अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध

क्या ईरान के वैज्ञानिक की हत्या से ईरान का परमाणु कार्यक्रम थम जायेगा?

ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी ने कहा है कि देश के वरिष्ठ परमाणु वैज्ञानिक की हत्या से देश के परमाणु कार्यक्रम की रफ्तार धीमी नहीं पड़ेगी।

शीर्ष परमाणु वैज्ञानिक मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह की हत्या के लिए हसन रूहानी ने इसराइल पर आरोप लगाया और कहा कि ये कदम बताता है कि वो कितना परेशान हैं और हमसे कितनी घृणा करते हैं।

इससे पहले ईरान ने संयुक्त राष्ट्र के महासचिव और सुरक्षा परिषद से अपने शीर्ष परमाणु वैज्ञानिक मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह की हत्या की निंदा करने की अपील की थी।

अब तक मिली जानकारी के मुताबिक़ फ़ख़रीज़ादेह पर राजधानी तेहरान से सटे शहर अबसार्ड में बंदूकधारियों ने घात लगाकर हमला किया। हालांकि अब तक किसी हमलावर के पकड़े जाने की कोई ख़बर नहीं मिली है।

ईरान के संयुक्त राष्ट्र के लिए राजदूत माजिद तख्त रवांची ने कहा कि मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह की हत्या अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों का स्पष्ट उल्लंघन है, जिसे क्षेत्र में अशांति फैलाने के मक़सद से अंजाम दिया गया।

वहीं संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेश ने इस मामले में संयम बरतने की अपील की है।

रॉयटर्स के मुताबिक़, गुटेरेश के प्रवक्ता फरहान हक ने 27 नवंबर 2020 को कहा, ''हमने आज तेहरान के पास हुई एक ईरानी परमाणु वैज्ञानिक की हत्या की ख़बरों को नोट किया है। हम संयम बरतने और ऐसी किसी भी कार्रवाई से बचने का आग्रह करते हैं जिससे क्षेत्र में तनाव बढ़ सकता है।''

अन्य ईरानी अधिकारियों ने इसराइल पर हत्या के आरोप लगाए हैं और बदला लेने की चेतावनी दी है।

इसराइल ने अब तक इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है, लेकिन वो पहले मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह पर एक गुप्त परमाणु हथियार कार्यक्रम का मास्टरमाइंड होने का आरोप लगा चुका है।

पूरा मामला क्या है?

ईरान के रक्षा मंत्रालय ने जानकारी दी थी कि उसके एक शीर्ष परमाणु वैज्ञानिक मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह की हत्या कर दी गई है। हमले के बाद फ़ख़रीज़ादेह को स्थानीय अस्पताल में ले जाया गया लेकिन उनकी जान नहीं बचाई जा सकी।

ईरान के विदेश मंत्री मोहम्मद जवाद ज़रीफ़ ने फ़ख़रीज़ादेह की हत्या की निंदा करते हुए इसे 'राज्य प्रायोजित आतंक की घटना क़रार दिया'।

पश्चिमी देशों की ख़ुफ़िया एजेंसियों का मानना है कि ईरान के ख़ुफ़िया परमाणु हथियार कार्यक्रम के पीछे मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह का ही हाथ था।

विदेशी राजनयिक उन्हें 'ईरानी परमाणु बम के पिता' कहते थे। ईरान कहता रहा है कि उसका परमाणु कार्यक्रम शांतिपूर्ण मक़सद के लिए है।

साल 2010 और 2012 के बीच ईरान के चार परमाणु वैज्ञानिकों की हत्या की गई थी और ईरान ने इसके लिए इसराइल को ज़िम्मेदार ठहराया था।

मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह की हत्या कैसे हुई?

ईरान के रक्षा मंत्रालय ने 27 नवंबर 2020 को एक बयान जारी कर कहा, ''हथियारबंद आतंकवादियों ने रक्षा मंत्रालय के शोध और नवोत्पाद विभाग के प्रमुख मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह को ले जा रही कार को निशाना बनाया।''

मंत्रालय के मुताबिक़, ''आतंकवादियों और फ़ख़रीज़ादेह के अंगरक्षकों के बीच हुई झड़प में वो बुरी तरह घायल हो गए और उन्हें स्थानीय अस्पताल ले जाया गया लेकिन दुर्भाग्य से उनको बचाने की मेडिकल टीम की तमाम कोशिशें नाकाम रहीं।''

ईरान की समाचार एजेंसी फ़ारस के अनुसार चश्मदीदों ने पहले धमाके और फिर मशीनगन से फ़ायरिंग की आवाज़ सुनी थी।

एजेंसी के अनुसार चश्मदीदों ने तीन-चार चरमपंथियों के भी मारे जाने की बात कही है।

क्या इस हत्या में इसराइल का हाथ है?

ईरान के विदेश मंत्री जवाद ज़रीफ़ ने ट्वीट कर कहा, ''आतंकवादियों ने आज ईरान के एक प्रमुख वैज्ञानिक की हत्या कर दी है। ये बुज़दिल कार्रवाई, जिसमें इसराइल के हाथ होने के गंभीर संकेत हैं, हत्यारों की जंग करने के इरादे को दर्शाता है।''

ज़रीफ़ ने कहा, ''ईरान अंतरराष्ट्रीय समुदायों, ख़ासकर यूरोपीय संघ से गुज़ारिश करता है कि वो अपने शर्मनाक दोहरे रवैये को ख़त्म करके इस आतंकी कदम की निंदा करें।''

उन्होंने एक अन्य ट्वीट में कहा, ''ईरान एक बार फिर आतंकवाद का शिकार हुआ है। आतंकवादियों ने ईरान के एक महान विद्वान की बर्बरतापूर्वक हत्या कर दी है। हमारे नायकों ने दुनिया और हमारे इलाके में स्थिरता और सुरक्षा के लिए हमेशा आतंकवाद का सामना किया है। ग़लत काम करने वालों की सज़ा अल्लाह का क़ानून है।''

ईरानी सेना के इस्लामिक रेवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (आईआरजीसी) ने कहा है कि ईरान अपने वैज्ञानिक की हत्या का बदला ज़रूर लेगा।

इस्लामिक रेवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स के मेजर जनरल हुसैन सलामी ने कहा, ''परमाणु वैज्ञानिकों की हत्या करके हमें आधुनिक विज्ञान तक पहुँचने से रोकने की स्पष्ट कोशिश की जा रही है।''

मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह कौन थे?

मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह ईरान के सबसे प्रमुख परमाणु वैज्ञानिक थे और आईआरजीसी के वरिष्ठ अधिकारी थे। पश्चिमी देशों के सुरक्षा विशेषज्ञों के अनुसार वो ईरान में बहुत ही ताक़तवर थे और ईरान के परमाणु हथियार कार्यक्रम में उनकी प्रमुख भूमिका थी।

इसराइल ने साल 2018 में कुछ ख़ुफ़िया दस्तावेज़ हासिल करने का दावा किया था जिनके अनुसार मोहसिन ने ही ईरान के परमाणु हथियार कार्यक्रम की शुरुआत की थी।

उस समय नेतन्याहू ने प्रेसवार्ता में मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह को ईरान के परमाणु कार्यक्रम का प्रमुख वैज्ञानिक क़रार देते हए कहा था, ''उस नाम को याद रखें।''

साल 2015 में न्यूयॉर्क टाइम्स ने मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह की तुलना जे रॉबर्ट ओपनहाइमर से की थी। ओपनहाइमर वो वैज्ञानिक थे जिन्होंने मैनहट्टन परियोजना की अगुवाई की थी जिसने दूसरे विश्व युद्ध के दौरान पहला परमाणु बम बनाया था।

इसराइल ने फ़ख़रीज़ादेह की हत्या पर अब तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है।

मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह को निशाना क्यों बनाया गया?

ईरानी रक्षा मंत्रालय में रिसर्च ऐंड इनोवेंशन विभाग के प्रमुख के तौर पर मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह निश्चित तौर पर एक अहम शख़्सियत थे। यही वजह है कि इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू ने दो साल पहले चेतावनी भरे लहजे में कहा था 'उनका नाम याद रखिए'।

जबसे अमेरिका 2015 के ईरान परमाणु समझौते से अलग हुआ है, ईरान तेज़ी से आगे बढ़ा है। ईरान ने कम संवर्धन वाले यूरेनियम का भंडार इकट्ठा किया है और समझौते में तय हुए स्तर से ज़्यादा यूरेनियम का संवर्धन किया है।

ईरानी अधिकारी शुरू से ये कहते आए हैं कि संवर्धित यूरेनियम को नष्ट किया जा सकता है लेकिन शोध और विकास की दिशा में हुए कामों को मिटाना बेहद मुश्किल है।

इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी (आईएईए) में ईरान के पूर्व राजदूत अली असग़र सुत्लानिया ने हाल ही में कहा था, ''हम वापस पीछे नहीं लौट सकते।''

अगर मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह वाक़ई ईरान के परमाणु कार्यक्रम के लिए वाक़ई उतने महत्वपूर्ण थे जितना कि इसराइल अपने आरोपों में बताया आया है, तो उनकी हत्या शायद ये बताती है कि कोई ईरान के आगे बढ़ने की गति पर लगाम लगाने की कोशिश कर रहा है।

अमरीका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडन ने कहा था कि सत्ता में आने के बाद वो ईरान परमाणु समझौते में वापसी करेंगे। मोहसिन फ़ख़रीज़ादेह की हत्या ऐसी किसी संभावना को मुश्किल बनाने की एक कोशिश भी हो सकती है।

अमेरिका-रूस तनाव: रूस की धमकी, जापान सागर में अमेरिकी जहाज़ तबाह कर देंगे

रूस ने कहा है कि उसके समुद्री इलाके में घुसने वाले अमेरिकी जहाज़ को वो तबाह कर देगा।

उसका कहना है कि उसके युद्धपोत ने जापान सागर के उसके इलाक़े में घुस आए अमेरिकी नौसेना के विध्वंसक जहाज़ का पीछा किया।

अमेरिकी नौसेना के इस विध्वंसक जहाज़ का नाम यूएसएस जॉन एस मैकेन है।

यूएसएस जॉन एस मैकेन उसकी समुद्री सीमा के पीटर द ग्रेट गल्फ़ के क्षेत्र में दो किलोमीटर भीतर तक चला आया था।

रूस का कहना है कि उसने इस जहाज़ को नष्ट करने की चेतावनी दी थी जिसके बाद ये जहाज़ उसके इलाक़े से चला गया।

हालाँकि अमेरिकी नौसेना ने किसी तरह की ग़लती करने से इनकार किया है और ये भी कहा है कि उसके जहाज़ को कहीं से जाने के लिए नहीं कहा गया था।

24 नवंबर 2020 को ये घटना जापान सागर में हुई। इस क्षेत्र को पूर्वी सागर के नाम से भी जानते हैं।

रूस के रक्षा मंत्रालय ने बताया कि उसके प्रशांत क्षेत्र के बेड़े के विध्वंसक जहाज़ एडमिरल विनोग्रादोव ने इंटरनेशनल कम्युनिकेशन चैनल के ज़रिये अमेरिकी जहाज़ को चेतावनी दी।

धमकी में ये कहा गया था कि ''उसके समुद्री क्षेत्र में आने वाले घुसपैठिये को बाहर करने के लिए ताक़त का इस्तेमाल किया जा सकता है।''

हालाँकि अमेरिकी नौसेना के सातवें बेड़े के प्रवक्ता लेफ़्टिनेंट जोए केली ने इस दावे के जवाब में कहा कि ''रूस ग़लतबयानी कर रहा है। यूएसएस जॉन एस मैकेन को किसी भी देश ने अपने क्षेत्र से जाने के लिए नहीं कहा था।''

उन्होंने कहा, ''समुद्री सीमाओं को लेकर किए गए अवैध दावों को अमेरिका कभी भी स्वीकार नहीं करेगा जैसा कि इस मामले में रूस ने किया था।''

समुद्र में ऐसी घटनाएं कभी-कभार ही होती हैं। हालाँकि एडमिरल विनोग्रादोव पूर्वी चीन सागर में एक अमेरिकी जहाज से लगभग उलझ ही गया था।

उस वक़्त भी रूस और अमेरिका ने एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाए थे।

दोनों देशों के बीच समुद्र और वायु क्षेत्र में एक-दूसरे से संघर्ष की स्थिति समय-समय पर बनती रहती है।

साल 1988 में तत्कालीन सोवियत संघ के युद्धपोत बेज़्ज़ावेंटी ने अमेरिकी जहाज़ यॉर्कटाउन को ब्लैक सी में टक्कर मार दी थी।

तब भी सोवियत संघ ने अमेरिकी जहाज़ पर उसके समुद्री सीमा में घुसपैठ करने का आरोप लगाया था। रूस और अमेरिका के बीच संबंध उतार-चढ़ाव से गुज़रते रहे हैं।

रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने अभी तक अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडन को उनकी जीत के लिए शुभकामनाएं नहीं दी हैं।

दोनों देशों के बीच परमाणु हथियारों के मुद्दे पर आख़िरी बचे हुए समझौते को अभी तक अंतिम रूपरेखा नहीं दी जा सकी है। इसकी डेडलाइन फरवरी तक है।

न्यू स्टार्ट ट्रीटी पर दोनों देशों ने 2010 में दस्तखत किए थे जिसके तहत दोनों देशों ने ये तय किया था कि वे लंबी दूरी तक मार करने में सक्षम परमाणु हथियारों की संख्या को एक निश्चित सीमा तक कम करेंगे।

साल 2017 में यूएसएस जॉन एस मैकेन की सिंगापुर के पास मुठभेड़ हो गई थी जिसमें दस नाविक मारे गए थे।

पाक-अफगान सम्बन्ध: इमरान ख़ान के काबुल दौरे से पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान को क्या फायदा होगा?

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने 19 नवंबर 2020 को अफ़ग़ानिस्तान का अपना पहला दौरा पूरा कर लिया जहाँ उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी से मुलाक़ात की और ख़ुफ़िया मामलों के तबादले और नज़दीकी सहयोग बढ़ाने के लिए प्रयास तेज़ करने पर सहमति जताई।

पाकिस्तान की सरकारी समाचार सेवा रेडियो पाकिस्तान के मुताबिक इमरान ख़ान और अशरफ़ ग़नी ने काबुल में प्रेस कांफ्रेंस में अफ़ग़ानिस्तान में शांति स्थापित करने के लिए तत्काल क़दम उठाने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराई।

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के पड़ोसी देश अफ़ग़ानिस्तान के दौरे पर विश्लेषकों का कहना है कि दोनों देशों के बीच विश्वास की बहाली और मतभेदों को ख़त्म करने में समय तो लगेगा लेकिन ये दोनों देशों के संबंधों में सुधार के लिए ज़रूरी है।

सरकारी बयान के मुताबिक प्रधानमंत्री इमरान ख़ान, जो पहली बार अफ़ग़ानिस्तान के दौरे पर काबुल गए, ने द्विपक्षीय संबंधों, वैश्विक शांति और क्षेत्रीय विकास की बात कही है।

इस पर पाकिस्तान के कई टिप्पणीकारों का कहना है कि पाकिस्तान ने अपनी तरफ़ से अफ़ग़ानिस्तान में शांति स्थापित करने के लिए बहुत कुछ किया है और अब अफ़ग़ानिस्तान को भी ऐसा ही कुछ करना चाहिए।

विश्लेषक इम्तियाज़ गुल का कहना है कि पाकिस्तान की कोशिशों से ही अमेरिका और तालिबान के बीच दोहा में कामयाब बातचीत होने के बाद शांति समझौते पर हस्ताक्षर हुए।

उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री इमरान ख़ान की तरफ़ से हालिया अफ़ग़ानिस्तान दौरा इसी सिलसिले की एक कड़ी है।

उन्होंने कहा कि पाकिस्तान पहले दिन से ही अफ़ग़ानिस्तान में हिंसा ख़त्म करने का हामी है और प्रधानमंत्री इमरान खान की अफ़गानिस्तान यात्रा से तालिबान को ये संदेश भी दिया गया है कि हिंसा का रास्ता छोड़ दें।

इम्तियाज़ गुल का कहना है कि भरोसे की कमी को एक ही झटके में समाप्त या कम नहीं किया जा सकता है, लेकिन आपसी विश्वास को बहाल करने के लिए दोनों ही पक्षों को क़दम उठाने की ज़रूरत है।

उन्होंने कहा कि पाकिस्तान ने बीते कुछ दिनों में पाक-अफ़ग़ान सीमा पर फंसे हुए हज़ारों कंटेनरों को आगे जाने दिया है। पाकिस्तानी सरकार ने अफ़ग़ानिस्तानी नागरिकों के लिए छह महीने के मल्टीपल वीज़ा की शुरुआत भी की है।

दोनों देशों के बीच व्यापार समझौता करने के लिए भी सात राउंड की वार्ता हो चुकी है।

इम्तियाज़ गुल कहते हैं, ''अफ़ग़ानिस्तान का भारत की ओर ज़्यादा झुकाव  है इसलिए क्षेत्र में स्थिर शांति के लिए सभी देशों को अपना किरदार अदा करना चाहिए।''

19 नवंबर 2020 को प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने कहा है कि हम भरोसा क़ायम करने के लिए अफ़ग़ानिस्तान सरकार की उम्मीदों को पूरा करने में मदद देंगे।

दूसरी तरफ़ अफ़ग़ान राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी ने इमरान ख़ान के दौरे का स्वागत करते इसे भरोसे और सहयोग को बढ़ाने के लिए अहम क़रार दिया है।

वरिष्ठ पत्रकार रहीमुल्लाह यूसुफ़ज़ई का कहना है कि दोनों देशों के बीच बहुत से मामलों में मतभेद हैं और जब तक ये ख़त्म नहीं होंगे तब तक संबंधों में सुधार नहीं होगा।

उन्होंने कहा, ''पाकिस्तान सरकार की तरफ़ से हालिया ये बयान दिया गया कि पाकिस्तान में हिंसा की वारदातों के लिए अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन इस्तेमाल हो रही है, लेकिन अफ़ग़ान सरकार ने इन बयानों का खंडन किया है।''

इससे पहले भी पाकिस्तान भारत पर ये इल्ज़ाम लगाता रहा है कि वो पाकिस्तान में हिंसा की वारदातों के लिए अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन का इस्तेमाल करता है।

अफ़ग़ान सरकार से भी कहा गया है कि वो भारत को अपनी ज़मीन इस्तेमाल करने से रोके। हालांकि भारत और अफ़ग़ानिस्तान दोनों ही आरोपों को खारिज करते रहे हैं।

रहीमुल्लाह यूसुफ़ज़ई कहते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान ने आज तक पाकिस्तान के साथ लगने वाली सीमा को स्वीकार नहीं किया है।

वो कहते हैं, ''अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी और चीफ़ एग्जीक्यूटिव अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह ने भी पाकिस्तान का दौरा किया लेकिन इसके बावजूद दोनों देशों का एक दूसरे पर भरोसा क़ायम नहीं हो सका है।''

उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र में स्थिर शांति और हिंसा के खात्मे के लिए दोनों देशों को अपनी कोशिशों में तेज़ी लानी होगी।

अमेरिका फ़रवरी 2021 तक अपने दो हज़ार फ़ौजी अफ़ग़ानिस्तान से निकाल लेगा और ऐसे हालात में शांति की ख़ातिर दोनों पड़ोसी देशों के बीच नज़दीकी सहयोग ज़रूरी है।

रहीमुल्लाह यूसुफ़ज़ई कहते हैं कि दोनों देशों के बीच कारोबार बढ़ने से पाकिस्तान को ही ज़्यादा फ़ायदा होगा। दोनों देशों के बीच कारोबार जितना ज़्यादा बढ़ेगा, आम नागरिकों को उतना ही फ़ायदा होगा।

उन्होंने कहा कि दोनों देशों के बीच व्यापार से खाद्य कीमतों में कमी आ सकती है जिससे लोगों को थोड़ी राहत मिलेगी।

युसुफ़ज़ई कहते हैं, ''अफ़ग़ानिस्तान वाघा बार्डर के ज़रिए भारत के साथ व्यापार करना चाहता है, लेकिन पाकिस्तान ऐसा करने के लिए तैयार नहीं है।''

आरसीईपी: दुनिया की सबसे बड़ी ट्रेड डील में भारत शामिल क्यों नहीं हुआ?

चीन समेत एशिया-प्रशांत महासागर क्षेत्र के 15 देशों ने 15 नवंबर 2020 को दुनिया की सबसे बड़ी व्यापार संधि पर वियतनाम के हनोई में हस्ताक्षर किये हैं।

जो देश इस व्यापारिक संधि में शामिल हुए हैं, वो वैश्विक अर्थव्यवस्था में क़रीब एक-तिहाई के हिस्सेदार हैं।

'द रीजनल कॉम्प्रीहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप' यानी आरसीईपी में दस दक्षिण-पूर्व एशिया के देश हैं। इनके अलावा दक्षिण कोरिया, चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड भी इसमें शामिल हुए हैं।

इस व्यापारिक-संधि में अमेरिका शामिल नहीं है और चीन इसका नेतृत्व कर रहा है, इस लिहाज़ से अधिकांश आर्थिक विश्लेषक इसे क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव के तौर पर देख रहे हैं।

यह संधि यूरोपीय संघ और अमेरिका-मैक्सिको-कनाडा व्यापार समझौते से भी बड़ी बताई जा रही है।

पहले, ट्रांस-पैसिफ़िक पार्टनरशिप (टीपीपी) नाम की एक व्यापारिक संधि में अमेरिका भी शामिल था, लेकिन 2017 में, राष्ट्रपति बनने के कुछ समय बाद ही, डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका को इस संधि से बाहर ले गये थे।  

तब उस डील में इस क्षेत्र के 12 देश शामिल थे जिसे पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का भी समर्थन प्राप्त था क्योंकि वे उस व्यापारिक संधि को चीनी-वर्चस्व के जवाब के तौर पर देखते थे।

आरसीईपी को लेकर भी बीते आठ वर्षों से सौदेबाज़ी चल रही थी, जिस पर अंतत: 15 नवंबर 2020 को हस्ताक्षर हुए।

इस संधि में शामिल हुए देशों को यह विश्वास है कि कोरोना वायरस महामारी की वजह से बने महामंदी जैसे हालात को सुधारने में इससे मदद मिलेगी।

इस मौक़े पर वियतनाम के प्रधानमंत्री न्यून-शुअन-फ़ूक ने इसे भविष्य की नींव बतलाते हुए कहा, ''आज आरसीईपी समझौते पर हस्ताक्षर हुए, यह गर्व की बात है, यह बहुत बड़ा क़दम है कि आसियान देश इसमें केंद्रीय भूमिका निभा रहे हैं, और सहयोगी मुल्कों के साथ मिलकर उन्होंने एक नए संबंध की स्थापना की है जो भविष्य में और भी मज़बूत होगा। जैसे-जैसे ये मुल्क तरक़्क़ी की तरफ़ बढ़ेंगे, वैसे-वैसे इसका प्रभाव क्षेत्र के सभी देशों पर होगा।''

इस नई व्यापार संधि के मुताबिक़, आरसीईपी अगले बीस सालों के भीतर कई तरह के सामानों पर सीमा-शुल्क ख़त्म करेगा। इसमें बौद्धिक संपदा, दूरसंचार, वित्तीय सेवाएं, ई-कॉमर्स और व्यावसायिक सेवाएं शामिल होंगी।  हालांकि, किसी प्रोडक्ट की उत्पत्ति किस देश में हुई है जैसे नियम कुछ प्रभाव डाल सकते हैं लेकिन जो देश संधि का हिस्सा हैं, उनमें कई देशों के बीच मुक्त-व्यापार को लेकर पहले से ही समझौता मौजूद है।

समझा जाता है कि इस व्यापार संधि के साथ ही क्षेत्र में चीन का प्रभाव और गहरा गया है।  

भारत आरसीईपी में शामिल नहीं

भारत इस संधि का हिस्सा नहीं है। सौदेबाज़ी के समय भारत भी आरसीईपी में शामिल था, मगर पिछले साल ही भारत इससे अलग हो गया था। तब भारत सरकार ने कहा था कि इससे देश में सस्ते चीनी माल की बाढ़ आ जायेगी और भारत में छोटे स्तर पर निर्माण करने वाले व्यापारियों के लिए उस क़ीमत पर सामान दे पाना मुश्किल होगा, जिससे उनकी परेशानियाँ बढ़ेंगी।

लेकिन 15 नवंबर 2020 को इस संधि में शामिल हुए आसियान देशों ने कहा कि 'भारत के लिए दरवाज़े खुले रहेंगे, अगर भविष्य में भारत चाहे तो आरसीईपी में शामिल हो सकता है'।

सवाल उठता है कि इस व्यापार समूह का हिस्सा ना रहने का भारत पर क्या असर पड़ सकता है? इसे समझने के लिए बीबीसी संवाददाता फ़ैसल मोहम्मद अली ने भारत-चीन व्यापार मामलों के जानकार संतोष पाई से बात की।

उन्होंने कहा, ''आरसीईपी में 15 देशों की सदस्यता है। दुनिया का जो निर्माण-उद्योग है, उसमें क़रीब 30 प्रतिशत की हिस्सेदारी इन्हीं देशों की है। ऐसे में भारत के लिए इस तरह के फ़्री-ट्रेड एग्रीमेंट बहुत ही महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि भारत इनके ज़रिये व्यापार की बहुत सी नई संभावनाएं तलाश सकता है।''

''जैसे भारत बहुत से देशों को आमंत्रित कर रहा है अपने यहाँ आकर निर्माण-उद्योग में निवेश करने के लिए, तो उन्हें भी ऐसे एग्रीमेंट आकर्षित करते हैं, पर अगर भारत इसमें ना हो, तो यह सवाल बनता है कि उन्हें भारत आने का बढ़ावा कैसे दिया जायेगा?"

"दूसरी बात ये है कि भारत में उपभोक्ताओं के ख़रीदने की क्षमता बढ़ रही है, पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तुलना करें, तो यह अब भी काफ़ी कम है। अगर किसी विदेशी कंपनी को भारत में आकर निर्माण करना है, तो उसे निर्यात करने का भी काफ़ी ध्यान रखना होगा क्योंकि भारत के घरेलू बाज़ार में ही उसकी खपत हो जाये, यह थोड़ा मुश्किल लगता है।"

एक समय भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के साथ मिलकर चीन पर निर्भरता कम करना चाह रहा था। पर अब वो देश इसमें शामिल हैं और भारत इससे अलग है। इसकी क्या वजह समझी जाये?

इस पर संतोष पाई ने कहा, "भारत 'चीन पर निर्भरता' को कितना कम कर पाता है, यह छह-सात महीने में दिखाई नहीं देगा, बल्कि पाँच साल में जाकर इसका पूरा प्रभाव दिखेगा। तभी सही से पता चलेगा कि भारत ने कितनी गंभीरता से ऐसा किया। बाक़ी जो देश हैं, वो कई सालों से चीन पर अपनी निर्भरता को कम करने के प्रयास करते रहे हैं, और यही वजह है कि ये देश आरसीईपी से बाहर नहीं रहना चाहते क्योंकि उन्हें पता है कि वो इसके अंदर रहकर ही 'चीन पर निर्भरता' बेहतर ढंग से कम कर सकते हैं।''

उन्होंने कहा, "आरसीईपी में चीन के अलावा भी कई मज़बूत देश हैं जिनका कई क्षेत्रों (जैसे इलेक्ट्रॉनिक और ऑटोमोबाइल) में बेहतरीन काम है। पर भारत की यह समस्या है कि भारत पिछले साल तक बहुत कोशिश कर रहा था कि चीनी ट्रेड को ज़्यादा से ज़्यादा कैसे बढ़ाया जाये और चीनी निवेश को कैसे ज़्यादा से ज़्यादा आकर्षित किया जाये?"

''चीन के साथ ट्रेड के मामले में भारत का 100 बिलियन डॉलर का लक्ष्य था। मगर पिछले छह महीने में राजनीतिक कारणों से स्थिति पूरी तरह बदल गई। अब भारत सरकार ने आत्म-निर्भर अभियान शुरू कर दिया है जिसका लक्ष्य है कि चीन के साथ व्यापार कम हो और चीनी निवेश भी सीमित रखा जाये।''

अंत में पाई ने कहा, ''अगर 'आत्म-निर्भर अभियान' को गंभीरता से चलाया गया, तब भी इसका असर आने में सालों लग जायेंगे। इसलिए अभी कुछ भी कह पाना बहुत जल्दबाज़ी होगी।''

शांति समझौता: रूस ने अज़रबैजान-आर्मीनिया के बीच नागोर्नो काराबाख़ पर समझौता करवाया

आर्मीनिया, अज़रबैजान और रूस ने 9 नवंबर 2020 को देर रात नागोर्नो-काराबाख़ के विवादित हिस्से पर सैन्य संघर्ष को समाप्त करने के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किया है।

आर्मीनिया के प्रधानमंत्री निकोल पाशिन्यान ने इस समझौते को 'अपने और अपने देशवासियों के लिए दर्दनाक बताया है'।

छह सप्ताह से अज़रबैजान और जातीय अर्मीनियाई लोगों के बीच जारी इस युद्ध के बाद अब ये समझौता किया गया है।

नागोर्नो-काराबाख़ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अज़रबैजान का हिस्सा है मगर 1994 से नागोर्नो-काराबाख़ पर अर्मीनिया और वहाँ रहने वाले जातीय अर्मीनियाई लोगों का कब्ज़ा है।  

1994 में दोनों देशों के बीच शांति समझौता ना कर युद्ध विराम पर समझौता किया गया था।

27 सितंबर 2020 में फिर से युद्ध शुरू होने के बाद कई संघर्ष विराम समझौते हुए, लेकिन उनमें से सभी विफल रहे हैं।

इस समझौते में क्या है?

9 नवंबर 2020 को देर रात हुए इस समझौते के तहत, अज़रबैजान नागोर्नो-काराबाख़ के उन क्षेत्रों को अपने पास ही रखेगा जो उसने संघर्ष के दौरान अपने कब्ज़े में लिया है।

अगले कुछ हफ़्तों में आस पास के कई इलाकों से आर्मीनिया भी पीछे हटने को तैयार हो गया है।

टेलीविजन के माध्यम से संबोधन में रूसी राष्ट्रपति व्लादमीर पुतिन ने कहा है कि 1960 रूसी शांति सैनिक इलाके में भेजे जा चुके हैं।

अज़रबैजान के राष्ट्रपति इलहाम अलीयेव ने कहा है कि इस शांति स्थापित करने की प्रक्रिया में तुर्की भी भाग लेगा।

इसके अलावा समझौते के मुताबिक़ युद्ध बंदियों को भी एक-दूसरे को सौंपा जाएगा।  

राष्ट्रपति अलीयेव ने कहा कि इस समझौते का ऐतिहासिक महत्व है। जिस पर आर्मीनिया भी ना चाहते हुए ही सही लेकिन राज़ी हो गया है।

वहीं आर्मीनिया के प्रधानमंत्री पाशिन्यान ने कहा है कि ये समझौता हालात को देखते हुए इस इलाके के जानकारों से बात करके और गहन विश्लेषण के बाद लिया गया है।

उन्होंने कहा, ये जीत नहीं है लेकिन जब तक आप अपने आपको हारा हुआ नहीं मान लें तब तक ये हार भी नहीं है।

आर्मीनिया की राजधानी येरेवान में बड़ी संख्या में लोग जुटे हैं और इस समझौते का विरोध कर रहे हैं।

पबजी: क्या मोबाइल गेम पबजी भारतीय प्लेयर्स फिर से खेल पाएंगे?

लोकप्रिय मोबाइल गेम 'पबजी' को बनाने वाली कंपनी पबजी कॉरपोरेशन ने भारत में चीनी कंपनी टेनसेंट गेम्स की फ़्रैंचाइज़ी निलंबित करने का निर्णय लिया है जिसके बाद यह संभावना बनी है कि यह मोबाइल गेम अब एक बार फिर भारतीय यूज़र्स के मोबाइल में लौट आये।

बिज़नेस स्टैंडर्ड अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार, दक्षिण कोरियाई कंपनी पबजी कॉरपोरेशन ने मंगलवार को एक ब्लॉग में लिखा कि ''पबजी खेलने वालों के डेटा की सुरक्षा और उनकी प्राइवेसी को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने जो निर्णय लिया, हम उसका सम्मान करते हैं।''

''कंपनी के लिए भी यह महत्वपूर्ण है कि प्लेयर्स का डेटा पूरी तरह सुरक्षित रहे। इसके लिए कंपनी इस गेम से जुड़ी सारी ज़िम्मेदारी अपने हाथ में ले रही है। साथ ही निकट भविष्य में कंपनी भारतीय प्लेयर्स को बेहतर गेमिंग एक्सपीरियंस मुहैया कराने पर काम करेगी।''

अख़बार की रिपोर्ट के मुताबिक़, इस निर्णय के बाद भारत में पबजी गेम को संचालित करने का क़ानूनी हक़ चीनी कंपनी टेनसेंट गेम्स के पास नहीं रह जायेगा जिसके पास इस गेम के मोबाइल वर्जन की ग्लोबल फ़्रैंचाइज़ी है।

अब इस ऐप को बनाने वाली दक्षिण कोरिया कंपनी पबजी कॉरपोरेशन ही भारत में पबजी मोबाइल की पब्लिशर कंपनी होगी।

पिछले सप्ताह ही भारत सरकार ने डेटा सुरक्षा और प्राइवेसी को आधार बताते हुए पबजी समेत 118 चीनी मोबाइल ऐप्स पर बैन लगा दिया था।

अख़बार ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि चीनी कंपनी टेनसेंट की ब्लूहोल स्टूडियो नाम की कंपनी में क़रीब 10 फ़ीसद की हिस्सेदारी है और ब्लूहोल स्टूडियो दक्षिण कोरिया के सिओल शहर में स्थित पबजी कॉरपोरेशन की पैरेंट कंपनी है।

कंपनी के अनुसार, दुनिया भर में 600 मिलियन से ज़्यादा लोगों ने पबजी डाउनलोड किया है और 50 मिलियन से ज़्यादा लोग इसके ऐक्टिव प्लेयर हैं। कंपनी के लिए भारत एक महत्वपूर्ण बाज़ार है क्योंकि भारत में क़रीब 33 मिलियन लोग इस गेम को खेलते रहे हैं।

अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार, इस बदलाव के बाद दक्षिण कोरियाई कंपनी पबजी कॉरपोरेशन की यह दलील तो मज़बूत हुई है कि 'इस गेम का अब चीनी कंपनी से कोई वास्ता नहीं', लेकिन जानकारों की राय है कि इस निर्णय के बाद भी पबजी की राह पूरी तरह आसान नहीं हो जाएगी क्योंकि पबजी कॉरपोरेशन को पहले भारत सरकार को संतुष्ट करना होगा कि टेनसेंट गेम्स से संबंधित उनके इस निर्णय से फ़र्क क्या पड़ने वाला है।

भारत-चीन संघर्ष: अरुणाचल प्रदेश भारत का नहीं, हमारा हिस्सा - चीन

भारत के अरुणाचल प्रदेश में बॉर्डर से चीन की सेना द्वारा पांच भारतीयों के कथित अपहरण करने के मामले में भारत के केंद्रीय राज्य मंत्री किरेन रिजिजू के सवाल का जवाब देते हुए चीन ने कड़ा जवाब दिया है। चीन ने कहा है कि वह अरुणाचल प्रदेश को भारत का हिस्सा नहीं मानता बल्कि यह चीन के दक्षिणी तिब्बत का इलाका है।

चीन के सरकारी अख़बार ग्लोबल टाइम्स के मुताबिक़ चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता चाओ लिजिएंग ने कहा, ''चीन ने कभी 'कथित' अरुणाचल प्रदेश को मान्यता नहीं दी, ये चीन के दक्षिणी तिब्बत का इलाका है। हमारे पास भारतीय सेना की ओर से इस इलाके से पांच लापता भारतीयों को लेकर सवाल आया है लेकिन अभी हमारे पास इसे लेकर कोई जानकारी नहीं है।''

भारतीय सेना ने अरुणाचल प्रदेश के ऊपरी सुबनसिरी ज़िले से पांच लोगों के 'पीपुल्स लिबरेशन आर्मी' (पीएलए) के सैनिकों द्वारा कथित तौर पर अपहरण किए जाने के मुद्दे को चीनी सेना के समक्ष उठाया था।

रविवार की रात एक ट्विट के जरिए केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने इसकी जानकारी देते हुए लिखा था कि भारतीय सेना चीन के जवाब का इंतज़ार कर रही है। उन्होंने लिखा, ''भारतीय सेना ने पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी समकक्ष को संदेश भेजा है, जवाब का इंतज़ार किया जा रहा है।''

दरअसल, रिजिजू ने एक पत्रकार के ट्वीट के जवाब में ये बात लिखी थी। एक पत्रकार ने ट्वीट के ज़रिए पूछा था, ''पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी द्वारा अरुणाचल प्रदेश से पांच भारतीयों के कथित अपहरण को लेकर क्या अपडेट है? क्या विदेश मंत्रालय, किरेन रिजिजू, प्रेमा खांडू इस पर कोई अपडेट साझा करेंगे?''

इस साल जून में लद्दाख सीमा पर भारत और चीन के बीच हुई झड़प में 20 भारतीय जवानों की मौत हुई और इसके बाद से ही दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है।

भारतीय सेना के एक रिटायर्ड जनरल ने नाम ना छापने की शर्त पर बीबीसी से बात करते हुए कहा, ''चीन का अरुणाचल प्रदेश को लेकर ये रूख़ बिल्कुल भी नया नहीं है। इससे पहले भी चीन अरुणाचल प्रदेश को अपना हिस्सा मानता रहा है। चीन ने पहले ही साफ़ किया है कि वह मैकमोहन रेखा को नहीं मानता। यही वजह है कि तिब्बती धर्म गुरु दलाई लामा के भारत में रिफ्यूजी बनकर रहने पर चीन हमेशा नकारात्मक रहा है।''

''आम तौर पर भारत चीन-भारत सीमा के लगभग 70-80 किलोमीटर पीछे बेस कैंप रखता था लेकिन 1986-87 के दौर से भारतीय सेना सीमा से ये दूरी कम करते हुए अपने हिस्से में ही आगे बढ़ा। हालांकि चीन ने उस वक़्त कड़ी आपत्ति नहीं जताई क्योंकि उस समय भारत-चीन की विकास दर यानी जीडीपी लगभग समान थी लेकिन 2008 में जब भारत अमरीका के क़रीब आया और दोनों देशों के बीच परमाणु संधि हुई तो चीन को बात यकीनन खटकी। अब हालिया समय में भारत की ओर से सीमावर्ती इलाकों में निर्माण कार्य में तेज़ी आई है और यही वजह है कि चीन बॉर्डर को लेकर तनाव पैदा कर रहा है।''

29 अगस्त की रात भी हुई थी झड़प

इससे पहले 29-30 अगस्त की रात भारतीय सेना के मुताबिक़ दोनों देशों के सैनिकों के बीच झड़प हुई थी। इसमें किसी के घायल होने की अब तक कोई सूचना नहीं मिली। भारतीय सेना ने बयान जारी कर कहा था कि चीनी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी यानी पीएलए ने सीमा पर यथास्थिति बदलने की कोशिश की लेकिन सतर्क भारतीय सैनिकों ने ऐसा नहीं होने दिया।

इस बयान के मुताबिक़, ''भारतीय सैनिकों ने पैंगॉन्ग त्सो लेक में चीनी सैनिकों के उकसाने वाले क़दम को रोक दिया है। भारतीय सेना बातचीत के ज़रिए शांति बहाल करने की पक्षधर है लेकिन इसके साथ ही अपने इलाक़े की अखंडता की सुरक्षा के लिए भी प्रतिबद्ध है। पूरे विवाद पर ब्रिगेड कमांडर स्तर पर बैठक जारी है।''

हालाँकि चीन ने अपने सैनिकों के एलएसी को पार करने की ख़बरों का खंडन किया।

चीन के विदेश मंत्रालय ने कहा कि चीन की सेना वास्तविक नियंत्रण रेखा का सख़्ती से पालन करती है और चीन की सेना ने कभी भी इस रेखा को पार नहीं किया है। दोनों देशों की सेना इस मुद्दे पर संपर्क में हैं।

दूसरी तरफ़ चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने कहा है, ''भारत-चीन सीमा पर स्थिरता बनाए रखने के लिए चीन प्रतिबद्ध है। स्थिति को तनावपूर्ण बनाने या उकसाने के लिए चीन कभी भी पहल नहीं करेगा।''

उन्होंने फ्रेंच इंस्ट्टीयूट ऑफ इंटरनेशनल रिलेशन में भाषण देते हुए कहा, ''दोनों देशों के बीच अभी तक सीमा तय नहीं की गई है, इसलिए समस्याएँ हैं। चीन अपनी संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता को मज़बूती से बनाए रखेगा, और भारतीय पक्ष के साथ बातचीत के माध्यम से सभी प्रकार के मुद्दों का हल निकालने के लिए तैयार है।''

उन्होंने ये भी कहा कि चीन 'गुड नेबरहुड' की नीति पर विश्वास रखता है, और अपने पड़ोसियों के साथ दोस्ताना और स्थिर संबंध चाहता है।

भारत और चीन के बीच 3,500 किलोमीटर लंबी सरहद है और दोनों देश सीमा की वर्तमान स्थिति पर सहमत नहीं हैं। इसे लेकर दोनों देशों में 1962 में जंग भी हो चुकी है।

अमेरिका-ईरान तनाव: क्या ईरान परमाणु हथियार बनाने की तैयारी कर रहा है?

संयुक्त राष्ट्र की परमाणु निगरानी एजेंसी ने कहा है कि अंतरराष्ट्रीय परमाणु समझौते के तहत ईरान जितना संवर्धित यूरेनियम रख सकता है, उसने उससे 10 गुना से भी अधिक यूरेनियम इकट्ठा कर लिया है।

इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी (IAEA) ने कहा है कि ईरान के पास एनरिच किये गए यूरेनियम का भंडार अब 2,105 किलो हो गया है, जबकि 2015 के समझौते के तहत यह 300 किलोग्राम से अधिक नहीं हो सकता था।

ईरान ने बीते साल जुलाई में कहा था कि उसने यूरेनियम संवर्धन के लिए नए और उन्नत तकनीक वाले सेंट्रीफ़्यूज उपकरणों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है।

सेंट्रीफ़्यूज का इस्तेमाल यूरेनियम के रासायनिक कणों को एक-दूसरे से अलग करने के लिए किया जाता है।

ईरान में दो जगहों- नतांज़ और फ़ोर्दो में यूरेनियम का संवर्धन किया जाता है।

संवर्धन के बाद इसका उपयोग परमाणु ऊर्जा या फिर परमाणु हथियारों को विकसित करने के लिए भी किया जा सकता है।

ईरान लंबे वक़्त से इस बात पर ज़ोर देता है कि उसका परमाणु कार्यक्रम सिर्फ़ शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए है।

ईरान ने आईएईए के पर्यवेक्षकों को अपने दो पूर्व संदिग्ध परमाणु ठिकानों में से एक की जाँच करने की इजाज़त दी थी।

अब एजेंसी ने कहा है कि वह इसी महीने दूसरे ठिकाने से भी सैंपल लेगी।

पिछले साल ईरान ने जानबूझकर और खुलकर 2015 में हुए परमाणु समझौते के वादों का उल्लंघन शुरू कर दिया था।

इस परमाणु समझौते पर ईरान के साथ अमरीका, ब्रिटेन, रूस, जर्मनी, फ़्रांस और चीन ने भी दस्तख़त किये थे।

ईरान ने 2019 में अनुमति से अधिक यूरेनियम का संवर्धन शुरू कर दिया था। हालांकि, यह परमाणु हथियार बनाने के लिए ज़रूरी स्तर से काफ़ी कम था।

क्या इससे परमाणु हथियार बना सकता है ईरान?

परमाणु हथियार बनाने के लिए ईरान को 3.67 प्रतिशत संवर्धित 1,050 किलो यूरेनियम की ज़रूरत होगी। मगर अमरीका के एक समूह 'आर्म्स कंट्रोल एसोसिएशन' का कहना है कि बाद में इसे 90 प्रतिशत और संवर्धित किया जाना होगा।

कम संवर्धित तीन से पाँच प्रतिशत घनत्व वाले यूरेनियम के आइसोटोप U-235 को ईंधन की तरह इस्तेमाल करके बिजली बनाई जा सकती है।

हथियार बनाने के लिए जो यूरेनियम इस्तेमाल होता है वह 90 प्रतिशत या इससे अधिक संवर्धित होता है।

विशेषज्ञों का कहना है कि अगर ईरान चाहे भी, तो भी उसे एनरिचमेंट की प्रक्रिया पूरी करने में लंबा समय लगेगा।

पिछले सप्ताह ईरान ने कहा था कि उसने 'सद्भाव' में हथियार पर्यवेक्षकों को अपने ठिकानों की जाँच करने दी है, ताकि परमाणु सुरक्षा से जुड़े मसलों का समाधान किया जा सके।

आईएईए ने इस बात को लेकर ईरान की आलोचना की थी कि वह दो ठिकानों की जाँच की अनुमति नहीं दे रहा और गोपनीय ढंग से रखी गई परमाणु सामग्री और इससे जुड़ी गतिविधियों को लेकर सवालों के जवाब नहीं दे रहा।

अब इस अंतरराष्ट्रीय निगरानी एजेंसी ने एक बयान जारी करके कहा है कि ''ईरान ने एजेंसी के पर्यवेक्षकों को सैंपल लेने दिये हैं। इन नमूनों की एजेंसी के नेटवर्क की प्रयोगशालाओं में जाँच होगी।''

ईरान ने पिछले साल अंतरराष्ट्रीय परमाणु समझौते की शर्तों का पालन करना बंद कर दिया था। उसने यह क़दम अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ओर से इस समझौते से हटने का एलान करने के बाद उठाया था।

भारत-चीन तनाव: चीन में बने पबजी समेत 118 और मोबाइल ऐप्स को भारत ने बैन किया

भारत सरकार ने चीन में विकसित 118 मोबाइल ऐप्स को बैन कर दिया है जिनमें गेमिंग ऐप पबजी भी शामिल है।

इलेक्ट्रॉनिक्स और इन्फ़ॉर्मेशन टेक्नोलॉजी मंत्रालय की ओर से जारी एक बयान में कहा गया है कि इन ऐप्स को इसलिए बैन किया गया है, क्योंकि वे भारत की संप्रभुता और अखंडता, देश की रक्षा और लोक व्यवस्था के विरूद्ध गतिविधियों में लिप्त थे।

मंत्रालय की ओर से जारी बयान में कहा गया, ''इस क़दम से भारत के करोड़ों मोबाइल और इंटरनेट यूज़र्स के हितों की रक्षा होगी। ये फ़ैसला भारत के साइबर स्पेस की सुरक्षा और संप्रभुता को सुनिश्चित करने के इरादे से लिया गया है।''

बयान के अनुसार भारत सरकार को इन ऐप्स के बारे में विभिन्न स्रोतों से शिकायतें मिल रही थीं, जिनमें ऐसी रिपोर्टें भी थीं कि एंड्रॉयड और आइओएस पर उपलब्ध कुछ मोबाइल ऐप्स से यूज़र्स के डेटा अनाधिकृत तौर पर चोरी कर भारत से बाहर स्थित सर्वर में भेजे जा रहे थे।

चीन के 118 ऐप्स को बैन करने का फ़ैसला ऐसे समय लिया गया है जब भारत और चीन के बीच एक बार फिर से लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा या एलएसी पर दोनों देशों के बीच तनाव की ख़बरें आ रही हैं।

भारत सरकार ने इससे पहले जून में भी चीन से जुड़े 59 ऐप्स को बैन किया था। इनमें टिकटॉक भी शामिल था।

पिछली बार 59 चीनी ऐप्स को बैन करने का फ़ैसला गलवान घाटी में 15 जुलाई को भारत-चीन के सैनिकों के बीच हुई हिंसक झड़प के कुछ दिनों बाद लिया गया था।

भारत-चीन तनाव: चीन ने भारत से तनाव के बीच तिब्बत को लेकर अहम घोषणा की

भारत से सरहद पर तनाव के बीच चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने एक 'नए आधुनिक समाजवादी तिब्बत' के निर्माण की कोशिश करने का आह्वान किया है।

इससे पहले चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने तिब्बत का दौरा किया था और भारत से लगी सीमा पर निर्माण कार्यों का जायज़ा लिया था।

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव और चीन के सेंट्रल मिलिटरी कमिशन के चेयरमैन शी जिनपिंग ने बीजिंग में तिब्बत को लेकर हुई एक उच्च स्तरीय बैठक में यह टिप्पणी की।

उन्होंने कहा कि चीन को तिब्बत में स्थिरता बनाए रखने और राष्ट्रीय एकता की रक्षा करने के लिए और कोशिशें करने की ज़रूरत है।

चीन ने 1950 में तिब्बत पर अपना नियंत्रण स्थापित किया था।

निर्वासित आध्यात्मिक नेता दलाई लामा के साथ खड़े होने वाले आलोचकों का कहना है कि 'चीन ने तिब्बत के लोगों और वहाँ की संस्कृति के साथ बुरा किया'।

तिब्बत के भविष्य के शासन पर कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ सदस्यों की इस बैठक में शी जिनपिंग ने उपलब्धियों की प्रशंसा की और फ्रंटलाइन पर काम कर रहे अधिकारियों की भी तारीफ़ की, लेकिन उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र में एकता को बढ़ाने, उसे फिर से जीवंत और मज़बूत करने के लिए और प्रयासों की आवश्यकता है।

चीन की सरकारी समाचार एजेंसी शिन्हुआ के अनुसार, शी जिनपिंग ने बैठक में कहा कि 'तिब्बत के स्कूलों में राजनीतिक और वैचारिक शिक्षा पर और ज़ोर दिए जाने की ज़रूरत है ताकि वहाँ हर युवा के दिल में चीन के लिए प्यार का बीज बोया जा सके'।

शी जिनपिंग ने कहा कि तिब्बत में कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका को मज़बूत करने और जातीय समूहों को बेहतर ढंग से एकीकृत करने की आवश्यकता है।

इसी संदर्भ में उन्होंने कहा कि ''हमें एकजुट, समृद्ध, सभ्य, सामंजस्यपूर्ण और सुंदर, आधुनिक, समाजवादी तिब्बत बनाने का संकल्प लेना होगा।''

उन्होंने कहा कि 'तिब्बती बौद्ध धर्म को भी समाजवाद और चीनी परिस्थितियों के अनुकूल बनाए जाने की ज़रूरत है'।

लेकिन आलोचकों का कहना है कि 'अगर चीन से तिब्बत को वाक़ई इतना फ़ायदा हुआ होता, जितना शी जिनपिंग ने बैठक में दावा किया, तो चीन को अलगाववाद का डर नहीं होता और ना ही चीन तिब्बत के लोगों में शिक्षा के ज़रिए 'नई राजनीतिक चेतना' भरने की बात करता'।

अमरीका और चीन तनाव के बीच भी तिब्बत को लेकर बात उठी थी।

जुलाई में, अमरीकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पिओ ने कहा था कि अमरीका तिब्बत में 'राजनयिक पहुँच को रोकने और मानवाधिकारों के हनन में लिप्त' कुछ चीनी अधिकारियों के वीज़ा को प्रतिबंधित करेगा।

उन्होंने यह भी कहा कि अमरीका तिब्बत की 'सार्थक स्वायत्तता' का समर्थन करता है।

चीन के कब्ज़े में तिब्बत कब और कैसे आया?

मुख्यतः बौद्ध धर्म को मानने वाले लोगों के इस सुदूर इलाक़े को 'संसार की छत' के नाम से भी जाना जाता है। चीन में तिब्बत का दर्जा एक स्वायत्तशासी क्षेत्र के तौर पर है।

चीन का कहना है कि इस इलाके पर सदियों से उसकी संप्रभुता रही है, जबकि बहुत से तिब्बती लोग अपनी वफ़ादारी अपने निर्वासित आध्यात्मिक नेता दलाई लामा के प्रति रखते हैं।

दलाई लामा को उनके अनुयायी एक जीवित ईश्वर के तौर पर देखते हैं तो चीन उन्हें एक अलगाववादी ख़तरा मानता है।

तिब्बत का इतिहास बेहद उथल-पुथल भरा रहा है। कभी वो एक खुदमुख़्तार इलाक़े के तौर पर रहा, तो कभी मंगोलिया और चीन के ताक़तवर राजवंशों ने उस पर हुकूमत की।

लेकिन साल 1950 में चीन ने इस इलाके पर अपना झंडा लहराने के लिए हज़ारों की संख्या में सैनिक भेज दिए। तिब्बत के कुछ इलाक़ों को स्वायत्तशासी क्षेत्र में बदल दिया गया और बाक़ी इलाक़ों को इससे लगने वाले चीनी प्रांतों में मिला दिया गया।

लेकिन साल 1959 में चीन के ख़िलाफ़ हुए एक नाकाम विद्रोह के बाद 14वें दलाई लामा को तिब्बत छोड़कर भारत में शरण लेनी पड़ी, जहाँ उन्होंने निर्वासित सरकार का गठन किया।

साठ और सत्तर के दशक में चीन की सांस्कृतिक क्रांति के दौरान तिब्बत के ज़्यादातर बौद्ध विहारों को नष्ट कर दिया गया। माना जाता है कि दमन और सैनिक शासन के दौरान हज़ारों तिब्बतियों की जाने गई थीं।

चीन तिब्बत विवाद कब शुरू हुआ?

चीन और तिब्बत के बीच विवाद, तिब्बत की क़ानूनी स्थिति को लेकर है।

चीन कहता है कि तिब्बत तेरहवीं शताब्दी के मध्य से चीन का हिस्सा रहा है लेकिन तिब्बतियों का कहना है कि तिब्बत कई शताब्दियों तक एक स्वतन्त्र राज्य था और चीन का उस पर निरंतर अधिकार नहीं रहा।

मंगोल राजा कुबलई ख़ान ने युआन राजवंश की स्थापना की थी और तिब्बत ही नहीं बल्कि चीन, वियतनाम और कोरिया तक अपने राज्य का विस्तार किया था।

फिर सत्रहवीं शताब्दी में चीन के चिंग राजवंश के तिब्बत के साथ संबंध बने।

260 साल के रिश्तों के बाद चिंग सेना ने तिब्बत पर अधिकार कर लिया, लेकिन तीन साल के भीतर ही उसे तिब्बतियों ने खदेड़ दिया और 1912 में तेरहवें दलाई लामा ने तिब्बत की स्वतन्त्रता की घोषणा की।

फिर 1951 में चीनी सेना ने एक बार फिर तिब्बत पर नियन्त्रण कर लिया और तिब्बत के एक शिष्टमंडल से एक संधि पर हस्ताक्षर करा लिए जिसके अधीन तिब्बत की प्रभुसत्ता चीन को सौंप दी गई।

दलाई लामा भारत भाग आये और तभी से वे तिब्बत की स्वायत्तता के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

जब चीन ने तिब्बत पर क़ब्ज़ा किया तो उसे बाहरी दुनिया से बिल्कुल काट दिया। इसके बाद तिब्बत के चीनीकरण का काम शुरू हुआ और तिब्बत की भाषा, संस्कृति, धर्म और परम्परा - सबको निशाना बनाया गया।

क्या तिब्बत चीन का हिस्सा है?

चीन-तिब्बत संबंधों से जुड़े कई सवाल हैं जो लोगों के मन में अक्सर आते हैं। जैसे कि क्या तिब्बत चीन का हिस्सा है? चीन के नियंत्रण में आने से पहले तिब्बत कैसा था? और इसके बाद क्या बदल गया?

तिब्बत की निर्वासित सरकार का कहना है, ''इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि इतिहास के अलग-अलग कालखंडों में तिब्बत विभिन्न विदेशी शक्तियों के प्रभाव में रहा। मंगोलों, नेपाल के गोरखाओं, चीन के मंचू राजवंश और भारत पर राज करने वाले ब्रितानी शासक, सभी की तिब्बत के इतिहास में कुछ भूमिकाएं रही हैं। लेकिन इतिहास के दूसरे कालखंडों में वो तिब्बत था जिसने अपने पड़ोसियों पर ताक़त और प्रभाव का इस्तेमाल किया और इन पड़ोसियों में चीन भी शामिल था।''

''दुनिया में आज कोई ऐसा देश खोजना मुश्किल है, जिस पर इतिहास के किसी दौर में किसी विदेशी ताक़त का प्रभाव या अधिपत्य ना रहा हो। तिब्बत के मामले में विदेशी प्रभाव या दखलंदाज़ी तुलनात्मक रूप से बहुत ही सीमित समय के लिए रही थी।''

लेकिन चीन का कहना है कि ''सात सौ साल से भी ज़्यादा समय से तिब्बत पर चीन की संप्रभुता रही है और तिब्बत कभी भी एक स्वतंत्र देश नहीं रहा। दुनिया के किसी भी देश ने कभी भी तिब्बत को एक स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता नहीं दी।''

जब भारत ने तिब्बत को चीन का हिस्सा माना

साल 2003 के जून महीने में भारत ने ये आधिकारिक रूप से मान लिया था कि तिब्बत चीन का हिस्सा है।

चीन के राष्ट्रपति जियांग जेमिन के साथ भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की मुलाक़ात के बाद भारत ने पहली बार तिब्बत को चीन का अंग माना।

उस समय भारत में बीजेपी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार थी और तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी बीजेपी के नेता थे। इससे साफ जाहिर होता है कि अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते बीजेपी और भारत की निकटता चीन के साथ बढ़नी शुरू हो गई। यह भारत के विदेश नीति में आमूल चूल बदलाव दिखता है। इससे पहले कांग्रेस पार्टी की सरकार ने कभी ऐसी गलती नहीं की। कांग्रेस ने तिब्बत पर चीन के कब्जे को कभी मान्यता नहीं दी और तिब्बत को हमेशा आज़ाद मुल्क माना।

हालांकि तब ये कहा गया था कि ये मान्यता परोक्ष ही है, लेकिन दोनों देशों के बीच रिश्तों में इसे एक महत्वपूर्ण क़दम के तौर पर देखा गया था।

वाजपेयी-जियांग जेमिन की वार्ता के बाद चीन ने भी भारत के साथ सिक्किम के रास्ते व्यापार करने की शर्त मान ली थी। तब इस क़दम को यूँ देखा गया कि चीन ने भी सिक्किम को भारत के हिस्से के रूप में स्वीकार कर लिया है।

भारतीय अधिकारियों ने उस वक़्त ये कहा था कि भारत ने पूरे तिब्बत को मान्यता नहीं दी है जो कि चीन का एक बड़ा हिस्सा है, बल्कि भारत ने उस हिस्से को ही मान्यता दी है जिसे स्वायत्त तिब्बत क्षेत्र माना जाता है।