईरान अब यूरेनियम संवर्धन को भी आगे बढ़ाएगा।

इस नए क़ानून के आने के बाद ईरान सरकार 20 फ़ीसदी तक यूरोनियम संवर्धन दोबारा शुरू कर सकेगी जिसे साल 2015 के परमाणु समझौते में 3.67% तक सीमित कर दिया गया था।

2015 के समझौते के अनुसार, ईरान अपनी संवेदनशील परमाणु गतिविधियों को सीमित करने और अंतरराष्ट्रीय निरीक्षकों को आने की अनुमति दी थी। इसके बदले में ईरान पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों को ख़त्म किया गया था।

हालाँकि, ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी ने इस क़ानून को मंज़ूरी मिलने से पहले कहा कि वह इस नए कानून से असहमत हैं क्योंकि इससे कूटनीति को नुक़सान पहुँचेगा।

ईरानी सांसदों ने ये नया क़ानून ईरान के मुख्य परमाणु वैज्ञानिक मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह की बीते 27 नवंबर 2020 को हुई हत्या के बाद बनाया है।

ईरान का मानना है कि इज़राइल और एक निर्वासित विपक्ष ने मिलकर एक रिमोट-कंट्रोल हथियार से फ़ख़रीज़ादेह पर हमला किया। फ़ख़रीज़ादेह को ईरान के परमाणु कार्यक्रम का मुख्य कर्ताधर्ता माना जाता था।

ईरान सरकार बार-बार इस बात पर ज़ोर देती रही है कि उसकी सभी परमाणु गतिविधियां शांतिपूर्ण ही रही हैं। पश्चिमी देशों ने कड़े प्रतिबंध के ज़रिए ईरान को परमाणु हथियारों को विकसित करने से रोका।

ईरान का नया क़ानून क्या कहता है?

ईरान के गार्डियन काउंसिल के पारित नए क़ानून के मुताबिक़ 2015 के समझौते में शामिल ब्रिटेन, फ़्रांस, जर्मनी जैसे यूरोपीय देशों को ईरान के तेल पर लगे प्रतिबंध और आर्थिक प्रतिबंधों में ढील देने के लिए दो महीने का वक़्त दिया गया है।

ये प्रतिबंध 2018 में ट्रंप प्रशासन के परमाणु समझौते से बाहर निकलने के बाद लगाए गए थे।

अगर दो महीने के भीतर इस दिशा में काम शुरू नहीं किया गया तो ईरान सरकार अपना यूरेनियम संवर्धन 20 फ़ीसदी तक बढ़ा देगी और अपने नतांज़ और फोरदो परमाणु केंद्र पर नई तकनीक से लैस अपकेंद्रण यंत्र बनाएगी जहां यूरोनियम का संवर्धन किया जाएगा।

इस कानून के तहत संयुक्त राष्ट्र, ईरान के परमाणु केंद्रों का निरीक्षण भी नहीं कर सकेगा।

ईरानी समाचार एजेंसी फ़ार्स के मुताबिक़ 02 दिसंबर 2020 को एक चिट्ठी के ज़रिए ईरान की संसद के प्रवक्ता ने औपचारिक तौर पर राष्ट्रपति रूहानी से इस नए कानून को लागू करने की अपील की है।

इस कानून को मंज़ूरी मिलने के पहले ही ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी ने कहा था कि उनकी सरकार इस नए कानून से सहमत नहीं हैं। उन्होंने इस कानून को देश की ''कूटनीति के लिए नुक़सानदेह'' बताया था।

परमाणु डील पर डोनाल्ड ट्रंप और जो बाइडन की अलग राय

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने 2018 में परमाणु समझौते को रद्द कर दिया था। उन्होंने कहा था कि वो ईरान से नया समझौता करना चाहते हैं जो उसके परमाणु कार्यक्रम और बैलिस्टिक मिसाइल के विकास पर अनिश्चितकालीन रोक लगाएगा। इसके बदले अमेरिका ने ईरान पर कड़े प्रतिबंध लगाए।

वहीं दूसरी ओर अमेरिका के नव-निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडन ने कहा है कि वह ओबामा सरकार के समय हुए परमाणु समझौते को दोबारा लागू करेंगे और अगर ईरान 'परमाणु समझौते का कड़ाई से पालन करता है' तो ईरान पर लगाए प्रतिबंध हटाए जाएंगे।

बाइडन 20 जनवरी, 2021 को अमेरिका के राष्ट्रपति की शपथ लेंगे।

जुलाई, 2019 में ही ईरान ने परमाणु हथियार बनाने के लिए 3.67 प्रतिशत संवर्धित यूरेनियम की सीमा बढ़ाकर 4.5% कर दी थी।

कम संवर्धित तीन से पाँच प्रतिशत घनत्व वाले यूरेनियम के आइसोटोप U-235 को ईंधन की तरह इस्तेमाल करके बिजली बनाई जा सकती है।

हथियार बनाने के लिए जो यूरेनियम इस्तेमाल होता है वह 90 प्रतिशत या इससे अधिक संवर्धित होता है।

साल 2015 की परमाणु डील ईरान के परमाणु कार्यक्रम को रोकने के लिए किया गया था और इसके बदले ईरान पर लगे प्रतिबंधों को ख़त्म किया गया था। इस परमाणु समझौते पर ईरान के साथ अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, जर्मनी, फ़्रांस और चीन ने भी दस्तख़त किये थे।

ईरान के परमाणु वैज्ञानिक को रिमोट नियंत्रित हथियार से किसने मारा?

ईरान का मानना है कि इसराइल और निर्वासित विपक्षी समूह ने उसके शीर्ष के परमाणु वैज्ञानिक मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह को 27 नवंबर 2020 को मारने के लिए एक रिमोट नियंत्रित हथियार का इस्तेमाल किया था।

तेहरान में फ़ख़रीज़ादेह की अंत्येष्टि के दौरान ईरान के सुरक्षा प्रमुख अली शामख़ानी ने कहा कि हमलावरों ने इलेक्ट्रॉनिक उपकरण का इस्तेमाल किया और वे वारदात स्थल पर मौजूद नहीं थे।

हालांकि उन्होंने इसे लेकर और जानकारी नहीं दी। शुरुआत में ईरानी रक्षा मंत्रालय ने कहा था कि फ़ख़रीज़ादेह की कार को कुछ बंदूकधारियों ने निशाना बनाया था और उसी दौरान उन्हें गोली मारी गई थी।

इसराइल ने ईरान के इन दावों पर अभी कोई टिप्पणी नहीं की है। 2000 के दशक की शुरुआत में फ़ख़रीज़ादेह ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम में अहम भूमिका अदा की थी।

सबसे अहम बात यह है कि हाल ही में इसराइल ने फ़ख़रीज़ादेह को लेकर कहा था कि वो ईरान के गोपनीय परमाणु हथियार को विकसित करने में लगे हुए हैं।

ईरान हमेशा से कहता रहा है कि उसका परमाणु कार्यक्रम हथियार विकसित करने के लिए नहीं है। फ़ख़रीज़ादेह की अंत्येष्टि का कार्यक्रम तेहरान स्थित ईरान के रक्षा मंत्रालय के कैंपस में हुआ। अंत्येष्टि के कुछ अवशेष उत्तरी तेहरान में स्थित एक क़ब्रिस्तान को सौंपा गया।

ईरान के सरकारी टीवी में दिखा कि ईरानी राष्ट्रध्वज में लिपटे फ़ख़रीज़ादेह के ताबूत को सैनिकों और सीनियर अधिकारी उठाए आगे बढ़ रहे थे। इनमें ख़ुफ़िया मंत्री महमूद अलावी, रिवॉल्युशनरी कोर कमांडर जनरल हुसैन सलामी और परमाणु प्रोग्राम के प्रमुख अली अकबर सालेही ने फ़ख़रीज़ादेह की श्रद्धांजलि में नमाज़ अदा की।

ईरान के सुप्रीम नेशनल सिक्यॉरिटी काउंसिल के सचिव एडमिरल शामख़ानी ने फ़ख़रीज़ादेह की अंत्येष्टि कार्यक्रम में कहा कि ईरानी ख़ुफ़िया और सुरक्षा सेवाओं को फ़ख़रीज़ादेह की हत्या की साज़िश का अंदेशा पहले से ही था।

शामख़ानी ने कहा, ''उनकी सुरक्षा को लेकर ज़रूरी उपाय किए गए थे लेकिन दुश्मनों ने बिल्कुल नया तरीक़ा इस्तेमाल किया। इस हत्या को अंजाम पेशेवर और ख़ास तरीक़े से दिया गया है। दुर्भाग्य से हमारे दुश्मन इसमें सफल रहे। यह बहुत ही जटिल मिशन था क्योंकि इसमें इलेक्ट्रॉनिक उपकरण का इस्तेमाल किया गया है। वारदात स्थल पर कोई भी मौजूद नहीं था।''

एडमिरल शामख़ानी ने कहा कि इस हत्या को अंजाम देने वालों का कुछ सुराग़ मिला है। उन्होंने कहा, ''इसमें यहूदी शासन और मोसाद के साथ निर्वासित ईरानी विपक्षी समूह मुजाहिदीन-ए-ख़ाल्क़ (एमकेओ) निश्चित तौर पर शामिल रहा है।''

मोसाद इसराइल की ख़ुफ़िया एजेंसी है और यहूदी शासन इसराइल के लिए इस्तेमाल किया गया है। एमकेओ ईरान का निर्वासित विपक्षी धड़ा है जो मुल्क में वर्तमान सरकार के ढाँचे का विरोध करता है। ईरान की ओर से यह बयान तब आया है जब वहां की फार्स न्यूज़ एजेंसी ने फ़ख़रीज़ादेह की हत्या में रीमोट-कंट्रोल मशीन गन के इस्तेमाल की बात कही है।

अरबी भाषा के अल-अलाम टीवी की रिपोर्ट के अनुसार इस तरह के हथियार का इस्तेमाल सैटेलाइलट कंट्रोल के ज़रिए किया जाता है। 27 नवंबर 2020 को जब ईरानी परमाणु वैज्ञानिक की हत्या हुई तो रक्षा मंत्रालय ने कहा था कि पूर्वी तेहरान में हथियारबंद आतंकवादियों ने फ़ख़रीज़ादेह की कार को निशाना बनाकर हमला किया था।

मंत्रालय ने कहा था कि फ़ख़रीज़ादेह को उनके सुरक्षा गार्ड और हमलावरों के बीच की गोलाबारी में गोली लगी थी और इसी दौरान उनकी मौत हो गई। सोशल मीडिया पर जो तस्वीरें पोस्ट की गई हैं उनमें दिख रहा है कि गोलियों से छलनी हुई कार के साथ मलबे और ख़ून बिखरे पड़े हैं।

30 नवंबर 2020 को फ़ख़रीज़ादेह की अंत्येष्टि में ईरान के रक्षा मंत्री जनरल आमिर हतामी ने संकल्प दोहराया कि इस हत्या का बदला लिया जाएगा।

आमिर ने कहा, ''दुश्मनों को पता है और एक सैनिक के तौर पर मैं उन्हें कह रहा हूं ईरान के लोग हर एक का जवाब देंगे।''

ईरानी रक्षा मंत्री ने कहा कि ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ डिफेंसिव इनोवेशन एंड रिसर्च में फ़ख़रीज़ादेह अहम काम कर रहे थे। यहां परमाणु सुरक्षा को लेकर ईरान काम कर रहा है।

फ़ारसी में इस ऑर्गेनाइज़ेशन को SPND कहा जाता है। ईरानी रक्षा मंत्री ने कहा कि SPND का बजट दोगुना किया जाएगा ताकि 'शहीद डॉक्टर' की राह को और तेज़ी से हासिल किया जा सके।

ईरान के मीडिया का दो चीज़ों पर ज़ोर है। पहला ईरानी वैज्ञानिक की हत्या का बदला लेना और दूसरा ये कि ईरान को इसराइल के झाँसे में नहीं फँसना चाहिए क्योंकि वो तनाव बढ़ाकर ईरान के परमाणु कार्यक्रम को चौपट करना चाहता है।

क्या मुस्लिम देशों के संगठन ओआईसी में कश्मीर का ज़िक्र पाकिस्तान की जीत है?

भारत ने इस्लामिक देशों के संगठन ऑर्गेनाइजेशन ऑफ़ इस्लामिक कोऑपरेशन (ओआईसी) के सदस्य देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक में पास किए गए प्रस्ताव को ख़ारिज कर दिया है। इस प्रस्ताव में कश्मीर का भी ज़िक्र किया गया है।

भारतीय विदेश मंत्रालय ने कहा कि ओआईसी में पास किए गए प्रस्ताव में भारत का संदर्भ तथ्यात्मक रूप से ग़लत, अकारण और अनुचित है।

नाइजर की राजधानी नियामे में 27 और 28 नवंबर 2020 को ओआईसी के काउंसिल ऑफ फॉरन मिनिस्टर्स (सीएफ़एम) की बैठक थी और इसी बैठक में जो प्रस्ताव पास किया गया है उसमें कश्मीर का भी ज़िक्र है।

पाकिस्तान भी ओआईसी का सदस्य है। इस बैठक में पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी शामिल हुए और उन्होंने कश्मीर का मुद्दा ज़ोर-शोर से उठाया था।

पाकिस्तान ओआईसी के विदेश मंत्रियों की बैठक में पास किए गए प्रस्ताव में कश्मीर के ज़िक्र से ख़ुश है। इस प्रस्ताव को नियामे डेक्लरेशन कहा जा रहा है और पाकिस्तान ने इसका स्वागत किया है।

भारत ने पाँच अगस्त 2019 को कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म कर दिया था। तब से पाकिस्तान अंतराराष्ट्रीय मंच पर इस मुद्दे को उठा रहा है लेकिन अब तक कोई ठोस सफलता नहीं मिली है। ओआईसी भी इसे लेकर अब तक बहुत सक्रिय नहीं रहा है।

ओआईसी के सीएफ़एम में पास किए गए प्रस्ताव को लेकर भारत के विदेश मंत्रालय ने अपने बयान ने कहा है, ''हम नाइजर की राजधानी नियामे में ओआईसी के 47वें सीएफ़एम में तथ्यात्मक रूप से ग़लत, अनुचित और अकारण रूप से पास किए गए प्रस्ताव में भारत के ज़िक्र को ख़ारिज करते हैं। हमने हमेशा से कहा है कि ओआईसी को भारत के आंतरिक मामलों पर बोलने का कोई हक़ नहीं है। जम्मू-कश्मीर भी भारत का अभिन्न अंग है और ओआईसी को इस पर बोलने का कोई अधिकार नहीं है।''

भारत ने अपने बयान में कहा है, ''यह खेदजनक है कि ओआईसी किसी एक देश को अपने मंच का दुरुपयोग करने की अनुमति दे रहा है। जिस देश को ओआईसी ऐसा करने दे रहा है, उसका धार्मिक सहिष्णुता, अतिवाद और अल्पसंख्यकों के साथ नाइंसाफ़ी का घिनौना रिकॉर्ड है। वो देश हमेशा भारत विरोधी प्रॉपेगैंडा में लगा रहा है। हम ओआईसी को गंभीरता से सलाह दे रहे हैं कि वो भविष्य में भारत को लेकर ऐसी बात कहने से बचे।''

नियामे में ओआईसी के सदस्य देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक में पास किए गए प्रस्ताव में कश्मीर को भी शामिल किया गया है।

हालांकि कश्मीर ओआईसी के सीएफ़म के एजेंडे में शामिल नहीं था। कहा जा रहा है कि पाकिस्तान की ज़िद के कारण इसमें महज़ शामिल किया गया है। प्रस्ताव में कहा गया है कि कश्मीर विवाद पर ओआईसी का रुख़ हमेशा से यही रहा है कि इसका शांतिपूर्ण समाधान संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव के अनुसार होना चाहिए।

हालांकि ये बात भी कही जा रही है कि ओआईसी के प्रस्ताव में कश्मीर का ज़िक्र रस्मअदायगी भर है और ये भारत के लिए हैरान करने वाला नहीं है। पाकिस्तान के भारी दबाव के बावजूद इस बैठक में कश्मीर को एक अलग एजेंडे के तौर पर शामिल नहीं किया गया।

ओआईसी में सऊदी अरब और यूएई का दबदबा है। पाकिस्तान के इन दोनों देशों से रिश्ते ख़राब चल रहे हैं। सऊदी अरब चाहता है कि पाकिस्तान उसके क़र्ज़ों का भुगतान जल्दी करे। ख़ास करके तब से जब पाकिस्तानी पीएम इमरान ख़ान ने ओआईसी के समानांतर तुर्की, ईरान और मलेशिया के साथ मिलकर एक संगठन खड़ा करने की कोशिश की थी। पिछले हफ़्ते यूएई ने पाकिस्तानी नागिरकों के लिए नया वीज़ा जारी करने पर अस्थायी रूप से प्रतिबंध लगा दिया था।

पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी ने इस मुद्दे को भी ओआईसी की बैठक में अलग से यूएई के विदेश मंत्री के सामने उठाया लेकिन अभी तक कोई ठोस आश्वासन नहीं मिला है।

नियामे डेक्लरेशन में कश्मीर का ज़िक्र क्या पाकिस्तान की जीत है?

मार्च 2019 में अबू धाबी में यह बैठक हुई थी। इस बैठक में भारत की तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को भी यूएई ने बुलाया था।

पाकिस्तान ने सुषमा स्वराज के बुलाए जाने का विरोध किया था और उसने उद्घाटन समारोह का बहिष्कार किया था। सुषमा स्वराज ने तब ओआईसी के सीएफएम की बैठक को संबोधित किया था।

इस बैठक में जो प्रस्ताव पास किया गया था उसमें कश्मीर का कोई ज़िक्र नहीं था। इसमें पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के उस फ़ैसले का स्वागत किया गया था जिसमें उन्होंने भारत के विंग कमांडर अभिनंदन को वापस भेजा था।

ओआईसी के विदेश मंत्रियों की बैठक के बाद आने वाले प्रस्ताव में कश्मीर का ज़िक्र कोई नई बात नहीं है। इसे पहले भी ज़िक्र होता रहा है। इस बार के प्रस्ताव को नियामे डेक्लेरेशन कहा जा रहा है। इसके ऑपरेटिव पैराग्राफ़ आठ में कहा गया है कि ओआईसी जम्मू-कश्मीर विवाद का समाधान यूएन सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव के हिसाब से शांतिपूर्ण चाहता है और उसका यही रुख़ हमेशा से रहा है।

पाँच अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म किए जाने के बाद ओआईसी के विदेश मंत्रियों की यह पहली बैठक थी। पाकिस्तान को उम्मीद थी कि इस बार भारत के ख़िलाफ़ कश्मीर को लेकर कोई कड़ा बयान जारी किया जाएगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

भारत में पाकिस्तान के राजदूत रहे अब्दुल बासित ने ट्विटर पर एक वीडियो पोस्ट किया है और उन्होंने इसमें नियामे डेक्लरेशन को लेकर कई बातें कही हैं।

बासित ने कहा है, ''पाँच अगस्त के बाद ओआईसी के विदेश मंत्रियों की यह पहली बैठक थी और हमें उम्मीद थी कि भारत को लेकर कुछ कड़ा बयान जारी किया जाएगा। हमें लगा था कि भारत के फ़ैसले की निंदा की जाएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। डेक्लरेशन में पाकिस्तान के लिए बहुत ख़ुश करने वाली बात नहीं है।''

उन्होंने कहा, ''जिस तरह से इस डेक्लरेशन में फ़लस्तीन, अज़रबैजान और आतंकवाद को लेकर ज़िक्र है वैसा कश्मीर का नहीं है। पिछले साल की तुलना में इस बात से ख़ुश हो सकते हैं कि चलो इस बार कम से कम ज़िक्र तो हुआ। पाँच अगस्त को भारत ने जो किया उसकी निंदा होनी चाहिए थी लेकिन ये ऐसा नहीं हुआ। नाइजर के भारत के साथ अच्छे ताल्लुकात हैं और जिस कन्वेंशन सेंटर में यह कॉन्फ़्रेंस हुई है वो भारत की मदद से ही बना है।''

मालदीव भी ओआईसी का सदस्य है। इस बैठक में मालदीव के विदेश मंत्री अब्दुल्ला शाहिद शामिल हुए। अब्दुल्ला ने 27 नंवबर 2020 को एक ट्वीट किया था जिसमें नियामे के उस कॉन्फ़्रेंस सेंटर की तस्वीरें पोस्ट की थीं। इन तस्वीरों के साथ अब्दुल्ला ने अपने ट्वीट में लिखा है, ''ओआईसी की 47वीं सीएफ़एम की बैठक नियामे के ख़ूबसूरत महात्मा गाँधी इंटरनेशनल कॉन्फ़्रेंस सेंटर में हो रही है। जब दुनिया कई चुनौतियों और संकट से जूझ रही है ऐसे में साथ मिलकर ही इनका सामना किया जा सकता है।''

हालांकि पाकिस्तान कश्मीर का ज़िक्र भर होने से अपनी जीत के तौर पर देख रहा है। पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने ट्वीट कर कहा है, ''नियामे डेक्लरेशन में जम्मू-कश्मीर विवाद को शामिल किया जाना बताता है कि ओआईसी कश्मीर मुद्दे पर हमेशा से साथ खड़ा है।''

भारत ने कश्मीर का विशेष दर्जा जब से ख़त्म किया है तब से पाकिस्तान ओआईसी के सदस्य देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक बुलाने की मांग कर रहा था लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ था।

पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी ने अगस्त 2020 में ओआईसी से अलग होकर कश्मीर का मुद्दा उठाने की धमकी दे डाली थी। इससे सऊदी अरब नाराज़ हो गया था और पाकिस्तान को स्पष्टीकरण जारी करना पड़ा था। लेकिन तब तक बात बिगड़ गई थी और इसे संभालने के लिए पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा को सऊदी का दौरा करना पड़ा था।